"यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिए" - अगर इनके बीच का अंतर मुझे पता न होता , तो मेरा ख्याल है , मुझे अपने हाथ में कलम पकड़ने का कोई हक नहीं था !
इस बात की तशरीह करने के लिए यहाँ मैं बंगाल के लेखक बिमल मित्र की कहानी 'धरन्ती' का हवाला देना चाहूँगी ! कहानी का आरम्भ लेखक इस तरह करता है "अगर यह कहानी मुझे न लिखनी पड़ती तो मैं खुश होता "
- यह आँखों देखी कहानी कोई मिसेज चौधरी आकर लेखक को सुनाती है , और साथ ही बड़ी शिद्दत से कहती है ' बिमल !तुम यह कहानी जैसे मैंने सुनाई है , हुबहू वैसे ही लिख दो ,पर इसका अंत बदलकर कर !"
कहानी यह है कि मिसेज चौधरी एक मकान मालकिन है और मकान के कमरे एक-एक के हिसाब से उनलोगों को किराये पर देती है, जिन्हें किराये की औरत के साथ रात गुज़ारने के लिए कमरे की ज़रूरत होती है ! यह कमाई उसके गुज़ारे का साधन है और इस कारोबार में एक अनहोनी बात हो जाती है कि एक जवान,सुन्दर और ईमानदार लड़की के पास अपने से महबूब से मिलने के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए वह लड़की और उसका महबूब कभी-कभी मिसेज चौधरी से ५ रूपये कुछ घंटों का किराया देकर एक कमरा ले लेते हैं ! दोनों छोटी नौकरी करते हैं, विवाह करना चाहते हैं , पर कोई घर किराये पर ले सकने की उनमें सकत नहीं है ... इसलिए विवाह का और घर का सपना वे पूरा नहीं कर सकते !
दोनों में इतनी सकत भी नहीं कि बाहर कहीं मिलकर खाना खा सकें ! इसलिए लड़की घर की पकी हुई रोटी लपेटकर ले आती है , वह दोनों साथ मिलकर, उस कमरे में बैठकर, खा लेते हैं बातें कर लेते हैं , घड़ी भर जी लेते हैं !
मिसेज चौधरी शुरू से इस कारोबार में नहीं थीं !वह भी कभी शरीफजादी थीं , घर की गृहिणी थीं , तुलसी की पूजा किया करती थीं ! पर ज़िन्दगी की कोई घटना ऐसी घट गई थी कि उसे गुज़ारे के लिए यह कारोबार करना पड़ा था ! इसलिए उसे इस सच्ची, सादी ,और सुन्दर लड़की से मोह सा हो जाता है ! कभी उनके पास ५ रूपये भी नहीं होते तो मिसेज चौधरी ३ रूपये ही ले लेती हैं और कभी कमरा उधार पर भी दे देती हैं !
उस मकाम में आनेवाले सब मर्द ऐश -परस्त हैं , नित नई लड़की चाहते हैं , सो उनमें से कोई अमीरजादा ५००, ८००, १००० रुपया भी खर्च करने के लिए तैयार है , अगर कभी उसे एक रात के लिए वो लड़की मिल जाये ,जो अपने महबूब के सिवा किसी की ओर नज़र उठाकर नहीं देखती ! मिसेज चौधरी उसकी पेशकश को ठुकरा देती हैं, क्योंकि यह बात उसे असंभव लगती है !
तभी लड़के की नौकरी छूट जाती है और उसका सपना हमेशा के लिए अधूरा रह जाने की हद तक पहुँच जाता है ! इस हालात में मिसेज चौधरी उस लड़की से उस अमीर आदमी की सिर्फ एक रात के लिए १००० रूपये की कीमतवाली बात कह देती है ! लड़की आँखें झुकाकर कहती है " अच्छा , मैं उससे पूछ लूँ" और फिर वापस आकर वह एक रात की कीमत १००० रुपया कबूल कर लेती है !
मिसेज चौधरी का विश्वास डिग जाता है ! पर वह लड़की एक रात उस आदमी के साथ गुजारकर १००० रुपया लेकर चली जाती है ! और फिर कुछ दिन के बाद उसे लड़की के विवाह का निमंत्रण पत्र मिलता है ! वह अचम्भे से भरी हुई विवाह में जाती है- वही लड़की सुहाग का जोड़ा पहने हुए बैठी हुई है और उसका वही महबूब उसकी मांग में सिंदूर भर रहा है !
मिसेज चौधरी के पैरों तले की धरती हिल जाती है ! वह उसी शाम को कहानी लेखक के पास आकर यह कहानी लिखने के लिए कहती है और साथ ही बड़ी शिद्दत से कहती है- " तुम इस कहानी का अंत बदल देना , यह विवाह यथार्थ नहीं हो सकता ! ऐसी घटना के बाद सिर्फ तबाही यथार्थ होती है , आज का विवाह कल का तलाक बन जायेगा ! वह लड़की भी आखिर में मेरी तरह, मेरे जैसा धंधा करेगी - यही सदा से होता आया है और होता रहेगा ..."
कहानी लेखक कई बरस तक कहानी नहीं लिख सके , क्योंकि वह नहीं जानता कि कहानी का क्या अंत लिखना चाहिए ! और इस तरह १५ बरस बीत जाते हैं , वह दोनों पात्रों को ढूंढने की कोशिश करता है, पर वे कहीं नहीं मिलते ! फिर एक संयोग घटता है कि कलकत्ते से दूर मध्यप्रदेश में एक नई लाइब्रेरी के उदघाटन पर लेखक को बुलाया जाता है और समारोह के बाद लाइब्रेरी का वेलफेयर ऑफिसर उसे अपने घर चाय पर बुलाता है ! वह घर एक छोटा सा बँगला है, जिसका छोटा सा बागीचा है और घर की एक-एक चीज़ पर सुखी ज़िन्दगी की मुहर लगी है ! दोनों पति-पत्नी उससे किताबों की बातें करते हैं ! उनका बच्चा बहुत प्यारा है, पर उसका नाम इतना अनोखा है कि लेखक के आश्चर्य करने पर , मर्द बताता है कि हम पति-पत्नी दोनों ने अपने नामों को मिलाकर अपने बच्चे का नाम बनाया है ! यहाँ लेखक को अपने खोये हुए पात्र मिल जाते हैं ! यह दोनों वही मुहब्बत के दीवाने हैं , जो कभी मिसेज चौधरी के घर कुछ घंटों के लिए कमरा किराये पर लिया करते थे !
अब लेखक पंद्रह बरस से मन में अधूरी पड़ी हुई कहानी लिख सकता है ! पर जैसे मिसेज चौधरी ने कहा था कि इस कहानी का अंत सिर्फ दुखांत लिखना चाहिए, क्योंकि दुखांत ही इसका यथार्थ है , पर कहानी लेखक वह नहीं लिख सकता !
पराये मर्द की सेज पर सोकर एक हज़ार रुपया कमानेवाली लड़की के अंगों को वह रात बिल्कुल नहीं छू सकी ! वह रात उसकी रूह और उसके बदन से हटकर परे खड़ी रही !
सिर्फ लड़की की रूह से परे नहीं , उसके महबूब के रूह से भी ! और वही एक हज़ार रुपया - उनदोनों के सपनों की पूर्ति का साधन बना , उनके वस्ल का सच , उनके घर की बुनियाद !
यह कहानी एक बहुत खूबसूरत संभावना है उस यथार्थ की जो अगर संभव नहीं , तो संभव हो सकना चाहिए !
कोई भी अदीब अगर ज़िन्दगी की नई और सशक्त कद्रों से जुडी हुई संभावनाओं को - ज़िन्दगी के यथार्थ की हद में नहीं ला सकता तो मेरे विश्वास के अनुसार वह सही अर्थों में अदीब नहीं है !
एक लेखक की - अपने पाठकों से वफ़ा सिर्फ इन अर्थों में होती है कि वह पाठकों के दृष्टिकोण का विस्तार कर सके ! जो लेखक यह नहीं कर सकता वह अपनी कलम से भी बेवफाई करता है, पाठकों से भी !
'धरन्ती' कहानी का लेखक जब यह कहता है - " अगर मुझे यह कहानी न लिखनी पड़ती तो मैं खुश होता " तब वह सिर्फ वह मनुष्य है जो सदियों से चले आ रहे उस यथार्थ का कायल है , जिसका अंत सिर्फ दुखांत होता है ! पर जब वह कहानी का अंत वह नहीं लिख सकता जो सदियों से होता आया है , तब वह सही अर्थों में एक कहानीकार है !
मैंने भी जब और जो भी लिखा है या लिखती हूँ, सही अर्थों में कहानीकार होने के विश्वास को लेकर लिखती हूँ ! और साथ ही इस फर्क को सामने रखकर - " अमृता जो है -
और अमृता जो होनी चाहिए " - बिल्कुल उसी तरह " यथार्थ जो है - और यथार्थ जो होना चाहिए "
इस कहानी से रूबरू होकर यही यथार्थ मेरी कलम को यह बताने को मजबूर करता है - रश्मि जो है- रश्मि जो होनी चाहिए ! 
(अमृता - रश्मि की कलम से) 
| एक दर्द था- () अमृता प्रीतम | 
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 कहने को तो आज साठ वर्ष से ज़्यादा हो चुके हैँ हमें पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ आज़ाद हुए लेकिन क्या आज भी हम सही मायने में आज़ाद हैँ?..मेरे ख्याल से नहीं
कहने को तो आज साठ वर्ष से ज़्यादा हो चुके हैँ हमें पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ आज़ाद हुए लेकिन क्या आज भी हम सही मायने में आज़ाद हैँ?..मेरे ख्याल से नहीं 











