(1) नए नए हम सीरियल ,देखा करते नित्य । किसको फुर्सत है भला ,पढ़े नया सहित्य ॥
(2) ना तो मीठे बोल है,ना सुर है ना तान । चार दिनों तक गूंजते ,फिर खो जाते गान ॥
(3) वो गजलों का ज़माना,मन भावन संगीत । अब भी है मन में बसे ,वो प्यारे से गीत ॥
(4) साप्ताहिक था धर्मयुग ,या वो हिन्दुस्थान । गीत,लेख और कहानी,भर देते थे ज्ञान ॥
(5) कवि सम्मलेन रात भर,श्रोता सुनते मुग्ध । प्रहसन ,सस्ते लाफ्टर ,कर देते है क्षुब्ध ॥
(6) अंगरेजी का गार्डन ,फूल रहा है फ़ैल । एक बरस में एक दिन,बोते हिंदी बेल ॥
(7) छोटे छोटे दल बने,सब में है बिखराव । तो फिर कैसे आयेगा ,भारत में बदलाव ॥ मदन मोहन बाहेती'घोटू' जन्म-22-2-1942, शिक्षा-मेकेनिकल इंजिनियर(बनारस विश्वविद्यालय-1963), लेखन-गत 50 वर्षों से कविताएं,प्रकाशन-1-साडी और दाडी, 2-बुढ़ापा, निवास- नोएडा।
आम के मंजर कोयल की कूक और फागुनी बयार - आँखें भी अंगड़ाई लेती हैं . मन राधा बन जाता है और नन्दलाल होरी खेलते हैं बिरज में .... शरमाई राधा के होठों से बोल निकलते हैं -
जोगीरा जोगीरा जोगीरा
आजा रंग जमायें
सतरंगी रंगों के राग सुनाएँ
कोई ना रह जाये बेरंग
खुशियों के इतने रंग दे जाएँ ................... जोगीरा सरररर जोगीरा अररररर
रश्मि प्रभा
सबको लाते हैं रंगों की पिचकारी संग - पुराने,नए जाने-माने जितने मिल जाएँ .....
अटल बिहारी वाजपेयी (जन्म: २५ दिसंबर, १९२४ ग्वालियर) भारत के पूर्व प्रधान मंत्री हैं। वे भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक हैं और १९६८ से १९७३ तक उसके अध्यक्ष भी रहे। वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारम्भ किया था और देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचने तक उस संकल्प को पूरी निष्ठा से निभाया। अटल बिहारी वाजपेयी राजग सरकार के पहले प्रधानमंत्री है उन्होने गैर काँग्रेसी प्रधानमंत्री पद के 5 साल बिना किसी समस्या के पूरे किए .
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक कवि भी हैं। मेरी इक्यावन कविताएँ अटल जी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस अनवरत घूमता रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। इसमें ऋंगार रस के प्रेम प्रसून न चढ़ाकर "यक शहन्शाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम हसीनों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक" की तरह उनका भी ध्यान ताजमहल के कारीगरों के शोषण पर ही गया। वास्तव में कोई भी कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता आद्योपान्त प्रकट होती ही रही है। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेकों आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पायी ....
हिंदी काव्य-गद्य का विशाल ऑनलाइन कोष बनानेवाले ललित कुमार का योगदान अत्यंत सराहनीय है - इतनी बड़ी सुविधा कठिनाइयों को आसान करते हुए ललित जी ने दिया, जिसके लिए मैं उन्हें उनके ही बौद्धिक आलेख के साथ उन्हें सम्मानित करती हूँ ..................... यह आलेख एक ज्वलंत प्रश्न है - इसके मध्य कितने आग्नेय वचन हैं - आप अपने विचार यहाँ रखें ताकि कोई दरवाज़ा खुल सके . बिना दरवाज़ा खोले परिवर्तन की बयार बंद उमस भरे दिमाग में नहीं ला सकते
आपके विचारों का स्वागत है =
क्या स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता संभव नहीं है?
ललित कुमार
मैं आजकल एक महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट को साकार करने में जुटा हूँ –इसलिए लग रहा था कि अब दशमलव पर काफ़ी समय बाद ही लिख पाऊंगा। लेकिन फ़िलवक्त जो आक्रोश और दुख मैं महसूस कर रहा हूँ उसने मुझे लिखने पर मजबूर कर ही दिया। कल फ़ेसबुक पर मैंने बस यूं ही एक पोस्ट लिखी जो इस तरह थी:
क्या एक स्त्री और पुरुष केवल-और-केवल बहुत अच्छे मित्र नहीं हो सकते?
क्या स्त्री और पुरुष की मित्रता को हमेशा “भाई-बहन” या “प्रेमी-प्रेमिका” जैसी परिभाषाओं में बांधना ज़रूरी होता है?
स्त्री-पुरुष मित्रता
इन प्रश्नों के उत्तर में मुझे कई ऐसी प्रतिक्रियाएँ मिली जिन्हें पढ़कर मन विषाद में डूब गया। बहुत से फ़ेसबुक मित्रों का मनना है कि स्त्री और पुरुष के विपरीत-लिंगी होने के कारण उनके बीच में जो प्राकृतिक आकर्षण होता है –उसके चलते उनके बीच में मात्र मित्रता का संबंध हो ही नहीं सकता। स्त्री और पुरुष का हर जोड़ा या तो “भाई-बहन” होता है या फिर “प्रेमी-प्रेमिका” का… जैसे दो पुरुष दोस्त हो सकते हैं और दो स्त्रियाँ दोस्त हो सकती हैं –वैसे एक स्त्री और एक पुरुष कभी दोस्त नहीं हो सकते।
ऐसी प्रतिक्रियाएँ देने वाले मर्यादाओं की दुहाई देते, कहते हैं कि स्त्री और पुरुष के बीच मर्यादा कायम करने के लिए ही सामाजिक रिश्ते (जैसे कि भाई-बहन और पति-पत्नी) बनाए गए हैं। यदि स्त्री-पुरुष इनमें से किसी एक रिश्ते में नहीं बंधते तो उनकी मित्रता कब प्रेम और प्रेम कब वासना में बदल जाए –यह कहा नहीं जा सकता!
यह सब पढ़कर मुझे लगा जैसे कि हम पाषाण युग में जी रहे हों! अचानक मुझे यह बोध भी हुआ कि पिछले कुछ महीनों में बलात्कार के खिलाफ़ जो हो-हल्ला मचा था –उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। आप चाहे हर बलात्कारी को फ़ांसी पर लटका दें लेकिन बलात्कार फिर भी नहीं रुकेंगे। ना ही इस किस्म के सुझाव आने बंद होंगे कि स्त्रियों को ऐसे कपड़े पहनने चाहिए और वैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए। बलात्कारी को नहीं बल्कि हमें इस संकीर्ण मानसिकता को फांसी देनी होगी कि स्त्री-पुरुष मित्र नहीं हो सकते।
जो प्रश्न मैंने किया वह बहुत छोटा-सा प्रश्न है लेकिन इससे मुझे अपने समाज को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली है। हमारे पुरुष समाज का एक हिस्से का नैतिक बल दरअसल इतना कमज़ोर है कि वह स्त्री देह से डरता है। किसी अनजान स्त्री (जो ना माँ-बहन हो और ना पत्नी-प्रेमिका) के छू जाने भर से उन्हें लगता है कि वे फिसल सकते हैं। इसीलिए वे स्त्री के सम्मुख एक इंसान के तौर पर आने से डरते हैं और संबंधों और रीति-रिवाजों की आड़ में रहना पसंद करते हैं।
जो प्रश्न मैंने पूछा उस पर प्रतिक्रिया करने वालों को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक हिस्सा यह मानता है कि प्राकृतिक आकर्षण अपनी जगह है लेकिन हमारी सामान्य नैतिकता में भी इतनी ताकत है कि हम प्राकृतिक आकर्षण को पराजित करते हुए सभी मर्यादाओं का पालन कर सकते हैं। दूसरा हिस्सा यह कहता है कि नैतिकता में इतनी ताकत नहीं होती कि प्राकृतिक आकर्षण को पराजित कर सके इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच विभिन्न प्रकार के रिश्तों की दीवारें खड़ी की जानी चाहिए।
जिस समाज को अपने नैतिक बल पर इतना भी विश्वास ना हो कि एक पुरुष किसी स्त्री को मित्रवत भी बात कर सकता है –तो ऐसे समाज का बस राम ही रखवाला है। इसी नैतिक बल की कमी के कारण हमारे समाज में यदा-कदा ऐसे सुझाव सामने आते ही रहते हैं कि स्त्रियों को “बदन दिखाने वाले” कपड़े नहीं पहनने चाहिए। बात वही नैतिक बल की कमी की है। बदन दिख गया तो…
पिछले दिनों हुए प्रदर्शनों के दौरान एक बोर्ड पर लिखा देखा था “नज़र तेरी बुरी और बुर्का मैं पहनूँ?” … यह जिसने भी लिखा उसने शत-प्रतिशत सही लिखा। जहाँ नैतिक बल कमज़ोर हो वहाँ तो बुर्कें में भी बलात्कार होते हैं और जहाँ नज़र साफ़ हो वहाँ… जी हाँ, वहीं, उसी ज़मी पर स्त्री-पुरुष मित्र भी हो सकते हैं।
एक और रोचक बात यह है कि नकारात्मक प्रतिक्रिया देने वाले सभी व्यक्ति पुरुष है! स्त्रियों ने तो यही कहा है कि हाँ स्त्री और पुरुष केवल मित्र भी हो सकते हैं। इस एक बात से ही हमारे समाज की वर्तमान मानसिकता और स्थिति के बारे बहुत कुछ मालूम पड़ता है।
इस पर विडम्बना यह कि हम अपनी धरती को योगियों की धरती कहते हैं! विवेकानन्द का नाम लेते नहीं थकते। गौतम बुद्ध, शिव, कृष्ण, राम जैसे योगियों को अपना आराध्य मानते हैं और फिर कहते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच मित्रता संभव ही नहीं है!
आपने वो कहानी तो सुनी ही होगी कि एक ब्रह्मचारी साधु और उनका चेला कहीं जा रहे थे –रास्ते में एक नदी पड़ी जिसके किनारे एक स्त्री खड़ी थी। स्त्री ने निवेदन किया कि साधु नदी पार करने में उसकी मदद करें। साधु ने उस स्त्री को अपनी बाहों में उठाया और उसे नदी पार करा दी। धन्यवाद देकर स्त्री अपनी राह चली गई और साधु-चेला अपनी राह चल दिए। थोड़ी दूर जाकर चेले ने पूछा कि महाराज आपने ने स्त्री को छूने से भी मना किया है और आपने स्वयं उस स्त्री को गोद में उठा लिया!… इस पर साधु ने कहा कि “तुममें और मुझमें यही फ़र्क है। मैं तो उस स्त्री को नदी पार करा कर वहीं छोड़ आया लेकिन तुमने उस स्त्री को अब तक अपने साथ (यानी मन में) रखा हुआ है।”… यह सुनकर चेले को ब्रह्मचर्य के असली आशय का ज्ञान हुआ।
मैं विपरीत-लिंग के प्रति होने वाले प्राकृतिक आकर्षण की ताकत को नकार नहीं रहा। प्रकृति के सभी बल बेहद शक्तिशाली होते हैं। इसलिए यह सच है कि स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक खिंचाव का अहसास तो होता ही है; लेकिन यह कहना कि हम मनुष्य इस आकर्षण को धत्ता नहीं बता सकते बिल्कुल ग़लत है। नैतिक बल और प्राकृतिक आकर्षण की इस खींच-तान में कई बार प्राकृतिक आकर्षण भी जीत जाता है लेकिन यह कहना कि प्राकृतिक आकर्षण ही हमेशा जीतता है –सरासर ग़लत है।
अब मुझे विश्वास हो चला है कि जंतर-मंतर पर धरना देने और मोमबत्ती मार्च निकालने से कुछ नहीं बदलने वाला… जब हमारी सोच ही पाषाण-युगीन है तो मोमबत्ती क्या स्वयं सूर्य भी हमारी बुराईयों को नहीं जला सकता।
हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है। सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। गोस्वामी हरिराय के 'भाव प्रकाश' के अनुसार सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नाम के गाँव में एक अत्यन्त निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके तीन बड़े भाई थे। सूरदास जन्म से ही अन्धे थे किन्तु सगुन बताने की उनमें अद्भुत शक्ति थी। 6 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपनी सगुन बताने की विद्या से माता-पिता को चकित कर दिया था। किन्तु इसी के बाद वे घर छोड़कर चार कोस दूर एक गाँव में तालाब के किनारे रहने लगे थे। सगुन बताने की विद्या के कारण शीघ्र ही उनकी ख्याति हो गयी। गानविद्या में भी वे प्रारम्भ से ही प्रवीण थे। शीघ्र ही उनके अनेक सेवक हो गये और वे 'स्वामी' के रूप में पूजे जाने लगे। 18 वर्ष की अवस्था में उन्हें पुन: विरक्ति हो गयी। और वे यह स्थान छोड़कर आगरा और मथुरा के बीच यमुना के किनारे गऊघाट पर आकर रहने लगे।
कई विवाद रहे सूरदास को लेकर - वे जन्मांध थे या नहीं या उनकी जाति क्या थी ....
विवादों से परे कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। हिंदी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है। सूरदास हिन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं। हिन्ढी साहित्य में कृष्ण-भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है।
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे / सूरदास
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥
अब कै माधव, मोहिं उधारि / सूरदास
अब कै माधव, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव अम्बुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल।
स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥
भावार्थ :- संसार-सागर में माया अगाध जल है , लोभ की लहरें हैं, काम वासना का मगर है, इन्द्रियां मछलियां हैं और इस जीवन के सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है।इस समुद्र में मोह सवार है। काम-क्रोधादि की वायु झकझोर रही है। तब एक हरि नाम की नौका ही पार लगा सकती है, पर-स्त्री तथा पुत्र का माया-मोह उधर देखने ही नहीं देता। भगवान ही हाथ पकड़कर पार लगा सकते हैं।
उधो, मन न भए दस बीस / सूरदास
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
टिप्पणी :- गोपियां कहती है, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अब वह भी नहीं है, कृष्ण के साथ अब वह भी चला गया। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना अब किस मन से करें ?" `स्वासा....बरीस,' गोपियां कहती हैं,"यों तो हम बिना सिर की-सी हो गई हैं, हम कृष्ण वियोगिनी हैं, तो भी श्याम-मिलन की आशा में इस सिर-विहीन शरीर में हम अपने प्राणों को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।" `सकल जोग के ईस' क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। यह व्यंग्य है।
सूरदास के पद
हरि पालनैं झुलावै
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥
राग घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया है। वह कहते हैं कि मैया यशोदा श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) को पालने में झुला रही हैं। कभी तो वह पालने को हल्का-सा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी मुख चूमने लगती हैं। ऐसा करते हुए वह जो मन में आता है वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती है। इसीलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं कि अरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता है। जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी तो पलकें मूंद लेते हैं और कभी होंठों को फड़काते हैं। (यह सामान्य-सी बात है कि जब बालक उनींदा होता है तब उसके मुखमंडल का भाव प्राय: ऐसा ही होता है जैसा कन्हैया के मुखमंडल पर सोते समय जाग्रत हुआ।) जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा कि अब तो कान्हा सो ही गया है। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं। इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब यशोदा उन्हें सुलाने के उद्देश्य से पुन: मधुर-मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं। क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।
मुख दधि लेप किए
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
राग बिलावल पर आधारित इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीला का अद्भुत वर्णन किया है भक्त शिरोमणि सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल ही चल पाते हैं। एक दिन उन्होंने ताजा निकला माखन एक हाथ में लिया और लीला करने लगे। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के छोटे-से एक हाथ में ताजा माखन शोभायमान है और वह उस माखन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके शरीर पर रेनु (मिट्टी का रज) लगी है। मुख पर दही लिपटा है, उनके कपोल (गाल) सुंदर तथा नेत्र चपल हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा है। बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं। जब वह घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मधुर रस का पान कर मतवाले हो गए हैं। उनके इस सौंदर्य की अभिवृद्धि उनके गले में पड़े कठुले (कंठहार) व सिंह नख से और बढ़ जाती है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए। अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है।
कबहुं बढ़ैगी चोटी
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत सरस है। बाल स्वभाववश प्राय: श्रीकृष्ण दूध पीने में आनाकानी किया करते थे। तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कान्हा! तू नित्य कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी दाऊ (बलराम) जैसी मोटी व लंबी हो जाएगी। मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे। अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले.. अरी मैया! मेरी यह चोटी कब बढ़ेगी? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया। लेकिन अब तक भी यह वैसी ही छोटी है। तू तो कहती थी कि दूध पीने से मेरी यह चोटी दाऊ की चोटी जैसी लंबी व मोटी हो जाएगी। संभवत: इसीलिए तू मुझे नित्य नहलाकर बालों को कंघी से संवारती है, चोटी गूंथती है, जिससे चोटी बढ़कर नागिन जैसी लंबी हो जाए। कच्चा दूध भी इसीलिए पिलाती है। इस चोटी के ही कारण तू मुझे माखन व रोटी भी नहीं देती। इतना कहकर श्रीकृष्ण रूठ जाते हैं। सूरदास कहते हैं कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण-बलराम की जोड़ी मन को सुख पहुंचाने वाली है।
दीप्ति नवल का व्यक्तित्व बहुआयामी है| वे कवयित्री और चित्रकार होने के साथ साथ एक कुशल छायाकार भी हैं| इसके अतिरिक्त उन्हें संगीत से भी बहुत लगाव है और वे खुद भी कई वाद्य यंत्र बजा लेती हैं| उनकी प्रकाशित पुस्तकों में लम्हा-लम्हा मील का पत्थर साबित हुई ... उसे पढना - लम्हे को जीने जैसा है !
अपनी ही ज़िन्दगी से कुछ रौशनी लिए हम अजनबी रास्तों से पहचान बनाते हैं = कलम को वादियों में डुबो लिखते हैं अभिनीत चेहरे से परे -
रांगेय राघव (१७ जनवरी, १९२३ - १२ सितंबर, १९६२) हिंदी के उन विशिष्ट और बहुमुखी प्रतिभावाले रचनाकारों में से हैं जो बहुत ही कम उम्र लेकर इस संसार में आए, लेकिन जिन्होंने अल्पायु में ही एक साथ उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, आलोचक, नाटककार, कवि, इतिहासवेत्ता तथा रिपोर्ताज लेखक के रूप में स्वंय को प्रतिस्थापित कर दिया, साथ ही अपने रचनात्मक कौशल से हिंदी की महान सृजनशीलता के दर्शन करा दिए। आगरा में जन्मे रांगेय राघव ने हिंदीतर भाषी होते हुए भी हिंदी साहित्य के विभिन्न धरातलों पर युगीन सत्य से उपजा महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराया। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर जीवनीपरक उपन्यासों का ढेर लगा दिया। कहानी के पारंपरिक ढाँचे में बदलाव लाते हुए नवीन कथा प्रयोगों द्वारा उसे मौलिक कलेवर में विस्तृत आयाम दिया। रिपोर्ताज लेखन, जीवनचरितात्मक उपन्यास और महायात्रा गाथा की परंपरा डाली। विशिष्ट कथाकार के रूप में उनकी सृजनात्मक संपन्नता प्रेमचंदोत्तर रचनाकारों के लिए बड़ी चुनौती बनी।
रांगेय राघव ने जीवन की जटिलतर होती जा रही संरचना में खोए हुए मनुष्य की, मनुष्यत्व की पुनर्रचना का प्रयत्न किया, क्योंकि मनुष्यत्व के छीजने की व्यथा उन्हें बराबर सालती थी। उनकी रचनाएँ समाज को बदलने का दावा नहीं करतीं, लेकिन उनमें बदलाव की आकांक्षा जरूर हैं। इसलिए उनकी रचनाएँ अन्य रचनाकारों की तरह व्यंग्य या प्रहारों में खत्म नहीं होतीं, न ही दार्शनिक टिप्पणियों में समाप्त होती हैं, बल्कि वे मानवीय वस्तु के निर्माण की ओर उद्यत होती हैं और इस मानवीय वस्तु का निर्माण उनके यहाँ परिस्थिति और ऐतिहासिक चेतना के द्वंद से होता है। उन्होंने लोग-मंगल से जुड़कर युगीन सत्य को भेदकर मानवीयता को खोजने का प्रयत्न किया तथा मानवतावाद को अवरोधक बनी हर शक्ति को परास्त करने का भरसक प्रयत्न भी। कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के उत्तर रांगेय राघव ने अपनी कृतियों के माध्यम से दिए। इसे हिंदी साहित्य में उनकी मौलिक देन के रूप में माना गया। ये मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित उपन्यासकार थे।[1] ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ के उत्तर में ‘सीधा-सादा रास्ता’, ‘आनंदमठ’ के उत्तर में उन्होंने ‘चीवर’ लिखा। प्रेमचंदोत्तर कथाकारों की कतार में अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य, सृजन विविधता और विपुलता के कारण वे हमेशा स्मरणीय रहेंगे।
एक छोटी यात्रा उनकी रचनाओं के संग ---
अन्तिम कविता / रांगेय राघव
जब मयकदे से निकला मैं राह के किनारे
मुझसे पुकार बोला प्याला वहाँ पड़ा था,
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
इस धूल से न डरना, इसमें सदा सहारा ।
मैं हार देखता था वीरान आस्माँ को
बोला तभी नजूमी मुझसे : भटक नहीं तू
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
जो आँधियों ने फिर से अपना जुनूँ उभारा ।
मैं पूछता हूँ सबसे — गर्दिश कहाँ थमेगी
जब मौत आज की है दि कल हैं ज़िन्दगी के
धोखे का डर करूँ क्या रूकना न जब कहीं है—
कोई मुझे बता दो, मुझको मिले सहारा !
नास्तिक / रांगेय राघव
तुम सीमाओं के प्रेमी हो, मुझको वही अकथ्य है,
मुझको वह विश्वास चाहिए जो औरों का सत्य है ।
मेरी व्यापक स्वानुभूति में क्या जानो, क्या बात है
सब-कुछ ज्यों कोरा काग़ज़ है, यहाँ कोई न घात है ।
तर्कों में न सिद्धि रहती है, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष्य है,
श्रद्धा में गति रुक जाती है, क्योंकि अन्त स्वीकार है,
मुझे एक ऐसा पथ दो जो दोनों में आपेक्ष्य है,
जीत वही है असली, जिसमें नहीं किसी की हार है ।
कविताओं के अतिरिक्त उनकी कहानियाँ,उपन्यास,नाटक - सब की अपनी विशिष्टता है
मीना कुमारी (1 अगस्त, 1932 - 31 मार्च, 1972) भारत की एक मशहूर अभिनेत्री थीं। इन्हें खासकर दुखांत फ़िल्म में उनकी यादगार भूमिकाओं के लिये याद किया जाता है। 1952 में प्रदर्शित हुई फिल्म बैजू बावरा से वे काफी वे काफी मशहूर हुईं।
मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं । उनके पिता अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के एक मँजे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर परिवार से था । माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं।
1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा।
मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से 1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।
चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो- फिल्म पाकीजा का यह गाना मीनाकुमारी की जिंदगी का ऐसा फलसफा है, जिसके रहस्य से चादर हटाई जाना अभी बाकी है। महज चालीस साल की उम्र में महजबीं उर्फ मीना कुमारी खुद-ब-खुद मौत के मुँह में चली गईं। इसके लिए मीना के इर्दगिर्द कुछ रिश्तेदार, कुछ चाहने वाले और कुछ उनकी दौलत पर नजर गढ़ाए वे लोग हैं, जिन्हें ट्रेजेडी क्वीन की अकाल मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।