शनिवार, 30 नवंबर 2013

परिकल्पना और आसमान पर ज़िंदगी की तहरीर..


आसमान पर ज़िंदगी की तहरीर...! यूँ ही नहीं लिखी जाती - कुछ अफ़साने होते हैं,कुछ घुटते एहसास,कुछ तलाशती आँखों के खामोश मंज़र, कुछ  ……जाने कितना कुछ,
जिसे कई बार तुम कह न सको 
लिख न सको 
फिर भी - कोई कहता है,कहता जाता है  …… घड़ी की टिक टिक की तरह निरंतर  


ज़िंदगी लिख रही हूँ...

*******
लकड़ी के कोयले से 
आसमान पर 
ज़िंदगी लिख रही हूँ 
My Photoउन सबकी 
जिनके पास शब्द तो हैं 
पर लिखने की आज़ादी नहीं,
तुम्हें तो पता ही है  
क्या-क्या लिखूँगी - 
वो सब 
जो अनकहा है 
और वो भी 
जो हमारी तकदीर में लिख दिया गया था 
जन्म से पूर्व 
या शायद 
यह पता होने पर कि
दुनिया हमारे लिए होती ही नहीं है, 
बुरी नज़रों से बचाने के लिए
बालों में छुपाकर 
कान के नीचे 
काजल का टीका 
और दो हाथ आसमान से दुआ माँगती रही
जाने क्या, 
पहली घंटी के साथ 
क्रमश बढ़ता रुदन 
सबसे दूर इतनी भीड़ में 
बड़ा डर लगा था 
पर बिना पढ़ाई ज़िंदगी मुकम्मल कहाँ होती है,
वक़्त की दोहरी चाल
वक़्त की रंजिश   
वक़्त ने हटात् 
जैसे जिस्म के लहू को सफ़ेद कर दिया
सब कुछ गडमगड 
सपने-उम्मीद-भविष्य
फड़फड़ाते हुए 
पर-कटे-पंछी-से धाराशायी, 
अवाक्
स्तब्ध 
आह...!
कहीं कोई किरण ?
शायद
नहीं...
दस्तूर तो यही है न !
जिस्म जब अपने ही लहू से रंग गया 
आत्मा जैसे मूक हो गई 
निर्लज्जता अब सवाल नहीं 
जवाब बन गई  
यही तो है हमारा अस्तित्व
भाग सको तो भाग जाओ 
कहाँ ?
ये भी खुद का निर्णय नहीं,
लिखी हुई तकदीर पर 
मूक सहमति
आखिरी निर्णय 
आसमान की तरफ दुआ के हाथ नहीं 
चिता के कोयले से 
आसमान पर ज़िंदगी की तहरीर...!

- जेन्नी शबनम


कर्मनाशा: निरर्थकता के सौर मंडल में


आज छुट्टी है। आज सर्दी कुछ कम है।आज बारिश का दिन भी है।आज  कई तरह के वाजिब बहाने मौजूद हो सकते हैं घर से बाहर न निकलने के। यह भी उम्मीद है  लिखत - पढ़त वाले पेंडिंग कुछ काम आज के दिन निपटा दिए जायें और साथ  यह  विकल्प भी खुला है कि आज  कुछ न किया जाय; कुछ भी नहीं। हो सकता है कि अकेले देर तक टिपटिप करती  बारिश को देखा -सुना जाय शायद इसी बहाने अपने भीतर की बारिश को महसूस किए जा सकने का अवसर मिल सके। इस बात का एक दूसरा सिरा यह भी हो सकता है कि इस बात पर विचार किया जाय कि बाहर की बारिश से अपने भीतर की बारिश को देखने- सुनने की वांछित  यात्रा एक तरह से जीवन - जगत के बहुविध  झंझावातों से बचाव व विचलन का शरण्य तो नहीं है ? आज लगभग डेढ़ बरस पहले लिखी अपनी  एक कविता साझा करने का मन है जो अपने  कस्बे के  एक प्रमुख चिकित्सक से वार्तालाप - गपशप के बाद कुछ  यूं ही बनी थी। आइए,  पढ़ते - देखते हैं यह कविता ....

जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं
तब भी कर रहे होते हैं एक अनिवार्य काम।

My Photoबिस्तर पर
जब लेटे होते हैं निश्चेष्ट श्लथ  सुप्त शान्त
तब भी
चौबीस घंटे में पूरी कर आते हैं
पच्चीस लाख किलोमीटर की यात्रा।
पृथ्वी करती रहती है अपना काम
करती रहती है सूर्य की प्रदक्षिणा
और उसी के साथ पीछे छूटते जाते हैं
दूरी दर्शने वाले पच्चीस लाख मील के पत्थर।

यह लगभग नई जानकारी थी मेरे लिए
जो डा० भटनागर ने यूँ ही दी थी आपसी वार्तालाप में
उन्हें पता है पृथ्वी और उस पर सवार
जीवधारियों के जीवन का रहस्य
तभी तो डाक्साब के चेहरे पर खिली रहती है
सब कुछ जान लेने के बाद खिली रहने वाली मुस्कान।

आशय शायद यह कि
कुछ न करना भी कुछ करना है
एक यात्रा है जो चलती रहती है अविराम
अब मैं खुश हूँ
दायित्व बोझ से हो गया हूँ लगभग निर्भार
कि कुछ न करते हुए भी
किए जा रहा हूँ कुछ काम
लोभ लिप्सा व लालच के लालित्य में
उभ - चुभ करती इस पृथ्वी पर
निश्चेष्ट श्लथ  सुप्त शान्त
बस आ- जा रही है साँस।

फिर भी संशय है
अपनी हर हरकत पर
अपने हर काम पर
हर निर्णय पर
निरर्थकता के सौर मंडल में
हस्तक्षेप विहीन परिपथ पर
बस किए जा रहा हूँ प्रदक्षिणा - परिक्रमा  चुपचाप।

एक बार नब्ज़ तो देख लो डाक्साब !
------------
(सिद्धेश्वर सिंह)

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना हीं, मिलती हूँ कल फिर इसी जगह, इसी समय.....तबतक के लिए शुभ विदा । 

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

परिकल्पना और ग़ज़ल


ग़ज़ल को मैं कहूं ग़ज़ल मुझको कहे
कुछ वो सुने कुछ मैं सुनूँ -
तेरे दिल में कुछ राहें बने   .... 

दिल पे रख कर हाथ , अपनी धड़कनें सुनते रहे
इस तरह जानां तेरे साथ हम चलते रहे 

आज का उत्सव ग़ज़ल के नाम 


हर ग़ज़ल का अपना एक नशा होता है, जिसके ख़ुमार का मज़ा ग़ज़ल कहने वाला और सुनने वाला दोनों लेते हैं... ग़ालिब, मीर, दाग़, फैज़, फ़राज़, फ़िराक, इकबाल, बशीर, कैफ़ी, जिगर...  सभी ने अपने पढ़ने और सुनने वालो को बे-इन्तेहा अजीज़ सुखन दिए हैं... शायर रहे न रहे उसकी ग़ज़ल किसी न किसी बज़्म को ता-वक़्त रोशन करती रहती है...  

शायद हर नाबालिग़ शाइर ग़ज़ल से ही आगाज़ करता है... कुछ सात बरस पहले कॉलेज के एक बोरिंग लेक्चर में शुरुआत हुई थी... तब मजमून अक्सर किसी की आँखें, कभी अदाएं, कभी जुल्फें, तो कभी लब हुआ करते थे... दोस्तों की दाद में अपनी शायरी भी उस दौर में खूब परवान चढ़ी... मोहब्बत भी हुई... दिल भी टूटा... फिर जुड़ा और फिर टूटा... उम्र बढ़ी और साथ में तजुर्बे भी...

मजमून भी अब आसमां की गहराई से निकल के आने लगे... शज़र पे लगे फ़ल रफ्ता रफ्ता पकने लगे... हसीनो को जुल्फों से लेकर मिट्टी की सोंधी महक तक, ग़ज़ल का ये सफ़र अपनी रफ़्तार में चलता रहा... तासीर भी बदली और तामीर भी... मानी भी बदले और हरक़तें भी... तुम आये, अभी तक हो... पहले लम्स में थे अब सिर्फ अक्स में...  

कहते हैं, शाइर की उम्र उसके तसव्वुर का मोहताज होती है... मेरे तसव्वुर और हकीक़त, सब तुम ही रहे... तब से लिख रहा हूँ, अभी ज़मीं बाकी है, आसमां बाकी है, तुम कहीं भी रहो... अभी बयाँ बाकी है...

बुझती शम्मों में अभी तक ये धुआँ बाक़ी है,
My Photoज़ख्म के साए में तेरा वो निशाँ बाक़ी है...

मेरी गैरत को उछालो और भी फुरसत से,
लोग कहते हैं अभी मुझमें गुमाँ बाक़ी है...

चंद लम्हों को तड़पता है फ़साना मेरा,
शब् के पहलू में ज़रा सी ही जाँ बाक़ी है...

आसमां आज एहतमाम करे कह दो ये,
इस नशेमन के परिंदों की उड़ाँ बाक़ी है...

वो जो होता था कभी एहले-वफ़ा, एहले-दिल,
आज 'शाइर' वो तलबगार कहाँ बाक़ी है...

(केतन)

बड़ी सयानी है यार क़िस्मत सभी की बज़्में सजा रही है
कहीं पे जलवे दिखा रही है कहीं जुनूँ आज़मा रही है 

अगर तू बस दास्तान में है अगर नहीं कोई रूप तेरा
तो फिर फ़लक से ज़मीं तलक ये धनक हमें क्या दिखा रही है

सभी दिलो-जाँ से जिस को चाहें उसे भला आरज़ू है किस की
ये किस से मिलने की जुस्तजू में हवा बगूले बना रही है

तमाम दुनिया तमाम रिश्ते हमाम की दास्तान जैसे 
हयात की तिश्नगी तो देखो नदी किनारों को खा रही है

चलो कि इतनी तो है ग़नीमत कि सब ने इस बात को तो माना
कोई कला तो है इस ख़ला में जो हर बला से बचा रही है

:- नवीन सी. चतुर्वेदी


सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।
ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।

ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।

ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।

अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।
ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, औ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।

सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।

कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।

मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।

 कुमार शैलेन्द्र 

गज़लों के इस दौर के बाद वक़्त आ गया है, इजाजत लेने का ......तो आपसे इजाजत लेते हुये कल फिर इसी जगह, इसी समय मिलने का वादा करती हूँ- आपकी रश्मि प्रभा। 

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

परिकल्पना - युवा पीढ़ी का बढ़ता आक्रोश और दिशा से भटकती युवा पीढ़ी




सुना - अपने देश के नौजवान क्रुद्ध हैं 
अपने देश की जो है परम्परा - उससे वे रुष्ट और क्षुब्ध हैं 
सच है, यौवन चलता सदा गर्व से 
सिर ताने , शर खींचे  … 
और सच ये भी है कि 
यौवन के उच्छल प्रवाह को
देख मौन , मन मारे
सहमी हुई बुद्धि रहती है
निश्छल खड़ी  किनारे | (रामधारी सिंह दिनकर)

My Photo(डॉ. मोनिका शर्मा)


अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लांसेट का सर्वे कहता है कि भारत में युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या।  हालांकि हमारे समाज और परिवारों का विघटन जिस गति से हो रहा है किसी शोध के ऐसे नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं। जीवन का अंत करने वाले इन युवाओं की उम्र है 15 से 29 वर्ष है। यानि कि  वो  आयुवर्ग जो  देश का भविष्य है। एक ऐसी उम्र जो अपने लिए ही नहीं समाज, परिवार और देश के लिए कुछ स्वपन संजोने और उन्हें पूरा करने की ऊर्जा और उत्साह का दौर होती है। पर जो कुछ हो रहा है वो हमारी आशाओं और सोच के बिल्कुल विपरीत है। 

शिखर पर अकेलापन 

आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी अशिक्षा और असफलता से जूझने वाले युवा ऐसे कदम उठाते हैं। ऐसे में इस सर्वे के परिणाम थोड़ा हैरान करने वाले हैं। इस शोध के मुताबिक उत्तर भारत के बजाय दक्षिण भारत में आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या अधिक है। इतना ही नहीं देशभर में आत्महत्या से होने वाली कुल मौतों में से चालीस प्रतिशत अकेले चार बड़े दक्षिणी राज्यों  में होती हैं । यह बात किसी से छिपी ही नहीं है कि शिक्षा का प्रतिशत दक्षिण भारत में उत्तर भारत से कहीं ज्यादा है। काफी समय पहले से ही वहां रोजगार के बेहतर विकल्प भी मौजूद रहे हैं। ऐसे में देश के इन हिस्सों में भी आए दिन ऐसे समाचार अखबारों में सुर्खियां बनते हैं । इनमें एक बड़ा प्रतिशत जीवन से हमेशा के लिए पराजित होने वाले ऐसे युवाओं का है जो सफल भी हैं, शिक्षित भी और धन दौलत तो इस पीढ़ी ने उम्र से पहले ही बटोर लिया है। 

सच तो यह है कि बीते कुछ बरसों में नई  पीढ़ी पढाई अव्वल आने की रेस और फिर अधिक से अधिक वेतन पाने की दौड़  का हिस्सा भर बनकर रह गयी है । परिवार और समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड तय हुए वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं । इसके लिए शिक्षित होने के भी मायने बदल गए । पढाई सिर्फ मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने  का जरिया बन कर रह गयी । इस दौड़ में शामिल युवा पीढ़ी परिवार और समाज से इतना दूर  हो गयी कि वे किसी की सुनना और अपनी कहना ही भूल  गए  । समय के साथ उनकी आदतें भी कुछ ऐसी हो चली  हैं कि मौका मिलने पर भी वे परिवार के साथ नहीं रहना चाहते। उनके जीवन में ना ही रचनात्मकता बची है और ना ही आपसी लगाव का  कोई स्थान रहा है  ।  परिणाम हम सबके सामने हैं । आज  जिस आयुवर्ग के युवा आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं वे परिवार और समाज के सपोर्ट सिस्टम से काफी दूर ही रहे हैं। इस पीढी का लंबा समय घर से दूर पढाई करने में बीता है और फिर नौकरी करने के लिए भी परिवार से दूर ही रहना पड़ा है।  इनमें बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान हैं जो घर से दूर रहकर करियर के  शिखर पर तो पहुंच जाते हैं पर उनका मन और जीवन दोनों सूनापन लिए है।  उम्र के इस पड़ाव पर उनके पास सब कुछ पा लेने का सुख  है तो पर कहीं कुछ छूट जाने की टीस भी है। कभी कभी यही अवसाद और अकेलापन जन असहनीय हो जाता है तो वे जाने अनजाने अपने ही जीवन के अंत की राह  चुन लेते हैं । 

देखने में तो यही लगता है कि सफलता के शिखर पर बैठे इन युवाओं के जीवन में ना तो कोई दर्द है और ना ही कोई दुख।  ऐसे में ये आँकड़े सोचने को विवश करते हैं कि क्या ये पीढी इतना आगे बढ गयी है कि जीवन ही पीछे छूट गया है ? जिस युवा पीढी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है वो यूं जिंदगी के बजाय मौत का रास्ता चुन रही है, यह हमारे पूरे समाज और राष्ट्र के लिए दुर्भागयपूर्ण  ही कहा जायेगा । 

क्यों करते हैं वे ऐसा? कौन है दोषी इसका?

कहा जाता है कि बच्चों का सबसे अधिक संवेदनात्मक और आत्मीय सम्बंध अपनी मां से होता है, किन्तु जब वही बच्चे अपनी मां की निर्मम हत्या कर दें तब क्या कहा जाए? कुछ समय पहले दिल्ली के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल के 12वीं कक्षा के छात्र ने अपनी मां की सिर पर हथौड़े से वार करके हत्या कर दी। यह हत्या क्षणिक आक्रोश में आकर नहीं की गई थी, अपितु सोच-समझकर गुपचुप तरीके से की गई थी। हत्या का कारण यह बताया गया कि बच्चे की मां उसे पढ़ाई और उसकी मित्र के कारण डांटा करती थी। यह बात तो पहले ही सामने आ चुकी थी कि आज के युवाओं की असीम ऊर्जा सही दिशा न मिलने के कारण नकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर बढ़ रही है। किन्तु किसी ने यह अनुमान भी न लगाया होगा कि यह आक्रोश इतना बढ़ जाएगा कि वह जीवन की डोर थमाने वाली मां को ही अपना शिकार बना लेगा। आखिर क्यों और कहां से आया यह आक्रोश? ऐसी घटनाएं अपने साथ क्या संदेश लाती हैं? क्या आज की युवा पीढ़ी इतनी असंवेदनशील और संस्कारहीन हो गई है कि वह हत्या करने जैसे आत्यंतिक कदम भी उठा ले? इस विकृत मनोवृत्ति के क्या कारण हैं? कहां तक दोषी हैं माता-पिता और क्या भूमिका है आज की शिक्षा पद्धति की? आज की यह भौतिकतावादी और भागदौड़ भरी जिंदगी हमें किस मंजिल पर पहुंचा रही है? ऐसे कुछ प्रश्नों पर हमने दिल्ली में शिक्षा जगत से जुड़े कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की। प्रस्तुत है विशेषज्ञों की राय -

छात्रों को विवेक दे आज की शिक्षा

--सूरज प्रकाश

प्रधानाचार्य, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल, विद्यालय, दिल्ली

ये घटनाएं इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि हमारे युवाओं में हिंसक प्रवृत्ति खतरनाक ढंग से बढ़ रही है। युवाओं का यह रोष पूरी व्यवस्था के विरुद्ध है। उसे अपना भविष्य अनिश्चित नजर आता है। उसके अंदर असीम ऊर्जा भरी हुई है किन्तु उस ऊर्जा के प्रयोग के लिए युवा सही राह नहीं चुन पाता, फलस्वरूप इस ऊर्जा का प्रयोग वह गलत कार्यों में करने लगता है।

आज के बच्चों से अभिभावक बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। जिसके कारण उन पर सामाजिक दबाव बहुत बढ़ गया है। समाज की तथाकथित कसौटियों पर खरा न उतर पाने के कारण उनमें हीन भावना भर जाती है। बच्चों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, उनकी भावनाओं को कैसे समझें, इसके लिए अभिभावकों को भी विशेष रूप से शिक्षित होना चाहिए। आजकल माता-पिता अपनी सभी इच्छाएं अपने बच्चों के द्वारा पूरी करवाना चाहते हैं। यह गलत है। दूसरी ओर, मीडिया उन्हें सब्ज-बाग दिखाता है और सपनों की पूर्ति न होने पर वे कुंठित हो जाते हैं।

हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह बहुत बड़ी कमी है कि छात्रों को अपने पैरों पर खड़ा होने में बहुत समय लग जाता है। होना यह चाहिए कि दसवीं कक्षा तक छात्र इतना सक्षम हो जाए कि वह स्वयं आगे बढ़कर उच्च स्तर तक पहुंच सके। हमारी शिक्षा से अध्यात्मवाद गायब हो चुका है जबकि अध्यात्मवाद हमारी बहुत-सी समस्याओं का समाधान है। हमें अपनी शिक्षा में लचीलापन लाना चाहिए। छात्रों के भीतर छिपी कलात्मक प्रतिभाओं को उभारना होगा और उन्हें वि·श्वविद्यालय स्तर तक मान्यता देनी होगी।

आज इक्कीसवीं सदी में शिक्षा अगर छात्रों को कुछ दे सकती है तो उसे विवेक देना चाहिए। उसमें अच्छे-बुरे की पहचान करने की क्षमता विकसित करे। अध्यापकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षण देना चाहिए, उन्हें बाल-मनोविज्ञान से परिचित कराना चाहिए। अध्यापकों को चाहिए कि वह केवल विषय न पढ़ाएं अपितु छात्रों को केन्द्र में रखते हुए उन्हें समझें और समझाएं।

आज के भौतिकतावादी युग में हम बच्चों को सार्थक समय नहीं दे पाते। उसकी पूर्ति पैसों से करने का प्रयास करते हैं। यह एक गलत प्रवृत्ति है। माता-पिता के साथ बिताए गए समय की पूर्ति किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। अभिभावकों से मिलने वाले संस्कार, शिक्षा कहीं और से नहीं मिल सकती।

मीडिया में बाल-सुलभ क्रीड़ाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। मीडिया में बढ़ती हिंसा को संयमित करने की बहुत आवश्यकता है। बच्चों को यह सिखाया जाता है कि मां-बाप उनके आदर्श हैं। किन्तु उनमें भी अनेक कमियां होती हैं। जब बच्चा उनकी कथनी-करनी में अंतर देखता है तो वह पूरी तरह भ्रमित हो जाता है।

इस प्रकरण को ध्यान से देखें तो केवल मां की डांट से नाराज होकर ही बच्चे ने हत्या नहीं की होगी। उसके मन में काफी समय से अवसाद भर रहा होगा। मां की डांट ने तो केवल बारूद में चिंगारी लगाने का काम किया। लेकिन फिर भी उसे चाहे कितना ही अपमान क्यों न मिला हो पर हम बच्चों के इस कृत्य को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। हम बच्चों के अधिकार की बात तो करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि मां के भी कुछ अधिकार हैं, अध्यापकों के भी कुछ अधिकार हैं। जहां तक मनोवैज्ञानिक परामर्शों की बात है तो उसकी आवश्यकता केवल बच्चों को ही नहीं, माता-पिता और अध्यापकों को भी है।

पाठ्यक्रम के बढ़ते बोझ से बच्चे की निजी जिंदगी भी प्रभावित होती है। किन्तु जब इसमें कमी लाने का प्रयास किया जाता है तो उसे राजनीतिक रंग दे दिया जाता है। यह सही है कि विद्यालय में पढ़ाए जा रहे पाठ्यक्रमों के आधार पर छात्र अपना भविष्य नहीं बना पाते। उन्हें जिस भी कार्य क्षेत्र में जाना होता है उसके लिए वे विशेष पढ़ाई करते हैं। किन्तु हमारे विद्यालय भी दुविधा में फंसे हैं कि वे केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं के अनुरूप पढ़ाएं या फिर विभिन्न क्षेत्रों की प्रवेश परीक्षा के अनुरूप। इसके लिए पूरी व्यवस्था में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

हमारे देश में शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती। राजनीतिक व्यवस्था में भी शिक्षा को स्थान नहीं दिया जाता। मीडिया में इस विषय पर विशेष चर्चा नहीं की जाती है। सिर्फ शिक्षाविद के चिल्लाते रहने से कुछ नहीं होता। इस विषय पर समाज के हर वर्ग को खुलकर सामने आना चाहिए। इन छात्रों में बढ़ते रोष का तात्कालिक हल तो यही है कि माता-पिता, विद्यालय और बच्चों में लगातार संवाद बना रहे, शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन तो बाद की बात है।

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          इस बात से सभी वाकिफ हैं की आज की युवा पीढ़ी अगर बहुत कुशाग्र नहीं है तो उसका रुख अपराधों की ओर अधिक हो रहा है? बैक पर सवार लड़के जंजीर खींचने को सबसे अच्छा कमी का साधन समझ रहे हैं. छोटे बच्चों को अगुआ कर फिरौती माँगना और फिर उनकी हत्या कर देना? सारे बाजार के सामने किसी को भी लूट लेना? ये आम अपराध हैं और इनसे सबको ही दो चार होना पड़ता है. खबरों के माध्यम से, कभी कभी तो आँखों देखि भी बन रहा है. 
                         
                            कभी इन युवाओं के इस अपराध मनोविज्ञान के बारे में भी सोचा गया है. अगर पकड़ गए तो पुलिस के हवाले और पुलिस भी कुछ ले दे कर मामला रफा-दफा करने में कुशलता का परिचय देती  है. ये युवा जो देश का भविष्य है , ये कहाँ जा रहे हैं?  बस हम यह कह कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते  हैं कि जमाना बड़ा ख़राब हो गया है, इन लड़कों को कुछ काम ही नहीं है. पर कभी जहाँ हमारी जरूरत है हमने उसे नजर उठाकर देखा , उसको समझने की कोशिश की,  या उनके युवा मन के भड़काने वाले भावों को पढ़ा है. शायद नहीं?  हमने ही समाज का ठेका तो नहीं ले रखा है. हमारे बच्चे तो अच्छे निकल गए यही बहुत है? क्या वाकई एक समाज के सभ्य और समझदार सदस्य होने के नाते हमारे कुछ दायित्व इस समाज में पलने वाले और लोगों के प्रति बनता है कि नहीं? 
                           ये भटकती हुई युवा पीढ़ी पर नजर सबसे पहले अभिभावक कि होनी चाहिए और अगर अभिभावक कि चूक भी जाती है और  आपकी पड़  जाती है उन्हें सतर्क कीजिये? वे भटकने की रह पर जा रहे हैं. आप इस स्वस्थ समाज के सदस्य है और इसको स्वस्थ ही देखना चाहते हैं. बच्चों कई संगति  सबसे प्रमुख होती है. अच्छे पढ़े लिखे परिवारों के बच्चे इस दलदल में फँस जाते हैं. क्योंकि अभिभावक इस उम्र कि नाजुकता से अनजान बने रहते हैं.  उन्हें सुख सुविधाएँ दीजिये लेकिन उन्हें सीमित दायरे में ही दीजिये.  पहले अगर आपने उनको पूरी छूट दे दी तो बाद में शिकंजा कसने पर वे भटक सकते हैं. उनकी जरूरतें यदि पहले बढ़ गयीं तो फिर उन्हें पूरा करने के लिए वह गलत रास्तों पर भी जा सकते हैं.  इस पर आपकी नजर बहुत जरूरी है.
                      ये उम्र उड़ने वाली होती है, सारे शौक पूरे करने कि इच्छा भी होती है, लेकिन जब वे सीमित तरीकों में उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं तो दूसरी ओर भी चल देते हैं. फिर न आप कुछ कर पाते हैं और न वे. युवाओं के दोस्तों पर भी नजर रखनी चाहिए उनके जाने अनजाने में क्योंकि सबकी सोच एक जैसी नहीं होती है, कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग उसको सीढ़ी बना कर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो उनको सब बातों से पहले से ही वाकिफ करवा देना अधिक उचित होता है. वैसे तो माँ बाप को अपने बच्चे के स्वभाव और रूचि का ज्ञान पहले से ही होता है. बस उसकी दिशा जान कर उन्हें गाइड करें, वे सही रास्ते पर चलेंगे. 

                             इसके लिए जिम्मेदार हमारी व्यवस्था भी है और इसके लिए एक और सबसे बड़ा कारण जिसको हम  नजर अंदाज करते चले आ रहे हैं, वह है आरक्षण का?  ये रोज रोज का बढ़ता हुआ आरक्षण - युवा पीढी के लिए एक अपराध का कारक बन चुका है. अच्छे मेधावी युवक अपनी मेधा के बाद भी इस आरक्षण के कारण उस स्थान तक नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ उनको होना चाहिए.  ये मेधा अगर सही दिशा में जगह नहीं पाती  है तो वह विरोध के रूप में , या फिर कुंठा के रूप में भटक  सकती  है . जो काबिल नहीं हैं, वे काबिज हैं उस पदों पर जिन पर उनको होना चाहिए. इस वर्ग के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है और वे इस तरह से अपना क्रोध और कुंठा को निकालने लगते हैं. इसके लिए कौन दोषी है? हमारी व्यवस्था ही न? इसके बाद भी इस आरक्षण की मांग नित बनी रहती है. वे जो बहुत मेहनत से पढ़े होते हैं. अगर  उससे वो नहीं  पा  रहे  हैं  जिसके  लिए  उन्होंने मेहनत की है तो उनके मन में इस व्यवस्था के प्रति जो आक्रोश जाग्रत होता है - वह किसी भी रूप में विस्फोटित हो सकता है. अगर रोज कि खबरों पर नजर डालें तो इनमें इंजीनियर तक होते हैं. नेट का उपयोग करके अपराध करने वाले भी काफी शिक्षित होते हैं. इस ओर सोचने के लिए न सरकार के पास समय है और न हमारे तथाकथित नेताओं  के पास. 
                                इस काम में वातावरण उत्पन्न करने में परिवार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वे बेटे या बेटियों को इस उद्देश्य से पढ़ातए है कि ये जल्दी ही कमाने लगेंगे और फिर उनको सहारा मिल जायेगा. ये बात है इस मध्यम वर्गीय परिवारों को. जहाँ मशक्कत करके माँ बाप पढ़ाई का खर्च उठाते हैं या फिर कहीं से कर्ज लेकर भी. उनको ब्याज भरने और मूल चुकाने कि चिंता होती है. पर नौकरी क्या है? और कितना संघर्ष है इसको वे देख नहीं पाते हैनौर फिर --
कब मिलेगी नौकरी?
तुम्हें इस लिए पढ़ाया  था कि सहारा मिल जाएगा. 
अब मैं ये खर्च और कर्ज नहीं ढो पा  रहा हूँ. 
सबको तो मिल जाती है तुमको ही क्यों नहीं मिलती नौकरी.
जो भी मिले वही करो.
इस पढ़ाई से अच्छ तो था कि अनपढ़ होते कम से कम रिक्शा तो चला लेते.
                             घर वाले परेशान होते हैं और वे कभी कभी नहीं समझ पाते हैं कि क्या करें? उनकी मजबूरी, उनके ताने और अपनी बेबसी उनको ऐसे समय में कहीं भी धकेल देती है. वे गलत रास्तों पर भटक सकते हैं. सबमें इतनी विवेकशीलता नहीं होती कि वे धैर्य से विचार कर सकें.  युवा कदम ऐसे वातावरण और मजबूरी में ही भटक जाते हैं. अपराध कि दुनियाँ कि चकाचौंध उनको फिर अभ्यस्त बना देती हैं. कुछ तो जबरदस्ती फंसा दिए जाते हैं और फिर पुलिस और जेल के चक्कर लगा कर वे पेशेवर अपराधी बन जाते हैं.
इन सब में आप कहाँ बैठे हैं? इस समाज के सदस्य हैं, व्यवस्था से जुड़े हैं या फिर परिवार के सदस्य हैं. जहाँ भी हों, युवाओं के मनोविज्ञान को समझें और फिर जो आपसे संभव हो उन्हें दिशा दें. एक स्वस्थ समाज के सम्माननीय सदस्य बनने के लिए , इस देश की भावी पीढ़ी को क्षय होने से बचाइए. इन स्तंभों  से ही हमें आसमान छूना है. हमें सोचना है और कुछ करना है. 

(रेखा श्रीवास्तव )

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय, इसी जगह, तबतक शुभ विदा। आपकी रश्मि प्रभा । 

बुधवार, 27 नवंबर 2013

परिकल्पना और एक महत्वपूर्ण कड़ी का चेहरा और सोच !!!


विरोध,पलायन,जिजीविषा,और बदलते रास्तों ने
परिवार,समाज,देश की काया बदल डाली 
परिवर्तन के नाम पर 
सारी व्यवस्था बदल डाली 
दुआओं और संवेदनाहीन के मध्य की मनःस्थिति
कौन समझता है !
समझकर भी क्या?
अनुकूल और विपरीत पगडंडियाँ तो साथ ही चलती हैं !
पलड़ा कौन सा भारी है
कौन कहेगा ?
सच तो यही है 
महत्वाकांक्षाओं के पंख लिए
मैं ही धरती बनी
बनी आकाश
हुई क्षितिज
झरने का पानी
गंगा का उदगम
सितारों की टिमटिमाती कहानी
चाँद सा चेहरा
पर्वतों की अडिगता ...
सृष्टि का हर रूप लिया
हर सांचे में ढली
महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में
कलम बनी
भावनाओं की स्याही से पूर्ण
सुकून का सबब बनी  ................... 

पर  .... कहाँ हूँ मैं,जो कही जाती थी परम्परा,पहली शिक्षा का स्रोत,आँगन की रुनझुन - समानता ने मुझे क्या से क्या बना दिया !!!
कभी एक प्रलाप, कभी एक परिवर्तन,कभी एक शून्यता का एहसास तो कभी सम्पूर्णता 

इन घुमावदार रास्तों में आज हम है वंदना गुप्ता की कलम के साथ 

और जन्म रहा है एक पुरुष 

मर चुकी है इक स्त्री मुझमें शायद 
और जन्म रहा है एक पुरुष 
मेरी सोच की अतिवादी शिला पर 
दस्तकों को द्वार नही मिल रहे 
फिर भी खटखटाहट का शोर 
अपनी कम्पायमान ध्वनि से प्रतिध्वनित हो रहा है

स्त्री होने के लिए जरूरी है 
सर झुकाने की अदा 
बिना नाजो नखरे के मशीनवत जीने  का हुनर 
पुरुष के रहमोकरम पर जीने , मुस्कुराने का हुनर 
और अब ये संभव नहीं दिख रहा 
होने लगी है  शून्य भावों से , संवेदनाओं से 
होने लगी है वक्त के मुताबिक प्रैक्टिकल
सिर्फ़ भावों की डोलियों में ही सवार नहीं होती अब दुल्हन
करने लगी है वो भी प्रतिकार सब्ज़बागों का 
गढने लगी है एक नया शाहकार 
लिखने लगी है एक इबारत पुरुष के बनाये शिलास्तम्भ पर
तो मिटने लगी है उसमें से एक स्त्री कहीं ना कहीं 
इसलिये नहीं होती अब उद्वेलित मौसमों के बदलने से 

पुरुषवादी प्रकृति की उधारी नहीं ली है
आत्मसात किया है खुद में 
आगे बढने और चुनौतियों को झेलने के लिये 
एक अपने हौसलों के पर्वत को स्थापित करने के लिये 
जिनमें अब नहीं होते उत्खनन
जिनके सपाट चौडे सीनों पर उग सकते हैं देवदार ,चीड और कैल भी 
बस स्थापत्य कला के नमूने भर हैं 
स्त्री की मौत पर उसकी अस्थियाँ रोंपी हैं पर्वत की नींव में 
ताकि उगायी जा सके श्रृंखला वनस्पतियों की 
जो औषधि बन कर सकें उपचार जडवादी सोच का 
यूँ ही नहीं हुयी है एक स्त्री की मौत 
कितने ही सरोकारों से जुडना है अभी 
कितनी ही फ़ेहरिस्तों को बदलना है अभी
टांगना है एक सितारा अपने नाम का भी आसमाँ में 
तभी तो स्त्री के अन्दर का शोर दफ़न हो रहा है 
उगल रही है उगलदानों मे काँधों पर उठाये बोझों को 
और जन्म रही है स्त्री में पुरुषवादी सोच 
ले रही है आकार एक और सिंधु घाटी की सभ्यता 

अब द्वार मिलें ना मिलें 
दस्तक हो ना हो 
ध्वनि है तो जरूर पहुँचेगी कानों तक  …


नहीं .......अब नहीं कोसना तुम्हें

नहीं .......अब नहीं कोसना तुम्हें
बहुत हो चुका 
आखिर कब तक 
एक ही बात बार - बार दोहराऊँ
जानती हूँ 
नहीं फर्क पड़ेगा तुम्हें
तो कहकर क्यों जुबान को तकलीफ दूं
वैसे भी तुम अकेले तो जिम्मेदार नहीं ना
कहीं ना कहीं इसमें
मेरी भी गलती है
हाँ .......स्वीकारती हूँ
मेरी भी गलती है
आँख मूँद विश्वास किया तुम पर
तो आखिर उसकी सजा तो भुगतनी होगी ना
कब तक सिर्फ तुम्हें ही 
कटघरे में खड़ा करती रहूँ
आज समझी हूँ ..........
सिर्फ कानून बनाने वाला ही नहीं होता दोषी
जब तक उसे मानने वाला उसका प्रतिकार ना करे
अब जब तुम्हारी हर बात को 
अक्षरक्ष: मानती रही
सिर झुकाए 
तो आज सिर्फ तुम पर 
दोष कैसे मढ़ सकती हूँ
मैं भी तो बराबर की दोषी हूँ ना
क्यों नहीं मैंने माना 
कि भावनाएं सिर्फ दिखावा होती हैं
असलियत में तो ज़िन्दगी की हकीकतें होती हैं
जैसे तुम्हारे लिए हकीकत और भावनाओं में
हमेशा हकीकत ने ही हर बार जंग जीती
भावनाएं तो हर मोड़ पर कुचली मसली गयीं
वैसा ही मुझे भी बनना चाहिए था
सीखना चाहिए था मुझे तुमसे
सच्चाइयों के धरातल पर भावनाओं की 
फसलें नहीं लहलहाती हैं
बस एक यही फर्क रहा तुम में और मुझमे
तुम्हारी और मेरी सोच में
और ना जाने कितने युग बीत गए
हमें यूँ ही लड़ते
अपने वजूदों को साबित करते
हाँ................ मैं हूँ स्त्री 
जान गयी हूँ हकीकत के धरातल को
अब नहीं कोसूंगी ओ पुरुष तुम्हें
नहीं हो सिर्फ तुम ही अकेले दोषी
बस सिर्फ इतना कहना है मुझे
अब अगर कभी तुम्हारी हकीकतें 
मेरी हकीकतों से टकराएं 
तो ना आ जाना तुम अपनी
भावनाओं की दुहाई देते
आज से कोरा कर लिया है मैंने भी कागज़ को
अब नहीं लिखा जायेगा कोई प्रेमग्रंथ 
अब तो होंगी सिर्फ 
भारी शिलाएं जिन पर 
लिखी जाएँगी इबारतें 
आज की नारी की
कैसे मुक्त किया खुद को पुरुषवादी सोच से 
कैसे दिया खुद को एक धरातल सम स्तर का
ओ पुरुष ! आज से देख तुझे कोसना मैंने बंद किया
बस याद रखना कहीं तू ना मेरा पथ अपना लेना!!!


एक तरफ दिव्या शुक्ला के एहसास 

नारी मन का अनगूंजता गीत - ये पन्ने ........सारे मेरे अपने


न जाने क्यों आज मन किया
कलाई से कुहनी तक पहन लूँ
हरे कांच की रेशमी चूडियाँ 
भर ऐड़ी कलकतिया महावर
पूरा पांव चटख लाल रंग वाला
लगा के बिस्तर की सफ़ेद चादर पर
छाप दूँ ढेरों पाँव के निशान
--जैसे पहले करती थी --और फिर
खूब बजनी पाजेब भी पहन लूँ
ढेर सारे घुंघरू वाली ----
और हाँ घुंघुरू वाले बिछुए भी
वो भी तीनो उँगलियों में डाल कर
लाल हरी बांधनी चुनरी पहन -
किसी ट्रक या ट्रैक्टर की ट्राली
पर लदे पुआल के ढेर पर खड़े हो कर
अपना आंचल हवा में उड़ाते हुए
जोर जोर से गाऊं --
तोड़ के बंधन बाँधी पायल
न जाने क्यूँ जब भी फिल्म के
गीत में नायिका को देखती
तो कल्पना में खुद को वहाँ पाती
पायल बिछिया कंगन चूड़ी
जब बजते तो मन के सात सुर बज उठते
यह बंधन नहीं मन के तार है जरा सुनो तो
तुम ने हाथ पकड़ भर लिया और चूडियाँ धीमे से खनक उठी
मानो कह रहीं हो छोडो न मेरा हाथ अब जाने दो
और जब गुस्सा आता है तो जोर से जता देती है
पर न जाने क्यूँ तुम्हें नहीं पसंद इनके बोल
जब भी मै छम छम पायल पहन के चलती
और छनक जाते घुंघरू या भरे हाथों की चूडियाँ
खनखनाती तो झुझला उठते तुम आखिर क्यूँ ?बोलो न
तुम्हारा तो चुभता हुआ बस एक ही वाक्य
तीर की तरह लगता सीधे दिल पर
लगता है बंजारों की बस्ती से आई है
तभी तो कितने गंवारू शौक है ---
उस पर जब यह भी बोल कर हंस भर देते तुम
सुनो ये लाल सडक क्यूँ बना रखी है सर पर
तो जलभुन जाती मन ही मन ---- फिर तो
मै दे मारती गुस्से में एक जोरदार डायलॉग
सुनो -एक चुटकी सिंदूर की कीमत
क्या तुम नहीं जानते बाबू
इतना श्रिंगार करने की आज़ादी
तो मिलती ही है न ----वरना माँ कब
करने देती ये सब ----उफ़ वो बचपन ही तो था
फिर एक दिन सब उतार के फेंक दिया
रोज ही सुनना पड़ता बंजारन हो क्या
ढेरों लाल हरी चूडियों की जगह बस
एक कड़ों ने ली पाज़ेब के घुंघरू मौन हो गये
आज वो बंद पिटारी सब दिख गया
और पायल उठाने पर जब घुंघरू बजे
तो मन के तार फिर झनझना गए
काश की तुम समझते
यह न तो गँवारपन न ही बंधन है
यह तो नारी मन का संगीत है
जो उसकी हर हलचल पर बजता है
पायल बिछुए चुडियों के मधुर स्वर  में
नारी मन का  अनगूंजता गीत है...। 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी जगह इसी समय...तबतक के लिए शुभ विदा । 


मंगलवार, 26 नवंबर 2013

परिकल्पना और व्यक्तित्व



व्यक्तित्व का निर्माण,गुणों की स्थापना,एक प्राकृतिक अस्तित्व एक दिन में नहीं होता,वर्षों की साधना,प्रखर अभ्यास से एक रौशनी दसों दिशाओं में फैलती है  . किसी को सोच लेने से हम वो बन नहीं जाते,हीरा तो पत्थर है - तराशा नहीं जाये तो न सौंदर्य,न कीमत,न नाम !
व्यक्ति का चिन्तन, विचार, स्भाव, चरित्र, संस्कार, लोभ, मोह, अहंकार जनित समस्त भावनाएँ, श्रद्धा संवेदना आदि सभी प्रकार के सकारात्मक और नकारात्मक तत्वों से व्यक्ति का आन्तरिक व्यक्तित्व बनता है। 
आन्तरिक व्यक्तित्व ही वास्तव में व्यक्ति का वास्तविक व्यक्तित्व होता है, क्योंकि उसी की परछाई बाह्य व्यक्तित्व में झलकती है।
संगीत,आवाज़,सुरों की दुनिया - जब भी इसका ज़िक्र होता है - लता मंगेशकर का नाम शहद की मिठास की तरह सबकी जुबां पे आता है  .... 

आज इस स्वर कोकिला को विमलेन्दु जी की कलम से पढ़ते हैं उनके एक जबरदस्त गीत को सुनते हुए -





अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर राज करते हुए, संकोची, भाग्यवादी, ईश्वरपरायण, पित़ृहीन, दृढ़ संकल्पी लता मंगेशकर आज चौरासी बरस की हो गईं. लता का जीवन यह बताता है कि भारत जैसे देश के, मुम्बई फिल्म उद्योग जैसे वातावरण में भी एक लड़की किन शिखरों को छू सकती है. दरअसल लता कोई दैवीय चमत्कार नहीं थीं, बल्कि वो मानवीय प्रयत्नों की पराकाष्ठा हैं. ये लता ही थीं जिन्होंने फिल्म संगीत को उसका वाज़िब हक दिलवाते हुए वैश्विक पहचान और स्वीकृति दिलवायी. भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश पर तो वो आज भी राज कर रही हैं. साथ ही दुनिया भर में बसे अप्रवासी भारतीयों में उनके गीत एक नास्टैल्जिया पैदा करते हैं. ये अप्रवासी लता की आवाज़ के सहारे ही अपने देश की हवा, पानी, मिट्टी, जवानी और बचपन से जुड़े हुए हैं.
        
लता अगर भारत में न होकर किसी यूरोपीय देश, खासतौर से फ्रांस या जर्मनी में होतीं तो अब तक उन पर अनेक शोध हो चुके होते, जीवनियां लिखी जा चुकी होतीं. एक जमाने में यह खबर उड़ी थी कि अमेरिका ने भारत सरकार से यह पेशकश की थी कि मरणोपरान्त लता का गला उन्हें शोध के लिए दे दिया जाय, कि आखिर यह मिठास पैदा कैसे होती है ! खैर ! लेकिन भारतीय प्रशंसक लता को लेकर कभी भावुकता में गुम नहीं हुए. यद्यपि लता की आवाज़ हमें बहुत रचनात्मक रूप से भावुक करती है. दूसरी तरफ लता के कुछ गीत ऐसे हैं जिन्हें आधी रात के समय सुनकर पागल होने या यह दुनिया छोड़ देने की इच्छाएँ पैदा होने लगती हैं. लता के इस असर की स्वीकारोक्ति फिल्म ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ के एक गीत में है. इसमें संगीत पर मुग्ध ओम प्रकाश ‘सपने में सजन से दो बातें, इक याद रही इक भूल गए’ गीत को ग्रामोफोन पर बार-बार सुनता है और विक्षिप्त होने लगता है. यह गीत, संगीतकार मदन मोहन की संभावनाओं का शिखर था, लेकिन लता के बिना इस शिखर को छुआ नहीं जा सकता था.
 
      
भारतीय उपमहाद्वीप में लता की लोकप्रियता इतनी चमत्कारिक है कि बच्चा-बच्चा उनके जीवन के बारे में जानता है. आप किसी से भी पूछिए वो बता देगा कि लता का जन्म इन्दौर के मराठी परिवार में 28 सितंबर 1929 को हुआ था. लता की माँ दीनानाथ मंगेशकर की दूसरी पत्नी थीं. जन्म के समय लता का नाम ‘हेमा’ रखा गया था. बाद में पिता दीनानाथ ने अपने एक नाटक ‘भाव बन्धन’ की पात्र ‘लतिका’ से प्रभावित होकर उनका नाम लता रख दिया. वस्तुतः इनका उपनाम ‘हार्डीकर’ था. पिता दीनानाथ ने ही अपने मूल स्थान(मंगेशी, गोवा) की पहचान को जीवित रखने के लिए ‘मंगेशकर’ उपनाम रख लिया था. लता की संगीत की आरंभिक शिक्षा स्वाभाविक रूप से पिता से ही शुरू हुई. फिर कच्ची उम्र में ही लता ने अमानत अली खान से संगीत सीखना शुरू कर दिया. आगे चलकर अमानत खान देवासवाले, पं. तुलसीदास शर्मा और बड़े गुलाम अली खाँ से भी सीखती रहीं. लता ने गाने के साथ ही 70 के दशक में कुछ मराठी फिल्मों के लिए संगीत भी तैयार किया. पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी संगीत-नाटक मंडली चलाते थे. लेकिन उनकी मंडली, सिनेमा में आवाज़ और संगीत के आगमन के कारण बर्बाद हो गई.
         
दीनानाथ शराब के आदी हो गए और चले गए. सिनेमा ने पारसी और अन्य थियेटर शैलियों को भी खत्म सा कर दिया. जिस सिनेमा ने दीनानाथ को बर्बाद किया, उन्हीं की बेटी फिल्म संगीत की साम्राज्ञी बन गई. लता जीवन भर जी जान से अपने पिता को भारतीय संगीत में प्रतिष्ठित करने में लगी रहीं, और अपने प्रचार के प्रति हद से ज्यादा उदासीन रहीं. लेकिन तब भी, जिसे बड़े गुलाम अली खान ने ‘तीन मिनट की जादूगरनी’ कहा था, वो लगभग 66 बरसों से हमारे दिल, दिमाग, गले, होंठ, कान में बसी हुई हैं. वो अपने पिता का बकाया पिछले साठ सालों से फिल्म संगीत से वसूल रही हैं. लता के प्रभाव का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अगर किसी धुन को सुनने के बाद उनकी त्यौरियों पर एक भी बल पड़ जाता था तो नामी से नामी संगीतकार भी शर्मिन्दा हो जाते थे. दोयम दर्जे के संगीतकारों की तो पूछिए मत.
       
लता का चौरासी बरस का हो जाना हमें विचलित नहीं करता. क्योंकि आज भी किसी संगीतकार को जब कोई कठिन धुन गवानी होती है या कोई अविस्मरणीय गीत रचना होता है तो वह लता की शरण में जाता है. यद्यपि अब लता जब ऊँचे सुरों में जाती हैं तो उनकी आवाज में कुछ रेशे निकल आते हैं, लेकिन कोई सर्वनाश नहीं हो जाता. चौरासी बरसों ने लता की आवाज़ के साथ वह नहीं किया जो उसने सुरैय्या, शमशाद बेगम, नूरजहाँ या इकबाल बानों के साथ कर दिया था.
        
फिल्म संगीत को आदर दिलवाने का काम सहगल ने शुरू किया था. बाद में मुकेश, मन्ना डे, किशोर और सबसे अधिक रफी ने इस काम को आगे बढ़ाया. लेकिन भारतीय फिल्म संगीत को वैश्विक पहचान और हमारे सुख-दुख-राग-विराग-जनम-मरण का अनिवार्य साथी बनाया लता मंगेशकर ने. लता की साधना और उपलब्धियों से उनके समय के साथी गायक भी प्रेरित होते थे. संसार में भारतीय संगीत अगर अपनी पूरी ताकत से प्रतिष्ठित है तो वह शास्त्रीय गायकों की वजह से नहीं. हमें ईमानदारी से यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि यदि हमारा लोकप्रिय फिल्म संगीत न होता तो पाश्चात्य पॉप के तूफान में हमारे शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अपने तानपूरे और तबलों के साथ उड़ गए होते. जब पूरी दुनिया में मैडोना और माइकल जैक्शन का दिग्विजयी आभियान चल रहा था, उस समय उपमहाद्वीप में भारतीय फिल्म संगीत अपनी पूरी ताकत से उसके मुकाबिल था. इसी का नतीज़ा है कि नाचने-गाने और मस्ती के लिए भले ही पॉप संगीत बजा लिया जाय, लेकिन दुखों का पहाड़ पिघलाने और खुशियों में उबाल लाने के लिए हमें अपने फिल्म संगीत की ही आँच चाहिए होती है. और यह आँच पैदा करती है एक लाल किनारे वाली सफेद साड़ी पहने हुए शर्मीली औरत. यह औरत पिछले 66 सालों से गाती जा रही है. और उसके साथ संसार के कोने-कोने में न जाने कौन-कौन गा रहा है !
             
लता पर मुग्ध रहते हुए हमें गुलाम हैदर के एहसान को भी नहीं भूलना चाहिए. भले ही लता ने तेरह की उम्र में मराठी फिल्म ‘पाहिली मंगला गौर’ में गा लिया था, लेकिन इस साँवली और मरियल सी लड़की में लता को गुलाम हैदर ने ही खोजा था. उस लता को जो करोड़ों लोगों को न सोने देती है न जागने देती है. गुलाम हैदर तो लगभग भुला दिए गए, लेकिन लता को भुलाना रहती दुनिया तक संभव नहीं होगा.
        
यह अमरत्व लता को आसानी से नहीं मिला. इसके लिए उन्हें मीरा बनना पड़ा. पिता की मृत्यु के बाद पूरे परिवार की परवरिश का जिम्मा तो उठा ही लिया था. उन्होने अपनी निजी लालसाओं और सुखों को भी होम कर दिया. लता उन अर्थों में सुन्दर नहीं थीं जिनसे हम किसी स्त्री को देखते हैं, लेकिन लता के करोड़ों प्रेमी आज भी हैं. 1950-55 के बीच जब राजसिंह डूँगरपुर उनके जीवन में नहीं थे, तब भी सी. रामचन्द्र, नौशाद, अनिल विश्वास, मदन मोहन, चितलकर, शंकर-जयकिशन जैसे कई पुरुष उन पर मोहित रहे हैं. लेकिन लता ने अपना जीवन संगीत और पिता की स्मृतियों को संजोने में समर्पित कर दिया था. उन्होने राग-द्वेष के जीवन से पारगमन करके, संगीत में समाधि लगा ली. उनकी साधना का फल यह निकला कि उनकी पूरी देह ही उनकी आवाज़ बन गई.
       
पचास के दशक के मध्य में भारतीय फिल्म संगीत और फिल्मों में संवेदना के स्तर पर एक शालीन परिवर्तन हो रहा था. सहगल, पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल, सुरेन्द्र दुर्रानी, के.सी. डे, जगमोहन, काननबाला, जोहराबाई, जूथिका राय, अमीरबाई कर्नाटकी जैसे गायक-गायिकाएँ अचानक पुराने लगने लगे. इनकी आवाजें अटपटी और करुणा में भी हास्य पैदा करने वाली लगीं. 1945-46 के आसपास हिन्दी फिल्मों में चकाचौंध पैदा करने वाले परिवर्तन रहे थे. संवेदना, सोच, तकनीक और आस्वाद—सब कुछ बदल रहा था. भारतीय फिल्म-कला वयस्क और अंतर्राष्ट्रीय हो रही थी. इसी समय लता, रफी, मन्ना डे, हेमन्त कुमार, नौशाद, मदन मोहन आदि भारतीय संगीत-रसिकों के संस्कार बदल रहे थे.
        
इस सुदीर्घ और प्रदीप्त संगीत साधना में लता किन किन रुपों में आयीं हमारे सामने. बच्ची के रूप में, किशोरी की तरह, नायिका की तरह......यानी एक स्त्री जिन जिन रूपों में घटित हो सकती है, सब में. लता की आवाज़ ने ब्याहता, परित्यक्ता, साध्वी, विधवा, विरहिणी, नौकरानी, पटरानी, कोठेवाली, पतिव्रता आदि नारियों की भावनाओं को समय समय पर जिया. स्त्री की सम्पूर्णता को लेकर वो करोड़ों पुरुषों की आकांक्षाओं में बस गयीं, तो न जाने कितनी अवसादग्रस्त स्त्रियों को जीवनदान देती रहीं. लता की आवाज़ में ऐन्द्रिकता और मांसलता नहीं है. उनकी आवाज़ में एक पवित्र समर्पण है. वहीं उनकी बहन आशा की आवाज़ में मांसलता और अधिकार भाव है. याद कीजिए ‘बुड्ढा मिल गया’ गीत में लता की आवाज़ कितनी अटपटी लगती है. आशा के गीत ‘मोरे अंग लग जा बालमा....’  वाला असर क्या लता की आवाज़ में आ सकता था !
               
ऐसा नहीं था कि शुरू से ही लता में ऐसा चमत्कार था. ‘मजबूर’ से लेकर ‘लाडली’ तक लता की आवाज में साफ तौर पर एक कच्चापन था. लेकिन इसके बाद सी. रामचन्द्र और नौशाद ने उनकी आवाज़ को इस कदर सँवारा कि पाँच सालों के भीतर ही दूसरी गायिकाएं दृश्य से गायब हो गयीं. लता को लेकर यह बहस भी चली कि उन्होने किसी दूसरी गायिका को पनपने नहीं दिया. यह इमानदारी से सोचने की बात है कि लगभग 21 साल की उम्र में क्या उनके पास संगीत की दुनिया की इतनी ताकत आ गई होगी कि वो अपने से वरिष्ठ गायिकाओं को चुप करवा सकतीं ?

लता उस भारतीय स्त्री की आवाज़ हैं जो हर पुरुष के भीतर कस्तूरी की तरह छुपी रहती है. जिसे पुरुष जन्म लेने के साथ ही खोजने लगता है. लता न सिर्फ हमारा अभिमान हैं, बल्कि हमारी जीवनीशक्ति भी हैं. आधी रात को हमारे अस्तित्व पर उग आये प्रश्नचिन्ह का जवाब हैं लता के गीत. हमारे बचपन, यौवन, बुढ़ापे की सदाबहार साथी लता की आवाज़ तब तक रहेगी जब तक इस धरती पर मनुष्य है.

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी जगह इसी समय ...तबतक के लिए शुभ विदा । 

सोमवार, 25 नवंबर 2013

परिकल्पना और स्त्री



मंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं 
और वही निभते और निभाये जाते हैं !
हम सब जानते हैं
जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
और इसे जानना समझना
सहज और सरल नहीं ...
सम्भव भी नहीं !!!  ............................... 


तुम्हारे विचारों से गर्भित
मैं चिरगर्भिणी, घूमती हूँ
घूमती ही रहूँगी
My Photoगर्भ लिये, सबके मन में
जगाऊँगी कौतुहल थम-थमकर
कि दुनिया की दृष्टि
ठिठक जाती है
हर कुंवारी गर्भवती पर
उसके गर्भ का संधान करने
और मैं अबोल अभिशप्ता
कह नहीं पाती जग से
है कौन इसका वप्ता

कह नहीं पाती क्योंकि
श्रृंखलित हूँ तुम्हारे शब्द-चातुर्य से
और विवश हूँ   
जो मुग्ध है सभी उसके माधुर्य से
कि तुम अपने दाप व संताप को
मृदित अभिलाषा को
हर्ष और निराशा को
प्रज्जवलित पिपासा को
विश्व-वेदना की संज्ञा देकर
आवृत कर जाते हो उनकी पहचान
और मैं गर्भित हो जाती हूँ
तुम्हारे विचार-बीज से

मैं कुँवारी हूँ क्योंकि
तुम्हारे विचार पौरुषहीन हैं
निर्धाक जग-सम्मुख होने से
या किसी इच्छित योजना से
शब्दावतंस के मोहक वीतंस में
फंसाना चाहते हो सबको
मेरे कुँवारेपन की आड़ में
इस भिज्ञता से
कि ऐसे गर्भो के चर्चे
अधरों से कर्ण-विवरों में
उत्सुकता से उतारे जाते हैं
उनके प्रणय-काल की
सरस गाथाएं सुनी जाती है
और शब्दालंकार भर भरकर
दूर देश तक सुनाई जाती है
     
मैं रूषित नहीं हूँ
तुम्हारे नेपथ्य वास से
या शंकित हूँ इस गर्भ पर
होने वाले उपहास से
जो भाग्य -शिष्टि का प्रबलत्व
मानकर रखूँगी दृढ तितिक्षा
और निभाऊंगी अपना धर्म
एक निर्भट कालांतरयायी बन
तुम्हारे विचारों के उजले-काले
रंगीन स्मृतियों की रक्षिता बन
पूर्णगर्भा सी दिखूंगी
और सबकी आँखों में अटककर
मानसपटल पर सतत
एक पारंग चितेरिन सी
आकृतियाँ उभारा करुँगी
और उसी का अनुतोष पाकर
अपना समय गुज़ारा करुँगी  .......... निहार रंजन

वो स्त्रियाँ
बहुत दूर होती हैं हमसे
जिनकी देह से
मोगरे की गंध फूटती है, 
और जिनकी चमक से
रौशन हो सकता है हमारा चन्द्रमा ।

उनके पास अपनी ही
एक अँधेरी गुफा होती है
जहाँ तक
ब्रह्मा के किसी सूर्य की पहुँच नहीं होती ।

हमारे जनपद की स्त्री
सभी प्रचलित गंधों को
खारिज़ कर देती है ।
एक दिन ऐसा भी आता है
कि एक खुशबू का ज़िक्र भी
उसके लिए
किसी सौतन से कम नहीं होता ।

हमें प्रेम करने वाली ये स्त्रियाँ
चौबीस कैरेट की नहीं होतीं
ये जल्दी टूटती नहीं
कि कुछ तांबा ज़रूर मिला होता है इनमें ।

ये हमें क्षमा कर देती हैं
तो इसका मतलब यह नहीं है
कि बहुत उदार हैं ये,
इन्हें पता है कि इनके लिए
क़तई क्षमाभाव नहीं है
दुनिया के पास ।

ज़रा सा चिन्तित
ये उस वक्त होती हैं
जब इनका रक्तस्राव बढ़ जाता है,
हालांकि
सिर्फ इन्हें ही पता होता है
कि यही है इनका अभेद्य दुर्ग ।

नटी हैं हमारी स्त्रियाँ
कभी कभार
जब ये दहक रही होती हैं अंगार सी
तब भी ओढ़ लेती हैं
बर्फ की चादर ।

न जाने किस गर्मी से
पिघलता रहता है
इनके दुखों का पहाड़,
कि इनकी आँखों से
निकलने वाली नदी में
साल भर रहता है पानी ।

इनके आँसू
हमेशा रहते हैं संदेह के घेरे में
कि ये अक्सर रोती हैं
अपना स्थगित रुदन ।

हमारी स्त्रियाँ
अक्सर अपने समय से
थोड़ा आगे
या ज़रा सा पीछे होती हैं,
बीच का समय
हमारे लिए छोड़ देती हैं ये ।
ये और बात है
कि इस छोड़े हुए वक्त में
हमें असुविधा होती है ।

हमारी स्त्रियों को
कम उमर में ही लग जाता है
पास की नज़र का चश्मा
जिसे आगे पीछे खिसका कर
वो बीनती रहती हैं कंकड़
दुनिया की चावल भरी थाली लेकर ।

यही वज़ह है कि हमारे पेट भरे होते हैं
और अपनी स्त्रियों के जागरण में
हम सो जाते हैं सुख से ।

------------------------ विमलेन्दु

मैं स्त्री हूँ   

मेरे हिस्से की धूप 


मैं एक स्त्री हूँ-
My Photoआदम की पसली से निर्मित ...
ज़रूर बायीं पसली ही रही होगी 
वही जो दिल के करीब होती है 
तभी तो -
तुम्हारी हर धड़कन सुन पायी
हर जुम्बिश को परख पायी 
और कहे बगैर 
तुम्हारी हर टीस..हर दर्द को समझ पायी.
और तुम्हारा प्यार -
लहरों सा-
किनारे पर पहुँचने को आतुर 
जिसे मैंने पूरी शिद्दत से 
रेत सा जज़्ब किया !

फिर शुरू हुआ एक और अध्याय 
मातृत्व का !
वह सुख-
जिसने सम्पूर्ण बनाया मुझे 
अपने निर्माण को जब 
बाँहों में ले निहारा-
तो सारे ब्रह्माण्ड ने आशीषा 
और तह...दर तह ..... दर तह ...
यह आशीष -
एक पुख्ता , मुकम्मल वजह बन गए 
हमारे जीने की ....
और हमें लग गए 'पर'!

उन परों के सहारे  
हमने भरी उड़ानें-
वर्त्मान  में ..
भविष्य की...
और संजोये सपने 
उनकी सफलता के !

हमारे बोये यह वृक्ष 
फले देश विदेश में 
और परवान चढ़ता गया  
हमारा स्वाभिमान  
कुछ और अध्याय जुड़ गए जीवन में -
तृप्ति ...समृद्धि और गर्व के !

हमारी इस तृप्ति ने विस्तार पाया  
जब हुआ वहन उत्तरदायित्वों  का 
कन्यादान कर ...!
उस यज्ञ की समिधा बने  
हमारे त्याग-
हमारे कर्तव्यों के बोझ- 
हमारे समझौते -
हमारी लड़ाइयां जो हमें- 
एक दूसरे के और करीब ले आयीं -
जिन्होंने...झड़ रहे पलस्तर को पुख्ता किया -
और साथ ही पुख्ता किया 
हमारे प्रेम -
हमारे विश्वास - 
हमारे रिश्तों की नींव  को !

मैं कभी अकेली नहीं थी 
अगर मैंने हर परिस्थिति में तुम्हारा साथ निभाया 
तो तुमने भी मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ा -
जब भी डगमगाई -
तुम्हे अपने पास पाया..
एक सम्बल बन !
कभी मैं तुम्हारी बैसाखी बनी 
कभी तुम दीवार बने 
मेरे और विपदाओं के बीच !
मैं सहचरिणी बनी -
तो तुम्हारे धैर्य ने भी साथ दिया !
एक दूसरे के सहारे 
एक दूसरे का कन्धा बन ...
हमने ज़िन्दगी का सफ़र तै किया !
तुम्हारा मेरे लिए सम्मान -
मेरा ग़ुरूर बना !
और क्या चाहिए !!!
और क्या चाह सकती है एक स्त्री...
आज 
बीते जीवन का जायज़ा लेती हूँ 
तो एक संतोष ..एक सुकून से भर जाती हूँ 
हाँ..
मैं खुश हूँ की मैं एक स्त्री हूँ
और तुम मेरे जीवन साथी !!!

सरस दरबारी 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय इसी जगह.....शुभ विदा । 
 
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