रविवार, 21 अक्टूबर 2007

वरदायनी नव देवियों का साकार रुप होती हैं ये कन्याएं , गुप्ता जी ने महसूस किया पहली वार


गुप्ता जी और उनकी धर्मपत्नी पूरे नौ दिनों तक उपवास रखकर माता दूर्गा की याचना करते और हवं के पश्चात् कन्या कुमारियों को जिमाकर हीं अन्न ग्रहण करते । गुप्ता जी स्वयं बारी-बारी से नौ कन्याओं के चरण धोते , कलावा बांधते , तिलक करते , भोग लगाकर नए से नए उपहार देते । फिर कन्जिकाओं से आशीर्वाद मांगते-देवी! हमारा कल्याण करो। वैसे गुप्ता जी के नए उपहारों की प्रतीक्षा हमारे मोहल्ले की कन्याएं पूरे छ: मास तक करती यानी चैत्र नवरात्र के बाद अश्विन नवरात्र तक फिर अश्विन नवरात्र से लेकर चैत्र नवरात्र तक। यह सिलसिला चलता रहता, मगर गुप्ता जी कल्याण होता ही नहीं । हालांकि कोई नही जन पाया अज तक कि माता दूर्गा से आख़िर मांगते क्या हैं हमारे गुप्ता जी और यह भी समझ में नही आता किसी को कि आखिर इतनी याचानाओं के बाद भी मातारानी उनपर प्रसन्न क्यों नही होती? भाई, उनकी मुरादें आख़िर क्या है ये या तो गुप्ता जी जानते हैं या फिर माँ भगवती स्वयं । लोग कहते हैं कि गुप्ता जी ने काली कमाई खूब की , भाई पेशा ही ऐसा था । एक्साईज डिपार्टमेंट में बडे बाबू । कहते हैं गुप्ता जी कि क्या करें भाई लोग जबरदस्ती थमा देते हैं , ससुरी पैसा भी ऐसी चीज है कि ना कहने का मन नही करता।
मैं नया -नया आया था विंध्याचल से स्थानांतरित होकर , ठीक से जान- पहचान भी नही हुई थी गुप्ता जी से, मगर मेरी विटिया उरवशी तबतक आस- पड़ोस की चहेती बन चुकी थी । उसकी शरारतों का किस्सा ऍम हो चला था । किसके घर में क्या पक रह है , कौन कैसा है और कहाँ-कहाँ किसके कैसे संबंध है , सबकुछ उसकी जुबानी थी । उसकी हाजीरजबाबी के कायल हो चुके थे मोहल्ले वाले ।
महानवमी को कार्यालय में अवकाश था, घर के वरामदे में बैठा चाय की चुस्कियों के साथ अखवार के फीचर में डूबा था कि अचानक किसी व्यक्ति के आने की आहात महसूस हुई । सामने देखा तो दोनों कर जोड़े दांत निपोड़े एक मायावी व्यक्ति मेरे सामने खड़ा था । मैंने कहा- '' जी आप ?" उसने कहा- '' नाचीज को महेन्द्र गुप्ता कहते हैं , आपका पड़ोसी हूँ ... । '' '' आईये-आईये - बैठिये ! बताईये कैसे अना हुआ?'' मैंने पूछा। '' बिटिया को ठीक दस वजे भेज दीजियेगा, आज कन्या पूजा है न इसलिए !'' उन्होने बड़ी मासूमियत के साथ कहा । '' अच्छा किधर रहते हैं आप?'' मैंने इतना पूछा ही था कि उर्वशी घर से बाहर निकली । मैंने कहा- '' बेटा, थोडी देर बाद चले जाना गुप्ता जी के यहाँ , जीमने बुलाबा लेकर आयें हैं..... ।'' '' इससे क्या होता है पापा?'' उसने मासूमियत भरी निगाह डालते हुए कहा । मैंने कहा-''कन्या जिमाने से माँ प्रसन्न होती है । '' इतना कहना ही था कि बिना सोचे समझे बालपन में उसने तपाक से कहा कि-'' और कन्या को गली देने से भी माँ प्रसन्न होती है?'' मैं भौचक उसे देखता ही रह गया और झून्झलाते हुए कहा कि '' ऐसे सवाल क्यों कर रही हो बेटा?'' उसने हंसते-हंसते कहा कि '' गुप्ता अंकल बहुत गंदे हैं पापा,ये अंटी को भी बात -बात में गली देते हैं और अपनी बिटिया को भी । और पापा जानते हैं गुप्ता अंकल अंटी को मरते भी हैं , मैंने अपनी आँखों से देखा है। '' अब तो गुप्ता जी के लिए काटो तो खून नही वाली स्थिति उत्पन्न हो गयी, बेचारे बोले भी तो क्या बोले... । फिर मैंने ही कहा कि '' बेटा, अंटी तो अच्छी है , ओ तो अंकल को गाली नही देती , अंटी ने तुम्हे बुलाया है चले जाना ।''
'' नही पापा,अंटी भी अच्छी नही है,मार खाती रहतीं हैं और चिल्लाती भी नही , मैं अगर अंटी की जगह पर होती तो खूब जोर-जोरसे चिल्लाती ... । '' उसने मासूमियत भरे अंदाज़ में कहा। बिटिया की सच वयानी अन्दर तक चूभ गयी गुप्ता जी को , मगर गुप्ता जी ठहरे बेहया किस्म के आदमी , गोद में बिटिया को उठाते हुए कहा कि '' बेटा! शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि '' नारी धर्म केवल पति सेवा ... । '' यह सुनने के बाद उस अवोध बच्ची की तुतली जुवान से जो तुकबंदी हुई वह किसी को भी झकझोड़ने हेतु काफी थी। बिटिया ने तपाक से कहा कि '' अंकल! क्या पुरुष धर्म केवल नारी को गली देना ?''
फिर क्या था गुप्ता जी इसकदर निरूत्तर हुए कि उनके पास कोई जवाब शेष नही था , मुँह लटकाए जाने लगे तभी बिटिया ने कहा कि ''एक शर्त पर मैं आउंगी जिमने । '' गुप्ता जी के चहरे पर एक हल्की सी लालिमा दौड़ गयी , उन्होने पूछा -'' क्या शर्त है बेटा?''
''आप अब कभी अंटी को गली नही देंगे और मारेंगे नही , यह वादा कीजिए तब ... । '' गुप्ता जी नत मस्तक हो गए बिटिया की जीद के आगे । उन्होने वादा किया और निभाया भी । आज वे मेरे सबसे अच्छे मित्रों में से हैं । अज भी गुप्ता जी यह महसूस करने से नही हिचकिचाते कि वर्दायानी नव देवियों का साकार रुप होती हैं ये कन्यायें। कहते हैं गुप्ता जी कि '' उर्वशी के द्वारा बालपन में की गयी टिप्पणियों से मुझे पहली बार आभास हुआ और वर्षों से की जा रही हमारी पूजा का प्रतिफल मिल गया उस दिन..... । ''

5 comments:

  1. वाह भई, बिटिया तो बहुत गजब का काम कर गई बचपन में ही. निश्चित ही उसे माँ का विशेष आशीष प्राप्त है. हमारा भी स्नेह कहें.

    अच्छा संदेश देता संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा. बधाई.

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  2. भगवान करें ऐसी बिटियों की बहुतायत हो - और लोगों की सोच का नजरिया बदले।

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  3. प्रिय रवीन्द्र जी,
    एक बार फिर वेहद सुंदर और सामयिक प्रस्तुति हेतु बधाईयाँ! इसमें कोई संदेह नही कि वर्दायनी नाव देवियो का साकार रूप होती है ये कन्याएँ. पर साल में दो बार केवल .
    शेष 11 महीने क्या होता है, इसका अनुमान इस मातृ शक्ति की घटती जेया रही संख्या से लगाया जेया सकता है. जिनको साँसे
    मिल जाती है, वे हिंसा का शिकार हो रही है. इस पुरूष प्रधान समाज में लोग और कुच्छ जाने या न जाने पर वेहायाई के साथ
    यह दलीलें ज़रूर देते हैं कि'' ढोल, गँवार, शूद्र, पशू, नारी, ये सब तारना के अधिकारी....!'' भारत ही नही, अपितु भारत के बाहर भी
    ऐसे बहुत उदाहरण मिलाए हैं. बाहर के देशों में '' टॉमस फूलर'' जैसे पादरियों की युक्ति का ख़ूब पालन होता है-'' ए वुमैन , ए डॉव्ग,ऐंड ए वालनट ट्री, द मोर यू बीट देम, द बेतार दे वी!'' यानी कि स्त्री, कुता और अखरोट का पेंड जितना पीटेगा उतना बेहतर
    वैसे यह बहस का मुद्दा है, मगर उर्वशी ने जो कहा वह प्रशंसनीय है, ऐसी बिटिया हैर घर में हो जाए तो तस्वीर ही बदल जाएगी हमारे समाज की.

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  4. रवीन्द्र जी बहुत ही बड़िया लेख , इतने रोचक ढ़गं से आप ने अपनी बात कही है कि बस मन बांध लेता है। आप मेरे ब्लोग पर आये और आओ को लेख पंसद आया इस के लिए यहीं धन्य्वाद दे रही हूँ क्यों कि मेरे पास आप का ई-मेल पता नहीं है । दोबारा आप आयेगे ऐसी आशा करती हूँ, कृप्या अपना ई-मेल पता जरुर दे दें। शुक्रिया

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  5. लोगों को अब अपना नजरिया बदलना चाहिऐ
    दीपक भारतदीप

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