गुरुवार, 26 मार्च 2009
निर्वाचन के घाट पे भई नेतन की भीड़
जनता बन गयी द्रौपदी , खींच रहे हैं चीर !!
गदहा गाये भैरवी , तनिक न लागै लाज !
शाकाहारी बन गए , गिद्ध -गोमायु -बाज !!
पक्ष और प्रतिपक्ष में, ढूंढ रहे सब खोंच !
पांच बरस तक चोंचले, खूब लड़ाए चोंच !!
हरियाली की बात करे , सूख गए जब पात !
जनता भोली देखती , नेता का उत्पात !!
कृष्ण-दु:शासन साथ हैं , अर्जुन बेपरवाह !
कोई मसीहा आये, दिखलाये अब राह !!
() रवीन्द्र प्रभात
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
दाल काली भयो , कोष खाली भयो, माफिया भयो निर्भय ...बोलिए नेता की जय !
चुनावी महापर्व की वयार धीरे-धीरे परवान चढ़ रही है , कहीं खोखले आदर्श का प्रदर्शन हो रहा है तो कहीं खुलेआम नैतिकता की होली जलाई जा रही है । कहीं सरेआम नफ़रत के बीज बोए जा रहे हैं तो कहीं साम्प्रदायिकता की फसल काटने की कोशिश हो रही है । कहीं उपहार बांटे जा रहे हैं तो कहीं पैसे । एन -केन प्रकारेण हमारे वोट खरीदने की तैयारी हो रही है । जहाँ ख़रीदे नहीं जायेंगे वहाँ लूट लिए जायेंगे । प्रश्न यह उठता है , कि यदि ऐसा न करे हमारे नेता तो "आम और ख़ास " में अन्तर क्या ?
वेचारा चुनाव आयोग परेशान ....आचार संहिता के माध्यम से नकेल कसने की कोशिश की जा रही है ......पर हमारे नेता हैं जो सुधारने का नाम ही नही ले रहे .....क्या करेंगे भाई ! जो व्यक्ति पाँच साल तक कायदे -क़ानून को ठेंगे पर रखा हो वह अचानक एक -दो महीनों में कैसे सुधर जायेंगे ? अब चुनाव आयोग को भला कौन समझाये कि आचार -संहिता का उल्लंघन इनके फितरत में शामिल है .....ये अपनी आदत से मजबूर हैं..... नेता जो ठहरे ...! हमारा गजोधर कहता है , जानते हैं साब जी ! यही है नेता की सही पहचान .....कि उसमें हो साम-दाम-दंड -भेद का ज्ञान ....! इसके अलाबा और भी बातें हैं जिसके बिना नेता अधूरे समझे जाते हैं ....सही नेता वही माना जाता है जिसके आगे और पीछे गुंडे होते हैं , साथ में बड़े-बड़े मुस्टंडे होते हैं ....घर और दफ्तर में कुछ असलहे और डंडे होते हैं ....जिसके पास काली कमाई को सफ़ेद करने के हथकंडे होते हैं ....और जिसके पास फंड नहीं फंडे होते हैं ....ऐसे नेता नेता होते हैं बाकी सब ठंडे होते हैं ......और भी बहुत कुछ कहता है हमारा गजोधर जिसकी चर्चा यहाँ उचित नहीं है ....!
फिलहाल चुनावी विगुल बज चुका है और हमारे नेता पांच साल के बाद ही सही मगर क्षेत्र में दस्तक दे चुके हैं , इसलिए आईये उनका स्वागत करते हैं और कहते हैं - नेता जी की जय....इन पंक्तियों के साथ ,कि -
दाल काली भयो
कोष खाली भयो
जल रही नोट की होलियाँ
कुछ तुम्हारी लगी बोलियाँ ,
कुछ हमारी लगी बोलियाँ !
राजपथ सज गयी वादों की झंडियाँ
हो गयी फुटपाथों पे सरगामियाँ
आ गए हैं शहर-गाँव बहरूपिये -
बांटने दोनों हाथों से वेशार्मियाँ
है आडंबर कहीं तो छलावा कहीं
बना चूं-चूं का है मुरब्बा कहीं
जिसकी लाठी वही भैंस ले जायेगा -
घात -प्रतिघात है और दुरावा कहीं
हास-परिहास है
न्यास-विन्यास है
शब्द की उठ रही अर्थियां ....!
था मुखर माफिया और प्रखर चोर भी
उसकी चांदी हुयी हर तरफ शोर भी
हो गया फिर से सत्ता का द्रौपदीकारण
और दुर्योधन से कान्हा का गठजोड़ भी
नेता की जय कहो
आओ पूजा करो
पाँव उनके धरो देवियाँ ....!
व्यंग्य एवं कविता :रवीन्द्र प्रभात कार्टून:राजेन्द्र घोरपकर (साभार दैनिक हिन्दुस्तान )
मंगलवार, 10 मार्च 2009
जो बांहों में भर ले पगले उसका ही मधुमास ....!
आईये देखते हैं हिन्दी साहित्य में फागुन की गंध - शुरुआत करते हैं फणीश्वर नाथ रेणु से , हिन्दी साहित्य को अमर उपन्यास देने वाले फणीश्वर नाथ रेणु के बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास "मैला आँचल " में फाग गीत अथवा ऋतुगीत के नाम से गाये जाने वाले लोक गीतों का बड़ा ही मार्मिक व् सटीक उपयोग हुआ है, जिसमें से एक है कान्हा के रंगीले मोहक मिजाज का मोहमय वर्णन , जो इस प्रकार है -
"अरे बहियाँ पकडि झकझोरे श्याम रे
फूटल रेसम जोड़ी चूडी
मसुकी गयी चोली भिंगावल साडी
आँचल उडि जाए हो
ऐसी होरी मचायो श्याम रे ....!"
मैला आँचल में एक पात्र है फुलिया जिसने रमजू की स्त्री के आँगन में खलासी जी से भेंट करके कहा था कि "इस साल होली नैहर में ही मनाने दो " मन की मस्ती भरी इस इच्छा को गीत के रूप में इस प्रकार उडेला गया है -
"नयना मिलानी करी ले रे सईयाँ
नयना मिलानी करी ले
अब की बेर हम नैहर रहिबो
जो दिल चाहे सो करी ले ......!"
आईये एक ऐसे कवि की चर्चा करते हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य को गीत विधा का नया रूप ही नही दिया अपितु गीत के माध्यम से हिन्दी साहित्य को नया आयाम भी दिया , नाम है गोपाल सिंह नेपाली जिन्होंने होली पर अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार दी है -
" बरस-बरस पर आती होली,
रंगों का त्यौहार अनूठा
चुनरी इधर, उधर पिचकारी,
गाल-भाल पर कुमकुम फूटा
लाल-लाल बन जाते काले ,
गोरी सूरत पीली-नीली ,
मेरा देश बड़ा गर्वीला,
रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली ,
नीले नभ पर बादल काले ,
हरियाली में सरसों पीली !"
यह गीत उन्होंने वर्ष १९५७ में लिखी , जो आज भी प्रासंगिक है । कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने फागुन का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है -
"सखि, बसंत आया ।
भरा हर्ष बन के मन ,नवोत्कर्ष छाया ।
किसलय-वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय -उर तरु पतिका ,
मधुप -वृन्द वंदी पिक-स्वर नभ सरसाया ।
सखि,बसंत आया । "
वहीं डा० हरिवंश राय बच्चन की नज़रों में होली ऐसी है-
"एक बरस में एक बार ही
जगती होली की ज्वाला ,
एक बार ही लगती बाजी,
जलती दीपो की माला,
दुनिया वालों ,किंतु किसी दिन
आ मदिरालय में देखो ,
दिन को होली , रात दिवाली ,
रोज मनाती मधुशाला !"
प्रखर गीतकार गोपाल दास नीरज की नज़रों में बसंत कुछ ऐसा है-
"आज वसंत की रात ,
गमन की बात न करना ।
धूल बिछाए फूल-खिलौना,
बगिया पहने चांदी-सोना,
कलियाँ फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना । "
जबकि इससे अलग हटकर मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्री राम दुबे का कहना है , कि-
"अपने हाथों ख़ुद ही लेना , मुट्ठी भर आकाश ,
जो बाहों में भर ले पगले , उसका ही मधुमास ...!"
इस सन्दर्भ में मेरा मानना है, कि -" जीवन रुपी प्रवृतियों के कलश में सामूहिकता का रंग भरना ही होली है ........रंगों का यह निश्छल त्यौहार आप और आपके परिवारजन के स्वस्थ प्रवृतियों का श्रृंगार करे ....आत्मिक शक्तियों का विकास करे .....रखे उल्लासित,उत्साहित और प्रसन्नचित हमेशा .....संचारित करे चेतना में सदिच्छा -सदभाव-सदाचार .....आप सभी के लिए होली मंगलमय हो .....!"
गुरुवार, 5 मार्च 2009
क्या इसी का नाम है पाकिस्तान ?
कल लाहौर हमले का नया विडियो विभिन्न समाचार चैनलों पर जियो टी वी के सौजन्य से दिखाया गया जो हमले के ११ मिनट के बाद का है । सी सी टी वी कैमरे में कैद इस विडियो में स्पष्ट देखा गया कि हमले को अंजाम देने के बाद बड़े इत्मीनान से ये आतंकवादी लाहौर की गलिओं में घूमते हुए गए बिना किसी खौफ के ।
विडियो देखने से लग ही नही रहा था कि कोई बहुत बड़ा हादसा हुआ है इस शहर में । कन्धों पर कारतूसों से भरे बैग और हाथ में एके ४७ लिए ये आतंकवादी आराम से घूम रहे हैं और पुलिस नदारद , सब कुछ इत्मीनान , क्या इसी का नाम है पाकिस्तान ?