बुधवार, 31 अक्टूबर 2007

....न उसने कुछ कहा, न मैंने पहल की !

किसी शायर ने ठीक ही कहा है- " क्यों जिन्दगी में अपने जीने के अंदाज़ छोड़ दें, क्या है हमारे पास इस अंदाज़ के सिवा।" दरअसल जिन्दगी में इतने रंग , इतने अंदाज़ , इतने एहसास हैं और वह भी इतने जुदा - जुदा कि कोई क्या कुछ कहे . हर रंग , हर अंदाज़ की अपनी छटा है , हर एक का उस पर हक है , क्योंकि वह उसकी सृष्टि , उसका स्वप्न है और हर पल वह उसे पाने के लिए ललकता है .
लगभग पांच वर्ष पहले प्रशांत की एक महिला मित्र हुआ करती थी, नाम था कामिनी . बडे सुन्दर विचार थे उसके , बड़ी प्यारी- प्यारी बातें किया करती थी . उसकी बातें प्रशांत को बरबस खींचती थी अपनी तरफ. उसके विचार प्रशांत को चर्च के घंटे की तर्ज़ पर गढे गए संगीत सा महसूस होता था , कभी मंदिरों की आरती तो कभी मस्जिदों के अजान सा . बहुत पवित्र रिश्ता था उसका उसके साथ . कामिनी के उम्दा ख्यालों का कायल था वह . जब कभी दोनों मिलते थे तो जी भर कर बातें करते , घंटों तक खोये रहते विचारों की मटरगश्ती में . प्रशांत मन ही मन चाहता था उसे पर शायद उसके उम्दा विचारों के आगे खुद को बौना महसूस करता , इसलिए अपने प्यार का इजहार नही कर सका और न प्रस्ताव ही रख सका शादी का .
समय का पहिया चलता रहा , दोनों को दरकार थी नौकरी की , दोनों को चिंता थी भविष्य संवारने की . दोनों जुदा हो गए जीवन और जीविका के बीच संतुलन बैठाने के चक्कर में और सालों बाद मिले भी तो कुछ इस तरह -
प्रशांत एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान में जन सम्पर्क अधिकारी हो गया , बॉस से अच्छे संवंध थे , एक दिन बॉस ने कहा कि - " प्रशांत , आज मेरे एक मित्र की एन्वार्सरी पार्टी है होटल अवध क्लार्क में और मैं नहीं जा पाऊंगा व्यस्तता के कारण , आप चले जाओ !" प्रशांत को ऐसी हाई प्रोफाईल पार्टियों में जाना अछा नही लगता , मगर नौकरी की मजबूरी थी सो उसे न चाहते हुए भी उस पार्टी में जाना पडा .
लखनऊ के उस बडे होटल में चल रही शानदार पार्टी में मित्तल साहब के आते ही जैसे तूफ़ान आ गया . मित्तल साहब की बात अलग थी , नाबावी ठाट और मुँह में पान की लाली . उम्र वेशक सत्तर को पार कर चुकी थी , पर दिल अभी सत्रह का ही था .

लेकिन पार्टी में उठा तूफ़ान मित्तल साहब की वजह से नही , वल्कि उस कमसीन युवती की वज़ह से था , जो मित्तल साहब के कांपते बूढे हांथों में अपनी गोरी बाँहें डाल बड़ी शान से चली आ रही थी . शायद अपने हाव - भाव से कहना चाह रही हो कि मैं भी एक करोड़पति की बीबी हूँ , दूसरी हुई तो क्या हुआ .
सालों बाद देखा था कामिनी को वह आज , बाहर से चहचहाती किन्तु भीतर ही भीतर धुँआती हुई . भौंचक रह गया प्रशांत उसे देख कर और मन ही मन सोचने लगा कहाँ गए कामिनी के वह आदर्श ? क्या यही ख्वाहिश थी कामिनी की वर्षों पहले ?
उस भीड़ में इधर - उधर घूमती हुई कामिनी की आँखें अचानक प्रशांत की आंखों से टकडाई और झुक गयी शर्म से अनायास ही . कुछ कहने के लिए आगे बढ़ी फिर ठिठक गयी यह सोचकर कि शायद मित्तल साहब को बुरा लगे किसी नवजवान से मिलते हुए .

होटल के कोने में बैठा प्रशांत यही सोचता रहा था कि " पैसों और एशोआराम की खोखली चकाचौंध के चक्कर में यह कैसा संतुलन ? कल जब मित्तल साहब के पाँव कब्र में भीतर तक धंस जायेंगे तो बेचारी कामिनी अपने करोड़पति शौहर की दूसरी बीवियों की तरह किसी फ्लैट में पडी रहेगी किश्तों में खुदकुशी करती हुई . भगवान् करे ऐसा न हो.....बेचारी ! "
जब प्रशांत सोच के समंदर से बाहर निकला तो कामिनी जा चुकी थी और पार्टी बेजान सी हो चली थी . वह बिना कुछ खाए - पिए , बिना किसी से बात किये होटल से बाहर आ गया और अपनी कार की पिछली सीट पर धम्म से गिरा, मन ही मन बुदबुदाते हुए कि - " न उसने कुछ कहा , मैंने पहल की ....! "
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7 comments:

  1. बहुत सही चित्रण किया है आज के आधुनिक समाज का।आज धन के सामने सभी रिश्ते नाते बौनें हो चुके हैं।

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  2. अच्छा प्रवाहमान चित्रण. बहुतेरे किस्से हैं आसपास नजर के दायरे में ऐसे. क्या किजियेगा...सबकी अपनी सोच और अलग अलग अंदाज.

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  3. प्रेम और पैसे में प्राथमिकता तय करने में बहुत लोग गड़बड़ा जाते हैं। मैं युवती को दोष नहीं दूंगा।

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  4. ये प्रशांत है या प्रभात है कुछ भ्रम सा होरहा है . लखनऊ शहर , रात की पार्टी , आपकी मौजूदगी. पता ही नही चल रहा कल्पना कितनी है और हकीकत कितनी.

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  5. यही सच्चाई है आज के युग की. प्रेम और पैसे में प्राथमिकता तय करने में सभी गड़बड़ा जाते. हालत तो ये है की प्रेम अब प्राथमिकता रह ही नही गया है. गौर से अपने आस-पास और अपने आप को अगर हम देखें तो मेरी बात सही लगेगी. आपने वास्तव मे बहुत ही अच्छा चित्रण किया है.

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  6. आपने अपनी इस रचना से दिल को छू लिया,
    दीपक भारतदीप

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