समय को लेकर पवन जैन जी खड़े हैं परिकल्पना के मुख्य द्वार पे .... समय की बातें समय के साथ समय की जुबानी ... कलम पवन जैन की !
तो एक परिचय पवन जी से करवाती चलूँ 
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श्री पवन कुमार जैन, भारतीय पुलिस सेवा  1987 बैच
जन्म दिनांक एवं स्थान :  4 जुलाई 1963, राजाखेड़ा, धौलपुर (राजस्थान)
शिक्षा :  एम. एस. सी फिजिक्स, राजस्थान विश्वविधालय, जयपुर
भारतीय पुलिस सेवा में चयन: वर्ष 1987 मध्यप्रदेश केडर,
पूर्व पदस्थापनायें -
पुलिस अधीक्षक - विदिशा, सरगुजा, खरगोन, मुरैना तथा सीहोर | 
उप पुलिस महानिरीक्षक - विशेष सशस्त्र बल एवं अपराध अनुसंधान विभाग |
मुख्यमंत्री सचिवालय, म. प्र. शासन - अतिरिक्त सचिव |
आयुक्त, संस्कृति, मध्यप्रदेश व न्यासी सचिव, भारत भवन |
पुलिस महानिरीक्षक - अजाक, पुलिस मुख्यालय, भोपाल |
प्रबंध संचालक - म. प्र. पुलिस हाउसिंग कार्पोरेशन |
सम्प्रति -
पुलिस महानिरीक्षक, उज्जैन झोन, उज्जैन  |
तो इनसे बेहतर समय से मुलाकात कौन करवा सकता है ....
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मैं समय हूँ, 
सबकी नब्ज पहचानता हूँ, 
अतीत सेलेकर
वर्तमान तक के सारे कि़स्से जानता हूँ,
ये जो कि़स्सा मैं सुना रहा हूँ
आज़ाद हिन्दुस्तान का है,
कहते हैं 
इसकी हस्ती कभी मिटती नहीं, 
कहते हैं इसकी हस्ती कभी मिटेगी नहीं, 
तुर्क, तातार, अ़फग़ान और मंगोल 
इस सभ्यता को जीत नहीं पाए
अंग्रेज़ों के ज़ालिम हथकण्डे भी 
इस सभ्यता को मिटा नहींपाए,
लेकिन ये मैं क्या देख रहा हूँ, 
यह सभ्यता 
खुद-ब-खुद 
रसातल में जा रहीहै! 
और इसके विनाश की कब्र भी 
इसके अपने बेटों द्वारा ही 
खोदी जा रही है!
आइए, चलिए ,देखते हैं 
हिन्दोस्तान में क्या हो रहा है,
ये जो शहर के किनारे 
टूटा हुआ पुल देख रहे हैं न, 
इन्जीनियर और ठेकेदार के बीच 
समझौते की निशानी है ।
कल तक हरा भरा 
और अब 
कटा हुआ जंगल, 
जंगलात ऑफिसर की मेहरबानी है ।
ये सरकारी अस्पताल है, 
इसके मरीज़ों का हाल 
बेहालहै,
आम आदमी लंबी लाइनों में 
लग कर 
सिर्फ सिरदर्द पाता है,
क्योंकि डॉक्टर साहब को
ख़ास मरीजों केबाद 
बहुत कम वक़्त मिल पाता है ।
अस्पताल में आने वाली दवाइयां 
और सामान 
पिछले दरवाज़े से निकल जाते हैं,
और लोकल टैक्स एक्सट्रा के साथ, 
सामने की दुकान पर मिल जाते हैं ।
ये जो तहसील देख रहे हैं न, 
लाट साहब के ज़माने की है,
भूले भटके यहाँ कोई 
रेवन्यू ऑफिसर आता है,
वरना यहाँ का सारा काम तो 
पटवारी चलाता है।
ये पटवारी नक्शे बनाने 
और बिगाड़ने की कला में माहिर है, 
चंद चांदी के सिक्कों में 
पैमाने का आकार बदल जाता है,
और बेचारे ग़रीब की ज़मीन पर 
साहूकार का ट्रेक्टर धुआ उड़ाता है,
साहब का हिस्सा 
खुद-ब-खुद बंगले पहुँच जाता है।
ये जो फटीकमीज़ और मैली कुचैली 
धोती पहिने हरिया है न,
अपने बेटे की 
उँगली थामे रोज़ कचहरी जाता है, 
काँख में खसरे और पट्टे की नकलें 
दबाए इस दरवाज़े से उस दरवाज़े तक 
चक्कर लगाता है
जवानीमें 
अपने बाप के साथ आता था,
इस ख़ुशी में जी रहा है बेचारा 
कि अदालत से 
इसके हक़ में फ़ैसला आएगा 
और जिस ज़मीन को निहारते निहारते 
इसका बूढ़ा बाप मर गया, 
इसे उम्मीद है 
कि इसका बेटा उस पर हलचलाएगा ।
ये पुलिस थाना है, 
आज भी पुराने कायदे, 
कानून और किताबों से चल रहा है,
वर्दी के ख़ौ़फ से 
कोई बिरला ही 
रिपोर्ट कराने इस पुलिस स्टेशन में आता है
और कहीं मददगार की इज़्ज़त का 
जनाज़ा न निकल जाय,
इसलिए बामुश्किल 
कोई इस थाने की सीढि़याँ चढ़ पाता है ।
नए ज़माने में 
ये कैसा खेल चल रहा है
होना था जिसे हवालात के अंदर 
वही क़ातिल मसीहा बन रहा है ।
इस मन्दिर का पुजारी 
कल तक मूर्तियाँ चुराता था,
इस मस्जिद का मौलवी 
हथियार बनाने के जुर्म में 
सज़ा पाता था।
इस गुरुद्वारे का ग्रन्थी 
डर कर भाग गया है, 
पता नहीं कब 
किसी उग्रवादी की तबीयत मचल जाए,
और उसके झोले में रखा
हथगोला ग्रंथी पर ही उछल जाए ।
शहर के बीचों बीच 
महलनुमा हवेली देख रहे हैं न, 
नेताजी की है,
चुनाव के मौक़े पर 
पैसे और ताक़त का खेल 
खुलकर दिखाया जाता है,
और कल का अपराधी
आज का नेता बन जाता है,
पता नहीं किस किसके खून का 
कमाल है, 
कि नेताजी की हवेली का रंग 
आज तक लाल है,
और इस पुश्तैनी फटेहाल के पास
कौन जाने कितने करोड़ों का माल है!
नगर के प्रवेश द्वार पर 
झिलमिलाता, जगमगाता 
पॉच सितारा होटल देख रहे हैं न,
इसकी ज़मीन गाँधीजी के नाम पर 
स्टेडियम बनवाने के लिए 
हथियाई गईथी।
आज इसके अंदर 
मदमस्त अध पगले 
पाश्चात्य धुनों पर थिरक रहे हैं,
होटल के ठीक सामने
ज़मीन के असली मालिक का बेटा, 
जूठे टुकड़ों के ढेर से 
अपना भोजन चुन रहा है।
समाजवाद   
अपने पूरे यौवन पर चल रहा है। 
ट्रेन की पटरियों पर
कटी हुई लाश देख रहे हैं न,
बेरोजगार नौजवान की है,
सत्ता सुंदरी के
आगोश में लिपटे लोगों के
बेरहम दिल यह देख  कर
क्यों नही दहल जाते,
कि इस मुल्क में
आज अकेले पेट के लिए
दो हाथ भी भोजन नहीं जुटा पाते। 
ये जो लंगडाकर चल रही हैं न,
क्रांतिकारी की मॉ है,
इसके बेटे ने
जंगे आजादी की लडाई में
शहादत दी थी,
चौराहे पर लगी
इसके बेटे की मूर्ति को
चुनाव के हर मौके पर
मालाऍ पहनाई जाती है,
पर अफसोस
इस बुढिया को
एक बैसाखी भी नही थमाई जाती
है । 
सच्चाई के साथ
दिन  दहाडे बलात्कार हो रहा है,
और न्याय ने अपनी ऑखों पर
पट्टी बॉंध रखी है। 
ये सचिवालय
काग़ज के पन्नों पर
विकास के घोडे दौडा रहा है,
ऑकडों में मिटी हैं ग़रीबी
और ग़रीब
काग़ज़ी वायदों के ढेर में तडफडा
रहा है
तु यहॉ भूख और भ्रष्टाचार के
किस्से किसको सुना रहा है,
देखता नही है
संसद में बेरोज़गारी और आतंकवाद को
भाषणों से ही निपटाया जा रहा है ।
लोकतंत्र की इन अंधेरी गलियों में
आम आदमी सिर्फ ठोकरें खा रहा है,
और ताकतवरों का दरबार
पूरी शान से जगमगा रहा है ।
पता नही यहॉ कौन किसको निगल रहा है,
ऋषि मुनियों का देश है
इसलिए राम भरोसे चल रहा है ।
सोचता हू,
मेरे मुल्क में
फिर कोई महात्मा आ जाए,
जो इस धधकते आतंकवाद से
लडने के लिए 
अहिंसा की नई परिभाषा गढे,
ताकि देश तो आगे बढे,
या फिर आजा़दी का दीवाना
सुभाष चला आए
जो मादरे वतन की तरफ़
आंखें उठाने वालों के
न सिर्फ छक्के छुडाए,
वरन् हर बाजी जीत कर ले आए ।
या फिर
कोई शहीदे आजम भगतसिंह आ जाए,
तो नई रोशनी का
ऐसा दीप जगमगाए,
कि इस देश की युवा पीढी को
एक नया रास्ता मिल जाए।
भले ही खुद हो जाए कुर्बान,
मगर वतन को जीना सिखा जाए ।
अंत में
मैं देश की नन्हीं किलकारियों को
सलाम करता हू।
मादरे वतन का आने वाला कल
उनके नाम करता हू ।
मैं समय हू,
मैनें जो कि़स्सा सुनाया
आजा़द हिन्दोस्तान का है ।
कहते हैं इसकी हस्ती कभी मिटती नहीं,
कहते हैं इसकी हस्ती कभी मिटेगी नही।
क्योकिं मैं समय हूँ,
समय की भाषा क्या आपके मन को उद्द्वेलित नहीं करती ?
क्या आपका रोम रोम समय के साथ वतन के नाम नहीं होना चाहता ?
क्या आपका रोम रोम समय के साथ वतन के नाम नहीं होना चाहता ?
चाहता है न .... तो हम तलाश करें एक दूसरे में एक नया भगत , नया राजगुरु, सुखदेव, आजाद , गाँधी , नेहरु , झाँसी की रानी और फख्र से कहें 
'हिंदी हैं हम वतन है हिन्दुस्तां हमारा ...'
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मैं समय हूँ
मैं देख रहा हूँ-
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मैं समय हूँ
मैं देख रहा हूँ-
मंच की ओर,जहां 
आगाज़  होने जा रहा है ब्लॉगोत्सव  के दूसरे दिन का 
एक ऐसी मर्मस्पर्शी डाक्युमेंटरी फिल्म से 
जिसे तैयार किया है 
जहांगिरावाद मीडिया इंस्टीटयूट 
के श्री हरी ओम द्विवेदी ने 
     
........आप इस फिल्म को अवश्य देखिये ......प्रतिक्रया भी व्यक्त कीजिये ......जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद.......
यह  फिल्म समाज से विलुप्त नौटंकी विधा की बदहाली पर पूरी तरह केन्द्रित है 
जिसे सुनकर और देखकर आप विवश हो जायेंगे यह सोचने के लिए,कि-
नौटंकी का दुर्भाग्य है या सरकार की उदासीनता ?
........आप इस फिल्म को अवश्य देखिये ......प्रतिक्रया भी व्यक्त कीजिये ......जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद.......
 


बेहद सशक्त रचना और कड्वी सच्चाई का सटीक चित्रण एक पुलिस अफ़सर से बढिया और कौन कर सकता है।
जवाब देंहटाएंपवन जैन जी ने समय के माध्यम से हर एक भारतीय की पीड़ा को रेखांकित किया है, सचमुच बहुत बढ़िया आयाम दिया है आप सभी ने इस उत्सव को, कोटिश: बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंयह कविता नहीं समय का कड़वा सच है, जिसे यहाँ प्रस्तुत करके आपने उत्सव की गरिमा में चार चाँद लगा दिया है, बहुत सुन्दर ....रविन्द्र जी और उनकी टीम खासकर रश्मि जी को ढेर सारी बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंअनुपम,अद्वितीय और अतुलनीय ....!
जवाब देंहटाएंआपने इस उत्सव को सचमुच एक नया आयाम दिया है, आपको ढेर सारी बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंब्लॉग महोत्सव की सफलता हेतु शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी पुरानी नयी यादें यहाँ भी हैं .......कल ज़रा गौर फरमाइए
नयी-पुरानी हलचल
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
पावन जैन जी से परिचय अच्छा रहा ..समय की सशक्त अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंपुलिस सेवा में रह कर भी कवि ज़िन्दा रहे तो बहुत प्रसन्नता होती है.
जवाब देंहटाएंमय के साथ हैं आप पवन जी।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा रचना.....ब्लॉगोत्सव की सफलता हेतु शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना है .. बहुत समय तक मन को उद्वेलित करेगी ...
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