रविवार, 30 सितंबर 2007

हमें स्वच्छ प्रदूषणरहित शहर-कस्वा-गाँव चाहिए ....!

एक संदेश कविता के माध्यम से देश के भाग्य विधाताओं के लिए --

हमें-
स्वच्छ , प्रदूषण रहित
शहर-कस्वा-गाँव चाहिए ।
जहाँ शेर-बकरी साथ बैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।


हमें नहीं चाहिए
कोई भी सेतु
इस उफनती सी नदी को
पार करने हेतु

हाकिम और ठेकेदार
पैसे हज़म कर जाएँ
और उद्घाटन के पहले
टूटकर बिखर जाएँ
हमें पार करने के लिए
बस एक नाव चाहिए ।
जहाँ शेर-बकरी साथ वैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।


हमें नही चाहिए
कारखानों का धुँआ
जल- जमाव
सुलगता तेल का कुँआ
चारो तरफ
लौदस्पिकर की आवाज़
प्रदूषित पानी
और मंहगे अनाज
सुबह की धूप, हरे- भरे
पेड़ों की छाँव चाहिए ।
जहाँ शेर-बकरी साथ बैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।


हमें नहीं चाहिए
रिश्वत के घरौंदे
जिसमें रहते हों
वहशी / दरिन्दे

मंडी में -
औरत की आबरू बिके
असहायों की आंखों से

रक्त टपके
जहाँ पूज्य हो औरत
हमें वह ठांव चाहिए ।
जहाँ शेर- बकरी साथ बैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।

()रवीन्द्र प्रभात

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

जुगनुओं रोशनी में नहाना फ़िज़ूल

मेरी दो गज़लें आज की युवा पीढी के लिए -
(एक )
अपनी दीवानगी को गंवाना फ़िज़ूल ,
जुगनुओं रोशनी में नहाना फिजूल ।
किस्त में खुदकुशी इश्क का है चलन ,
इश्क दरिया है पर डूब जाना फ़िज़ूल ।
चांदनी रात में चांद के सामने यूँ -
आपका इसकदर रूठ जाना फ़िज़ूल ।
शर्त है प्यार में प्यार की बात हो ,
प्यार को बेवजह आजमाना फ़िज़ूल ।
लफ्ज़ को बिन तटोले हुये ये '' प्रभात ''
बज़्म में कोई भी गीत गाना फ़िज़ूल ।
(दो )
जो शीशे का मकान रखता है ,
वही पत्थर की ज़ुबान रखता है ।
गुम कर-करके परिन्दों के पर ,
बहोत ऊंची उडान रखता है ।
है जो तहज़ीव से नही वाकिफ ,
घर में गीता - कुरान रखता है ।
खोटा चलता उसका ही सिक्का ,
जो अमन की दुकान रखता है ।
अब तो बेटा भी बाप की खातिर ,
घर के बाहर दलान रखता है ।
कहता है खूबसूरत ग़ज़ल जानिब ,
छुपा करके दीवान रखता है ।
बहुत खराब है '' प्रभात '' ये शराब ,
क्यों मौत का सामान रखता है ?
() रवीन्द्र प्रभात

बुधवार, 26 सितंबर 2007

लौटेगी संवेदनाएँ उनकी भी .... ।

आज भी -
रोटी और कविता की
कृत्रिम रिक्तता में खडे
कुछ अतृप्त - अनुभवहीन मानव
करते हैं बात
जन - आंदोलन की

कभी प्रगतिवाद , कभी जनवाद , कभी समाजवाद तो
कभी संस्कृतिवाद से जोड़कर ....!


जिनके पास -
न सभ्यता-असभ्यता का बोध है
और न स्वाभिमान का
कोमल एहसास
जिनके इर्द-गिर्द व्याप्त है
क्रूर अथवा अनैतिक मानवीय
संबेदनाओं का संसार
और पारम्परिक मान्यताओं की त्रासदी ।


प्यारी लगती है उन्हें -
केवल अपनी ही गंदी बस्ती
और बरसात में बजबजाती झोपड़ी
फैले होते आसपास
कल्पनाओं के मकड़जाले
और अधैर्य की विशाल चादर ।
यकीनन -
अपनी टुच्ची दलीलें
और पूर्वाग्रह के घटाटोप से
जूझते हुये सभी
छुप जायेंगे एक दिन
धुंध के सुरमई आँचल में
फिर चुपके से निकल जायेंगे
किसी वियावान की ओर
जीवन के -
सुन्दर मुहावरे की खोज में ।


किसी न किसी दिन
लौटेंगी उनकी भी संवेदनाएँ
रचने के लिए कोई कविता
और करने के लिए विजय-नाद
वर्षों से चली आ रही
अभिव्यक्ति की लडाई का .....।।

() रवीन्द्र प्रभात

मंगलवार, 25 सितंबर 2007

एक कविता उन प्रवासियों के लिए , जो --

एक कविता उन प्रवासियों के लिए , जो अपनी धरती , अपना गांव छोड़कर महज दो आने ज्यादा कमाने की जुगत में खाक छानते हैं सुदूर प्रदेश की , या फिर ग्लैमर की दुनिया में इस क़दर खो जाते हैं कि सुध हीं नहीं रहती अपने -पराये की । जीवन और जीविका के बीच तारतम्य बैठाते- बैठाते गुजर जाते हैं जीवन के ओ सुनहरे पल , जिसे भोगने की चाहत में वेचैन दीखती है तमाम उम्र । चांद को आंखों में उतार लेने की चाहत और सूरज को मुट्ठियों में क़ैद कर लेने की महत्वकांक्षा धरी की धरी रह जाती और माटी के लोथरे की मानिंद खडे दीखते वे भावुकता की चाक पर थाप- दर- थाप टूटते हुये ..... ।

।। तुम लौट आना अपने गांव ।।

जब झूमें घटा घनघोर
और टूटकर बरस जाये
तुम लौट आना अपने गांव
अलाप लेते हुये धानरोपनी गीतों का
कि थ्रेसर - ट्रेक्टर के पीछे खडे बैल
तुम्हारा इन्तजार करते मिलेंगे
कि खेतों में दालानों में मिलेंगे
पेंड़ होने के लिए करवट लेते बीज
अमृत लुटाती -
बागमती की मन्द- मन्द मुस्कराहट
माटी में लोटा-लोटाकर
मौसम की मानिंद
जवान होती लडकियां
पनपियायी लेकर प्रतीक्षारत घरनी
और गाते हुये नंग- धरंग बच्चे
'' काल- कलवती-पीअर -धोती
मेघा सारे पानी दे .... ।''

जब किसी की कोमल आहट पाकर
मन का पोर - पोर झनझना जाये
और डराने लगे स्वप्न
तुम लौट आना अपने गांव
कि नहीं मिलेंगे मायानगरी में
झाल- मजीरा / गीत- जोगीरा / सारंगा -
सदाबरीक्ष/ सोरठी- बिरज़ाभार / आल्हा -
उदल / कज़री आदि की गूँज
मिलेंगे तो बस -
भीड़ में गायव होते आदमी
गायब होती परम्पराएं
पॉप की धून पर
संगीत के नए- नए प्रयोग
हाथ का एकतारा छोड़कर
बंदूक उठा लेने को आतुर लोकगायक
वातानुकुलित कक्ष में बैठकर
मेघ का वर्णन करते कालीदास
और बाबा तुलसी गाते हुये
'' चुम्मा-चुम्मा ....... ।''


तुम लौट आना अपने गांव
कि जैसे लौट आते हैं पंछी
अपने घोसले में
गोधूलि के वक़्त
मालिक के भय से / महाजन की धमकी से
बनिए के तकादों से
कब तक भागोगे
कि नहीं छोड़ते पंछी अपना डाल
घोंसला गिर जाने के बावजूद भी ....... ।


तुम लौट आना अपने गांव
कि तुम्हारे भी लौटेंगे सुख के दिन
अनवरत जूझने के बाद
कि तुम भी करोगे अपनी अस्मिता की रक्षा
सदियों तक निर्विकार
जारी रखोगे लडाई
आखरी समय तक
मुस्तैद रहोगे हर मोर्चे पर
किसी न किसी
बेवास- लाचार की आंखों में
पुतलियों के नीचे रक्तिम रेखा बनकर....... ।


तुम लौट आना अपने गांव
कि नहीं छोड़ती चीटियां
पहाडों पर चढ़ना
दम तोड़ने की हद तक ।
() रवीन्द्र प्रभात



रविवार, 23 सितंबर 2007

बन रही तल्खियाँ , बेटियाँ !




आज दौतर्स डे है यानी विटिया दिवस । यह एक औपचारिकता मात्र है , जिसे निभा दीं जाती है हर वर्ष जैसे - तैसे । हमारा संविधान हमे धर्म , जति , लिंग में विभेद हीनता की आजादी देता है , मगर क्या हमारे समाज ने इसे पूर्णरूपेण अंगीकार किया है ? यदि आपसे पूछा जाये तो आप यही कहेंगे कदापि नही । यह अलग बात है कि आज हर क्षेत्र में हमारी वेटियाँ अग्रणी है , किन्तु भारत की पूरी आबादी का केवल एक - दहाई हिस्सा । यह विडम्बना है , जिसे स्वीकार करते हुये हम शर्म से पानी-पानी हो जाते हैं , कि हमारे इस खुले समाज में आज भी हमारी वेटियाँ दोयम दर्जे में है । वो अधिकार उसे प्राप्त नही है , जिसकी वे हक़दार हैं। आज भी हमारा समाज वेटियों को बेटों की अपेक्षा कम महत्त्व देता है , उसे प्राथमिकताओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता। या चिन्ता का नहीं चिन्तन का विषय है ।



कुछ वर्ष पूर्व मैंने वहुचर्चित '' तंदूर कांड'' से द्रवित होकर एक कविता लिखी थी , जो कतिपय पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता के साथ छापी गयी । आज भी जब मुझे उन पंक्तियों का स्मरण होता है , तो मैं सोचता हूँ कि आज मेरी यह कविता उतनी ही प्रासंगिक है , जितनी कल थी । पंक्तियां देखिए ---



'' बेटियाँ , बेटियाँ , बेटियाँ
बन रही तल्खियाँ , बेटियाँ ।

सुन के अभ्यस्त होती रही,
रात - दिन गलियाँ , बेटियाँ ।


सच तो ये है कि तंदूर में ,
जल रही रोटियाँ , बेटियाँ ।

घूमती है बला रात- भर,
बंद कर खिड़कियाँ , बेटियाँ ।


कौन कान्हा बचाएगा अब,
लग रही बोलियाँ , बेटियाँ ।
आज प्रसंगवश अपनी ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ आप सभी के बीच लेकर आया हूँ , ताकि आप यह महसूस कर सकें कि क्या हम अपनी बेटियों के प्रति ईमानदारी केसाथ कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं , यदि नही तो आज से करना शुरू कर दीजिए,क्योंकि आने वाले कुछ वर्षों में चाह कर भी नही रोक पाएँगे अपनी बेटिओं को समाज के मुख्यधारा में आने से, ये मेरा विश्वास है!


गुरुवार, 20 सितंबर 2007

कैसे - कैसे लोग बसे हैं महानगर में यार ?


ग़ज़ल
शीशमहल हैं शीशे के औ ' पत्थर के हैं द्वार ,
कैसे - कैसे लोग बसे हैं महानगर में यार ?
राधा द्वारे राह निहारे, फिर भी मोहन प्यारे-
चकला - चकला घूम रहे , खोज रहे हैं प्यार ।
हाट -हाट नीलाम चढ़ी प्रेमचंद की धनिया-
और उधर ' होरी ' करता है लमही में चित्कार ।
दूध युरिया, घी में चर्वी, सुर्खी वाली मिर्ची -
गली - मुहल्ले बेची जाती ढोल पीट ,सरकार ।
दूर - दूर तक कोई किनारा नही दिखाई देता-
बीच भंवर में खींचतान करते मांझी - पतवार ।
अस्त -व्यस्त है पूजा- पोखर , घायल ताल- तलैइया,
शायद कोई महानगर से आया गाँव - जबार ।
अस्त हुआ '' प्रभात'' उदय होने से पहले - पहले ,
ख़ौफ़जदा हैं लोग , हिचकते जाने से बाज़ार ।
() रवीन्द्र प्रभात

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

आज अपने आप में क्या हो गया है आदमी ......!


आज अपने आप में क्या हो गया है आदमी ,
जागने का वक़्त है तो सो गया है आदमी ।
भूख की दहलीज़ पर जगता रहा जो रात- दिन ,
चंद रोटी खोजने में खो गया है आदमी ।
यह हमारा मुल्क है या स्वार्थ का बाज़ार है ,
सेठियों के हाथ गिरवी हो गया है आदमी ।
पेट की थी आग या कि बोझ बस्तों का उसे ,
छोड़ करके पाठशाला जो गया है आदमी ।
कुर्सियों की होड़ में बस दौड़ने के बास्ते ,
नफ़रतों का बीज आकर बो गया है आदमी ।

() रवीन्द्र प्रभात



सोमवार, 17 सितंबर 2007

उसीप्रकार जैसे-ख़त्म हो गयी समाज से सादगीआदमी भी ख़त्म हो गयाऔर आदमीअत भी.....!

बहुत पहले-
लिखे जाते थे मौसमो के गीत जब
रची जाती थी प्रणय कीकथाऔर -
कविगण करते थे
देश-काल की घटनाओं पर चर्चा
तब कविताओं मेंढका होता था युवतियों का ज़िस्म....!


सुंदर दिखती थी लड़कियाँ

करते थे लोग

सच्चे मन से प्रेम

और जानते थे प्रेम की परिभाषा....!


बहुत पहले-
सामाजिक सरांध फैलाने वाले ख़ाटमलों की
नहीं उतारी जाती थी आरती
अपने कुकर्मों पर बहाने के लिए
शेष थे कुछ आँसू
तब ज़िंदा थी नैतिकता
और हाशिए पर कुछ गिने - चुने रक़्तपात....!

तब साधुओं के भेष में
नहीं घूमते थे चोर-उचक्के
सड़कों पर रक़्त बहाकर
नहीं किया जाता था धमनियों का अपमान
तब कोई सम्वन्ध भी नहीं था
बेहयाई का वेशर्मी के साथ....!

बहुत पहले-
शाम होत
सुनसान नहीं हो जाती थी सड़कें
गली-मोहल्ले/ गाँव- गिरांव आदि
असमय बंद नहीं हो जाती थी खिड़कियाँ
माँगने पर भी नहीं मिलता था
आगज़ला सौगात
तब दर्द उठने पर
सिसकने की पूरी छूट तीब
और सन्नाटे में भी
प्रसारित होते थे वक़्तव्य
खुलेयाम दर्ज़ा दिया जाता था कश्मीर को
धरती के स्वर्ग का.....!

अब तो टूटने लगा हैं मिथक
चटखने लगी है आस्थाएं
और दरकने लगी हैं
हमारी बची- खुची तहजीव......!

दरअसल आदमी
नहीं रह गया है आदमी अब
उसीप्रकार जैसे-
ख़त्म हो गयी समाज से सादगी
आदमी भी ख़त्म हो गया
और आदमीअत भी.....!

() रवीन्द्र प्रभात

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

अस्पताल, चिकित्सक और दर्द .....

जब -
बीमार अस्पताल की
बीमार खाट पर पडी - पडी
मेरी बूढ़ी बीमार माँ
खांस रही थी बेतहाशा

तब महसूस रहा था मैं
कि, कैसे -
मौत से जूझती है एक आम औरत ।


कल की हीं तो बात है
जब लिपटते हुये माँ से
मैंने कहा था , कि -
माँ, घवराओ नही ठीक हो जाएगा सब ..... ।

सुनकर चौंक गयी माँ एकवारगी
बहने लगे लोर बेतरतीब
सन् हो गया माथा
और, माँ के थरथराते होंठों से
फूट पडे ये शब्द -
"क्या ठीक हो जाएगा बेटा !
यह अस्पताल ,
यह डॉक्टर ,
या फिर मेरा दर्द ........?

गुरुवार, 13 सितंबर 2007

एक ग़ज़ल हिंदी को समर्पित

हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष -

दो- तिहाई विश्व की ललकार है हिंदी मेरी -
माँ की लोरी व पिता का प्यार है हिंदी मेरी ।


बाँधने को बाँध लेते लोग दरिया अन्य से -
पर भंवर का वेग वो विस्तार है हिंदी मेरी ।

सुर -तुलसी और मीरा के सगुन में रची हुई -
कविरा और बिहारी की फुंकार है हिंदी मेरी ।

फ्रेंच , इन्ग्लीश और जर्मन है भले परवान पर -
आमजन की नाव है, पतवार है हिंदी मेरी ।

चांद भी है , चांदनी भी , गोधुली- प्रभात भी -
हरतरफ बहती हुई जलधार है हिंदी मेरी ।

() रवीन्द्र प्रभात


चुप हुये तो हो गए बदनाम क्यों ?


मच रहा है मुल्क में कोहराम क्यों ,
राजपथ पर बुत बने हैं राम क्यों ?
रोज आती है खबर अखवार में ,
लूट, हत्या , खौफ , कत्लेयाम क्यों ?
रामसेतु है जुडा जब आस्था से ,
माँगते फिर भी अरे प्रमाण क्यों ?
सभ्यता की भीत को तुम धाहकर ,
कर रहे पर्यावरण नीलाम क्यों ?
जिनके मत्थे मुल्क के अम्नों - अम्मां,
दे रहे विस्फोट का पैगाम क्यों ?
बोलते हम हो गए होते दफ़न ,
चुप हुये तो हो गए बदनाम क्यों ?
कुछ करो चर्चा सियासी दौर की ,
अब ग़ज़ल में गुलवदन- गुल्फाम क्यों ?
जबतलक पहलू में तेरे है प्रभात ,
कर रहे हो ज़िंदगी की शाम क्यों ?
() रवीन्द्र प्रभात

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

कहता है जोकर..... ।


'' कहता है जोकर सारा जमाना , आधी हकीकत आधा फ़साना ..... । '' एक अरसा बीत गया शोमैन राजकपूर साहब का इंतकाल हुये , किन्तु ''मेरा नाम जोकर '' में फिल्माया गया यह अमर वाक्य तब भी उतना ही प्रासंगिक था , जितना आज है । उन्होने कहा था कि -'' दुनिया एक रंगमंच है और हम उसके किरदार।'' आप रोये, गएँ, मुस्कुराएँ या फिर बसंत आर्य की तरह ठहाका लगाएँ , कहलायेंगे तो जोकर हीं ना ? क्योंकि आज की इस बदलती सदी में हकीकत वयां करने वाला जोकर हीं कहलाता है । आज ब्लोग की दुनिया में अपना सार्थक हस्तक्षेप रखने वाले चाहे शास्त्री जे सी फीलिप हों, परमजीत बाली हों, दीपक भारतदीप हों , उन्मुक्त हों या फिर कोई और सभी इस रंगमंच के किरदार ही तो हैं । चक्कलस वाले अशोक चक्रधर साहब एक एक जमाने से इस रंगमंच पर जोकर की भूमिका का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। समीर भाई '' उडन तशतरी '' पर बैठकर कब कहॉ उड़ जाते हैं और कब कहॉ दिख जाते हैं पता हीं नही चलता । भाई आलोक पुराणिक तो आलोक पुरान बांचने में इतने मशगूल हैं कि उन्हें कोई जोकर कहे या फिर चोकर कोई फर्क नहीं पड़ता । हाँ भाई महावीर कुछ अलग दिखते हैं इस रंगमंच पर । भाई सुनील जोगी का क्या , मस्तराम मस्ती में आग लगे वस्ती में। कहिर छोडिये इन बातों को आयिये असल मुद्दे पर आते हैं । पिछले पोस्ट '' हर शाख पे उल्लू बैठा है ..... । '' की व्यापक प्रतिक्रिया हुई , कुछ मित्रों ने एस एम् एस भेजकर मिलावट खोरो के खिलाफ अभियान चलाने की बात कही, कुछ ब्लोग पर अपनी सकारात्मक टिप्नियाँ प्रकाशित की , तो कईयों ने ई- मेल भेजे। उडन तश्तरी
ने कहा- हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम - गुलिश्ता क्या होगा ?--बिल्कुल सही. अच्छा आलेख । शास्त्री जे सी फिलिप ने कहा-"अब तो देशभक्त और गद्दार में कोई अंतर ही नही रहा। हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम - गुलिश्ता क्या होगा ?"सही कहा। दिल बहुत दुखता है इन बातों से. एक बदलाव जरूरी है। उमा शंकर लोहिया ने कहा- सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है, बार -बार पढ़ने का मन कर रहा है, बेहद उम्दा आलेख के लिए दिल से शुक्रिया. मयंक मिश्रा ने कहा- भाई प्रभात जी,इतनी सारी बातें दिमाग़ में आती कहाँ से है ? बहुत बढ़िया है, बधाइयाँ । भाई साहब आपने तो मुद्दे उठा दिए मगर समाधान नहीं बताया, चलिए समधान मैं बता दे रहा हूं । वाणी माधुर हो, विचार हों शुद्ध,सबके हो मन में ईशा, राम , बुद्ध,न मिलावाट हो और न बनावट हो,हर कोई मुस्कुराए बच्चे या वरिद्ध ।अनैतिकता पर नैतिकता को रख दे इंडियाचलिए बोलते हैं ज़ोर से, चक दे इंडिया । परमजीत वाली ने कहा- हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम - गुलिश्ता क्या होगा ?यही तो है आज का सच। दीपक भारतदीप ने कहा- रवीन्द्र प्रभात जी आपके प्रयास सराहनीय है और में अपने ब्लॉग पर आपका ब्लॉग लिंक कर दिया है। भाई महावीर ने कहा- रवीन्द्रदिल को हिला दिया। थोड़े से शब्दों में देश की बागडोर संभालने वालों का बहुत सही खाका खींचा है। अब तो रक्षक ही भक्षक बन गए हैं। कितना सत्य हैःहर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम - गुलिश्ता क्या होगा?बहुत अच्छा लिखते हो, बधाई स्वीकारें। और मेरे मित्र बसंत आर्य ने कहा कि -रवीन्द्र भाई, बहुत खूब! रोज रोज आपके हुश्न मे निखार आता जा रहा है और नित नये नये रचनाऑं से आपकी निखरती धार का अन्दाजा हो रहा है। बस ये यात्रा ऐसे ही चलते रहनी चाहिए। आपने अक्छा लिखा और पढ कर मुझे किसी का ये शेर याद हो आया- जाने कैसे कैसे लोग ऐसे वैसे हो गये जाने ऐसे वैसे लोग कैसे कैसे हो गये। बधाई हो । और तो और हमारे लखनऊ के एक डॉक्टर साहब प्रो कौसर उस्मान कहते हैं कि- यह सच है कि मिलावट ने हमारे रगों में धीरे - धीरे जहर भरने का कम कर रहा है । देखिए कुछ फैक्ट फीगर आपके सामने रख रह हूँ , शायद आप अवश्य सहमत होंगे । खोया में विजातीय वसा यानी सेचुरेटेद फैट मिला होता है , सेचुरेटेद फैट में कोलेस्ट्रोल ज्यादा होता है , जिसका मानव शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है । सूअर और भैंस की चर्वी में सेचुरेटेद फैट ज्यादा होता है और इनकी चर्वी वनस्पति तेल और देसी घी में आसानी से मिल जाती है । विजतिये वसा से खाना पच नही पाता, मल आंतों में चिपक जाता है । धमनियों में चर्वी जमा हो जाती है । इससे एप्रोजेनिक्स , हृदयाघात , पेट, स्नायु तंत्र के रोगों का खतरा बढ़ जाता है । शरीर में कमजोरी, ऐन्थन, मधुमेह का खतरा बढ़ता चला जाता है । तेलों में अखाद्य तेल यानी नॉन एदिबल तथा आर्जिमों मैक्सिकाना की मिलावट होने से केवल ड्रोप्सी की हीं आशंका नही रहती , अपितु मनुष्य आर्तिओस्क्लोरोसिस से ग्रसित हो जाता है , धम्निया कडी हो जाती है । खाद्य पदार्थों में सोडीयम बाई कर्वोनेट की मिलावट से शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है। अम्ल और छार का संतुलन बिगड़ जाता है। शरीर में ऐन्थन, दिल के दौरे के लक्षण महसूस होने लगते हैं । अर्थात खतरनाक है इन चीजों की मिलावट । लखनऊ की
निहारिका कहती है कि- दवाओं में मिलावट तो मानवता की खिलाफ बड़ा जुर्म है । ऐसे लोग तो देश द्रोही हैं , उन्हें तो वही सजा मिलनी चाहिऐ जो आतंकवादी को दीं जाती है। भाई मैंने तो प्रशंगवश इस आलेख को प्रकाशित किया था , क्योंकि एक पखवारे पूर्व लखनऊ- वरावंकी सीमा पर एक परिवार के तीन लोग ड्रोप्सी की चपेट में आ गए । एक तो गरीबी की मार , ऊपर से मिलावट का तांडव । मैं काफी व्यथित हुआ यह सब देखकर और यह व्यंग्य उसी का प्रतिफलन है । आप सभी ने सराहा इसके लिए आप सभी का बहुत - बहुत शुक्रिया, आभार .../ ।

शनिवार, 8 सितंबर 2007

हर शाख पे उल्लू बैठा है, अन्जामे - गुलिश्ता क्या होगा ?

'' हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था , शौक़ से डूबें जिसे भी डूबना है '' दुष्यंत ने आपातकाल के दौरान ये पंक्तियाँ कही थी , तब शायद उन्हें भी यह एहसास नहीं रहा होगा कि आनेवाले समय में बिना किसी दबाब के लोग स्वर्ग या फिर नरक लोक की यात्रा करेंगे । वैसे जब काफी संख्या में लोग मरेंगे , तो नरक हौसफूल होना लाजमी है , ऐसे में यमराज की ये मजबूरी होगी कि सभी के लिए नरक में जगह की व्यवस्था होने तक स्वर्ग में ही रखा जाये । तो चलिए स्वर्ग में चलने की तैयारी करते हैं । संभव है कि पक्ष और प्रतिपक्ष हमारी मूर्खता पर हँसेंगे , मुस्कुरायेंगे , ठहाका लगायेंगे और हम बिना यमराज की प्रतीक्षा किये खुद अपनी मृत्यु का टिकट कराएँगे । जी हाँ , हमने मरने की पूरी तैयारी कर ली है , शायद आप भी कर रहे होंगे , आपके रिश्तेदार भी ? यानी कि पूरा समाज ? अन्य किसी मुद्दे पर हम एक हों या ना हों मगर वसुधैव कुटुम्बकम की बात पर एक हो सकते हैं , मध्यम होगा न चाहते हुये भी मरने के लिए एक साथ तैयार होना । तो तैयार हो जाएँ मरने के लिए , मगर एक बार में नहीं , किश्तों में । आप तैयार हैं तो ठीक , नहीं तैयार हैं तो ठीक , मरना तो है हीं , क्योंकि पक्ष- प्रतिपक्ष तो अमूर्त है , वह आपको क्या मारेगी , आपको मारने की व्यवस्था में आपके अपने हीं जुटे हुये हैं। यह मौत दीर्घकालिक है , अल्पकालिक नहीं । चावल में कंकर की मिलावट , लाल मिर्च में ईंट - गारे का चूरन, दूध में यूरिया , खोया में सिंथेटिक सामग्रियाँ , सब्जियों में विषैले रसायन की मिलावट और तो और देशी घी में चर्वी, मानव खोपडी, हड्डियों की मिलावट क्या आपकी किश्तों में खुदकुशी के लिए काफी नहीं ?भाई साहब, क्या मुल्ला क्या पंडित इस मिलावट ने सबको मांसाहारी बना दिया , अब अपने देश में कोई शाकाहारी नहीं , यानी कि मिलावट खोरो ने समाजवाद ला दिया हमारे देश में , जो काम सरकार साठ वर्षों में नहीं कर पाई वह व्यापारियों ने चुटकी बजाकर कर दिया , जय बोलो बईमान की ।
भाई साहब, अगर आप जीवट वाले निकले और मिलावट ने आपका कुछ भी नही बिगारा तो नकली दवाएं आपको मार डालेगी । यानी कि मरना है , मगर तय आपको करना है कि आप कैसे मरना चाहते हैं एकवार में या किश्तों में? भूखो मरना चाहते हैं या या फिर विषाक्त और मिलावटी खाद्य खाकर? बीमारी से मरना चाहते हैं या नकली दवाओं से ? आतंकवादियों के हाथों मरना चाहते हैं या अपनी हीं देशभक्त जनसेवक पुलिस कि लाठियों , गोलियों से ? इस मुगालते में मत रहिए कि पुलिस आपकी दोस्त है। नकली इन्कौन्तर कर दिए जायेंगे , टी आर पी बढाने के लिए मीडियाकर्मी कुछ ऐसे शव्द जाल बूनेंगे कि मरने के बाद भी आपकी आत्मा को शांति न मिले ।
अब आप कहेंगे कि यार एक नेता ने रवरी में चारा मिलाया, खाया कुछ हुआ, नही ना ? एक नेतईन ने साडी में बांधकर ईलेक्त्रोनिक सामानों को गले के नीचे उतारा , कुछ हुआ नही ना ? एक ने पूरे प्रदेश की राशन को डकार गया कुछ हुआ नही ना ? एक ने कई लाख वर्ग किलो मीटर धरती मईया को चट कर गया कुछ हुआ नही ना ? और तो और अलकतरा यानी तारकोल पीने वाले एक नेता जीं आज भी वैसे ही मुस्करा रहे हैं जैसे सुहागरात में मुस्कुराये थे । भैया जब उन्हें कुछ नही हुआ तो छोटे - मोटे गोराख्धंदे से हमारा क्या होगा? कुछ नही होगा यार टेंसन - वेंसन नही लेने का । चलने दो जैसे चल रही है दुनिया । भाई कैसे चलने दें , अब तो यह भी नही कह सकते की अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता । क्योंकि मिलावट खोरो ने कुछ भी ऐसा संकेत नही छोड़ रखा है जिससे पहचान की जा सके की कौन असली है और कौन नकली ?
जिन लोगों से ये आशा की जाती थी की वे अच्छे होंगे , उनके भी कारनामे आजकल कभी ऑपरेशन तहलका में, ऑपरेशन दुर्योधन में, ऑपरेशन चक्रव्यूह में , आदि- आदि में उजागर होते रहते हैं । अब तो देशभक्त और गद्दार में कोई अंतर ही नही रहा। हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम - गुलिश्ता क्या होगा ?

शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

मौन है क्यों कुछ तो बता लखनऊ शहर ?




चाहे लखनऊ हो , दिल्ली हो या फिर मुम्बईसुनने में रोमांच पैदा करता है महानगर , लेकिन जो महानगर में निवास करते हैं उनसे पूछिए महानगर की त्रासदी का रहस्य । भागदौड़ एवं आपाधापी भरा जीवन, प्रदुषण का दुष्परिणाम झेलता जीवन , बडे ढोल में बड़ी पोल खोलता जीवन , भीड़ की चक्रव्यूह में उलझा हुआ जीवन । जीवन जैसे धुँआ पीने की मशीन , जैसे किश्तों में खुदकुशी करने का सबब । चलते कंधे छिलते , सांस लेने को धुँआ , पीने को विषैला जल और आकाश को एक तक देखने को तरसती आँखें । केवल दिल्ली , मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई ही नहीं भरत में लगभग पचीस के आसपास शहरें हैं जो तेजी से अंगराई लेते हुए महानगरीये फेहरीश्त में शामिल होने को वेचैन दीख रहें हैं, मगर विकास के नाम पर वही ढाक के तीन पात ।

वैसे अन्य महानगरों की बात करें तो चक्कलस वाले चक्रधर जीं दिल्ली के बारे में , ठहाका वाले भाई बसंत आर्य मुम्बई के बारे में , उड़न तसतरी वाले समीर भाई कनाडाई महानागरिये जीवन के बारे में मुझसे बेहतर बता सकते हैं । और भी कई ब्लोग वाले हैं जो कोलकाता , चेन्नई आदि महानगरों से जूड़े हैं जो अपने शहर की त्रासदी को बाखूबी बयां कर सकते हैं । अन्य महानगरों के बारे में मैं इमानदारी के साथ कुछ भी नही कह सकता , कयोंकि मैं लखनऊ में हूँ भाई ,यही कह सकता हूँ , कि - कोई सागर दिल को बहलाता नहीं। लीजिये प्रस्तुत है मेरे शहर की पीडा को वयां करती मेरी एक कविता-


तुझपर नहीं होता है क्या
प्रदूषणों का असर
मौन है क्यों
कुछ तो बता लखनऊ शहर ?
बढती हुई जनसँख्या
कटते हुये पेंड़
है सडकों पर पडे हुये
कूड़े- करकट के ढ़ेर
घुलता नहीं क्या
तेरी धमनियों में
गंदगी काजहर
कुछ तो बता लखनऊ शहर ?
आ रही नदी- नालियों से
कड़वी दुर्गन्ध
लौद्स्पीकर की आवाज़
होती नही मन्द
देखता हूँ रोगियों को
आते- जाते / इधर- उधर
कुछ तो बता लखनऊ शहर ?
धुल- धुआं / भीड़- भाड़
शोर- शरावा / चीख- पुकार
रातों की चेन कहाँ
मुआ मछरों की मार
भाग- दौड़/ आपा- धापी में
हो रहा जीवन - वसर
कुछ तो बता लखनऊ शहर ?
उनमादियों के नारे
गर्म हवा की चिमनियाँ
दे रही पैगाम ये
खोलना मत खिड़कियाँ
सायरन की चीख से क्यों
मन में उठ जाता है डर
कुछ तो बता लखनऊ शहर ?
रवीन्द्र प्रभात






सोमवार, 3 सितंबर 2007

तुझमे है तासीर मोहब्बत की भीतर तक-शायर ग़ालिब- मीर तुम्हारी आँखों मे है.


पिछले दिनों ठहाका में एक व्यंग्य प्रकाशित हुआ सांवली । मैंने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा था कि - भाई बसंत, किसी ने ठीक ही कहा है, कि - ज़िस्म की सुंदरता उस मृगमारिचिका की तरह है, जो छल, कपट और भ्रम का भान कराती हैज़वकि मन की सुंदरता वह पवित्र गंगाजल है जो अमृत का रसपान कराती है. मैं यदि बासु की जगह होता तो यही कहता, कि चंपा - ख्वाबों की ताबीर तुम्हारी आँखों में है, शोख जवां कश्मीर तुम्हारी आँखों मे है. तुझमे है तासीर मोहब्बत की भीतर तक- शायर ग़ालिब- मीर तुम्हारी आँखों मे है.आपकी कहानी बार- बार पढ़ने योग्य है, साथ ही व्यंग्य की मिलावट कहानी के भीतर की सुंदरता काएहसास करा रही है. प्रतिक्रिया में महज चार शेर कहने के बाद मैं पूरी ग़ज़ल लिखने के लिए प्रेरित हुआ । कृतज्ञ हूँ भाई बसंत आर्य का , जिनके व्यंग्य ने मुझे ग़ज़ल के लिए प्रेरित किया । प्रस्तुत है पूरी ग़ज़ल -
ख्वाबों की ताबीर तुम्हारी आंखों में है,
शोख ज़वां कश्मीर तुम्हारी आंखों में है ।
तुझमें है ताबीर मोहब्बत की भीतर तक,
शायर गालीब- मीर तुम्हारी आंखों में है।
सुबहे काशी का मंजर ओ शाम अवध का,
क्या सुन्दर तस्वीर तुम्हारी आंखों में है।
छल्काये अंगूरी नेह लुटाये हौले से,
रांझा की ओ हीर तुम्हारी आंखों में है।
ताजमहल का अक्श नक्श एलोरा का,
प्यार की हर जागीर तुम्हारी आंखों में है।
भरी उमस में पिघल-पिघल के वरसे जो,
हिमांचल की पीर तुम्हारी आंखों में है।
बूँद- बूँद को तरस उठे जो देखे बरबस,
राजस्थानी नीर तुम्हारी आंखों में है।
गोरी गुजरती गुडिया शर्मीली सी,
सागर सी गम्भीर तुम्हारी आंखों में है।
चांद सलोना देख-देख के सागर झूमें,
गोया की तासीर तुम्हारी आंखों में है।
कान्हा नाचे रस रचाये छल्काये ,
रोड़ी- रंग- अवीर तुम्हारी आंखों में है।
तीरुपती की पावन मूरत सूरत सी,
दक्षिण की प्राचीर तुम्हारी आंखों में है।
तामील की खुशबू कन्नड़- तेलगू की चेरी,
झाँक रही तदबीर तुम्हारी आंखों में।
खजुराहो की मूरत जैसी रची- वासी हो,
छवी सुन्दर - गम्भीर तुम्हारी आंखों में।
गीत बिहारी गए , बजे संगीत रवीन्द्र,
भारत की तकदीर तुम्हारी आंखों में है।
......रवीन्द्र प्रभात

 
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