शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूं आशा ?

छल रहा विश्वास अब मैं क्या करूं आशा ?
हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूं आशा ?
दर्द का है साज, कोई अब तरन्नुम दे-
कह रहा मधुमास अब मैं क्या करूं आशा ?

जिस्म के सौदे में हैं मशगूल पंडित जी -

छोड़कर संन्यास , अब मैं क्या करूं आशा ?

तिनका-तिनका जोड़कर मैंने इमारत है गढी-

पर मिला बनवास, अब मैं क्या करूं आशा ?

आम-जन के बीच देकर क्षेत्रवादी टिप्पणी वह -

बन गया है ख़ास , अब मैं क्या करूं आशा ?

काव्य में खण्डित हुई है छंद की गरिमा -

गीत का उपहास , अब मैं क्या करूं आशा ?

()रवीन्द्र प्रभात

11 comments:

  1. बहुत बढिया गजल है।बधाई स्वीकारें।

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  2. उत्कृष्ट, आपकी प्रशंसा यूंही नहीं हो रही।
    बहुत बढ़िया।

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  3. भावभीनी रचना.. विश्वास के छले जाने पर भी आशा की एक किरण कहीं से फूट ही पड़ती है.

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  4. वाह!
    सुंदर!!
    अति सुंदर!!
    एक अच्छी रचना देने के लिए धन्यवाद.

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  5. रविन्द्र - बिल्कुल हमारे समय की ही बात कही है ; लय और लावण्य से - [ राज ठाकरे जैसे तमामों पर तंज़ बहुत सटीक है] - मनीष

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  6. बहुत बढ़िया लिखा है ...अच्छा लगा ...बधाई

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  7. खूबसूरत गजल। आपने बडी रदीफ को लेकर एक शानदार गजल कही है। यह बडी बात है। बधाई स्वीकारें।

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  8. बहुत बढ़िया।
    बधाई
    मेरे भाई
    किंतु आशा ही हमारी पूंजी है!

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  9. बहुत खूबसूरत गज़ल है रविन्द्र भाई...बधाई!

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  10. काव्य में खण्डित हुई है छंद की गरिमा -
    गीत का उपहास , अब मैं क्या करूं आशा ?
    -----------------------------

    वर्तमान स्थिति पर सटीक पंक्तियां
    दीपक भारतदीप

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