गुरुवार, 31 जनवरी 2013

वही ख्याल: लीक से हटकर - 1


कल्पना की कोई सीमा नहीं ......
मन सिर्फ सपनाता ही नहीं,
ना ही विरोध करता है - 
प्रेम, मृत्यु, विकृति, श्रृंगार, अध्यात्म
बात एक ही होती है 
पर कई अलग से ख्यालों से 
गुजरता है शक्स ! ... .







पढ़ते हुए आप समझते हैं - लिखना आसान है
चंद शब्द जमा कर लो इधर-उधर से
शब्दकोश से
और ले लो जाने-माने लोगों की पंक्तियों के भाव ...
स्मरण रहे –
ऐसा कुछ भी सही लेखन, पठन के आगे
दम तोड़ देते हैं
............ सही कलम के आगे -
घटनाएँ, शब्द, अतीत, भविष्य की चिंता,
वर्तमान से आँखें चुराना
ह्रदय को बेधते हैं
करवटों के मध्य आँखों से कुछ टपकता है
अन्दर में रिसता है
तब घबड़ाकर लेखक कुछ लिखता है !
दर्द किसी टिप्पणी का मोहताज नहीं होता
संवेदित आहट कितने भी हल्के हों
छू जाते हैं ...
आप ऊपर ऊपर कहते हो - ये क्या है भाई !
पर चक्रवात में जिसकी आँखें धूल से भरी है
वो क्या समझाए
किसे समझाए
और क्यूँ ??????????
सूक्तियों से चुभे कांच नहीं निकलते
दर्द की अनुभूतियों  के संग निकालो
तो अनकहा भी अपना होता है
और वही कठिनाईयों से कुछ पल चुराकर लिखता है
मरने से पहले जीने का सबब बना लेता है ........

रश्मि प्रभा
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यूँ ही बैठे-बैठे जब पलटे
अपनी डायरी के पन्ने
जाना तब मेरे दिल ने की
कुछ अनकहा सा
कुछ अछूता सा
ना जाने मेरी कविता
में क्या रह जाता है
प्यार और दर्द मे डूबा मनवा
ना जाने कितने गीत
रोज़ लिख जाता है
पर क्यूं लगता है फिर भी
सब कुछ अधूरा सा
कुछ कहने की ललक लिए दिल हर बार
कुछ का कुछ कह जाता है

दिल ने मेरे तब कहा मुझसे मुस्कारा के
कि जो दिल में है उमड़ रहा
वो दिल की बात लिखो
कुछ नयेपन से आज
एक नया गीत रचो
लिखो वही जो दिल सच मानता है
एक आग वो जिस में यह दिल
दिन रात सुलगता है ..

कहा उसने ------
लिखो कुछ ऐसा
जैसे फूलो की ख़ुश्बू से
महक उठती है फ़िज़ा सारी
दूर कहीं पर्वत पर जमी हुई बर्फ़ को
चमका देती है सूरज की
पहली किरण कुवारीं
या फिर पत्तो पर चमक उठती है
सुबह की ओस की बूँद कोई
आँखो में भर देती है ताज़गी हमारी
या फिर तपती दोपहर में दे के छाया
कोई पेड़ राही की थकन उतारे सारी
लिखो पहली बारिश से लहलहा के फ़सल
दिल में उमंग भर देती है उजायरी
महकने लगती है मिट्टी उस पहली बारिश से
सोँधी -सोँधी उसकी ख़ुश्बू
जगाए दिल में प्रीत न्यारी
लिखो कुछ ऐसे जैसे "हीर "भी तुम
और "रांझा भी तुम में ही है" समाया हुआ
प्यार की पहली छुअन की सिरहन
जैसे दिल के तारो को जगा दे हमारी
या फिर याद करो
अपने जीवन का "सोलवाँ सावन"
जब खिले थे आँखो में सपने तुम्हारे
और महक उठी थी तुम अपनी ही महक से
जैसे कोई नाज़ुक कली हो चटकी हो प्यारी प्यारी

सुन कर  मैं मन ही मन मुस्काई
और एक नयी उमंग से फिर कलम उठाई
रचा दिल ने एक नया गीत सुहाना
कैसा लगा आपको ज़रा हमे बताना ??:)


रंजना भाटिया
http://ranjanabhatia.blogspot.com/
http://amritapritamhindi.blogspot.com/

सोमवार, 28 जनवरी 2013

सामाजिक स्थिति और चिंतन - 4




समाज टकटकी लगाये देख रहा अपने दायरे को 
भीड़ विमुख भाव से कह रही - 'ऐसे ही जीना है - जियो !'
......................
इस भीड़ के चेहरे अपने हैं 
पर रुकते ही नहीं सुनने को 
परेशानियां अपनी अपनी हैं 
मुसीबतें बंदूक लिए खडी है 
- कब तक खैर मनाये कोई !!!



रश्मि प्रभा 
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सुयश सुप्रभ  http://anuvaadkiduniya.blogspot.in/

My Photoमैं इस सवाल का जवाब ढूँढ़ रहा हूँ कि दिल्ली में गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ देने वाले अधिकतर कांग्रेसी नेताओं के चेहरे परतदार क्यों होते हैं। एक परत के नीचे दूसरी परत, दूसरी के नीचे तीसरी, तीसरी के नीचे चौथी, चौथी के नीचे पाँचवीं... पता नहीं ये परतें राजनीति से पैदा होती हैं या आराम से बैठकर खाने से। इन चमकते-दमकते चेहरों को देखकर ऐसा लगता है कि हमारा देश गंधर्वों से भरा पड़ा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि आज के दिन खुश होना एक ऐसा नैतिक दायित्व है जिसे पूरा न करने पर आप सभी संविधानप्रेमियों के निशाने पर आ सकते हैं। मैं जिस तंत्र में अपने गण को ही नहीं देख पाता हूँ उसके लिए कूदने-चिल्लाने को मैं बेकार काम मानता हूँ। मैं सोचने-समझने के बाद पैदा होने वाले दुख को झूठी या आधारहीन खुशी से हमेशा बेहतर मानता आया हूँ। और यह किसने कहा कि हम गम इंसान को मार ही डालता है! 


उत्तर खोजें !

My Photo                     ये प्रश्न सिर्फ मेरे मन में ही उठा है या और भी लोगों के मन में उठा होगा ये तो मैं नहीं जानती लेकिन अपने समाज और युवाओं के बढते हुए आधुनिकता के दायरे में आकर वे उन बातों को बेकार की बात समझने लगे हैं ,जिन्हें ये दकियानूसी समाज सदियो से पालता  चला आ रहा है। 

                    आज के लडके और लड़कियाँ 'लिव इन रिलेशन ' को सहज मानने लगे हैं और सिर्फ वही क्यों ? अब तो हमारा क़ानून भी इसको स्वीकार करने में नहीं हिचक रहा है। उसके बाद जब तक एक दूसरे को झेल सके झेला और फिर उस रिश्ते को छोड़ने पर 'ब्रेक अप ' का नाम देकर आगे बढ़ लिए . दोनों के लिए फिर से नए विकल्प खुले होते हैं। कहीं कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता है सब कुछ सामान्य होता है। फिर यही लोग घर वालों की मर्जी से शादी करके अपने नए घर बसा कर रहने लगते हैं। 

                   इस समाज में अगर एक लड़की बलात्कार का शिकार हो जाती है तो उस पीड़िता को  समाज में  हेय दृष्टि से देखा जाता है जब कि उसमें कहीं भी वह दोषी नहीं होती है . वास्तव में इस काम के लिए दोषी लोगों को तो समाज सहज ही क्षमा करके भूल भी जाता है और वे अपने घर के लिए या तो पहले से एक लड़की ला चुके होते हैं या फिर इसी समाज के लोग उनके लिए अपनी लड़की लेकर खड़े होते हैं। इसके पीछे कौन सी सोच है? इस बात को हम आज तक समझ नहीं पाए हैं। 

                    और उस पीडिता को कोई भी सामान्य रूप से विवाहिता बना कर अपने जीवन में लेने की बात सोच नहीं सकता है (वैसे अपवाद इसके भी मिल जाए हैं। ) आखिर इस हादसे में उस लड़की का गुनाह क्या होता है ? और क्यों उसको इसकी सजा मिलती है? वैसे तो अगर इस बात को गहरे से देखें तो सब कुछ सामने है कि  हमारे समाज में अब विवाह-तलाक-विवाह को हम स्वीकार करने लगे हैं . हमारी सोच इतनी तो प्रगतिशील हो चुकी है। हम विधवा विवाह को भी समाज में स्वीकार करने लगे हैं लेकिन फिर भी इस पीडिता में ऐसा कौन सा दोष आ जाता है कि  हम परित्यक्ता से विवाह की बात , विधवा से विवाह की बात तो स्वीकार कर रहे हैं  , उसमें भी वह लड़की किसी और के साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत कर चुकी होती है भले ही उसकी परिणति दुखांत रही हो   हम उस लड़की को स्वीकार करते हुए देखे जा रहे हैं। लेकिन एक ऐसी लड़की जो न तो वैवाहिक जीवन जी चुकी होती है और न ही वह मर्जी से इस काम में शामिल होती है फिर भी वह इतनी बड़ी गुनाहगार होती है कि कोई भी सामान्य परिवार उसको बहू के रूप में स्वीकार करने का साहस करते  नहीं देखा सकता है। 

                एक बलात्कारी सामान्य जीवन जी सकता है और समाज में वही सम्मान भी पा  लेता है। लेकिन एक पीड़िता  उसके दंश को जीवन भर सहने के लिए मजबूर होती है। मैं अपने से और आप सभी से इस बारे में सोचने और विचार करने के लिए कह रही हूँ कि एक परित्यक्ता  या विधवा से विवाह करने में और एक पीड़िता से विवाह करने में क्या फर्क है? दामिनी के साथ हुए अमानवीय हादसे के बाद पूरे देश में युवा लोग उसके लिए न्याय की गुहार के लिए खड़े हैं और दूसरे लोग उसमें दोष निकाल  रहे हैं या फिर लड़कियों के लिए नए आचार संहिता को तैयार करने की बात कर रहे हैं। उस घटना के बाद देश में ऐसी घटनाएँ बंद नहीं हुई बल्कि और बढ़ गयी हैं या कहें बढ़ नहीं गयीं है बल्कि पुलिस की सक्रियता से सामने आने शुरू हो गये है। अब सवाल हमारा अपने से है और युवा पीढी से है कि  क्या वह ऐसी पीडिता से विवाह करने के लिए खुद को तैयार कर सकेंगे। वे न्याय के लिए लड़ रहे हैं लेकिन इस अन्याय का शिकार लड़कियाँ क्या जीवन भर अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर रहेंगी। समाज इस दिशा में भी सोचे - ये नहीं कि वे पीडिता हैं तो उन मासूम बच्चियों को कोई चार बच्चों का बाप सिर्फ इस लिए विवाह करने को तैयार हो जाता है क्योंकि  उसको एक जवान लड़की मिल जायेगी और उसके चार बच्चों को पालने  के लिए एक आया भी। एक तो वह वैसे भी अभिशप्त और दूसरे उसको जीवन एक नयी सजा के रूप में सामने आ जाता है। अब इस समाज को इसा दिशा में भी सोचना होगा कि  इन्हें एक सामान्य जीवन देने की दिशा में भी काम करना चाहिए . पीडिता को रहत देने वाले इस काम को भी करने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा। 

                   इस विषय में आप सबके विचार आमंत्रित हैं और सुझाव भी कि ऐसा क्यों नहीं सोचा गया है या क्यों नहीं सोचा जा सकता है ?

रेखा श्रीवास्तव 

शनिवार, 26 जनवरी 2013

सामाजिक स्थिति और चिंतन - 3




झूठ .... एक के बाद एक झूठ का सिलसिला
और फिर झूठ पुख्ता सच हो जाता है 
सवाल गलत से उठते ही नहीं 
सवाल तो कर्मठ विद्यार्थी से होते हैं 
जो चाक़ू लेकर बैठता है 
उसे हल बता दिए जाते हैं ................... समाज की इस स्थिति का ज़िम्मेदार समाज ही है, वह मार खानेवालों की स्थिति के साथ अपना मनोरंजन करता है और यदि बचाव में विरोध हुआ तो भाग जाता है !!! 
समाज के इस चेहरे को बदलना होगा -

  रश्मि प्रभा 

साधना वैद  http://sudhinama.blogspot.in/

मन में गहरी उथल-पुथल है ! असुरक्षा, आत्मवंचना, और हिलते हुए आत्म विश्वास से लगातार जूझने की स्थितियां सोने नहीं देतीं ! जब तक खुद या घर परिवार के सदस्य घर से बाहर हैं दुश्चिंताएं भयाक्रांत करती रहती हैं ! सडकों पर इतना ट्रैफिक और रश होता है कहीं कोई दुर्घटना ना हो जाए, कहीं कोई आतंकी हमला न हो जाए, कहीं कोई बच्चों को अगवा ना कर ले, कहीं गुंडे बदमाश बच्चियों के साथ बदसलूकी ना करें, कहीं चोर लुटेरे चेन, पर्स, लैप टॉप या कोई कीमती सामान ना लूट लें !   मंहगाई ने जीना मुहाल कर रखा है ! मेवा मिष्ठान की तो बात छोड़िये फल दूध साग सब्जी भी  थाली से घटते जा रहे हैं ! पेट्रोल डीज़ल के हर रोज़ बढ़ते दाम शायद अब जीवन की रफ़्तार पर भी लगाम लगाने वाले हैं ! साइकिल या चरण रथ पर सवार होकर ही बाहर निकलना होगा ! इससे ज्यादह बदहाली के लक्षण और क्या हो सकते हैं ! समय की पटरियों पर हमारे देश और समाज की विकास की गाड़ी विपरीत दिशा में जा रही है और हम आक्रोश का ज्वालामुखी मन में दबाये बैठे हैं ! और क्या कहूँ !

पंक्तियाँ लयबद्ध नहीं है, परन्तु जो कहना चाहता हूँ वो यही है कि हमें अपनी संवेदनहीनता से लड़ना है, ताकि चीज़ें बस न्यूज़-item या गॉसिप तक सीमित न रह जाएं। 
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कैसा समाज बना डाला है हमने?
कि दर्दनाक हादसों को महज़
न्यूज़-आइटम समझ लेते हैं।
क्या नहीं हो गया है हमारी
संवेदनशीलता का ही बलात्कार?
कि सब मुद्दे भूल कर हम
हर रात चैन से सो लेते हैं,
और नहीं गूँजती हमारे कानों में
किसी और की चीत्कार!

भरत तिवारी  सियासी भंवर  http://www.shabdankan.com/

जनसत्ता 28 दिसंबर, 2012: आज लोगों को अजीब राजनीतिक माहौल में रहना पड़ रहा है। हमें लगता था कि कद्दावर नेताओं से शुरू होकर, बीच में धार्मिक आदि रास्तों से होते हुए यह बात छुटभैए नेताओं पर खत्म हो जाती है। हमने अपनी वैचारिकता के मुताबिक इससे निपटना भी सीख लिया और इसे ‘राजनीतिक समझ’ का नाम दे दिया। इस समझ का पढ़ाई से कोई सरोकार नहीं है, यह हमें बचपन में ही इतिहास के अध्यापक ने अकबर के बारे में पढ़ाते हुए समझा दिया था। लेकिन हमने इसे पूरी तरह सच नहीं माना। 
फिर हमें वे मिले, जो हमारी राजनीतिक समझ बढ़ाने के लिए आए, जिन्होंने हमें बताया कि देखिए अमुख जिसे आप ऐसा नहीं मानते हैं वह भी राजनीति कर रहा है। वे साक्ष्यों को सामने रखते गए और हम इस बात को लेकर खुश हुए कि कोई रहनुमा मिला। अलग-अलग क्षेत्रों में हमें नए-नए रहनुमा मिलते रहे और हमें उस क्षेत्र में होने वाली राजनीति से अवगत कराते रहे। समय-समय पर ये रहनुमा प्रकट होते और हमारी समझ को दुरुस्त करते रहे। 
मगर हम अब
तक नहीं समझ पाए कि ये विलुप्त क्यों हो जाते हैं? दरअसल, हमें इतना वक्त ही नहीं दिया जाता कि यह सवाल पूछ सकें। अब सवाल है कि हमारा वक्त हमारा सोच (राजनीतिक-समझ) कौन नियंत्रित कर रहा है! 
तमाम देश जब दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से दुखी होकर, इंडिया गेट पर पुलिस की लाठियां खा रहा था, उस समय ये सारे रहनुमा नदारद थे। हमने अपनी समझ का प्रयोग (शायद पहली बार) किया और किसी भी मोड़ पर हमें इनकी कमी महसूस नहीं हुई। और बड़े प्रश्न का उत्तर तब मिला, जब इनके परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते ही, हम करोड़ों की समझ को गलत ठहराया गया। 
यहां हमारा इन रहनुमाओं की बात न सुनना और इन्हें दरकिनार करना बता रहा है कि इनकी पोल खुल गई है, कि हमारे सोच पर इनका नियंत्रण था, कि यह भी उसी गंदी राजनीति का हिस्सा है, जिनको सिर्फ कुर्सी और पैसे का लालच है। 
उम्मीद है कि अब अपनी समझ को हम, रहनुमाओं की बात सुन कर, बगैर सोचे-समझे नहीं बदलेंगे। 


 डॉ नूतन गैरोला . http://amritras.blogspot.in/

      बाजारीकरण के इस युग में ....जब आज सब कुछ बिकने के लिए बाजारू हो गया ...  क्या नेता, क्या अभिनेता,....क्या प्रसिद्धि क्या यश ....क्या देह क्या नजर ... क्या धर्म, क्या कर्म, ...  क्या  मिडिया,क्या आदमी, ... क्या नैतिकता, क्या सोच ..... सोच को संचालित करती हुई ताकत  .. और ताकत भी बिक जाती है पैसों के हाथ ...और जहाँ ताकत गलत हो जाती है वहां जन्म लेते हैं अपराध, बलात , भेदभाव, अत्याचार,भ्रष्टाचार , अन्याय... और न्याय के लिए उठती आवाजों का  साथ देने वाली भ्रामक आवाजे पीछे पीछे उन आवाजों को दबाने की कूटनीति  खेलती हैं ...आन्दोलनों को दबा लिया जाता है , स्तिथि ज्यूँ की त्यूं बल्कि और भी बदतर  ....  तो समाज को दिशा देती हुई मुद्राएं  ...फिर  जिसकी लाठी उसकी भेंस .. जिसके हाथ मुद्रा उसके हाथ ताकत और उसकी आवाज सुनी जाती है  .... समाज को दिशा देती हुई मुद्राएँ,  उत्थान की और कम और पतन की और ज्यादा ले जा रही हैं....... और हमें इनके बीच बचाना है अपने अन्दर का इंसान और उसकी इंसानियत ताकि चतुर होने के बाद भी  कल इंसान एक विलुप्त प्रजाति न हो जाये ...... 
                       फिर भी समाज की स्तिथि देख कर यह लिखा था मैंने   

नहीं लिखना मुझे अब 
गरीबी पर 
न भूख पर 
महामारी पर 
व्याधियो पर 
लाचारियों पर 
युद्ध की भयानकता पर

शिकार और शिकारी पर 



बलात और बलात्कारी पर  
सड़ी राजनीती पर
या वहसी समाज पर.......


थक चुकी हूँ अब
पक चुकी हूँ अब ...........
कहीं तो कोई बदलाव नजर आये
कहीं से तो कोई अच्छी खबर आये 
कही से तो लिखने का कुछ जज्बा जाग जाए ...........


अरुण रॉय http://www.aruncroy.blogspot.in/


मैं एक ही मैकेनिक की दुकान पर अपनी बाईक ठीक करवाता हूँ। मेरे घर से निकलते ही सड़क पर उसका ठीया है। वहां दस साल एक लड़का काम करता है। उसे मैं पिछले चार साल से देख रहा हूँ। कई बार वह मेरे घर पर भी आ गया है मोटरसाइकिल लेने। वह घर आकर मोटर साइकिल ले जाता है और सर्विसिंग करके पंहुचा जाता है। मेरे बेटे की उम्र का है वह। लेकिन जिस माहौल में वह काम करता है, जिस तरह की भाषा वह इस्तेमाल करने लगा है , दस साल में वह जवान हो गया है। कालोनी से निकलने वाली लड़कियों को घूरना, अकेले पाकर फब्तियां कसना शुरू कर दिया है जबकि जब वह दूकान पर आया था बेहद मासूम लड़का था वह। पढाई नहीं की है, पहले पढने की चाहत थी लेकिन अब बात करने पर पता चला की वह चाहत नहीं रही। पैसे कम या अधिक कमा लेता है। मोबाइल भी खरीद लिया है। मोबाइल पर वह गंदे गंदे विडिओ क्लिपिंग देखता है।
दिल्ली हादसे में जिस तरह के लोग शामिल थे, उसी माहौल में यह लड़का भी रहता है . सो मेरी इच्छा हुई कि इस से थोडा बात करलें। पूछने पर इसने बताया कि इधर उसका उस्ताद बताता है कि ये लड़कियां चालू होती हैं, इनके कई कई दोस्त होते हैं और जिनमे शारीरिक सम्बन्ध भी होते हैं। यानी दस साल में उसके दिमाग को पूरी तरह गन्दा बना दिया गया है। यह इकलौता मामला नहीं है बल्कि देश के होटलों, ढाबों, दुकानों, गराजों में काम करने वाले हजारों बच्चे इसी तरह गन्दा हो रहे हैं। वे पहले यौन शोषण के शिकार होते हैं और बाद में कहीं न कहीं अपराध की ओर रुख कर लेते हैं। इसलिए सोचने की जरुरत है कि अपराधी बनाने वाले कारणों से लड़ें न कि अपराध से।
और यह इण्डिया और भारत दोनों जगह एक सामान मौजूद हैं।

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

सामाजिक स्थिति और चिंतन - 2


आज ....हमेशा कल हो जाता है - जो बीत जाता है 
बीता कल लौटता नहीं - आनेवाला कल आता नहीं 
आज की उठापटक में परिभाषाएं बदल जाती हैं 
पर परम्परा बोलती है 
खंडहरों से भी अपना वजूद बतलाती है 
समझाती है कि दहलीज,गुम्बद,आँगन .....
सबके मायने थे 
मटियामेट करना उसकी गरिमा को नहीं मिटाता 
एक चिड़िया तक उसे याद करती है 
पर तुम सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक,मर्यादित  ...परिवर्तन के बीच 
सबकुछ खो चुके हो 
कानून के अंधेपन का नाजायज फायदा ले रहे हो 
याद रखना - तुम रावण की तरह जलाये भी नहीं जाओगे 
गिद्ध भी तुम्हें खाने से कतरायेंगे 
एक आज तुम्हें बेमौत मार डालेगा - याद रखो ...

स्त्री,पुरुष - दोनों घर के बंदनवार हैं 
किसी एक को तोड़ना - !!
तुममें से कोई भी किसी एक का हिसाब किताब कैसे कर सकता है ?!
वहशी पुरुष,वहशी स्त्रियाँ - दोनों कलंक हैं 
एक ही पलड़े पर हर वारदातें नहीं होतीं !




रश्मि प्रभा 
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My Photo
रेखा श्रीवास्तव  http://hindigen.blogspot.com

आज के समाज के लिए इतने सारे प्रश्न चिह्न खड़े हैं की चिंतन कहाँ से शुरू किया जाय , यह भी एक प्रश्न बन चूका है। यहाँ नैतिक मूल्यों के पतन का सबसे बड़ा प्रश्न है और यही जड़ है जिसके दूषित होने से समाज का हर तबका किसी न किसी सामाजिक विकृति का शिकार बन चूका है। फिर से घर से लेकर बाहर तक नैतिक मूल्यों को स्थापित करने से ही समाज को एक स्वस्थ वातावरण मिल पायेगा  . इसके लिए मानस को मानवीय मूल्यों से फिर से अवगत करने की जरूरत है। आत्म संयम , सम्मान की भावना , संतुष्टि और मानवता को अंतर में स्थापित करने की जरूरत है।
My Photo
मीनाक्षी मिश्रा तिवारी http://meenakshimishra1985.blogspot.in

सामजिक कुरीतियों के चलते हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है
मेरा सोचना है कि आज हर घर में आवश्यकता है- स्त्रियों को बराबरी का अधिकार मिले और हर घर में पुरुषों को स्त्रियों के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखना सिखाया जाये ....


देवेन्द्र शर्मा http://csdevendrapagal.blogspot.in/

My Photoवर्तमान दौर में अक्सर देखा जा रहा है कि लोग समाज की बुराइयाँ गिनाते रहते हैं। कोई पुरुष प्रधान होने की बुराई गिनाता है कोई स्त्री केन्द्रित होने की, और कोई भाषा, वेशभूषा, रहन - सहन, में आते बदलाओं की। परन्तु सिर्फ बुराइयां देखने के साथ साथ समय के अनुसार जरुरी बदलाओं पर भी गौर किया जाना चाहिए। अठारवीं सदी के विचारों पर ही बढे चले जाना किसी भी स्थिति में उपादेय नहीं है। निश्चित रूप से इक्कीसवीं सदी के भारत में समाज में आमूल चूल बदलाव आये हैं जहां स्त्रियों ने अपनी क्षमताओं को सिद्ध किया है। वहीं कुछ बदलाव प्रशंसनीय नहीं रहे विशेष तौर पर पहनावे में बदलाव और डिस्क जाना आदि। परन्तु इसे भी पूरी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता क्यूंकि किसी न किसी परिवेश में इसे स्वीकार भी किया जाता है। निश्चित रूप से पाश्चात्य संस्कृति को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते वो नैतिक मूल्यों को बनाये रखे। दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है अगर हम उसे अच्छी नज़र से देखें। सबकी नज़र अच्छी रहे इसके लिए पुरुष हो या स्त्री समय और परिवेश के अनुसार उसे ढाल लेना चाहिए। यह भी सत्य है की युवा सिर्फ वही करना चाहते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, इसमें भी कोई बुराई नहीं है परन्तु इस बिंदु पर बहुत अधिक सावधान और मर्यादित होने की आवश्यकता है। मर्यादाएं निर्धारित करने का भी कोई मापदंड नहीं है और जहा कोई पैमाना न हो वहाँ वह किया जाना चाहिए जो समाज में व्यापक रूप से स्वीकार्य हो और अपनी संस्कृति के अनुसार हो। वर्तमान परिदृश्य में समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए हमे सार्थक चिंतन की आवश्यकता है। ऐसे विचार अपनाये जाने चाहिए जो समाज को बिना भटकाए सही दिशा में ले जाये। जो कुछ खुलापन हो, मर्यादित हो। नैतिक मूल्य बढ़ें। आवश्यकता है की युवा और सम्मान नीय अनुभवी  व्यक्तित्व मिलकर वैचारिक क्रांति लायें। समाज में शिक्षा का प्रसार किया जाये। लोगो की मानसिकता बदलने का प्रयास किया जाए। वैचारिक क्रांति ही समाज का उत्थान कर सकती है , कोई संगठन या आन्दोलन नहीं।


वंदना गुप्ता http://vandana-zindagi.blogspot.in/

मुझमे ज़हर भर चुका  है और वो भी इतना कि  अब संभालना मुश्किल हो रहा है इसलिए आखिरी हथियार के तौर पर मैंने  विष वमन करने का रास्ता अख्तियार  किया  . क्योंकि यहाँ तो चारों तरफ विष का नाला बह रहा है . दुनिया में सिवाय विष के और कुछ दिख ही नहीं रहा . हर चेहरे पर एक जलती आग है , हर मन में एक उबलता तूफ़ान है , चारों तरफ मचा हाहाकार है , जिसने जितना मंथन किया उतना ही विष निकला और उसे उगल दिया फिर चाहे व्यवस्था से नाराज़गी हो या घर से मिली उपेक्षा हो , फिर चाहे अपनी पहचान बनाने के लिए जुटाए गए हथकंडे हों या खुद को पाक साफ़ दिखाने की कवायद में दूसरे  को नीचा दिखाने की कोशिश , या फिर बेरोजगारी , भ्रष्टाचार , दरिंदगी, व्यभिचार , घोटालों से घिरा आम आदमी हो या उच्च पदासीन या उच्च वर्ग को देख खुद को कमजोर समझने की लिप्सा हो विष ने जकड लिया है चारों तरफ से ........सभी को चाहे नेता हो या राजनेता या आम आदमी , उच्च वर्गीय या माध्यम या निम्न वर्गीय सबकी अपनी अपनी परेशानियों से उपजी अव्यवस्था विष का कारण  बनी ...............और मैं कैसे अछूता रह सकता था ..........नाम कमाने की लिप्सा ने मुझे भी आंदोलित किया , जल्द से जल्द अपनी पहचान बनाने की चाह में मैंने न जाने कितने सह्रदयों के ह्रदयों को दुख दिया , अवांछित हस्तक्षेप किया उनकी ज़िन्दगी में , सिर्फ खुद की पहचान बनाने के लिए ........उनके खिलाफ विष वमन किया और हल्का हो गया .................और मुझे एक स्थान मिल गया ....... और आज मैं खुश हो गया बिना परवाह किये कि  जिसके खिलाफ विष वमन किया उसकी ज़िन्दगी में या उस पर क्या प्रभाव पड़ा ..............बस इस सोच ने ही आज ये स्थिति ला खडी की है और हम ना जाने क्यों चिंतित नहीं हैं …………खुश हैं व्यवस्था की असमाजिकता से,इस अव्यवस्था से………आदत हो चुकी है और जो आदतें पक जाती हैं वो जल्दी बदली नहीं जातीं फिर चाहे मानसिक गुलामी हो या शारीरिक …………फिर क्या फ़र्क पडता है समाजिक व्यवस्था सुधरे ही या नहीं ………अब कौन करे चिन्तन या मनन।
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किशोर कुमार खोरेन्द्र http://tatpry.blogspot.in/

समाज के प्रति सकारात्मक चिंतन और राजनीति  में उस चिंतन को कार्यरूप में परिणित करना ..दोनों के मध्य बहुत बड़ा विरोधाभास है ..परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी धीमी होती है ..नहीं के बराबर /
समाज हो या राजनीतिग्य ..अन्तत: चिंतन का परिणाम व्योक्तिओ   के आचरण पर जा टिकता हैं /
जाति  प्रथा हो ,धार्मिक उन्माद हो ,या नारी उत्पीडन हो ..सभी समाज की ईकाई "परिवार के व्यवहार पर" आधारित हैं ,परिवार अपने कुसंस्कारों को त्यागने पर बरसों लगा देते हैं 
उदाहरण के लिए वर्तमान परिवेश में नारियों पर होने वाले अन्याय के प्रति उपेक्षा का भाव भी जैसे ठीक नहीं हैं /
मैं  अनुलता .. आपकी नज़र  से

अनुलता राज नायर

आज समाज की स्थिति चिंतन नहीं बल्कि चिंता करने योंग्य है.
सब कुछ बिखर रहा है और सम्हालने के लिए दो हाथ भी नहीं.
आज दृढ़ मानसिक शक्ति के साथ एक जुट होकर परिवर्तन लाने की आवश्यकता है वो भी किसी कुशल एवं  सक्षम नेतृत्व में.
बिना नकेल के छुट्टे सांड की तरह भागती भीड़ समाज में कभी बदलाव नहीं ला सकती.हाँ कुछ देर के लिए ऐसा भ्रम  ज़रूर पैदा किया जा सकता है,जैसे सब बदल जाएगा.
ज़रूरी है कि हम पहले स्वयं को बदलें.देखें ,परखें खुद को.एक सवाल खुद से किया जाय कि क्या हम हर तरह से सही हैं और क्या समाज के लिए अपना योगदान दे रहे हैं??
सामजिक चिंतन आत्म चिंतन के बाद ही हो.

बुधवार, 23 जनवरी 2013

सामाजिक स्थिति और चिंतन - (1)



जो झूठ बोलते हैं वे कसम ... अपने बच्चों की कसम बहुत जल्दी खाते हैं 
जो सच बोलते हैं,उनको अपने सच पर भरोसा होता है 
किसी भी यकीन के लिए वे बच्चों को बीच में नहीं लाते !
कोर्ट में भी अत्यधिक भक्तिभाव से गीता की कसम वही दुहराते हैं 
जो हत्यारे होते हैं 
जिनके घर में अनहोनी घटती है 
वे बस गीता को मूक भाव से देखते हैं !!!....................... इस बात से समाज में कौन अनभिज्ञ है,फिर भी ........................ !!! दुखद है,पर यही है . मज़े की बात जनता जो सब जानती है,वह झूठ के पीछे गवाह की शक्ल लिए खड़ी हो जाती है . फिर दुःख का क्या मूल्य ???

समाज के विभिन्न नज़रियों से आपकी मुलाक़ात करवाती हूँ ताकि आप जान सकें - सामाजिक स्थिति और चिंतन को .......... रश्मि प्रभा 
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समाज को पहल करने की आवश्यकता ...

आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी विकास के बावजूद हमारा देश मानसिक रूप से अभी भी पिछड़ा है, वह अभी भी पुरुष प्रधान होने के दंभ में जकड़ा हुआ जबकि प्राचीन काल से यहाँ तक की हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी स्त्री को प्रथम पूज्य माना गया है. वर्तमान में घट रही अपराधिक घटनाएँ इसका सबसे बड़ा सबूत हैं, इस रोकने के लिए समाज और प्रशासन के साथ-साथ समाज को पहल करने की अत्यंत आवश्यकता है...

संध्या शर्मा 

क्या हम सच में सभ्य हो रहे हैं ? 

हम कितने सभ्य हो गये हैं ..आज हमे आज़ाद हुए कितने बरस बीत गये हैं और हमारे सभ्यता के कारनामो से तो आज के पेपर भरे रहते हैं नमूना देखिए बस में बाज़ार में किसी की जेब कट गयी है ,मामूली बात पर कहसुनी हो गयी .सड़क दुर्घटना का कोई शिकार हो गया जिसे तुरंत हस्पिटल पहुंचाना  है पर हम लोग देखा अनदेखा कर के निकल जाते हैं .क्या करे कैसे करें दफ़्तर के लिए देर हो रही है ..कौन पुलिस  के चक्कर में पड़े आदि आदि ..यही सोचते हुए हम वहाँ से आँख चुरा के भाग जाते हैं ..सच में कितने सभ्य हो गये हैं ना ....हर वक़्त वक़्त से आँख चुराने कि कोशिश करते रहते हैं ...

हमारा जीवन दर्शन बदल चुका है वह भी उस देश में जहाँ पड़ोसी की इज़्ज़त हमारी इज़्ज़त गावं की बेटी अपनी बेटी .अतिथि देवो  भावा ,सदा जीवन उच्च विचार .रूखा सूखा चाहे जो भी खाओ मिल बाँट के खाओ ...........जैसे वाक्य हमारे जीवन दर्शन के अंग रहे हैं ॥आज आपके पड़ोसी के साथ कुछ भी हो जाए पर आपको पता ही नही चलता है ..सबको अपनी अपनी पड़ी है यहाँ आज कल ..कोई किसी मुसीबत में पड़ना ही नही चाहता है ,चाहे  उस व्यक्ति  को अपने जीवन से हाथ धोने पड़े ..पर हम तो सभ्य लोग हैं क्यों सोचे किसी के बारे में ..??? काश कि हम अपनी जीवन के पुराने दर्शन को फिर से वापस ला पाते और सच में सभ्य कहलाते ..अभी भी वक़्त नही बीता है यदि समाज़ के कुछ लोग भी अपने साथ रहने वालो के बारे सोचे तो शायद बाक़ी बचे लोगो की विचारधारा यह देख के कुछ तो बदलेगी ॥सिर्फ़ ज़रूरत है कुछ साहसी लोगो के आने की आगे बढ़ के पहल करने की ..अपनी सोई आत्मा को जगाने की ..तब यह वक़्त बदलेगा तब हम सचमुच में ही सभ्य कहलाएँगे !!..

अजब फिजा (कविता )
कुछ अजब फ़िज़ा हो गयी है
मेरे देश की
कुछ जहरीली विषेली हवाएं 
शहर गांव सीमा हर जगह
 पर अपना असर छोड़ रही है
इस से पहले की
भारतीय परम्परा 
 संस्कृति की दुहाई देने वाले 
और धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले
हमारे देश के कई टुकड़े हो जाए
और यह विष उगलती हवा
कई बलिदान अपने साथ ले
जाए
थाम लो ख़ुद के हाथों में
विश्वास की डोर अब तुम ही
अमन ,प्यार का वही माहौल
और चैन की हवा फ़िर से
हर दिल पर बरस जाए !
और हर तरह के
भय से देश हमारा
मुक्त हो जाए !! 

 रंजना (रंजू) भाटिया 


 ..सामाजिक मूल्यों का निर्माण तो हम अवश्य करतें है पर...उन मूल्यों को जीवन में अपनाने के लिए हम स्वयं को बाध्य नहीं समझतें!...हम हंमेशा दूसरों से अच्छे वर्ताव की अपेक्षा करतें है; क्यों कि दूसरों के प्रति स्वयं का वर्ताव हम अच्छा ही समझतें है!..समाज के आईने पर नजर डालने पर क्या हमें अपनी छबी नजर नहीं आती?

अरुणा कपूर (http://jayaka-rosegarden.blogspot.in/)


हमारा समाज एक अलग दिशा की ओर जा रहा है , पाश्चात्य सभी के ऊपर हावी दिख रहा है । हमारी पुरानी परंपराएन जैसे लुप्त सी हो गयी है । उदाहरण के तौर पर नयी दुल्हन घूँघट नहीं करती श्वसुर के सामने । आज की पीढ़ी बुजुर्गों का सम्मान नहीं करती है । खान-पान -पहनावा मे नग्नता, विचारों में ओछापन, नकारात्मक दृष्टि, द्वेष, कुंठा में लिप्त मन और क्या कहूँ ? 

Surinder Ratti  (http://surinderratti.blogspot.in/..



बात समाज की वर्तमान दशा की हो या फिर समाज को दिशा देने की जब तक रूढ़ी-प्रथाओं और सामाजिक मूल्यों में वर्तमान की अपेक्षाओं के हिसाब से 'फ्लेक्सिबिलिटी' नहीं होगी तो परिवर्तन के लिए स्पेस नहीं मिलेगा। इसलिए सामंती संस्थाओं की सार्थकता पर पुनः मंथन होना चाहिए।परिवर्तन का प्रथम सोपान हमारा अपना घर-परिवार है और समाज उसी का बाई-प्रोडक्ट है;इसलिए संस्कारों की पोथी रटाने की बजाय कर्म और उसकी संवेदनशीलता पर ध्यान दिया जाए तो सकारात्मक परिवर्तन की संभावना कुछ अधिक होगी।बच्चों में शिक्षा, सेक्स और कैरिअर को लेकर भय पैदा करने की जगह यदि हम उन्हें सजग रहना सिखाएं तो बेहतर होगा।

पुनः समाज कुछ वर्गों की बपौती नहीं है इसलिए मुख्यधारा द्वारा वंचितों की आवाज़ को अब एक ठोस चेतावनी की तरह लेना होगा।मोमबत्ती जला कर शांतिपूर्ण विरोध दर्ज कराना अच्छी बात है लेकिन यह सड़ चुकी व्यवस्था का विकल्प नहीं;विकल्प है राजनीति के प्रति उदासीन हो रहे युवाओं की सत्ता-व्यवस्था में भागीदारी।जहाँ तलक स्त्रियों को संस्कृति की तहज़ीब सिखाने से बेहतर होगा की किसी भी मुद्दे पर अब स्त्री और पुरुष दोनों की सामान जिम्मेदारी तय की जाए।स्त्रियाँ पितृ-पुरुष सत्ता के तिलिस्म में अब और अधिक ना उलझें और 'सिस्टरहुड' को लेकर एक फ्रंट पर साथ आये। स्त्रियाँ 'देह से देवत्व तक की यात्रा' का नाम नहीं है ये बात खुद स्त्रियों को भी समझनी होगी।और अंत में 'बैसाखियाँ कितनी ही खूबसूरत क्यूँ ना हों बनाती तो अपाहिज ही हैं।' इसलिए दूसरों को उनकी जिम्मेदारी याद दिलाने से पहले ईमानदारी से अपनी भूमिका तय करें।

और कुछ इस तरह एक सुबह वह भी आएगी जब चेतना का एक-एक बिंदु मिलकर एक रेखा बन जाएगा .

चंद्रकांता http://chandrakantack.blogspot.in/

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

...... दामिनी माध्यम है स्व का .... सैनिक अपने स्व की तलाश में खो रहे (6)



अध्याय दर अध्याय 
हम निभाएंगे अपना उत्तरदायित्व 
पुकारते रहेंगे 
देश के हर कोने से 
अपनी मिटटी को पहचानो 
अपना कर्त्तव्य निभाओ 
सम्मान करो अपने घर की बुनियाद का 
...... हम तो रक्तदान करते हैं 
किसी का रक्त नहीं बहाते 
तो फिर दरिन्दे हमारे आस-पास कब ? कहाँ से ?

रश्मि प्रभा 


पुरुषार्थ

जिस्म को नोचा,रूह खसोटी
तब भी चैन नहीं आया |
पुरुषार्थ साबित करने का
राह ना दूजा तुम्हे भाया ?

संयम,हया क्यों मेरा गहना
जो तुम्हें नहीं उसका सम्मान,
कामुक तुम अमर्यादित
हमे क्यों देते फिर हो ज्ञान?

दूध ने सींचा जिन पौधों को
सृष्टि को हीं लील रहे,
जीवन दायिनी उस अबला का
स्वत्व हंसुवे से छील रहे|

लाज नहीं तुमको हे निर्लज्ज
दुष्कर्मों की लाज बचाते,
अट्टहास लगाते ऊपर से
हमें चले सहुर सिखाने |

 गिध्ह भी नोचते हैं मुर्दे को
अपने भूख की शांति को|
तुम्हे कौन सी भूख बिलखाती
जो तारते धर्म की कांति को |

याद रखो हम अबला तब तक
जब तक क्षमा का गहना लादे,
जिस पल गहना फेंक दिया
हो जाएँगे चंडी माते |

तीनों लोग पड़ेंगे फिर कम
खुद का मुँह छिपाने को|
तब देखेंगे पुरषार्थ का दम
नारी को नीच जताने को |

स्वाति वल्लभा राज
घुटन

इतनी घुटन कि सांस ली नहीं जाती
इस सन्नाटे में आवाज दी नहीं जाती
अल्फाज़ कैद कर लिए हुक्मरानों ने
हाथों में ये कलम उठायी नहीं जाती

मेरा मकसद शोर-शराबा तो नहीं
फिर क्यों बात मेरी सुनी नहीं जाती

चूल्हे की आग अब ठंडी होने लगी
फिर जलेगा उम्मीद की नहीं जाती

सब्र करना ही हमारी तकदीर में है
हाथ की लकीर इसके आगे नहीं जाती
                            
बृजेश नीरज


कलम आज भी उन्हीं की जय बोलेगी ......

कलम आज भी उन्हीं की जय बोलेगी ......
आर.एन.गौड़ ने कहा है -
   ''जिस देश में घर घर सैनिक हों,जिसके देशज बलिदानी हों.
     वह देश स्वर्ग है ,जिसे देख ,अरि  के मस्तक झुक जाते हों .''

सही कहा है उन्होंने ,भारत देश का इतिहास ऐसे बलिदानों से भरा पड़ा है .यहाँ के वीर और उनके परिवार देश के लिए की गयी शहादत  पर गर्व महसूस करते हैं .माताएं ,पत्नियाँ और बहने स्वयं अपने बेटों ,पतियों व् भाइयों के मस्तक पर टीका लगाकर रणक्षेत्र में देश पर मार मिटने के लिए भेजती रही हैं और आगे भी जब भी देश मदद के लिए पुकारेगा तो वे यह ही करेंगीं किन्तु वर्तमान में भावनाओं की नदी ने एक माँ व् एक पत्नी को इस कदर व्याकुल कर दिया कि वे देश से अपने बेटे और पति की शहादत की कीमत [शहीद हेमराज का सिर]वसूलने को ही आगे आ अनशन पर बैठ गयी उस अनशन पर जिसका आरम्भ महात्मा गाँधी जी द्वारा देश के दुश्मनों अंग्रेजों के जुल्मों का सामना करने के लिए किया गया था और जिससे वे अपनी न्यायोचित मांगे ही मनवाते थे . 
         हेमराज की शहादत ने जहाँ शेरनगर [मथुरा ]उत्तर प्रदेश का सिर  गर्व  से ऊँचा किया वहीँ हेमराज की पत्नी व् माँ ने हेमराज का सिर वापस कए जाने की मांग कर सरकार व् सेना पर इतना अनुचित दबाव डाला कि आखिर उन्हें समझाने के लिए सेनाध्यक्ष को स्वयं वहीँ आना पड़ा .ये कोई अच्छी शुरुआत नहीं है .सेनाध्यक्ष की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है और इस तरह से यदि वे शहीदों के घर घर जाकर उनके परिवारों को ही सँभालते रहेंगे तो देश की सीमाओं को कौन संभालेगा?
   यूँ तो ये भी कहा जा सकता है कि सीमाओं की सुरक्षा के लिए वहां सेनाएं तैनात हैं किन्तु ये सोचने की बात है कि नेतृत्त्व विहीन स्थिति अराजकता की स्थिति होती है और जिस पर पहले ही देश के दुश्मनों से जूझने का दबाव हो उसपर अन्य कोई दबाव डालना कहाँ तक सही है ?
    साथ ही वहां आने पर सेनाध्यक्ष को मीडिया के उलटे सीधे  सवालों  के जवाब देने को भी बाध्य होना पड़ा .सेना अपनी कार्यप्रणाली के लिए सरकार के प्रति जवाबदेह है न कि मीडिया के प्रति ,और आज तक कभी भी शायद किसी भी सेनाध्यक्ष को इस तरह जनता के बीच आकर सेना के बारे में नहीं बताना पड़ा .ये सेना का आतंरिक मामला है कि वे देश के दुश्मनों से कैसे निबटती हैं और उनके प्रति क्या दृष्टिकोण रखती हैं और अपनी ये योग्यतायें सेना बहुत से युद्धों में दुश्मनों को हराकर साबित कर चुकी है .
     इसलिए शहीद हेमराज के परिवारीजनों द्वारा उनका सिर लाये जाने के लिए दबाव बनाया जाना भारत जैसे देश में यदि अंतिम बार ही किया गया हो तभी सही है क्योंकि हम नहीं समझते कि अपने परिवारीजनों का ये कदम स्वर्ग में बैठे शहीद की आत्मा तक को भी स्वीकार्य होगा ,क्योंकि कोई भी वीर ऐसी शहादत पर अपने सिर की कीमत में दुश्मनों की किसी भी मांग को तरजीह नहीं देना चाहेगा जिसके फेर में सरकार ऐसी अनुचित मांग को पूरा करवाने की जद्दोजहद में फंस सकती है बल्कि ऐसे में तो हम ही क्या देश का प्रत्येक वीर यही कहेगा कि एक ही क्यों हम अरबों हैं ,काटो कितने सिर काटोगे ,आखिर सजाओगे तो अपने मुल्क  में ही ले जाकर.ऐसे में हम तो रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में ही अपनी बात शहीदों के परिजनों तक पहुँचाना चाहेंगे-
  ''जो चढ़ गए पुण्य वेदी पर 
          लिए बिना गर्दन का मोल 
              कलम आज उनकी जय बोल .''
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शालिनी कौशिक                            
[कौशल ]

सोमवार, 21 जनवरी 2013

...... दामिनी माध्यम है स्व का .... सैनिक अपने स्व की तलाश में खो रहे (5)


शहादत कोई भाषा नहीं 
कि तेरे मेरे की बात हो
पर बात हो गई है  ....
हादसे शमशान से हो गए हैं 
उधर से गुजरना ज़रूरी तो नहीं .... जब अपनी बारी होगी तो देखेंगे - क्यूँ ?



रश्मि प्रभा 
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शहीद की मज़ार से

हेमराज,सुधाकर की मज़ार से ,आ रही पुकार रे
नव जवान !  नव जवान  !!  नव जवान !!!   जाग रे!!!!

देख ले, एल ओ सी पर खड़े हैं धोखेबाज शत्रु अनेक 
सिखा दे पढ़ा उनको ,  धोखेबाज  को उचित सबक
बिन बुलाये अतिथि ये तेरे घर आये हैं,       
स्वागत करना धर्म तेरा ,पुरानों की रीति  है,
स्वागत सज्जा कर ले तू ,रायफल ,मशीनगन ,तोप से
पुकार रही सदैव तुझे ,मेन्धर -लद्दाख की घाटी रे
नव जवान !  नव जवान  !!  नव जवान !!!   जाग रे!!!!

जागो और जागकर बचाओ  अपनी माँ की लाज को
My Photoसमय आया है वही , तुम्हे इन्तेजार था  जिसका
उठो अर्जुन एकबार फिर गांडीव को संभल लो
अहँकारी दू:शासन फिर ललकारा ,भीम गदा उठा लो
ऐ नकुल ! समझो तुम अब शकुनि की चाल को
कर ना पाए बध  अब कोई, वीर अभिमन्यु को 
ये पुकार है माताओं की औरपुकार है बहनों की रे
नव जवान !  नव जवान  !!  नव जवान !!!   जाग रे!!!!

देश -देश में सिखाओ , देश भक्ति का पाठ तुम
सिखाओ बल एकता  का ,ऐ साहसी निडर तुम!
 दिखा दे अपनी शौर्य दुनियां की रणस्थल में
 समझा दे ,दूर कर दे भ्रान्ति ,शत्रुओं के दिलों से
 हम नहीं कायर ,वीर चूड़ामणि है, शिष्य द्रोणाचार्य के
प्रेम करते हैं, स्नेह करते हैं सबसे ,ये हमारे धर्म की पुकार रे   
नव जवान !  नव जवान  !!  नव जवान !!!   जाग रे!!!!

शहीदों की औलाद हो तुम ,उनकी वीरता का प्रतीक हो तुम
हँसते हँसते खेले जिन्होंने आग से , फल मिला है आज़ाद हो तुम 
अब अगर रक्षा न कर पाए उसकी ,न कर पाए देश कल्याण तुम
तो धिक्-धिक् तुम्हे ,क्यों  झूठे नौ जवान कहलाते हो तुम ?
ये पुकार है देश की, और पुकार है उस माँ की रे
जिनकी किरीट हिमालय है,चरण धो रही है महासागर की लहरें
नव जवान !  नव जवान  !!  नव जवान !!!   जाग रे!!!!

कालीपद "प्रसाद "

न शहादत भी ये शर्मिन्‍दा हो !!!

सारे हल इन दिनों 
तिलमिलाहट की भाषा में बात करते हैं 
आखिर हमारा वज़ूद क्‍या है 
हम कब तक कैंद रहेंगे 
इस सियासत़ की गंदी बस्‍ती में 
हमें भी आजा़दी चाहिये 
सच दम घुटता है 
जब मातृभूमि की सुरक्षा में 
किसी वीर का सीना छलनी होता है 
जी चाहता है मैं गोली बन जाऊँ 
और दुश्‍मन के भेजे में 
समा जाऊँ एक हल बुदबुदाया 
... 
हमें संधि के दस्‍तावेज थमाकर 
विश्‍वास के हस्‍ताक्षरों से 
मुँह बंद कर देना तो 
महज़ एक खेल है इनका बचकाना 
देखो कैसे - कैसे परिणाम मिले हैं 
दूजा हल कुनमुनाया 
.....
क्‍यूँ  आखिर क्‍यूँ ये भय खाते हैं 
क़ायरता से जब वो 
अंग भंग कर जाते हैं 
ये लाग-लपेट के शब्‍दों से अपना चेहरा ढँकते हैं 
क्‍या इनके पास दो टूक शब्‍द नहीं हैं
आर या पार के 
फिर कोई हल मन ही मन चिल्‍लाया 
.... 
भूल जाएंगे एक दिन इस शहादत को
दर्ज हो जाएंगे बनके फक़त शब्‍द 
इतिहास के पन्‍नों में 
सूख जाएंगे परिजनों के अश्‍क 
शहादत पे नमन करते - करते 
कोई तो इसका मोल जानो, 
कोई तो ऐसी पहल करो जिससे 
न शहादत भी ये शर्मिन्‍दा हो !!!
सारे हल इन दिनों 
तिलमिलाहट की भाषा में बात करते हैं !!
 सदा 


वेदना 

आईये जलाएं 
जरूर जलाएं 
10-20-50-100-1000
मोमबत्तियां उस 'वेदना' के नाम 
फेंक दिया गया था जिसे
दिल्ली की सड़क पर 
चलती बस में बलात्कार करके ...
जिसने अंतिम सांस ली 
सिंगापूर के एक अस्पताल में .....

पर  है मेरी विनती 
कम से कम एक मोमबत्ती 
जरूर जलाएं उस गर्भवती 
महिला पत्रकार के नाम  
जिसका नाम जुड़ा  था 
एक राजनेता के नाम के साथ 
और जिसे बेरहमी से
क़त्ल कर दिया गया  ....

जलाईये एक मोमबत्ती 
उस कवियित्री के नाम भी 
जो क़त्ल कर दी गयी 
अपने राजनेता मित्र 
और उसकी पत्नी के गुर्गों द्वारा ...

जलाईये कम से कम 
एक मोमबत्ती 
विमान कंपनी में कार्यरत 
उस महिला के लिए भी
अपने मालिक द्वारा किये जा रहे 
शारीरिक शोषण से बचने के लिए 
जिसे करनी पड़ी आत्महत्या .....

आईये जलाएं एक मोमबत्ती 
उस नर्स के नाम भी 
जिसका उपभोग करके 
उसे मार दिया गया 
उसके राजनेता मित्र के 
इशारे पर ....

कम से कम 
My Photoएक मोमबत्ती जलाईये 
मुंबई के एक सुधार गृह की 
उन लड़कियों के नाम भी 
जो महीनो और सालों तक 
लगातार होती रही हैं
दरिंदों का शिकार .......

एक सिर्फ एक मोमबत्ती 
उस महिला के नाम 
जिसे सरेआम नंगा किया गया 
गौहाटी की सडकों पर ....

एक मोमबत्ती 
उस महिला पुलिस कर्मी
के नाम भी 
जिसे बे इज्ज़त किया गया 
उड़ीसा की सडकों पर ....

एक मोमबत्ती जलाईये 
उस बेटी के नाम भी 
जिसके अपने पिता ने 
वर्षों तक उसके साथ
किया दुष्कर्म ....

जलाईये एक मोमबत्ती 
उस महिला के नाम भी 
जिसे नंगा घुमाया गया था 
राजस्थान के एक गाँव में ...

जलाईये एक मोमबत्ती 
बलात्कार से पीड़ित 
उस महिला के लिए भी 
थाने में शिकायत दर्ज करने जाने पर 
जिसके साथ हुआ थाने में 
पुनः बलात्कार ....

जलाईये एक मोमबत्ती 
उस महिला के लिए भी 
जो हुयी चलती ट्रेन में 
टिकट निरीक्षक की 
वासना का शिकार .....

कम से कम 
एक मोमबत्ती 
उन बेटियों और बहनों के नाम 
जो वर्षों तक होती रही शिकार 
कश्मीर से लेकर पंजाब तक के 
उग्रवादियों का  ....

और जलाएं 
उन माँ बहनों के नाम भी
एक मोमबत्ती 
रक्षक ही हुए जिनके भक्षक 
जिन सुरक्षा बलों पर थी 
उनकी रक्षा की जिम्मेवारी 
उन्ही ने किया जिनका
शारीरिक शोषण ....

जलाईये एक और मोमबत्ती 
उन सभी दलित, शोषित, आदिवासी 
महिलाओं के लिए 
स्वतंत्रता से अब तक जारी है 
लगातार जिनका शोषण 
राजनेताओं, अधिकारीयों, 
धन पशुओं और बाहुबलियों द्वारा ....

या तो फिर रहने ही दो 
मत जलाओ ये मोमबत्तियां 
इनके उजाले में कहीं 
सामने न आ जाएँ 
वे सभी अमानवीय चेहरे 
जो लगातार छलते रहे हैं 
हमारी माँऑं ,बहनों और बेटियों को ....
                              
ओमप्रकाश पाण्डेय 

शनिवार, 19 जनवरी 2013

...... दामिनी माध्यम है स्व का .... सैनिक अपने स्व की तलाश में खो रहे (4)




तलाश ....
खोना,गुम होना ............होते जाना 
चीखना,चुप होना - यही परिवर्तन है 

रश्मि प्रभा 



जब शहर हमारा सोता है...(Deadly Silence)

दस मेट्रो स्टेशन पर आवाजाही बंद कर दी गयी। कर्फ्यू जैसे हालत बना दिए गए। दिल्ली के लोग दिल्ली में ही बंधक बना दिए गए। जैसे ही खबर आई की दामिनी नहीं रही...
सरकार एकसूत्रीय एजेंडे पर चल रही है 'हम बलात्कार नहीं रोक सकते हैं, लेकिन बलात्कार के विरोध में होने वाले प्रदर्शन तो रोक ही सकते हैं।'
आज दामिनी कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं रह गयी है, वो एक समूहवाचक संज्ञा बन गयी है। लेकिन पता नहीं किस समूह का प्रतीक बनेगी। 
जिस दिन यह पैशाचिक कृत्य सामने आया था उस दिन के बाद और भी कई दामिनियाँ नोची जा चुकी हैं। उस से पहले भी अनगिनत दामिनियों के दामन पर घाव लगते रहे हैं...
वाद-विवाद का दौर चल रहा है। हर कोई गुस्से को परिभाषित करने में लगा है। अपराधियों के लिए कड़ी सजा की मांग हो रही है। सरकार, जिसका वैचारिक स्खलन हो चुका है, हमेशा की तरह शिथिल है। शिथिलता भंग होती है तो लोगों पर लाठियां चलती हैं। रास्ते रोक दिए जाते हैं। विरोध का दमन कर दिया जाता है। 
लोगों में गुस्से का उबाल है। सबमे है या कुछ में है इसे निर्धारित नहीं किया जा सकता। भावनाओं से उपजे ज्ञान और ज्ञान से उपजी हुई भावना में फर्क होता है। स्वपीडा और परपीड़ा का भेद अभी नहीं मिटा है। शायद इसीलिए विरोध के भी कई प्रकार हैं। 
दामिनी की पीड़ा को महसूस कर पाना किसी के लिए संभव नहीं है। ऐसी कामना भी नही है कि फिर कहीं किसी कोने में कोई दामिनी ऐसी पीड़ा को सहने के लिए अभिशप्त हो। आवेश में बहुत से लोग कह रहे हैं कि अपराधियों के घर में ऐसा कुछ होता तो उन्हें अक्ल आ जाती। इसका समर्थन नही किया जा सकता है। स्त्री चाहे जिस घर में हो वह स्त्री है, और उसका सम्मान उतना ही है। अपराधी के अपराध की सजा उसके घर की स्त्रियों को भी नही मिलनी चाहिए। सजा अपराधी को मिलनी चाहिए। 
दामिनी की मौत (हत्या) ने सरकार के लिए रास्ता बना दिया है। अपराधियों को फांसी जैसी कठोर सजा दी जानी चाहिए। जितनी जल्दी ऐसा फैसला होगा बेहतर होगा। वैसे भी कहा जाता है की 'भय बिनु होय न प्रीती'. फांसी की सजा को ख़त्म करने की मांग करने वाले लोगों को समझना होगा  कि आज का समाज उस आदर्श स्तर के आसपास भी नही है जहाँ कि फांसी की सजा निरर्थक हो जाती है। शरीर का भी कोई अंग अगर ख़राब हो जाये तो उसे काटकर फेंक देना ही पूरे शरीर के लिए बेहतर होता है। उस स्थिति में अगर उस अंग के अधिकार की चिंता की गयी तो पूरा शरीर सड़ जायेगा। ये और इन जैसे तमाम अपराधी भी समाज रुपी शरीर के ऐसे ही सड़े हुए अंग हैं जिन्हें जितनी जल्दी काट दिया जायेगा, शरीर के बाकी अंगों को बचा पाना उतना ही आसान होगा। 
लेकिन यह भी सोचना उतना ही जरुरी है कि क्या इतने मात्र से ही सब ठीक हो सकता है। बिलकुल नहीं। इस बात का प्रयास भी जरुरी है कि जिन अंगों को अभी बीमारी ने पूरी तरह अपने आगोश में नही लिया है, उनका समय रहते इलाज किया जाए। और ऐसे संक्रमित अंगों का एक प्रत्यक्ष उदाहरण तमाम सरकारी, गैर सरकारी स्कूलों से निकलने वाले बच्चों की बेहया होती जा रही भीड़ है। छुट्टी के बाद किसी स्कूल के सामने से बिना टिका-टिपण्णी के किसी लड़की का निकलना जितना दुष्कर है, उसकी कल्पना भी नही की जा सकती है। 
छुट्टी के बाद सरकारी बसों में सवार बच्चों की बेहूदगी और बेशर्मी पर लगाम लगाने का प्रयास भी इतना ही जरुरी है। यही संक्रमित अंग कल समाज के सड़े हुए अंग बन जायेंगे और तब इन्हें भी काटने की जरुरत पड़ेगी। सारा शरीर कट जाए इस से बेहतर है कि समय रहते इलाज हो। 
Amit Tiwariसोचना ये भी है की 'दामिनी' किसका प्रतीक बनती है? बलात्कृत होकर मर जाने वाली तमाम पाकिजाओं का, या फिर किसी नयी चेतना का, जो इसके बाद हर पाकीजा के दामन को सुरक्षित होने का विश्वास दे सके।

-अमित तिवारी
नेशनल दुनिया


दुर्गम्या -

कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला !
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
हटा दो रास्ते से !
*
हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर
'टोनही है यह ',
'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!'
उछल-उछल कर पत्थर फेंकते ,
चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं !
खेल रहे हैं अपना खेल !
*
अकेली औरत ,
भागेगी कहाँ भीड़ से !
चोटों से छलकता खून
प्यासे हैं लोग !
सहने की सीमा पार ,
जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार !
*
भागी नहीं ,चीखी नहीं !
धिक्कार भरी दृष्टि डालती
सीधी खड़ी हो गई
मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
आँखें जल उठीं दप्-दप् !
लौट पड़ी वह !
*
नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
आघात जिसका उछाल रहा था रक्त!
भरी आक्रोश
तान कर मारा पीछा करतों पर !
'हाय रे ,चीत्कार उठा ,
मार डाला रे !
भीड़ हतबुद्ध, भयभीत !
*
और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी!
अब पीछा वह कर रही थी ,
भाग रहे थे लोग !
फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
फिर चीख उटी !
उठाया एक और !
*
भयभीत, भाग रही हैं भीड़ !
कर रही है पीछा
अट्टहास करते हुये
प्रचंड चंडिका !
*
धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की
उन लोगों ने ,
नारी-तन बेग़ैरत करने को !
सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
पशुओं से क्या लाज ?
ये बातें अब बे-मानी थीं !
*
दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये
जान लेकर भाग रहे हैं लोग !
भीत ,त्रस्त ,
सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
अँधाधुंध इधर-उधर !
तितर-बितर !
थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर !
*
और
श्लथ ,वेदना - विकृत,
रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
बैठ गई वहीं धरती पर !
पता नहीं कितनी देर !
फिर उठी , चल दी एक ओर !
*
अगले दिन खोज पड़ी
कहां गई चण्डी ?
कहाँ गायब हो गई?
पूछ रहे थे एक दूसरे से ।
कहीं नहीं थी वह !
*
My Photoउधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
वहां कोई शिव नहीं था !
सब शव थे !

प्रतिभा सक्सेना


आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है !!

 "आजादी हमें खैरात में नहीं मिली है उसके लिए हमारे देश के अनेको देश भक्तों ने जान की बाजी लगाकर देश पर मर मिटने की कसम खाई और शहीद हुए. उनके वर्षों की तपस्या और बलिदान से हमने आजादी पाई है ". झंडा के सामने यह हर वर्ष ऐसे बोला जाता है मानो हम प्रतिज्ञा कर रहे हों कि इस देश की खातिर हम भी अपने उन शहीदों की तरह मर मिट सकते हैं जिन्होंने कई सौ वर्षों की गुलामी से हमें आजादी दिलाई है. पर वह भी मात्र औपचारिकता ही होती है. क्या ये वाक्य बोलते समय उनके ह्रदय में जरा भी देश पर मर मिटने की चाहत होती है ?  हर वर्ष जो भी झंडोत्तोलन करने आता है, पर उन्हें  यह औपचारिकता निभाना होता है इसलिए कह देते हैं.

हम कहते हैं अंग्रेजों कि नीति थी "divide and rule" पर क्या आजके हमारे नेताओं की भी यही नीति नहीं है? वे चाहते हैं कि हमारे युवा वर्ग दिग्भ्रमित रहें और जाति, राज्य, धर्म,भाषा लेकर इतना ज्यादा आपस में उलझे रहें कि उन्हें यह समझने की फुर्सत ही न हो कि वे सोचें कि हमारे देश के नेता क्या कर रहे हैं. सही मायने में हमारा भला कौन कर सकता है देश का भला कौन चाहता है? वैसे मेरी नज़र में एक भी नेता या पार्टी आजके दिन में ऐसा नहीं है जो खुद की भलाई से ऊपर उठकर हमरा, हमारे बच्चों का या देश का भला चाहे. 

आज आज़ादी के ६५ साल बाद भी क्या हम आजाद हैं ? और यदि नहीं हैं तो उसका जिम्मेदार कौन है ? क्या हम खुद उसके जिम्मेदार नहीं हैं ? यों तो लोग कहते हैं हमारे चौथे खम्भे की अहम भूमिका होती है पर मेरे हिसाब से हमरा चौथा खम्भा हमारे देश के युवा हैं . जिन्हें उनकी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाना होगा देश के प्रति उनकी अहम भूमिका देश को आज भी हर क्षेत्र में उंचाईयों पर ले जा सकती है. अगर वे दिग्भ्रमित न हों तो उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है. उन्हें समझना होगा कि आज के नेता चाहे किसी भी पार्टी के हों उनका उद्देश्य मात्र होता है गद्दी पर बने रहें चाहे देश को बेच ही क्यों न दें. आज भी हमारा घाव भरा नहीं है और कहते हैं अंग्रेज जाते जाते हमें बांटकर चले गए. 

हमारे देश में एक बहुत बड़ी क्रान्ति आई है जिसमे युवाओं का बहुत बड़ा योगदान है या हम कह सकते हैं कि उनकी सोच का ही नतीजा है कि आज वे राज्य, जाति, धर्म भूलकर शादी कर रहे हैं. यही सोच ऐसी ही क्रांति एकबार उनके मन में आ जाए तो हमारे देश से ऐसे नेताओं का सफाया हो जायेगा जो हमें बाँटकर देश पर राज्य करना चाहते हैं. उसके लिए देश के युवाओं को एकजुट होकर क्रान्ति लाना होगा. देश को बचाने के लिए राज्य, भाषा, जाति, धर्म के भेद भाव को छोड़ एक जुट होकर कृतसंकल्प होना होगा. पर आज जब हम राज्य, भाषा, धर्म, जाति के नाम पर टुकड़े टुकड़े हो चुके हैं उसके बावजूद भी हम यदि नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ़ नहीं करेगी. हमारे इतिहास से सभ्यता और संस्कृति का नामो निशान मिट जायेगा. 
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कुसुम ठाकुर 






क्रोध!! आक्रोश!!

क्रोध!!
आक्रोश!!
मेरे दिल और 
मेरी आत्मा में 
अंदर तक विद्यमान 
कभी आवेग कम 
तो कभी प्रचंड 
कभी रहती में शांत सी 
तो कभी निहायत उद्दंड 
सब कर्मो का आधार ये 
सब दर्दो का प्रकार ये 
उद्वेग 
जो कारण उग्र होने का 
आवेश 
जो कारण 
उष्ण होने का 
आक्रोश 
करता है अलग 
आवेश 
बनाता हैं अवाक्
क्रोध 
जो घर किये है 
भीतर 

क्रोध 
जो भीतर छिपा है 
हमेशा के लिए 
रोम रोम में 
असहाय 
विकराल रूप में 
मुझे में भी 
तो तुझ में भी 
विवशता उसके हाथ में 
खेलने की 
कभी रुलाता हैं 
तो कभी विध्वंसता 
की तरफ खीचता सा 
कभी पापी 
कभी पागल 
खून से भीगी बारिश 
आंसुओ की रिमझिम सा 
कभी सकारात्मक 
तो कभी नकारात्मक 
अंत में हमेशा रहा हैं खाली हाथ ...
यह क्रोध 
आवेश 
उद्वेग 
आक्रोश 
खून की बारिश 
आंसुओ की बाढ़ 
कोई कुछ न कर पाया 
आज भी है तुम्हारे मेरे भीतर 

दामिनिया आज भी लुट रही हैं 
पूरे जोरो शोरो से ....
और हम गुस्से में हैं .........
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नीलिमा शर्मा 
 
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