रविवार, 26 अगस्त 2007

जब दिल हो जवान तो ससुरी उम्र का बीच में क्या काम.............?

कौन कहता है , कि अब नहीं रही लखनवी नफ़ासत । अवध से भले ही चली गयी है नवाबों की नवाबी , मगर यहाँ के ज़र्रे - ज़र्रे में वही हाजिर- जवाबी , वही अदब, वही नजाकत , वही तमद्दुन ,वही जुस्तजू , वही तहजीब .....सब कुछ तो वही है जनाब, सिर्फ देखने का नजरिया बदल गया है। लोग कहते हैं कि एक नवाब हुये थे अवध में , नाम था वाजिद अली शाह। अँग्रेज़ों ने महल को चारों तरफ से घेर लिया। नवाब साहब के पास वक़्त था कि वह बच कर निकल सकते थे , ठहरे नवाब , कोई जूता पहनाने वाला नही था , सो वो गिरफ्तार हो गए।
भाई नवाबी तो चली गयी , लेकिन नहीं गया इस शहर के मिज़ाज से नवाबी शायरी का जुनून । शाम ढलते ही सुनाई देने लगेगी आवाज़ – अमा यार , अर्ज़ किया है , क्या खूब कहा जनाब , वाह -वाह , क्या बात है, इरशाद ....... आदि-आदि ।सभी नवाबी शायर एक से बढ़ कर एक , कोई किसी से कम नहीं, बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां शुभानाल्लाह, उसी प्रकार जैसेराजस्थान में एक कहावत है , कि अंधों बाँटे रेबडी लाड़े पाडो खाए ।
ऐसे ही एक नवाबी शायर हमारे भी मोहल्ले में हैं , नाम है मुंहफट लखनवी । कुछ लोग महाकवि दिलफेंक तो कुछ लोग हंसमुख भाई कह कर पुकारते हैं । बहुत बड़े शायर , ऐसे शायर जिनकी अमूमन हर बसंत पंचमी को एक किताब उनके खुद के कर कमलों से ज़रूर प्रकाशित होती है । उसके कवि, आलोचक, प्रकाशक, विमोचक वे खुद होते हैं। कभी रेडियो, टेलीविज़न पर शायरी नहीं की और ना कभी अखबारों में भेजने का दुस्साहस ही किया । कहते हैं मुंहफट साहब - जनाब, ऐसा करने से एक बड़े शायर की तौहीन होती है । हम छोटे-मोटे शायर थोड़े ही हैं , जो मग्ज़ीन में छपने जाएँ ।
हमारे मुंहफट साहब की उम्र होगी तकरीबन साठ साल, मगर जवानी वही कि जिसे देखकर मचल जाये युवतियों का मन सावन में अचानक। आप माने या न माने , मगर यह सौ फ़ीसदी सच है जनाब कि हमारे मोहल्ले कि शान हैं मुंहफट साहब , कुछ लोग कहते है इस शहर की नायाब चीजों में से एक हैं हमारे महाकवि । इस मोहल्ले में आकर जिसने भी महाकवि के दर्शन नहीं किये , उनकी नवरस के रसास्वादन नहीं किये तो समझो जीवन सफल नही हुआ।
मैं भी नया-नया आया था लखनऊ शहर में, मेरे एक पड़ोसी मित्र ने बताया कि एक बहुत बड़े शायर रहते हैं मोहल्ले में। मेरी जिज्ञासा बढ़ी कि चलो किसी सन्डे को कर आते हैं दर्शन महाकवि के । सो एक दिन डरते-डरते मैं पहुंचा महाकवि के घर , दरवाजा खटखटाया तो हमारे सामने सफ़ेद पायजामा और सफ़ेद कुरता में एक जिन की मानिंद प्रकट हुये महाकवि , पान कुछ मुँह में तो कुछ कुरते के ऊपर , सफेदी के ऊपर पान का पिक कुछ इस तरह फैला था कि जैसे चांदी कि थाली में गोबर । पान गालों में दबाये थूक के चिन्टें उड़ाते हुये उन्होने कहा - जी आप पड़ोस में नए-नए आये हैं ? मैंने कहा जी , मैंने आपके बारे में सब कुछ पता कर लिया है आप भी लिखने-पढने के शौकीन हैं । मैंने कहा जी। फिर क्या था शुरू हो गए महाकवि , कहा- अम्मा यार आईये - आईये , शर्माईये मत , अपना ही घर है तशरीफ़ रखिये । जी शुक्रिया, कह कर मैं बैठ गया .फिर वे लखनवी अंदाज़ में फरमाये , कहिये कैसे आना हुआ ? मैंने कहा कि मैं अपनी पत्रिका के लिए आपका इंटरव्यू लेने आया हूँ । यह सब उपरवाले की महर्वानी है , आज पहली वार हीरे की क़दर जौहरी ने जानी है , यह तो हमारी खुशकिस्मती है जनाब , फरमायें ....../
जी आपका नाम मुंहफट क्यों पड़ा ?
बात दरअसल यह है जनाब, कि जब मैं पैदा हुआ तो मेरी फटी हुई आवाज़ मेरे वालिद साहब को अच्छी लगती थी । जब थोड़ा बड़ा हुआ तो शेरो शायरी करने लगा , हमारे मुँह में कोई बात रूकती ही नहीं थी सो लोग मुझे मुंहफट कह कर पुकारने लगे।
आपने हर विषय पर पुस्तकें लिखी हैं कैसे किया यह सब ?
दिमाग से ।
वो तो सभी करते हैं , आपने कुछ अलग हट कर नहीं किया क्या ?
किया न , चार किताबों को मिलाकर एक किताब बना लिया और छपवा लिया , है न दिमाग का काम ? इसका मतलब यही हुआ कि आपकी शायरी में मौलिकता नहीं है ?
आज तक किसी ने पकड़ा क्या ?
शायद नहीं ।
तो फिर मौलिक है, चक्कर खा गए न पत्रकार साहब?
अभी आपकी कौन सी किताब आने वाली है ?
जवाँ मर्दी के नुसख़े।
यह तो साहित्यिक किताब नहीं लगती ?
लगेगी भी कैसे? मेरी आत्मकथा है जनाब।
मगर आपकी जवां मर्दी दिखती नहीं है?
सठिया गए हैं क्या पत्रकार साहब ? कौन कहता है कि मैं जवां मर्द नहीं हूँ? अरे साहब हमारे उम्र पर मत जाइये, शरीर का मोटापा अपनी जगह है और मर्दानगी अपनी जगह ,जब दिल हो जवान तो ससुरी उम्र का बीच में क्या काम ?
इस उम्र में आपको कोई बीमारी तो नहीं? यानी सर्दी , खांसी ,मलेरिया , कुछ भी ?
नहीं मुझे कोई वीमारी नही, सिवाए एक दो के , वह भी जानलेवा ।
क्या कह रहे हैं मुंहफट साहब जानलेवा?
हाँ जनाब, कभी-कभी दौरा पड़ता है मुझे।
दौरा पड़ता है, यह क्या कह रहे हैं आप?
चौंक गए न जनाब ? ऐसा- वैसा दौरा नहीं, कविता सुनाने का दौरा। जब मुझ पर शायरी करने का जुनून सवार होता तो किसी भी ऐरे- गैरे, नत्थू- खैरे को पकड़ लेता हूँ और शुरू हो जाता हूँ , मगर जनाब , मानना पड़ेगा हमारी ईमानदारी को , मैं मुफ्त में किसी को भी कविता नहीं सुनाता , पूरा मुआवजा देता हूँ।
तब तो आपकी बख्शीश में मिले सारे रुपये उसे किसी डॉक्टर को देने पड़ जाते होंगे , बेचारा।ऐसा दौरा कब पड़ता है आपको?
आपने जब उकसा ही दिया तो अब मुझे दौरे का एहसास हो रहा सुनिये अर्ज़ किया है ....
अरे बाप रे , हमने आपका बहुत समय ले लिया है ,अब मुझे इजाजत दीजिए ।
ऐसे कैसे चले जायेंगे आप कविता सुने बगैर ..... सिर्फ एक शेर सुन लीजिये जनाब , जवानी के दिनों की है । फिर हम लोग नाश्ते पर चलते हैं , उसके बाद दो - चार और सुन लीजियेगा , यदि मेरी शायरी अछि लगी तो दो - चार और .......फिर लंच, फिर डीनर.... मैंने कहा - केवल नाश्ता आज , जब पहचान बन गयी तो आना - जाना लगा रहेगा .....लंच फिर कभी ...... जैसे -तैसे माने महाकवि ....मगर उनकी दो -चार नवरस की कवितायेँ सुननी ही पडी , एक -एक पल बहुत भारी पड़ रहा था....... अब मरता क्या नहीं करता , ये आफत मैंने मोल ली थी , सो जबतक महाकवि सन्तुष्ट न हुये सुनता रहा , गनीमत है कि वह नौबत नही आयी की अस्पताल जाना पडे । भाई मेरे , जैसे- तैसे पीछा छूटा महाकवि से, चार साल हो गए कभी उनके घर की ओर नहीं झाँका , भगवान बचाए ऐसे महाकवियों से , भाई यह लखनऊ है यहाँ बहूत मिलेंगी आपको ऐसी अदबी शाख्शियतें ...... यानी अल्लाह महरवान तो गदहा पहलवान ...../

शनिवार, 25 अगस्त 2007

यक़ीनन शायरी का इल्म जिसके पास होता वह , किसी नुक्कड़ किसी किरदार से नफरत नहीं करता

किसी दरिया , किसी मझदार से नफरत नहीं करता ।
सही
तैराक हो तो धार से नफरत नहीं करता । ।


यक़ीनन शायरी का इल्म जिसके पास होता वह -
किसी
नुक्कड़ , किसी किरदार से नफरत नहीं करता।

परिन्दों की तरह जिसने गुजारी जिन्दगी अपनी -
गुलाबों के सफ़र में खार से नफरत नहीं करता ।

चलो अच्छा हुआ तुमने बहारों को नहीं समझा -
नहीं तो इस क़दर पतझार से नफरत नहीं करता।

फटे कपड़ों से तेरी आबरू ग़र झांकती होती-
मियां
परभात तू बीमार से नफरत नहीं करता । ।

* रविन्द्र प्रभात

रविवार, 19 अगस्त 2007

हँसमुख भाई के संसदीय शोले -2007

संसद भवन में रार- तकरार तक पहुँचा जब एटमी करार
तो होकरके जार -जार लगा रोने सरदार
कहा-
देश में मेरी मौत के लिए हवन हो रहा है
इसपर-
अपने विदेशी लवों को खोली
और महबूबा बोली-
घबराओ नहीं सरदार, वहां केवल -
विपक्ष की मर्यादा का निर्वहन हो रहा है
जब बसंती ने दिखलाया अपना आक्रोश
तो भर आया वीरू के भीतर भी जोश
अपने लावों को
और चिल्लाते हुये बोला-
ख़बरदार, सरदार, तुम्हारा हो गया है भंताधार
उधर ह्वाइट हॉउस में गर्थैया का नाच नगन हो रहा है
और इधर हिंदुस्तान में उजड़ा चमन हो रहा है
तुम्हे क्या लगता है हमें नहीं मालूम है ?
हमें मालूम है , की-
परमाणु मसौदे में गबन हो रहा है
तभी चिल्लाया सरदार / अरे ओ साम्भा बरखुरदार
क्या विपक्ष मेरी मौत चाहती है ?
साम्भा ने कहा-
नहीं सरदार , वह तो आपकी सरदारनी के लिए एक और सौत चाहती है
सरदार ने कहा-
वह मेरी अर्धांगिनी है, मेरे हर संसदीय कुकर्मों की सगिनी है
क्या वह इस चक्रवाती कूद में नहीं है ?
इसपर कालिया ने चुटकी लेते हुये कहा-
शायद वह अभी तलाक के मूड में नहीं है
तभी टपक पड़ा बीच में जय
बोला- मैं मानता हूँ ,की बक्त का हर सय तुम्हारा गुलाम है
मगर परमाणु मसौदे पर कोई नहीं तुम्हारे साथ है
जब आ हीं गया है परमाणु चक्रवात
तो दूर तलक जायेगी यह निकली हुई बात
ठाकुर ने कहा-
नियम- १८४ के तहत चर्चा करवईये
फ़ौरन स्पीकर को वुल्वायीये
यह सुनकर स्पीकर की चीख निकल आयी
वह फ़ौरन नियम-१९३ के तहत अपनी सहमती जताई
और फरमाया-
अभी कमजोर नहीं परे हैं तुम्हारे हाँथ
सरदार, हम हैं तुम्हारे साथ
यह सुनकर सरदार ने ठहाका लगाया
तभी ठाकुर ग़ुस्से में चिल्लाया-
मेज थप्थापाती बसंती को देख फ़रमाया-
क्या रखा है इन कुर्सियों में , मेजों में
अगर मैं चीन में होता तो उतार देता गोलियां सरदार के भेजों में

सरदार को अपनी हीं मौत मरने दो
एक- दो और करार अमेरिका के साथ करने दो

तभी हँसमुख भाई के शोले का पताक्छेप होता है
सरदार ठहाका लगाता है, ठाकुर रोता है
अपनी कुटिल चाल कामयाब होते देख
बंजारों का सरदार मुस्कुरा रहा है
ह्वईट हॉउस के लॉकर में-
परमाणु नीति का मसौदा छिपा रहा है ......../



शुक्रवार, 17 अगस्त 2007

नेताजी कहिन है ....

सतापक्ष का एक असफल नेता
जब घोटाले में नही पा सका दलाली के दाम
तो सोचा कुछ ऐसा किया जाये कम
कि आम के आम भी रह जाये
और मिल जाये गूठली के दाम
सो उसने स्केंदल बनाया और तोहमत लगाई पार्टी- प्रधान पर
भाई, जनता तो भावुक होती है
सोचा न समझा बी पी सिंह की तरह
उसे भी पहुंचा दिया सातवें आसमान पर
अब आप कहेंगे कि-
कौन से गुण थे उसमें जो उसने ऎसी लंबी छलांग लगाई
और पार कर गया समंदर
वह किस नश्ल का था
आदमी था, कुत्ता था या बन्दर?
भाई मेरे,
न वह आदमी था, न कुत्ता था, न बन्दर था
वह नेता था ओम प्रकाश चौटाला कि तरह
जितना ही जमीं से ऊपर, उतना ही जमीन के अन्दर था
मज़ा आता था उसे चंद्र बाबु नैडो की तरह
अपने बदले हुये बयान पर
और फक्र करता था चौधरी अजीत सिंह की तरह
वह भी अपने खोखले स्वाभिमान पर
वह मुलायम की तरह
कभी धरती पकड़ तो कभी कुर्सी पकड़ जाता था
अटल बिहारी बाजपेयी की तरह
अपनी हीं बातों में जकड जाता था
चुप रहता था हमेशा मनमोहन की तरह
और लालू प्रसाद यादव की तरह
राबड़ी में चारा मिलाता था, खाता था
और अकड़ जाता था
भाई, आप मानें या न मानें
मगर यह सच है ,कि-
नेता बनाना आसान नहीं है हिंदुस्तान में
क्योंकि, उसे एक पैर जमीन पर रखना पड़ता है, तो दूसरा आसमान में
उसके भीतर कला होती है , कि-
मास्टर को मिनिस्टर बाना दे
और कुत्ता को कलक्टर बाना दे
कभी माया के नाम पर, तो कभी राम के नाम पर
भीख मांग सके, और-
जरूरत पड़ने पर हाई स्कूल फेल को वैरिस्टर बाना दे
नेता बनना हर प्रकार की प्रतियोगिता से कठिन है
ये मैं नहीं कह रहा हूँ, दोस्तो-
नेता जी कहिन है ......../


गुरुवार, 16 अगस्त 2007

तुम्हारा हिंदुस्तान कहाँ है?

जब कभी भी स्वतंत्रता दिवस आता है, तो मुझे
याद आता है बरबस वह दिन, जब मैंने पढ़ाई पूरी की
और समझा जीवन की उपयोगिता
तो सोचा कि अब जीतनी ही होगी कोई ना कोई प्रतियोगिता
बस सोचकर इतनी सी बात
मैंने तैयारी की कई दिनों तक जगकर पूरी-पूरी रात
और सकुचाया- घबराया आया प्रतियोगिता- प्रांगन में सवेरे- सवेरे
तो देखा कि क़तरबढ़ थे युवक बहुतेरे
मैं डरा-सहमा- सकुचाया
द्वारपाल के पास आया
और प्रश्न कि घड़ी घुमाई
मेरा नंबर कब आयगा भाई?
उसने पलटकार कहा- मित्र,
कैसी बातें करते हो विचित्र ?
वैसे तो यह प्रतियोगिता शाम तक जाएगी
मगर पच्चास का नोट चलेगा और तेरी बारी आ जाएगी.
यह सुनकर-
मेरा मन मुस्कुराया
मैंने जेब से पच्चास के नोट निकाले
और उसके चेहरे पर घुमाया
तब कहीं जाकर काफ़ी मसक्कत के बाद मेरा नंबर आया
भाईसाहब, जब इस दुनिया में कोई भी सच्चा नहीं है
तो रिश्वत न देकर-
पिछले दरवाज़े से ना पहूँचना भी तो अच्छा नही है
ख़ैर छोरिये इन बातों को
प्रतियोगिता- प्रांगन में प्रवेश करते हैं
क्या हुआ? क्रमवार प्रस्तुत करते हैं.

बातें जरूर है विचित्र , किन्तु सुनिये -
मेरे मित्र, कि जब मेरे इंटरव्यू की बारी आई
तो मैंने अपने सामने एक मराठी शिक्षिका पाई
उसने कहा-
चलो शुरुआत करते हैं गणपति गणेश से
झटपट बताओ बेटा ये महाराष्ट्र से आते हैं, या उत्तरप्रदेश से?
मेरा भेजा गरमाया
मुझे बहुत ग़ुस्सा आया
मैंने कहा- मैडम, ये भी कोई सवाल है?
अजी बताइए, क्या माता काली की पूजा के लिए अधिकृत केवल पश्चिम बंगाल है?
ख़ैर छोड़िये यह बताइए महोदया,
तर्पण और पिंड दान के लिए केवल बिहारी हीं जाते हैं गया ?
या फिर दर्शन करने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के
यानी अवधेश के
क्या वही जाते हैं, जो होते हैं उत्तरप्रदेश के?
क्या साई बाबा मराठीयों के लिए पूज्य हैं?
क्या गुरु नानक देव पंजावियों के लिए है आराध्य?
बस करिए मैडम, मत पुछिये इस तरह के प्रश्न असाध्य
नही तो-
अमेरिका रूपी आतंकवादी विश्व के मानचित्र पर
अपनी उंगलियाँ रखेगा और मुस्कुराते हुए पुछेगा, कि-
यहाँ देखो, तुम्हारा महाराष्ट्र यहाँ है, तुम्हारा कश्मीर यहाँ है, तुम्हारा राजस्थान यहाँ है,
सब कुछ तो है मगर बेटा,
तुम्हारा हिंदुस्तान कहाँ है?

वह शिक्षिका भौंचक मुझे देखती रही.
चिंतन के सागर में डूबती रही, ख़ामोश बस मुझे एकटाक घूरती रही
मुझे उस दिन कूछ भी नही भया
और मैं बिना अनुमति के प्रतियोगिता - प्रांगन से बाहर आया

मैं जनता था, कि-
भाई- भतिजावाद और क्षेत्रवाद
प्रतियोगिता की भेंट चढ़ चुका है
योग्यता हो गयी है दरकिनार
क्योंकि अब प्रतियोगिता, प्रतियोगिता नहीं रही
बन गयी है व्यापार/ बन गयी है व्यापार.........बन गयी है व्यापार....../
 
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