शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

आदाब से अदब तक, यही है लखनऊ मेरी जान !

लोग कहते हैं कि जहाँ अदब करवट ले वही अवध है , यानी वही लखनऊ है ....सूरज में एक अलग प्रकार की लाली महसूस करता हुआ शहर.....फिजाओं में तहजीब की महक घोलता हुआ शहर...हवाओं में सुर तैरते हुए....पानी में इबारतें बिखरी हुई....जमीन पर चांदनी उतरती हुई....लहजे में चाशनी और आवाज़ में गरज....अंदाज़ ज़रा जुदा है, महसूस करके देखिए!
कल मेरे एक कवि मित्र मुझसे मिलने मेरे गरीबखाने में तशरीफ लाये. नाम का उल्लेख करना मैं मुनासिब नहीं समझ रहा हूँ, हो सकता है उन्हें बुरा लगे. जब मैंने लखनऊ आने का प्रायोजन पूछा तो उन्होने कहा " लखनऊ महोत्सव देखने आया था सोचा आप से मिलता चलूँ." ये जनाब हैं तो उत्तरप्रदेश के मगर अपना आशियाना बना लिया है मुम्बई में. मैंने पूछा-" क्या देखा लखनऊ महोत्सव में ?"
उन्होने कहा-" भाई ! देखना क्या है, एक विशालकाय गेट है इमामबाडे सरीखा . सफ़ेद रंग से दमकते इस गेट पर लखनवी गुम्बदों की दीदार कराती हुई मीनारें हैं . कंगूरों से उसकी सजावट की गयी है . मेन बैक गेट को आलमबाग गेट की तर्ज़ पर डिजाइन किया गया है. बिस्कुटी रंग के मेन गेट पर शाही निशान के तौर पर दो मछलियाँ बनी है. मेन गेट के सीध में मुख्य स्टेज है. पार्किंग में झांसी की रानी की झांकी. फिजाओं में स्थानीय कलाकारों के द्वारा तैयार किये गए जोशीले तराने .....और कुछ तो बस वही जो अन्य मेले में देखने को मिलता है...!"
मैंने कौतुहल वश पूछा कि " क्या महोत्सव सुरों सा धड़कता हुआ महसूस नहीं हुआ ?"
उन्होने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- " भाई! लोग कहते हैं कि इस शहर की जुवान सुरीली है... फिर भला ये सुर महोत्सव में क्यों नहीं गूंजेंगे...!" इतना कहकर उन्होंने ठहाका लगाया और पलटकर उछाल दिया एक प्रश्न कि-"भाई ! यह बताओ बिगत दस-बीस वर्षों में लखनऊ काफी बदल गया है, क्या अभी भी यहाँ के लोगों में वही तहजीब ज़िंदा है ?" मैंने कहा -" क्यों नही , यार मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि व्यक्ति का नेचर और सिग्नेचर कभी नहीं बदलता, वैसे भी इस शहर ने अपने नेचर से हीं पूरी दुनिया में अपना मुकाम बनाया है ....!"
उन्होने कहा कि " भाई ! मैं आपकी बातों से इत्तेफाक नही रखता , कोई और तर्क दो तो बात बने ....!"
मैंने कहा - " हाँथ कंगन को आरसी क्या....चलिए चलते हैं आपके साथ घुमते हैंलखनऊ ....!" तत्क्षण उन्होने अपनी सहमति दे दी और हम निकल पड़े आदाब से अदब की ओर...!लखनऊ घुमने के क्रम में मैं स्वयं अपनी मारुति कार ड्राइव कर रहा था और मेरे बगल में बैठे थे मेरे मुम्बईया मित्र . उन्होने कहा - भाई साहब! जब हम लखनऊ शहर की सैर पर निकल हीं चुके हैं तो अपने सी डी प्लेयर में उमराँव जान का गाना लगाईये ....!" मैंने पूछा -" नई या पुरानी ?" उन्होने कहा - " रेखा वाली...!" मैंने कहा- " क्यों एश्वर्या वाली क्यों नहीं ....!" जनाब झेंप गए एकवारगी .
नोंक-झोंक के क्रम में हीं हम पहुंचे पुराने लखनऊ का नक्खास मोहल्ला . बेहद शांत और तहजीब से लबरेज़ . गाड़ और चूने की पुरानी इमारतें, लखनवी शानो-शौकत की याद ताज़ा कराती गौरवशाली अतीत की जीती- जागती तस्वीर . संगमरमरी दीवार , नक्काशीदार दरवाज़े , संकरी और घुमावदार गलियाँ नजाकत और नफासत का एहसास कराती हुई . धीमी चलती हुई कार के भीतर सांय-सांय करती हवाओं में घुली फिश फ्राई और चिकन करी की महक जैसे हीं मेरे मित्र की नाक को स्पर्श करती हुई निकली, चौंक गया वह एकवारागी और झटके से कार रोकने हेतु इशारा करते हुए कहा कि -" भाई ! गाडी रोको , पहले मैं विरयानी खाऊंगा फिर आगे बढूँगा ....!"
जैसे हीं मैंने ब्रेक लगाई , अनायाश हीं ओवरटेक करता हुआ एक मोटर साइकिल सवार मेरी कार से टकराते हुए बाल - बाल बचा . वह तो संभलकर सीधा हो गया, किन्तु मेरे मित्र को यह दृश्य देखकर बहुत गुस्सा आया और अकड़ते हुए कहा कि- " अभी मैं मुम्बई में होता , तो जड़ देता थप्पड़ उसके मुँह पे, कोई ट्रैफिक सेंस है हीं नहीं यहाँ...जिधर से मन करता है मुड़ जाते हैं लोग, जैसे बाप की सड़क हो ....!"
मैंने अपने उस मित्र की बातों को अनमने ढंग से सुनते हुए दरवाजे का शीशा गिराया और उस नव युवक से मुखातिब होते हुए कहा- " ठीक से चलाया करो....ऐसे चलाओगे तो कोई न कोई अनहोनी हो जायेगी ....!"
उसने दोनों हाँथ जोड़ते हुए कहा -" भाई जान ! मेडिकल कॉलेज के ट्रामा सेंटर में मेरी पत्नी एडमीट है ...जल्दबाजी में था इसलिए ऐसा हो गया ...माफी चाहता हूँ ....!" मैंने कहा - " कोई बात नहीं , आप जाइये !"
उसने मुस्कुराते हुए कहा- " नही , गलती बार-बार नहीं होती ....पहले आप जाइये जनाब !"
मेरा मित्र यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गया , मैंने मुस्कुराते हुए गाडी आगे बढ़ा दी और कहा कि-" मित्र ! यही है लखनवी तहजीब ....!" वह अपनी शर्मिन्दगी छुपाता हुआ झेंप गया .
गाडी ड्राइव करते हुए जब मैंने पुन: बातचीत का सिलसिला आगे बढाया तो उन्होंने कहा- " आपने मुझे सचमुच एहसास करा ही दिया मित्र कि ज़िंदा है अभी भी लखनवी तहजीव ....कुछ तो है इस शहर में खास जो परत-दर-परत खोलती है तहजीब-ए-अवध का राज़....शुक्रिया मेरे दोस्त....शुक्रिया लखनऊ....!"
गाडी पार्क करते हुए मैंने पूछा -" मित्र ! अब आगे क्या इरादा है?"
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा -" चलिए विरयानी के साथ शाम-ए-अवध का लुत्फ़ लिया जाये....!"मैंने कहा ठीक है चलिए जनाब अब आपको लखनवी मेहमान नवाजी से रूबरू कराते हैं हम ..... फ़िर तो ठहाकों का दौर ऐसा चला कि घर आने के बाद ही थमा....! उसदिन मेरे मित्र को वाकई महसूस हो हीं गया कि --
आदाब से अदब तक यही है लखनऊ मेरी जान !

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

पहले अस्पृश्य पुन: अछूत कालांतर में हरिजन और अब वह दलित हो गया है..... !

विगत दिनों मुझे लगभग एक साल बाद अपने गाँव जाने का सुयोग प्राप्त हुआ , मेरे घर से थोडी ही दूरी पर है डोमवा घरारी । उस गाँव में डोम जाति के लोग बहुतायत रहते हैं शायद इसीलिए उसे डोमवा घरारी की संज्ञा दी गयी होगी । उसी डोमवा घरारी में रहता है झिन्गना , बिल्कुल उसी तरह की ज़िंदगी जीता हुआ जिसतरह की ज़िंदगी उसके पूर्वज जिया करते थे । कुछ भी नही बदला है , जमाने के बदलाव के साथ-साथ । उत्तर प्रदेश में चाहे पहली बार बनी हो दलितों की पूर्ण बहुमत की सरकार , चाहे चौथी बार बनी हो मुख्य मंत्री बहन मायावती , या फिर दलितों की आवाज़ बनाकर उभरे हों बिहार में राम विलास पासवान कोई फर्क नही पङता झिन्गना को । उसकी पूरी दिनचर्या पर सूक्ष्म अध्ययन करते हुए मैंने उसकी राम कहानी को एक कविता में बांधने का प्रयास किया है , जो निम्न लिखित है -

।। झिन्गना की राम कहानी ।।

पौ फटने के पहले
बहुत पहले जगता झिन्गना
पराती गाते हुए डालता
सूअरों को खोप में
दिशा-फारिग के बाद
खाता नोन-प्याज-रोटी
और निकल जाता
जीवन की रूमानियत से दूर
किसी मुर्दा-घर की ओर ।

शाम को थक कर चूर होता वह
लौट आता अपने घर
कांख में दबाये
सत्तर-पचास नंबर की देशी शराब
और पीकर भूल जाता
दिन-भर के सारे तनाव ।

रहस्य है कि -
कैसे जुटा लेता वह
सुकून के दो पल
साथ में-
तीज-त्यौहार के लिए
सुपली-मौनी/लड्डू-बतासा
पंडित के लिए
दक्षिणा-धोती
जोरू के लिए
साडी-लहठी -सेनुर आदि ।

अपने परम्परागत पेशे को
ढोता हुआ आज भी वह

वाहन कर रहा सलीके से
मर्यादित जीवन को बार-बार
सतही मानसिकता से ऊपर
और, खद्दर-खादी की साया से दूर
दे रहा अपने काम को अंजाम
पूरी ईमानदारी के साथ ।

कभी मौज आने पर
सिनेमा से दूर रहने वाला वह
खुद बन जाता सिनेमा
और जुटा लेता अच्छी-खासी भीड़
अपने इर्द-गिर्द
अलाप लेकर -
आल्हा -उदल / सोरठी -बिर्जाभार
सारंगा-सदाब्रिक्ष/भारतरी चरित
या बिहुला-बाला-लखंदर का ।

लगातार -
समय के थपेडों को खाकर भी
नही बदला वह
बदल गया लेकिन समय
फिर , समय के साथ उसका नाम-
पहले अस्पृश्य , पुन: अछूत
कालांतर में हरिजन
और , अब वह -
दलित हो गया है
शायद-
कल भी कोई नया नाम जुटेगा
झिन्गना के साथ ।

लेकिन, झिन्गना -
झिन्गना हीं रहेगा अंत तक
और साथ में उसकी
अपनी राम कहानी ।

()रवीन्द्र प्रभात

शनिवार, 10 नवंबर 2007

हम फकीरों की गली में झांकिए , सच बयानी को बुरा मत मानिए !


चार हिन्दी की गज़लें -

(एक )

शब्द-शब्द अनमोल परिंदे !
सुन्दर बोली बोल परिंदे !!

जीवन -जीवन भूलभुलैया -
दुनिया गोलम- गोल परिंदे !!

छोटा मुँह मत बात बड़ी कर -
खुल जायेगी पोल परिंदे !!

शीशे के घर में रहकर ना -
पत्थर -पत्थर तोल परिंदे !!

बन्दर के हाथों में मत दे -
झाल -मजीरा -ढोल परिंदे !!

कुछ मन की मर्यादा रख ले -
आंखों को मत घोल परिंदे !!

कुछ "प्रभात " के जैसा रच दे -
अंतर -पट अब खोल परिंदे !!

(दो)

पुलिस फिरौती मांगे रे मितवा !
शहर घिनौना लागे रे मितवा !!

सुते पहरुआ , चोर -उचक्का -
रात -रात भर जागे रे मितवा !!

गणिका बांचे काम , पतुरिया -
पीछे -पीछे भागे रे मितवा !!

दुर्जन मदिरा पान में पीछे -
संत -मौलवी आगे रे मितवा !!

कहे "प्रभात" सुनो भाई जनता -
भूखे लोग अभागे रे मितवा !!

(तीन)

भर दे जो रसधार दिल के घाव में !
फिर वही घूँघरू बंधे इस पाँव में !!

द्रौपदी वेबस खडी यह कह रही -
अब न हो शकुनी सफल हर दाव में !!

बर्तनों की बात मत अब पूछिए -
आजकल सब व्यस्त हैं टकराव में !!

है सफल माझी वही मझदार का -
बूँद एक आने न दे जो नाव में !!

बात करता है अमन की जो "प्रभात"
भावना उसकी जुडी अलगाव में !!

(चार)
और अंत में मियाँ मुसर्रफ के लिए
एक भारतीये की नसीहत --

हम फकीरों की गली में झांकिए !
सच-बयानी को बुरा मत मानिए !!

फक्र है खुद की जवानी पर यदि -
तो बुढापे का भरम भी जानिए !!

जर्फ़ हो तो सर झुकाने की जगह -
सर झुके जितना झुकाना चाहिए !!

सुर्ख़ियों में आज तो मदहोश हो -
होश आएंगे मिलेंगे जब हाशिये !!

आपकी हर बात अच्छी है मियाँ -
पर मेरे कश्मीर को मत मांगिए !!

बक्त कहता है यही अब ए " प्रभात"
आस्तीं में सांप मत अब पालिए !!
()रवीन्द्र प्रभात


बुधवार, 7 नवंबर 2007

दीपावली, जुआ, संस्कार और सरोकार !


हमारे एक मित्र हैं रामाकांत पांडे , दिल्ली में रहते हैं , पेशे से पुरोहित हैं . धोती -कुर्ता और ललाट पर त्रिपुंड चंदन . बातें करेंगे तो विल्कुल अध्यात्मिक . हाव -भाव पूरी तरह संस्कारिता से ओतप्रोत , हम उन्हें चलता - फिरता आस्था चैनल कह कर पुकारते हैं ! पिछले दीपावली में आये थे लखनऊ , संस्कार पर लंबा -चौडा देकर हमारे मन को पवित्र कर गए . संस्कार पर उनके प्रवचन कुछ इसप्रकार थे -
मनुष्य का जीवन संस्कारों पर चलता है . जीवन में जो कुछ भी किया जाता है , वह आदत बन जाती है और यही आदत चित्त -पटल पर आकर संस्कार का रुप लेती है ।

संस्कार प्रेरित करता है , कि कैसे आकांक्षाओं को मूर्त रुप दिया जाये . अच्छे संस्कार मनुष्य को मान- सम्मान के साथ -साथ शांति, सुख संतुस्ती का बोध कराते हुए समृधि की और ले जाते हैं , वहीं बुरे संस्कार विनाश की ओर .
अगर हमारे पूर्वजों में संस्कार प्रबल नही होता , तो सभ्यता का विकास असंभव था .इसके बिना हम आज जानवरों की तरह रह रहे होते .
संस्कार में चार शब्द सन्निहित है -

सं - संवेदना
स - स्वयं भय
का -कार्यानुभुति

र - रचनात्मकता

() संवेदना हमारे मन के उदगार को व्यक्त करती है तथा दूसरे की भावनाओं और इच्छाओं का ध्यान रखती है .
() स्वयं भय मनुष्य को सम्पूर्ण इमानदारी के गुण से परिपूर्ण कर देता है .
() कार्यानुभुती कार्य के प्रति स्वामित्व का बोध कराती है तथा सच्चे मन से कर्तव्यों के निर्वहन हेतु प्रेरित करती है .
() रचनात्मकता उद्देश्यों के प्रति जागरूकता का भाव उत्पन्न करती है ।


इसप्रकार -
जिस व्यक्ति के भीतर संवेदना , स्वयं भय , कार्यानुभुती तथा रचनात्मकता का भाव होता है , उसका जीवन उद्देश्यपरक होता है और उद्देश्यपरक जीवन जीने वाला मनुष्य ही सफलता को वरन करता है .
संस्कार तीन प्रकार के होते हैं -
() जन्म जात संस्कार () रोपित संस्कार () कर्मगत संस्कार


() जन्मजात संस्कार - संवेदना और स्वयं भय के साथ सुन्दर अनुभूतियों को स्वभाव में ढालते हुए प्रगति की लालसा रखने वाले को जन्मजात संस्कार के तहत माना जाता है .
() रोपित संस्कार - शिक्षा , समाज , वातावरण , अध्यन-अध्यापन , अभ्यास , विचार -विमर्श से सिख कर , उसी को सत्य मानकर उसी में रुचि रखने वाले को रोपित संस्कार के तहत माना जाता है .
() कर्मगत संस्कार - कार्यानुभुती के साथ अच्छे -बुरे अनुभवों से शिक्षा लेकर अपना मार्ग स्वयं तय करते हुए रचनात्मक बने रहने वाला व्यक्तिकर्मगत संस्कार के तहत आता है ।


सोच सकते हैं कि इतना सब कुछ सुन लेने के बाद उस व्यक्ति के प्रति श्रद्धा काभाव कितना बढ़ जाएगा ? मैं उस संस्कार रूपी सत्य वचन में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों को धुन्धने लगा . मगर जब मुझे ज्ञात हुआ कि दीपावली में हमारे सांस्कारिक मित्र ने जुए में बीस हजार रुपये हार गए ,तो मुझे बहुत बुरा लगा मैंने फोन पर ही उन्हें उलटा -सीधा कह दिया कि -क्या यही तुम्हारे संस्कार हैं मित्र ? इसपर जो उनकी प्रतिक्रिया थी वह भी कम आश्चर्यजनक नही थी . उन्होने हंसते हुए कहा कि - मित्र ! जुआ खेलना भी संस्कारों की श्रेणी में ही आता है . मैं देर तक रिसीवर हाथ में उठाये यही सोचता रहा कि कैसे जुआ खेलना हमारे संस्कार का एक हिस्सा है ? अगर ऐसा है तो हमारे सामाजिक सरोकारों का क्या होगा ? मैं सोच रहा हूँ कि अगली वार जब मैं अपने इस अनोखे मित्र से मिलूंगा तो अपनी यहजिज्ञासा शांत करूंगा और जब मेरी जिज्ञासा शांत हो जायेगी तो आप सभी को जरूर बताऊंगा , तबतक के लिए - शुभ दीपावली !

सोमवार, 5 नवंबर 2007

फटी लंगोटी झोपड़पट्टी है लेकिन , जीवन का उल्लास हमारे पास मियाँ !



पिछले दिनों मियाँ मुसर्रफ के द्वारा पाकिस्तान में आपात स्थिति लगाने की खूब चर्चा रही . लोगों ने मियाँ मुसर्रफ के किसी भी हद तक जाने की बात करते हुए उसकी जमकर आलोचना की और कहा कि मियाँ कुर्सी के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं, यहाँ तक कि अपने मुल्क के चरमपंथियों को गुमराह करने के उद्देश्य से वह यदि ज़रूरत महसूस हुई तो फिर से कश्मीर का मुद्दा उठा सकते हैं या फिर भारत के साथ कूटनीतिक युद्ध की तैयारी भी .हो सकता है कि नए कारगिल युद्ध का बीजारोपण कर दें मियाँ मुसर्रफ . वैसे भी मियाँ मुसर्रफ अन्य तानाशाहों से भिन्न प्रतीत नहीं होते .सच तो यह है कि मियाँ मुसर्रफ की स्थिति कमोवेश वैसी ही है जो कभी जनरल जिया-उल- हक और सद्दाम हुसैन की थी .आगे कुआं पीछे खाई जाएँ तो जाएँ कहाँ ? गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि - मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है , जब वह अपने मन , इन्द्रियों सहित शरीर के सामने घुटने टेक देता है तो वही मनुष्य उसीप्रकार दु:खों से दु:खी रहता है जिस प्रकार शत्रुओं द्वारा सताया जाता हुआ मनुष्य . मियाँ मुसर्रफ स्वयं में ही अपना शत्रु बन बैठे हैं इसमें कोई संदेह नही .राष्ट्र के नाम संदेश में मियाँ मुसर्रफ के चहरे पर वह दु:ख स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था उस दिन .चिंता की स्पष्ट लकीरें दिखाई दे रही थी उसके चहरे पर . वह एक घायल शेर की मानिंद हर किसी को कच्चा चबा जाने को आतुर दिखाई दे रहा था .एक तानाशाह की अंत: पीडा देखने लायक थी उस दिन ।क्या फिर से एक नए युद्ध का आगाज़ है ये इमरजेंसी , पाकिस्तान के अन्दर और पाकिस्तान के बाहर यानी पड़ोसी मुल्क के लिए ? भाई इसका जबाब तो मियाँ मुसर्रफ के सिवा और भला कौन दे सकता है ? मैंने अपने एक मित्र के द्वारा पूछे गए प्रश्न के जबाब में कहा तो उसने फिर कहा कि रवीन्द्र भाई , तुम देख लेना फिर दूसरा कारगिल होकर ही रहेगा . हो जाये क्या फर्क पङता है, हम डरते हैं क्या पाकिस्तान से . इस बात पर तिलमिलाते हुए उसने बड़ी मासूमियत के साथ कहा कि , यार रवीन्द्र उसके पास परमाणु बम है .मेरी झुंझलाहट और बढ़ गयी मैंने कहा - क्या हमारे पास नही है ? मैं कहाँ कह रहा हूँ की नही है , मगर क्योंकि हम मानव विध्वंस के ख़िलाफ़ हैं , साथ ही हमारे हाथ समझौते से बंधे हैं इसलिए हम इस्तेमाल नही कर सकते परमाणु हथियार को , मगर वहतो सनकी तानाशाह है कुछ भी कर सकता है .अब कौन समझाए अपने इस मित्र को .मैंने कहा यार आशुतोष , किसी शायर ने कहा है कि - " जो काम होना होगा वह टल नही सकता , निजाम- ए - गर्दिश - ए - दौरा बदल नही सकता , तेरे ख़याल को तू अपने पास रहने दे - तेरे ख़याल से नक्शा बदल नही सकता ."फिर मैंने कहा यार जहाँ तक मुसर्रफ का प्रश्न है तो इसपर भी किसी शायर ने कहा है कि -" मूजी से वफादारी की उम्मीद गलत है, जो काम इन्हें करना है ये करके रहेंगे! तुम मन्त्र पढो या इन्हें दूध पिलाओ , फितरत में जो डसना है बहरहाल दसेंगे !!"बहुत पहले जब बार -बार पाकिस्तान के द्वारा भारत को कश्मीर की आड़ में अप्रत्यक्ष युद्ध की खुली चुतौती दी जा रही थी और कारगिल युद्ध को सही ठहराया जा रहा था( यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि अप्रत्यक्ष रुप से कारगिल युद्ध के शुत्रधार मियाँ मुशर्रफ़ ही थे ) तो उसवक्त मेरे कवि मन ने पाकिस्तान की खुली चुनौती का जबाब कुछ इसप्रकार दिया था ,पहली वार इस ग़ज़ल को मेरे द्वारा अलीगंज के एक कवि सम्मेलन में पढा गया और श्रोताओं ने इस ग़ज़ल की जमकर तारीफ़ की( जिसकी तस्वीर ऊपर दी गयी है , ऊपर वाली तसवीर में कविता पाठ मैं कर रहा हूँ और नीचे गीतेश ) . आज वही ग़ज़ल प्रसंगवश यहाँ प्रस्तुत है ---
यहाँ नही कुछ खास हमारे पास मियाँ !
मन में बस विश्वास हमारे पास मियाँ !!

फटी
लंगोटी, झोपड़पट्टी है लेकिन -
जीवन का उल्लास हमारे पास मियाँ !!


एटम - बम का खौफ दिखाते हो लेकिन -
पृथ्वी , अग्नि, आकाश हमारे पास मियाँ !!

पेरिस की हर शाम मुबारक हो तुमको -
आस-पास मधुमास हमारे पास मियाँ !!

घर की मर्यादा खातिर हम सह जाते -
होता जब बनवास हमारे पास मियाँ !!

हम हैं हिन्दुस्तानी हमें डराओ मत -
रहती गर्म उसांस हमारे पास मियाँ !!

मेरे भीतर गांधी भी है और भगत भी -
विश्मिल - वीर सुभाष हमारे पास मियाँ !!

कुछ कविता, कुछगीत,ग़ज़ल के लिए"प्रभात"
हर दिन है अवकाश हमारे पास मियाँ !!

() रवीन्द्र प्रभात

शनिवार, 3 नवंबर 2007

जब मैं मर गया उस दिन !

पिछले इतवार की शाम , मेरी जुवां सेयकायक निकला - हे राम ! दुनिया के ग़मों से गुरेज होकर , मेरा मन पूर्णत: निश्तेज़ होकर, मेरे अस्तित्व को शून्यवत कर गया और मैं उसी क्षण मर गया .
मेरे मरने का समाचार सबसे पहले मेरे एक कवि मित्र को मिला . उसका चेहरा पहले तो मायुश हो चला फिर चहका , फिर मुरझाया , फिर वह मन - ही - मन मुस्कुराया और दौड़ कर मेरी लाश के पास आया . मेरे बदन से लिपटकर रोया - गाया , जितना भी बन पडा मेरी पत्नी को समझाया , मगर अन्दर - ही - अन्दर बड़बड़ाया- " अच्छा हुआ साला मर गया , धरती का बोझ कुछ हल्का कर गया . अच्छी - अच्छी कवितायें कर रहा था , ब्लोग पर अच्छे - अच्छे पोस्ट डालकर मेरी खटिया खडी कर रहा था , अब तो मेरे रास्ते का काँटा नि: संदेह साफ हो जाएगा , भगवान् ने चाहा तो अगले ही हफ्ते कोई बड़ा सा पुरस्कार मिल जाएगा !"
फिर किसी ने जाकर मेरे एक हमदर्द को बताया , मेरे मरने का सुखद समाचार सुनाया . उसके चहरे पर एक हल्की सी लालिमा दौड़ गयी , जिस्म में एक सिहरन सी फ़ैल गयी . वह किसी भी प्रकार अपनी आंखों को रुलाया और मेरी अन्तिम यात्रा में शामिल होने आया , यह सोचते हुए कि - " क्योंकर उसके ह्रदय की बत्ती बूझी है , साले को इसी समय मरने की सूझी है ? वैसे तो उसकी मौत मुझे बहुत रूला रही है , मगर टी वी पर अभी फिल्म चल रही ,है , थोडी देर और रूक जाता तो क्या होता ? जहाँ तक मेरा अनुमान है कि वहाँ अभी चिल-पों मच रही होगी, औपचारिकताएं पूरी की जा रही होगी . पहले फिर देख लेताहूँ फिर जाऊंगा , भाई ! रिवाज़ है तो उसके जनाजे को कंधा भी लगाऊंगा !"
मेरी लाश के पास इकट्ठी भीड़ देखकर , मेरे टीचर ने पूछा लोगों से ठिठक कर - " अरे , यह तो मेरा चेला है , मगर क्यों लगा हुआ यहाँ पर मेला है ?" जब उन्हें आभास हो गया कि मर गया , स्वयं को दुनिया से जुदा कर गया . तो वह भी मेरे पास आये , मेरे शव से लिपट कर बद्बदाये - " बेटा ! मरने को तो मर गया , मगर पूरी की पूरी फ़ीस हजम कर गया ."
फिर उसके बाद ठहाका वाला बसंत आर्य मुम्बई से आया , सहानभूति जताया , रोतीहुई मेरी पत्नी के बालों को सहलाया , आंसू पोछे और बताया - " जाने वाला तो चला गया वह लौटकर कैसे आयेगा , किसके लिए रोतीहो भाभी जी क्या वह मरने के बाद तेरी किस्मत बना पाएगा ? जो हुआ उसे भूल जाओ और मन की शांति के लिए चलो मुम्बई से घूम आओ ."
सभी आंसू तो खूब बहाते थे मगर अन्दर ही अन्दर बड़बड़ातेथे . आंसू भी ऐसे कि घडियाली और हाँथ भी सबके खाली . झुंझलातेहुए किसी ने कहा -" यार! कफ़न का बंदोबस्त करवाओ और दुर्गन्ध आने से पहले शमशान पहून्चाओ ."
जब कफ़न का बंदोबस्त नही हो पाया तो मेरा एक मित्र बड़बड़ाया-" साला दिन भर शायरी करता था , रात को उलूल - जुलूल लिख कर डायरी भरता था . जो भी कमाता पुसतकें खरीद लेता बाकी जो बचता कर देता संस्था को दान, कभी भी नही आया इसे अपने भविष्य की सुरक्षा का ध्यान ? "



फिर कहीं से खोजकर कवि सम्मेलन का एक पुराना सा बैनर लाया गया और मेरे शव परओढ़ाया गया .फिर कोई मुखातिव हुआ मेरी पत्नी से और चिल्लाया - " तेरा पति था क्या तू भी कुछ बतायेगी , सोचो चिता की लकडी कहाँ से आयेगी ? " एकाएक मेरी पत्नी को याद आयी , उसने मेरी अन्तिम इच्छा बताई - " मेरे पति ने अपने लिए चिता का बंदोबस्त कर रखा है , उनके द्वारा संग्रहित पुस्तकों की चिता सजाईये, पुन: चिता में आग लगाईये . मुझे यकीन है हम सभी की भ्रांति मिटेगी और भगवान् ने चाहा तो उसकी आत्मा को अवश्य शांति मिलेगी ."
फिर सब ने दिखाया अपना जोश और होने लगा राम नाम सत्य है का उद्घोष . कुछ दूर जाने के बाद एक व्यक्ति बड़बड़ाया- " मुझे क्या पता था कि साला मरने के बाद भारी हो जाएगा ." तो दूसरे ने कहा- " यार! लगता है शमशान जाते - जाते कचूमर निकल जाएगा . " तीसरे ने कहा - " यार ! इसे जल्दी शमशानपहुँचाओ , नही तो फिर किसी गटर में फेंक जाओ ." चौथे ने कहा - " यह दाह - संस्कार का कैसा दस्तूर है, भारी लगाने के बावजूद भी लोग कंधा लगाने को मजबूर है . "
खैर, किसी भी प्रकार मुझे शमशान पहुंचाया गया , पुस्तकों की चिता पर सुलाया गया और जब आग लगाने की बारी आयी तो यह समाचार सुनकर मेरी माँ दौड़ी - दौड़ी आयी . आते ही मेरे जिस्म से लिपट कर जोर - जोर से चिल्लाई - " खबरदार जो मेरे बच्चे को हाँथ लगाए, भगवान् करे इसे मेरी भी उम्र लग जाये ." रोती - विलखती - कराती हुई बोली , अपने थरथराते होठों को खोली - " मैं यमराज के पास जाऊंगी , अपने बच्चे को अवश्य वापस लाऊँगी ." कहते -कहते हुआ उसका हार्ट - अटैक . दोस्तों यही था मेरी मृत्यु के वरन का प्ले - बैक .
जब -जब मैं दुनिया की स्वार्थ परता को देख कर डर जाता हूँ उसी क्षण मैं मर जाता हूँ .माँ के आशीर्वाद से पुन: जन्म लेता हूँ दुनिया की स्वार्थ परता को देखने के लिए , समझने के लिए और परखने के लिए ।
 
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