मंगलवार, 31 अगस्त 2010

स्मृति शेष : अमृता और उनके विचार......


जी हाँ......एक यथार्थ हमारे समक्ष होता है जिसे हम जीते हैं , यूँ कहें जीना पड़ता है , सामना करना होता है, पर एक यथार्थ - जो वस्तुतः होना चाहिए , इस सन्दर्भ में हमारे अलग-अलग दृष्टिकोण भी होते हैं ! इस तथ्य के परिप्रेक्ष्य में मशहूर शायरा अमृता प्रीतम जी के विचारों से रूबरू करा रही हैं आज उनकी जन्म तिथि पर विशेष रूप से कवियित्री रश्मि प्रभा -




"यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिए" - अगर इनके बीच का अंतर मुझे पता न होता , तो मेरा ख्याल है , मुझे अपने हाथ में कलम पकड़ने का कोई हक नहीं था !

इस बात की तशरीह करने के लिए यहाँ मैं बंगाल के लेखक बिमल मित्र की कहानी 'धरन्ती' का हवाला देना चाहूँगी ! कहानी का आरम्भ लेखक इस तरह करता है "अगर यह कहानी मुझे न लिखनी पड़ती तो मैं खुश होता "

- यह आँखों देखी कहानी कोई मिसेज चौधरी आकर लेखक को सुनाती है , और साथ ही बड़ी शिद्दत से कहती है ' बिमल !तुम यह कहानी जैसे मैंने सुनाई है , हुबहू वैसे ही लिख दो ,पर इसका अंत बदलकर कर !"

कहानी यह है कि मिसेज चौधरी एक मकान मालकिन है और मकान के कमरे एक-एक के हिसाब से उनलोगों को किराये पर देती है, जिन्हें किराये की औरत के साथ रात गुज़ारने के लिए कमरे की ज़रूरत होती है ! यह कमाई उसके गुज़ारे का साधन है और इस कारोबार में एक अनहोनी बात हो जाती है कि एक जवान,सुन्दर और ईमानदार लड़की के पास अपने से महबूब से मिलने के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए वह लड़की और उसका महबूब कभी-कभी मिसेज चौधरी से ५ रूपये कुछ घंटों का किराया देकर एक कमरा ले लेते हैं ! दोनों छोटी नौकरी करते हैं, विवाह करना चाहते हैं , पर कोई घर किराये पर ले सकने की उनमें सकत नहीं है ... इसलिए विवाह का और घर का सपना वे पूरा नहीं कर सकते !

दोनों में इतनी सकत भी नहीं कि बाहर कहीं मिलकर खाना खा सकें ! इसलिए लड़की घर की पकी हुई रोटी लपेटकर ले आती है , वह दोनों साथ मिलकर, उस कमरे में बैठकर, खा लेते हैं बातें कर लेते हैं , घड़ी भर जी लेते हैं !

मिसेज चौधरी शुरू से इस कारोबार में नहीं थीं !वह भी कभी शरीफजादी थीं , घर की गृहिणी थीं , तुलसी की पूजा किया करती थीं ! पर ज़िन्दगी की कोई घटना ऐसी घट गई थी कि उसे गुज़ारे के लिए यह कारोबार करना पड़ा था ! इसलिए उसे इस सच्ची, सादी ,और सुन्दर लड़की से मोह सा हो जाता है ! कभी उनके पास ५ रूपये भी नहीं होते तो मिसेज चौधरी ३ रूपये ही ले लेती हैं और कभी कमरा उधार पर भी दे देती हैं !

उस मकाम में आनेवाले सब मर्द ऐश -परस्त हैं , नित नई लड़की चाहते हैं , सो उनमें से कोई अमीरजादा ५००, ८००, १००० रुपया भी खर्च करने के लिए तैयार है , अगर कभी उसे एक रात के लिए वो लड़की मिल जाये ,जो अपने महबूब के सिवा किसी की ओर नज़र उठाकर नहीं देखती ! मिसेज चौधरी उसकी पेशकश को ठुकरा देती हैं, क्योंकि यह बात उसे असंभव लगती है !

तभी लड़के की नौकरी छूट जाती है और उसका सपना हमेशा के लिए अधूरा रह जाने की हद तक पहुँच जाता है ! इस हालात में मिसेज चौधरी उस लड़की से उस अमीर आदमी की सिर्फ एक रात के लिए १००० रूपये की कीमतवाली बात कह देती है ! लड़की आँखें झुकाकर कहती है " अच्छा , मैं उससे पूछ लूँ" और फिर वापस आकर वह एक रात की कीमत १००० रुपया कबूल कर लेती है !

मिसेज चौधरी का विश्वास डिग जाता है ! पर वह लड़की एक रात उस आदमी के साथ गुजारकर १००० रुपया लेकर चली जाती है ! और फिर कुछ दिन के बाद उसे लड़की के विवाह का निमंत्रण पत्र मिलता है ! वह अचम्भे से भरी हुई विवाह में जाती है- वही लड़की सुहाग का जोड़ा पहने हुए बैठी हुई है और उसका वही महबूब उसकी मांग में सिंदूर भर रहा है !

मिसेज चौधरी के पैरों तले की धरती हिल जाती है ! वह उसी शाम को कहानी लेखक के पास आकर यह कहानी लिखने के लिए कहती है और साथ ही बड़ी शिद्दत से कहती है- " तुम इस कहानी का अंत बदल देना , यह विवाह यथार्थ नहीं हो सकता ! ऐसी घटना के बाद सिर्फ तबाही यथार्थ होती है , आज का विवाह कल का तलाक बन जायेगा ! वह लड़की भी आखिर में मेरी तरह, मेरे जैसा धंधा करेगी - यही सदा से होता आया है और होता रहेगा ..."

कहानी लेखक कई बरस तक कहानी नहीं लिख सके , क्योंकि वह नहीं जानता कि कहानी का क्या अंत लिखना चाहिए ! और इस तरह १५ बरस बीत जाते हैं , वह दोनों पात्रों को ढूंढने की कोशिश करता है, पर वे कहीं नहीं मिलते ! फिर एक संयोग घटता है कि कलकत्ते से दूर मध्यप्रदेश में एक नई लाइब्रेरी के उदघाटन पर लेखक को बुलाया जाता है और समारोह के बाद लाइब्रेरी का वेलफेयर ऑफिसर उसे अपने घर चाय पर बुलाता है ! वह घर एक छोटा सा बँगला है, जिसका छोटा सा बागीचा है और घर की एक-एक चीज़ पर सुखी ज़िन्दगी की मुहर लगी है ! दोनों पति-पत्नी उससे किताबों की बातें करते हैं ! उनका बच्चा बहुत प्यारा है, पर उसका नाम इतना अनोखा है कि लेखक के आश्चर्य करने पर , मर्द बताता है कि हम पति-पत्नी दोनों ने अपने नामों को मिलाकर अपने बच्चे का नाम बनाया है ! यहाँ लेखक को अपने खोये हुए पात्र मिल जाते हैं ! यह दोनों वही मुहब्बत के दीवाने हैं , जो कभी मिसेज चौधरी के घर कुछ घंटों के लिए कमरा किराये पर लिया करते थे !

अब लेखक पंद्रह बरस से मन में अधूरी पड़ी हुई कहानी लिख सकता है ! पर जैसे मिसेज चौधरी ने कहा था कि इस कहानी का अंत सिर्फ दुखांत लिखना चाहिए, क्योंकि दुखांत ही इसका यथार्थ है , पर कहानी लेखक वह नहीं लिख सकता !

पराये मर्द की सेज पर सोकर एक हज़ार रुपया कमानेवाली लड़की के अंगों को वह रात बिल्कुल नहीं छू सकी ! वह रात उसकी रूह और उसके बदन से हटकर परे खड़ी रही !

सिर्फ लड़की की रूह से परे नहीं , उसके महबूब के रूह से भी ! और वही एक हज़ार रुपया - उनदोनों के सपनों की पूर्ति का साधन बना , उनके वस्ल का सच , उनके घर की बुनियाद !

यह कहानी एक बहुत खूबसूरत संभावना है उस यथार्थ की जो अगर संभव नहीं , तो संभव हो सकना चाहिए !

कोई भी अदीब अगर ज़िन्दगी की नई और सशक्त कद्रों से जुडी हुई संभावनाओं को - ज़िन्दगी के यथार्थ की हद में नहीं ला सकता तो मेरे विश्वास के अनुसार वह सही अर्थों में अदीब नहीं है !

एक लेखक की - अपने पाठकों से वफ़ा सिर्फ इन अर्थों में होती है कि वह पाठकों के दृष्टिकोण का विस्तार कर सके ! जो लेखक यह नहीं कर सकता वह अपनी कलम से भी बेवफाई करता है, पाठकों से भी !

'धरन्ती' कहानी का लेखक जब यह कहता है - " अगर मुझे यह कहानी न लिखनी पड़ती तो मैं खुश होता " तब वह सिर्फ वह मनुष्य है जो सदियों से चले आ रहे उस यथार्थ का कायल है , जिसका अंत सिर्फ दुखांत होता है ! पर जब वह कहानी का अंत वह नहीं लिख सकता जो सदियों से होता आया है , तब वह सही अर्थों में एक कहानीकार है !

मैंने भी जब और जो भी लिखा है या लिखती हूँ, सही अर्थों में कहानीकार होने के विश्वास को लेकर लिखती हूँ ! और साथ ही इस फर्क को सामने रखकर - " अमृता जो है -

और अमृता जो होनी चाहिए " - बिल्कुल उसी तरह " यथार्थ जो है - और यथार्थ जो होना चाहिए "

इस कहानी से रूबरू होकर यही यथार्थ मेरी कलम को यह बताने को मजबूर करता है - रश्मि जो है- रश्मि जो होनी चाहिए !


(अमृता - रश्मि की कलम से)


एक दर्द था-
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं -
जो सिगरेट से मैं ने राख की तरह झाड़ी.....

() अमृता प्रीतम

शनिवार, 28 अगस्त 2010

मुस्कुराईये कि आप लखनऊ में हैं !



१३ दिनों के महाराष्ट्र प्रवास के बाद कल यानी २७ अगस्त को मेरी फ्लाईट जैसे ही लखनऊ एयरपोर्ट पर लैंड हुई , मन के किसी कोने से आवाज़ आयी "मुस्कुराईये कि आप लखनऊ में हैं !"
मुम्बई से चलकर सायं ४.३० बजे लखनऊ आया और सीधे एयरपोर्ट से साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन के द्वारा आयोजित ब्लॉग लेखन - विज्ञान संचार‘ विषयक कार्यशिविर के उद्घाटन समारोह स्थल गोमतीनगर लखनऊ के लिए प्रस्थान कर गया । हालांकि जब मैं पहुंचा तो कार्यक्रम समापन के सन्निकट था और मैं भी कुछ थका-थका सा महसूस कर रहा था इसलिए जाकिर भाई और अरविन्द जी से विदा लेकर मैं अपने निवास की ओर प्रस्थान कर गया !
अच्छा लगा यह देखकर कि सबकुछ सही दिशा में और भव्यता के साथ संपन्न कराया जा रहा है, इसके लिए श्री अरविन्द मिश्र जी और श्री जाकिर अली जी को कोटिश: बधाईयाँ !
आशा है यह आयोजन हिंदी ब्लोगिंग को एक नया आयाम देने में सहायक सिद्ध होगा, इस कार्यक्रम से जुड़े सभी साथियों को मेरी अनंत आत्मिक शुभकामनाएं और एक नयी शुरुआत करने के लिए बधाईयाँ !

बहुत दिनों के बाद घर-परिवार-बच्चों से मुखातिव हूँ , व्यस्तता ज्यादा है इसलिए आज सिर्फ इतना ही ..... इस कार्यशाला के पल-पल की गतिविधियों से आप भी रूबरू हों -
साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन और तस्लीम पर

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

पिछड़ा वर्ग की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण :रमेश प्रजापति

पुस्तक समीक्षा

समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।

आदि काल से भारत के सामाजिक परिपे्रक्ष्य को देखे तो भारतीय समाज जाति एवं वर्ण व्यवस्था के व्दंद से आज तक जूझ रहा है। समाज के चौथे वर्ण की स्थिति में अभी तक कोई मूलभूत अंतर नही हो पाया है। आर्थिक कारणों के साथ-साथ इसके पीछे एक कारण सवर्णो की दोहरी मानसिकता भी कही जा सकती है। पिछड़ा वर्ग जोकि चौथे वर्ण का ही एक बहुत बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग की सामाजिक स्थिति के संबंध में लेखक कहता है-''पिछड़ा वग्र एक ऐसा कामगार वर्ग है जो न तो सवर्ण है और न ही अस्पृश्य या आदीवासी इसी बीच की स्थिति के कारण न तो इसे सवर्ण होने का लाभ मिल सका है और न ही निम्न होने का फायदा मिला।`` पृ.१४ यह बात सत्य दिखाई देती है कि पिछड़ा वर्ग आज तक समाज में अपना सही मुकाम हासिल नही कर पाया है। उसकी स्थिति ठीक प्रकार से स्पष्ट नही हो पा रही है इसीलिए इस वर्ग की जातियॉं अपने अस्तित्व के बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

विवेच्य पुस्तक में अभी तक की समस्त भ्रांतियों, मिथकों और पूर्वधारणाओं को तोड़ते हुए धर्म-ग्रंथों से लेकर वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर पिछड़े वर्ग की निर्माण प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया है। लेखक ने आवश्यकता पड़ने पर उदाहरणों के माध्यम से अपने निष्कर्षो को मजबूत किया है। भारत की जनसंख्या का यह सबसे बड़ा वर्ग है जो वर्तमान स्थितियों -परिस्थितियों के प्रति जागरूक न होने के कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका नही निभा पा रहा है। इस वर्ग की यथार्थ स्थिति के बारे में लेखक का मत है-''व्दितीय राष्टीय पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट तथा रामजी महाजन की रिपोर्ट कहती है कि भारत वर्ष में इसकी जनसंख्या ५२ प्रतिशत है, किन्तु विभिन्न संस्थाओं , प्रशासन एवं राजनीति में इनकी भागीदारी नगण्य है। चेतना की कमी के करण यह समाज आज भी कालिदास बना बैठा है।`` पृ. १४ गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही इस वर्ग की जातियॉं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के कारण सदैव दोहन-शोषण का शिकार रही है। भूमंडलीकरण के आधुनिक समाज में इस वर्ग की स्थिति ज्यो-कि-त्यों बनी हुई है। हम वैज्ञानिक युग में जी रहे है परन्तु आज भी अंध विश्वास के कारण कुछ पिछड़ी जातियों का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। जिसकी पुष्टि लेखक के अपने इस वक्तव्य से की है-''आज भी सुबह-सुबह एक तेली का मॅुह देखना अशुभ माना जाता है। वेदों-पुराणों में पिछड़ा वर्ग को व्दिज होने का अधिकार नही है, हालाकि कई जातियॉं अब खुद ही जनेउ पहनने लगी । धर्म-ग्रंथो ने इन शुद्रों को (आज यही शुद्र पिछड़ा वर्ग में आते है) वेद मंत्रों को सुनने पर कानों में गर्म तेल डालने का आदेश दिया है। पूरी हिन्दू सभ्यता में विभिन्न कर्मो के आधार पर इन्ही नामों से पुकारे जाने वाली जाति जिन्हे हम शुद्र कहते है। ये ही पिछड़ा वर्ग कहलाती है।`` पृ. २३ इसी पिछड़ा वर्ग के उत्थान और सम्मान के उद्देश्य से समय-समय पर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, लोहिया, पेरियार, चौ.चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह आदि पिछड़े वर्ग के समाज सुधारकों और राजनेताओं ने जीवनपर्यंत सतत् संघर्ष किए है। बावजूद इसके पिछड़ा वर्ग आज तक इन समाज सुधारकों को उतना सम्मान नही दे पाया जितना कि उन्हे मिलना चाहिए था।

पिछड़ी जातियों की जॉंच-पड़ताल करते हुए उन्हे कार्यो के आधार पर वर्गीकृत करके इस वर्ग के अंदर आने वाली जातियों का भी लेखक ने गहनता से अध्ययन किया है। लेखक ने इन्हे समाज की मुख्यधारा से बाहर देखते हुए शूद्र को ही पिछड़ा वर्ग कहा है, जिसमें अतिशूद्र शामिल नही है। इस कार्य हेतु लेखक ने पिछड़ा वर्ग की वेबसाईट का सहारा लिया है, जिससे वह अपने तर्क को अधिक मजबूती से सामने रखने में सफल हुआ है। पूर्व वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई अस्तित्व नही था वह उत्तर वैदिक काल में सामने आई और इसी काल में विकसित भी हुई। आर्यो के पहले ब्राम्हण ग्रथों में तीन ही वर्ण थे जबकि चौथे वर्ण शुद्र की पुष्टि स्मृतिकाल में आकर हुर्ह है। शुद्र शब्द को लेखक ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है- ''शुद्र शब्द सुक धातु से बना है अत: सुक(दु:ख) द्रा (झपटना यानि घिरा होना) यानि जो दुखों से घिरा हुआ है या तृषित है। तैत्तिरीय ब्राम्हण के अनुसार शूद्र जाति असुरों से उत्पन्न हुई है। (देव्यों वै वर्णो ब्राम्हण:। असुर्य शुद्र:।) यजुर्वेद। ३०-५ के अनुसार (तपसे शुद्रम) कठोर कर्म व्दारा जीविका चलाने वाला शूद्र है। यही गौतम धर्म सुत्र (१०-६,९) के अनुसार अनार्य शुद्र है।`` पृ.-३७ मनुस्मृति के आधार पर अनुलोम एवं प्रतिलोम सूची के अनुसार पिछड़ी जातियों की उत्पत्ति के संबंध में लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है- ''अभी तक हम यह मान रहे थे कि समस्त पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ग से आती है, किन्तु यह सूची एक नही दिशा दिखलाती है, क्योकि ऐसा न होता तो वैश्य पुरूष से शुद्र स्त्री के संयोग से दर्जी का जन्म क्यों होता, जबकि हम दर्जी को भी शुद्र मान रहे है। इस प्रकार शुद्र पुरूष या स्त्री से अन्य जाति के पुरूष-स्त्री के संभोग से निषाद, उग्र, कर्ण, चांडाल, क्षतर, अयोगव आदि जाति की संतान पैदा होती है। अत: इस बात की पूरी संभावना है कि अन्य कामगार जातियों का अस्तित्व निश्चित रूप से अलग रहा है।`` पृ.-३० लेखक व्दारा दी गई पिछड़ी जातियों की निर्माण प्रक्रिया हमारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती है। यदि शुद्रों का विभाजन किया जाए तो हम देखते है कि पिछड़ी जातियॉं शुद्र वर्ण के अंतर्गत ही आती है। शुद्र के विभाजन के संदर्भ में पेरियार ललई सिंह यादव का यह कथन देखा जा सकता है-''समाज के तथाकथित ठेकेदारों व्दारा जान-बूझकर एक सोची-समझी साजिश के तहत शुद्रों के दो वर्ग बना रखे है, एक सछूत शुद्र (पिछड़ा वर्ग) दूसरा अछूत शूद्र (अनुसूचित जाति वर्ग)।``

आर्यो की वर्ण -व्यवस्था से बाहर, इन कामगार जातियों के संबंध में लेखक 'सभी पिछड़े वर्ग की कामगार जातियों को अनार्य` मानते है। समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में जाति व्यवस्था के अंतर्गत परिवर्तन हुए जिनसे पिछड़ा वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। अपने काम-धंधों पर आश्रित ये जातियॉं अपनी आर्थिक स्थिति के कारण देश के अति पिछड़े भू-भागों में निम्नतर जीवन जीने को विवश है। लेखक ने सामाजिक समानता से दूर उनके इस पिछड़ेपन के कारणों की भी तलाश की है। पुस्तक में पिछड़ा वर्ग को कार्य के आधार पर उत्पादक और गैर उत्पादक जातियों में बांटा गया है।

यदि जातियों के इतिहास में जाए तो हम देखते है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था का आधार कार्य और पेशा रहा, परन्तु कालान्तर में इसे जन्म पर आधारित मान लिया गया है। दरअसल भारत की जातीय संरचना से कोई भी जाति पूर्ण रूप से संतुष्ट दिखाई नही देती और उनमें भी खासकर पिछड़ी जातियॉं। जाति व्यवस्था को लेकर १९११ की जनगणना में यह असंतोष की भावना मुख्यत: उभर कर सामने आई थी। उस समय अनेक जातियों की याचिकाऍं जनगणना अयोग की मिली, जिसमें यह कहा गया था कि हमें सवर्णों की श्रेणी में रखा जाए। परिणामस्वरूप जनगणना के आंकड़ो में ढेरों विसंगतियॉं और अन्तर्जातीय प्रतिव्दन्व्दिता उत्पन्न हो गई थी। आज भी कायस्थ, मराठा भूमिहार और सूद सवर्ण जाति में आने के लिए संघर्षरत है। ये जातियॉं अपने आप को सवर्ण मानती है परन्तु सवर्ण जातियॉं इन्हे अपने में शामिल करने के बजाए इनसे किनारा किए हुए है। लेखक ने अपने अध्ययन में तथ्यों और तर्को के आधार पर इन जातियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति को चित्रित करने का प्रयास किया है। यदि गौर से देखे तो आज भी पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति अपनी स्थिति को लेकर हीन भावना से ग्रस्त है। जबकि भारत के विभिन्न राज्यों की अन्य जातियॉं आरक्षण लाभ उठाने की खातिर पिछड़े वर्ग में सम्मिलित होने के लिए संघर्ष कर रही है। आधुनिक भारत में समय-समय पर जातियों के परिवर्तन करने से बहुत बड़े स्तर पर सामाजिक विसंगतियॉं उत्पन्न होती रही है। पिछड़ा वर्ग को अपनी समाजिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए विचारों में बदलाव लाना अति आवश्यक है। जॉन मिल कहते है,''विचार मूलभूत सत्य है। लोगो की सोच में मूलभूत परिवर्तन होगा, तभी समाज में परिवर्तन होगा।`` यदि यह वर्ग जॉन मिल के इन शब्दों पर सदैव ध्यान देगा तो वह अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति स्थिति को उचित दिशा देकर अवश्य आगे बढ़ सकेगा।

आज भी सवर्णो में गोत्र प्रणाली विशिष्ट स्थान रखती है। प्राचीन काल से लेकर इस उत्तर आधुनिक समय में भी सगोत्र विवाह का सदैव विरोध होता रहा है। इनको देखते हुए कुछ पिछड़ी जातियॉं भी ऐसे विवाह संबंधो का विरोध करन लगी है। ताज़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग की जाट जाति को लिया जा सकता है। जिसने हाल ही में समस्त कानून व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाकर सगोत्र और प्रेम-विवाह का कड़ा विरोध किया है। जाट महासभा ने ऐसे विवाह के विरोध में अपना फासीवादी कानून भी बना लिया है।

पिछड़े वर्ग में व्याप्त देवी-देवताओं से संबंधित अनेक परम्परागत मान्यताओं और धारणाओं का भी लेखक द्वारा गंभीरता से अध्ययन किया गया है। गौतम बुध्द की जातिगत भ्रातियों को लेखक ने सटीक तथ्यों के माध्यम से तोड़कर उन्हे अनार्य घोषित किया है। बुध्द और नाग जातियों के पारस्परिक संबंध को बताते हुए डॉ. नवल वियोगी के कथन से अपने तर्क की पुष्टि इस संदर्भ में की है कि महात्मा बुध्द अनार्य अर्थात शुद्र थे, जिन्हे बाद में क्षत्रिय माना गया-''बौध्द शासकों के पतन के बाद स्मृति काल में ही बुध्द की जाति बदल कर क्षत्रिय की गई तथा उन्हे विष्णु का दशवॉं अवतार भी इसी काल में बनाया गया।`` पृ.-७४

धार्मिक पाखंडो से मुक्ति दिलाने और पिछड़ों के अंदर चेतना का संचार करके उनके उत्थान के लिए देश भर के बहुत से समाज सुधारक साहित्यकारों व्दारा समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन चलाए गए है। इन साहित्यकारों के व्यक्तित्व और उनके सामाजिक कार्यो का लेखक ने बड़ी ही शालीनता से अपनी इस पुस्तक में परिचय दिया है। इन संतों में प्रमुख है-संत नामदेव, सावता माली, संत चोखामेला, गोरा कुम्हार, संत गाडगे बाबा, कबीर, नानक, नानक, पेरियार, रैदास आदि। मंडल आयोग की सिफारिशों और आरक्षण की व्यवस्था के विवादों की लेखक ने इस पुस्तक में अच्छी चर्चा की है।

प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था को लेकर आधुनिक भारतीय समाज में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास के साथ-साथ उनकी समस्याओं और उनके आंदोलनों का अध्ययन संजीव खुदशाह ने बड़ी सतर्कता के साथ किया है। लेखक ने पिछड़ा वर्ग के इतिहास के कुछ अनछुए प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला है। संजीव खुदशाह ने धार्मिक ग्रंथो, सामाजिक संदर्भो और राजनीतिक सूचनाओं का गहनता से अध्ययन करके आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग की वास्तविक सामाजिक स्थिति को सहज-सरल भाषा में सामने रखने की कोशिश की है। कोशिश मै इस कारण से कह रहा हूं कि लेखक ने इतने बड़े वर्ग के संघर्षो और संत्रासों को बहुत ही छोटे फलक पर देखा है। लेखक का पूरा ध्यान इस वर्ग-विशेष के सामाजिक विश्लेषण पर तो रहा परन्तु उनके शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विश्लेषण पर नही के बराबर रहा है। आधुनिक भारत में जिस पूंजीवाद ने समाज के इस वर्ग को अधिक प्रभावित किया है उससे टकराए बिना लेखक बचकर निकल गया, यह इस पुस्तक का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। फिर भी मै इस युवा समाजशास्त्री को बधाई जरूर दूंगा जिन्होने बड़ी मेहनत और लगन से भारत के इतने बड़े वर्ग की स्थिति पर अपनी लेखनी चलाई है।

पुस्तक का नाम आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग
(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)
लेखक :संजीव खुदशाह
मूल्य : २००/- रू.
संस्करण :२०१० पृष्ठ-१४२
प्रकाशक :शिल्पायन १०२९५ , लेन नं.१
वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,
दिल्ली-११००३२ फोन-011-२२८२११७४

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

एक और नयी पहल : एक गीत एक कहानी एक नज़्म एक याद

"ले अभाव का घाव ह्रदय का तेज
मोम सा गला
अश्रु बन ढला
सुबह जो हुई
सभी ने देख कहा --- शबनम है !"

- सरस्वती प्रसाद

ज़िन्दगी के दर्द ह्रदय से निकलकर बन जाते हैं कभी गीत, कभी कहानी, कोई नज़्म, कोई याद ......जो चलते हैं हमारे
साथ, ....... वक़्त निकालकर बैठते हैं वटवृक्ष के नीचे , सुनाते हैं अपनी दास्ताँ उसकी छाया में.





लगाते हैं एक पौधा उम्मीदों की ज़मीन पर और उसकी जड़ों को मजबूती देते हैं ,करते हैं भावनाओं का सिंचन उर्वर शब्दों की क्यारी में और हमारी बौद्धिक यात्रा का आरम्भ करते हैं....





अनुरोध है, .... इस यात्रा में शामिल हों, स्वागत है आपकी आहटों का .... जिसे 'वटवृक्ष' सुन रहा है ....................






प्रविष्टियाँ निम्न ई-मेल पते पर प्रेषित करें -
ravindra.prabhat@gmail.com


कृपया ध्यान दें :

कई मित्रों ने इसे और स्पस्ट करने को कहा है , इसलिए इसे थोड़ा और स्पस्ट कर रहा हूँ - आप अपनी स्मृतियों को टटोलें , वह कुछ भी हो सकती है या तो बचपन की यादें हो अथवा माता-पिता और बच्चों से संदर्भित यादें . यादें जो प्रेरणाप्रद हों ...यादें जो सकारात्मक हों......यादें जो आपको आंदोलित कर गयी हों ......यादें कोई भी जो सुखद हो ....उसे नज़्म, गीत, कहानी या फिर शब्दों का गुलदस्ता बनाते हुए प्रेषित कर सकते हैं ....या फिर ऐसी प्रेरणाप्रद बातें जो एक सुखद और सांस्कारिक वातावरण तैयार करने की दिशा में सार्थक हों उसे पद्य या गद्य का रूप देकर भेज सकते हैं .....रचना प्रकाशित हो अथवा अप्रकाशित कोई फर्क नहीं पड़ता किन्तु मौलिक अवश्य हो ....और हाँ इसमें शामिल होने के लिए ब्लोगर होना आवश्यक नहीं है , कोई भी शामिल हो सकता है जो सृजन से जुडा हो !

बुधवार, 25 अगस्त 2010

चर्चा-ए-आम : कालिया और उनकी ‘टीम’ को ज्ञानपीठ से बाहर किया जाय....

आजकल साहित्य जगत में चर्चा-ए-आम है श्री विभूति नारायण राय की महिला लेखकों के प्रति गैरजिम्मेदाराना टिप्पणी ........इस टिप्पणी को लेकर लगातार आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है , विगत दिनों स्वतन्त्रता दिवस पर आयोजित महत्वपूर्ण परिचर्चा के कारण मैंने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया , किन्तु इस बीच अनेक साहित्यकारों की टिप्पणियों से मैं रूबरू होता रहा । उन्हीं टिप्पणियों में से दो महत्वपूर्ण टिप्पणी आज परिकल्पना पर प्रस्तुत कर रहा हूँ- =======================================================
इन दिनों हिन्दी साहित्य परिदृश्य में जो कुछ अरोचक, अवैचारिक तथा असाहित्यिक घट रहा है। दुखद है। उत्तेजित करने वाला है।वरिष्ठ कथाकार तथा महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविधालय के कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ बेवफाई सुपर विशेषांक के लिए ली गयी अपनी बातचीत में लेखिकाओं के प्रति आपत्तिजनक शब्द और उनके लेखन पर अपनी राय देते हुए जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं नाकाविल-ए-वर्दाश्त है।मेरी दृष्टि में, विभूति नारायण राय से अधिक दोषी ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक होने के नाते रवीन्द्र कालिया जी हैं, जिन्होंने उनकी ऐसी टिप्पणी को बिल्कुल गैर जिम्मेदाराना ढंग से छापा दरअसल, रवीन्द्र कालीया जी जबसे ज्ञानपीठ के निदेशक बने हैं, ज्ञानपीठ की गरिमा धूमिल हुई है। ‘नया ज्ञानोदय’ के जैसे-जैसे असाहित्यिक और बाजारू अंक उनके संपादन में आ रहे हैं, वेहद अफसोसनाक हैं । रवीन्द्र’ कालिया जी ‘ज्ञानपीठ’ जैसी गरिमामयी संस्था की शीर्ष पर बैठ कर न्याय नहीं कर पा रहे हैं । इसलिए मेरी मांग है कि रवीन्द्र कालिया जी को तुरत ज्ञानपीठ के निदेशक पद से इस्तीफा दे देना चाहिए तथा ऐसे कृत्यो मे शामिल उनके सहयोगियों को भी ज्ञानपीठ से निकाल-बाहर करना चाहिए।
शहंशाह आलम, युवा कवि

मोबाईल न० - ०९८३५४१७५३७




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हिन्दी के वरिष्ठ कवि उद्भ्रांत ने विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया प्रकरण के संदर्भ’ में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इन दोनों व्यक्तियों की मानसिकता अपने लेखन और व्यवहार में प्रारम्भ से ही स्त्री विरोधी रही है और इन दोनों की मिली भगत ने मौजूदा समय में एक ऐसा गर्हित उदाइरण प्रस्तुत कर दिया है जिसकी मिसाल सौ साल मे इतिहास में नहीं मिलेगी । और पहली बार ऐसा हुआ है कि समूचा हिन्दी समाज इनकी अश्लील जुगलबंदी के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। अगर ज्ञानपीठ के प्रबंधकों ने कालिया को तत्काल प्रभाव से वर्खास्त नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब ज्ञानपीठ को हिन्दी के एक भी सुरूचि सम्पन्न पाठक की कमी महसूस होगी । जहाँ तक विभूति नारायण की बात है उनका तो मूल चरित्र पुलिसिया मानसिकता वाला ही है, भले ही सरकारी दवाब में अपनी नौकरी बचाने के लिए उन्होंने माफी अभी मांगी हो लेकिन उनका जाना भी निश्चित है। यह भी विश्वास है कि भविष्य में कोई भी हीन मानसिकता से ग्रस्त रचनाकार या व्यक्ति इस तरह के अश्लील शब्द को सार्वजनिक मंच से प्रयोग करने से पहले हजार बार सोचेंगे । मैं विष्णु खरे के जनसत्ता में दो अंको में प्रकाशित लेख का शत प्रतिशत समर्थन करता हूँ अगर कालिया को ज्ञानपीठ से तुरत बाहर नहीं किया गया तो भारतीय ज्ञानपीठ जिसका गौरवशाली इतिहास है आनेवाले पीढियों की नजरों में एक पतनशील संस्था के रूप में पहचानी जायेगी।
उद्भ्रांत
मो.- ०९८१८८५४६७८

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अब आप बताएं , आपके क्या विचार है इस सन्दर्भ में......

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

जिस दिन वोट नहीं खरीदे जाएंगे, उसी दिन सही मायने में सच्ची आजादी इस देश को मिलेगी

स्वतन्त्रता दिवस पर आयोजित विशेष परिचर्चा के १० वें दिन की शुरुआत में श्री सलीम खान के विचारों से रूबरू हुए , इसी कड़ी में आईये हिंदी के चर्चित गीतकार/चिट्ठाकार श्री ललित शर्मा जी से पूछते हैं -क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?


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अंग्रेजों से सत्ता लिए हमको 63 वर्ष पूर्ण हो गए, हम आजादी की 64 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। जिन उद्देश्यों को लेकर आजादी की लड़ाई हमारे पूर्वजों ने लड़ी थी। अपना खून बहाया था। माताओं ने अपने जवान बेटों का बलिदान दिया था। स्त्रियों ने अपने सुहाग एवं बच्चों ने अपने सरपरस्तों को खोया था। क्या वह उद्देश्य पूरे हो रहे हैं? गरीबों ने अपने राज में जिस सुख की रोटी के सपने देखे थे क्या वह उन्हे मिल रही है? समाज में समानता के सपने देखे गए थे, क्या वे पूरे हो रहे हैं?क्या हमारे राजनेता गरीबों की सच्ची रहनुमाई कर रहे हैं? क्या हमारे बच्चों को समान शिक्षा मिल पा रही है? क्या सभी को रोजगार के साधन उपलब्ध हो पा रहे हैं? क्या हम शांति से सुख के साथ जीवन बसर कर पा रहे हैं? क्या भूख से मौतें होना बंद हो गयी है?

आज जब इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं तो हमें एक ही जवाब मिलता है "नहीं"। तो हम और हमारा लोकतंत्र, हमारे नेता इन 63 वर्षों में क्या कर रहे थे? यह एक यक्ष प्रश्न सा हमारे सामने खड़ा हो जाता है। जिसका जवाब देने को कोई भी तैयार नहीं है। देश में अमीरों के साथ गरीबों की संख्या भी बढती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है धनी और भी धनी होता जा रहा है। देश में जो भी नीतियाँ या योजनाएं गरीबों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से बनाई जाती हैं, उन्हे अमीर लोग या उनके दलाल हाईजैक कर लेते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व: राजीव गांधी ने इसे सार्वजनिक रुप से स्वीकार किया था कि योजनाओं के बजट का सिर्फ़ 15% ही आम लोगों तक पहुंचता है। बाकी का 85% सिस्टम की भेंट चढ जाता है। यह सिस्टम नहीं हुआ सुरसा का मुंह हो गया। जो कि दिनों दिन बढते ही जा रहा है।
63 वर्षों में एक भी दिन ऐसा नहीं आया,जिस दिन सरकार ने कहा हो किमंहगाई कम हो गई है। मध्यम वर्ग में भी अब दो वर्ग बन गए हैं, निम्न मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग। सबसे ज्यादा निम्न मध्यम वर्ग पिस रहा है। जो कि न घर का रहा न घाट का। सरकार की किसी योजना में उसका उल्लेख नहीं है। गरीबी रेखा में इसलिए नहीं है कि उसने कुछ कमा धमा कर टीवी, फ़्रिज, मोबाईल, एवं पक्का घर बना लिया है। अमीर इसलिए नहीं है कि उसके पास अकूत धन नहीं है। निम्न मध्यम वर्ग की कमाई बिजली का बिल, पानी का बिल, राशन का बिल, फ़ोन का बिल,मोटर साईकिल का पैट्रोल, बच्चों की बीमारी और शिक्षा में ही चली जाती है। उसके पास बाद में जहर खाने के भी पैसे नहीं बचते। अगर किश्तों में सामान मिलने की योजना नहीं होती तो वह कुछ भी सामान नहीं खरीद पाता।

एक तरफ़ लोग भूख से मर रहे हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ नेता-अधिकारी एवं मठाधीशों का गठजोड़ चांदी काट रहा है। मंहगी से मंहगी गाड़ियों में सवार होकर कानून को धता बता रहा है।गरीबों के वोट से बनने वाले सांसद और विधायक गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, एक बार जीतने के बाद उनके क्षेत्र में क्या हो रहा है कभी दुबारा झांकने भी नहीं जाते। बस उन्हे तो अपने कमीशन से मतलब है। जब विधायकों और सांसदो को सुविधा देने का बिल सदन में लाया जाता है तो पक्ष विपक्ष सभी उसे एक मत से पारित कर देते हैं, और जब किसान, बेरोजगारों को सुविधा देने का बिल लाया जाता है तो उस पर ये एक मत नहीं होते। गरीबों की ही भूख के साथ खिलवाड़ क्यों होता है?

एक सर्वे के अनुसार भारत में 25 हजार लोग ऐसे हैं जो कि 2 करोड़ रुपयों की लक्जरी गाड़ियों में चलते हैं। 306 सांसद करोड़पति हैं। अब इस स्थिति में गरीबों का कल्याण कहां से होगा? एक मेडिकल कौंसिल का अध्यक्ष केतन देसाई पकड़ा जाता है,उसके पास ढाई हजार करोड़ नगद एवं डेढ क्विंटल सोना बरामद होता है। एक प्रशासनिक अधिकारी बाबुलाल के पास 400 करोड़ की सम्पत्ति बरामत होती है, एक उपयंत्री के यहां छापा मारा जाता है तो 2करोड़ रुपए की सम्पत्ति बरामद होती है। एक मधुकोड़ा पकड़ा जाता है तो 4000 करोड़ रुपये का घोटाला सामने आता है। मुम्बई के एक बैंक में कोड़ा ने लगभग 600करोड़ से उपर नगदी जमा की थी। यहां आप किसी बैंक में 50 हजार रुपया जमा करने जाते हैं तो आपको बताना पड़ता है कि कहां से लेकर आए हैं?

दिनों दिन बेरोजगारों की संख्या बढते जा रही है। औद्योगिकरण ने परम्परागत उद्योगोँ का सत्यानाश कर दिया। बड़ी मशीनों के चलते परम्परागत रुप से काम करने वाले लोग बेरोजगार होकर गरीबी से जुझ रहे हैं। उन्हे एक जून की रोटी के लाले पड़े हुए हैं, यहां टीवी पर पिज्जा और बर्गर के विज्ञापान दिखाए जाते हैं, पालनपुर की गाय डेयरी मिल्क का चाकलेट खा रही है और गरीबके बच्चे एक रोटी के लिए तरस रहे हैं।भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कितना काला धन होगा, नेता अधिकारियों एवं मठाधीशों की तिजोरी में। जिस दिन यह काला धन इनके तिजोरियों से निकल कर राष्ट्र के विकास में काम आएगा। समानता का राज होगा।सभी के बच्चे समान शिक्षा पाएंगें। सभी को समान अधिकारहोगा,जिस दिन वोट नहीं खरीदे जाएंगे।उसी दिन सही मायने में सच्ची आजादी इस देश को मिलेगी और देश की आजादी के लिए जीवनदान देने वालों की आत्मा को शांति मिलेगी।
() ललित शर्मा
(वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार )
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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं एक अल्पविराम के बाद ......

स्वतन्त्रता का कल्पवृक्ष

विगत १५ अगस्त से लगातार इस विशेष परिचर्चा : आपके लिए आज़ादी के क्या मायने है ? पर हिंदी जगत के प्रमुख व्यक्तित्व के विचारों से मैं आपको अवगत करा रहा था ! इस क्रम में हिंदी ब्लॉगजगत और भारतीय खेलजगत के कई नामचीन हस्तियों के विचारों से आप रूबरू होते रहे !

आज मैं इस परिचर्चा का पटाक्षेप अपनी एक ऐसी कविता से करने जा रहा हूँ जो १९९२ में हुए भारत के सबसे बड़े भागलपुर और सीतामढ़ी दंगे के परिप्रेक्ष्य में लिखी गयी थी ! इसे प्रकाशित किया था दैनिक आज के पटना संस्करण ने -



आज फिर-
धर्ममद का अग्निकांड
दरका गया छाती
और लोगों की फूहड़ गालियों से
निस्तब्ध हो गयी परिस्थितियाँ !

आज फिर -
उद्घाटित हुई
सदाचार की नयी भूमिकाएं
शोक-सन्देश प्रसारित कर
जताई गयी सहानुभूति
चूहे की मृत्यु पर !
आज फिर-
दूरदर्शन की उजली पृष्ठभूमि पर
प्रतिबिंबित हुई
दंगे की त्रासदी / कर्फ्यू का सन्नाटा
विधवाओं की सुनी मांग
और, अनाथ बच्चों का करुण-क्रंदन !

आज फिर-
उजड़े छप्परों के नीचे
पूरी रात चैन से नहीं सोया
वह भूखा बीमार बच्चा
सूनसान शहर की सपाट सड़क पर
सायरन वाली गाड़ियों को देखता रहा रात-भर !
आज फिर-
ढाही गयी सभ्यता की दीवार
उमड़ आया सैलाब अचानक
उस बूढ़े स्वतन्त्रता सेनानी की आँखों में
और फूट पड़े होठों से ये शब्द-
" शायद उस दिन देश का दुर्भाग्य मुस्कुराया था
जब हमने लहू से सींचकर
स्वतन्त्रता का कल्पवृक्ष उगाया था !"
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इन नौ दिनों में आप हिंदी जगत के लगभग ३० प्रबुद्ध व्यक्तियों के विचारों से रूबरू हुए और सबसे सुखद बात यह है कि कमोवेश हर किसी ने एक ही प्रकार के सवाल उठाये जिसका जवाब हम सब को मिलकर ढूँढना होगा , तभी आज़ादी के सही मायने परिलक्षित हो सकेंगे !


आशा है हमारी ये परिचर्चा आपको अवश्य पसंद आई होगी .....अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत करावें !
आपका-
रवीन्द्र प्रभात

आज़ादी तो तब ही होगी जब हम देश के, समाज के ग़लत तत्वों के उत्पीडन से आज़ाद न हो जाएँ,

आज परिचर्चा का दसवां दिन है, कल मैंने कई महत्वपूर्ण चिट्ठाकारों के विचार से रूबरू हुए थे ......इसी कड़ी में आज के दिन की शुरुआत हम करने जा रहे हैं हिंदी के वहुचर्चित युवा चिट्ठाकार श्री सलीम खान से !
तो आईये उनसे पूछते हैं क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?


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हम बात अगर देश की आज़ादी की करें तो बस मन में टीस के अलावा कुछ नहीं होती है. भई ! हम तो अब भी स्वतंत्र नहीं है और तब भी नहीं थे. पहले फिरंगियों के ग़ुलाम थे और अब इन कमीने नेताओं के! चारो ओर ज़रा आँखें बन्द करके नज़र दौड़ाईये, खोल के नहीं! आप पाएंगे कि भारत में अधिकतम सिर्फ़ 5% लोग ही आज़ादी ख़ास कर आर्थिक और सामजिक आज़ादी का फायेदा उठा रहे हैं, उनमें है हमारे नेता, बॉलीवुड सितारे और धर्म की आर्थिक दुकाने चलाने वाले ! बाक़ी सब दर्शक की भांति उन्हें टीवी पर देखते हैं और अपना सब कुछ में से बहुत कुछ गंवा कर उन जैसा बनने की कोशिश करते हैं या फ़िर बाक़ी सब की हालत सिर्फ़ क़व्वाली गाने वाले के पीछे बैठे ताली बजाने वालों से बढ़कर कुछ नहीं होती है!!!

जब मैं आज़ादी के बारे में सोचता हूँ तो मैं पूरी सृष्टि के हर-एक मानव कि आज़ादी के बारे में सोचता हूँ, मानव ही क्या पूरी सृष्टि में हर-एक के लिए! यहाँ हम विस्तार में आगे जाने से पहले कुछ व्यक्तिगत विचार आप तक पहुँचाना चाहूँगा. कुल मिला कर एक वाक्य में कहें तो पूरी मानवजाति की में जब एकता हो तो यह वास्तविक आज़ादी होगी! परन्तु अगले ही क्षण एक सवाल मन में आता है कि क्या यह संभव है?

आज़ादी तो तब ही होगी जब हम देश के, समाज के ग़लत तत्वों के उत्पीडन से आज़ाद न हो जाएँ, आज़ादी तो तब ही होगी जब अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी हो (अभिव्यक्ति का मतलब यह नहीं किसी को गाली देने का मन हो तो बक दिया, अपनी सार्थक और सत्य बातें कहने की आज़ादी अभिव्यक्ति की असल आज़ादी कहलाती है), आज़ादी तो तब ही होगी जब हिंसा का दुरुपयोग न होगा, आज़ादी तो तब ही होगी जब देश के हर एक व्यक्ति की सेहत की सुरक्षा के लिए एक आम और सशक्त योजना हो और उस पर इमानदारी से कार्यान्वयन हो, आज़ादी तो तब ही होगी जब अपनी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति का खात्मा होगा।

क्या हम दूसरों की मदद के लिए आज़ाद हैं? आपका जवाब होगा "हाँ" मेरा इसके विलोम जवाब है "नहीं". आईये देखे कैसे? एक साइकिल सवार को एक चार पहिया वाहन रौंद कर चल देता है और वह तल्पने लगता है! इमानदारी से जवाब दीजियेगा... क्या आप उसकी मदद के लिए आगे बढ़ेंगे? क्या आप उसकी मदद के लिए आगे बढ़ने से पहले ये नहीं सोचते कि जाने दो भाई कौन कानूनी पछडे में पड़ेगा, कौन पुलिस वुलिस के चक्कर में पड़ेगा? अब आपका जवाब क्या है??? ये कैसा क़ानून ये कैसी आज़ादी कि अगर हम किसी की दिल से अंतर्मन से मदद करना चाहें तो भी न कर सकें !

मैं तो उसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब इस देश बल्कि पूरी दुनियाँ में अमीर-ग़रीब का फासला ख़त्म होगा, उसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब गोरे-काले का ज़मीनी स्तर पर, दिल के स्तर पर फासला खात्मा होगा, उसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब ऊँच ज़ात-नीच ज़ात का वाहियात तंत्र ख़त्म होगा, उसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब एक बलात्कारी को मौत की सज़ा देने का प्रावधान न हो सके!

अब बताईये क्या हम वाक़ई सक्षम है आज़ादी के मायने अपनी ज़िंदगी में बताने के लिए !!!???

() सलीम खान
(वर्ष के चर्चित युवा ब्लोगर )
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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद......

सोमवार, 23 अगस्त 2010

अब बताएं हम किसी भी मायने में कही से भी स्वतंत्र है कहां?

इस विशेष परिचर्चा के नौवें दिन का समापन एक ऐसे चिट्ठाकार से कर जो राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए पिछले 14 वर्षों से सरकारी कार्यालयों में कार्य कर हैं । ये अब तक दो बडी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में राजभाषा के साथ जुड़े रहे हैं । कई पत्रिकाओं में इनके राजभाषा संबंधी लेख प्रकाशित हुए हैं। राजभाषा से जुड़ी कई पत्रिकाओं के प्रकाशन से जुड़े रहे हैं , वर्तमान में बैंक आफ इंडिया के प्रधान कार्यालय, मुंबई में अपने लक्ष्‍य को लेकर आगे बढ रहे हैं ।
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15 अगस्त, 2010 को देश का स्‍वतंत्रता दिवस है। उस देश का जिसके लिए कभी हजारों अरमानों ने सुंदर सपने संजोए थे। यह कटु सत्य है कि हमने स्‍वतंत्रता का स्वाद बहुत ही कड़वे रूप से चखा है। देश में स्‍वतंत्रता के साथ ही खून की होली खेली गई और इस स्व‍तंत्रता के वास्ताविक मायने पहले की दिवस से खत्म हो गए। हमने आंसूओं के साथ ही सही लेकिन स्वतंत्रता की खुशी मनाई। देश की बागढोर संभाली गई और हमने रियासतों को इकठ्ठा किया और भारत को एक देश का रूप मिला। हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए लेकिन विडंबना यही रही कि हम मानसिक रूप से उनकी गुलामी नहीं छोड़ पाए। हमें देश को चलाने के लिए जिस सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी वो भी आपसी राजनीतिक लड़ाई के कारण कभी ऊभर के सामने नहीं आ पाया। स्वतंत्रता से लेकर आज तक जब भी हमने कोई निर्णय लिए वो कागजी घोडे दौड़ाने जैसे ही रहे। हमने कभी भी सशक्त निर्णय लेने का साहस नहीं किया हमेशा बीच का रास्ता अपनाया। मसलन हमारे पास अर्थव्यनवस्था के संबंध में दो रास्ते थे कि या तो हम समाजवाद को या फिर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाएं हमने बीच का रास्ता अपनाया और मिश्रित अर्थव्यवस्था चुनी। हमारे पास अमेरिका और रूस दोनों में से एक के साथ जाने का रास्ता था हमने किसी भी गुट में शामिल न होने का निर्णय लिया और गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई,देश का बंटवारा हुआ और यह कहा गया कि जो भारत में रहना चाहते हैं यहीं रहो और जो पाकिस्तापन जाना चाहते हैं वहां जाओ। हमारा संविधान कटोर रहे या लचीला तो हमने लिखा कटोर भी लचीला भी, देश कृषि को ज्याहदा बढावा दे या औद्योगिक विकास को तो निर्णय हुआ दोनो को, शिक्षा की पद्धति देशी हो या विदेशी, भाषा देशी हो या विदेशी तमाम इस तरह उदाहरण है जो यह स्पष्ट करते हैं कि आज तक हमारे निर्णयों में सशक्तता किसी भी स्तर पर अर्थात पूर्ण प्रणाली के रूप में दिखाई ही नहीं देती और इसका असर आज हम देश के प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर भी देख सकते हैं। स्वतंत्रता से लेकर आज तक हमारे लचीले निर्णयों ने हमें इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां आज देश भ्रष्ट नेताओं, अफसरशाहों और घूसखोरों का देश लगता है और निरंकुशता अपने चरम से भी आगे पहुंच गई है। कई बार तो मुझे प्रतीत होने लगता है कि देश अनचाहे रूप में ही सही परंतु ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि जहां अब मुठठी भर लोग इस प्रयास में लगे हैं कि लोग हमेशा गुलामी की जिन्दगी जिएं और अमीरों के लिए काम करते रहें।

देश की शिक्षा व्यवस्था, स्वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था, लोगों का जीवनस्‍तर की स्‍थिति सभी चरमराई हुई हैं। सरकारों ने हाथ खड़े कर दिए हैं इसलिए तो शिक्षा,स्वास्‍थ्‍य और रोजगार जैसी जरूरतों के लिए सरकार कुछ अमीर लोगों का मुंह ताकती है। हमारे गरीब और भूखे लोगों को शायद यह भी पता नहीं कि हम स्वतंत्र हो गए हैं और हमारा अनाज निर्यात होता है, वो तो आज भी भूखमरी से स्वतंत्रता चाहते है। जिस लोकतंत्र के बड़े होने की बात हम विश्व भर में अपना गुणगान करने के लिए करते हैं उस लोकतंत्र में अब केवल तंत्र की ही बात चलती है, लोक इस तंत्र से बाहर हो चुके हैं। लोक तो आज भी गुलाम ही है, नेताओं के, बडे रसूक वाले लोगों के,उद्योगपतियों के और भ्रष्टाचारियों के। देश का हर कानून इन्हीं लोगों की उगूलियों पर चलता है और यदाकदा कुछ मीडिया के माध्यम से मिले उदाहरणों के अलावा हमेशा गरीब ही मारा जाता है।

आइए स्वतंत्रता के मायने देखें, भ्रष्टाचार में विश्व में भारत का पहला स्थान है अर्थात् हम भ्रष्टाचार के गुलाम हैं। हम अपनी ईमानदार आवाज उठाने के लिए आगे बढें तो गोलियों रोकती है यानि हम लूटखारों के गुलाम हैं। महंगाई को कम करने की बात पर सड़क पर उतरते हैं क्‍योंकि सरकार ही मुनाफाखोरों की गुलाम है। हमारे यहां बड़ी दुर्घटनाओं और त्रासदियों जैसे बाढ़, भोपाल गैस लीकेज, 1961, 1971 की लड़ाई, 1984 दंगे, 2002 गुजरात दंगे और न जाने ऐसी कितनी ही गलत घटनाओं में जो लोग मारे गए, हम उनकी कुर्बानी का कर्ज न चुका सकने वाले गुलाम हैं। आज भी हम यदाकदा देश के कई राज्यों की अलग-अलग घटनाओं में देखते हैं कि लोग स्वतंत्रता से जीवनसाथी नहीं चुन सकते, विरोध के डर से किताबें नहीं लिख सकते, संस्कृति को बचाने के नाम पर लोग डराते हैं कहीं-कहीं तो भावी जीवनसाथियों के साथ घूम नहीं पाते यदि संक्षेप में कहें तो हम तमाम असमाजिक तत्वों के गुलाम है। इस देश में गुलामी के इतने उदाहरण हैं कि यहां लिखता रहूंगा और जिंदगी बीत जाएगी। देश की व्यवस्था आज नेताओं, भ्रष्ट अफसरों, भ्रष्टाचारियों, मुनाफाखोरों और उनके बच्चों तक सीमित है और और यह गिनती में देश की जनसंख्या का 1 प्रतिशत भी नहीं है अर्थात 1 प्रतिशत लोग स्वतंत्र हैं और बाकि सब इनके गुलाम। अभिनेताओं को छोड़ दिया जाए तो बाकि पूरा तंत्र दोनों हाथों से देश को लूट रहा है।

अब बताएं हम किसी भी मायने में कही से भी स्वतंत्र है कहां? मैं तो यही मानूंगा कि अंग्रेजो से चाहे ही हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली लेकिन काले अंग्रेजों के खिलाफ एक अंतिम युद्ध लड़ने के लिए देश की जनता को फिर तैयार होना है। देश में हर तरफ से हो रहे शोषण को रोकने के लिए हमें स्वतंत्रता की लड़ाई पुन: लडने होगी और यह लडाई तमाम उन लोगों के खिलाफ होगी जिनका उल्‍लेख मैने लेख में किया है। आज एक देश में दो देश की बात कही जाने लगी है और इन देशों में एक गरीबी और भूखमरी का शिकार देश है और दूसरे देश में गुलाम लोग कुछ अमीर लोगों के लिए काम कर रहे हैं। जिन शहीदों को हम स्वतंत्रता दिवस समारोहों में याद करते हैं उनके स्मारकों और विचारों की देश में क्या दुर्दशा हो रही है यह लिखने की आवश्यकता नहीं।
यही है हमारी स्वतंत्रता के 62 वर्ष के मायने।
()शकील खान
http://swatantravani.blogspot.com/

जारी है परिचर्चा, मिलते हैं कल फिर किसी चिट्ठाकार के विचारों के साथ....

देखता हूँ रात्रि से भी ज्यादा काली भोर को .....

आज़ादी के क्या मायने है आपके लिए ? इस विषय पर आयोजित परिचर्चा में आप विगत १५ अगस्त से लगातार हिंदी चिट्ठाजगत के कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों के विचारों से अवगत होते रहे हैं , आज परिचर्चा का नौवां दिन है ....तो चलिए चलते हैं कवि दीपक शर्मा जी के पास इसी विषय पर उनकी कविता सुनने और गुनने के लिए -




"जाती है दृष्टि जहाँ तक बादल धुएँ के देखता हूँ
अर्चना के दीप से ही मन्दिर जलते देखता हूँ ।
देखता हूँ रात्रि से भी ज्यादा काली भोर को
आदमी की मूकता को गोलियों के शोर को
देखता हूँ नम्रता जकडे हिंसा की जंजीर है
आख़िर यकीं कैसे करूँ यह हिंद की तस्वीर है ।

कितने बचपन दोष अपना बेबस नज़र से पूछते है
बेघर अनाथ होने का कारन खंडर से घर पूछते हैं
टूटे कुंवारे कंगन अपना पूछते कसूर क्या है
सूनी कलाई पूछती है आख़िर हमने क्या किया है
सप्तवर्णी चुनरियों के तार रोकर बोलते है
स्वप्न हर अनछुआ मन की बन गया पीर है ॥

नोंक पर तूफ़ान की शमा को लुटते देखता हूँ
रोज़ कितनी रोशनी को खुदकुशी करते देखता हूँ
देखता हूँ कुछ सुमन की ही बगावत चमन से
श्वास का ही विद्रोह लहू , हृदय और तन से ।
लगता है सरिताएं भी हीनता से सूख रहीं
क्योंकि हर हृदय समंदर आँख बनी क्षीर है ॥

हर हृदय की आस होती लौटकर न अतीत लाये
वर्तमान से भी ज्यादा उसका भविष्य मुस्कुराये
लेकिन प्रभु से प्रार्थना ,भविष्य देश का अतीत हो
कुछ नहीं तो "दीपक" ह्रदय मे निष्कपट प्रीति हो
क्योंकि नफरत की कैंची है जिस तरह चल रही
डरता हूँ कहीं थान सारा बन न जाए चीर है
दीपक शर्मा
(हिंदी के सुपरिचित कवि )
http://www.kavideepaksharma.com/
http://kavideepaksharma.blogspot.com/
http://shayardeepaksharma.blogspot.com/
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जारी है परिचर्चा,मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद......

क्या यह विडम्बना नहीं हॆ कि हमें अपने आज़ाद देश में आज़ादी के मायने पर परिचर्चा करनी पड़ रही हॆ ।

स्वतन्त्रता दिवस पर आयोजित विशेष परिचर्चा का आज नौवां दिन है, आईये आज के दिन की शुरुआत करते हैं हिंदी के बहुचर्चित कवि श्री दिविक रमेश जी से , कि क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?
क्या यह विडम्बना नहीं हॆ कि हमें अपने आज़ाद देश में आज़ादी के मायने पर परिचर्चा करनी पड़ रही हॆ । आज़ादी के नाम पर जब अराजकता, मनमानी, धींगामस्ती, बल, धन ऒर रसूकों की लहरती पताकाएं, संसद तक में हो रही जूतमजूत, मॊकापरस्ती, लूटमलूट आदि का हर ओर सिरचढ़ कर बोलबाला दिख रहा हो तो आज़ादी के खोए या धुंधले पड़ गए मायने फिर से खोजने ही होंगे । मेरी एक व्यंग्य कविता हॆ, बहुत पहले की, ’आज़ाद हॆं हम’, उसी की कुछ पंक्तियां हॆ:
खुले साँड से
आज़ाद हॆं हम
ऒर वे भी
कितना खुश्गवार हॆ मॊसम ।
चोर-सिपाही
डाकू-राही
नेता-जनता
रक्षक-हन्ता
सभी हुए आज़ाद
सभी हॆं भाई-भाई
एक घाट पऎ पाणी पीवॆं
लोग-लुगाई

बोल सियावर रामचनदर की जय ।

तो मुश्किल यह हॆ कि जनको आज़ादी के सबसे ज्यादा मायने पता हॆ वही उसकी ऎसी-तॆसी सबसे ज़ादा कर रहा हॆ, चाहे वह भ्रष्ट ऒर स्वार्थी नेता हो, चाहे भ्रष्ट ऒर मुनाफ़ाखोर मीडिया हो या फिर चालाक ऒर स्वार्थी जन हो । आज़ादी का यह अर्थ कतई नहीं हॆ कि छूट गाली-लॊज या बन्दूक से भूनने का हो । यानी तेरा मॊका लगे तू भून दे, मेरा मॊका लगेगा तो में भून दूंगा । हो गए दोनों बराबर । मिल गई दोनों को आज़ादी । क्या यही हॆ आज़ादी मायने ? यह जंगलीपन हॆ । किसी भी तर्क से इसे सही नहीं कहा जा सकता । मॆं हिंसा-अहिंसा की बात नहीं कर रहा । मॆं प्रतिक्रिया ऒर उत्तर की बात क रहा हूं । अंग्रेजी का सहारा लूं तो आज़ादी के संदर्भ में हमें रिएक्सन (Reaction) ऒर रिशपोन्स (response) का अन्तर समझना होगा । ऒर क्या कहूं ? आज़ादी सब को पसन्द हॆ । लेकिन वोट न डालने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए । गलत शिकायत करनेवाले\वाली के लिए पहले ही से कोई सजा़ निर्धारित न हो, यह आज़ादी भी नहीं होनी चाहिए । चुने हुए को भ्रष्ट रास्ता अपनाने या दल बदल लेने पर भी जनता वापिस न बुला सके ऎसी आज़ादी भी नहीं होनी चाहिए । बस ।
दिविक रमेश
(वर्ष के श्रेष्ठ कवि )

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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद......

रविवार, 22 अगस्त 2010

आज़ादी का ये मतलब तो नहीं हो जाता कि किसी को क़ानून की परवाह ही नहीं हो

आईये अब चलते हैं हिंदी के बहुचर्चित व्यंग्यकार और ब्लोगर श्री राजीव तनेजा जी के पास और पूछते हैं उनसे कि क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?
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कहने को तो आज साठ वर्ष से ज़्यादा हो चुके हैँ हमें पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ आज़ाद हुए लेकिन क्या आज भी हम सही मायने में आज़ाद हैँ?..मेरे ख्याल से नहीं
() ऐसी आज़ादी किस काम की जो हमें धार्मिक उन्माद और संकीर्णता के दायरे से मुक्त ना कर सके?…
() ऐसी आज़ादी किस काम की जहाँ खाप पंचायतों के उल-जलूल फरमानों के चलते हमें अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी को चुनने की छूट ना हो?
() ऐसी आज़ादी किस काम की कि भ्रष्टाचारी …दुराचारी लोग हमारे देश की जड़ों को खोखला कर…हमारी ही अस्मिता को नीलाम करने के बावजूद…हमारे ही सरमाएदार बने बैठे हैं…और हम हैं कि उन्हीं को अपना आदर्श मान…उन्हीं के नक्शेकदम पे खुद चलने की कोशिश कर रहे हैं?…
() ऐसी आज़ादी किस काम की कि दुश्मन देश की नीयत जानने के बावजूद….अफज़ल गुरु के नापाक इरादों के उजागर होने के बाद…और अपने जुर्म के पुख्ता सबूत होने के बावजूद भी कसाब अभी तक जिंदा है?
() आज हमारे यहाँ का हर छोटा-बड़ा अफसर…विधायक से लेकर सांसद तक और मंत्री से लेकर संतरी तक…सभी भ्रष्टाचार में पूर्णरूपेण लिप्त नज़र आते हैं…
() आज़ादी का ये मतलब तो नहीं हो जाता कि किसी को क़ानून की परवाह ही नहीं हो…किसी क़िस्म का कोई डर ही नहीं हो …

क्या अंग्रेजों का राज़ होता तो ये सब संभव हो पाता?…मेरे ख्याल से नहीं
राजीव तनेजा
http://hansteraho.blogspot.com/
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जारी है परिचर्चा मिलते हैं कल सुबह ०६ बजे फिर से किसी महत्वपूर्ण चिट्ठाकार के विचारों के साथ ......

स्वतन्त्रता का मतलब हरचरना का फटा सुथन्ना

आईये इस परिचर्चा को आगे बढाते हैं और हिंदी के वेहद सक्रीय चिट्ठाकार लोक्संघर्ष सुमन जी पूछते हैं क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?

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हरचरना अर्थात इस देश का आम आदमी जिसके सम्बन्ध में श्री रघुवीर सहाय साहब ने लिखा था कि हरचरना का फटा सुथन्ना, किसकी -26 जनवरी किसका- 15 अगस्त ? आज आम आदमी महंगाई बेरोजगारी, भुखमरी, शोषण, अत्याचार से पीड़ित है दूसरी तरफ आजादी और विकास का लाभ कुछ चुनिन्दा लोगों को ही हुआ है। भारत सरकार आज भी यह कहने में शर्म महसूस नहीं करती है कि उसकी लगभग 80 करोड़ जनता 20 रुपये से कम खर्च करके प्रतिदिन जिन्दा रहती है।

आजादी के बाद किसान, मेहनतकश जनता, खेत मजदूर की हालत में कोई गुणात्मक सुधार नहीं हुआ है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय पूंजीपति लूटने की आजादी का लाभ उठा कर बहुराष्ट्रीय निगमों के रूप में बदल चुका है। टाटा और अम्बानी अगर अमेरिका में ओबामा को धन देकर चुनाव लड़ाते हैं तो भारत में मनमोहन और अडवानी को भी। कोई भी सरकार बने सरकार इन्ही की चलनी है।

आजादी के विकास हुआ है लेकिन उस विकास का लाभ हरचरना को नहीं मिला है और न भविष्य में मिलने की कोई उम्मीद ही दिखाई दे रही है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़कर आजादी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को मिली थी इसीलिए उसका विकास हुआ और सबसे शर्म की बात यह है कि अब हम अमेरिकेन साम्राज्यवाद के पिट्ठू हो रहे हैं। पहले भी यह नारा आया था कि यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है।

आजादी का सुख कर्णाटक के रेड्डी बन्धु उठा रहे हैं कि फरवरी 2010 से लेकर जुलाई 2010 तक लगभग 60 हजार करोड़ रुपये का लौह अयस्क कर्णाटक के खदानों से खुदवा कर विदेशों को निर्यात कर चुके हैं यह एक छोटा सा उदहारण है। बड़े-बड़े नौकरशाह, न्यायविद, राजनेता, पूंजीपति आदि को ही आजादी है। हमारे हिस्से की हवा, पानी, वन सम्पदा, खनिज की लूट कर वह मालामाल हो रहे हैं और हम देश यदि बहुत आक्रोशित हुए तो बंदूख लेकर जंगलो में मारे मारे फिर रहे हैं यही हमारे हिस्से की आजादी है । हम उनकी आजादी के जश्न को अपनी मेहनत से सजाते हैं, सवारते हैं और वो सैल्युट लेने के लिए पैदा हुए हैं सैल्युट लेते हैं वह हमारे ऊपर शासन करने के लिए पैदा हुए हैं शासन कर रहे हैं। हम 63 वें स्वतंत्रता दिवस का स्वागत करते हैं, अभिनन्दन करते हैं इस आशा और विश्वास के साथ की शायद हमारी भी भूख और प्यास पर कहीं से आजादी बरसे और जिससे हम तृप्त होंगे।
एडवोकेट रणधीर सिंह सुमन
अर्थात सुमन लोकसंघर्ष
(हिंदी के बहुचर्चित ब्लोगर )
http://loksangharsha.blogspot.com/
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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद......

सच्ची आज़ादी को समझने के लिए हमें आम आदमी की तरह सोचना होगा

परिकल्पना की विशेष परिचर्चा के आठवें दिन आईये श्री विनोद कुमार पाण्डेय जी से पूछते हैं: क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?



भारत देश को आज़ाद हुए ६३ साल हो गयेगत् ६३ सालों की समीक्षा करें तो हम पाएँगे की निश्चित रूप से हमने बहुत उन्नति कर ली,भले इन उन्नतियों का आकलन करना हमारे बस में ना होदरअसल विकास के साथ साथ भारतीय जनसंख्या वृद्धि और जनता के ज़रूरतों का निरंतर बढ़ाव हमें भारत विकास की असली सूरत दिखलाता है जो यह सोचने को मजबूर करती है कि भारत की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाने वाले राष्ट्रहितकरों ने भारत की जो तस्वीर सोची होगी क्या वह बन पायी?

वास्तविकता तो यह है कि आज भी भारत की आधी जनता को आज़ादी के सही मायने का पता ही नही और दुख तो तब होता है जब भारतीय नागरिक की अग्रिम जमात में बैठे लोग भी भारतमाता की उम्मीदों पर खरे नही उतरतें ।

आज का हमारा देश दो नये वर्ग समुदाय अमीर और ग़रीब में बँटता चला जा रहा है,आज़ादी के नाम पर बस महानगरों की दूषित हवा रह गई है और हम अँग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ देने को ही अपनी आज़ादी समझते है यह भारत की बहुत बड़ी विडंबना हैभारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने में हमारे देश के महापुरुष ने जी-जान लगा दी थीहमारी आज़ादी उनके लाशों से गुज़री है और अब यह प्रश्न बन गये है कि आज़ाद भारत के नागरिक उनके बलिदान को कितना सार्थक सिद्ध कर रहे हैं ।

१५ अगस्त के दिन अपने घर,गली,चौराहों पर तिरंगे को हाथ में लेकर स्वतंत्र होने का ढोल पीटना या फिर सामुदायिक स्थलों पर लच्छेदार भाषण देकर खुद को भारत का एक विशेष शुभचिंतक सिद्ध करवाना ही भारत के आज़ाद होने की पहचान नही हैं ।

बल्कि हमें उन-उन पहलुओं पर भी गौर करना होगा जो भारत के एक विशेष वर्ग की ज़रूरत है,आज़ादी से उपर भी बहुत सी बातें है जो आज़ादी से इतने जुड़े हुए है कि उनके बिना स्वतंत्र भारत की परिकल्पना ही अधूरी है

यह आज़ाद भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा जहाँ दिन-दिन बढ़ रहे करोड़पतियों के देश में एक तिहाई जनता पेट भरने के लिए जूझ रही है या यूँ कहें दासता की जीवन गुज़ार रही हैउनके लिए खाने की आज़ादी तो है पर खाने के नाम पर कुछ नही,पीने की आज़ादी के नाम पर बस दूषित जल,रहने की आज़ादी के नाम पर भगवान की रहमत से टिका घास-फूंस और छप्परो का बना मकान रोटी के लिए जिनके बच्चे बड़े मालिकों के लात-जूते खा रहे हैं ज़रा उनके नज़र से देखें तो हमारे समझ में आए कि हाँ वास्तव में हम कितने हद तक स्वाधीन हैं ।

हम सब भारतीय है स्वालंबित राष्ट्र की बात करें तो गर्व होता है की इतनी बड़ी लोकतंत्र अपने सामाजिक,आर्थिक,और सांस्कृतिक विकास की डंका पूरे विश्व में पीट रही है पर जैसे ही अपने देश के आंतरिक संरचना की बात करें तो शर्म से सर झुक जाता है अखंड राष्ट्र के नाम पर जहाँ एक तरफ हम वाहवाही लूट रहे हैं वहीं दूसरी ओर राज्य,भाषा,धर्म,जाति के नाम पर राजनीति की गंदी खेल रहें है सुभाष,गाँधी और नेहरू का अखंड भारत आज राजनीति का खिलौना बना जा रहा है और हम उसके टुकड़े टुकड़े के लिए लड़ रहें है राष्ट्रभाषा हिन्दी को जहाँ सिर्फ़ कागजों पर ही राष्ट्रभाषा होने की मान्यता मिली हो और अपने ही देश के कुछ नागरिक देश को भाषागत विभाजन देने पर तुले हो तो स्वतंत्रता का क्या पैमाना हो?

दिन-दिन बढ़ती जा रही मँहगाई ग़रीबों के सारे सुख चैन छीन लेती है और सरकार साथ पर हाथ धरे बैठे हैं,कोई किसी की बात सुनने को तैयार नही और लोग कहते है की अपनी बात रखने की आज़ादी है.

यह भी एक विडंबना की बात है १५ अगस्त जिस दिन भारत स्वतंत्र हुआ आज ऐसा दिन बन गया है जिस दिन भारत का नागरिक खुद को सबसे ज़्यादा असुरक्षित महसूस करता है,भारत की एक चौथाई जनता घर से बाहर निकलना मुनासिब नही समझती क्या, कब, कहाँ बम फूट जाएआज़ादी के बदले हमें बटवारें कि एक ऐसी त्रासदी मिली जो आज भी भारत के लिए नासूर बना पड़ा है ।


भारत की आज़ादी देखने और परखने के लिए हमें भावना रूपी चश्मा उतार फेंकना होगा क्योंकि सच्चाई इतनी कड़वी है की हम भावनाओं की आड़ में बचने का प्रयास करते है और आज के स्वतंत्र भारत के असलियत से रूबरू होना हमें रास नही आता ।

सच्ची आज़ादी को समझने के लिए हमें आम आदमी की तरह सोचना होगा और एक तुलनात्मक अध्ययन भी ज़रूरी है,जी. डी. पी. रेट का बढ़ जाना ही विकास की निशानी नही हैं,एक आम आदमी अपने ही देश में कितना सुरक्षित है इसे समझना भी आवश्यक है,क्या स्वावलंबित देश का हर नागरिक स्वावलंबित है? उसकी आम ज़रूरत पूरी हो पा रही है? ऐसे कुछ प्रश्न है जिनके सटीक उत्तर ही आज़ादी की यथार्थता को व्यक्त कर सकते हैं. अन्यथा जिस देश के जंगलों में जानवर तक स्वतंत्र नही घूम सकते उस देश में गाँधी जी के रामराज्य की कल्पना करना ही बेमानी होगा ।
विनोद कुमार पांडेय
(हिंदी के प्रमुख चिट्ठाकार )
http://voice-vinod.blogspot.com/
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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद........

शनिवार, 21 अगस्त 2010

पहले भी गरीब पिटता था आज भी उसे पिटने की पूरी आजादी है।

इस महत्वपूर्ण परिचर्चा के सातवें दिन का पटाक्षेप हिंदी के बहुचर्चित व्यंग्यकार श्री प्रेम जनमेजय जी से करने जा रहा हूँ , तो आईये उनसे पूछते हैं क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?

बहुत गहरे मायने हैं हमारे देश की आजादी के। इतने गहरे की आप जितना डूबेंगें उतना ही लगेगा कि आप स्वयं को अज्ञानी समझेंगें। इन मायनों को समझने के लिए किसी शब्दकोश की आवश्यक्त नहीं है। वैसे जैसे प्रेम, प्यार, घृणा, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि के मायने नहीं बदलते हैं वैसे ही आजादी के मायने भी कभी नहीं बदलते हैं। हां आजादी का प्रयोग करने वाले बदलते रहते हैं।
आजादी से पहले अंग्रेज शासकों इस देश का धन विदेश ले जाने की आजादी थी अब स्वदेशी शासकों को वो आजादी है। पहले गोरे अफसर अपने ‘सदाचारण’ से दफतरों में जनता की सेवा करते थे और उनसे सेवा शुल्क लेने की उन्हें आजादी थे, अब काले अफसरों को यह आजादी है। थाने वही हैं और उनमें वही आजादी बरकरार है, बस थानेदार बदले हैं। पहले राजा प्रजा के विकास के नाम पर कर लगाकर अपना विकास करने को स्वतंत्र था आजकल मंत्रीपदों की शोभा बढ़ा रहे जनसेवक अपना विकास करने के लिए स्वतंत्र हैं। पहले कोई जर्नल डायर कितना भी अत्याचार कर ले, बस उसपर आयोग बैठता था और वो अपनी मौत मर जाता था, आजकल भी हमारा कानून वैसा ही है। पहले भी गरीब पिटता था आज भी उसे पिटने की पूरी आजादी है।
ऐसा नहीं है कि हमने आजादी के वही मायने समझे है जो हमारे पूर्वजों ने समझे थे। हमने अपनी समझ में पर्याप्त विकास किया है। हमने भ्रष्टाचार के कूंए के स्थान पर विशाल सागर का निर्माण किया है। हमने मंहगाई के क्षेत्र में अद्भुत विकास किया है। पहले बाजार को महंगाई बड़ाने का अधिकार था अब सरकार को भी है। हमने अमीरों को और अमीर तथा गरीबों केा और गरीब बनाया है। किसानों को आत्महत्या करने की हमने पूरी आजादी दे दी है। आज आजादी का मायना उसी के लिए है जिसकी जेब में पैसा है, जो ठनठन गोपाल है वह मंदिरों में भजन करता है और उपवास रखता है।
प्रेम जनमेजय
हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर
http://premjanmejai.blogspot.com/
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जारी है परिचर्चा, मिलते हैं कल फिर सुबह ०६ बजे परिकल्पना पर ......

अराजकता हमेशा गुलामी या विनाश की ओर ले जाती है।

अभी ब्रेक से पहले हम संगीता जी के विचारों से रूबरू हुए, अब आईये चलते हैं श्री सुभाष राय जी के पास और उनसे पूछते हैं क्या है उनके लिए आज़ादी के मायने ?


आजादी में संयम अंतर्निहित होता है। वह उन्मुक्ति या स्वच्छन्दता नहीं देती। जिस आजादी में आत्मनियंत्रण नहीं है, वह जल्दी ही अराजकता में बदल जायेगी। कोई भी इस तरह आजाद नहीं हो सकता कि वह किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाये। चाहे वह लिखने की आजादी हो या बोलने की, चाहे वह देश की आजादी हो या समाज की या व्यक्ति की। आजादी के मायने मनमानेपन से नहीं लगाया जाना चाहिये। आजादी हमेशा सकारात्मक जीवन मूल्यों को उर्वर जमीन मुहैया कराती है, वह व्यक्ति, समाज और देश के जीवन में शांति, विकास और समृद्धि का संगीत भरती है। आकाश में उड़्ता हुआ पक्षी आजाद तो होता है लेकिन उसे लगातार ध्यान रखना पड़्ता है कि कहीं उसके पंख किसी पेड़ या पहाड़ से टकरा न जायें। अगर वह ऐसा न करें तो किसी समय उसके पंख टूट सकते हैं, उसकी जान भी जा सकती है। जो समाज आजादी का अर्थ निरंकुशता, उन्मुक्ति या मनमानेपन के रूप में लगाता है, वह भी उसी असावधान पक्षी की तरह नष्ट हो जाता है। अराजकता हमेशा गुलामी या विनाश की ओर ले जाती है। सच्ची आजादी का मतलब ऐसे कर्म और चिंतन के लिये आसमान का पूरी तरह खुला होना है, जो समूचे समाज को, देश को लाभ पहुंचा सके।
डा. सुभाष राय
(वर्ष के श्रेष्ठ सकारात्मक ब्लोगर )
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स्‍वतंत्रता का अर्थ उच्‍छृंखलता या मनमानी नहीं होती ।

स्वतन्त्रता दिवस पर आयोजित परिचर्चा का आज सातवाँ दिन है ! इस सातवें दिन की शुरुआत हम करने जा रहे हैं श्रीमती संगीता पुरी जी से , आईये उनसे पूछते हैं कि उनके लिए आज़ादी के क्या मायने है
सामान्‍य रूप में आजादी का अर्थ पूर्ण तौर पर स्‍वतंत्र होना है , जिसमें किसी का भी कोई हस्‍तक्षेप न हो। पर मनुष्‍य के जीवन में वैसी आजादी किसी काम की नहीं , क्‍यूंकि इसमें उसके समुचित विकास की कोई संभावना नहीं बनती। जब एक बच्‍चा जन्‍म लेता है , तो भूख लगने पर रोता , पेट भरने पर खुश होकर हाथ पैर चलाता है। ये सब उसकी स्‍वाभाविक क्रिया प्रतिक्रियाएं हैं और ऐसा करना उसका अधिकार है , इसकी स्‍वतंत्रता उसे मिलनी चाहिए। उस समय अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्‍य के अनुरूप उसकी सारी जरूरतों को पूरा करते हैं।

थोडे बडे होने पर स्‍वाभाविक ढंग से ही बच्‍चे क्रमश: खिसकना और चलना शुरू कर देते है, पर उस समय हम उसे एक सीमा के बाद चलने से इसलिए रोक लेते हैं , ताकि वे गिरकर अपने सर हाथ न तोड लें , उनकी जान पर न बन आए। यदि वे परिवार के दूसरे सदस्‍यों के साथ मार पीट करते है तो उसके माता पिता उन्‍हें डांट फटकार लगाते हैं दूसरों को तंग करने का अधिकार उन्‍हे नहीं मिलता। इस तरह एक मिट्टी के बरतन की तरह अंदर से सहारा देकर बाहर से ठोक पीटकर उसे देश , काल और परिस्थिति के अनुसार ढाला जाता है। बच्‍चे जब और बडे होते हैं तो उन्‍हे नियम अनुशासन में बंधकर रहना सिखलाना और उन्‍हें शरिरिक , मानसिक और चारित्रिक तौर पर मजबूत बनाना भी न सिर्फ उनके भविष्‍य के लिए वरन् समाज के उत्‍थान के लिए भी अच्‍छा होता है।

एक अभिभावक की तरह ही राज्‍य और समाज की भी जिम्‍मेदारी होती है कि वह नागरिकों के समुचित विकास और उन्‍हें सुख सुविधा देने के लिए हर संभव प्रयास करे। समाज या राष्‍ट्र के अधिक से अधिक नागरिकों को , चाहे वो अमीर हो या गरीब , कमजोर हो या मजबूत , को एक स्‍वस्‍थ और स्‍वतंत्र माहौल मिलना , ताकि जमाने के हिसाब से उसकी आवश्‍यक आवश्‍यकताओं की पूर्ति हो सके , असली स्‍वतंत्रता है।

चूंकि अभिभावक की तरह ही हर देश का आर्थिक स्‍तर अलग अलग होता है , इसलिए सुख और समृद्धि की एक सीमा की हो सकती है , पर अधिकार और कर्तब्‍यों के मिश्रण से स्‍वास्‍थ्‍य और चरित्र की दृष्टि से तो प्रत्‍येक नागरिक को मजबूत बनाया ही जा सकता है। उन्‍हें कम से कम इतना अधिकार तो दिया ही जा सकता है कि वह पूरे राष्‍ट्र में कहीं भी भयमुक्‍त वातावरण में अपनी रूचि का कार्य कर अपना जीवन यापन कर सकें।

पर अधिकारों के साथ साथ नागरिकों को भी आवश्‍यक कर्तब्‍य पालन के लिए हर वक्‍त तैयार होना चाहिए , क्‍यूंकि पूरे राष्‍ट्र के लोगों की सुविधा के लिए , राष्‍ट्र के विकास के लिए , विश्‍व के अन्‍य देशों से खुद को आगे बढाने के लिए यह बहुत आवश्‍यक है। हर प्रकार की स्‍वतंत्रता प्राप्‍त करने के लिए , हर प्रकार की स्‍वतंत्रता को बनाए रखने के लिए नागरिकों के द्वारा अधिकार और कर्तब्‍य दोनो का पालन आवश्‍यक है , ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। स्‍वतंत्रता का अर्थ उच्‍छृंखलता या मनमानी नहीं होती ।
संगीता पुरी
( वर्ष की श्रेष्ठ सकारात्मक महिला ब्लोगर )
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