शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2007

एक कतरा जिन्दगी जो रह गयी है, घोल दे सब गंदगी जो रह गयी है ।


गज़ल-


एक कतरा जिन्दगी जो रह गयी है ,
घोल दे सब गंदगी जो रह गयी है।

भीख देगा कौन तुझको, ये बताना-
तुझमें ये आवारगी जो रह गयी है ?

आंख से आँसू छलक जाते अभीतक,
इश्क में संजीदगी जो रह गयी है
चाँदनी में घूमता है रात-भर वह,
चाँद में दोशीजगी जो रह गयी है
बेवसी की बात करना छोड़ दे अब,
ख़ुदगर्ज सी ये बंदगी जो रह गयी है !
सर कलम कर मेरा, खंजर फैंक दे ,
आंख में शर्मिन्दगी जो रह गयी है
फासला 'प्रभात' से है इसलिए बस,
आपकी नाराजगी जो रह गयी है ।

() रवीन्द्र प्रभात
( कॉपी राइट सुरक्षित )

9 comments:

  1. बेवसी की बात करना छोड़ दे अब,
    ख़ुदगर्ज सी ये बंदगी जो रह गयी है !

    आपकी कलम आपसे नाराज़ रहने ही कहां देती है ! दाद कबूल कीजिए ।

    संजय गुलाटी मुसाफिर

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  2. आपकी गजल अच्छी लगी. कहना मुश्किल है कि आपका गद्य ज्यादा अच्छा है या पद्य . आप दोनो ही विधा मे कमाल करते है. करते रहिए. हमारी ही नही काफी लोगो की शुभकामनाये आपके साथ है.

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  3. आलोक भाई,
    ग़ज़लों और कविताओं में प्रयुक्त होने वाले शब्द और शब्दों के पर्याय कई अर्थ छोड़ते हैं, कहीं- कहीं शब्दार्थ से ज़्यादा महत्व उसका भावार्थ होता है, बहुत सुंदर प्रश्न किया है आलोक भाई,दोशीजगी यानी ? इस ग़ज़ल में दोशीजगी कॅ अभिप्राय
    ''कुँवारापन'' से है, यहशब्द अरवी भाषा से लिया गया है. आपकी जिज्ञाशा हेतु आभार!
    आशा है आप इसीप्रकार अपना स्नेह- संपर्क बनाए रखेंगे.




    मेरे ब्लोग पर आने का बहुत बहुत धन्यवाद्।

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  4. शुक्रिया, जवाब देने का, और शब्दार्थ पूछने पर न झुँझलाने का!

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  5. बहुत बढिया प्रस्तुति.
    दीपक भारतदीप

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