मंगलवार, 29 जनवरी 2008

दुनिया का सबसे खूबसूरत उपहार ......!


जिस दिन सेंसेक्स औंधे मुंह गिरा था और शेयर बाज़ार में हरकंप मच गया था अनायास हीं , उसी दिन सुबह-सुबह मैंने अपनी श्री मती जी को उनके जन्म दिन की बधाई देते हुए पूछा कि यह बताओ आज तुम्हे क्या चाहिए? उन्होने कहा कुछ भी जो आपको अच्छा लगे . मैंने कहा मुझे तो तुमसे अच्छा कुछ भी नही लगता , देखो मुझे धर्म संकट में न डालो , सीधे-सीधे बताओ कि आज के दिन मैं तुम्हे कौन सा उपहार दूं ? उन्होने कहा- वैसे तो ऊपर वाले ने मुझे सबकुछ दिया है , मगर एक चीज है जो अमूल्य है , शाम को दफ्तर से लौटते हुए लेते आईयेगा! मुझे मेरी श्री मती जी की बातें कुछ समझ में नहीं आयी तो मैंने फिर मुखातिव होते हुए पूछा कि कुछ क्लू दो तो समझ में आये . उन्होने कहा कि यह वह चीज है जिसका कोई संबंध नही होता बाज़ार के उतार-चढाव से, देने वाले के ऊपर क़र्ज़ का बोझ नही होता और पाने वाले को असीम शांति, सुख,संतुष्टि की प्राप्ति होती है ।
मैं सोचते हुए तैयार हुआ दफ्तर जाने के लिए और सोचते हुए निकल भी गया , पर मेरे भेजे में नही घुसी कि आख़िर वह कौन सी बस्तु है, जिसका संबंध बाज़ार के उतार-चढाव से नही होता ? मैंने सोचा कि इस दुनिया में तो दो ही चीजें खास मानी गयी है और वह है कामिनी और कंचन . हर देश काल में यह सत्य है . मगर दोनो का प्रभाव बाज़ार के उतार-चढाव पर पङता है , फिर वह कौन सी वस्तु है जिसकी चर्चा मेरी श्री मती जी ने की है .मैं परेशान हाल दफ्तर में पहुंचा मगर किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच सका . मेरे जेहन में बार-बार यही बातें आ रही थी कि मनुष्य के लिए यदि देखा जाये तो पद, प्रतिष्ठा, प्रसन्शा, पैसा और प्रसिद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण और कुछ हो ही नही सकता , लेकिन बाज़ार के उतार-चढाव का इसपर प्रभाव अवश्य पङता है ।
मैंने कई दृष्टिकोण से स्वयं को समझाने की कोशिश की , पर सही निष्कर्ष पर नही पहुंच सका . तभी मेरे साथ कार्य करने वाली एक महिला सहकर्मी मुझसे मुखातिव हुई और मेरी परेशानी का सबब जानना चाहा . मैंने भी अपनी सारी परेशानी अक्षरस: उसके सामने रख दी , उसने मुस्कुराते हुए कहा - सर! बस इतनी सी बात और इतनी बड़ी परेशानी ? मेरे समझ से सबसे खूबसूरत उपहार पुष्पहार है . दिमाग पर थोडा जोर डालिए सब समझ में आ जाएगा . सचमुच इससे खूबसूरत उपहार और क्या हो सकता है ?
क्योंकि फूल जन्म से लेकर मृत्यु तक कार्य करता है. एक बच्चे को उसके जन्म दिन के अवसर पर उसे फूलों से सजाते हैं, भगवान की पूजा करते हैं तो फूल ही चढाते हैं , एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को मनाने के लिए फूल ही देता है, वे दोनों विवाह के पवित्र बन्धन में फूलों की बनी बरमाला द्वारा ही बंधाते हैं और यदि प्रेमिका की मृत्यु हो जाये तो प्रेमी दु:खी होकर फूलों की बनी माला ही उसके शव पर चढाता है , कभी याद आती है तो वह उसके कब्र पर फूल ही चढाता है , अंतत: वह भी मृत्यु को प्राप्त होता है और कोई शुभचिंतक आकर उसके शव पर फूल चढा जाता है .इसप्रकार मनुष्य का जीवन फूलों की माला की तरह हीं श्रृंखला बद्ध है !
अब आप कहेंगे कि ऐसे ख़ुशी के मौक़े पर मृत्यु की बात क्यों की जा रही है , जहाँ तक मैं समझता हूँ कि जीवन की बात मृत्यु से शुरू की जानी चाहिए , जहाँ समाप्ति की नियति है, वहाँ हर कर्म क्षणिक और अपने लिए गढा गया हर अभिप्राय भ्रम है. बगैर भ्रम को पाले हुए हुए यदि जीना हो तो जीवन को एक छोटा सा सफर समझना चाहिए . सफर में चलते हुए मन में यदि यह विश्वास उग सके कि देर-सवेर हर किसी को उतर जाना है, तो फिर यही रह जाता है जितनी देर बैठें , दूसरों का दु:ख- दर्द बाँटते रहें , उन्हें स्नेह देते रहें.....!अर्थात हम स्वयं को दूसरों पर उत्सर्ग कर दें या ऐसी यातना से गुजारें जो हमारी नजरों में हमारे अस्तित्व को शुन्यवत कर के रख दे , प्रेम में ये दोनों ही निहित है , यद्यपि फूल प्रेम का प्रतीक है, इसलिए फूल से बेहतर उपहार और क्या हो सकता है ?
मैं जब शाम को दफ्तर से घर लौटा तो मेरे हाथ में गुलाब के ताज़े फूल थे , यह फूल देखकर मेरी श्री मतीजी बहुत खुश हुई और फूल थामते हुए पूछा - आपने बड़ी आसानी से इस पहेली की गुत्थी सुलझा ली . मैं अपनी किस्मत पर ऐसा इतराया कि मुझे बोध ही नही रहा कि मुझे क्या कहना चाहिए और क्या नही कहना चाहिए ? मेरे मुंह से अचानक निकल गया कि वो पहेली मैंने नही सुलझाई मेरे दफ्तर की एक महिला सहकर्मी ने सुलझाई है ......! फिर क्या था औरत अपने सबसे कमजोर रुप में आ गयी ! उसके तेवर उग्र हो गए ......और माहौल ....शेयर बाज़ार की तरह फिर से करवट ले लिया ......! मेरी पत्नी शेयर बाज़ार के प्रतीक की तरह खूंखार दिखने लगी .....यानी मेरी एक भूल से मेरे घर का शुचकांक और पड़ोस की निफ्टी दोनो औंधे मुंह ऐसे गिरा कि कई दिनों तक थमने का नाम ही नही लिया . फिर मैंने कसम खाई कि अब ख़ुशी के मौक़े पर सच न बोला जाये ।
पूरी घटना से मैंने यही सिखा कि कोई वस्तु अपने आकार और सौन्दर्य के कारण नही, अपने गुण के कारण महत्त्व रखती है . कोई व्यक्ति किसी वस्तु को उसमें व्याप्त गुणों के कारण ही अपनाता या महत्त्व देता है . अपनी उपयोगिता के कारण ही देखने में असुंदर वस्तुएं भी लोगों को आकृष्ट करती है . वस्तु की उपयोगिता से व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति होती है. आवश्यकता की पूर्ति से उसे संतुष्टि मिलती है, संतुष्टि के कारण ही व्यक्ति उसकी और आकृष्ट होता है, उसे अपना बनाने की चेष्टा करता है ।
आनंद की प्राप्ति मानव जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता है . इसकी पूर्ति के लिए मानव बिभिन्न भौतिक सुखों के पीछे भटकता रहता है, किन्तु उसे संतोष नही मिलता . भौतिक सुख बस्तुत: आनंद रहित है, आनंद शाश्वत और स्थाई होता है , आनंद में भटकाव की स्थिति नही होती , ऐसा महापुरषों के द्वारा कहा गया है , काश यह बात सबके समझ में आ जाती .....!

शनिवार, 19 जनवरी 2008

हम चूमना भी जानते हैं और चटकन लगाना भी !

फोटो क्रिकेट नेक्स्ट से साभार


भारत में क्रिकेट कभी राजा-महाराजाओं , नवाबों या बडे व्यवसाइयों तक सीमित था । आम आदमी के पास न तो इतने साधन थे और न ही इतना समय कि वह क्रिकेट खेलने की सोच सके । उस समय भारत में हॉकी शीर्ष पर था । लेकिन पिछले कुछ वर्षों से क्रिकेट इतना लोकप्रिय हो गया है कि आम आदमी तो आम आदमी शहर-शहर , गाँव-गाँव तक में धूम मच गयी है । आज आप किसी भी गली-कूचे से निकल जाइये , आपको हर जगह भावी सचिन , सौरभ, धोनी , सहवाग , कुम्बले आदि क्रिकेट खेलते हुए मिल जायेंगे । असली विकेट नही तो ईंट ही सही , लैदर बॉल नही तो टेनिस की ही सही , लेकिन खेलेंगे जरूर । आज टीम इंडिया के अधिकांश सदस्य मध्यम वर्ग के हैं , जिन्होंने इस खेल पर राजे-राजवाडों का एकाधिकार समाप्त कर दिया है । यह भारत का सबसे अधिक खेला जाने वाला खेल बन चुका है । यदि यह कहा जाये कि भारत में अब क्रिकेट दीवानगी की हद तक पहुंच चुका है तो शायद न तो शक की गुंजाइश ही रहेगी और न कोई अतिश्योक्ति हीं ।


पिछले दिनों सिडनी टेस्ट के दौरान अपने कुकृत्य से ऑस्ट्रेलिया ने जो क्रिकेट में काला अध्याय जोड़कर क्रिकेट को ही शर्मसार कर दिया था और नस्लवाद के घोर विरोधी देश के नागरिक यानी हरभजन पर नस्लीय टिप्पणी का मनगढ़ंत आरोप लगाते हुए हतोत्साहित करने की कोशिश की उसे हमारे खिलाडियों ने फ़िर एक वार पर्थ में उनके विजय अभियान को रोककर यह सिद्ध कर दिया कि भारत अपने स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने वाले को कभी नही बख्सता । इतिहास गवाह है कि हमने ही सिकंदर महान के विजय अभियान को रोका था । हममें अगर प्यार से चूमने की कला है तो चटकन लगाने की भी , हम प्यार करते हैं किसी से तो डूबकर करते हैं और नफ़रत भी करते हैं तो डूबकर करते हैं । इसके पहले भी बहुत साल पहले ऑस्ट्रेलिया के विजय अभियान को ईडेन गार्डेन में हमने ही रोका था और आज उनके ही देश में उनके विजय अभियान को लगातार सोलहवीं जीत के बाद हमने ही रोका है ! हमारे लिए हमारा स्वाभिमान बहुत मायने रखता है । हमने अगर अंग्रेजों के गोरे-गोरे गालों पर मक्खन लगाए तो जरूरत महसूस होने पर तमाचा भी मारा , प्रचंड प्रहार भी किया ।

जब पर्थ में भारतीयों ने जीत का परचम फहराया तो मेरे एक भोजपुरिया मित्र की प्रतिक्रिया कुछ ऐसी थी - " रवीन्द्र भाई, देखो हमने बदला ले लिया सिडनी में हुए अपमान का , हमने दिखा दिया कि हम सोझिया खातिर सोझ हईं और लुचन खातिर लुच्चा , हम चुम्मों लेबे के जानिला आउर चटकनों लगावे के ।भारतीय क्रिकेट और भारतीय खिलाडियों को मेरा सलाम ! "

शनिवार, 12 जनवरी 2008

ग़ज़ल की विकास यात्रा पर एक नज़र

आजकल श्री पंकज सुबीर जी सुबीर संवाद सेवा में पाठकों को ग़ज़ल सिखा रहे हैं , ग़ज़ल के विभिन्न पहलूओं पर उनका पक्ष नि:संदेह प्रशंसनीय है । इसी कड़ी में हिंद युग्म भी पीछे नही है । ग़ज़ल के लिए इससे वेहतर पहल और क्या हो सकती है । मैंने सोचा क्यों न ग़ज़ल की विकास यात्रा पर कुछ कहा जाये, क्योंकि एक गज़लकार के लिए ग़ज़ल का ककहरा सिखाने के क्रम में यह जानना भी जरूरी है कि ग़ज़ल क्या है? ग़ज़ल का अभिप्राय क्या है ? ग़ज़ल का इतिहास क्या है ? ग़ज़ल का बर्तमान क्या है ? ग़ज़ल का भविष्य क्या होगा? हिन्दी में ग़ज़ल कब-क्यों और कैसे ? इसपर व्यापक रुप से विचार भी किया जाना चाहिए । आज से लगभग १३-१४ वर्ष पहले गुजरात हिन्दी विद्यापीठ की मासिक पत्रिका " रैन वसेरा " में मेरा इसी विषय पर एक आलेख प्रकाशित हुआ था , बाद में इसे दैनिक "आज" के पटना संस्करण ने भी प्रकाशित किया . यह आलेख पूरी तरह से हिन्दी ग़ज़लों की विकास यात्रा पर केन्द्रित है . आज वही आलेख मैं आपके समक्ष संक्षिप्त रुप में रख रहा हूँ , ताकि आप ग़ज़ल के इतिहास-वर्त्तमान और भविष्य से रू-बरू हो सकें।
!! हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा !!

आज हिन्दी कविता का महत्त्व और स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है , पाठकों से दूरी बढ़ती जा रही है . यथास्थिति की प्रस्तुति और उससे उत्पन्न आक्रोश को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करने के पश्चात भी कविता सुधी-जनों की उपेक्षा से मर्मान्हत है . कहा गया है कि काव्य के सृजन से नवीन दृष्टिकोण का उन्मेष और नूतन प्रवृति का प्रादुर्भाव होता है, फिर भी असर जन मानस पर क्यों नहीं पङता ? इसके लिए साहित्यकार कहाँ तक दोषी है ? क्या कविता अब ज्ञान शून्यता में पैदा होती है और ज्ञान के उत्कर्ष से स्वयं मेव भाव का अपकर्ष होता है ? यदि ऐसा है तो यह कविता के लिए अमंगलकारी होने का स्पष्ट संकेत है. दूसरी ओर अनेकानेक कवियों का झुकाव ग़ज़लों की ओर हो जाने से कुछ आलोचक दबी जुवान से ही सही , किन्तु ग़ज़ल को काव्य के विकल्प के रुप में देखने लगे हैं . इसप्रकार हिन्दी काव्य जगत में ग़ज़ल का विकास तेजी से हो रहा है और संभावनाएं बढ़ गयी है ।
एक ज़माना था जब आशिक और माशूका की मोहब्बत भरी गुफ्तगू को ग़ज़ल कहा जाता था . हुश्न-इश्क और साकी - शराब की रसीली अभिव्यक्ति उसकी भावभूमि हुआ करती थी, जिससे परे जाकर दूसरी भावभूमि पर ग़ज़ल कहना गज़लकारों के लिए दुस्साहस भरा कार्य हुआ करता था . ऐसी परिस्थिति में नयी क्रांति की प्रस्तावना किसी भी कवि के लिए संभव नही थी . सच तो यह है कि ग़ज़ल के रुप में उसी कलाम को स्वीकार किया जाता था जो औरतों के हुस्न और जमाल की तारीफ करे . यहाँ तक कि जो हिन्दी की गज़लें हुआ करती थी उसमें उर्दू ग़ज़लों का व्यापक प्रभाव देखा जाता था . यही कारण था कि जब पहली वार शमशेर ने पारंपरिक रूमानी संस्कार से ऊपर उठकर ग़ज़ल रचना की तो डॉक्टर राम विलास शर्मा ने यह कहकर खारिज कर दिया कि " ग़ज़ल तो दरवारों से निकली हुई विधा है , जो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में अक्षम है !" किन्तु अब स्थिति बदल चुकी है, हिन्दी वालों ने ग़ज़ल को सिर्फ स्वीकार हीं नही किया है , वल्कि उसका नया सौन्दर्य शास्त्र भी गढा है. परिणामत: आज ग़ज़ल उर्दू ही नही हिन्दी की भी चर्चित विधा है. तो आईये समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के स्वरूप, विकास और उसकी संभावनाओं पर विचार करते हैं ।
ग़ज़ल मुख्यत: उर्दू अदब की चर्चित विधा रही है . ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने सर्व प्रथम ग़ज़ल कहने का प्रयास किया था , ऐसा माना जाता रहा है . यद्यपि दक्षिण में इब्राहिम आदिल शाह हुए जिनकी रचनाएँ उपलब्ध नही है. उसके बाद मुहम्मद कुतुब कुली शाह की गज़लें मिलती है . बाद में दक्षिण भारत के गज़लकारों में बहरी, नुस्त्रती, सिराज और वली उल्लेखनीय है. औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में उर्दू ग़ज़ल के नमूने मिलने लगते हैं, फैज़ उत्तरी भारत के पहले साहबे दीवाने शायर माने जाते हैं, जबकि इनके समकालीन शायरों में हातिम शाह मुबारक आबरू और मुहम्मद शाकिर नाजी का नाम आता है . १८ वीं शताब्दी के दूसरे चरण में उर्दू ग़ज़लों को मांजने का काम किया था मीर तकी मीर ने जिनको बहुत से लोग उर्दू ग़ज़ल कहने वालों में सबसे अच्छा मानते हैं . इनके अलाबा सौदा और मीर दर्द उच्च कोटी की ग़ज़ल कहने वाले थे. इन शायरों के बहुत बाद मोमिन, जौक और गालिब का अबतरण हुआ , जिन्होंने अपने माधुर्य और चमत्कार से ग़ज़ल को संवारने का प्रयास किया . उसके बाद हाली, दाग, अमीर मनाई और जलाल ग़ज़ल के उस्ताद समझे गए . २० वीं सदी के चर्चित ग़ज़ल कारों में हस्त्रत, फानी , असर लखनवी, जिगर और फिराक का नाम आता है . आज उर्दू ग़ज़ल अत्यंत संवेदनात्मक दौर में है, क्योंकि यह शो- बॉक्स की न होकर स्वच्छंद अभिव्यक्ति के रुप में सामने आ चुकी है , जिसका श्रेय नरेश कुमार शाद, जगन्नाथ आजाद, वशीर बद्र, निदा फाज़ली, शहरयार आदि को जाता है ।
उर्दू ग़ज़ल मुख्यत: प्रेम भावनाओं का चित्रण है . अच्छी गज़लें वही समझी जाती है, जिसमें इश्को-मोहब्बत की बातें सच्चाई और असर के साथ लिखी जाये, जबकि हिन्दी गज़लकार इस परिभाषा को नही मानते . इनका उर्दू गज़लकारों से सैद्धांतिक मतभेद है. नचिकेता का मानना है कि " हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़लों की तरह न तो असंबद्ध कविता है और न इसका मुख्य स्वर पलायनवादी ही है , इसका मिजाज समर्पण वादी भी नही है !" जहीर कुरैशी का मानना है कि -" हिन्दी प्रकृति की गज़लें आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है , जो सबसे पहले अपना पाठक तलाश करती है !" जबकि ज्ञान प्रकाश विवेक का कहना है कि " हिन्दी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़ल में शराब का ज़िक्र नही होता , जिक्र होता है गंगाजल में धुले तुलसी के पत्तों का , पीपल की छाँव का, नीम के दर्द का, आम- आदमी की तकलीफों का . हिन्दी भाषा में लिखा जा रहा हर शेर ज़िंदगी का अक्श होता है. बहुत नजदीक से महसूस किये गए दर्द की अभिव्यक्ति होता है !" फैज़ अहमद फैज़ ने तो इतना तक कह डाला है कि " ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही जीन्दा रखेंगे , उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !" वहीं समकालीन हिन्दी ग़ज़लों के सशक्त हस्ताक्षर अदम गोंडवी कहते हैं कि " जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गयी उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो !"
हिन्दी ग़ज़ल के अतीत की चर्चा किये बिना उसकी संभावनाओं के बारे में कुछ भी कह पाना मुनासिब नही होगा , क्योंकि ग़ज़ल रचने की परंपरा हिन्दी में भी बहुत पुरानी है . यदि अमीर खुसरो ने अपनी कतिपय रचनाओं के माध्यम से हिन्दी में ग़ज़ल की संभावनाओं का सूत्रपात किया, तो कालांतर में कबीर,शौकी और भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उसे सिंचीत कर विकसित किया . बाद के दिनों में प्रेमधन, श्रीधर पाठक , राम नरेश त्रिपाठी , निराला , शमशेर , त्रिलोचन आदि ने उसे मांजने का प्रयास किया . हालांकि शमशेर ने इस विधा को गति और दिशा दी . फिर हंस राज रहवर , जानकी बल्लभ शास्त्री, राम दरस मिश्र आदि ने नए सौन्दर्य शास्त्र गढ़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया . इतिहास साक्षी है कि हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल के माध्यम से एक नई क्रांति की प्रस्तावना की. ग़ज़ल रचना के नए क्षितिज का उद्घाटन ही नही किया, वरन हिन्दी कविता की स्वतन्त्र विधा की स्वीकृति का आधार भी तैयार किया . दुष्यंत के बाद अदम गोंडवी ही एक ऐसे गज़लकार हैं , जिन्होंने ग़ज़ल के माध्यम से कल्पना के सुरम्य सतरंगे आलोक में धुवांधार प्रकाश उडेलने का काम किया और इस परंपरा को आगे बढाने का पुनीत कार्य कर रहे हैं आज के गज़लकार ।
ग़ज़ल से संबंधित अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है, जिसमें डॉक्टर रोहिताश्व अस्थाना का शोध ग्रंथ " हिन्दी ग़ज़ल : उद्भव और विकास " प्रमुख है . साथ ही उत्कृष्ठ ग़ज़ल संग्रहों में डॉक्टर कुंवर वेचैन की " रस्सियाँ पानी की " व " पत्थर की बांसूरी " छंदराज की " फैसला चाहिए" माधव मधुकर की " आग का राग " तथा कविवर आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री की " कौन सुने नगमा " आदि पुस्तकें दुष्यंत की साये में धूप के बाद महत्वपूर्ण मानी जा सकती है ।
मेरी समझ से ग़ज़ल की असली कसौटी प्रभावोत्पादकता है . ग़ज़ल वही अच्छी होगी जिसमें असर और मौलिकता हो, जिससे पढ़ने वाले समझे कि यह उन्ही की दिली बातों का वर्णन है. जहाँ तक संभव हो सके ग़ज़ल में सुरूचि पूर्ण जाने-पहचाने और सरल शब्दों का ही प्रयोग हो , ताकि उसमें प्रवाह बना रहे . ग़ज़ल के प्रत्येक चरणों में पृथक-पृथक विषय को लेकर भी विचार प्रकट किये जा सकते हैं और श्रृंखलाबद्ध भी . लेकिन प्रत्येक दो चरणों में विषयांतर होने से नई विचार धारा प्रभाव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत हो जाती है . हिन्दी ग़ज़ल के लिए एक और जरूरी बात यह है कि हिन्दी व्याकरण की परिधि में ही शब्दों का विभाजन हो और मात्रा की गणना भी , ताकि ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य में तारतम्य रह सके . शब्दों का विभाजन विभिन्न घटकों की मात्रा संख्या के अंतर्गत ही किया जाये, और इसके लिए आवश्यक है छंदों की जानकारी के साथ-साथ समकालीनता की पकड़ भी हो ।
आज अपनी अकुंठ संघर्ष चेतना और एक के बाद दूसरी विकासोन्मुख प्रवृति के कारण हिन्दी ग़ज़ल एक ऐसे मुकाम पर खडी है , जहाँ वह हिन्दी साहित्य में अपनी स्वतन्त्र उपस्थिति दर्ज कराने को वेचैन दिखती है।
आज़कल तो ग़ज़ल में नए-नए प्रयोग होने लगे हैं , कोई इसे गीतिका, कोई नई ग़ज़ल , कोई कुछ तो कोई कुछ .......मगर कुल मिलाकर देखा जाये तो है ग़ज़ल ही न?
यदि हिन्दी ग़ज़ल पर मेरा यह संक्षिप्त आलेख आपको पसंद आया तो नि:संदेह मैं अपने अगले पोस्ट में हिन्दी ब्लॉग पर प्रस्तुत की जा रही ग़ज़लों की व्यापक समीक्षा लेकर आऊँगा , ताकि यह स्पष्ट हो सके कि कितने ब्लोगर हिन्दी ग़ज़लों के विकास में रूची ले रहे हैं ।

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

प्यार जिससे करो डूबकर के करो !



प्यार के तीन रुप -
(एक)
मन में उम्मीदों की चाहत भरो ,
डरो न किसी से , खुद से डरो ,
यही ज़िंदगी का सही फलसफा है -
प्यार जिससे करो डूबकर के करो !

(दो)
प्यार देवता है , प्यार ही है अल्ला,
सच्चीमोहब्बत में यार ही है अल्ला ,
खुद को जो समझा , खुदाई को समझा -
खुद पे किया एतवार ही है अल्ला !

(तीन )

हो सके तो ये जीवन सरल कीजिए ,
प्रेम के कुछ सबालों का हल कीजिए,
जिससे दिल टूट जाये किसी का यदि -
ऐसी कोई भी अब न पहल कीजिए !

और अंत में , समाज के एक ऐसे ज्वलंत मुद्दे , जिसने प्यार की परिभाषा हीं बदल दी , यानी कि प्यार को कलंकित कर दिया -

कैद में तितलियाँ पल रही है तो क्या ?
बॉक्स में मछलियाँ चल रही है तो क्या ?
शर्म कर ऐसे लोगों जो ये कह रहे -
बेवजह बेटियाँ जल रही है तो क्या ?
() रवीन्द्र प्रभात
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मंगलवार, 8 जनवरी 2008

कहीं क्रिकेट शर्मसार तो कही सभ्यता ....!



पिछले दिनों सिडनी में जो हुआ , उसे बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसे पूरा विश्व जानता है . मगर इस कुकृत्य के बारे में जानकर जो मैंने महसूस किया उसे चार पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।




देश के बाहर : मेरी राय में-




(एक)
चोर ने ऊंगली उठाई, न्याय ने करवट लिए ,
दो दोगले अम्पायरों ने फैसले झटपट किये ,
एक ही उल्लू काफी था बरबादे-क्रिकेट करने को-
कुल तेरह मिल गए साथ और खेल को चौपट किये !
(दो)
हमने अपनी सभ्यता का दे दिया प्रमाण फिर से ,
जिस सभ्यता पर देश को है गर्व और अभिमान फिर से ,
अम्पायारों से हारकर क्रिकेट है शर्मसार देखो -
हारकर भी कर लिए हम जीत का उनमान फिर से !



ये चित्र शनिवार की रात करीब नौ बजे के हैं , लखनऊ के आकाशवाणी केंद्र से चंद कदम की दूरी पर यातायात नियंत्रित करने के लिए तैनात पुलिस का एक सिपाही खुद नशे में धुत सड़क के किनारे पडा आयं-बायं बक रहा था , हमदर्दी के नाते कुछ लोग आगे बढे , उस सिपाही के चहरे पर पानी छिड़का....एक मारुति कार में कुछ खाकी वर्दीवाले आए मगर वे भी थाने को फोन करके आगे बढ़ गए ! काफी देर तक थाने की पुलिस नही पहुँची तो तो जिम्मेदारों को अपना नागरिक धर्म याद आया और सौ नंबर पर फोन हुआ...फिर क्या वही ढाक के तीन पात , बताने की कोई जरूरत नही, आप खुद समझदार हैं . मेरी तरफ से चार पंक्तियाँ इन्हीं पुलिस वालों को समर्पित --



देखिए कैसे हैं अफलातुन , प्रहरी देश के
बेसुरे राग के गंदे धुन , प्रहरी देश के
लोगों को सुरक्षा क्या देंगे ये भाई लोग-
जो वेहोश पी के हैं टुन , प्रहरी देश के !




वो बातें देश के बाहर की थी , ये देश के भीतर की , सभी जगह है चोरी फ़िर भी सीनाजोरी ! एक जगह क्रिकेट शर्मसार तो दूसरी जगह बर्दी , मुझे तो यही लग रहा की सभ्यता को लग गयी है सर्दी !








शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

बाबू ! औरत होना पाप है पाप ...... ।





सालों बाद देखा है

धनपतिया को आज

धुप की तमतमाहट से कहीं ज्यादा

उग्र तेवर में

भीतर-भीतर धुआंती

जीवन के एक महासमर के लिए तैयार ।

महज दो-तीन सालों में

कितना बदल गयी है वह

भड़कीले चटख रंगों की साडी में भी

अब नहीं दमकता उसका गोरा रंग

बर्फ के गोले की तरह

हो चले हैं बाल

और झुर्रियां

मरुस्थल के समान बेतरतीब ।

पहले-

बसंत के नव-विकसित पीताभ

नरगिस के फूलों की तरह

निर्मल दिखती थी धनपतिया

हहास बांधकर दौड़ती

बागमती की तरह अल्हड़

आसमानी रंग की साडी में

उमगती जब कभी

पास आती थी
बेंध जाती थी देह का पोर-पोर

अपने शरारती चितवन से ।

अब पूछने पर

कहती है धनपतिया-

बाबू !

औरत होना पाप है पाप....

कहते-कहते लाल हो जाता है चेहरा

तन आती है नसें

और आँचल में मुँह छुपाकर

बिफरने लगती है वह

नारी के धैर्य की

टूटती सीमाओं के भीतर

आकार ले रही

रणचंडी की तरह !

() रवीन्द्र प्रभात

बुधवार, 2 जनवरी 2008

संकल्प, लक्ष्य और परिणाम !

मिथिकीय उद्धरण में ऐसा कहा जाता रहा है , कि यह विशाल ब्रह्माण्ड ईश्वर के संकल्प का प्रतिफल है । ईश्वर में इच्छा जगी " एको अहं बहुस्याम " अर्थात् मैं अकेला हूँ - बहुत हो जाऊं । उसी संकल्प के परिणाम स्वरूप तीन गुण , पंचतत्व उपजे और सारा संसार बन कर तैयार हो गया । मैं यह नही जानता कि यह उद्धरण सही है या नही , बचपन में मेरी माँ सदैव ऐसे उद्धरणों के माध्यम से मेरा मार्गदर्शन किया करती थी , अर्थात मेरे भीतर संस्कार भरती, ताकि भविष्य में जब मैं कर्तव्य - पथ पर चलूँ तो बिपरीत परिस्थितियों में भी मेरे कदम न
डगमगाए । मेरी माँ अक्सर कहा करती रही कि -" जब मन का केन्द्रीकरण किसी संकल्प पर हो जाता है , तो उसकी पूर्ति में विशेष कठिनाई नही रहती । " अर्थात इच्छा जब योग्यता द्वारा परिष्कृत होकर दृढ निश्चय का रुप धारण कर लेती है , तो वह संकल्प कहलाती है ।

आप यह कहेंगे कि मैंने उपदेश देना शुरू कर दिया , सच तो यह है कि उपदेश देने वाले से महान वह होता है जो उपाय बताता है । ऐसा ही उपाय बताता हुआ एक पोस्ट आज मैंने देखा , आदरणीय शाष्त्री जे सी फिलिप जी के चिट्ठे "सारथी" पर 2008 टिप्पणी न करें: चिट्ठा छापते रहें ! पहले तो मेरे भीतर इसे पढ़ने की जिज्ञासा जगी , फिर जैसे-जैसे पढ़ता गया , खोता चला गया विचारों की दुनिया में । उनकी यह बात मुझे बहुत भाइ कि "अभी भी बहुत लोगों को यह गलतफहमी है कि यदि वे चाहे कुछ भी लिखते रहें तो भी उनको पाठक मिलेंगे। " इस विचार से सहमत होना लाजमी है ।
मेरा भी यही मानना है कि चिट्ठा विषयाधारित हो या न हो ,परविषयकेंन्द्रित अवश्य हो । इससे आप अपने भीतर की यात्रा करने में सफल हो जाते हैं ।
विचार मानव जीवन के उत्कर्ष और अभ्युदय का आधार है। विधेयात्मक विचार से जीवन शक्तिपुंज हो उठता है । विचार एक संसाधन है , जिसे नियंत्रित , सयंमित और उपयोगी बनाकर जीवन में अनेक चमत्कार एवं आश्चर्य जनक परिणाम उत्पन्न किये जा सकते हैं । विचार चाहे जो हों , शक्तिशाली होते हैं । इसलिए यह जरूरी है कि अपने चिट्ठों को विचारों से आबद्ध कर दें और नए वर्ष में संकल्पित मन से नव वर्ष का वरन करते हुए इसे एक लक्ष्य का स्वरूप दे दें , मुझे उम्मीद हीं नही वरन पूर्ण विश्वास है कि वर्ष -2008 समाप्त होते-होते इसके चमत्कारिक परिणाम देखने को मिलेंगे ।
इस संदर्भ में "ज्ञान दत्त पांडे जी की मानसिक हलचल " प्रासंगिक प्रतीत होती है , आज उनका भी पोस्ट पढा -"जोड़ों के दर्द में लाभप्रद वनस्पतीय प्रयोग " । उन्होंने अपने पोस्ट में पंकज अवधिया के पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियो का लाभप्रद विचारों को समाहित किया है , जो प्रशंसनीय है । इसी क्रम में आज एक और पोस्ट पर मेरी नजरें गयी , श्री रवि रतलामी जी के हिन्दी ब्लोग पर । उन्होंने चिट्ठाकारों के लिए नए साल के टॉप 10 संकल्प की चर्चा की है । उनके द्वारा जो सुझाव दिए गए है , वह सही मायनों में संकल्प है । एक ऐसा संकल्प जिसका कोई विकल्प नही होता । श्री रवि रतलामी जी के द्वारा प्रस्तावित संकल्पों में जो मैंने महसूस किया है , वह यह है कि उनके संकल्प में निहित है संस्कार,संवेदना , कार्यानुभूति और रचनात्मकता ।
कहा जाता है कि व्यक्ति जब लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा करता है , तो उसके संस्कार , कर्म , लगन तथा परोपकार की भावना उसकी उपलब्धियों के ढाल बनते हैं और व्यक्ति सफलता को वरन करता है । संकल्प का कोई विकल्प नही होता , संकल्प जब सार्वजनिक/सामुहिक हो जाता है तो प्रतिबद्धता का रुप ले लेता है । जहाँ प्रतिबद्धता है वहीं सृजन और जहाँ सृजन है वहीं आयाम ।
इसलिए आईये ज्यादा से ज्यादा चिट्ठे को सामूहिक विचारधारा में आवद्ध करते हुए नए वर्ष में ज्यादा से ज्यादा चिट्ठों का संजाल विकसित करें , सभी चिट्ठाकारों को प्रेरित करें कि वे अपने होने का एहसास कराएँ । साथ ही रवि रतलामी जी के 10 टॉप संकल्पों पर अमल करें । निश्चित रुप से कल आपका होगा ।

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

यदि चिंतन को चोरी करके ही लिखना है , तो ब्लोग लेखन करने की क्या आवश्यकता ?

आज मैं अपनी बात की शुरुआत नए वर्ष में नए लक्ष्य , संकल्प और परिणाम से शुरू करना चाहता था , किन्तु चिट्ठा पर नए पोस्ट पढ़ने के क्रम में मैंने पाया कि एक दिन पूर्व परिकल्पना पर मेरे द्वारा नव वर्ष की शुभकामनाओं के क्रम में प्रयुक्त किये गए पोस्ट को दूसरे दिन ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया गया है अनिल पांडे के द्वारा "आपका पन्ना " पर , तो थोडा अजीब सा लगा । मुझे इस बात की तकलीफ नही हुई कि मेरे विचारों को किसी के द्वारा बिना मेरी इजाजत लिए अथवा बिना उल्लेख किये ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया गया है , अपितु इस बात की तकलीफ हुई कि क्या हमारे पास विचारों की इतनी कमी हो गयी है कि दूसरों के पोस्ट , दूसरों के विचार अथवा दूसरो के चिंतन का चोरी-चोरी सहारा लिया जाये । अगर ऐसा है तो ब्लोग लेखन करने की क्या आवश्यकता?
क्या औचित्य ? कम से कम मौलिकता तो रहनी ही चाहिए ।
ब्लोग लेखन एक प्रकार का सार्वजनिक लेखन है , जो डायरी की मानिंद मौलिक चिंतन को प्राथमिकता देता है , यदि आपके पास कोई मौलिक विचार नही आ रहे हों तो कम से कम अपनी बात अपनी शैली , अपने शब्दों में तो करें । वैसे मैं आज लिखने कुछ और बैठा था , मगर अनिल पांडे के द्वारा किये गए इस पोस्ट , जिसे नक़ल की भी संज्ञा नही दी जा सकती , क्योकि असल ही टिपिया लिया गया , वह भी परिकल्पना का बिना उल्लेख किये , तो मुझे थोडा अटपटा लगा । मैं आज अपने इस पोस्ट के माध्यम से श्री अनिल पांडे को यह नेक मशविरा देना चाहूंगा कि आगे यदि लेखन में स्वयं को स्थापित करना हो तो इस प्रकार के कृत्यों से अवश्य बचें , यह अच्छी बात नही है ।
 
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