शनिवार, 30 जुलाई 2011

अचंभित हो गीत नया गाता हूँ जब अपनी यात्रा से कुछ विशेष लिए आता हूँ ....



उत्सव के लिए द्वार द्वार घूमते घूमते मैंने देखा - ' आत्मा अमर है ' मैं विस्मित मिलता रहा , नए शरीर में पुरानी आत्मा से . कभी दिनकर, कभी पन्त, कभी प्रसाद, महादेवी, अमृता.... अचंभित हो गीत नया गाता हूँ जब अपनी यात्रा से कुछ विशेष लिए आता हूँ ....
आज की विशेषता हैं कवयित्री डोरोथी -


काफ़िला सूरज का

मची है खलबली चांदनी की महफ़िल में,
सुना है आ पहुंचा नजदीक काफ़िला सूरज का.
........
मिटने से लगे है सदियों पुराने दायरे अब अंधेरों के,
जबसे होकर गुजरा है बस्तियों से काफ़िला सूरज का.
........
अंधेरों में जो घिरे बैठे थे खोए खोए,
ढूंढने आया है खुद चलकर उन्हें काफ़िला सूरज का.
........
लेके आया है वो एक समंदर रोशनी का,
जो भी डूबेगा उसी का हो गया काफ़िला सूरज का.
........
कैद कर लाया है वो रफ़्तार एक बवंडर का,
अब न रूकेगा चल पड़ा है जब काफ़िला सूरज का.
........
तिनकों से उखड़ जाएंगे जड़ समेत ये बरगद सारे,
रूख हवाओं का जब बदल देगा काफ़िला सूरज का.
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आने वाले समयों में....



संभावना बची रहे
आने वाले समयों में
जिंदगियों में हमारे
हंसने की/ गाने की
रोने की/ शोकित होने की
बचपने की/ मूर्खताओं की
पागलपन की/ गल्तियों की
........
संभावना बची रहे
महज कंकड़ पत्थर
या तुच्छ कीट कीटाणु
निष्प्राण पाषाण/ या
बर्बर पशु बनते जाने के,
मनुष्य बने रहने की
........
संभावना बची रहे
इस आपाधापी/ कोलाहलमय
जीवनों में
आकाश की ओर ताकने की
और लहरों को गिनने की
हमारी उबड़खाबड़ जिंदगियों में
स्नेह, संवेदना एव करूणा की
कोमल कलियों के खिलने की
........
संभावना बची रहे
जीवनों के
खिलने की/ पनपने की
सपने देखने की
नई सृष्टि रचने/ बनने की
मनों के/ अंधेरे
सर्द/ सूने गलियारों में
सूरज के किरणों के
अल्हड़ ताका झांकी की
........
संभावना बची रहे
तमाम दुश्मनी और दूरियों को भूलकर
आपस में/ एक दूसरे के लिए
महज मूक दर्शक/ तमाशबीन बने रहने के
दर्पण और दीपक बनने की
हमसफ़र और रहनुमा बनने की
........
संभावना बची रहे
हमारी सुविधाभोगी, मौका परस्त
मतलबी, हिसाबी किताबी जिंदगियों में
कभी कभार, यूं ही
बेमकसद/ बेवजह जीने की
दूसरों को अपने किसी स्वार्थ सिद्धि हेतु
महज साधन या सीढ़ी सा
इस्तेमाल करने की बजाए
उन्हें भी खुद सा समझने की
........
संभावना बची रहे
कटु कर्णभेदी शोरगुल के
आदी/ अभ्यस्त हमारे मनों में
कोमल/ निशब्द/ शब्दहीन बातों के
पारदर्शी रूप छटा को
समझने/ पहचानने की
जुबान की दहलीज पर ठिठके/ सहमे
शब्दमाला से कोई सुंदर सा गीत पिरोने की
........
संभावना बची रहे
अर्धसत्यों/ षडयंत्रो
छल प्रपंचो के
काई पटे कीच में
डूबते/ उतराते
महज सांस भर ले पाने की
........
भागमभाग के जिन्न के
पंजो मे दबोची हुई जिंदगियों के
सांस थमने से पहले
मिले फ़ुर्सत पल भर को
भरपूर सांस ले
अपना अपना जीवन
जी पाने की
........
संभावना बची रहे
मिटने/ खत्म होने हम में
छोटे छोटे स्वार्थों के लिए
गिरते हुओं को रौंदकर
सबसे आगे निकलने की प्रवृत्ति का
दूसरे की कीमत पर
खुद को बेहतर सिद्ध करने का
........
संभावना बची रहे
आने वाले समयो में
अंधेरे अंतहीन ब्लैकहोल (श्याम विवर) में
गर्क होती जिंदगियों की विरासतों का
नक्षत्र/ नीहारिकाएं और
अनगिन रोशनी की लकीरें बन
अंतरिक्ष में जगमगाने का !!
........
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बातों की दुनिया

कुछ बातों को
उम्र लग जाती है
सामने आने में
सही वक्त और सही स्थान का
इंतजार और चुनाव करते करते
थक हारकर पस्त हो चुकी बातें
समय आने तक
लुंज पुंज दशा में
खुद अपना ही
मजाक बनकर रह जाती हैं
वो सारी बातें
........
परत दर परत
अर्थों की खोलती वो बातें
गुम हो जाती हैं
हवाओं में
अस्फुट अस्पष्ट सा
शोर बनकर
जब मिलता नहीं
कोई भी इन्हें
सुनने समझने वाला
........
कुछ बातें
हमेशा जल्दबाजी
और काफी हड़बड़ी में
होती हैं
बाहर निकलने के लिए
अपनी बारी तक का
इंतजार नहीं करती
बात बे-बेबात पर
खिसियाकर झल्लाकर
तो कभी इतराकर
या इठलाकर
निकल ही पड़्ती हैं
दुश्मन को धूल चटाने
सब के सामने उसे
नीचा दिखाने
........
शत्रुतापूर्ण ईर्ष्या से भरी
कलह क्लेश की चिंगारियां उड़ाती
अपने शिकार को विष बुझे बाण चुभोकर
करती है
उस अभागे का
गर्व मर्दन
........
कुछ बातें
कोमल दूब सी
उजली धूप सी
भोले विश्वास सी
और पुरखों की सीख सी
जो बहती है ठंडी बयार सी
या बरसती है भीनी फुहार सी
........
कुछ बातें होती हैं
इतनी ढकी छिपी
कि उनकी आहट तक से
रहते है बेखबर उम्र भर
और जान पाते है उनका मायाजाल
उनके बाहर आने पर ही
जब वे तोड़ कर रख देती हैं
एक ही पल में
कितने ही रिश्ते या दिल
या जोड़ देती हैं
एक ही झटके में
टूटे हुए रिश्ते या घर
डोरोथी
http://agnipaakhi.blogspot.com/


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डोरोथी की कविताओं के बाद आइये चलते हैं कार्यक्रम के दूसरे चरण में :

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव :

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सफलता का मन्त्र और अन्य कविताएँ

नव -चेतना आओं मिलजुल कर जीवन खुशहाल बनाये समस्याओ का निदान कर नवचेतना जगाये यथार्थ के धरातल...
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लोकपाल…जोकपाल…या ठोकपाल ?

व्यंग्य मेरे पड़ोस में एक खन्ना साहब रहते हैं। पुराने ब्यूरोक्रेट हैं , अब रिटायर हो चुके हैं।...
Seema

सीमा सिंघल की दो कविताएँ

मेरी आस्‍था …. आस्‍था तुम्‍हारी किसके साथ है तुम किसके आगे नतमस्‍तक होना चाहते हो यह तुम्‍हें...
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आशीष राय की दो कविताएँ

प्लवन तपती दुपहरिया गुजर चुकी , गगन लोहित हो चला उफनाते नयनों से ढलकर, दुःख मेरा तिरोहित हो चला...


इसी के साथ  आज का कार्यक्रम संपन्न, मिलते हैं फिर सोमवार को सुबह ११ बजे परिकल्पना पर पच्चीसवें दिन के कार्यक्रमों के साथ, तबतक के लिए शुभ विदा

सीधी माँग ...



सीधी माँग .... और उसमें भरा सिंदूर ! क्या क्या जतन होते थे , शादी से पहले शादी के दिन .... जतन से सीधी माँग और दुल्हन का सुकून , सीधा दूल्हा , और एक ख़ास खिले गुलाब सा चेहरा . ज़माना ही कुछ और था - लम्बे बाल , सीधे पल्ले की साड़ी , महावर रचे पाँव, पायल की रुनझुन , बिछिया ...... अब ज़माना कुछ और है....
टेढ़ी माँग ... गौर से देखो तो सिंदूर का एहसास , वरना ............... हटाओ , 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी ' वजह-बेवजह तिल का ताड़ या ताड़ का तिल - क्या फायदा !
सीधी से टेढ़ी हुई , समय यानि मैं बदलूँगा -तो फिर सीधी हो जाएगी .... हर एक चक्कर के बाद बस यादें यादें यादें ...यादें रह जाती हैं ....उन्हीं यादों को सरस्वती जी के साथ लिए आज उत्सवी माहौल में ताजगी लाया हूँ अपने पुराने चेहरे की यानि पुराने समय की .....

सरस्वती जी हाजिर हों -
............
........


" सीधी माँग "
"ऐ लड़की! ज़रा स्थिर हो कर बैठ, सीधी माँग निकालने दे - माँग अगर सीधी न हुई तो टेढ़े स्वभाव का दूल्हा होगा जान ले. " लड़की पालथी मार कर मुस्कुराती हुई बैठ जाती है - " लो अच्छी तरह सीधी माँग निकालो. "
आईने के सामने खड़ी होकर वह माँग देख रही है - सीधी माँग - ऊँ.....हूँ, सामने के थोडा उठे उठे हैं, कैसे तो उलटे, पुलटे. अँगुलियों से दबा दबा कर वह ठीक कर रही है कि उसकी सखी आकर चोरी पकड़ लेती है - "अभी से माँग ठीक करने लगी हो, क्यों? टेढ़े दुल्हे कि कल्पना से डर लगता है? अरे रहने भी दो थोडा टेढ़ा हुआ तो क्या?"
"-धत! मैं कहाँ कुछ कर रही हूँ."
- दूल्हा! उसकी चर्चा तो वह लड़की बसंत के पहले से सुन रही है - यानि तिलक जाने के पहले से - दूल्हा क्या है, लाखों में एक. सुनहला रंग, घुंघराले बाल. चलने का शानदार ढंग, बोलता है तो जैसे विनम्रता टपकती है - भाई किस्मत हो तो ऐसी, इकलौती बेटी के लिए इकलौता लड़का, भगवन ने सोच कर जोड़ी बनाई है.
दूल्हा देखने को वह उतावली हुई जा रही है - लाखों में एक, सुनहला रंग, घुंघराले बालों वाला! अगली बार जब वह कोई नया नाटक खेलेगी - अपने घर के बड़े से हॉल में अपने साथियों के साथ, तो दुल्हे को अच्छा सा पार्ट देगी - राम और कृष्ण के लिए वही अच्छा रहेगा. अगले ही पल उसे अजीब लगा अपनी इस सोच का- दूल्हा बोलता है तो विनम्रता टपकती है - हाय राम! एक हमलोग हैं, किस प्रकार हल्ला-गुल्ला करते हैं! - फिर वह तो पढ़ा लिखा बड़ा आदमी है - हमारे खेल में कैसे शामिल होगा....?....देखने के बाद ही - निर्णय लिया जा सकता है.
खिड़की से लग कर वह खड़ी है -
-" ऐ श्यामा, ज़रा सुन तो इधर, बता क्या - क्या बन रहा है?"
-"लड्डू - मेहीदाने के -"
-"मेहीदाने के ! खूब ढेर सारे बन रहे होंगे? और क्या क्या?"
-"इमरती , भरी कचौड़ी, गुलाब जामुन, सेव- दालमोट....."
- "मैं भी चलूँ उधर देखने को, क्या - क्या बना और क्या बनने जा रहा है?"
-"तू इधर जाएगी, हद है! तेरी शादी हो रही है- आज ही तो शाम में बरात आएगी हट जा खिड़की पर से, चाची ने देख लिया तो बहुत गुस्सा करेंगी - मैं चलती हूँ उधर काम है. "
-"हुँह, काम है, काम है - जिसे देखो सबको काम है और मैं घर में बंद होकर बैठी रहूँ........!"
- धूप अभी दीवालों पर चढ़ रही है जल्दी-जल्दी भागे और शाम हो जाए, बारात आये. कितने बाजे बजते आयेंगे - और ढेर सारे लोग..................आतिशबाजी भी होगी, पटाखे छूटेंगे - बाप रे ! मैं तो डर के मारे दोनों कान में ऊँगली डाल लूँगी . बाजे-गाजे और ढोल की ढम-ढम से ही तो मेरी छाती धड़कने लगती - लेकिन इससे क्या - आज मेरी शादी होगी. कितना अच्छा लगेगा दूल्हा आएगा - डोले में या मोटर में दोनों से चंवर झूलता होगा.
-"ऐ रूपा, रूपा, सुन-सुन इधर मेरे पास आ, बारात कब आएगी?"
-रूपा - ही ही ही ही करके हँसने लगती है और हँसते - हँसते लाल पड़ जाती है. "ज़रा सुनो- ही -ही-ही......क्या पूछ रही है यह ही-ही-ही....आएगी बाबा आएगी- इस तरह मत घबरा, आज ही शाम को आएगी- अब ज्यादा देर नहीं है."
आँगन में आकर कोई जोर से चिल्लाया - बारात चल चुकी, आने में ज्यादा नहीं, आधे घंटे की देर हो सकती है.
खलबली मच गई औरतों और बच्चों के समूह में - भाग दौड़ और बातों कि घुली मिली आवाज़- एक उठता हुआ शोर. लड़की निकालने को सोच ही रही थी कि जाड़े में भी पसीने से लथ-पथ, हाँफती हुई सी चाची आई हिदायत देने को - "खिडकियों से ताक-झाँक न करना रे शुबहा, कहाँ-कहाँ के बाहरी लोग आयेंगे औरतों का जमघट है- किसी के बेटी, बहु में बल के खाल निकालने को ही ये पहुँचती हैं. माथे पर ठीक से आँचल घर के बैठ, तुरंत बारात आ रही है, तुझे भी दिखने को ले चलेंगे - रूपा, श्यामा, लाली, कमला कोई भी आये उनलोगों के साथ मत निकल जाना- हाँ.......s.........s.........
भड़ाक से किवाड़ उठ्गाती चची चली गई और करीब आती बाजे की आवाज़ से शुभा के पाँव चंचल होने लगे - ओफ़! चची हमेशा कुछ मन करती रहती है अब बारात देखने भी उन्ही के साथ निकलो हुँह..... मोहल्ले कि बारात देखते - देखते आज तो मौका आया है कि बारात अपने दरवाज़े आ रही है, इतना शोर-शराबा, इतना बड़ा समूह इतने सारे बनते पकवान - कपडे, स्वादिष्ट मिठाइयाँ, बजते आ रहे अंग्रेजी बाजे - सबके केंद्र में वह है और उसका दूल्हा- लाखों में एक. सुनहले रंगों वाला , घुंघराले बालों वाला......... देर करेगी चची तो चल ही दूँगी- तभी माँ आ गई. शुबहा ने माँ कि और देखा - पीले गोते लगी साडी में माँ तो खुद दुल्हन लग रही थी- चेहरे पर व्यस्तता और थकान. इसके बावजूद एक ख़ुशी और उत्साह कि लहरों पर झूलती जाने कैसी उदासी के आवरण में लिपटी है माँ- 'माँ!' कहती हुई शुभा माँ के गले लिपट गई.
-"बारात आ गई, बारात आ गई...के बीच धम...धम....धम...धम...की भगदड़ मच गई.
माईक पर बजते गीतों में घिरी, माथे पर घूंघट निकाले, धड़कता हुआ मन लेकर शुभा अपनी बारात देखने चली. एक तरफ से माँ और एक तरफ से चाची ने उसे सहारा दे रखा था, अगल-बगल, आगे-पीछे, भीड़ थी. किसी प्रकार उसमे से निकाल कर बाहर कोने वाले कमरे में पहुचाया गया जिसकी खिड़की सड़क कि और खुलती थी. उसके भीतर उसकी कुछ सहेलियां माँ और चाची बस, दरवाज़ा भीतर से बंद कर दिया गया. एक बड़ी खिड़की पर चाची और सहेलियां जा लगीं - दूसरी छोटी वाली पर माँ और शुभा.
बारात आ गई - एक लम्बी कतार बंद बजने वालों की थी - सब के सब ड्रेस में सजे हुए. उसके पीछे रंग-बिरंगे फूलों के गुछे, झाड़-फानूस....फर्र्र्र...फर्र्र....करती हुई चरखी ज़मीन पर फूल बिखेर रही है. हिश्श! सूँ .. ऊँ... आसमान तारा एक के बाद एक - चारों और चकाचौंध और धुआं. चुकिया भी कतार में किसी रंगीन फव्वारे सा दिख रहा है. बड़े, बूढ़े, लड़के, नौजवान....बेशुमार लोग! लो, पटाखे भी छूटने लगे. धमाको से सहमती हुई शुबहा ने माँ को पकड़ रखा है. आँखें भीड़ को चीरती, रौशनी और धुंए को पार करती, लाखों में एक दुल्हे को खोज रहीं हैं...दूल्हा! कि वो ख़ुशी से चहक उठी... "माँ! वह रहा दूल्हा, मेरा दूल्हा है न. वाह क्या शान है! एकदम सिंहासन जैसे डोले में बैठा है, चंवर भी झूल रहे हैं - मोतियों कि लड़ी के मारे मूह नहीं दीखता है, कोई ज़रा हटा देता तो ठीक था - लाखों में एक मेरा दूल्हा! "
माँ ने फुसफुसाते हुए टोका - "अरी चुप भी रह चल उस कमरे में द्वार पूजा के बाद नहान होगा, सारे विधि व्यवहार करने होंगे . बोलो नहीं , लोग-बाग़ क्या कहेंगे?"
फिर भी कमरे से निकलते हुए उसने चाची का आँचल खींच ही लिया, " ऐ चाची बता तो दूल्हा कैसा है? रूपा, श्यामा - वह कैसा लगा रे..." रूपा खिलखिलाने लगी, श्यामा ने पीठ पर एक धौंस जमाया, चाची दांत पीसने लगी - "भाग यहाँ से, लाज कर कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा?"
लाली दौड़ कर आई और कानो में कह गई - "शुबहा तेरा दूल्हा! सच, लाखों में एक, बहुत सुन्दर, ख़ुशी के सागर में डूबती इतराती रह अभी थोड़ी देर बाद वह आँगन में आएगा. "
माँ ने उसे बाहों में भरे हुए भीतर के कमरे में पहुंचा दिया.
दूल्हा आँगन में है, मंडप के बीच खड़ा हुआ, औरतें गा रही हैं - " आज सुहानी है रात, चंदा तुम उगिहो..." परिछन होने लगा. खिड़की के फांक से शुबहा देख रही है - लाखों में एक दूल्हा सुनहले रंगों वाला...पहले उसे रामलीला के राम जी याद आये, मंत्र मुग्ध होकर वह राम को भी देखा करती थी एकदम वैसा ही है दूल्हा नहीं उससे भी ज्यादा सुन्दर. उसकी निश्छल चंचल आँखों में एक चमक भरने लगी - पता नहीं दुल्हे के रूप की या जगमग करते मौर की उसकी समझ में भी नहीं आया. दूल्हा मुस्कुरा भी रहा है तभी उसे ख्याल आया वह दूल्हा से मिलते ही अपने मन की बात कह देगी "मुझे तुम अपना ये मौर दे दो एक दम से, इस मौर के चलते तो मेरी बड़ी धाक जमेगी पूरे मोहल्ले भर के संगी साथी याचक दृष्टि लिए आगे-पीछे चक्कर काटेंगे, कितना रौब जमेगा, कितना मज़ा आएगा सब जानते हुए भी वह अनजान बनने का नाटक करेगी आखिर हार कर उन्हें आजीजी से मूह खोलना ही पड़ेगा - शुबहा एक चमकता लत तू मुझे भी देना, मुझे झिलमिल करता पान, दस लाल मोती मुझे. अरे बाबा दे दूंगी दे दूंगी, मोतियों कि लम्बी लड़ी कोई एक नहीं, दो नहीं पूरे सात हैं कितने डिब्बे भर जायेंगे. गुडियाओं के भारी-भारी गहने बन जायेंगे, पीली मोतियों का कंठ तो खूब अच्छा लगेगा अब नाक राग्देंगी दीपा , मनोरमा और वो झगडालू चंपा भी. दूल्हा बड़ा ही अच्छा है, मुस्कुराता है मौर मांगूंगी तो न नहीं करेगा और तन्मयता में डूबी शुबहा ने खिड़की कि खुली फांक को थोडा ज्यादा कर दिया. कोई बाधा नहीं, कोई रोक टोक नहीं इत्मीनान से वो दूल्हा देख रही है. किसी और का नहीं अपना दूल्हा उसका पहला प्लान...लेकिन इस दुल्हे से तो बात करने में डर लगेगा, गंभीरता है उसके मुस्कुराने में, पता नहीं अमूर मांगने से क्या सोचे! कौन जाने दांत दे या झिड़क दे हमारे खेल में वो राम कृष्ण तो नहीं ही बनेगा. बहुत पढ़ा लिखा भी है, अंग्रेजी बोलता है और खूब लिखता है, मेरा तो एक ही पेज में बहुत गलत हो जाता है.
दुल्हे के बगल में बैठी है शुबहा, पंडित मंत्रोच्चार कर रहे हैं, मांग भर गई, औरतें गा रही है -"दूल्हा राम , सिया दुल्हनी...." अक्षत के साथ शुभे हो शुभे कि वर्षा हो रही है..माँ,बाबूजी, चाचा चाची नाना नानी बुआ पास पड़ोस दूर दराज अपने पराये सभी प्यार लूटा रहे हैंसभी दुआएं दे रहे हैं गीतों और बाजों कि आवाज़ में हँसी ठिठोली चल रही है- हाँ हाँ खाइए, साथ खाने कि शुरुआत तो यहीं से होती है यह प्यार का आदान प्रदान है शुभा की ऊँगली से दुल्हे को दही खिलाया जा रहा है और दूल्हा खिला रहा है शुभा को दुल्हे की ऊँगली का दही चाटते हुए घूंघट के भीतर भी शुभा लाज में गिरी जा रही है! लगता है कहीं बोलती न बंद हो जाये.
शुभा और दूल्हा एक दुसरे के आमने-सामने बैठे हैं, शुभा ने अपने को संयत कर लिया है, वह अपनी बात कहेगी, दूल्हा बातें कर रहा है - "पढ़ती हो न"
"हाँ, अब तो जल्दी ही इम्तिहान होने वाला है"
"पढने में मन लगता है?"
शुभा को थोड़ी हँसी आई "लगता है, लेकिन खेलने में ज्यादा"
"बहुत से साथी होंगे?"
"हाँ बहुत है , जब सब इकट्ठे होते हैं न तो घर भर जाता है, आपको सबों से मिलाऊँगी "
"खाने में क्या अच्छा लगता है...."
शुभा ने समझा नहीं
"मेरा मतलब मीठा या नमकीन, कौन ज्यादा अच्छा लगता है?"
" दोनों, मैं मीठी चीज़ें ज्यादा मन से खाती हूँ और नमकीन भी, मुझे अचार भी पसंद है"
"अच्छा शुभा हमलोग कैसे बातें करेंगे - खड़ी हिंदी या भोजपुरी में?"
"जैसी आपकी इक्षा वैसे घर में मैं भोजपुरी बोलती हूँ, स्कूल या बाहर वालों से खड़ी हिंदी में, आपसे खड़ी हिंदी में बातें करना ही ठीक रहेगा"
थोडा हँस कर दुल्हे ने कहा -"बाहर वाला जो हूँ, ठीक है हम खड़ी हिंदी में ही बातें करेंगे, अच्छा अब मैं बहुत बोल चुका तुमसे, कितनी बातें पूछ चुका , तुम हमसे कुछ पूछो?"
"आपसे?"
"हाँ मुझसे तुम भी कुछ पूछो"
"आपसे मैं क्या पूछूं आप तो सब जानते हैं, अंग्रेजी , हिंदी और उर्दू भी...ढेर साड़ी किताबें आपने पढ़ कर ख़त्म कर डाली हैं, मैं क्या पूछूं? "
"कुछ भी पूछो, अपने मन से अपनी मर्ज़ी से, मैं चाहता हूँ इसलिए पूछो"
शुभा तो निहाल हो गई फिर भी कुछ अटकते हुए कहा " मुझे आपसे एक चीज़ मांगनी है, दीजियेगा? "
"मांगो, मांगो क्या मांग रही हो?" उत्साहित हो कर दूल्हा बोला
शुभा ने दुल्हे को गौर से देखा कितना अच्छा है ये अब मांग ही लें आनाकानी करने का प्रश्न ही नहीं होता. टुकुर टुकुर एक टक देखती दो अल्हड आँखों की भाषा सुनने को दूल्हा व्यग्र हो उठा "बोलो न क्या मांगती ही?"
सहज मुस्कान बिखेरती शुभा बोली "आपकी वह मौर जो वहां उस कोने में रखी है, कितना अच्छी है ये मौर, जग मग करती मोतियों की लड़ियों से लड़ी दे देंगे न मुझे एकदम से"
हँस पड़ा था दूल्हा और बड़ी उदारता दिखाई थी "यह मौर मेरा नहीं तुम्हारा ही है रख लेना और भी जो जो कहोगी मैं सब ला दूंगा मेरे पास रंगीन चित्रों वाली ढेर किताबें हैं पसंद है न तुमको"
"हाँ आप मुझे दे देंगे"
"सब दे दूंगा, तुम खुद ही अपनी पसंद से चुन लेना..."
"ओह आप कितने अछे हैं"
"और तुम भी बहुत अच्छी हो"
शुभा आश्वस्त हुई यह दूल्हा लाखों में एक है सच मच लाखों में एक...जाने क्यों वह थोडा डर रही थी पर डरने कि कोई बात नहीं है. जल्दी सवेरा हो तो वह अपनी सहेलियों को बताये "यह दूल्हा एक बहुत अच्छा दोस्त है, इसे तो कभी कुट्टी भी नहीं हो सकती, यह सारी बातें मान लेगा"
तभी उसे मांग का ख्याल आया और वह उतावली होने लगी अभी जा कर सबसे पहले अपनी भरी भरी मांग देखनी है - अपनी सीढ़ी मांग- तभी तो ऐसा दूल्हा मिला!



सरस्वती प्रसाद
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आज उत्सव का चौबीसवां दिन है, यानी उत्सव शुरू हुए पच्चास दिन से ज्यादा हो चुके हैं, सप्ताह में तीन दिन अवकाश होता है और चार दिन उत्सव .......सरस्वती जी के बाद आइये चलते हैं उत्सव मंच की ओर जहां समकालीन हिंदी काव्य के दो युवा हस्ताक्षर क्रमश: हरे प्रकाश उपाध्याय और अरविन्द श्रीवास्तव पधारें हैं अपनी कविताओं के साथ, साथ ही अनुज खरे लेकर आये हैं अपना व्यंग्य और निर्मला कपिला अपनी कहानी के साथ उपस्थित हैं उत्सव के प्रथम चरण में :

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव

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अरविन्द श्रीवास्तव की दो कविताएँ

गुस्सा भरा समय किसी खचाखच भरी यात्री गाड़ी में इंच भर टसकने के लिए बगल वाले से मिन्नतें और हाथ...
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दोहरे मापदंड

कहानी *देख कैसी बेशर्म है? टुकर टुकर जवाब दिये जा रही है।भगवान का शुक्र नहीं करती कि किसी शरीफ...
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आ जा री आ, निंदिया तू आ…..

आज हम आपको एक वीडियो दिखाने जा रहे हैं फ़िल्म ‘दो बिघा ज़मीन’ से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक...
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भगवान के लिए हमारे भरोसे मत रहिए….

व्यंग्य कभी आपने सोचा क्यों हमारी गुप्तचर एजेंसियों या पुलिस से किसी बड़े मामले में चूक हो जाती...
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हम प्रेम नहीं करते:हरे प्रकाश उपाध्याय

कविता हम प्रेम नहीं करते यानी हमारी भावनाएँ आत्मघाती नहीं हैं उम्र में मुझसे वह थोड़ी सी ज़्यादा...

कहीं जाईएगा मत, हम शीघ्र उपस्थित होंगे दूसरे चरण के कार्यक्रमों के साथ.........फिलहाल एक अल्प विराम

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

सच के रूप अलग अलग होते हैं


सच के रूप अलग अलग होते हैं , रख दो खुलकर तो कई एहसास थरथरा उठते हैं ....



मां जब तुम थोड़ा डरती हो और तुम्हारा दिल धक से रह जाता है तो शर्मीला टैगोर जैसी लगती हो। तुम्हारी आंखें और आंचल भी उसी जैसा लगता है। प्रकाश तुम्हारी आंखों से परावर्तित होकर ज्यादा चमकदार लगती है। पापा को शक हो न हो मुझे हमेशा लगता रहा है तुम पर कोई दूसरे घर की बालकनी से कोई आइना चमकाता रहता है। मेरी आंखें चैंधिया जाती हैं मां। हां ये सच है कि सबसे टपका तो मां पर अटका। अपनी शादी के लिए दसियों लड़की से प्रेम करने, और तमाम लड़कियों को जानने के बाद मैं भी पापा की तरह ही तुम्हें चिठ्ठी लिख रहा हूं कि तुम्हारे जैसी नहीं मिल रही।

ऐसा नहीं था कि मिलने वाली बुरी हैं बल्कि वो बेमिसाल हैं। नहीं-नहीं तुम्हें बहलाने के लिए ऐसा नहीं कह रहा, ना ही अपनी नादानी परोस रहा हूं। गहराई से बेसिक सा अंतर बतला रहा हूं कि उनकी आवाज़ में खनक तो था पर झोले में सूप से झर-झर गिरते गेहूं जैसी आवाज़ का रहस्य नदारद था। लड़कियां मिली जिन्होंने प्यार दिया लेकिन किसी ने अपने जुल्फों को सहलाते हुए यह नहीं कहा कि सैंया भोर को होने दे, तू तो रात बन कर मेरे साथ रह।

मां कोई तुम जैसा बहरूपिया नहीं मिला। गाए जा चुके गीत के बाद की लम्बी चुप्पी ना बन सका। मैं भी नहीं। हर बार दोहरा लिए जाने के बाद भी मरना मुकम्मल चाहा लेकिन चीख की गुंजाईश बनी रही। हम प्रेम में भी थे और उससे बाहर भी लेकिन होना हर बार सिर्फ प्रेम में चाहते रहे। यही वजह रहा कि मैं ता-उम्र प्रेम में रहा।

मां मैंने बहुत कोशिश की, गली-गली की खाक छानी, पहाड़ में रहने वाली लड़की हो या सरकारी स्कूल में गिनती से दसवीं तक पढ़ने वाली जिसके कि मां बाप पहले ही सोच चुके थे कि यह हाई स्कूल नहीं जाएगी उससे तक प्रेम किया। लड़की तो क्या मैंने शराब तक से प्रेम की और आदतन तुम जानती होगी कि मैं इन शर्तों के बाद कैसे जिया होऊंगा। तुम्हारे जमाने में धमेंद्र चुन-चुन कर मारता था, लोग खोज खोज कर बदला लेते हैं। मकान मालिक किराया बढ़ाने का मौका तलाशता है। बाॅस एवज में एक्ट्रा काम लेने का सोचता है। सरकार गैस, डीजल से लेकर पानी तक का दाम बढ़ाने बैठी है। सभी अवसर की तलाश में हैं। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं। मैं किसी महान लक्ष्य के लिए पैदा भी नहीं हुआ। तुम्ही बताओ मैंने अपने स्कूली दिनों में भी - नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं कभी गाया ? नहीं गाया ना। मैंने भी केवल प्रेम किया है।

ईश्वर में हमारे जड़ों में दुख कुछ वैसे ही डाला जैसे तुम बड़ी श्रद्धा से सीधा आंचल कर तुलसी में जल देती हो। मैं लाख अभागा सही लेकिन तुम शर्मीला टैगोर की तरह दिल पर हाथ रख कर कह सकती हो कि तुम्हें मेरी यह तारीफ पसंद नहीं आई? आखिर तुम भी एक लड़की हो। एक उम्रदराज़ खूबसूरत औरत जिसके अंदर एक लड़की के अनगिनत ख्वाब पोशीदा है।... ना-ना आज मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए। हालांकि मैं शादी की उम्र का हो गया हूं फिर भी। तुम ये भी मत समझना कि मैं अपने बड़े हो जाने का सबूत तुम्हारे ही साथ फ्लर्ट करके दे रहा हूं।

सची माता गो, आमि जुगे जुगे होई जनोमो दुखिनी।
सागर
http://apnidaflisabkaraag.blogspot.com/




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सागर की इस सारगर्भित अभिव्यक्ति के बाद आइए चलते हैं उत्सव की ओर :


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