शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

परिकल्पना - धीमी रौशनी सी ग़ज़ल



हल्की सी बारिश 
धीमी रौशनी सी ग़ज़ल 
और किशोर चौधरी  …। 




[*]

किशोर चौधरी के शब्दों में, 

रेत के समंदर में बेनिशाँ मंज़िलों का सफ़र है. नौजवान दिनों की केंचुलियाँ, अख़बारों और रेडियो के दफ्तरों में टंगी हुई है. जाने-अनजाने, बरसों से लफ़्ज़ों की पनाह में रहता आया हूँ. कुछ बेवजह की बातें और कुछ कहानियां कहने में सुकून है. कुल जमा ज़िन्दगी, रेत का बिछावन है और लोकगीतों की खुशबू है.



जंगल गंध वाली व्हिस्की

काश शैतान को आता
अपनी माँ की संभावित मौत को कैश करना
ईमानदारी का ढोंग पीटते हमसफ़र को धोखा देना
दोस्त बनकर दोस्त चुराना।

तो वह भी प्यारा हो सकता था
जिसका करता हर कोई इंतज़ार।

शैतान को प्यारा होना पसन्द नहीं है इसलिए बस वो ऐसा नहीं है।
* * *

वो मेरा नहीं है इसका यकीं है मगर
उसकी चाहतों में मुकम्मल मैं भी हूँ।

इश्क़ मैं, तुम भी
कभी हो जाना गोरखनाथ का चेला
और भीख में माँगना सिर्फ मोहोब्बत।
* * *

और तुम्हे पता है इश्क़
कि जंगल की गंध वाली व्हिस्की
मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है।

जैसे तुम नहीं मिलते
वैसे वह भी नहीं मिलती।

क्या मैं रो सकता हूँ इस बात पर?
* * *

शैतान ने कहा है तुमसे
कि हो जाना
अमेरिका सा तानाशाह
या फिर
जन्नत की झूठी तकरीरें करना
स्वर्ग के नकली स्वप्न दिखाना।

कुछ भी करना
मगर मुझे बाँधकर रखना अपने पास।

कि तुम बिन शैतान तनहा है।
* * *

दीवारों पर टूटती अंगड़ाइयों के साये
बिस्तरों पर सलवटों के निशान
गले में पड़े स्कार्फ के नीचे धब्बे
और खुशबुएँ सीलेपन की।

शैतान सब जानता है
मगर एक मोहब्बत तुम्हारी जाने क्या चीज़ है?
* * *

फरेब और वफ़ा के बीच
सिर्फ मोहोब्बत भर का फासला था।

इश्क़ मैं, तुम इसी वजह से करीब हो।
* * *

मोहोब्बत में हर कोई चाहता है
इस तरह करीब होना कि भड़क कर बुझ जाये।

शैतान मगर सीली माचिस की तरह इंतज़ार करता है।
* * *

याद के रोज़नामचे से
आहिस्ता से उड़ जाती हैं
हरे नीले रंग की परियां।

समन्दर के किनारे
ख़ानाबदोशों के टेंट से झांकती हुई आँखें
ज़िन्दगी भर साथ चलती हैं।

शैतान मुस्कुराता है आँखें सोचकर।
* * *

शैतान तुम्हारे प्यार में
हो जाता है एक लकड़हारा
छांट देता है दिल के जंगल का घना अँधेरा।

तुम भी कभी दियासलाई हो जाओ।
* * *

आँखों से उगना
दिल में बुझ जाना।

आकाश भर रखना मोहोब्बत।

बस डूबती नब्ज़ को भूल जाना
कि आखिर वह एक शैतान है।

तुम्हारा शैतान, अविनाशी।
* * *

वाद्ययन्त्र के बहत्तर हिस्सों में
सुर अलहदा मगर रूह एक है।

शैतान की प्रेमिका, शैतान की प्रेमिका।
* * *

हम भूल जाते हैं
बहुत सी चीज़ें कहीं रखकर
फिर धीरे धीरे भूलते जाते हैं
कि कहाँ रख रहे हैं अपने दिन-रात।

बेख़याली में होना कोई अचम्भा तो नहीं
मगर तुम भूल गए अपनी याद मेरे पास।

कभी उसे लेने आओ,
शैतान तुमसे मिलने की आस में रहता।
* * *


इश्क़ मैं, वे जो संगमरमर की मूरतें थीं, वे जिनकी हैसियत शाहों से ऊँची थी, वे जो बर्फ की ठण्ड से सफ़ेद थे। उनके बारे में लिखा था और लिखना जाया न गया कि अतीत के आइने में अब वे सूरतें आसानी से पढ़ीं जा रही हैं। किसी हुनर, इल्म, शक्ल के कारण मोहोब्बत करना गुनाह है तो कहो, अब तुम्हारे बारे में भी न लिखूं कि तुमसे तो बहुत सी वजहें हैं लिखने की।

शाख के उस सिरे तक


एक काफिला था, ठहरी हुई दस्तकें थीं. बंद दरवाज़े और दीवार से बिना कान लगाये सुनी जा सकती थी. ज़िंदगी मुझे बुला रही थी. मैं अपने सब रिश्ते झाड़ रहा था. चलो अच्छा हुआ जी लिए. जो उनमें था वह गले से उतरा. जिस किसी जानिब कोई टूटी बिखरी आवाज़ के टुकड़े थे सबको बुहारा. अपने आप से कहा चलो उठो. ज़िंदगी जा रही है. रास्तों को छूना है तो चलो उनपर. देखना है बदलते मौसम को तो बाहर आओ. प्रेम करना चाहते हो तो प्रेम करो. न करोगे कुछ तो भी सबकुछ जा ही रहा है. ज़िंदगी एक छलनी लगा प्याला है. कुछ रिस जायेगी कुछ भाप हो जायेगी. 

कुछ बेतरतीब बातें. बीते दिनों से उठाई हुई. 
* * *

खुला पैसा अक्सर हम जिसे समझते हैं वह वो चवन्नियां अठन्नियां रुपये सौ रूपये नहीं होते। खुले पैसे वो होते हैं जिन्हें बेहिसाब खर्च किया जा सके। ऐसे ही खुली ज़िन्दगी वो है जो बहुत सारी है। जिसे आप अपने हिसाब से बेहिसाब खर्च कर सकते हैं। 
* * *

शाख के उस सिरे तक जाकर बैठेंगे, जहाँ वह हमारी सांस-सांस पर लचकी जाये।
* * *

उस जगह मुद्दतों सूनापन और किसी आमद की हलकी आस रहती थी। अचानक दो जोड़ी गिलहरियाँ फुदकने लगी। वे कच्ची मूंगफली के दूधिया दाने मुंह में फंसाए इठलाती और फिर अचानक सिहरन की तरह दौड़ पड़ती। दक्खिन के पहाड़ों पर कुम्भ के मेले की तरह बारह साल बाद खिलने वाले फूल न थे मगर उल्लास भरी हवा किसी सम्मोहन की ठहर में घिर पड़ती। 

दोपहर जब कासे के ज़रा भीतर की ओर लुढकी तो वही सूनापन लौटने लगा। शाम जैसे कोई रुई से भरा बोरा थी जिसका मुंह उल्टा खुल गया था। वह फाहों की तरह दसों दिशाओं से अन्दर आने लगी। जैसे आहिस्ता आहिस्ता किसी के चले जाने के दुःख का बोझ उतरता हो। नींद ख़्वाब थी। ख़्वाब नींद हो गए। प्रेम एक अबूझ रंग, गंध और छुअन बन कर आया स्मृति बनकर बस गया। एक लम्हा गोया एक भरा पूरा जीवन। 

लौट लौट आने की दुआ हर सांस।
* * *
यूं तो दूर तक पसरी हुई रेत सा कोरा जीवन था, सब्ज़ा एक कही सुनी बात भर थी। दिन, रात के किनारों के भीतर लुढ़क जाते थे। सुबहें अलसाई हुई चल पड़ती थीं वापस दिन की ओर। धूल ढके उदास बाजे पर प्रकाश-छाया के बिम्ब बनते-मिटते रहते थे। सुर क्या थे, सलीका कहाँ था? जाने किस बेख़याली में लम्हे टूटते गिरते जाते। 

दफ़अतन! 
एक छुअन से नीम बुझी आँखे जाग उठीं। रेत की हर लहर में समायी हुई अनेक गिरहों से भरी लहरें नुमाया हुई। एक उदास अधुन में जी रहा बाजा भर गया अपने ही भीतर किसी राग से। 

ओ प्रेम, सबकी आँखों में कुछ सितारे रखना।
* * *
जैसे किसी लता पर फूटते पहले दम कच्चे रोएं का सबसे हल्का हरा रंग। जैसे किसी उम्मीद के कोकून से ताज़ा बाहर आये केटरपिलर की नाज़ुकी। जैसे अचानक पहली बार सुनी जा रही अविश्वसनीय किन्तु प्रतीक्षित प्रेम की बात दोशीज़ा कानों को छूती हुई। 

वह कुछ इस तरह और गुज़रती रात रुक-रुक कर देखती हुई।
* * *
हाइवे पर गुजर रही है चौंध भरी रोशनियाँ 
जैसे तुम्हारे ख़यालों की ज़मी पर 
मुसलसल बरस रही हों याद की पीली पत्तियां। 

वो शहर क्या था, ये रास्ता क्या है
मेरे बिना तुम कैसे हो, तुम बिन मैं जाने क्या हूँ।
* * *
तुम उचक भी नहीं सकते 
मैं हद को तोड़ भी नहीं सकता 
एक आवाज़ सुनने को एक सूरत देख लेने को 
आज जाने क्या मनाही है 
दिन ये उदासा था, शाम ये तनहा थी, रात ये खाली है। 

एक बार व्हिस्की और उससे ज्यादा तुम आओ।
* * *
एक बलखाई तनहा पत्ती शाख से बिछड़ कर कुछ इस तरह उतरती है ज़मी की ओर जैसे कोई सिद्ध खिलाड़ी तरणताल में उतरने से पहले गोल कलाबाज़ियों के ध्यान में गुम होता है। वह अगर एक बार भी देख सकती पीछे या ज़रा सी नीचे से ऊपर की ओर भर सकती उड़ान तो भ्रम हो सकता था कि एक सूखी पत्ती बदल गयी है पीली तितली में। 

वैसे होने को क्या नहीं हो सकता कि मुझसा बेवफ़ा और दिलफेंक आदमी भी आखिर पड़ गया प्यार में।
* * *
उन दीवारों के बारे में मालूम न था कि वे किसलिए बनी थी मगर खिड़कियाँ थीं आसमान को चौकोर टुकड़े की शक्ल में देखने के लिए। जो सबसे ठीक बात मालूम है वह है कि तुम्हारे लब बने थे मेरी रूह के पैरहन से खेलने के लिए।
* * *

पेड़ के नीचे हर रोज फूलों एक चादर बिछी होती थी. जैसे किसी प्रिय के मन से निशब्द आशीष झरता हो. वे दोनों मगर अनचाहे थे. जो फूल अपने आप झड़ते हों, जो आशीष अपने आप मिलता उसका कोई मोल नहीं था.

किसी से नहीं कहा कि था क्या
किसी के पास इस वजह को सुनने का मन भी न था
सबकुछ यथावत चाहिए था हर किसी को
मिलने से पहले की सूरत में
या ये अपरिहार्य था कि हिसाब बिना ढील के कर लिए जाएँ.
वे दयालु और प्रेमी कहलाना पसंद करते थे
उन्हें झूठ और फरेब से नफरत थी.
ऐसा उनका कहना था कि
वे नहीं जानते
उन्हें असल में डर किस स्थिति से था
अप्रिय हाल में उनकी देह भाषा किस तरह व्यक्त थी
वे जिस तरफ रौशनी में थे उसकी दूसरी तरफ क्या था
वे इकहरे कहलाना चाहते थे मगर बुने हुए थे त्रिआयामी.

पहाड़ के लोग सनोबर का चिलगोंजा थे
रेगिस्तान के लोग थार के डंठल थे
समंदर के लोग किसी समुद्री जीव के खोल थे
बावजूद इसके
जो सबसे पूछा गया वह सवाल एक था
वे सब जो जवाब देते थे वह जवाब एक था.

प्यार था तो फिर इतनी नफरत कहाँ से आई
नफरत थी तो वो प्यार जताने के सिलसिले क्या थे?

मेरे पास तुम्हारे लिए एक श्राप है, जाओ भुगतो इस जीवन को
जिस तरह उसने मुझे खोजा है, उस तरह कोई तुमको न खोज सके.

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

परिकल्पना - दर्दनाक मुक्ति की रचना




मर गई - कुँवारी या  .... 
मर गई, यातना खत्म, कहानी खत्म 
लोगों ने भी एक 'आह' भर ली,
ज़िंदा रहती 
तो उसकी चीखों को नसीहतें मिलती 
कोई और ज़िन्दगी तलाशती तो कुलटा होती 
समाज बहरा  होता  .... 
अच्छा हुआ, मर गई 


आज पढ़िए स्वप्न मंजुषा शैल की दर्दनाक मुक्ति की रचना -


ख़बर ................!!
स्वप्न मंजुषा शैल 

काव्य मंजूषा


सुना है, आज वो पकड़ी गई...
शायद,
उसका नकारा पति, आवारा देवर, और वहशी ससुर
उसे बाल से पकड़ कर घसीटते हुए ले आये होंगे
लात, घूसे, जूते से मारा होगा
सास की दहकती आँखें,
उस दहकते हुए सरिये से कहाँ कम रही होगी,
जो बड़े एहतियात से उसकी मुट्ठी में ज़ब्त होगी,
उसका मुंह बाँध दिया गया होगा,
आवाज़ हलक में हलाक़ हो गई होगी,
दहकता हुआ सरिया नर्म चमड़ी पर,
अनगिनत बार फिसल गया होगा,
'दाग दो साली नीपूती कुलटा को',
आँखों की दहशत काठ बन गई होगी,
'कुलच्छिनी, कमीनी, वेश्या,
घर की इज्ज़त बर्बाद कर दी है...
इसका ख़त्म हो जाना ही बेहतर है ..'
यही फैसला हुआ होगा
और फिर सबने उसे उठा कर फेंक दिया होगा...
रसोई घर में...
तीन बोतल किरासन तेल में,
उसके सपने, अरमान, विश्वास, आस्था
सब डूब मरे होंगे,
पहली बार उत्तेजित.. उसके पति ने,
जिसकी इज्ज़त से वो खेलती रही थी !!
ने दियासलाई सुलगा दी होगी...
स्थिर आँखों से उसने अपने पति को देखा होगा
"काश !!"
फिर छटपटाती आँखों से उसने पूछा भी होगा
'क्यों' ??
किसी ज़िबह होते जानवर सी वो घिघियाई होगी
नज़रों के सामने कितनी रातें तैर गयीं होंगी
जब उसने खुद को तलहटी तक नीचे गिराया था ..
काँपा तो होगा हाथ उसके पति का...
पर उससे क्या ???
आज वो पोस्टमार्टम की रिपोर्ट बन गई,
'कुँवारी' बताया है उसे..!!
सुबह, एक और रिपोर्ट आई थी...डाक्टर की
जो रसोई घर में घटित ....
इस अप्रत्याशित दुखद दुर्घटना
में जल कर राख हो गई....!!!

कुछ पंक्तियाँ आराधना की - जो कहती हैं, 

"कहते हैं वे
रुदन अस्त्र है
स्त्री का,
मैं कहती हूँ
हमारी ढाल
हमारी हँसी।
जब भी घिरते
आँखों में
दुःख के बादल
छाता बन बारिश को
लेती सँभाल
हमारी हँसी।" 

बहिष्कृत-स्वीकृत 

घर समाज से 'बहिष्कृत' स्त्रियाँ
गढ़ती हैं स्त्रियों की बेहतरी की नयी परिभाषाएँ
बनाती हैं नए प्रतिमान,
वे कुछ और नहीं करतीं
बस 'सोचती' हैं
वही, जिसे करने की फुर्सत ही नहीं दी जाती
घर-परिवार-समाज में स्वीकृत महिलाओं को।
--- --- --- --- --- --- ---

 छिपे भेड़िये
(१)
भेड़िया, भेड़िया रहने पर उतना बुरा नहीं होता
वह हो जाता है ज़्यादा खतरनाक भेड़ की खाल पहनकर,
स्त्री-स्वतंत्रता की बात करते हुए
और  भी अधिक घातक। 
(२)
स्त्रियाँ, चाय सूँघकर बता देती हैं चीनी की सही मात्रा
स्त्रियाँ निगाहें सूँघकर पहचान लेती हैं
भेड़ की खाल में छिपे भेड़िये। 
(३)
खुद  को लाचार दिखाने वाले पुरुष
अक्सर पाए जाते हैं बेहद शक्तिशाली
खुद  को ताकतवर बताने वाले उतने ही कमज़ोर,
बेहतर है कि वे सच ही बोलें
कि स्त्रियों को खूब आता है
झूठ पकड़ने का हुनर।  

बुधवार, 29 जुलाई 2015

परिकल्पना - समझना मुश्किल है वक़्त की माँग को





चुप रहना बेहतर है,
चुप नहीं रहते जवाब ही दे देते तो ही सही था  … 
लगातार कोई अपशब्द कहे तो अनसुना करना सही है 
अपशब्द के विरोध में अपशब्द ज़रूरी होता है 
कम से कम अपनी मनःस्थिति गुनहगार नहीं होती  … 
लेकिन क्या अपनी मनःस्थिति खुद को नहीं धिक्कारती ?
जब सारे कुबोल एकांत में मथते हैं 
और एक शांत ख्याल भी हम सहज रूप से नहीं ले पाते !"
अच्छाई मनुष्य को लाचार कर देती है 
खुद ही खुद को शाबाशी देती है 
और अपशब्दों के दावानल में जलती रहती है। 

पूरी ज़िन्दगी इसी उधेड़बुन में बीत जाती है !!!!

सही को स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं"
पर स्पष्टीकरण माँगा तो उसीसे जाता है !
गलत से मुँह लगना कोई नहीं चाहता 
पर उसकी तोहमतों पर विचारक सभी होते हैं 
और इसी बाज़ी को जीतने में 
एक बहुत बड़ा समूह 
तोहमत लगानेवाले के प्रश्नों को दुहराता है 
और सही' के चक्कर में 
अपराधी बनकर रह जाता है !

समझना मुश्किल है वक़्त की माँग को 
बोलो तो गड़बड़ 
ना बोलो तो गड़बड़  … 
सोचो न ब्रेकर पर कोई पूरी स्पीड से आगे बढ़ जाता है 
कोई धीरे होकर भी दुर्घटना का शिकार होता है 
अब किस्मत कहें या चांस 
पूरी ज़िन्दगी का यही हिसाब-किताब है 

रश्मि प्रभा 


एक महान डाकू की शोक सभा -आदित्य चौधरी
भारतकोश 

एक 'महान' नेता, एक 'महान' डाकू की शोक सभा संबोधित कर रहे थे।-
        "वो एक महान डाकू थे। ऐसे ख़ानदानी और लगनशील डाकू अब देखने में नहीं आते। आज भी मुझे अच्छी तरह याद है... जब उन्होंने पहली डक़ैती डाली तो वो नवम्बर-दिसम्बर का महीना रहा होगा; दिवाली के आसपास की बात है। डक़ैती डाल कर वो सीधे मेरे पास आए और डक़ैती का पूरा क़िस्सा मुझे एक ही साँस में सुना डाला। हम दोनों की आँखों में खुशी के आँसू थे। बाद में हम दोनों गले मिलकर ख़ूब रोए।"
आगे कुछ बोलने से पहले उन्होंने वही किया जो नेता अक्सर भाषण देते हुए करते हैं-
        उन्होंने माइक को देखा और भावुक होकर दाएँ हाथ से उसे पकड़ लिया। बाएँ हाथ की चार उंगलियों को मोड़कर एक लाइन में लगाया और ग़ौर से नाखूनों को देखा। इसके बाद कुछ सोचने का अभिनय किया और साँस छोड़कर (जो कि खिंची हुई थी) दोनों हाथ पीछे बाँध लिए। एक बार एड़ियों पर उचक कर फिर से कहना शुरू किया-
        "वो ज़माना ही ऐसा था... उस ज़माने में डक़ैती डालने में एक लगन होती थी... एक रचनात्मक दृष्टिकोण होता था। जो आज बहुत ही कम देखने में आता है। मुझे भी कई बार मूलाजी के साथ डक़ैतियों पर जाने का अवसर मिला। आ हा हा! क्या डक़ैती डालते थे मूलाजी। कम से कम ख़र्च में एक सुंदर डक़ैती डालना उनके बाएँ हाथ का खेल था। बाद में वक़्त की माँग के अनुसार उन्होंने अपनी डक़ैतियों में बलात्कार को भी एक समुचित स्थान दिया किन्तु दुर्भाग्य ! कि उन्होंने जो डक़ैतियाँ डालीं... हत्याएँ कीं और बलात्कार किए... उसका पूरा श्रेय और बाद में लाभ ख़ुद उन्हीं को नहीं मिल पाया।"
        "...उनकी आदत हमेशा दूसरों को बढ़ावा देने की रही। वो तो मानो एक विश्वविद्यालय ही थे। नये लड़कों को जब वो अपने साथ डक़ैतियों में ले जाते थे तो उन्हीं को हमेशा हत्याएँ और बलात्कार करने का मौक़ा भी देते थे। जहाँ तक मुझे याद आता है, जब भी वो मुझे मिले, उनके साथ चार-पाँच नई उम्र के लड़के होते थे। आ हा हा! क्या दृश्य होता था... सभी लड़के नशे में धुत्त, मुँह में पान और अपनी-अपनी अन्टी में तरह-तरह के हथियार लगाए हुए। उन लड़कों में से... जो आज जीवित बचे हैं, उनके नाम और फ़ोटो अख़बारों में देखकर बेहद प्रसन्नता होती है। मूलाजी के 'सधाए' हुए लड़के आज कई पार्टियों में सम्मानित पदों पर हैं। उस त्यागमूर्ति का ध्यान आने से ही मैं भावुक हो जाता हूँ।"
-तालियाँ बजीं...
        "शुरुआत में छः-सात डक़ैतियाँ डालने के बाद ही वो काफ़ी प्रसिद्धी पा गए थे लेकिन आप तो जानते ही हैं कि पुलिस ने हमेशा उनके साथ सौतेला व्यवहार ही किया। कई डक़ैतियाँ ऐसी थीं जो उन्होंने अपने बल-बूते पर ही डाली थीं, लेकिन पुलिस रिकार्ड से उनका नाम ग़ायब ही रहा और उन डक़ैतियों का श्रेय उन्हें नहीं मिल पाया। असल में उस समय जो पुलिस कप्तान था वो अपनी जाति के एक साधारण से डाकू को प्रमोट करने के चक्कर में रहता था। जिसमें कि बाद में वो सफल भी रहा।"
        ...
        "स्वर्गीय श्री मूलशंकर जी; जिन्हें हम "मूला डाकू" के नाम से जानते हैं, एक ज़बर्दस्त पक्षपात पूर्ण रवैए का शिकार हुए। पाँच अच्छी डक़ैतियाँ डालने के बाद मुश्किल से एक डक़ैती में मूला जी का नाम आ पाता था। इससे उनका प्रमोशन रुक गया। वो अपने डाकू कॅरियर की अगली सीढ़ी को पाने में असफल रहे याने नेता नहीं बन पाए।"
-वे भावुक हुए-
        "दोस्तों आप तो जानते हैं कि कौन अपनी पसंद से डाकू बनता है ?... कोई नहीं ! ये तो मजबूरी है दोस्तों... मजबूरी ! अगर मूलशंकर जी ने नेता बनने का सपना नहीं देखा होता तो बेचारे क्यों डाकू बनते। वो भी किसी सरकारी दफ़्तर में नौकरी करके डाकुओं से ज़्यादा नहीं कमा रहे होते ?
-वे और भावुक हुए-
        "... आप को पता ही है कि किसी पार्टी ने उन्हें चुनाव में टिकिट नहीं दिया और वो साधारण सा डाकू जो वास्तव में डाकू था ही नहीं, पिछली बार के चुनाव में लगातार तीसरी बार पार्टी की टिकिट पर जीता है। एस. पी. ने पक्षपात करके उसे डाकू बनाया। उसके सिर पर दो लाख का बिल्कुल झूठा इनाम रखवाया।" वे दहाड़े- "वो भोला-भाला डाकू चुनाव में टिकिट पा जाता है और मूला जी जैसे ख़तरनाक़ डाकू समाज सेवा से वंचित रह जाते हैं...? क्या यही लोकतंत्र है ?"
यह कहकर उन्होंने सिर झुका लिया। यह मुद्रा तालियों की अपेक्षा में बनाई गयी थी लेकिन तालियों की बजाय सन्नाटा भांपकर वो फ़ौरन गला साफ़ करके बोले-
        "मैं किसी का भी नाम नहीं लेना चाहता क्योंकि आप स्वयं ही ऐसे साधारण डाकुओं के नामों से परिचित हैं। इस तरह अचानक इनाम बढ़ा कर किसी को भी रातों-रात डाकू बनाया जा सकता है... इससे तो हर ऐरा-ग़ैरा डाकू टिकिट का दावेदार बन जाएगा। वो दिन दूर नहीं जब लोग पुलिस को रिश्वत देकर बिना डक़ैती डाले ही अपना नाम डक़ैतियों में लिखवा लेंगे और डक़ैती-संस्कृति का सत्यानाश हो जाएगा।"
        "हमारे देश के डक़ैतों में अब जातीय भावना उत्पन्न होने लगी है। जो धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है। डक़ैतियाँ अब जाति के आधार पर डाली जा रही हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जाति के डाकू को बढ़ावा देने में लगा है। पार्टियों में भी जाति के आधार पर डाकुओं को वरीयता दी जाती है। अभी पिछले दिनों एक सज्जन के यहाँ एक 'शानदार डक़ैती' पड़ी। वो जानते थे... कि डक़ैती किसने डाली है... लेकिन उन्होंने डक़ैती में नाम लिखवाना अपनी ही जाति के एक ऐसे डाकू का... जो उस समय इलाक़े में था ही नहीं... इस जातिवादी डाकू-तन्त्र को रोकना होगा... अन्यथा इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। इससे योग्य डाकू पिछड़ जायेंगे।"
        "मैंने अनेक बार देखा है कि टिकिट प्राप्त करने की लालसा में बहुत से डाकुओं ने डक़ैती डालना कम करके दूसरे तरीक़ों से जल्दी प्रगति करनी चाही है। जैसे कुछ डक़ैतों ने शराब के ठेके लिए, कुछ ने जुए-सट्टे का कारोबार खोल लिया और कुछ ने अपहरण का धन्धा अपना लिया। ये तो ठीक है कि इस बदलाव से टिकिट पाने में आसानी हो जाती है, लेकिन डक़ैती की परम्परा को बेहद नुक़सान होता है।
        वे क्रोधित होकर दहाड़े, "क्या सिर्फ़ टिकिट पाने के लिए ही हम भू-माफ़िया बन जाएँ, शराब के ठेके लें, अपहरण करवाएँ और जुए-सट्टे का कारोबार करें... क्या सिर्फ़ डक़ैती डालने से ही टिकिट के लिए हमारी योग्यता सिद्ध नहीं हो जाती?" 
        तभी एक नौजवान डाकू बीच में बोला, "आजकल तो भू-माफियाओं का ज़माना है। पूछता कौन है डाकुओं को...डाकुओं से ज़्यादा इज़्ज़त तो राजनीति में अब दलालों को मिलती है !... अब गया ज़माना डाकुओं का !..."
        "भू-माफ़िया ! क्या है भू-माफ़िया हमारे सामने ?... कुछ भी नहीं... ज़्यादा से ज़्यादा चार-छ: मर्डर... बस !... और उसके बाद राजनीति में ट्रांसफ़र... उसके बाद क्या ? बताइए ?... राजनीति में स्थापित होने के बाद तो हमारी ही ज़रूरत पड़ती है 
ना ? अरे ! ख़ुद कहाँ करते हैं ये क़त्ल ? ये तो हमसे करवाते हैं ना ? इसमें सारी ग़लती किसकी है... आपकी। आपने ही यह छूट दी है। मैं पूछता हूँ कि जान जाने का ख़तरा सबसे ज़्यादा किसमें है... सिर्फ़ डक़ैती में! इसलिए सबसे ज़्यादा बहादुरी का काम डाकू बनना ही है, बाक़ी सारी चीज़ें कम बहादुरी की हैं, फिर भी डक़ैतों की मान्यता कम होती जा रही है। मान्यता ही कम नहीं हो रही है, बल्कि उनका मूल्यांकन भी ग़लत तरीक़े से होता है। इसका कारण है एकता की कमी। मेरे प्यारे डाकुओं एक हो जाओ और फिर से छा जाओ राजनीति पर..."
वक्तव्य ख़त्म करने के इशारे को समझ कर भी अनजान बनकर वे घड़ी देखकर बोले-
        "काफ़ी समय हो गया... मुझे एक डाकू-शाला के उद्घाटन में भी जाना है इसलिए मैं यह कह कर अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि हम सब एक मिलकर रहें तो हर एक पार्टी हमारे महत्व को और ज़्यादा समझेंगी और फिर से मूला जी का दर्द भरा इतिहास नहीं दोहराया जाएगा। मेरे साथ नारा लगाइए...डाकू नेता भाई-भाई, और क़ौम कहाँ से आई"
सभी मिल कर डाकू-गान गाते हैं

जितने डाकू उतने पद
गिन ले जनता ध्यान से
हारेगी वो हर बाज़ी
सब डाकू हों मैदान में
आओ
आ जाऽऽऽओ
हर पद पे
छा जाऽऽऽ ओ
जी जान से
हेऽऽऽ
जी जान से    


वक्त का ज्वालामुखी और बर्फ जैसी औरतें
गीताश्री
[DSC_8886.jpg]

“ सेक्स वर्कर दूसरी औरतो से अलग होती है। इसके चार कारण हैं...हम अपनी मर्जी की मालिक होती हैं। हमें खाना बनाकर पति का इंतजार नहीं करना पड़ता। हमें उसके मैले कपड़े नहीं धोने पड़ते। हमें अपने बच्चों को अपने हिसाब से पालने के लिए आदमी की इजाजत नहीं लेनी पड़ती। हमें बच्चे पालने के लिए आदमी की जायदाद पर दावा नहीं करना पड़ता। ”
......नलिनी जमीला (एक सेक्सवर्कर की आत्मकथा में )
साथ रहने वाला एक आदमी पति बन जाता था और दूसरा भाई।
ये वो रिश्ते थे, जो बाजार बनाता था और बाजार ही देता था रिश्तों को नाम।
रिश्तों को नाम देने के बावजूद ऐसे रिश्तों को समझना मुश्किल है क्योंकि अबूझ रिश्तों की ये एक ऐसी कहानी है, जो किसी औरत के जिस्म से शुरु होकर औरत के अरमानों पर आकर खत्म हो जाती है।
लेकिन किसी के अरमान मिटे या सपने लुटे, इसकी परवाह बाजार कब करता है? केरल में भी हमने अरमानों की ऐसी अनगिनत चिताएं देखीं, जिसे किसी की बेचारगी और लाचारी हवा दे रही थी ।
केरल में सेक्स वर्करो की दुनिया के अनचीन्हे दर्द से साझा करते हुए मैंने देखा कि जो आदमी खुद को पति बता रहा है वो पति नहीं दलाल है और जो खुद को भाई बता रहा है वो ग्राहक ढूंढलानेवाला बिचौलिया. । और दोनों जिस्म के सौदे के बाद मिले पैसों से करते थे ऐश। लेकिन ये सब एक बंद दुनिया का चेहरा था, जिससे खुली दुनिया के लोग कोई मतलब नहीं रखना चाहते । तभी तो हमने पाया कि सेक्सवर्कर समाज से वैसे ही नफरत करती है जैसे समाज सेक्स वर्कर से।
कोई पति बनकर दलाली करेगा और कोई भाई बनकर ग्राहक लाएगा, शायद सामजिक ताने-बाने पर रिसर्च करनेवाले रिश्तों की इस नई परिभाषा को कुबुल न कर पाए, लेकिन सच था।
केरल के कोझीकोड में इन्हें रोपर्स के नाम से जाना जाता है। रोपर्स, रोप(रस्सी) शब्द से बना है। यानी दो किनारों को जोड़ने वाला, रस्सी की तरह जोड़ने वाला रोपड़,ये खुलासा केरल की मशहूर सेक्स वर्कर नलिनी जमाली ने भी अपनी आत्मकथा में किया है। उनकी आत्मकथा खूब बिकी है और हिंदी में भी अनुवाद होकर आई है। इसे पढ़ने के बाद केरल की सेक्सवर्कर के बारे में और करीब से जानने-समझने का मन हुआ।
मैं केरल की यात्रा पर गई थी तंबाकू पर शोध करने, लेकिन वहां मेरे एक एकिटविस्ट मित्र साजू से मैंने अपनी इच्छा जताई।
शाम तक उनके आफिस में दो महिलाएं हाजिर थीं। रमणी और सरोजनी। कोट्टायम के उनके दफ्तर में बैठी, थोड़ी सकुचाई, झिझकती हुई दो सांवली-काली रंगत वाली यौन कर्मियों और मेरे बीच भाषा का संकट था। वे ना तो अंग्रेजी बोल सकती थीं, ना हिंदी समझती थी। ना मैं उनकी भाषा। मगर वे इस बातके लिए तैयार होकर आई थी कि एक पत्रकार को इंटरव्यू देना है। साजू खुद इंटरप्रेटर बन गया।
स्त्री का दर्द पहली बार पुरुष के मुख से अनुवाद होकर स्त्री तक आ रहा था। पता नहीं पुरुष ने उसमें क्या जोड़ा, क्या घटाया...मगर उन दोनों की दैहिक भाषा ने मुझे समझा दिया, सब कुछ। रमणी थोड़ी कम उम्र की थी। वह खुल रही थी, साहसपूर्वक, वैसे ही जैसे उसने यौनकर्म की दहलीज पर पैर रखा था।
बोलते हुए वह उसके भीतर की खड़खड़ साजू ने नहीं, मैंने सुनी। कुछ था जो खुलता और बंद होता था। खौफ के साथ अपने बाहर फैलने की ललक को वह रोक नहीं पा रही थी। रमणी को दिल्ली देखना है। उसने देखा नहीं, सुना भर है। बातचीत के दौरान वह लगभग गिड़गिड़ाती है-“ क्या आप मेरे लिए टिकट भेजोगे। अपने पास रखोगे। लालकिला, कुतुब मीनार देखना है। सुना है...बहुत सुंदर और बड़ा शहर है...।” मैं भी वादा कर देती हूं पर अभी तक पूरा नहीं कर पाई हूं। शायद कभी कर पाऊं...उनसे संपर्क का जरिया भी तो नहीं कोई. हम कौन सी भाषा में बात करेंगे, फोन पर? वो बोल रही थीं और मुझे मुझे निदा फाजली की पंक्तियां याद आ रही थीं-
“ इनके अन्दर पक रहा है वक़्त का ज्वालामुखीकिन पहाड़ों को ढके हैं बर्फ़ जैसी औरतें । ”
रमणी, बोलती कम है,हंसती ज्यादा है। हंसी हंसी में कहती है, मैं पहले एक दिन में पांच छह ग्राहक निपटा देती थी। अब थकान होने लगी है। अब संख्या कोई मायने नहीं रखती...दो तीन निपटा ले,यही बहुत है। वह थोड़ी गंभीर होती है---ग्राहको की संख्या मायने नहीं रखती, उनकी संतुष्टि मायने रखती है। धंधे में उतरने का कोई अफसोस? रमणी ईमानदारी से स्वीकारती है, अफसोस तो है, मगर जिंदगी चुनौती की तरह है, उसका सामना कर रहे हैं। अब भाग नहीं सकते। देर हो चुकी। इसके आगे का रास्ता बंद है। क्या करें?रमणी का यह वक्तव्य किसी अनुपस्थित को संबोधित था। साजू मुझे बता रहे थे और वह शून्य में देख रही थी।
बात-चीत से पता चला कि रमणी कोट्टायम शहर के एक संभ्रांत मुहल्ले में रहती है। वहां धंधा करने मे समस्या ही समस्या। उसने एक रास्ता निकाल लिया। जंगल ही उसका रेडलाइट एरिया बन गया है। वह ग्राहकों को पास के जंगल में ले जाती है। घास के बिछौने होते हैं। मोबाइल हैं, ग्राहक फोन करते हैं फिर जंगल में जगह तय होती है। कुछ ग्राहक जंगल नहीं जाना चाहते, तब सरोजनी की बन आती है। वह अपने ग्राहक उसकी तरफ भेज देती है। सरोजनी का घर भी तंग गलियो में हैं मगर वह घर से धंधा करती है। थोड़ी उम्र ज्यादा है इसलिए लोग शक कम करते हैं। साथ में एक पतिनुमा जीव रहता है।
पति का जिक्र आया तो नलिनी याद आ गई। नलिनी ने एसे पतियो के बारे में साफ लिखा है कि मकान वगैरह किराए पर लेना हो तो ये लोग बड़े काम आते हैं। लेकिन कुल मिलाकर ये किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। सरोजनी का पति भी एसा ही है। सरोजनी ही उसका खर्च चलाती है। बदले में वह उसे सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का नाटक करता है। घर पर अक्सर ग्रहको का आना जाना देख कर कई बार पड़ोसी पूछ लेते हैं, सरोजनी का जवाब होता है-“ये लोग प्रोपर्टी डीलर हैं, मेरा प्लाट खरीदना चाहते हैं। देखने आते रहते हैं।“
सरोजनी बताती है-“ कई बार उसके पास युवा लड़को का ग्रुप आता है। वह पांच मिनट में उन्हें मुक्ति देकर भेज देती है। भीतर से उसे ग्लानी होती है कभी कभी, उनकी और अपनी उम्र देखकर। लेकिन ग्राहक तो ग्राहक है, चाहे किसी भी वक्त या किसी भी उम्र का हो..। “ लेकिन पैसे की जरूरत ऐसी सोच पर लगाम लगा देती है ।
रमणी भी कहती है, पैसा बड़ी चीज है। उन्हें कैसे लौटा दें। मैंने कहा, छोड़ क्यो नहीं देती ये धंधा...दोनों एक साथ बोल पड़ी, इतना पैसा किस काम में मिलेगा। अब हमें कौन काम देगा। हम किसी काम के लायक बचे ही नहीं...अब तो आदत सी पड़ गई है...। अब छोड़ भी दे तो लोग हमें चैन से नहीं जीने देंगे।
रमणी अब बातचीत में सहज हो चुकी है और उसे ये स्वीकारने में झिझक नहीं होती कि इस पेशे में भी वो कभी-कभार आनंद ढूंढ लेती है।
कैसे,मैं चकित होती हूं... ।
वह स्वीकार करती है कि एक स्थाई ग्राहक से वह भी आनंद लेती है। यहां पैसा गौण है। उससे मोल-भाव नहीं करती। रमणी के पास किस्से बहुत है...। एक बार पैसे वाला अधेड़ ग्राहक आया, कहा—“मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं, मगर मैं जिस उत्तेजना की तलाश में हूं, वहां नहीं है। चलो, सेक्स में ‘फन’ करते हैं...।“ लेकिन रमणी अच्छी तरह जानती है कि दूसरों को भले ही उसके जिस्म में ‘फन’ की तलाश हो, लेकिन वो खुद अपने पति के मर जाने और कंगाल हो जाने के बाद यातना के जिस रास्ते पर चल रही है,वो रास्ता
कहां खत्म होगा। न घर बचा न कोई जमीन का टुकड़ा, जिसे वह अपना कह सके। रिश्तेदारो ने शरण देने से मना कर दिया। कम पढी लिखी थी, सो नौकरी ना मिली। एक शाम उसने खुद को पीकअप प्वाइंट पर पाया। जिस्म की कमाई से पहले बेटियो को पाला, अब खुद को पाल रही है। इसी नरक में अपने लिए सुख का एकाध कतरा भी तलाश लेती है। यह सब बताते हुए उसकी आंखों में कहीं भी संकोच या शरम नहीं..है तो बस थोड़ी शिकायत, थोड़ा धिक्कार।
दोनों से बातचीत करते हुए ही हमने जाना कि केरल में कहीं भी कोई रेडलाइट एरिया नहीं है। इसीलिए वहां सेक्सवर्कर पूरे समाज में घुली मिली है। उन्हें अलग से चिनिहत नहीं किया जा सकता। इसकी दिक्कते भी हैं। बताते हैं कि केरल में 10,000 स्ट्रीट बेस्ड सेक्सवर्कर हैं। इनमें हिजड़े भी शामिल हैं। इसके बावजूद सोनागाछी की एकता उनके लिए रोल माडल की तरह है। वहां एक अनौपचारिक रुप से संगठन बना है, सेक्सवर्कर फोरम केरला(एस डब्लू एफ के) जो इनके हितो का ध्यान रखने लगा है। गाहे-बगाहे आंदोलनों में शिरकत भी करने लगा है।मगर एसडब्लूएफके सोनागाछी के दुर्वार महिला समन्य समिति की तरह ताकतवर नहीं है। रमणी,सरोजनी उसकी सदस्य बन चुकी हैं।
सरोजनी की दो बेटियां हैं, चेन्नई में रहती हैं। वे हिंदी नहीं जानती, किताब नहीं पढ सकती, तो क्या हुआ, फोटो तो पहचान सकती है। रमणी और सरोजनी ने फोटो तो खिचवाए लेकिन न छपवाने का आग्रह किया। बेटियां हालांकि अब जान गई हैं कि मां क्या काम करती हैं। पहले तो बहुत विरोध हुआ अब नियति को कुबुल कर चुकी है । साथ कुछ वक्त बिताने के बाद जब वो जाने की अनुमति मांग रहीं थीं
तो वहां मौजूद आंखें उन्हें संशय से घूर रही थीं. तभी मुझे निशांत की कविता(वर्त्तमान संदर्भ में छपी हुई) की पंक्तियां याद आने लगी....
इन औरतो को,
गुजरना पड़ता है एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया से
तय करना पड़ती है एक लंबी दूरी
झेलनी पड़ती हैं गर्म सलाखों की पैनी निगाहें
फाड़ने पड़ते हैं सपनो को
रद्दी कागजो की तरह
चलाना पड़ता है अपने को खोटे सिक्कों की तरह
एक दूकान से दूसरे दूकान तक.
वो चली गईं, लेकिन दोनों मेरे सामने एसे खुली जैसे अंधड़ में जंग लगे दरवाजे-खिड़कियो की सांकलें भरभरा कर खुल जाती है। उन्होंने अपने दर्द को कही से भी अतिरंजित नही किया...बल्कि भोगे हुए को ज्यों का त्यों रख दिया। शायद उन्हें लग रहा था कि इस जलालत से भरी दुनिया में कोई है, जो उसकी व्यथा सहानूभूति पूर्वक सुन रहा है। उसके भीतर मुझे लेकर प्रश्नाकुलता थी। भाषाई संकट के कारण पूछ नहीं पा रही थी,शायद साजू की उपस्थिति भी संकोच पैदा कर रही थी। फिर भी साजू के बावजूद उन्हें जो कुछ कहना था साफ-साफ कह गई। सुना गई अपनी कहानी। उस कहानी में गुड गर्ल बनने का सिंड्रोम नहीं था । ये रास्ता उन्होंने खुद चुना था। शिकायतें कम थीं और लहजे में.मुक्ति की चाह भी खत्म थी। उनके जाने के बाद भी रमणी की खिलखिलाहट मेरे सामने गूंज रही थी और दर्द की दरिया में भींगने के बाद पनपे अवसाद को कम कर रही थी । सरोजनी ने भी अपनी चालबाजियो को चटखारे लेकर सुनाया था, और उसे सुनाने में मजा भी आ रहा था, लेकिन क्या वो सचमुच चालबाज है ।

उनके जाने के बाद मैं सोच रही थी और बगल में बैठा साजू शरमा रहा था ।

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

परिकल्पना - खामोश दिल की सुगबुगाहट




खामोश दिल की सुगबुगाहट 
मयूर नृत्य की छुन छुन सी होती है 
भावों का उतार चढ़ाव आक्रोश में भी 
सितार पर तैरती उँगलियों सा लगता है  … 
रश्मि प्रभा


क्रमशः...
शेखर सुमन 
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मैं अंगारे सी धधकती 
नज़्में लिखना चाहता हूँ 
कि कोई छूए भी तो 
हाथ झुलस जाएँ,
मेरे लफ़्ज़ों के कोयले से
आग को विशालतर कर
इस मतलबी दुनिया को
जला देना चाहता हूँ  
और बन जाना चाहता हूँ 
इस ब्रह्मांड का आखिरी हिटलर...

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इंसान किसी और के गम में 
या क्षोभ में नहीं रोता, 
न ही रोना कमजोरी है कोई ...
रोना तो
बस जरिया है सेल्फ-डिफेंस का,
खुद को जंजीरों में कैद करने के बजाय
दूसरों के मन में दहशत बिठा देना,
आखिर सेल्फ-डिफ़ेंस मे की गयी 
हत्या भी हत्या नहीं कहलाती...

*************

इंसान का खुश होना एक झूठ है 
और खुश न होना उससे भी बड़ा झूठ,
उसका दूसरा झूठ 
हमेशा पहले झूठ से 
बड़ा होता है, 
बढ़ता रहता है झूठ का व्याज 
दिन-ब-दिन,
फिर वो एक झूठ बेचकर 
दूसरा झूठ खरीदता जाता है,
और इस तरह बन जाता है
झूठ का सच्चा सौदागर...


प्यार एक बुलबुला है पानी का...


        प्यार, कब क्या और कैसे... इन तीनो सवालों के बीच उलझ कर न जाने कितने ही सोचें भटकती रहती है... प्यार को कई कई बार परिभाषाओं में समेटने की कोशिश करता हूँ, लेकिन हर बार कुछ नया जोड़ने का दिल करता है... आखिर अपने इन बेसलीके शब्दों के बंधन में कैसे बाँध सकता है कोई इस उफनते-उभरते से सागर को... प्यार आज़ाद है, इसको किसी सोच के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता... प्यार असीम है, अनंत है.... इस आसमान से लेकर उस आसमान तक...प्यार की छुअन मुझे मेरी सूनी सी बंद खिड़की पर लटके विंड-चाईम की तरह लगती है, जो हर शाम तुम्हारी बातों की आवाज़ सुनकर गुनगुना भर देता है.. प्यार कभी शिकायत नहीं करता, वो तो बस इंतज़ार करना भर जानता है.. भले ही उस इंतज़ार की गिरहें हर सुबह मकड़ी के जालों पर पड़ी ओस की बूंदों तरह गायब होती जाती हैं, लेकिन प्यार के संगीत में डूबा ये मन भी कितना बेबस है न.. फिर उसी शिद्दत से वक़्त की झोली से चुरायी गयी उन अँधेरी शामों में सपनों के जाले बुनता नज़र आता है... प्यार शर्तें नहीं जानता, आखिर वो प्यार ही क्या होगा जो शर्तों पर किया जाए... प्यार कैद नहीं होना चाहता, वो तो आज़ाद होकर बहना जानता है बस... एक दिल से दूसरे दिल के बीच एक साफ़ स्वच्छ निर्मल झरने सा... इसका यूँ ही बहते रहना ही सुकुन देता है इसे... बीत गए और आने वाले कल से बेखबर, बस आज के बीच... प्यार हर रोज़ एक नयी बात सिखाता है, जाने कितने पन्नों में सिमटी एक किताब की तरह... बीच-बीच में कुछ मुड़े पन्ने भी दिखते हैं, जिसे हम जैसा ही कोई पढ़ गया था कभी... मैं भी कहीं कहीं बुकमार्क लगा देना चाहता हूँ ताकि सनद रहे कि ये भी सीखा था कभी...  अजीब ही है प्यार, हर घर की छत के कोने में उगे उस पीपल के पेड़ जैसा, जो हमारे चाहते-न-चाहते हुए भी उग आता है... फिर हम लाख कोशिश कर लें उसे हटा नहीं पाते, क्यूंकि कितनी ही जगह तो हमारा पहुंचना मुमकिन ही नहीं होता... इसी बात पर पूजा जी कहती हैं " प्रेम नागफनी सरीखा है... ड्राईंग रूम के किसी कोने में उपेक्षित पड़ा रहेगा...पानी न दो, खाना न दो, ध्यान न दो...'आई डोंट केयर' से बेपरवाह...चुपचाप बढ़ता रहता है... " 
          कितनी ही बार ख्याल आया, मन में बहते प्यार के इस दरिया को किसी पुरानी सोच की दीवार की कील पर टांग दूं, इस उम्मीद में कि शायद उस सोच में जंग लग जाए लेकिन ये दरिया इतने मीठे पानी से बना है कि वो सोच और भी ज्यादा पनपती जाती है... 
          और भी बहुत कुछ है कहने को लेकिन क्या क्या कहूं, बस एक बात जो हमेशा सुनता आया हूँ कि सिर्फ पाने का ही नाम प्यार नहीं, बदले में एक उदाहरण राधा-कृष्ण का देते हैं लोग... तो बस इतना ही है कहने को कि प्यार तो वो भी अधूरा ही था क्यूंकि मैंने देखा है कि कान्हा आज भी रोता है कभी-कभी राधा की याद में...

सोमवार, 27 जुलाई 2015

परिकल्पना - आहटें बादलों की




सन सनननन हवा 
कुछ नमी सी है 
हल्की हल्की आहटें बादलों की है 
इन्द्र ने मेघ मल्हार छेड़ दिया है 
सोचा है रिमझिम फुहारों से 
कुछ बूंदें चुन चुन 
एक पाजेब बना लूँ 
जब जब सूखे का एहसास होगा 
इस पाजेब से हरियाली ले आऊँगी 
धरा को सुकून दे 
अन्नपूर्णा हो जाऊँगी 
... बारिश हो तो मकसद पूरी कर लूँ 
मॉनसून की आहटों को संजो लूँ 
प्रकृति के संग प्रकृति सा रिश्ता जोड़ लूँ ...    

रश्मि प्रभा 


इंतज़ार है, क्षितिज में कबसे, काले, घने, बादलों का

सतीश सक्सेना 


इंतज़ार है ! क्षितिज में कबसे, काले घने, बादलों का !
पृथ्वी, मानव को सिखलाये,सबक जमीं पर रहने का !

गर्म  हवा के लगे, थपेड़े, 
वृक्ष न मिलते राही  को ,
लकड़ी काट उजाड़े जंगल 
अब न रहे ,सुस्ताने को !
ऐसे बिन पानी, छाया के, सीना जलता जननी  का  ! 
रिमझिम की आवाजें सुनने,तडपे जीवन धरती का !

चारो तरफ अग्नि की लपटें
निकलें , मानव यंत्रों   से !
पीने का जल,जहर बनाये   
मानव  अपने  हाथों  से  !

डेली न्यूज़ के सौजन्य से , अच्छा लगता है जब लोग
बिना भेजे, रचना को छपने योग्य समझे !आभार !
मां के गर्भ को खोद के ढूंढे ,लालच होता रत्नों का !
आखिर मां भी,कब तक देगी संग,हमारे कर्मों का !

उसी वृक्ष को काटा हमने   
जिस आँचल में,  सोते थे ! 
पृथ्वी  के आभूषण, बेंचे 
जिनमें  आश्रय  पाते  थे !
मूर्ख मानवों की करनी से, जलता छप्पर धरती का !
आग लगा फिर पानी ढूंढे,करता जतन,  बुझाने का !

जननी पाले बड़े जतन से
फल जल भोजन देती थी !
शुद्ध हवा, पानी के बदले   
हमसे प्यार , चाहती  थी !
दर्द  से तडप रही मां घर में, देखे प्यार मानवों का !
नईं कोंपलें , सहम के देखें , साया मूर्ख मानवों का !

जल से  झरते, झरने सूखे 
नरम मुलायम पत्ते, रूखे 
कोयल की आवाज़ न आये 
जल बिन वृक्ष, खड़े हैं सूखे
यज्ञ हवन के, फल पाने को,  है आवाहन  मेघों का !
हाथ जोड़ कर,बिन पछताये,इंतज़ार बौछारों का !


भीतर मेघ मल्हार...
[01.JPG]


इन दिनों फुरसत में हूं. फुरसत जो हमेशा फुर्र से उड़ जाती थी. कभी इस डाल, कभी उस डाल. उसका पीछा करना अच्छा लगता था. बीमारी के बहाने अब वो मेरे पीछे लगी रहती है. यह भी अच्छा लग रहा है. सावन ऐसा तो कभी बीता ही नहीं कि हम सोते रहें और ये बीतता रहा. दोस्त कहते हैं कि मैं मौसमों की माशूका हूं. $जरूर वे दरवाजे पर अब भी मेरा इंतजार करते होंगे. मैं तो सोई रहती हूं. दवाइयां खाती हूं और सो जाती हूं. कितना जुल्म करती हूं ना? जागती हूं तो बादल या तो बरस के जा चुके होते हैं या ना बरसने का मूड बनाकर रूठे न$जर आते हैं. हां पत्तों पर गिरी बूंदों को छूकर सावन महसूस करती हूं. सोचती हूं वो भी क्या सावन था जब बेधड़क दरवाजे को धकेलते हुए कमरे में जीवन में स्मृतियों में दाखिल हो जाया करता था. अब ये मौसम इतने सहमे से क्यों रहते हैं. इन्हें किसका डर है.

क्यों बूंदें मुझे नहीं भिगोतीं, क्यों मैं उन्हें बालकनी से देखती भर रहती हूं. बादलों पे पांव रखकर चलने का चाव रहा हमेशा से, बूंद बनकर बरसने की तमन्नाएं रहीं...फिर ये नींद न जाने कहां से आ गई. डॉक्टरों से मिली उधार की नींद. कुछ न करने की ताकीद, कुछ न सोचने की ताकीद. आदत है बात मान लेने की सो ये भी मान ली और देखो कैसे उदास सा बादल का टुकड़ा बालकनी की रेलिंग को पकड़कर बैठा है.
मैं उससे कहती हूं मुझे डर लगने लगा है इन दिनों. चलने से डर कि गिर जाऊंगी, जीने से डर कि मर जाऊंगी...बूंदों को हाथ लगाती हूं और डरकर हटा लेती हूं कहीं बह न जाऊं इनके साथ. बह ही तो जाना चाहती थी हमेशा से. बादल का वो टुकड़ा मेरी बातें सुनता है और चला जाता है.

मां, आज कौन सा दिन है? दिनों का हिसाब किताब बिगड़ गया है. मुंडेर पर दूर बैठा कौव्वा दिखता है, किसका घर है वो...मां से पूछती हूं. पूरा सावन मायके में बीत रहा है फिर भी गुनगुनाती हूं 'अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री..' .पापा आकर बगल में खड़े हो जाते हैं. सब हंस देते हैं जाने क्यों मेरी ही आंखें छलक पड़ती हैंं. मैं सावन को दोनों हाथों से पकड़ लेना चाहती हूं. इसकी बूंदों में किसी के होने का इंतजार नहीं. किसी के आने की तमन्ना नहीं, बस सूखे मन को भिगो लेने की ख्वाहिश है...मेरा डर बढ़ रहा है इन दिनों. मां के सीने से चिपक जाती हूं...तभी बूंदों की बौछार हम दोनों को भिगो देती है...मौसम मुस्कुरा रहा है. मत घबराओ प्रिये, जब तुम सोओगी मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हारा इंतजार करूंगा...मैं निश्चिंत होकर आंखें मूंद लेती हूं...बाहर बूंदों का साज बज रहा है भीतर मेघ मल्हार...
 
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