शनिवार, 31 मई 2014

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव का भव्य शुभारंभ 2 जून से....


आप सभी को यह सूचित किया जाता है, कि  परिकल्पना ब्लॉगोत्सव का भव्य शुभारंभ परिकल्पना के इसी ब्लॉग पर दिनांक 2 जून 2014 से होने जा रहा है। यह उत्सव एक माह तक चलेगा और इसमें हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू, तमिल, तेलगू आदि भाषाओं के लगभग 500 सक्रिय ब्लॉगर शामिल होंगे।

प्रथम दिवस का कार्यक्रम; 
दिनांक: 2 जून 2014 

सुबह 10 बजे -       गणपती वंदना (स्वर: पारुल पोखराज), परिकल्पित दीप प्रज्ज्वलन,
  भजन (स्वर: मालविका नीराजन), सरस्वती वंदना (स्वर: स्वप्न मंजूषा)
 (स्थान: परिकल्पना ब्लॉग पर)

अपराहन 12 बजे-               अज़ब-गजब वर्ल्ड रिकॉर्ड 
                                                                                                (स्थान: शब्द-शब्द अनमोल ब्लॉग पर)

अपराहन 1 बजे-                ओम पुरोहित "कागद" की हिन्दी कविताओं और 
                                         कुँवर रविन्द्र की पेंटिंग और रेखांकन की प्रस्तुति 
                                                                    (स्थान: परिकल्पना ब्लॉग पर)

अपराहन 2 बजे-               असग़र वज़ाहत के नाटक "जिस लाहौर नई देख्या" की प्रस्तुति 
                                                                     (स्थान: वटवृक्ष  ब्लॉग पर)

शाम 4 बजे-                      अनुपम  ध्यानी की कविताओं  के पश्चात 
                                        प्रथम दिवस के कार्यक्रम का समापन। 
                                                                     (स्थान: परिकल्पना ब्लॉग पर)

सोमवार, 26 मई 2014

अबकी बार किस देश में सेमिनार?

Logo parikalpna.jpgपरिकल्पना के अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉग सम्मेलन की जब बात चलती है तब मन में अभिव्यक्ति के एक दिव्य समारोह की परिकल्पना होने लगती है। हो भी क्यों न, चाहे 30 अप्रैल 2011 का दिल्ली सम्मेलन हो, 27 अगस्त 2012 का लखनऊ सम्मेलन या फिर 14 सितंबर 2013 का काठमाण्डू सम्मेलन, अभिव्यक्ति का एक दिव्य समारोह ही तो था।

हिन्दी के माध्यम से एक खुशहाल सह अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप देने के उद्देश्य से 2010 में शुरू किए गए "ब्लॉगोत्सव" इस बार चौथे वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो क्यों न ब्लॉग पर अभिव्यक्ति के इस दिव्य समारोह को "अभिव्यक्ति का दिव्यतम समारोह" बना दिया जाए?

आपका सुझाव अमूल्य है हमारे लिए, इसलिए आप अवश्य सुझाव दें कि दिल्ली, लखनऊ और काठमाण्डू के बाद इस बार कहाँ आयोजित किया जाये सेमिनार?

 इस पर हम लगातार माथापच्ची करते रहेंगे, लेकिन उससे पहले चलिये प्रस्ताव  करते हैं वर्ष 2014 के "परिकल्पना ब्लॉगोत्सव" का।

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी "परिकल्पना ब्लॉगोत्सव" की मुख्य संचालक रहेंगी रश्मि प्रभा जी। तो चलिये उन्हीं की जुवानी सुनते हैं, क्या होने जा रहा है इस बार -








"परिकल्पना की कल्पना प्रतीक्षित है
कल्पनाओं से गेट टूगेदर के लिए
मैं भी ख्यालों की रास थामे साहित्यिक अभिव्यक्ति के मैदान में
कलम के सशक्त योद्धाओं को देख रही हूँ और-
इस रंगमंच के परदे को उठाने को तत्पर हूँ …।"

इस बार हम कुछ अन्य भाषाओँ के साहित्य को भी लेंगे,
भाषा अलग ,भाव वही -
गुलाब को रोज कहो या गुलाबाची,
है तो वह बगीचे का राजा ही :)

भाषा अनेक, भाव एक,
राज्य अनेक, राष्ट्र एक,
पंथ अनेक, लक्ष्य एक,
बोली अनेक, स्वर एक, रंग अनेक,
तिरंगा एक, समाज अनेक,
भारत एक, रिवाज अनेक,
संस्कार एक, योजना अनेक,
मकसद एक, कार्य अनेक,
संकल्प एक, राह अनेक,
मंज़िल एक, पहनावा अनेक,
प्रतिभा एक, चेहरे अनेक, मुस्कान एक,
विविधता में एकता, यही भारत की पहचान …

यही है परिकल्पना का उद्देश्य … …
इस उद्देश्य में आप आमंत्रित हैं,
भारतीय व  दक्षिण एशियाई भाषाओं  की रचना के साथ,
अंग्रेजी,तमिल,उर्दू, .... हिंदी अनुवाद सहित।

भारत विविध भाषाओँ का सशक्त देश है - इस सशक्तता में आपका सशक्त योगदान अपेक्षित है …

आप अपनी रचनाओं को सीधे रश्मि प्रभा जी को प्रेषित करें। जल्दी करें, ई मेल आई डी है:

इसके अलावा आप चाहें तो परिकल्पना के ई मेल आईडी पर भी अपनी रचनाएँ भेज सकते हैं: parikalpanaa@gmail.com

शुक्रवार, 16 मई 2014

क्या कहता है जनादेश-2014 ?????


 मोदी ने विरोधियों के दिलों में नहीं, जनता के दिलों में जगह बनाई 

जाद भारत के चुनावी इतिहास में 1977 का आम चुनाव हमेशा बेहद शिद्दत से याद किया जाता है, क्योंकि इस चुनाव में पहली बार नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक बुनियाद हिल गई थी। समूचा विपक्ष एकजुट हो गया था। सत्ता का पर्याय बन चुकी कांग्रेस को जनता ने न सिर्फ सत्ता से बेदखल कर राजनीति की धारा पलट दी थी बल्कि देश में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना भी की थी। 2004 का जनादेश देखा जाये तो कमोवेश वही स्थिति बनी है, किन्तु इसबार पूरा विपक्ष एकजुट नहीं था और न कॉंग्रेस की सामूहिक घेराबंदी ही की गई थी। फिर भी यह चुनाव भारतीय राजनीति में इसलिए मील का पत्थर होने का दम भर सकता है क्योंकि इसमें भारतीय मतदाताओं ने राजनेताओं और राजनीतिक पंडितों, सभी के अनुमानों को धता बताते हुए जाति, धर्म और क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर वोट डाला। मतदाताओं ने राजनेताओं द्वारा बिछाई गई शतरंजी बिसात को ही जैसे उलटकर रख दिया। उन्होंने यह स्पष्ट संदेश दिया कि चुनावी गणित और जीत के फ़ॉर्मूलों पर अपनी महारत समझने वाले राजनीतिज्ञों को कहीं न कहीं वह विकास, जवाबदेही, ईमानदारी और अच्छाई की कसौटी पर परखेगा और ज़रूरत पड़ने पर नकार देगा।

कॉंग्रेस की पराजय के पाँच बड़े कारणों में सबसे बड़ा कारण यू पी ए के 10 वर्षों के शासन में व्याप्त मंहगाई और भ्रष्टाचार है। दूसरा बड़ा कारण है कोंग्रेसी सज्जनों के द्वारा जनांदोलनों की अनदेखी करना, तीसरा कारण तमाम विपक्षी पार्टियों द्वारा मोदी पर चौतरफा प्रहार करते हुये उसे नायक बना देना, चौथा कारण कॉंग्रेस की तुलना में चुनाव प्रचार के दौरान मोदी का विभिन्न मुद्दों पर आत्मविश्वासी प्रहार और पाँचवाँ कारण नए वोटरों को अपने पक्ष में करने हेतु मोदी का सोशल मीडिया का व्यापक समर्थन।

आइये पहले अरविन्द केजरीवाल की बात करते हैं। केजरीवाल ने सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आवाज नहीं उठायी, बल्कि आम आदमी के हित में राजनीतिक सुधार का भी माहौल बनाया। यही कारण है कि इस बार के लोकसभा चुनावों में एक बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार का उभर कर आया है। अरविन्द केजरीवाल ने भले हीं इसका बीजारोपण किया हो, किन्तु इस सच्चाई को भाँपकर आरएसएस, भाजपा और बड़े कारपोरेट ने मिलकर केजरीवाल के ही मुद्दों को मोदी के मुॅंह में डाला और उन्हें एक जननायक के रूप में उभारा। भ्रष्टाचार-उन्मूलन की लड़ाई लड़ी केजरीवाल ने और जनक्रान्ति का रूप दिया नरेन्द्र मोदी ने। इसी को कहते हैं राजनीतिक अपरिपक्वता, जो इस चुनाव में केजरीवाल को लगातार उनके अपने ही मुद्दों से भटकाती रही। झाड़ू लगाने वाले के घर में ही लग गई झाड़ू और हो गया सुपड़ा साफ।

इस चुनावी परिणाम की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि जनता को सुलाने के लिये धर्म और जाति की अफीम का सहारा लेकर मुस्लिम हितों की प्रतीकात्मक राजनीति करने वाली पार्टियों के क्षद्म नारे भी खोखले साबित हुये। पहली बार ऐसा देखा गया कि इस अफीम से वे मुसलमानों को हिन्दुओं से और हिन्दुओं को सिखों से नहीं लड़वा सकी और न दलित-सवर्ण-संघर्ष करा सकी। ये पार्टियां अपने तरीके से इतिहास का पुनर्पाठ कराने में असफल रही। नफरत को जगाकर अस्पृश्यता तथा पुरानी सामन्ती-धार्मिक परम्पराओं को जिन्दा रखने वाली संस्थाएं भी बिखरती हुई नज़र आयीं।
जहां तक कॉंग्रेस का प्रश्न है, तो उन्होने निश्चित तौर पर विगत दस वर्षों में भोजन गारंटी बिल, सूचना का अधिकार, लोकपाल बिल आदि के माध्यम से जनता को सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है, लेकिन टू जी घोटाला, कॉमन वेल्थ घोटाला, कोयला घोटाला आदि दुष्कर्मों से अपने चरित्र को मटियामेट भी किया है। रही सही कसर मनमोहन के 'मौन ब्रत' ने भी निकाल दी। दस वर्षों तक ऐसे लगा जैसे मनमोहन सिंह सरकार नहीं चला रहे, नौकरी कर रहे हैं। कोंग्रेसी प्रवक्ताओं के आग उगलने वाले वक्तव्य और कमोवेश डंडे के बल पर सरकार चलाने की प्रवृति भी उन्हें बैकफूट पर ले गयी।

जाति-धर्म और भ्रष्टाचार के विरुद्ध नए उभार के बावजूद 2014 के इस चुनावी महासमर में, जिसे मोदी-लहर या मोदी-सुनामी कहा जा रहा था, वह वास्तव में पूॅंजीपतियों के धन -बल पर गरीबोें के विकास की राजनीति परिलक्षित हुई है। चाहे भाजपा हो अथवा कॉंग्रेस दोनों इस चुनाव के समस्त चरणों में पूॅंजीपतियों के धन से बने मचान से एक-दूसरे को ललकारते नज़र आए। मीडिया ने भी "जो बिकता है वही दिखता है" के तर्ज पर मोदी के पालनहार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा।

विकास के तमाम दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश के दो राजनीतिक प्रतिद्वंदियों क्रमश: मुलायम और माया तथा बिहार में लालू और नितीश जाति-धर्म की ही राजनीति करते नज़र आए। भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति के विरुद्ध सपा, कॉंग्रेस, आरजेड़ी, टीएमसी आदि दलों की मुस्लिम राजनीति कामयाब नहीं हो सकी, वहीं मायावती के आरक्षण जारी रखने के वादे भी दलित जातियों को लुभाने में नाकामयाब रहे।

यहाँ यह भी प्रश्न उठता है, कि यदि मोदी लहर था तो आंध्र में जयललिता, पश्चिम बंगाल में ममता और उड़ीसा में नवीन पटनायक अपनी शाख बचाने में कैसे सफल हुये?

बहरहाल, जनादेश-2014 यह संकेत दे रहा है, कि एक विकसित और एकभाषी प्रांत के मुख्यमंत्री पर एक विकासशील और बहुभाषी राष्ट्र की जिम्मेदारी सौंपने के भाजपा और आरएसएस के प्रस्ताव को जनता ने एक बड़ी तरक्की के रूप में देखने की कोशिश की है। इसका सीधा मतलब निकाला जा सकता है, कि आयाराम गयाराम की राजनीति से जनता अब ऊपर उठाना चाहती है।

"अच्छे दिन आएंगे या नहीं......." यह हम नहीं जानते, किन्तु चुनाव परिणाम के बाद यह तो स्पष्ट हो हीं गया है, कि "मोदी जी आने वाले हैं" या फिर यों कहें कि आ चुके हैं। निश्चित रूप से मोदी राजनीति के एक नए ब्रांड के रूप में उभरे हैं और उनका कद बढ़ा है, किन्तु आने वाले समय में जनता से किए गए वादों से मुकरना जहां उनके लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है, वहीं अपनी पार्टी के भीतर के अंतर्विरोध में उलझना भी। उन्हें दिल्ली की सल्तनत को संभालते हुये कर्तव्य-पथ पर फूँक-फूँक कर चलना होगा।

गुड गवर्नेंस के साथ-साथ रोजी-रोटी, मकान, चिकित्सा और सुरक्षा के मुद्दों को प्राथमिकता में रखना होगा। देश की गरीब जनता को जहालत और दहशत के माहौल से बाहर निकालना होगा। सरकार चलाते हुये उन्हें यह न भूलना होगा कि हमारा देश अध्यात्मिक,स्वाभाविक, राजनीतिक  तथा भौगोलिक सभी दृष्टिकोणों से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। हमारे देश का संविधान भी पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित संविधान है। इसलिए लोकतन्त्र की सलामती  के लिये इस स्थिति को बनाए रखना मोदी और उनके सहयोगियों के लिए बहुत जरूरी होगा।

() रवीन्द्र प्रभात 
 
Top