मंगलवार, 24 अगस्त 2010

स्वतन्त्रता का कल्पवृक्ष

विगत १५ अगस्त से लगातार इस विशेष परिचर्चा : आपके लिए आज़ादी के क्या मायने है ? पर हिंदी जगत के प्रमुख व्यक्तित्व के विचारों से मैं आपको अवगत करा रहा था ! इस क्रम में हिंदी ब्लॉगजगत और भारतीय खेलजगत के कई नामचीन हस्तियों के विचारों से आप रूबरू होते रहे !

आज मैं इस परिचर्चा का पटाक्षेप अपनी एक ऐसी कविता से करने जा रहा हूँ जो १९९२ में हुए भारत के सबसे बड़े भागलपुर और सीतामढ़ी दंगे के परिप्रेक्ष्य में लिखी गयी थी ! इसे प्रकाशित किया था दैनिक आज के पटना संस्करण ने -



आज फिर-
धर्ममद का अग्निकांड
दरका गया छाती
और लोगों की फूहड़ गालियों से
निस्तब्ध हो गयी परिस्थितियाँ !

आज फिर -
उद्घाटित हुई
सदाचार की नयी भूमिकाएं
शोक-सन्देश प्रसारित कर
जताई गयी सहानुभूति
चूहे की मृत्यु पर !
आज फिर-
दूरदर्शन की उजली पृष्ठभूमि पर
प्रतिबिंबित हुई
दंगे की त्रासदी / कर्फ्यू का सन्नाटा
विधवाओं की सुनी मांग
और, अनाथ बच्चों का करुण-क्रंदन !

आज फिर-
उजड़े छप्परों के नीचे
पूरी रात चैन से नहीं सोया
वह भूखा बीमार बच्चा
सूनसान शहर की सपाट सड़क पर
सायरन वाली गाड़ियों को देखता रहा रात-भर !
आज फिर-
ढाही गयी सभ्यता की दीवार
उमड़ आया सैलाब अचानक
उस बूढ़े स्वतन्त्रता सेनानी की आँखों में
और फूट पड़े होठों से ये शब्द-
" शायद उस दिन देश का दुर्भाग्य मुस्कुराया था
जब हमने लहू से सींचकर
स्वतन्त्रता का कल्पवृक्ष उगाया था !"
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इन नौ दिनों में आप हिंदी जगत के लगभग ३० प्रबुद्ध व्यक्तियों के विचारों से रूबरू हुए और सबसे सुखद बात यह है कि कमोवेश हर किसी ने एक ही प्रकार के सवाल उठाये जिसका जवाब हम सब को मिलकर ढूँढना होगा , तभी आज़ादी के सही मायने परिलक्षित हो सकेंगे !


आशा है हमारी ये परिचर्चा आपको अवश्य पसंद आई होगी .....अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवश्य अवगत करावें !
आपका-
रवीन्द्र प्रभात

1 comments:

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

 
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