बुधवार, 13 दिसंबर 2006

आत्मा ही मर चुकी है

पिछले दिनों मेरे दोस्त बसंत आर्य ने मुझे बहुत कुरेदा . बल्कि कुरेद कुरेद कर घायल कर दिया. मैं तो लंबी तान कर सोया हुआ था. उन्होंने सोंटा मार मार कर जगाया और बोले- भइये, सारी दुनिया ब्लागमय हो गयी है. सब कुछ ब्लाग से निकल रहा है और ब्लाग में ही विलीन हो जा रहा है. आप कर क्या रहे हैं? दो चार दफा उनके ब्लाग ठहाका पर सैर की तो फिर फैसला करना ही पडा कि अब इस चिट्ठा मुहल्ले में हम भी अपना एक ठेला जरूर लगायेंगे. अब ठेला ले कर आ तो गये हैं . सोंचा पहला माल भी दोस्त का ही होना चाहिए. आजादी की साठवीं वर्षगाँठ मनाने वाले हैं. साठ वर्ष में आदमी सठियाने लगता है. पता नहीं देश के साथ क्या होता है. देश के नेताओं के बारे में बसंत आर्य की एक कविता मुलाहजा फरमाइए.

सफेदी का राज

बेटा बोला - पिताजी

जो लोग खुद को

राज नेता कहते हैं

हमेशा

सफेद खादी ही क्यों पहनते हैं ?

क्यों नहीं पहनते कलरफुल ड्रेस

जो देखने में लगे फाइन

क्या इन्हे नहीं भाते

अच्छे अच्छे फैशनेवल डिजाइन ?

बाप बोला - बेटे

बात तो तुमने सच्ची कही है

पर सच में ये आदमी ही नहीं है

ये तो जनता के सीने में चुभे हुए

कटार और भाले हैं

जो मन के बडे कुरूप और काले हैं

इसीलिए सफेद कपडे पहन कर

खुद को भरमाते है

हमको बहलाते है

और असल में इनकी तो

आत्मा ही मर चुकी है

ये जिन्दा कहाँ हैं

ये तो चलते फिरते मुरदे हैं

इसीलिए तो हर कोई इन्हें देख कर

गमगीन होता है

फिर तू ही बोल बेटे

मुरदे का कफन भी क्या रंगीन होता है ?
 
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