सोमवार, 30 जून 2014

ब्लॉगोत्सव-२०१४, पच्चीसवाँ दिन, एक बेहतरीन टिप्पणी लिखनेवाले का हौसला बढ़ाती है - ३



जब कभी हम लिखते हैं तो श्रोता ढूंढते हैं 
प्रतिक्रिया का लेखन पर गहरा असर होता है 
बिना आग में तपे सच्चा सोना नहीं होता 
बिना हथौड़े की पैनी चोट के पत्थर मूर्ति का आकार नहीं लेता 
रचनाकार की कलम को पाठक/श्रोता के शब्द निखारते हैं  … 

            रश्मि प्रभा 



संगीता स्वरुप ( गीत )
सच है महत्वाकांक्षाएं कभी कभी नीचे धकेल देती हैं ....... माता पिता हमेशा बच्चों का भला ही चाहते हैं ..... जीवन से बेदखल करके भी उनकी यही कामना रहती है कि बच्चे अपने जीवन में खुश रहें ..... न जाने क्यों लोग अधिकार पर तो ध्यान देते हैं लेकिन कर्तव्य भूल जाते हैं ... यदि कर्तव्य करें तो अधिकार तो स्वयं ही मिल जाता है । अपेक्षाओं को सीमित करें तो उपेक्षाओं से बचा जा सकता है ।

Shikha Gupta
अपनी महत्वकांक्षा बच्चों पर आरोपित करने के नतीजे हैं ....क्यूँ हम भूल जाते हैं कि बच्चों की अपनी भी कुछ इच्छायें हो सकती हैं ...जन्म देने भर से उन पर हमारा मालिकाना हक़ नहीं हो जाता ....बेहतरीन अभिव्यक्ति

संध्या शर्मा
आत्महत्या का कारण माता-पिता की महत्वकांक्षा हो सकती है, लेकिन महत्वकांक्षा बच्चे के जीवन से बड़ी कभी नहीं होती, शायद बच्चे उसके पीछे छिपे प्यार को देख नहीं पाते... बहुत गंभीर विषय है



मन के - मनके,  
अब ये खबरें अधिक विचलित भी नहीं करती.
क्या करें--देह एक व्यापार है--एक साधन है-
और कुछ नहीं.
बहुत कुछ छप चुका है--लिख भी बहुत गया है--
मोमबत्तियाम लिये जनपथ भी रोंदे गये???
कहीं से कोई आवाज आई---राहत आई???
शर्मसार हैं शर्म करने वाले--और कुछा भी नहीं.


expression
सच...न्याय का इंतज़ार कब तक...
अब तो खुद ही तलवार उठा ले स्त्रियाँ :-(
बेहद दुखद है...

मार्मिक अभिव्यक्ति.

सादर
अनु


केवल राम :
अह्सास का दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है—जमीन में अंकुरित होते हुए बीज को निर्दयता से,बाहर निकाल दें और इस तरह एक बीज की हत्या के अह्सास ने हजारों बीजों के जीवन के अह्सासों को कुचल दिया.

सही ..विचारणीय है ...आपका आभार

इसी के साथ आज की प्रस्तुति का समापन, मिलती हूँ ......कल फिर सुबह १० बजे परिकल्पना पर । 

ब्लॉगोत्सव-२०१४, पच्चीसवाँ दिन, एक बेहतरीन टिप्पणी लिखनेवाले का हौसला बढ़ाती है - २



टिप्पणी लिखना भी एक कला है - 'बढ़िया' 'सुन्दर' 'क्या खूब' रचना की बस तारीफ करता है, व्याख्या नहीं करता   … ना ही यह स्पष्ट होता है कि लिखनेवाले ने क्या समझा !

        रश्मि प्रभा 

विशेष टिप्पणियों के दूसरे भाग में और टिप्पणीकार :

एक प्रयास: कभी गुजरना शून्य से 


Vaanbhatt ने कहा…
ये भी एक गज़ब अनुभूति है...संवेदनशील व्यक्ति इस अवस्था का अनुभव कर सकता है...


संतोष पाण्डेय
कविता में कुछ शब्दों का प्रयोग बेहद अनूठा है। 
जैसे- दिन के कार्य 'दिवंगत करके। 
यह पक्तियां भी शब्द शिल्प की अच्छी उदाहरण हैं।
घर में रहते तीन जीव हैं
उनके भी सपने सजीव हैं।
और समापन हमेशा की तरह बेहद अर्थपूर्ण- 
रिक्त मनुज का शेष रहेगा।
छोटी पंक्तियों की गीतनुमा कविता लिखना आसान नहीं होता। श्रम, समय और साधना की मांग करती है।


ashish
जो तटस्थ है उनका इतिहास भी समय लिखेगा . शब्दशः सहमत इस आक्रोश से.



shikha varshney
नहीं...क्यों रोका जाये बेटी को आने से? ...बेटे को क्यों नहीं ??अगर नहीं दे सकते हम उसे संस्कार इंसानों वाले.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने
दीदी,
कमाल की रचना है.. बिना भाषणबाज़ी के नारी विषय के हर पहलू को आपने छुआ है.. और वो भी इतनी संवेदनशीलता के साथ कि यह निर्णय करना असंभव प्रतीत हो रहा है कि शब्द दर शब्द इस कविता की पंक्तियों में तेज़ाब भरा है कि आंसू.. बिना कुछ कहे, सिर्फ सिर झुकाए इस माँ (बेटियों को बंगाल में माँ कहकर बुलाते हैं) की सारी बातें सुन स्वीकार रहा हूँ!
इस रचना पर आपके चरण स्पर्श की अनुमति चाहता हूँ!!


rashmi ravija
आलेख में जो भी सवाल उठाये गए हैं ,वे बार बार दिमाग में आते हैं और उत्तर कोई नहीं मिलता . अगर रामायण काल्पनिक कथा भी है तो भी समाज की मानसिकता तो दर्शाती ही है . और अक्सर कथाओं में वही होता है जो समाज में घटित हो रहा होता है . इतना तो स्पष्ट है कि सभी गुणों से योग्य पुरुष भी अपनी छवि को लेकर इतना सतर्क होता है कि ये जानते हुए भी कि उसका निर्णय गलत है ,पर समाज की खातिर गलत निर्णय ही लेता है . लेखक ने राम के गुण गाकर तो उन्हें भगवान बना दिया है , समाज की मानसिकता भी दर्शा दी है पर सीता के साथ भी अन्याय नहीं किया है .उनका आत्मसम्मान सुरक्षित रखा है . अब समाज सिर्फ राम के गुण ही देख पाता है तो यह समाज का दोष है. 


असली जीवन शब्दों में असली मृत्यु शब्दों से


सुशील कुमार जोशी
वाह । कोशिश जारी रहनी चाहिये। शब्द मृत्यू मिले इससे अच्छा क्या ? :)

आशा जोगळेकर
तो - शब्दों के ब्रह्ममुहूर्त से
प्रार्थना के शब्द लो
अर्घ्य में अमृत से शब्दों का संकल्प लो
फिर दिन की,जीवन की शुरुआत करो … 

शब्दों का ऐसा ही उपयोग जीवन को सार्थक बनायेगा।

Digamber Naswa
बिलकुल सच कहा है .. शब्द ही होते हैं जो तीखे तेज़ धार बन जाते हैं और प्रार्थना भी ... 
गहरा भाव लिए ...


स्व प्न रं जि ताखामोशी


चला बिहारी ब्लॉगर बनने 
बाहर के समस्त शोर को अपने अन्दर समेटना और अपनी अंतर्यात्रा आरम्भ करना. यही यात्रा हमें परमात्मा से मिला देती है जहाम एक असीम शांति है, अपना अस्तित्व और परमात्मा के अस्तित्व में कोई भेद नहीं. एकाकार होना.. एक अद्वैत की स्थिति!!


Pallavi
आग,दिया,बाती,तेल जैसे..रुह,शरीर,ज़िंदगी,मौत सबका आपस में संबंध है और इस गहन संबंध को बहुत ही खूबसूरती से लिखा है आपने!!!

टिप्पणियों का यह सिलसिला जारी है, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद........

ब्लॉगोत्सव-२०१४, पच्चीसवाँ दिन, एक बेहतरीन टिप्पणी लिखनेवाले का हौसला बढ़ाती है - १




ब्लॉगोत्सव में जितना अर्थ ब्लॉग का है
उतना ही सार्थक अर्थ है टिप्पणीकार का 
एक बेहतरीन टिप्पणी लिखनेवाले का हौसला बढ़ाती है 
साथ ही उस टिप्पणी से रचनाकार के लेखन का सम्मान होता है 
और रचना की एक सारगर्भित व्याख्या होती है  … आज उन विशेष टिप्पणियों को हम मंच पर लाते हैं  … 

रश्मि प्रभा 


ज़िंदगी और मौतदोनों एक साथ… | Mhare Anubhav  पर यह टिप्पणी -


KAILASH SHARMA
जीवन और मृत्यु एक ऐसी अनबूझ पहेली है जिसका हल सदैव रहस्यमय है. शायद इसी में इसका आकर्षण है…एक सिक्के के दो पहलू जो साथ रह कर भी अलग हैं…बहुत गहन चिंतन…


Digamber Naswa
मैं का अस्तित्व मिटाना भी क्यों ...? अपने होने का एहसास भी तो यही मैं ही है ..
भावपूर्ण रचना ...


चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…http://chalaabihari.blogspot.in/
मुनव्वर साहब फरमाते हैं कि 
मैंने लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया,
आप तो सिर्फ ये देखेंगे गज़ल कैसी है!इसलिए सिर्फ ऐसा नहीं कि लफ़्ज़ों की चाशनी में शब्द लपेटकर पेश करने से कविता बनती है.. कल ही एक अज़ीम शायर इंतकाल फरमा गए.. जनाब अदम गोंडवी.. उनका मजमुआ पढकर मुंह कसैला हो जाता है... और कमाल ये कि हम ये भी नहीं सोचते कि उस शायर ने यह सब जिया था!!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…http://devendra-bechainaatma.blogspot.in/
कविता में आये भाव से असहमत। 

कितना कठिन है एक प्यारा गीत लिखना
कितना सरल है उसे हंसते हुए गुनगुना देना।

कवि कवि में फर्क होता है..अदम गोंडवी को ही लें..उन्होने जीया है जिंदगी को..जो आक्रोश उनकी गज़लों में है वो फकत शब्दों की जादुगरी नहीं है। यह हो सकता है कि हम आप सुविधानुसार शब्दों से खेलते हों मगर कुछ हैं जो जीते भी हैं। चलिए मान लिया शब्दों की बाजीगरी है फिर भी उस बाजीगरी को रचते वक्त कवि ह्रदय में एक भाव जगे जो समाज को दिशा दे सकते हैं..भले ही वो खुद ना चल पाये उस पर। यह भी कम नहीं है। भाव भी सच्चे ना हों तो कवि क्या खाक कविता लिखेगा। फकत उपदेश गर्त में मिल जाते हैं..कोई नहीं पढ़ता..कोई प्रभावित नहीं होता।
आपकी गज़लों को..कविताओं को पढ़कर मुझे सुख मिलता है..मैं यह मान ही नहीं सकता कि वे सिर्फ शब्दों की बाजीगरी हैं....इस कविता में भी कुछ तो है जो मैं इतना लिख गया..इसमें आये भाव से असहमत होते हुए भी।

Anurag Sharma
@ कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश ... 

- ओह। प्रिय सकुशल हो, नज़रों के सामने, यह भी बड़ी नियामत है। छोटी सी ज़िंदगी में भी बड़े समझौते है। जिनके लिए हैं, उन्हें दिखें यह ज़रूरी भी नहीं। :(

ताऊ रामपुरिया
वे ही पूछते हैं अब मुझसे
क्यों उपजाए अपनी चाहतों के
तुमने इतने छोटे फूल, फल
कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।

बोनसाई के बिंब से मानव मन की पूरी व्यथा कथा उंडॆल दी आपने, बहुत शुभकामनाएं.

arvind mishra
हम यह क्यों न समझे कि यह बोनसाई उस विराट की ही प्रतिकृति है !

प्रवीण पाण्डेय
नियन्त्रण कर सकने की चाह में हम अपनी चाहतों को बोन्साई बनाये रखते हैं।


देवांशु निगम
लास्ट इयर की ही बात है, ये फिनिक्स में देखा था | आधी रात के आसपास अचानक से हेलोकोप्टर की आवाज़ आने लगी, बाहर जाकर देखा तो पुलिस सर्चलाईट डाल रही थी और सरेंडर करने के लिए अनाउन्स्मेंट कर रही थी | आखिर में पकड़ कर ही माने थे |

सड़कों पर भी कार चलाते हुए डर बना रहता था कि कहीं कोप छुप के ना बैठा हो पकड़ने के लिए , अगर ओवरस्पीडिंग की तो | एक बार एक लाईट पर एक कार ने बहुत जोर से ओवरटेक किया था , दो लाईट बाद ही पुलिस वालों ने कार को रोक रखा था | ट्रैफिक अपने आप कंट्रोल में रहता है |

पकड़े जाने का डर भी है और जो फाइन लगता है वो लोगो कि कमर तोड़ देता है | दिल्ली कांड जिस बस में हुआ वो कुछ महीने पहले ही अवैध लाइसेंस के लिए पकड़ी गयी थी, और मात्र २२०० रुपये के हर्जाने पर छूट गयी थी |

वाणी गीत
आपसे सहमत हूँ शिखा की दूसरों की संस्कृति के बारे में हम बहुत बात कर लेते हैं , मगर अपनी और से आँखें मूंदें है कि हमने अपने देश का क्या हाल कर दिया !!

smt. Ajit Gupta
मैं जब अमेरिका गयी थी, तब वहां से लौटने के बाद यही कहा था और आज तक कहती हूं कि वहाँ प्रशासन का डर मन में बसा है और हमारे यहाँ डर ही नहीं है। वहां राष्‍ट्र निर्माण में जनता की भागीदारी है, वे अपना टेक्‍स देते हैं और इसके बाद अपनी सुरक्षा की गारण्‍टी चाहते हैं। भारत में हम टेक्‍स देना नहीं चाहते इसलिए सुरक्षा की बात भी जोर देकर नहीं कह पाते। अब नयी पीढ़ी निकलकर बाहर आ रही है, यह शुभ संकेत है।

कौशलेन्द्र
अनुशासन के लिये प्रशासन और प्रशासन के लिये विवेकसम्मत दण्डविधान ....समाज की सुव्यवस्था के लिये आवश्यक है यह। थोड़ा विषयांतर करना चाहूँगा आर्यपुत्री! भारत का ब्रिटिशकालीन इतिहास उनकी अन्यायमूलक न्यायव्यवस्था और दमन की घटनाओं से परिपूर्ण है। उनके उत्तरवर्ती शासकों(मैं शासक ही कहूँगा, लोकतंत्र कहकर लोकतंत्र का परिहास करने की धूर्तता नहीं करूँगा)ने ब्रिटिशर्स से उनकी सारी बुराइयाँ लेकर बड़े गर्व से ग्रहण कीं। और न केवल ग्रहण कीं अपितु उन बुराइयों को ही चरम तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया। समझने की बात यह है कि वे विदेशी थे हुकूमत के लिये आये थे ...व्यापार और लूट के लिये आये थे। उन्होंने लूटधर्म का पालन किया। भारतीय हुक्मरान तो व्यवस्था बनाने और स्वशासन देने के लिये आये थे, क्या दिया? एक शर्मनाक अव्यवस्था की परम्परा.... जिसकी जड़ें इतनी मज़बूत हो गयी हैं कि अब कोई बड़ी क्रांति ही इनका उन्मूलन कर सकेगी। यह क्रांति भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांति से भी बड़ी और दुष्कर होगी। आज़ादी के बाद लोग बदले व्यवस्था और तरीके नहीं। पुलिस का तौर-तरीका वही रहा ...दमनात्मक। अधिकारी स्वयं को किसी हुक्मरान से कम नहीं समझते, हर व्यक्ति के अंतर्मन में एक स्वछन्द राजा बैठा हुआ है जो अपनी पूरी क्षमता और शक्ति से समाज में दमनचक्र चला रहा है। निहत्थों पर लाठीचार्ज ...यहाँ तक कि गोलीकाण्ड तक स्वतंत्र भारत में किया जाना व्यवस्था का स्वीकृत भाग बन चुका है। हम हर बार क्रांति की आशा करते हैं किंतु चुनाव के परिणाम हमें निराश करते हैं। वे ही चेहरे हर बार नया मेक अप करके आ जाते हैं। आम आदमी के अन्दर अभी तक आग नहीं लग पायी है। कोऊ नृप होहि हमैं का हानी ...को अपनी बुज़ादिली की ढाल बना लिया है लोगों ने।


अपूर्व
साहिर साहब का एक शे’र जो भूत बन कर सर पर चढ़ा बैठा है , याद आता रहता है हरदम अटके रिकार्ड की तरह
चंद कलियाँ निशात की चुन कर, 
मुद्दतों मह्बेयास रहता हूँ
तुमसे मिलना खुशी की बात सही, 
तुमसे मिल कर उदास रहता हूँ

क्यों..क्यों परेशान करता है यह शेर इतना..शायद आपकी रचना इसका जवाब दे...मगर कोई जरूरी भी नही है हर चीज का जवाब!!!
आगे कब लिखोगे..और क्या?

सागर
आदतन मुझे भी आपका यही रूप रंग सबसे ज्यादा भाता है. पहला और चौथा बेजोड़ है ... बेशक इसका कोई जोड़ है ना तोड़ ... दिल की बात, एकदम मौलिक... बिना मिलावट... खरा... 
लिखने की कोशिश में उभरने वाले /बाधा डालने वाले बिम्ब कमाल के हैं. रुकावटें तो पढ़ी थी पर अब तक इस तरह के बिम्ब के दर्शन नहीं हुए थे... शायद में बहुत कम पढता हूँ यह भी एक वजेह रही हो... ब्लॉग का नया कलेवर भी बहुत उम्दा है. लिखना /जीना, परिचय सबसे मिला तो यह फ्लेवर भी.

Priya
पूजा, मूड अच्छा है मेरा ....और तुम्हारी पोस्ट ने तो और अच्छा बना दिया....तो फिर तारीफ करूँ क्या तुम्हारी ? इन लहरों से वापस जाने का मन ही नहीं करता....जी चाहता है की पूरी तरह भीग जाऊं और फिर छींकती हुई वापस जाऊं.......ये जों ड्रॉपर और पेन वाला किस्सा है ना बहुत अपना सा है .....कुल मिलाकर खुद का एक हिस्सा छोड़ कर जा रहे हैं यहाँ.....High five for writer :-)


गिरिजा कुलश्रेष्ठ
भावनाओं की बहुत गहरी परतें खुल जातीं हैं अचानक । यह सही है कि संवेदनशील लोग चाहे महिला हो या पुरुष बहुत जल्दी भावात्मक रूप से जुड जाते हैं । मुश्किल तब होती है जब दूसरा पक्ष इसका गलत अर्थ निकाल कर भावनाओं का दुरुपयोग करता है और जिन्दगी बिखर जाती है । खडगसिंह एकदम विलुप्त तो नही हुए हाँ बहुत कम रह गए हैं । खैर..
आपका मुझे उस तरह तलाशना , बडी बहिन का सम्मान देना और मेरी रचनाओं को एक स्थान देना एक उपलब्धि जैसा है । और क्या कहूँ ।

Satish Saxena
ब्लॉग जगत में आप जैसे लोग भी दुर्लभ हैं , अगर भाषा का आनंद लेना है तो जो आनंद मुझे आपके ऊबड़ खाबड़ माधुर्य पूर्ण लेखन में मिलता है वह कहीं संभव नहीं हुआ ! आपकी विद्वता और अनूठी शैली के संगम को, हो सकता है लोग समझने में अभी बरसों लें, मगर आपका यह प्रवाह , हिन्दी को नयी दिशा और सोंच देने में समर्थ हुआ है ! अगर मुझे अपना मनचाहा गुरु बनाने को कहा जाए तो वह निस्संदेह 
सलिल वर्मा ही होंगे !

संजय @ मो सम कौन...
विश्वास और अविश्वास दोनों का अस्तित्व हमेशा से रहा है और रहेगा, न सब बाबा भारती हो सकते हैं और न ही सब खडगसिंह। सिक्स्थ सेंस सक्रिय हो तो प्राय: निराश होने का अवसर न ही आये।
जिन एक दो घटनाओं का जिक्र आपने किया, बिना इजाजत किसी का नंबर दूसरे को न देना गलत नहीं। स्वाभाविक है आपने भी इसे गलत नहीं ही समझा होगा तभी तो उनसे आपके संबंध ओइसहिं बने रहे :) साल भर बाद उन्हीं का फ़ोन आपके पास आना आपकी छवि की जीत ही है।
विश्वास तोड़ना नमकहरामी से कम नहीं, इस बारे में गुरुग्रंथ साहब को लिपिबद्ध करने वाले भाई गुरदास जी की एक कथा है, कभी सात्विक मोड में होऊंगा तो आपसे शेयर करूंगा :)
फ़िलहाल तो सबका मंगल हो कल्याण हो, यही कामना करता हूँ।


टिप्पणियों का यह सिलसिला जारी है, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद........

शनिवार, 28 जून 2014

ब्लॉगोत्सव-२०१४, चौबीसवाँ दिन, कुछ नज़्म, कुछ ग़ज़ल, कुछ …



उत्सवी मंच के चारों तरफ मुखरित पन्ने फ़ड़फ़ड़ा रहे हैं, हवा में उड़ते एहसास  … मैं संजीवनी की तरह उन्हें संजो रही हूँ, कब किसकी खोई उम्मीदों को,बंद मन के दरवाजों को इनकी जरुरत हो, कौन जाने !

    रश्मि प्रभा 


कौन मरा है भला आज तक

‘निर्वाणा’ बैकग्राउंड में चल रहा है.
कम एज़ यू आर...
और इस वक्त लिखने का बिलकुल भी मन नहीं.
इस क्षण की मनः स्थिती मेरे अस्तित्व का डी एन ए है...
सबसे क्षुष्मतम इकाई
तथापि, मेरे अस्तित्व की सारी आवश्यक जानकारी अपने आप में समेटे हुए
तो इस वक्त ‘भी’ लिखने का बिलकुल मन नहीं है.
शायद इसलिए ही लिख पा रहा हूँ.
फेसबुक में एक पर्सनल मैसेज पॉप अप होता है...
“आप सबसे ज्यादा किस चीज़ से डरते हो?”
“मृत्यु से”
“लेकिन आप तो कहते हो कौन मरा है भला आज तक?”
“इसलिए ही तो डरता हूँ”
दूसरों के प्रश्नों के उत्तर देते वक्त मुझे उन प्रश्नों के भी उत्तर मिलते रहे हैं
जो प्रश्न (उत्तर नहीं) मुझे आज तक ज्ञात ही न थे.
अकेलापन एक गर्भवती त्रासदी है
जो अतीत में सदा विक्षिप्तता ही जनती आई है
“तुम कितनी बकवास बात करते हो न आजकल?”
“हाँ ये अच्छा है.”
म्युज़िक प्लेयर्स में शफल का ऑप्शन
विचारों को विचार करके ही बनाया गया है.
गीत बदल चुका है...
...लव विल टियर अस अपार्ट अगेन.

......

दर्पण साह 


दोस्ती और दुश्मनी के बीच

दोस्ती और दुश्मनी के बीच
बचा हुआ रहता है
एक रिश्ता, किन्तु 
अभी तक हम खोज नही पाए हैं
कोई मुकम्मल नाम इसका 

यकीनन हम सभी तलाशते रहते हैं
मिठास और कडवाहट से परे
कुछ क्षणों के लिए शिथिल पड़ चुके
रिश्ते के लिए 
एक मकबूल नाम
जिससे कर सके संबोधन
एक –दूजे को

हम मनुष्य हैं
और हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है
कि हम अलग नही कर पाते
अपने अहं को
हमारी अपेक्षा हमेशा
दूसरों से ही होती है
और इसी तरह बनी रहतीं हैं दरारें
रिश्तों में
जिसे भर नही पाता
कोई भी सीमेंट 

My Photo

नित्यानंद गायेन 



इसी के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न, कल अवकाश का दिन है, मिलती हूँ फिर परसों परिकल्पना पर सुबह १० बजे.....







ब्लॉगोत्सव-२०१४, चौबीसवाँ दिन, कुछ इधर की कुछ उधर की



ज़िन्दगी देखने का नजरिया 
ज़िन्दगी जीने का ढंग अपना अपना होता है 
प्रकृति हो 
इंसान हो 
जीव जंतु हो 
प्रेम-विश्वास 
झूठ - अपमान 
मज़ाक  … सबको अपने ढंग से देखते,सुनते ,कहते हैं  … मन की अवस्था पर निर्भर है कि कब कौन सी बात, कौन सी चीज अच्छी लग जाए !  … 

                                                  रश्मि प्रभा 


एकांत मृत्यु

कैसा होता है...बिना खिड़की के कमरे में रहना...बिना दस्तक के इंतजार में...चुप चाप मर जाना. बिना किसी से कुछ कहे...बिना किसी से कुछ माँगे...जिन्दगी से कोई शिकवा किये बगैर. कैसे होते हैं अकेले मर जाने वाले लोग? मेरे तुम्हारे जैसे ही होते हैं कि कुछ अलग होते हैं?

अभागा क्यूँ कहती थी तुम्हें मेरी माँ? तुम्हारे किस दुख की थाती वो अपने अंदर जिये जाती थी? छीज छीज पूरा गाँव डूबने को आया, एक तुम हो कि तुम्हें किसी से मतलब ही नहीं. मुझे भी क्या कौतुक सूझा होगा कि तुमसे दिल लगा बैठी. देर रात नीलकंठ की परछाई देखी है. आँखों के समंदर में भूकंप आया है. कोई नया देश उगेगा अब, जिसमें मुझ जैसे निष्कासित लोगों के लिये जगह होगी. 

रूह एक यातना शिविर है जिसमें अतीत के दिनों को जबरन कैदी बना कर रखा गया है. ये दिन कहीं और जाना चाहते हैं मगर पहरा बहुत कड़ा है, भागने का कोई रास्ता भी मालूम नहीं. जिस्म का संतरी बड़ा सख्तजान है. उसकी नजर बचा कर एक सुरंग खोदी गयी कि दुनिया से मदद माँगी जा सके, कुछ खत बहाये गये नदी किनारे नावों पर. दुनिया मगर अंधी और बहरी होने का नाटक करती रही कि उसमें बड़ा सुकून था. सब कुछ 'सत्य' के लिये नहीं किया जा सकता, कुछ पागलपन महज स्वार्थ के लिये भी करने चाहिये. 

मैं उस अाग की तलाश में हूँ जो मुझे जला कर राख कर सके. कुछ दिनों से ऐसा ही कुछ धधक रहा है मेरे अंदर. जैसे कुछ लोगों की इच्छा होती है कि मरने के बाद उनकी अस्थियाँ समंदर में बहा दी जायें ताकि जाने के बरसों बाद भी उनका कुछ कण कण में रहे. मैं जीते जी ऐसे ही खुद को रख रही हूँ...अनगिन कहानियों में अपनी जिन्दगी का कुछ...कण कण भर.

वैराग में दर्द नहीं होना चाहिये. मन कैसे जाने फर्क? वसंत का भी रंग केसर, बैराग का भी रंग भगवा. पी की रट करता मन कैसे गाये राग मल्हार? बहेलिया समझता है चिड़ियों की भाषा...कभी कभी उसके प्राण में बस जाती है एक गूंगी चिड़िया, उसके अबोले गीत का प्रतिशोध होता है अनेक चिड़ियों का खुला अासमान. एक दिन बहेलिये के सपने में आती है वही उदास चिड़िया अौर गाती है मृत्युगीत. फुदकती हुयी अाती है पिंजरे के अन्दर अौर बंद कर लेती है साँकल. बहेलिये की अात्मा मुक्त होती है अौर उड़ती है अासमान से ऊँचा. 

दुअाअों की फसल उगाने वाला वह दुनिया का अाखिरी गाँव था. बाकी गाँवों के बाशिन्दे अगवा हो गये थे अौर गाँव उजाड़...अहसानफ़रामोश दुनिया ने न सिर्फ उनकी रोजी छीनी थी, बल्कि उनके अात्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं. गाँव की मुद्रा 'शुकराना' थी, कुबुल हुयी दुअा अपने हिस्से के शुकराने लाती थी, फिर हफ्तों दावतें चलतीं. मगर ये सब बहुत पुरानी बात है, अाजकल अालम ये है कि बच्चों की दुअाअों पर भी टैक्स लगने लगा है. फैशन में अाजकल बल्क दुअायें हैं...लम्हा लम्हा किसी के खून पसीने से सींचे गये दुअाअों की कद्र अब कहाँ. कल बुलडोजर चलाने के बाद जमीन समतल कर दी गयी. खबर बाहर गयी तो दंगे भड़क गये. हर ईश्वर उस जगह ही अपना अॉफिस खोलना चाहता है. गाँव के लोग जिस रिफ्यूजी कैम्प में बसाये गये थे वहाँ जहरीला खाना खाने के कारण पूरे गाँव की मृत्यु हो गयी. मुअावज़े की रकम के लिये दावेदारी का मुकदमा जारी है. 

खूबसूरत होना एक श्राप है. इस सलीब पर अाप उम्र भर टाँगे जायेंगे. अापकी हर चीज़ को शक के नज़रिये से देखा जायेगा...अापके ख़्वाबों पर दुनिया भर की सेन्सरशिप लगेगी. अापको अपनी खूबसूरती से डर लगेगा. ईश्क अापको बार बार ठगेगा और सारे इल्ज़ाम अापके सर होंगे. इस सब के बावजूद कहीं, कोई एक लड़की होगी जो हर रोज़ अाइना देखेगी और कहेगी, दुनिया इसी काबिल है कि ठोकरों मे रखी जाये. 

एक जिन्दगी होगी, बेहद अजीब तरीके से उलझी हुयी, मगर चाँद होगा, लॉन्ग ड्राइव्स होंगी...थोड़ा सा मर कर बहुत सा जीना होगा. कर तो लोगी ना इतना?


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पूजा उपाध्याय 






खुद को मिटाना है – प्रेम

प्रेम में हम हमेशा कुछ या किसी को पाने की कामना करते हैं। क्या सचमुच वह प्रेम है? प्रेम तो है, खुद को भी खो देना, अपनी आजादी खो देना, यहां तक कि खुद को मिटा देना। 

अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ आप अपनी पूरी आजादी खो देते हैं। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है।
अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ‘मैं’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।

जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व, अपनी पसंद-नापसंद, अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं।जीवन में हमने कई तरह के संबंध बना रखे हैं, जैसे पारिवारिक संबंध, वैवाहिक संबंध, व्यापारिक संबंध, सामाजिक संबंध आदि। ये संबंध हमारे जीवन की बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते हैं। ऐसा नहीं है कि इन संबंधों में प्रेम जताया नहीं जाता या होता ही नहीं। बिलकुल होता है। प्रेम तो आपके हर काम में झलकना चाहिए। आप हर काम प्रेम पूर्वक कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम की बात हम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं, तो इसे खुद को मिटाने की प्रक्रिया की तरह देखते हैं। जब हम ‘मिटाने’ की बात कहते हैं तो हो सकता है, यह नकारात्मक लगे।
जब आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं तो आप अपना व्यक्तित्व, अपनी पसंद-नापसंद, अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। जब प्रेम नहीं होता, तो लोग कठोर हो जाते हैं। जैसे ही वे किसी से प्रेम करने लगते हैं, तो वे हर जरूरत के अनुसार खुद को ढालने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम निसंदेह खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।

प्रेम अपने आप में एक शानदार आध्यात्मिक प्रक्रिया है, क्योंकि इस तरह आप लचीले हो जाते हैं। प्रेम निसंदेह खुद को मिटाने वाला है और यही इसका सबसे खूबसूरत पहलू भी है।आप इसे कुछ भी कह लें- मिटाना कह लें या मुक्ति, विनाश कह लें या निर्वाण। जब हम कहते हैं, ‘शिव विनाशक हैं’, तो हमारा मतलब होता है कि वह मजबूर करने वाले प्रेमी हैं। जरूरी नहीं कि प्रेम खुद को मिटाने वाला ही हो, यह महज विनाशक भी हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किसके प्रेम में पड़े हैं। तो शिव आपका विनाश करते हैं, क्योंकि अगर प्रेम आपका विनाश नहीं करता तो यह प्रेम संबंध असली नहीं है। आपके विनाश से मेरा मतलब यह नहीं है कि आपके घर का, आपके व्यापार का या किसी और चीज का विनाश। जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, जो आपका सख्त व्यक्तित्व है, प्रेम की प्रक्रिया में उसका विनाश होता है, और यही खुद को मिटाना है।
जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका, आपके महसूस करने का तरीका, आपकी पसंद-नापसंद, आपका दर्शन, आपकी विचार धारा सब कुछ पिघल जाती है। आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए, और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे। इसे अपने लिए खुद कीजिए, क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है। आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं – जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं – तो आप देखेंगे कि इस ‘मैं’ का विनाश अपने आप हो रहा है।


ईशा फाउंडेशन का यह हिंदी ब्लॉग ‘आनंद लहर’ 
सद्‌गुरु के स्वप्न को पूरा करने की दिशा में बढ़ाया 
एक और कदम है। 

समय है एक विराम का, मिलती हूँ शीघ्र ......

ब्लॉगोत्सव-२०१४, चौबीसवाँ दिन, उम्र पूछना आय पूछना गलत बात है- इस चक्कर से बाहर आइये



कुछ लोग मिलते ही उम्र का हिसाब किताब करते हैं 
कुछ वर्ष छोटे या बड़े होने से क्या मिल जाता है 
अगर आप बड़े हैं तो घटाकर झूठा सुकून !
छोटे हैं तो हैं !
एक उम्र के बाद - हमउम्र सी बात होती है 
एक से अनुभव 
एक सी परेशानियाँ 
फिर भी !!!
आय पूछना तो और गलत है 
क्या मिलेगा जानकर ?
अच्छी नौकरी है 
अच्छा रहन-सहन है 
यदि आपको खुश होना है 
तो इसीसे ख़ुशी मिलेगी 
आय पूछने के पीछे ख़ुशी कम 
आकलन अधिक होता है 
जोड़-घटाव 
और न जाने क्या क्या !!! ………… इससे परे लोग जाति भी पूछते हैं  .
मित्रता, प्रेम इत्यादि 
जाति के मोहताज हों तो और गड़बड़ बात है -
खुलके मिलिए 
कुछ कहिये 
कुछ सुनिए 
ज़िन्दगी बड़ी छोटी है 
इस चक्कर से बाहर आइये 
दुनिया खूबसूरत लगेगी  …। 

             रश्मि प्रभा 



दिल की नज़र से देखें दुनिया

"संसार की प्रत्येक वस्तु ख़ूबसूरत है।" कन्फ्यूशियस के इस वचन से बहुत से लोग सहमत होंगे। लेकिन ज़रूरी नहीं कि इससे एकमत होने वालों में आप भी शामिल हों। सबकी अपनी सोच है, अपना नज़रिया है। आपमें से किसी को सुबह ख़ूबसूरत लगती होगी तो किसी को ढलती शाम। किसी को रौनक़ अच्छी लगती होगी तो किसी को एकान्त। किसी को मांस-मछली पसन्द है तो कोई शाकाहारी होने में अच्छा महसूस करता है। कोई जीवनभर किताबों में खोया रहता है तो किसी के लिए जीवन की किताब ही सर्वोपरि है। 
बस इक नज़र चाहिए
ब्यूटी लाइज़ इन द आईज़ ऑफ बिहोल्डर। ख़ूबसूरती देखने वाले की नज़र में होती है। कहते हैं लैला ख़ूबसूरत नहीं थी। रंग से काली थी, आकर्षक नहीं थी। लेकिन मजनूं की नज़र में लैला दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत औरत थी। अब सोचने वाली बात है कि मजनूं को आख़िर लैला में ऐसा क्या नज़र आया कि वो उसके प्यार में पड़ गया। चेहरा-मोहरा न सही, लैला का दिल यकीनन ख़ूबसूरत होगा। वो मन से सुन्दर होगी। तभी तो मजनूं जीवन भर लैला-लैला करता रहा। लैला-मजनूं से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है। मजनूं बचपन से ही लैला का दीवाना था। एक रोज़ मजनूं ने तख़्ती पर लैला लिख दिया। इस पर मौलवी साहब ने मजनूं से कहा कि यह क्या लिख रहा है, ख़ुदा का नाम लिख। मजनूं ने पूछा कि ख़ुदा कौन है। मौलवी का उत्तर था.. लाइला यानि अल्लाह। मजनूं बोला, मैं भी तो वही लिख रहा हूं, कहां कोई फर्क़ है। आप लाइला कहते हैं, मैं लाइला (लैला) कहता हूं। मेरा महबूब यानी लैला ही मेरा ख़ुदा है। इस पर ख़ुदा ने फरिश्तों के हाथ पैग़ाम भेजा कि मजनूं को बुलाया जाए। मजनूं उन फरिश्तों से बोला कि अगर ख़ुदा मुझे देखना चाहता है तो मैं भला उसके पास क्यों जाऊं। उसे ज़रूरत है तो लैला बनकर वो मेरे पास आ जाए। 
...उनके दिल तक जाना था
प्रेम-प्रसंग की बात चली है तो मिस्र की मल्लिका क्लियोपेट्रा का ज़िक्र लाज़िमी है। हज़ारों दिलों पर राज करने वाली क्लियोपेट्रा का कद छोटा था। वो दिखने में भी ख़ूबसूरत नहीं थी, ऐसा इतिहासकार कहते हैं। पिता की मृत्यु के बाद क्लियोपेट्रा ने अपने भाई के साथ मिलकर मिस्र का राज संभाला। यही वक़्त था जब रोम का राजा जूलियस सीज़र क्लियोपेट्रा पर रीझ गया। जूलियस की मौत के बाद रोम का सेनापति मार्क अंतोनी क्लियोपेट्रा के जीवन में आया। क्लियोपेट्रा मेधावी थी और अच्छी वाणी की मल्लिका भी। क्लियोपेट्रा का व्यवहार कौशल ही होगा जिसके दम पर उसने छोटी उम्र में ही बड़े-बड़े लोगों को अपना मुरीद बना लिया। यह अंदरूनी ख़ूबसूरती है, जिसका जादू एक बार चढ़े तो ताउम्र नहीं उतरता। बाहरी सौन्दर्य मूमेन्टरी है। आज है तो कल नहीं। कोई कितना ही सुन्दर क्यों न हो, वक़्त का तकाज़ा एक रोज़ बूढ़ा कर देता है। जिल्द पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। लेकिन मन ख़ूबसूरत है तो उम्र बढ़ने के साथ यह ख़ूबसूरती और निखरती है। मन निर्मल है तो आप हमेशा सुन्दर दिखते हैं। भीतरी सौन्दर्य की ख़ासियत ही है कि वो समूचे व्यक्तित्व में झलकता है। लेकिन मन कुटिल हो तो कालिख़ चेहरे पर नज़र आती है।
बाहरी ख़ूबसूरती की उम्र कम होती है। सच्चा प्रेम करने वाले यह जानते हैं। शायर हस्तीमल हस्ती ने भी ख़ूब कहा है, "जिस्म की बात नहीं थी, उनके दिल तक जाना था.. लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।" असल प्रेम तो दिल से दिल का है। और किसी के दिल तक पहुंचना आसान कहां! यह मशक्कत भरा काम है। 
ब्यूटी इज़ स्किन डीप
मधुबाला या महारानी गायत्री देवी किसे ख़ूबसूरत नहीं लगती होंगी। इसमें दो राय नहीं कि वो ख़ूबसूरत थीं। लेकिन अच्छे नैन-नक़्श और बेदाग़ त्वचा का होना ही मुक़म्मल ख़ूबसूरती नहीं। यक़ीकन, मधुबाला और गायत्री देवी से ज़्यादा सुन्दर पत्थर तोड़ती वो औरत है जो पसीने से लथपथ है। जो अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए रात-दिन मेहनत करती है। जो आजीवन संघर्ष करती है लेकिन हार नहीं मानती। मदर टेरेसा भी ख़ूबसूरत हैं, जिन्होंने पूरी ज़िंदगी दूसरों की सेवा में होम कर दी। कितना जीवट रहा होगा उस महिला में। मदर टेरेसा का झुर्रियों से भरा चेहरा जब भी आंखों के सामने आता है तो मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स की ख़ूबसूरती फीकी लगती है। सुन्दर लगते हैं कृशकाय-से महात्मा गांधी भी, जिन्होंने कभी सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था। ख़ूबसूरत लगते हैं अन्ना हज़ारे जो पांच दिन तक अनशन पर बैठे रहे, इसलिए कि उन्हें भ्रष्टाचार गवारा नहीं था। अब आप ही सोचिए कि ऐसी ख़ूबसूरत हस्तियों के सामने किसी ग्रीक गॉड की क्या बिसात होगी। 
जो प्यार करेगा, प्यारा कहलाएगा 
खलील जिब्रान कहते हैं कि "हर वो हृदय जो प्यार करता है, ख़ूबसूरत है।" बात सोलह आने सच है। प्यार से भरा दिल ख़ुशियों का पुलिंदा है। दिल ख़ुश हो तो सारा जहां ख़ुशनुमा लगता है। पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' पढ़ी होगी आपने। कहानी का नायक लहना सिंह जंग में लड़ते हुए मरणासन्न है। कहते हैं मृत्यु से पहले स्मृति साफ हो जाती है। लहना के सामने भी बरसों पुरानी यादें जीवंत हो उठी हैं। फ्लैशबैक में वो सारी बातें याद आ रही हैं जो उस छोटी सी लड़की से हुई थीं। “तेरी कुड़माई हो गई?”.. “धत्”.. “देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू”.. इस लड़की से लहना प्यार करने लगा था। लहना अब जिस पलटन में सिपाही है उसका सूबेदार, बचपन की उसी सखी का पति है। सूबेदारनी लहना से अपने पति व पुत्र की प्राणरक्षा की गुहार लगाती है तो वो उसकी कही बात का मोल अपनी जान देकर रखता है। आख़िरी सांस लेते हुए भी वो मुस्करा रहा है। उसका दिल प्रेम व त्याग से भरा है। कितना ख़ूबसूरत किरदार है लहना। 
सृजन में है सुंदरता
लियोनार्दो द विंची की मोनालिसा को कौन नहीं जानता। जिसकी ख़ूबसूरत मुस्कान ने उसे विश्व-विख्यात कर दिया। मोनालिसा को जब भी देखती हूं, चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है। यही सृजन की ख़ूबसूरती है। मेरे लिए सफ़ेद दाढ़ी वाले मिर्ज़ा ग़ालिब ख़ूबसूरत हैं जिनकी उम्दा शायरी दिल तक पहुंचती है। आबिदा परवीन ख़ूबसूरत हैं जो बेहतरीन गायकी से रूह को सुक़ून पहुंचाती हैं। बाबा रामदेव ख़ूबसूरत हैं, जिन्होंने योग-विद्या से लोगों को स्वस्थ रहना सिखाया है। रैम्प पर इठलाते लम्बे-लम्बे, सिक्स पैक वाले मॉडलों से ज़्यादा ख़ूबसूरत लगता है नाटे क़द का दुबला-सा चार्ली चैपलिन, जिसने बचपन में बेशक बुरा वक़्त देखा लेकिन बड़े होकर दुनियाभर को हंसाया। चार्ली ने एक बार कहा था, "मैं बरसात में भीगते हुए रोता हूं ताकि कोई मेरे आंसू न देख सके।" अपनी हंसी-ठिठोली से लोगों के दिलों पर राज करने वाला वो आदमी कितना अकेला होगा, कितनी करुणा छिपी होगी उसके भीतर और कितना अच्छा इनसान होगा वो। 
हर शै में ख़ूबसूरती 
फूलों में अवसाद हरने का गुण है। रंग-बिरंगे फूल देख मन प्रफुल्लित हो जाता है, रोम-रोम खिल उठता है। यही फूलों का नूर है। फूल ही क्यों, प्रकृति के कण-कण में ख़ूबसूरती है। पेड़-पौधे, नदियां, झरने व पहाड़ सुन्दर हैं। बारिश और बर्फ़ का गिरना सुन्दर है। चांद की घटती-बढ़ती कलाएं अद्वितीय हैं। सूरज का उगना-डूबना अलौकिक है। समन्दर ख़ूबसूरत है, उसकी लहरों का आना-जाना ख़ूबसूरत है। कितना अच्छा लगता है इनके साथ वक़्त बिताना, इन्हें निहारते रहना। सारी उदासी छूमंतर हो जाती है, नई ऊर्जा भर जाती है। क़ुदरत में बड़ी क़ुव्वत, बड़ी ख़ूबसूरती है।  
तिनका-तिनका जोड़ रही चिड़िया को घोंसला बनाते हुए देखना मनोहर है। कबतूरों को दाने खिलाना संतोष देता है। ज़रूरतमंद की मदद करने से ख़ुशी मिलती है। दृष्टिहीन को सड़क पार करवाने में सुक़ून मिलता है। वैसे ही, जैसे किसी भूखे जानवर को रोटी और प्यासे पंछी को पानी देने पर मिलता है। ख़ूबसूरती इसमें है। उसमें नहीं कि आप कैसे कपड़े पहनते हैं या कैसे बाल बनाते हैं। कौन-सी कार में घूमते हैं और कौन-सा परफ्यूम लगाते हैं। असल ख़ूबसूरती बाहर नहीं बल्कि भीतर, हमारे मन में है। ख़ूबसूरती सादगी में है, एक मुस्कराहट में है। निष्कपट व निर्मल होने में है, जैसे कोई बच्चा होता है। इसीलिए बच्चों का सौन्दर्य अप्रतिम है। इसीलिए बच्चे सबके प्रिय होते हैं और वो हमेशा ख़ूबसूरत लगते हैं। इसीलिए हमारा दिल भी बच्चा हो जाना चाहता है। अमेरीकी कवि वॉल्ट व्हिटमैन कहते हैं कि ज़िन्दा रहना चमत्कार है। यह सोच तर्कसंगत है। हम जीवित हैं, स्वस्थ हैं तो इससे बड़ी कोई नियामत नहीं। इससे ज़्यादा ख़ूबसूरत कुछ नहीं। जीवन निसंदेह विलक्षण है। ज़िंदग़ी बेशक़ ख़ूबसूरत है। मैं मानती हूं कि ज़िंदग़ी को बच्चा बनकर जिया जाए तो यह और ख़ूबसूरत हो जाती है। और अर्थपूर्ण लगती है। आप क्या कहते हैं?  

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माधवी शर्मा गुलेरी 







" एक ख़मोशी के साथ देखे तो ज़िन्दगी "                                         
                       
एक ख़मोशी के साथ देखे तो ज़िन्दगी
हमको हर पल हर वक्त कुछ न कुछ सिखाती है
हमारे पास सब कुछ होते हुवे भी
हम सदा खुश नहीं रहते
और कुछ ऐसे भी लोग है
शारीर के मुक्य अंग नहीं होने 
के बौजूत खुश रहते है और ख़ुशी बाटते है 
एक ख़मोशी के साथ देखे तो ज़िन्दगी 
हमको हर पल हर वक्त कुछ न कुछ सिखाती है
वक्त के साथ कभी कभी हम
जीना भी सिख जाते है
छोटी छोटी खुशियाँ हमारे साथ होती है 
लेकिन अचानक बड़ी ख़ुशी पाने के
कायल से छोटी छोटी खुशियो से दूर हो जाते है 
और बड़ी खुशियो की बात में बाते बड़ी हो जाती है 
एक ख़मोशी के साथ देखे तो ज़िन्दगी 
हमको हर पल हर वक्त कुछ न कुछ सिखाती है
में सोचता हु ख़ुशी बड़ी हो या छोटी हो
बात बड़ी हो या छोटी हो
हमको तो हर पल खुश रहना है
चाहे हम जग रहे है या हम सो रहे हो
तो भी सपना खुशियो का हो
अगर हम खुश नहीं है तो भी ख़ुशी की एक्टिंग करे
और एक्टिंग करते करते खुश रहने कि आदत हो जय 
एक ख़मोशी के साथ देखे तो ज़िन्दगी 
हमको हर पल हर वक्त कुछ न कुछ सिखाती है 

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आर जे रमेश 




अब समय एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद.......


 
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