बसंत आर्य के द्वारा उत्प्रेरित करने पर आज से लगभग दो वर्ष पूर्व मैंने "परिकल्पना" के माध्यम से ब्लॉग की इस अनोखी दुनिया में प्रवेश किया, तब मुझे इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी. समय बीतता गया और जानकारियाँ बढ़ती गयी. हालाँकि पारिवारिक उतरदायित्व , बिभागीय जिम्मेदारियां और साहित्य सृजन के साथ-साथ कवि सम्मेलनों में नियमित भागीदारी के कारण परिकल्पना के प्रकाशन में समय-समय पर अनियमितता भी आती रही, मगर जारी है आज भी मेरी परिकल्पना .... मेरे लिए इससे ज्यादा और संतोष की बात क्या होगी ?
तमाम व्यस्तताओं के साथ-साथ साधन और सूचना की न्यूनता के बावजूद मैं आ तो गया इस चिट्ठाजगत में , मगर अपने अनुभवों के आधार पर सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि -
" फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए -
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है !"
कभी-कभी फिसलने का भी अपना एक अलग मजा है , क्योंकि इससे जिंदगी को करीब से देखने में मदद मिलती है . वह जिंदगी जिंदगी ही क्या जिसमें अस्त व्यस्तताएं न हो -
"आह - सी धुल उड़ रही है आज, चाह-सा काफिला खडा है कहीं -
और सामान सारा बेतरतीब, दर्द- सा बिन - बंधे पडा है कहीं !"
इसी को कहते है - आह! जिन्दगी ....वाह! जिंदगी .
एक-डेढ़ माह के अंतराल के बाद आज फिर से लौटा हूँ परिकल्पना पर इस आशय के साथ , कि -
" फिर उगेंगे चाँद-तारे , फिर उगेगा दिन -
फिर फसल देंगे समय को ,यही बंजर खेत !"
" फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए -
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है !"
कभी-कभी फिसलने का भी अपना एक अलग मजा है , क्योंकि इससे जिंदगी को करीब से देखने में मदद मिलती है . वह जिंदगी जिंदगी ही क्या जिसमें अस्त व्यस्तताएं न हो -
"आह - सी धुल उड़ रही है आज, चाह-सा काफिला खडा है कहीं -
और सामान सारा बेतरतीब, दर्द- सा बिन - बंधे पडा है कहीं !"
इसी को कहते है - आह! जिन्दगी ....वाह! जिंदगी .
एक-डेढ़ माह के अंतराल के बाद आज फिर से लौटा हूँ परिकल्पना पर इस आशय के साथ , कि -
" फिर उगेंगे चाँद-तारे , फिर उगेगा दिन -
फिर फसल देंगे समय को ,यही बंजर खेत !"
परिकल्पना में विगत दो-ढाई वर्षों में मैंने सौ से अधिक स्वरचित कवितायें, गज़लें , लघुकथाएं, व्यंग्य , आलेख अदि प्रकाशित किये हैं और आगे भी नियमित रूप से प्रकाशित होते रहेंगे , क्योंकि-
" खुदा नहीं , न सही, आदमी का ख्वाब सही -
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए !"
इसके साथ ही दो महत्वपूर्ण बातें और करनी है आज आपसे - पहली बात तो यह,कि मेरे मन में बहुत दिनों से ये विचार आ रहे हैं कि लखनऊ में एक वृहद् एक दिवसीय सम्मलेन का आयोजन हो और दो चरणों में हो . पहले चरण में साहित्य-संस्कृति-समाज- तकनीकी -यात्रा-चिंतन-विज्ञान-कला- कृषि और अध्यात्म से जुड़े वर्ष के सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकारों को सम्मानित किया जाए और दूसरे चरण में कवि सम्मलेन हो और वही कवि शामिल किये जाएँ जो ब्लोगर हों और देश के चर्चित कविओं में उनका शुमार होता हो .......!
दूसरी बात
यह है कि मैं एक नया ब्लॉग और लेकर आने पर विचार कर रहा हूँ जिसमें हिंदी के दुर्लभ-विस्मयकारी और महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्याएं हों, शब्दों की उत्पति तथा उन शब्दों से जुडी अन्य महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी हो.....यानि अनमोल शब्दों की प्रासंगिकता सहित प्रस्तुति .......इस सन्दर्भ में आपकी टिपण्णी मेरा मार्गदर्शन कर सकती है ....!
" खुदा नहीं , न सही, आदमी का ख्वाब सही -
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए !"
इसके साथ ही दो महत्वपूर्ण बातें और करनी है आज आपसे - पहली बात तो यह,कि मेरे मन में बहुत दिनों से ये विचार आ रहे हैं कि लखनऊ में एक वृहद् एक दिवसीय सम्मलेन का आयोजन हो और दो चरणों में हो . पहले चरण में साहित्य-संस्कृति-समाज- तकनीकी -यात्रा-चिंतन-विज्ञान-कला- कृषि और अध्यात्म से जुड़े वर्ष के सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकारों को सम्मानित किया जाए और दूसरे चरण में कवि सम्मलेन हो और वही कवि शामिल किये जाएँ जो ब्लोगर हों और देश के चर्चित कविओं में उनका शुमार होता हो .......!
दूसरी बात
यह है कि मैं एक नया ब्लॉग और लेकर आने पर विचार कर रहा हूँ जिसमें हिंदी के दुर्लभ-विस्मयकारी और महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्याएं हों, शब्दों की उत्पति तथा उन शब्दों से जुडी अन्य महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी हो.....यानि अनमोल शब्दों की प्रासंगिकता सहित प्रस्तुति .......इस सन्दर्भ में आपकी टिपण्णी मेरा मार्गदर्शन कर सकती है ....!