सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

ब्लॉग पर कैसा साहित्य देखना चाहते हैं आप ?

आजकल चर्चा-ए-आम है कि ब्लॉग पर साहित्य को मानक नहीं माना जा सकता , क्योंकि साहित्य के पुरोधाओं ने इसे अब तक द्वितीय पंक्ति की चीज मान रखा है !

मैं हिंदी साहित्य के पुरोधाओं से यह जानना चाहता हूँ कि ब्लॉग पर कैसा साहित्य देखना चाहते हैं आप ?

यहीं से मैं अपनी बात की शुरुआत कर रहा हूँ कि .आज भले ही हिंदी साहित्य ब्लॉग पर अपनी शैशवास्था में हो पर आने वाला समय निश्चित रूप से उसी का है। वर्तमान में हिंदी के साहित्यकारों की पहुंच भी इन ब्लॉगों पर लगभग 10 प्रतिशत के आसपास ही है। लेकिन इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की बढ़ती संख्या आश्वस्त  करती है कि हिंदी का दायरा अब देश की सीमाएं लांघकर दुनिया भर में अपनी पैठ बना रहा है। साहित्य की तरह ही  ब्लॉग लेखन भी सृजनात्मकता के दायरे में आ चुका है  , इसका उद्देश्य  "स्वान्त:सुखाय" नही रहा, इसके केंद्र  में  मनुष्य की सामूहिक चिंताएं आ गयी है और  व्यक्तिगत मनोविनोद, जय-पराजय, सुख-दुख से ऊपर  सामूहिक प्रेम, बन्धुत्व, स्वतंत्रता और समानता का साहित्य इसपर प्रस्तुत किया जा रहा है  !नये मूल्यों  के अनुरूप वर्ग, वर्ण  और जातियों के बीच की दूरियां घटाई जा रही है ।

इसपर स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की परिभाषाएं बदली है,  लिंगगत समानता आई है ।  सामाजिक सरोकार बढे हैं ।  भाषा की दृष्टि से  कठिन शब्दों का प्रचलन कम हुआ है । विधा की दृष्टि से कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण, यात्रावृत्त आदि विधाएं इसपर  बदस्तूर जारी है । हिन्दी तो आज विश्व बाजार की भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है, किन्तु साहित्य की सीमा सिमटती जा रही है, जिसे हम शुद्ध साहित्य कहते हैं, उसका दायरा केवल अकादमिक सीमा तक ही रह गया है।

साहित्य के पुरोधा गण ब्लॉग को चाहे जितना भी कोस लें, पर भाषा, साहित्य और संस्कृति की भूमि को जितना उर्वर इस नए माध्यम के द्वारा बनाया जा रहा  है, उतना साहित्य के अन्य माध्यमों के द्वारा  नहीं। हम आप जिसे साहित्य कहते हैं, यदि साहित्य केवल वही है, तो यह तय है कि आज के भ्रष्ट  और पतनशील राजनीतिक दौर में जितना कारगार और तात्कालिक हस्तक्षेप ब्लॉग  कर पा रहा है,उतना साहित्य के द्वारा सम्भव नही है। यह वक्त का ऐतिहासिक तकाजा है कि ब्लॉग-लेखन की अहमियत को समझा और स्वीकार किया जाये। वैसे शुद्धतावादियों के बाद और बावजूद उसकी अहमियत स्थापित हो चुकी है।


.आज आवश्यकता इस बात की है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य को भी गंभीर व विचार योग्य साहित्य माना जाए। आलोचक, समीक्षक इन विभिन्न ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य पर विचार कर अपनी महत्वपूर्ण राय दें। इस साहित्य पर उनके सटीक विश्लेषण से ब्लॉगर्स को भी लाभ होगा। वहीं हिंदी ब्लॉग लेखन के स्तर में अपेक्षित सुधार होगा।सम्भव है आने वाले दिनों में ये क्षद्म कुंठाएं खुद-ब-खुद मिट जायें और ब्लॉग केवल साहित्य बनकर मुख्यधारा में शामिल हो जाये।
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46 comments:

  1. मैं आपके लेख में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ.

    आज आवश्यकता इस बात की है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य को भी गंभीर व विचार योग्य साहित्य माना जाए। आलोचक, समीक्षक इन विभिन्न ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य पर विचार कर अपनी महत्वपूर्ण राय दें। इस साहित्य पर उनके सटीक विश्लेषण से ब्लॉगर्स को भी लाभ होगा। वहीं हिंदी ब्लॉग लेखन के स्तर में अपेक्षित सुधार होगा।सम्भव है आने वाले दिनों में ये क्षद्म कुंठाएं खुद-ब-खुद मिट जायें और ब्लॉग केवल साहित्य बनकर मुख्यधारा में शामिल हो जाये।

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  2. यह दु:ख का विषय है कि ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य की सुधबुध लेने वाला कोई नहीं है। इस पर उपलब्ध साहित्य को हिंदी में कोई तवज्ज़ो भी नहीं दी जाती है। पत्र पत्रिकाओं में उपलब्ध साहित्य की अपेक्षा इसे उपेक्षा भाव से ही देखा जाता है। इसे हल्क़ा फुलका, चलताऊ व दोयम दर्ज़े का मानकर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। ब्लॉग के साहित्य लेखक को तो कोई साहित्यकार मानने को भी तैयार ही नहीं है। जबकि वह बिना किसी विवाद, गुट या विमर्श में पड़े लगातार सृजन कर रहा है।

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  3. ब्लॉग पर कैसा साहित्य देखना चाहते हैं आप ?

    साहित्यकारों के लिए हमारी तरफ़ से भी ले लीजीए

    पहली बात कि क्यों देखना चाहते हैं , अपना साहित्य ही देखिए न ?

    दूसरी बात , जैसा देखना चाहते हैं , बिल्कुल नहीं दिखेगा । सब raw material है ..विशुद्ध मौलिक ..भाषा भी और गाली भी ?

    दिख भी गया तो कौन सा आपको दिखाई देने वाला है ??

    आंखें मूंद कर भी बैठ जाएंगे तो कंप्यूटर न सही मोबाईल के सहारे आपके भीतर तक पहुंच जाएगा ही ?

    तब तक कुढते रहिए और गरियाते रहिए

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  4. यही ब्लॉगजगत की
    जमीनी सच्चाई है अजय भाई !

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  5. बहुत सार्थक, धनात्मक, और स्पष्ट आलेख...
    नेट पर साहित्य के संबंध कुछ विचारणीय तथ्य हैं

    सर्वप्रथम तो ब्लॉगजगत अभी आत्मावलोकन के दौर मे है जहां इसकी संभावनाओं, विभिन्न आयामों और सीमाओं पर मंथन का क्रम जारी है। और यह मंथन आवश्यक भी लगता है।

    दूसरी बात- शायद अभी कुछ लोग उस मानसिकता से बाहर नहीं निकाल पाये हैं जहां "मंहगे का मतलब अच्छा" होता है। अभिव्यक्ति का जो उन्मुक्त प्रवाह आज हमें नेट पर प्राप्त है वह कागज़ी साहित्य मे बिरले ही मिले... यह भी संभव है कि अभी हम साहित्य को पेपर जिल्द की गुणवत्ता और प्रकाशक से जोड़ कर ही देख पा रहे हों। यह ठीक है कि हर व्यक्ति की अपनी अपनी रचनात्मक क्षमताएं हो सकती हैं... लेकिन नेट पर किए जा रहे बहुत से ऐसे कार्य हैं जिन्हें किसी भी तथाकथित साहित्य से कमतर आँका जाये।

    नेट पर हिन्दी साहित्य ससीमित संभावनाएं और भविष्य रखती है इसमे कोई द्विविधा नहीं होनी चाहिए। लेकिन अभी से इसकी तुलना सैकड़ों वर्षों से स्थापित साहित्य से करना उचित नहीं लगता है।

    ब्लागिंग अभिव्यक्ति का एक ऐसा मंच है जिसने रचनाकारों मे प्रतिद्वंद्विता और द्वेष कम कर सहयोगात्मक विमर्श को जन्म दिया है और भौगोलिक दूरियों की वर्जनाएं तोड़ते हुए विभिन्न विचारों, संस्कृतियों और रचनात्मकता को वैश्विक सह अस्तित्व दिया है।

    ब्लागिंग के इस दौर मे अकादमिक साहित्य से तुलना करते हुए कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी

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  6. ब्लॉग एक ऐसा माध्यम है की चर्चा वालों से ज़्यादा देखने वालों और लिखने और पढ़ने वालों पर निर्भर करता है ... की कैसा साहित्य हो ... या परोसा जाय ..

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  7. पद्म सिंह जी,

    हर समाज की अपनी भाषा और संस्कृति होती है और हर भाषा का अपना साहित्य होता है। हिन्दी भाषा का भी अपना साहित्य और समाज है। कहना न होगा यह समाज और इसका साहित्य अत्यंत समृद्ध रहा है। आधुनिक समय में मीडिया, विज्ञापन, पत्रकारिता और सिनेमा ने हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति की भूमि को उर्वर बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। ब्लाग या चिट्ठा इसी विकास की दुनिया का नवीनतम माध्यम है और ब्लागिंग या चिट्ठाकारिता लेखन या मीडिया की नई विधा।

    आपने सही कहा है कि ब्लागिंग के इस दौर मे अकादमिक साहित्य से तुलना करते हुए कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी

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  8. कृपया इसे यूं पढ़ें

    नेट पर किए जा रहे बहुत से ऐसे कार्य हैं जिन्हें किसी भी तथाकथित साहित्य से कमतर नहीं आँका जा सकता ।

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  9. इस मुद्दे पर कमोवेश सभी ब्लोगरों की एक और सर्वमान्य राय है जो आपने कहा वह अक्षरश: सत्य है नासवा जी, विल्कुल सही कहा आपने !

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  10. पूर्ण सहमति! दरअसल जब तक हिन्दी विभागों को साहित्य का एकमात्र स्रोत समझा जाता रहेगा हिन्दी का चतुर्दिक विकास संभव नहीं है -आज हिन्दी ब्लॉग जगत में हिन्दी भाषा कितने ही अभिनव स्रोतों द्वारा समृद्ध हो रही है -ज्ञान विज्ञान ,दर्शन ,बहुल संस्कृतियाँ ,गीत संगीत लोकगीत..कितना कुछ -आज हिन्दी साहित्यकारों को कूप मंडूकता से बाहर निकलने और हिन्दी ब्लॉग पर ज्ञान विज्ञान के इस अभूतपूर्व दृश्य का आनंद उठाना चाहिए ! नहीं तो वे हाशिये पर होंगें ..और उधर ही खिसकते जा रहे हैं !

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  11. आपने तो मेरे मन की बात कह दी अरविन्द जी !

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  12. .ब्लॉग पर अन्य विधाओं में जितनी भी रचनाएं हैं भले ही वह कम हों पर उच्च कोटि की हैं। इन्हें किसी भी तरह से दोयम दर्ज़े की रचनाएं नहीं सिद्ध किया जा सकता। प्रिंट मीडिया के लेखक ब्लॉग पर प्रायः कम ही लेखन का कार्य करते हैं। वे शायद यह मानकर चलते हैं कि इन रचनाओं को कोई पढ़ेगा भी नहीं। लेकिन ब्लागवाणी, चिटठाजगत जैसे ब्लाग एग्रीगेटर्स हिंदी ब्लॉग को लोकप्रिय बना रहे हैं यह प्रसन्नता की बात है।

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  13. हर चिट्ठे की भाषा स्तरीय नहीं होती या विषय घटिया होता है या लेखन स्तरहीन होता है ऐसा नहीं कहा जा सकता।

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  14. ''ब्लॉग पर कैसा साहित्य देखानाचाहते है आप'' इस पर लघु टिपण्णी दे कर मन नहीं भरेगा मेरा एक लेख ही लिखना पडेगा. इसे एक-दो दिन बाद भेजूंगा. फिलहाल उन लोगो को झकझोरनाज़रूरी है. जो हर नयी चीज़ को खारिज करने की नापाक कोशिश करते है. आज के हिंदी आलोचकों के लिये व्यंग्य बेकार है...गीत-ग़ज़ल बकवास है. नैतिकता दो कौड़ी की है. और अब ब्लॉग-साहित्य की बारी है, जबकि ये लोग भूल जाते है की अगर इस ''फार्म'' का बेहतर इस्तेमाल हो तो दुनिया में एक नया बौद्धिक वातावरण बन सकता है. अभिव्यक्ति का यह सशक्त माध्यम है. इसे कम से कम मैंने तो महसूस किया ही है. मेरी ग़ज़ले, मेरे व्यंग्य , मेरे सामयिक विचार ब्लॉग और ब्लॉगों के माध्यम से ही दूर-दूर तक जा रहे है. किसी के नकारने से कोई विधा या फ़ार्म हाशिये पर नहीं जा सकते. ब्लॉग के माध्यम से अब साहित्य और बेहतर तरीके से लोकव्यापी हो रहा है.

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  15. बहुत सही और जरूरी विचार(सलाह भी)। प्रभात जी, मठाधीशों से साहित्य की ठेकेदारी हो सकती है, वे साहित्य का भविष्य-निर्माण नहीं कर सकते। ब्लॉग न्यू मीडिया की उभरती विधा है और हिन्दी ब्लॉग धीरे-धीरे आकार ले रहा है। आपने सही कहा है कि यह विधा अब सृजनात्मक शक्ल भी लेने लगी है। इसे और पालने-पोषणे-तराशने और सहेजने की जरूरत है, क्योंकि अभी भी हिन्दी ब्लॉग में गंभीर और सरोकारी लेखन-पठन की घोर कमी महसूस की जा रही है। सरोकारी लेखन की पहली शर्त है- मानव-मूल्यों में घोर आस्था और सर्जना की तीव्र भूख, लेकिन अधिकतर ब्लॉग-लेखकों में लेखन का उत्साह तो दिखता है, लेकिन साहित्यिक-मर्म के सहभागी बनने की इच्छा कम-ही दिखती है। यही कारण है कि बहुत-से संभावनाशील ब्लॉग-लेखक हतोत्साह होकर यहां से विदा भी ले रहे हैं। टिप्पणी-लालसा और टिप्पणियों के लेन-देन की जो कहानी अभी चल रही है, वह स्वस्थ्य और स्वच्छ नहीं है। लेकिन मुझे भी विश्वास है कि एक दिन ब्लॉग उत्कृष्ट साहित्य सृजन का मंच बनकर रहेगा। धीरे-धीरे...

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  16. आपके आलेख की प्रतीक्षा है गिरीश भाई !

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  17. अधिकतर ब्लॉग-लेखकों में लेखन का उत्साह तो दिखता है, लेकिन साहित्यिक-मर्म के सहभागी बनने की इच्छा कम-ही दिखती है। यही कारण है कि बहुत-से संभावनाशील ब्लॉग-लेखक हतोत्साह होकर यहां से विदा भी ले रहे हैं। टिप्पणी-लालसा और टिप्पणियों के लेन-देन की जो कहानी अभी चल रही है, वह स्वस्थ्य और स्वच्छ नहीं है।

    यह सर्वथा सत्य है रंजित जी और इस बात को खारिज भी नहीं किया जा सकता !

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  18. प्रिय भाई दोनों ही अतिवादी दृष्टिकोण हैं , ब्लॉग को एक सिरे से नकारना या फिर उसके माध्यम से आ रहे साहित्य को बेहतरीन सिद्ध करना
    ब्लॉग तो एक माध्यम है और आप यह भी जानते हैं की जैसे पत्रिकाओं में बकवासी साहित्य भी प्रकाशित होता है वैसे ही ब्लॉग भी बहुतों के लिए दिल बहलाव का माध्यम है -- कुछ भी , चिंतन विहीन, सतहीय भी बहुत आता है ब्लॉग के माध्यम से
    यदि आप यह उद्देश्य मानते है --उद्देश्य "स्वान्त:सुखाय" नही रहा, इसके केंद्र में मनुष्य की सामूहिक चिंताएं आ गयी है और व्यक्तिगत मनोविनोद, जय-पराजय, सुख-दुख से ऊपर सामूहिक प्रेम, बन्धुत्व, स्वतंत्रता और समानता का साहित्य इसपर प्रस्तुत किया जा रहा है !नये मूल्यों के अनुरूप वर्ग, वर्ण और जातियों के बीच की दूरियां घटाई जा रही है--- तो ऐसा साहित्य चाहे किताबों के माध्यम से आये या फिर ब्लॉग के माध्यम से , क्या शिकयत हो सकती है ?
    ब्लॉग हमें तुरत फुरत कहने को उकसाता है , उससे सावधानी आवश्यक है
    प्रेम जनमेजय

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  19. रवीन्द्र भाई ... क्या कहा जाए ... मेरे हिसाब से तो सब कुछ ही कहा जा चूका है ... हाँ बस एक बात कहना चाहूँगा ... जैसा कि हाल ही में देखा गया ... केवल नेट पर लिख कर या बोल कर मिस्र में इतने बड़े बदलाव को दिशा दे दी गई ... आज ना भी हो भविष्य में जो कुछ भी अभी लिखा या कहा गया वह वहाँ के इतिहास में साहित्य ना भी माना जाए तो उस से कमतर नहीं माना जायेगा ... ऐसे ही अपने यहाँ भी यही होना है ऐसा मेरा मानना है !

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  20. यदि साहित्य का मतलब धीर-गंभीर और वजनदार शैली में मुंशी प्रेमचंद या उन जैसे साहित्यकारों के लिखे को ही माना जावे तो शायद यह पूरी तरह से कभी भी संभव नहीं हो सकेगा । मेरी सोच में तो ब्लाग्स सिर्फ साहित्य मात्र का प्रतिनिधित्व करने वाला माध्यम नहीं है बल्कि वो सब कुछ जो हिन्दी भाषा में लिखा व पढा जा सकता है सभीका संयुक्त रुप से प्रतिनिधित्व करने वाला माध्यम है और आगे भी यह इसी रुप में कायम रहेगा ।

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  21. आप चिंतित न हों। समीक्षा का दौर भी ब्लागजगत में शीघ्र ही आरंभ होगा। अभी ब्लाग लेखन ही कितने वर्ष का है?

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  22. समीक्षा का दौर प्रारंभ हो इससे वेहतर और क्या हो सकता है !

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  23. गंभीर विषय पर विचार विमर्श के लिए आभार .....साहित्य का भी असल मकसद सामाजिक विकाश तथा संवेदनाओं का विस्तार ही है.......और आज यह काम ब्लॉग जगत के द्वारा बखूबी किया जा रहा है.......हमसब सामाजिक प्राणी हैं इसलिए मैं तो सामाजिक सरोकार और समाज के उत्थान से सम्बंधित साहित्य का ही पक्षधर हूँ .....

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  24. साहित्य के पुरोधा गण ब्लॉग को चाहे जितना भी कोस लें, पर भाषा, साहित्य और संस्कृति की भूमि को जितना उर्वर इस नए माध्यम के द्वारा बनाया जा रहा है, उतना साहित्य के अन्य माध्यमों के द्वारा नहीं।
    ==
    वास्तविकता भी यही है मगर कुछ लोग हकीकत से मुहँ फेर रहे हैं!
    आपने तो इस आलेख में मेरे मन की बात कह दी!

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  25. रवींद्र जी ! कोई भी चीज़ अब किसी वर्ग विशेष की बपौती नहीं रह गयी है. दूसरी बात यह कि ब्लॉग-साहित्य (यदि साहित्य शब्द पर पुरोधा लोगों को आपत्ति हो तो ब्लॉग-सन्देश ) अपने उद्देश्यों को पूरा कर पाने में सक्षम हो चुका है......वे उद्देश्य जो किसी साहित्य के होने चाहिए. ब्लागी-कलम के सिपाही अपना उत्तरदायित्व निभा पा रहे हैं ...यही संतोष जनक बात है .....रही बात प्रमाण-पत्र की ......तो उसकी मैं आवश्यकता इसलिए नहीं समझता कि एकलव्य के पास कोई डिग्री नहीं थी, दूसरे यह डिग्री देने के लिए अधिकृत कौन है ? .......सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट के हिसाब से जो साहित्य का उद्देश्य पूरा नहीं कर पायेंगे वे स्वयं काल-कलवित हो जायेंगे....जो फिटेस्ट होगा वही उभर कर सामने आ जाएगा .....अब कोई पुश्तैनी थुपा-थुपी नहीं चल पायेगी.
    साहित्य में अब कड़ी प्रतिस्पर्धा होने वाली है क्योंकि आधुनिक तकनीक ने हर किसी को मैदान में आने की सुविधा दे दी है ...इसलिए ब्लॉग साहित्य से सुस्थापित पुरोधाओं का घबडाना स्वाभाविक है .....अब रही बात स्वीकृति की और मान्यता की .......सक्षमता को किसी स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती ......और जन सामान्य की मान्यता से बड़ी कोई मान्यता नहीं होती. सूर ..कबीर ...तुलसी ...रसखान ....आदि "लोकमान्य" पहले हुए .........."साहित्यमान" बाद में हुए . ब्लॉग को अपने दम-ख़म पर विकसित होना और सुस्थापित होना है ...किसी की बैसाखियों की आवश्यकता उसे नहीं है.
    जहां तक भाषा का प्रश्न है ...यह तो एक बहती हुयी नदी है ...इसे रोका नहीं जा सकता ..यह अपना रास्ता स्वयं बना लेगी. परिष्कृत भाषा का अपना महत्त्व है ...पर उसे थोपा नहीं जा सकता .....जब आप किसी पर उसके आचरण के लिए सत्यम ब्रूयात नहीं थोप सकते तो यह तो भाषा है जो स्वयं विकसित होती है ......थी तो परिष्कृत भाषा हमारे पास ...संस्कृत का क्या हाल है आज ? हाँ कुछ मर्यादाओं के पालन के साथ भाषा को विकृत होने से बचाने का प्रयास अवश्य करना है....तो यह कार्य प्रतिस्पर्धा की धार स्वयं कर लेगी. हमें तो अपना काम करना है ........करने से पहले उसे पहचानना है ....और हमारा कार्य है पहरेदारी जिसे हमने पहचान लिया है ...अब कोई भी शक्ति कोई भी तिरस्कार कालजयी साहित्य को ब्लॉग के खेतों में अंकुरित ...पल्लवित ....पुष्पित होने से रोक पाने में सक्षम नहीं है.

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  26. जय कुमार झा जी, शास्त्री जी और कौशलेन्द्र जी ,
    इस मुद्दे पर आप सभी के दृष्टिकोण से हिंदी ब्लॉगजगत में निश्चित रूप से एक नयी इच्छाशक्ति का संचार होगा और हम ब्लॉगजगत को प्रतिष्ठापित करने में कामयाब हो पायेंगे !

    इस सन्दर्भ में हिंदी के प्रमुख व्यंग्यकार प्रेम जन्मेजय ने कहा है कि "ब्लॉग तो एक माध्यम है और आप यह भी जानते हैं की जैसे पत्रिकाओं में बकवासी साहित्य भी प्रकाशित होता है वैसे ही ब्लॉग भी बहुतों के लिए दिल बहलाव का माध्यम है -- कुछ भी , चिंतन विहीन, सतहीय भी बहुत आता है ब्लॉग के माध्यम से.....!"

    हम आभारी हैं कि आप सबने अपने अनमोल विचारों से इस परिचर्चा को एक मुकाम दिया

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  27. लो जी मुझे तो पता ही नहीं चला इस पोस्‍ट के बारे में और हुए विमर्श के बारे में, वैसे पता चल भी जाता तो मैं कौन सा हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के झण्‍डे गाड़ देता। फिर भी कहूंगा, मैं चुप नहीं रहूंगा कि साहित्‍य वो जिससे सबका हित सधे, चाहे वो साहित्‍यकार हो, ब्‍लॉगर हो या पाठक हो, कार में बैठा हो अथवा बेकार हो, पैदल चल रहा हो या साईकिल पर सवार हो, पढ़ रहा हो या पेट को भरने की उधेड़ बुन में लगा हो। मतलब मेरे कहने का यही है कि जिससे सबका हित सधे, वही साहित्‍य। चाहे पुस्‍तक में पढ़े, चाहे पत्रिका पढ़े, चाहे अखबार भी न पढ़े, सिर्फ रेडियो टी वी ही सुने। पर दिमाग उसका चले, खूब चले। मन में अच्‍छाई की तरंगें उठें, कलम से अच्‍छे अच्‍छे विचार जन्‍म लें, जो कीबोर्ड से लिखें, वे भी सच्‍चा लिखें और जो कलम से लिखें वे भी नम होकर लिखें। सख्‍त न हों, दरख्‍त भावना रखें। जैसे पेड़ सबको छाया देते हैं, साहित्‍यकार या ब्‍लॉगर उत्‍तम विचार दें और इस सबके लिए बहुत जरूरी है कि हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को प्राथमिक कक्षा से एक विषय के तौर पर लिया जाए, जिसका उत्‍तरोत्‍तर कक्षाओं में विस्‍तार किया जाए, पूरे सामाजिक सरोकार को जिया जाये। जिससे हर मन में जिम्‍मेदारी की भावना बने। वही भावना हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को नया मीडिया रूपी पांचवें खंबे के बतौर सुस्‍थापित करेगी। बस इतनी ही चाहना है मेरी। न तेरी गलत, न मेरी सही। खोल दें ऐसी बही। हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की बहा दें नदी। जो समुद्र बन जाए फिर बादलों के जरिए सबके तन मन को भिगो जाए, सरसा जाए, हर मन को हर्षा जाए। अब चला जाए, बहुत लिख दिया। पता नहीं इसे लिखने का कोई लाभ भी होगा या नहीं। न हो तब भी तसल्‍ली तो रहेगी।

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  28. हम जो भी रच रहे हैं वह किसी साहित्य से कम है क्या??
    आप नीचे दिए लिंक पर जाएं।
    http://apnesarokaar.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

    ये एक नामचीन पत्रिका का साहित्य है।

    और अगर ये साहित्य है, तो ऐसे साहित्य से तौबा।

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  29. रविन्द्र भाई जब आपकी यह बहस चल रही है कि ब्लॉग का साहित्य साहित्य क्यों नहीं.. मेरे ब्लॉग पर एक पोस्ट है.. उसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ शायद स्पष्ट हो जाये..
    "
    कुछ कहा नहीं जा सकता
    इसमें कोई दो मत नहीं है की 'हंस' हिंदी साहित्य की देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है. वर्षो से सुनते और पढ़ते आ रहा हूँ हंस को. सुना है हंस में कहानियों और कविताओं की प्रतीक्षा सूची काफी लम्बी होती है... साल साल भर लग जाते हैं स्वीकृत रचनाओं को छपने में. हंस हिंदी साहित्य का बाज़ार भी है और ब्रांड भी.. यु कहिये की साहित्य का यूनिलीवर है. जनवरी के अंक में कवि सूरजपाल चौहान की एक कविता छपी है 'कुछ कहा नहीं जा सकता' शीर्षक से. कविता की संक्षिप्त भूमिका में कवि का कहना है, "'आउटलुक' (हिंदी) अगस्त २०१० अंक में प्रकाशित मनीषा के लेख 'फतवागीरो के फितूर का दिवालियापन' को पढ़ते हुए" .. मतलब यह कविता अगस्त २०१० में लिखी गई और जनवरी, २०११ के अंक में छप भी गई.. कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'हंस' में तत्काल छपने के लिए क्या जरुरी है.. अपने अल्पज्ञान के कारण क्षमा सहित !

    कुछ कहा नहीं जा सकता
    (कवि श्री सूरजपाल चौहान की हंस जनवरी २०११ में प्रकाशित कविता)

    बहन,
    तुमने सच लिखा है
    कि -
    परमात्मा औरतो के
    स्तन देखकर
    हो जाता है उत्तेजित .

    उसकी-
    काम-वासना जाग्रत हो जाती है
    बहन-बेटी की
    मध्यरेखा देखते ही
    उतारू हो जाता है
    उपद्रव करने को .

    बहन,
    तुम्हे ब्रह्मा की कहानी तो ज्ञात होगी
    बेटी सरस्वती ....
    और फिर.. पुत्र...
    नारद .

    भगवान
    या कहें
    परमात्मा का कोई ठौर ठिकाना नहीं
    उसे-
    कोई लाज-शर्म नहीं.
    अपनी ही
    बहन या बेटी के अंगो को देखकर
    कब मोहित हो जाये
    कुछ कहा नहीं जा सकता.

    हंस के फ़रवरी अंक में पाठको के पन्ने पर इस कविता पर कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है... यदि आई भी होगी तो शायद संपादक महोदय ने उन्हें स्थान देने में पक्षपात किया होगा. अब आप निर्णय करें कि इस कविता में ' ईश्वर ' को गरियाने के अतिरिक्त कौन सा सौंदर्य, भाव या सन्देश है.".... ( http://apnesarokaar.blogspot.com/2011/02/blog-post.html)

    बस और कुछ नहीं कहना है !

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  30. ब्लॉगिंग विकास की राह पर है ..ब्लॉग पर प्रकाशित साहित्य भी कम नहीं है ...क्या साहित्यिक पत्रिकाओं में संस्मरण , यात्रा वृतांत नहीं छपते ? वही यदि ब्लॉग पर लिखा जा रहा है तो उसे स्वान्तः सुखाय ही कह देना उचित है ?

    लेखकों और पाठकों के सीधे जुडाव के इस मंच की अवहेलना ज्यादा देर संभव नहीं होगी !

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  31. ब्लॉग सामन्य अभिव्यक्ति से लेकर विशेषज्ञ अभिव्यक्ति का माध्यम है| देखा जाए तो यह अंतर बना रहेगा .......जाहिर सी बात है तुलनात्मक दृष्टि से ब्लॉग्गिंग कभी भी साहित्य की तरह नहीं हो सकती है ......पर लोकतांत्रिक होने के कारण जल्द ही उम्दा साहित्य भी यहाँ देखने को मिल सकता है|

    ....हाँ ऐसी बातों को तुरत-फुरत हवा में उड़ा देना भी उतना जरूरी नहीं अक्सर समालोचना गंभीर चीजों की ही होती है .....अतः इतनी गंभीरता ब्लॉग्गिंग में महसूस की जा रही ......यह क्या कोई कम है ?

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  32. अगर देखा जाये तो सभी पत्रिकायें भी तो श्रेष्ठ साहित्य लिये हुये नही होती फिर ब्लाग तो बहुत विसतरित मंच है। आज नही तो कल सहित्य के पुरोधा इसे जान लेंगे । अभी शायद उन्हें कम्प्यूटर का ग्यान नही है। ;} शुभकामनायें।

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  33. ब्लॉग्गिंग एक बहुत विस्तृत और बहुआयामी माध्यम है ... साहित्य में योगदान इसका एक प्रमुख पहलू ज़रूर है पर एकमात्र नहीं ...
    जिस तरह ज्यादातर दफ्तरों में कागज की जगह संगणक ने ले ली है ... उसी तरह साहित्य जगत में भी भविष्य कागज नहीं संगणक के सहारे चलने वाला है ... भले इस बात को आज कोई माने या न माने ...
    हाँ एक बात ज़रूर सच है कि ब्लॉग्गिंग में अभी उन्नति की प्रचुर संभावना है ... जैसे जैसे दिन बीतेंगे, ब्लॉग्गिंग भी बाकी माध्यमों कि तरह और ज्यादा सफल होता जायेगा ... इसमें कोई शक नहीं है !

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  34. अलग—अलग तरह के प्रकाशक होते हैं जैसे बच्चों की किताबों के, विज्ञान पुस्तकों के, साहित्यिक पुस्तकों के, सैल्फ़—हेल्प पुस्तकों के इत्यादि.

    ठीक इसी तरह, अलग—अलग ब्लाग लेखक भी अलग—अलग तरह का लिखते हैं. ऐसे में सभी को किसी एक फीते से नाप डालना ठीक नहीं लगता.

    यहां तो किसी की बात सुनने की भी ज़रूरत नहीं... ब्लाग लेखक भी अपनी ही तरह के तरह के होते हैं सो वैसा ही लिखते हैं जैसा वे चाहते हैं. अब ये पढ़ने वाले पर है कि वह क्या ढूंढ रहा है, ठीक वैसे ही जैसे जब वह किताबों की दुकान में जाता है तो अपनी पसंद की ही किताब ढूंढता है.

    बस बात इतनी सी है.

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  35. मेरे विचार में जब भी किसी नई विधा का विकास होता है, तो उसमें कूड़ा और अच्‍छा दोनों तरह का साहित्‍य आता है। आप इस प्रक्रिया को रोक नहीं सकते हैं। यदि आप इस विषय में चिंतित होते हैं, तो भी इससे कोई फायदा नहीं होने वाला। क्‍योंकि यह एक सामान्‍य एवं सार्वभौमिक प्रक्रिया है, जो हमेशा चलती रही है और चलती रहेगी। यही नियति ब्‍लॉग जगत की भी है। इस पर हर तरह का साहित्‍य आ रहा है, आता रहेगा। हॉं, समय जरूर उसमें स्‍तरीय और उपयोगी छांट लेगा।
    सो मेरे विचार में आप अपना काम करते रहें, समय अपना काम करता रहेगा। धन्‍यवाद।
    ---------यदि आप साहित्‍यकार हैं, तो यह सूचना आपके काम की है।

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  36. अविनाश जी, मनोज कुमार जी, अरुण जी, इन्द्रनील जी,वाणी जी, प्रवीण त्रिवेदी जी, निर्मला जी, काजल जी,

    आप सभी का आभार इस महत्वपूर्ण विमर्श में हिस्सा लेने हेतु , क्योंकि मैं प्रतिबद्ध हूँ इस पूरे विमर्श को आप सबके वक्तव्य के साथ प्रिंट मीडिया में ले जाने के लिए ताकि साहित्य का एक आम पाठक महसूस कर सके ब्लोगिंग की शक्ति को !

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  37. जाकिर भाई यह सही है की समय अपना काम करता है, किन्तु यह भी सही है हमारी सृजनशीलता को कोई चुनौती न दे, क्या कोई भी व्यक्ति अपने को दोयम दर्जे का नागरिक कहलाना पसंद करेगा ?

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  38. jo aaj tang khich rahe hain.........kal ko haath thamenge...

    loktantra ka panchwa khambha..bloging

    sahitya ka shoot-putra.aaj ka bloging
    sahitya ka mool-putra..kal ka bloging

    pranam.

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  39. 1 फूहड़ता और आडम्‍बर से बचें।

    2 भाषा इतनी सरल ना कर दें कि‍ वाक्‍य गठन और मात्राओं की गलति‍यां भी माफ कर दी जायें।

    3 भाषा इतनी क्‍ि‍लष्‍ट भी ना करें के समझ ही ना आये कहा क्‍या जा रहा है।

    4 वि‍षय, कि‍सी भाषा,वर्ग, संप्रदाय संबंधि‍त गुटबाजी ना हो, आत्‍मसंतोषी कूपमंडूप ना बनें।

    5 कटटरता से बचें।

    6 अक्‍ल से पर्दा ना उठ पा रहा हो तो अतीत का उत्‍तम साहि‍त्‍य देखें।

    हम ही लोग जैसे बनायेंगे, वैसे बन जायेंगे, हम भी और हमारे ब्‍लॉग भी।


    http://rajey.blogspot.com/2011/02/blog-post_21.html#links

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  40. वो साहित्य जो किसी के काम आ सके | आपने चाय पी या नाश्ता किया इन बातो को लिखने से दूसरों को क्या फायदा हो सकता है ? आपका ज्ञान किसी मुसीबत के मारे का सहारा बन सके तो आपकी बलोगिंग सार्थक है |

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  41. रवींद्र जी ! बड़ी ही ग्राह्य संभाषा चल रही है ......निश्चित ही इसका श्रेय आपको जाता है.
    भाई मेरे ! सृजनशीलता को मिलने वाली चुनौती को मैं उत्प्रेरक के रूप में लेता हूँ .......सृजन को कोई बाधित नहीं कर सकता ..यह तो एक spontaneous process है. अन्दर विचारों का गर्भ पल रहा है ......अभिव्यक्ति का पोषण भी उपलब्ध हो रहा है तो प्रसव को रोका नहीं जा सकेगा.....होगा ही. अब बात अस्तित्व की आती है .......कि लोग इस सृजनशीलता को स्वीकारते हैं या नहीं ....और स्वीकारते हैं तो किस कोटि में ? मुझे तो साहित्य सृजन एक प्रसव जैसा ही लगता है ......इसमें कृत्रिमता नहीं चलती ........सब कुछ सच्चाई के धरातल पर ही होना चाहिए. खुला ऑब्जरवेशन .......संवेदनशीलता ...सात्मीकरण.......बेचैनी ........पीड़ा की अनुभूति ......और मुक्ति की छटपटाहट....यही तो चाहिए कालजयी साहित्य के प्रसव के लिए . अब इसके अस्तित्व को कोई चुनौती कैसे दे सकता है ? ...इसके अतिरिक्त यदि कुछ लिखा जाएगा तो निश्चित ही वह साहित्य नहीं होगा. समाचार पत्रों में कितना साहित्य होता है ? तो ब्लॉग को समाचार पत्र नहीं बनने देना है.
    सभी ब्लोगेर्स बेहोश नहीं हैं ....बहुत से लोग चौकन्ने भी हैं .....और अपना रास्ता तलाशते जा रहे हैं. धीरे-धीरे सारी काई छट जायेगी...और पानी साफ़ हो जाएगा.
    हाँ ! द्वितीय नागरिकता कोई नहीं स्वीकारना चाहेगा ...पर अपनी क्षमता के बल पर हमें अपना अभीष्ट अर्जित करना होगा.
    RAJEY SHA ने एक आचरण सूची प्रस्तुत की है ...स्वागत है .....इसे लागू करना होगा. ब्लॉग जगत की शैशवावस्था है अभी .....लड़खड़ाने का क्रम चलेगा ....पर यह लड़खड़ाना ही तो भागने की सम्भावनाओं का पूर्व लक्षण है.

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  42. हिन्दी ब्लॉगिंग पर आपके क्रांतिकारी विचारों से मैं पूरी तरह समहत हूं। निश्चित रूप से भविष्य का साहित्य मात्र पुस्तकीय साहित्य तक सीमित नहीं रहेगा अपितु उससे आगे निकल जाएगा। आज जहां प्रत्येक क्षेत्र में तकनीकी का बोलबाला है। कागजरहित कार्यालय बनाए जा रहे हैं। विद्यालयों में ई.पाठ पर विशेष जोर दिया जा रहे हैं। ई. पुस्तकों के आगमन से अध्ययन की सुविधा बढ़ गई है। सर्च उपकरण के माध्यम से कई किताबों का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। आसानी से बिना मूल्य एक पुस्तक से हजारों ई.पुस्तकें बनाई जा सकेगीं।ऐसे में भला साहित्य कैसे पीछे रहेगा। यह सस्ता एवं सर्वसुलभ माध्यम भी बन जाएगा तथा पाठक रचनाकारों से टिप्पणी के माध्यम से सीधे जुड़ सकता है।वार्तालाप भी कर सकेगा। यदि यह सुविधा 100 साल पहले से होती तो शायद प्रेमचंद को अपने प्रेस को चलाने के लिए अपना खून नहीं पिलाना पड़ता या निराला को अपनी लौटी रचना को उदास लेकर न लौटना पड़ता। सच है कि ब्लॉग साहित्य को दोयम दर्जे की नागरिकता प्राप्त है, पर आने वाला समय उसी का है।

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  43. समझ में नहीं आता कि ...साहित्य का किसी माध्यम से क्या नाता.....पहले साहित्य मौखिक हुआ करता था..फ़िर मिट्टी-पत्थर की शिलाओं पर लिखा गया.....जब भोजपत्र चलन में आया तो उस पर लिखा जाने लगा...कागज के आविष्कार के साथ कागज पर लिखा गया ...छपाई के आविष्कार के साथ साहित्य छपने लगा पुस्तकों में....अब कम्प्यूटर आजाने पर ...इन्टरनेट पर ब्लोग के माध्यम से साहित्य लिखा जारहा है ...
    ----सभी माध्यमों व कालों मे निक्रिष्ट, उत्तम व कालजयी साहित्य रचाजाता रहा है ..... अतः ब्लोग्गिन्ग भी एक लेख्य-माध्यम है ....साहित्य के वही सब कुछ गुणावगुण इसमें भी है...

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