मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
करते हो क्यूँ न पहल तौबा-तौबा ।
दो गज़लें
(एक)
है अचंभित हवा ये पहल देखकर
ताश के जो बने हैं महल देखकर ।
कंपकंपी सी हुई और शहर रो पडा-
इस जमाने का रद्दोबदल देखकर ।
मैंने समझा शहर में तबाही हुई-
अपने बेटों की आँखें सजल देखकर ।
पेंड की आड़ में था खडा आदमी-
भेड़ियों के गए दिल दहल देखकर ।
दुश्मनों की तरफदारी करने लगे-
दोस्तों की कमी आज़कल देखकर ।
बज़्म में कुछ सुना न सका है प्रभात-
आपके पास अपनी ग़ज़ल देखकर ।
(दो)
बनाया था मैंने महल तौबा-तौबा
कि मैं ही हुआ बे दखल तौबा-तौबा ।
जले मेरा घर मेरे ही सामने मैं-
तमाशा बना आजकल तौबा-तौबा ।
ये ग़ालिब के जुमले से तुमने चुराए-
जिगर की जमीं पर ग़ज़ल तौबा-तौबा ।
अदब के पुजारी हो लेकिन नहीं क्यों-
वतन के लिए एक पल तौबा-तौबा ।
वो मैयत में आये मगर इस अदा से-
नज़र उनकी थी न सजल तौबा- तौबा ।
अमन के लिए तुम ही प्रभात अब-
करते हो क्यूँ न पहल तौबा-तौबा ।
() रवीन्द्र प्रभात
दुश्मनों की तरफदारी करने लगे-
जवाब देंहटाएंदोस्तों की कमी आज़कल देखकर.nice
खूबसूरत
जवाब देंहटाएंsundar prastuti
जवाब देंहटाएंhttp://sanjaykuamr.blogspot.com/
बहुत ही खुबसूरत है यह ग़ज़ल, बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल, बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़लें हैं...बधाई।
जवाब देंहटाएंक्या बात है, खुबसूरत गज़ल, बधाई
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़लें हैं...बधाई।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत ग़ज़लें हैं...बधाई।
जवाब देंहटाएंपेंड की आड़ में था खडा आदमी-
जवाब देंहटाएंभेड़ियों के गए दिल दहल देखकर ।
दोनो ही गज़ल शानदार हैं और ये शेर तो बहुत ही पसन्द आया।
आपकी गज़लें समसामयिक एवम दिल को छूने वाली हैं ....ईश्वर से प्रार्थना रहेगी की आप सदा उर्जावान रहें .....
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