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परिकल्पना पर 
परिकल्पना की इस अनोखी परिकल्पना को आयामित करने में जिस व्यक्तित्व की बड़ी भूमिका रही है वे हैं आदरणीया श्रीमती सरस्वती प्रसाद 
कविवर पन्त की मानस पुत्री 
जिनके ब्लोगोत्सव पर आगमन मात्र से 
गरिमामय हो गयी परिकल्पना.....
आईये सरस्वती जी की कविता की इन पंक्तियों के माध्यम से मध्यांतर के बाद आगे बढ़ते हैं-
अपनी ही प्रतिध्वनि से रूबरू होनेवाले मन की आँखों में कितने अमूर्त चित्र मूर्तिमान होते गए .., 
मैं तुम्हारा हूँ 
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शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ ..
किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं 
जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं 
किसकी बाहें  हैं जो मेरी कल्पना में
दमकते नौलाख तारे टाँकती हैं 
कौन कर मनुहार मुझसे बोलता है 
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ..
कौन छू छू कर मेरी हर सांस को
दे रहा बल है मेरे विश्वास को
कौन जुगनू सा उस छोर पर
दूर करता है मेरे हर त्रास को 
कौन झंकृत करके मन के तार
मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ , तुम्हारा हूँ ..
किसकी यह पावन सुधि मेरी आत्मा पर
प्यार बनकर माँ के उर का छा रही है 
किसकी छाया लिपट कर मेरे अंग से
ज़िन्दगी के गीत सुंदर गा रही है
कौन होकर स्वप्न में साकार 
मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ ..
सरस्वती प्रसाद 
  
  
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आईये अब चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां लखनऊ के गोपाल जी उपस्थित हैं अपनी दो कविताओं के साथ........यहाँ किलिक करें 
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जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद
 


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