शनिवार, 7 जून 2008

क्या इतना संवेदनहीन हो गया है हमारा समाज ?

नोएडा के चर्चित आरुषी -हेमराज हत्याकांड को हुए तीन सप्ताह से ज्यादा हो चुके हैं और गुत्थी सुलझती दिखाई ही नही दे रही है , हर कोई अपनी डफली अपना राग अलाप रहा है और पुलिसिया छानबीन के नाम पर वही ढाक के तीन पात ! हालांकि अब यह सी बी आई के सुनबाई का हिस्सा है , मैं नही जानता कि राजेश तलवार की गिरफ्तारी उचित है या नही, अगर उसके द्वारा यह कुकृत्य किया गया है तो उसे उसकी सजा मिलनी ही चाहिए मगर हत्या को लेकर जो व्यक्तिगत टिप्पणी की जा रही है और हत्या की आड़ में राजनीति की रोटी सेंकी जा रही है वह उचित नही है । मीडिया के अलग राग हैं, पुलिस के अलग और राज्य- केन्द्र सरकार के अलग। मीडिया को अपने टी. आर. पी बढ़ाने हेतु एक मुद्दा मिल गया है वहीं पुलिस के द्वारा प्रेम कहानियां गढ़ने में कोई कसर नही छोडी गयी , सरकार को अपनी छवि की चिंता है , किसी को भी एक आम भारतीय परिवार की भावनाओं का ज़रा भी ख़याल नही आ रहा है । ज़रा सोचिये ! व्यक्ति सुबह- सुबह टी. वी. खोलता है तो वस् इस दोहरे हत्याकांड पर तरह-तरह के किस्सों का मायाजाल। ऐसी-ऐसी घिनौनी बातें की जा रही है कि व्यक्ति अपने परिवार के साथ बैठकर टी वी देखने में शर्मिन्दगी महसूस करने लगा है । पीड़ित परिवार से सहानुभूति कम और घिनौनी साजिश ज्यादा दिखती है...!
मुझे राजेश तलवार से कोई हमदर्दी नही , लेकिन कहीं ऐसा न हो कि पुलिस और अब सी बी आई असली कातिल को ढूंढ ही न पाये और पीड़ित परिवार पूरी तरह टूटकर बिखर जाए...! इसी से मिलाती-जुलती एक ख़बर पर पिछले दिनों मेरी नजर गयी जो एक दैनिक में प्रकाशित हुयी थी , कि कैनवेरा में फांसी के ८६ साल बाद एक व्यक्ति निर्दोष पाया गया । हुआ यों कि एक व्यक्ति जिसे ८६ वर्ष पूर्व एक वालिका के कत्ल के इल्जाम में फांसी पर लटका दिया गया था, निर्दोष निकला। दोबारा हुयी जांच के दौरान पता चला कि उस पर झूठा इल्जाम लगाया गया था। अदालत ने उसे माफ़ कर दिया मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।
एक दु:खद घटना जो ग़लत न्याय की वजह से घटी है
उस अखबार के अनुसार कोर्लिन कैम्पबेल रोज को १९२१ में दक्षिण आस्ट्रेलियाई शहर मेलबौर्न में एक १२ वर्षीय वालिका एल्मा तिर्तिस्क के कत्ल का दोषी पाया गया था। विक्टोरिया केअतौर्नी जेनरल रॉब हाल्स के मुताबिक यह एक दुखद मामला था जिसमें ग़लत न्याय की वजह से एक व्यक्ति फांसी पर चढ़ा दिया गया । रोज का मामला शुरू से ही विवादास्पद रहा था । एक गवाह ने भी कहा था कि वह घटना के समय रोज के साथ काम पर था । कुछ शोधकर्ताओं ने १९९५ में रोज के ख़िलाफ़ सबूत के तौर पर प्रयोग किए गए बालों की जांच की तो पता चला कि वह घटना स्थल के नही थे। इस पर रॉब हाल्स ने दो वर्ष पूर्व इस मामले की दोबारा जांच कराबायी। न्यायधीशों ने पाया कि रोज निर्दोष था । लोगों ने महसूस किया कि असल हत्यारा पकडा नही गया और निर्दोष को फांसी हो गयी। अब इसकी भरपाई कौन करेगा ?
मीडिया, पुलिस, सी बी आई और राजनीति में उलझ कर रह न जाए सच
जैसा कि यह अंदेशा है , कहीं मीडिया, पुलिस, सी बी आई और राजनीतिज्ञों के चक्रव्यूह में उलझ कर रह न जाए सच। क्योंकि विगत की अनेकों घटनाओं पर नजर डालें तो ख़ुद महसूस होने लगेगा कि आज तपेदिक हो गया सच को , कल्पनाएं लूली- लंगडी हो गयी है और मर्यादा की गलियारों में घूमते हुए अमर्यादित लोग बार- बार सामना करते हैं अपनी गलतियों का और कहते हैं-
शायद विधाता को यही मंजूर है .....!
अब इस नाटक का पटाक्षेप हो जाना चाहिए
लगभग एक माह बीतने को है , जांच का परिणाम शून्य । आख़िर कहाँ गया हत्यारा आसमान खा गया या फ़िर धरती लील गयी ? खैर इस हत्याकांड की आड़ में मीडिया चैनलों के द्वारा इस पूरे प्रकरण को जिस प्रकार उछाला जा रहा है वह पूरी तरह भारतीय परिवार को प्रदूषित कर रहा है । जब भी टी वी खोलो मीडिया चैनलों के द्वारा बाप- बेटी के रिश्तों पर आपत्तिजनक टिप्पणियों को देखकर जहाँ हर परिवार में एक पिता की आँखे शर्म से झुक जाती होगी वहीं उसकी बेटी किसी न किसी वहाने वहाँ से टलने का प्रयास करने लगती होगी । मैं तो यही कहूंगा कि अब इस नाटक का पटाक्षेप हो जाना चाहिए । क्योंकि इसको मिर्च मसाला लगाकर बार-बार कवरेज देने से हमारे परिवार का , समाज का माहौल बिगड़ रहा है ।
 
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