रविवार, 29 अप्रैल 2012

क्यूं पहचानेगा कोई मुझे अब मेरे शहर में

क्यूं पहचानेगा
कोई मुझे
अब मेरे शहर में
हो गया अनजाना अब
अपने ही शहर में
सोने चांदी से
भर गयी झोलियाँ सबकी
बन गए मकाँ बड़े बड़े
सीख गए चालें ज़माने की
अपनों को लात मार कर
आगे बढ़ने का हूनर भी
आ गया
मैं ईमान-ओ-दोस्ती के
गुमाँ में
वही खडा रह गया
नहीं कर सका बराबरी
उनकी
उनसे पीछे रह गया
क्यूं पहचानेगा कोई
मुझे अब मेरे शहर में
डा.राजेंद्र तेला,निरंतर 
29-04-2012
483-64-04-12
    तेरे हाथों में

ये तेरा हाथ जिस दिन से,है आया मेरे हाथों में

जुलम मुझ पर ,शुरू से ही,है ढाया तेरे हाथों ने
तुम्हारे थे बड़े  लम्बे,नुकीले ,तेज से नाख़ून,
दबाया हाथ तो नाखून,चुभाया   तेरे हाथों ने
इशारों पर तुम्हारी उंगुलियों के ,रहा मै चलता,
बहुत ही नाच है मुझको, नचाया तेरे  हाथों ने
हुई शादी तो अग्नि के,लगाए सात थे फेरे,
तभी से मुझको चक्कर में,फंसाया तेरे हाथों ने
कभी सहलाया है मुझको,नरम से तेरे हाथों ने,
निकाला अपना मतलब फिर,भगाया तेरे हाथों ने
शरारत हमने तुमने बहुत की है,मिल के  हाथों से,
कभी सोते हुए मुझको जगाया तेरे हाथों ने
रह गया  चाटता ही उंगुलियां मै अपने हाथों की,
पका जब प्रेम से खाना ,खिलाया तेरे  हाथों ने
मै रोया जब,तो पोंछे थे,तेरे ही हाथ ने आंसू,
ख़ुशी में भी ,गले से था,लगाया  तेरे हाथों ने
सफ़र जीवन का हँसते हंसते,कट गया यूं ही,
कि संग संग साथ जीवन भर,निभाया तेरे हाथों ने

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

खूब बूढों डोकरो होजे-आशीर्वाद या श्राप



पौराणिक  कथाओं में पढ़ा था,
जब कोई बड़ा या महात्मा,
छोटे को आशीर्वाद देता था
तो "चिरंजीव भव"या "आयुष्मान भव "
या "जीवही शरदम शतः " कहता था
और मै जब अपनी दादी को धोक देता था
तो "खूब बूढों डोकरो होजे "की आशीष लेता था
और आज जब मेरे  केश
सब हो गए है सफ़ेद
दांत चबा नहीं पा रहे है
घुटने डगमगा रहें है
बदन पर झुर्रियां छागयी है
काया में कमजोरी आ गयी है
क्षुधा हो गयी मंद है
मिठाई पर प्रतिबन्ध है
सांस फूल जाती है चलने में जरा
मतलब कि मै हो गया हूँ बूढा डोकरा
फलित हो गया है बढों का आशीर्वाद
पर कई बार मन में उठता है विवाद
एकल परिवार के इस युग में,
जब बदल गयी है जीवन कि सारी मान्यताएं
और ज्यादा लम्बी उमर पाना,
देता है कितनी यातनाएं
एक तो जर्जर तन
और उस पर टूटा हुआ मन
तो कौन चाहेगा,लम्बा हो जीवन
ज्यादा लम्बी उमर ,लगती है अभिशाप
और ये पुराने आशीर्वाद,
आज के युग में बन गए हैं श्राप

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

मेरी नयी कहानी " आबार एशो [ फिर आना ] "








::::::आज ...अभी [कुछ पल पहले] .......!!! :::::: 

कोने में रखे हुए ग्रामोफोन पर आशा भोंसले की आवाज में एक सुन्दर सा बंगाली गीत बज रहा है ...."कोन से आलोर स्वप्नो निये जेनो आमय ......!!!" सारे कमरे में रजनीगंधा के फूलो की खुशबु छाई हुई है , ये फूल कल निशिकांत अनिमा के जन्मदिन पर लाया था. शांतिनिकेतन के एकांत से भरे इस घर की बात ही कुछ अलग थी , अनिमा का मन जब भी अच्छा या खराब; दोनों होता था , तब वो इस घर में आ जाती थी , कोलकत्ता के भीड़ से बचकर कुछ दिन खुद के लिए जीने के लिये . बाहर में चिडियों की आवाज आ रही है .. अनिमा का मन कुछ अलग सा था. कल से मन कुछ एक अजीब सी उधेड़बुन में है . अनिमा का अकेलापन अब किसी का साथ मांग रहा था. संगीत, फूलो की खुशबु, चिडियों की आवाज और मन का कोलाहल सब कुछ आपस में मिलकर अनिमा को उद्ग्विन बना रहा है. अचानक उसकी तन्द्रा टूटी , निशिकांत ने चाय का कप नीचे रखा और उससे कहा , मैं चलता हूँ अनिमा , अपना ख्याल रखना . अनिमा उठकर खड़ी हुई. वो एकटक निशिकांत को देख रही थी , आँखों में कुछ गीलापन तैरने लगा .निशिकांत ने उसे गले से लगाया और दरवाजे की ओर चल पढ़ा. अनिमा का दिल तेजी से धड़कने लगा. निशिकांत के दरवाजे की ओर बढ़ते हुए एक एक कदम जैसे अनिमा की ज़िन्दगी से उसकी धड़कन लिये जा रहा हो.. निशिकांत दरवाजे के पास रुका और मुड़कर अनिमा को देखा . एक निश्छल मुस्कराहट और फिर उसने अनिमा की तरफ देखकर विदा के लिये हाथ उठाया . अनिमा के मुह से रुक- रूककर जैसे एक गहरे कुंए से आवाज़ निकली " आबार एशो !......आबार एशो निशिकांत आबार एशो !" निशिकांत चौंककर रुका , पलटा और अनिमा को गहरी नज़र से देखा . ......अनिमा के आँखों से आंसू बह रहे थे. उसने जीवन में पहली बार किसी को आबार एशो कहा था. निशिकांत वापस आया और अनिमा ने उसकी तरफ अपनी बांहे फैला दी. निशिकांत अनिमा के बांहों में समा गया . अनिमा सुबकते हुए बोली. “मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ निशिकांत. आमियो तोमाके खूब भालो बासी , निशिकांत.” ग्रामोफोन का रिकॉर्ड खत्म हो गया था, चिडियों की आवाजे अब नहीं आ रही थी . सिर्फ अनिमा के सुबकने की आवाज , रजनीगंध के फूलो की खुशबु के साथ कमरे में तैर रही थी . और तैर रहा था दोनों का प्रेम !! 

 ::::::आज से २२ बरस पहले :::::::

 " चलो हम भाग जाते है सत्यजीत , अनिमा ने सर उठाकर कहा . अनिमा रो रही थी . सत्यजीत से वो पिछले पांच सालो से प्रेम कर रही है . दोनों ने साथ में उन्होंने सारी पढाई की है . अनिमा ने विश्वभारती विश्वविद्यालय में फाईन आर्ट्स में दाखिला लिया था , उसने पेंटिंग के कोर्स में डिग्री लिया था और एक बड़े पेंटर का सपना देख रही थी . सत्यजीत उसके जूनियर कॉलेज में भी उसके साथ था और उसने भी अनिमा के साथ के लिये इसी विश्वविद्यालय में जर्नालिस्म और मास कम्युनिकेशन में दाखिला लिया था. और अब वो एक बड़ा जर्नलिस्ट बनना चाह रहा था . दोनों के अपने अपने अलग सपने थे , लेकिन दोनों में प्रेम था . सत्यजीत अनिमा से बहुत प्रेम करता था. और उसके संग जीने का सपना भी देख रहा था.लेकिन अब एक बहुत बड़ी मुश्किल आ गयी थी . सत्यजीत के पिता ने कह दिया कि वो अनिमा से शादी नहीं करेंगा . नहीं तो वो मर जायेंगे . ये फैसला भी अचानक ही आया था. अनिमा के पिता की तीन साल पहले मौत हो गयी थी और अनिमा की माँ ने इस बरस एक दूसरे लेकिन भले आदमी के साथ ब्याह रचा लिया था. बहुत कम लोग ये जानते थे कि अनिमा की माँ को कैंसर है और वो कुछ ही दिन की मेहमान है . सिर्फ कुछ पुराने वादों के लिये और अनिमा के भविष्य के लिये उन्होंने ये ब्याह किया था. अनिमा ने ये सब सत्यजीत को समझाया था. लेकिन सत्यजीत अपने पिता को नहीं समझा पा रहा था. करीब ५ साल का प्रेम अब घरासायी हो रहा था. और अनिमा लगातार रो रही थी . अनिमा ने कहा , “ मुझे अब इस जगह रहना भी नहीं है ., मैंने कोलकत्ता के एक स्कूल में आर्ट टीचर की जॉब के लिये अप्लीकेशन किया था. मुझे बुलावा आ गया है , मैं जाती हूँ ,. तुम आ सको तो आ जाना , मुझे तुम्हारा इन्तजार रहेंगा ”.  सत्यजीत की आँखों में आंसू आ गये , “अनिमा , पिताजी ने कहा है कि मुझे दूसरी लड़की से ही ब्याह करना होंगा. तुमसे मैं कभी भी ब्याह नहीं कर पाऊंगा.” अनिमा ने कहा “इसलिए तो कह रही हूँ कि भाग चलते है . बोलो क्या कहते हो सत्यजीत ?” सत्यजीत उदास होकर कहने लगा . “नहीं अनिमा ;मैं नहीं भाग पाऊंगा. जिंदगी भर के लिये एक बदनामी. मेरे परिवार की बदनामी . कुछ दिन रूककर देखते है , सब ठीक हो जायेंगा.” अनिमा ने कहा , “नहीं सत्यजीत कुछ ठीक नहीं होंगा. करीब एक साल से यही कह रहे हो , कब ठीक होंगा. बोलो आज फैसला करो .” सत्यजीत ने कुछ अटकते हुए कहा , “नहीं अनिमा , मैं नहीं आ पाऊंगा .” अनिमा के आंसू रुक गये. उसने आंसू पोछा और फिर सत्यजीत की बांहों में आकर कहा , “देखो सत्यजीत , हमारा प्यार हमारे साथ है , सब ठीक हो जायेंगा, तुम चलो मेरे साथ.” सत्यजीत ने सर झुका कर कहा , “नहीं अनिमा , मैं नहीं आ पाऊंगा.” अनिमा फिर रोने लगी , थोड़ी देर बाद उसने अपने आंसू पोंछे और खड़ी हो गयी. अनिमा ने आँख भर कर सत्यजीत को देखा . और कहा , “मैं चलती हूँ सत्यजीत , अब कभी नहीं मिलना मुझसे.” सत्यजीत की आँखे भर आई , वो परिस्थितियों के आगे विवश था. वो कुछ बोल न सका. थोड़े दूर जाने के बाद अनिमा रुकी , पलटी और सत्यजीत को देखा . सत्यजीत ने कहा , “आबार एशो अनिमा." अनिमा मुड कर चल दी. हमेशा के लिए सत्यजीत के ज़िन्दगी से चली गयी ..! ::::::आज से 13 बरस पहले :::::: “ये मेरा घर है और जो मैं चाहूँगा, वही होंगा” . देबाशीष गरज कर बोला. अनिमा ने कहा. “अगर तुम ये सोचते हो की ये सिर्फ तुम अकेले का घर है तो फिर मेरा क्या काम यहाँ ?" देबाशीष ने गुस्से में कहा , “तुम मेरी बात क्यों नहीं सुनना चाहती हो." अनिमा ने कहा “ इसमें सुनने लायक क्या है . पेंटिंग मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हिस्सा है , मैं कैसे बंद कर दूं , सिर्फ तुम्हारे अंह की शान्ति के लिए मैं अपने जीवन में मौजूद एक ही ख़ुशी है , वो भी खो दूं ." अब अनिमा रोज रोज के इन झगड़ो से तंग आ चुकी थी . तीन साल पहले उसने देबाशीष से शादी की थी . वो भी प्रेम विवाह . देबाशीष भी उसकी तरह एक पेंटर था. और पेंटिंग ही उन दोनों को करीब लायी थी . सब ठीक चल रहा था. फिर आर्ट के फॉर्म में बदलाव आया. अनिमा ने अपने आप को कंटेम्पररी आर्ट में ढाल दिया , और इस बदलाव ने पेशा और पैसो में बढोत्तरी की. लेकिन देबाशीष अपने आप में बदलाव नहीं ला सका , नतीजा ये हुआ की . देबाशीष की पेंटिंग्स लोग कम खरीदने लगे और करीब करीब बिकना भी बंद हो गया . लेकिन अनिमा एक सफल आर्टिस्ट बन गयी . चारो तरफ उसका नाम हुआ. बहुत सी एक्सिबिशन भी होने लगी , और अच्छे दामो पर उसका आर्टवर्क बिकने भी लगा. बस देबाशीष का अंह उसके सर पर सवार हो गया . ये घर भी दोनों ने मिलकर ख़रीदा था. और करीब एक साल से अनिमा ही इस घर का पूरा खर्चा उठा रही थी . अनिमा को कहीं भी कोई भी तकलीफ नहीं थी , देबाशीष से वो प्रेम करती थी . लेकिन रोज देबाशीष का पीकर आना और फिर लड़ना . और आज सुबह से ही देबाशीष पीकर घर में उत्पात मचा रहा था. बात सिर्फ इतनी थी , अनिमा को फ्रांस जाना था , और देबाशीष नहीं चाहता था की वो फ्रांस जाए. अनिमा के लिए जो प्रेम उसके मन में था अब उस प्रेम की जगह ईर्ष्या ने ली थी . देबाशीष ने चिल्लाकर कहा , “देखो अनिमा , तुम ये पेंटिंग छोड़ दो , हम प्रिंटिंग का काम करेंगे .” अनिमा ने आश्चर्य से कहा , “ये क्या कह रहे हो , मैं ऐसा कुछ भी नहीं करुँगी. पेंटिंग मेरे लिए सब कुछ है . तुम अपनी जिद छोड़ दो. हम मिलकर एक आर्ट गेलरी खोलते है , और सब कुछ ठीक हो जायेंगा .” देबाशीष फिर चिल्लाकर बोला . “नहीं , जो मैं कहूँगा वही तुम करो , मत भूलो की तुम मेरी बीबी हो .” अनिमा अक्सर शांत ही रहती थी . लेकिन आज वो भी गुस्से में थी . उसने भी चिल्लाकर कहा. “मैं वही करुँगी , जो मेरा मन कहेंगा. मत भूलो , की तुमसे मैंने शादी भी इसलिए की थी ,की मैं तुमसे प्रेम करती हूँ और मेरे मन ने इस की इजाजत दी थी ." देबाशीष ने कहा , “तो तुमने मुझ पर उपकार किया . अब एक उपकार और करो , या तो वो करो , मैं चाहता हूँ या फिर मुझे छोड़कर चली जाओ."  अचानक कमरे में ही एक दर्द भरा सन्नाटा छा गया . बहुत देर की चुप्पी के बाद अनिमा उठी और घर से बाहर चल पड़ी. देबाशीष ने चिल्लाकर कहा , “कहाँ जा रही हो , मैंने गुस्से में कह दिया तो चले ही जाओंगी .” अनिमा ने बिना मुड़े कहा , “नहीं देबाशीष , अब नहीं . अब हम साथ नहीं रह सकते . मैं तुम्हे छोड़कर जा रही हूँ ." देबाशीष कुछ बोल न सका . जैसे ही अनिमा दरवाजे के पास पहुंची , देबाशीष ने कातर स्वर में कहा " आबार एशो अनिमा " अनिमा ने न कोई जवाब दिया , न पलटकर देखा और न ही रुकी , वो हमेशा के लिए देबाशीष के घर से और उसकी ज़िन्दगी से निकल गयी….! 


 ::::::आज से 8 बरस पहले :::::: 

 शमशान के चौकीदार ने पुछा , “कौन हो तुम?” अनिमा ने कुछ नहीं कहा , सिर्फ उसके मुह से निकला "श्रीकांत ” शमशान में लगभग रात हो चुकी थी और इस वक़्त वैसे भी कोई नहीं आता, और ऐसे समय में एक महिला का शमशान में होना . चौकीदार ने गौर से अनिमा को देखा . अनिमा का चेहरा किसी मुर्दा चेहरे से कम नहीं लग रहा था . आँखे सूखी हुई सी थी. चौकीदार ने पुछा. “तुम कौन हो. श्रीकांत बाबु के लोग तो आकर चले गए.” अनिमा ने उसकी ओर देखा . शमशान के गेट पर लगे हुए पीले बल्ब की रौशनी में चौकीदार ने अनिमा का चेहरा देखा और बहुत कुछ उस नासमझ को समझ गया . उसने चुपचाप अनिमा को अपने पीछे आने का इशारा किया . एक करीब करीब जल चुकी चिता के पास उसे ले आया और उस चिता के तरफ इशारा किया . अनिमा चिता देखकर पथरा गयी . बहुत देर से रुके हुए आंसू अब न रुक सके . वो जोर जोर से रोने लगी . चौकीदार चुपचाप खड़ा रहा . दुनिया में सच शायद सिर्फ शमशान में ही दिखता है . बहुत देर तक रोने के बाद वो चुप हो गयी . श्रीकांत जैसा आदमी , अनिमा ने दूसरा नहीं देखा था. और शायद अब कभी देखेंगी भी नहीं . सब कुछ जैसे एक लम्हे में उसकी आँखों के सामने लहरा गया. श्रीकांत को माँ सरस्वती का वरदान था. वो कवि , संगीतकार, गायक, चित्रकार सब कुछ था. लेकिन उसकी ज़िन्दगी में जिससे उसका ब्याह हुआ था . वो भी प्रेम विवाह , वो ब्याह सुखमय नहीं था. स्त्री कर्कशा थी और दिन रात उसका जीवन नरक बनाये हुए थी . श्रीकांत की पत्नी का स्वभाव उससे बिलकुल भी मेल नहीं खाता था . रोज किसी नकिसी बात पर झगडा एक बहुत ही कॉमन बात थी . श्रीकांत तंग हो चला था ज़िन्दगी से . नतीजा , रोज़ ही श्रीकांत शराब के नशे में अपने आपको डुबो देता था. ऐसे ही एक शाम को श्रीकांत की मुलाकात अनिमा से हुई . कोलकत्ता में उत्तमकुमार पर आधारित एक शो था. जिसमे श्रीकांत ने बहुत से गीत गाये , और जब अनिमा का प्रवेश वहाँ हुआ , तब वो स्टेज पर एक गाना गा रहा था , " दिल ऐसा किसी ने मेरा तोडा " गाना सुनकर अनिमा रुक गयी थी. उस दिन दोनों का परिचय एक दुसरे से हुआ. दुसरे दिन श्रीकांत अनिमा के घर पहुँच गया सुबह ही . अनिमा उसे देखकर चौंक गयी थी . श्रीकांत ने उसके ओर कुछ रजनीगंधा के फूल बढाए और कहा . “अनिमा मुझे झूठ बोलना नहीं आता . कल पहली बार ऐसा हुआ की तुमसे मिला और मैंने शराब नहीं पी. और रात को सो भी नहीं पाया . तुम्हारे बारे में ही सोचते रहा . क्या ये प्रेम है ?” अनिमा सकते में आ गयी , सो तो वो भी नहीं सकी थी . उसने भी श्रीकांत के बारे में सोचा था. अनिमा ने कुछ नहीं कहा . श्रीकांत ने फिर कहा. “मैं शादीशुदा हूँ . और मुझे अपने शादी पर अफ़सोस तो बहुत बार हुआ है , लेकिन आज बहुत ज्यादा अफ़सोस है .” अनिमा ने उसे घर के भीतर बुलाया और कहा , “चाय तो पी लीजिये . कल आप बहुत अच्छा गा रहा थे. ” श्रीकांत ने कहा , “मैं अब तुम्हारे लिए गाना चाहता हूँ .” अनिमा ने सकुचा कर पुछा . “क्या गाना चाहते हो ?" श्रीकांत ने कहा “तुम्हे उत्तमकुमार बहुत पसंद है . उसी के प्रेम भरे गीत तुम्हारे लिए मेरे मन के भावो के साथ गाना चाहता हूँ . ” अनिमा ने ठहरकर कहा , “मुझे ज़िन्दगी बहुत पसंद है .” श्रीकांत बहुत देर तक उसे देखता रहा. और फिर धीरे से कहा , “तुम बहुत बरस पहले मुझसे नहीं मिल सकती थीअनिमा ?” अनिमा ने कहा , “ज़िन्दगी के अपने फैसले होते है श्रीकांत ." उस दिन के बाद श्रीकांत और अनिमा अक्सर मिलते रहे , हर दिन के साथ श्रीकांत के मन का तनाव बढता ही रहा , वो अनिमा के बैगर नहीं रह पा रहा था लेकिन अपनी पत्नी को कैसे छोड़े , कहाँ जाये , क्या करे. वो अपने आपको भगवान की आँखों में कसूरवार नहीं ठहराना चाहता था. इसी कशमकश में एक साल बीत गया. श्रीकांत ने अनिमा को और अनिमा ने श्रीकांत को इतनी खुशियाँ दी , जिन्हें शब्दों ने नहीं समाया जा सकता था. दोनों जैसे एक दुसरे के लिए बने हो. लेकिन जैसे ही वो अलग होते थे. दोनों ही दुःख में घिर जाते थे. अनिमा की पेंटिंग्स में उदासी झलकने लगी . श्रीकांत और बहुत ज्यादा पीने लगा था. परसों श्रीकांत ने कहा की वो अनिमा से मिलना चाहता है , अनिमा ने उसे घर बुलाया , लेकिन श्रीकांत ने कहा की वो उससे किसी नदी के किनारे मिलना चाहता है . कोलकत्ता के बाहर गंगा के घाट पर दोनों मिले . ढलती हुई शाम और आकाश में छायी हुई लालिमा और गंगा का बहता हुआ पानी जैसे दोनों से बहुत कुछ कहने की कोशिश कर रहा था. श्रीकांत ने उसे एक गीत सुनाया . “तुझे देखा , तुझे चाहा ,तुझे पूजा मैंने." उस रात श्रीकांत ने बहुत सी बाते की. लेकिन वो कुछ विचलित था. अनिमा ने पुछा भी , “क्या बात है श्रीकांत ?” लेकिन श्रीकांत कुछ नहीं बोला. कल जब शाम को वो विदा हुआ , तो श्रीकांत ने उसे बहुत देर तक गले लगाया रखा और फिर धीरे से कहा, “अगले जन्म मुझे जल्दी मिलना अनिमा !” अनिमा की आँखों में आंसू तैर गये ! आज सुबह अनिमा को पता चला कि श्रीकांत ने खुदखुशी कर ली. अनिमा पागल सी हो गयी और अब वो शमशान में उसकी चिता के पास बैठकर रो रही है . अनिमा को लग रहा था कि खुद उसकी ज़िन्दगी राख है ! चौकीदार ने धीरे से कहा , “बहुरानी , रात ज्यादा हो चली है अब आप जाओ." अनिमा चौंक कर उठी. फिर वो धीरे धीरे बाहर की ओर चली , बार बार वो मुड़कर पीछे देखती थी की राख के ढेर से श्रीकांत उठ कर खड़ा होंगा और कहेंगा , “आबार एशो अनिमा !!!” अनिमा इन शब्दों को लिए इस बार बैचेन थी , वो रुक जाती अगर श्रीकांत उसे पुकारता. लेकिन राख के ढेर में सिर्फ उनके प्रेम की चिंगारियां ही बची हुई है. अनिमा अपने आप में नहीं रही. उस दिन से वो खामोश हो गयी . ::::::आज से दो महीने पहले :::::: अनिमा अब ज्यादातर चुप ही रहती थी , उसने अपने एकाकी जीवन में सिर्फ पेंटिंग्स को ही जगह दे दी थी . उसकी पेंटिंग्स अब और भी ज्यादा मुखर हो चली थी . दर्द के कई शेड्स थे अनिमा के पास जो उन्हें वो कैनवास पर उतारदेती थी . ऐसे ही एक प्रदर्शनी में उसकी मुलाकात निशिकांत से हुई. आकार-प्रकार गेलरी में उसकी पेंटिंग्स का शो चल रहा था. और करीब लंच का समय था , जब वो बाहर जाने के लिए निकल रही थी , तब उसने देखा की एक लम्बा सा आदमी उसकी एक पेंटिंग के सामने खड़ा होकर कुछ लिख रहा था . वो उसके पास गयी और पुछा , “ कैन आई हेल्प यू सर ?” उस आदमी ने पलट कर अनिमा को देखा . वो एक करीब ४० साल का आदमी था .जो की एक कुरता पहना हुआ था और हाथ में एक डायरी में कुछ लिख रहा था. वो निशिकांत था . उसने अनिमा से पुछा. “आप ?” अनिमा ने कहा “ ये पेंटिंग मैंने बनायी हुई है ,” निशिकांत ने मुस्करा कर अनिमा से कहा ,” यू हैव आलरेडी हेल्प्ड मी बाय मेकिंग सच ए वंडरफुल पेंटिंग !” . अनिमा ने मुस्कराकर कहा , “थैंक्स . आप क्या पेंटिंग खरीदना चाहते है , कुछ लिख रहे है ?”. निशिकांत ने कहा “नहीं नहीं , मैं तो इस पेंटिंग को देखकर एक कविता लिख रहा हूँ .” अनिमा ने आश्चर्य से पुछा , “अच्छा , क्या लिखा है बताये तो सही .” पहले हम आपस में परिचित हो जाए . “मेरा नाम निशिकांत है .” निशिकांत ने कहा. ”और मेरा अनिमा" अनिमा ने मुस्कराते हुए कहा . निशिकांत ने कहा “अनिमा नाम तो बहुत अच्छा है , पर वैसे इसका मतलब क्या है ." अनिमा ने कहा “शायद आत्मा या फिर आन्सर माय प्रेयर , मैंने कहीं पढ़ा था." निशिकांत ने हाथ जोड़कर कहा , हे देवी , तब तो आन्सर माय प्रेयर इन अडवांस.” अनिमा मुस्करा उठी ! निशिकांत ने कहा “ देखिये , ये जो आपकी पेंटिंग है आपने इसका शीर्षक " क्षितिज " दिया हुआ है अब आपके पेंटिंग में आपने दूर में एक हलकी सी लाइन ड्रा किया हुआ है और वहां पर आपने दो इंसान बनाए हुए है जो की प्रेमीप्रेमिका है . करेक्ट ? “ अनिमा ने कहा , “हाँ , ये तो सही है और ये पेंटिंग भी मुझे बहुत पसंद है . पर आपने लिखा क्या है ये तो बताये .” निशिकांत ने पढ़कर सुनाया ""क्षितिज"" तुमने कहीं वो क्षितिज देखा है , जहाँ , हम मिल सकें ! एक हो सके !! मैंने तो बहुत ढूँढा ; पर मिल नही पाया , कहीं मैंने तुम्हे देखा ; अपनी ही बनाई हुई जंजीरों में कैद , अपनी एकाकी ज़िन्दगी को ढोते हुए , कहीं मैंने अपने आपको देखा ; अकेला न होकर भी अकेला चलते हुए , अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए , अपने प्यार को तलाशते हुए ; कहीं मैंने हम दोनों को देखा , क्षितिज को ढूंढते हुए पर हमें कभी क्षितिज नही मिला ! भला , अपने ही बन्धनों के साथ , क्षितिज को कभी पाया जा सकता है , शायद नहीं ; पर ,मुझे तो अब भी उस क्षितिज की तलाश है ! जहाँ मैं तुमसे मिल सकूँ , तुम्हारा हो सकूँ , तुम्हे पा सकूँ . और , कह सकूँ ; कि ; आकाश कितना अनंत है और हम अपने क्षितिज पर खड़े है काश , ऐसा हो पाता; पर क्षितिज को आज तक किस ने पाया है किसी ने भी तो नही , न तुमने , न मैंने क्षितिज कभी नही मिल पाता है पर ; हम ; अपने ह्रदय के प्रेम क्षितिज पर अवश्य मिल रहें है ! यही अपना क्षितिज है !! हाँ ; यही अपना क्षितिज है !!! कविता सुनाने के बाद निशिकांत ने अनिमा की ओर देखा . अनिमा उसकी ओर ही देख रही थी . पता नहीं उसके दिल में कैसे हलचल मचल रही थी . कभी वो अपनी पेंटिंग को और कभी वो निशिकांत को देखती . निशिकांत ने आश्चर्य से पुछा , “क्या हुआ. ठीक नहीं है क्या .” अनिमा ने कुछ नहीं कहा, उस पेंटिंग को उतारकर निशिकांत को दे दिया और कहने लगी , “मुझे वो कविता दे दो. “ निशिकांत कुछ न कह सका . फिर कुछ देर बाद कहा . “ठीक है . कविता भी ले लो . और अपनी पेंटिंग भी रख लो. मैं खरीद नहीं पाऊंगा .” अनिमा ने कहा “पैसो की कोई बात ही नहीं है . तुम इसे ले जाओ “ निशिकांत ने कहा , “एक काम करते है , इसे तुम अपने पास रख लो, मैं तुम्हारे घर आकर देख लिया करूँगा.” इसी बहाने तुमसे मिलना भी हो जाया करेंगा. दोनों हंसने लगे. कुछ इस तरह से हुआ दोनों का परिचय , दोनों मिलने लगे करीब करीब हर दुसरे दिन. अनिमा को निशिकांत अच्छा लगने लगा था. उसमे वो ठहराव था जो की उसकी भावनाओ को रोक पाने में सक्षम था. और निशिकांत को अनिमा अच्छी लगने लगी थी . अनिमा में जो शान्ति थी , वो बहुत ही सुखद थी . निशिकांत के मन को तृप्ति हो जाती थी , जब भी वो अनिमा के साथ समय बिताता था. दोनों की बहुत सी मुलाकाते हुई इन दिनों और दोनों ने अपनी बीती ज़िन्दगी को एक दुसरे के साथ शेयर किया . निशिकांत का प्रेम किसी से हुआ था , जिसने बाद में निशिकांत को छोड़कर किसी और व्यक्ति से शादी कर ली थी, तब से निशिकांत बंजारों सा जीवन ही जी रहा था, एक कवि था , और यूँ ही कुछ यहाँ वहां लिखकर जी रहा था. अनिमा से मिलकर उसे बहुत अच्छा लगा , अनिमा की ज़िन्दगी को जानकार बहुत दुःख हुआ. और उसने एक दिन कहा भी अनिमा से , “कब तक तुम परछाईयो के साथ जीना चाहती हो . जस्ट लुक फारवर्ड . मुझे ऐसा लगता है कि , हमें आगे की ओर बढना चाहिए . जीवन अपने आप में एक रहस्य है और उसने अपने भीतर बहुत कुछ छुपा रखा है . जैसे कि हमारी दोस्ती . हम दोनों ही कोलकत्ता में रहते है और अब मिले है !! “ अनिमा ने मुस्करा दिया और सोचने लगी की सच ही तो कह रहा है . इन दो महीनो में दोनों एक दुसरे के बारे में बहुत कुछ जान गए थे और एक दुसरे को चाहने भी लगे थे. समय पंख लगाकर उड़ने लगा , समय की अपनी गति होती है . 

 ::::::परसो :::::: 

 कोलकत्ता के आकृति आर्ट गेलेरी में अनिमा के पेंटिंग्स की प्रदर्शनी का आज आखरी दिन था. पिछले १० दिनों में काफी अच्छा प्रतिसाद मिला था और वैसे भी अनिमा भट्टाचार्य , पेंटिंग और कंटेम्पररी आर्ट की दुनिया में एक सिग्नेचर नाम था. उसकी काफी पेंटिंग्स बिक चुकी थी . लेकिन अनिमा का मन ठीक नहीं था. पिछले कई दिनों से निशिकांत उसके मन में अपना घर बनाते जा रहा था. वो कई बार खुद से ये सवाल पूछती , कि क्या उसके जीवन में अब कोई परमानेंट पढाव आने वाला है ? वो व्यथित थी . भविष्य में क्या है , कोई नहीं जानता था. लेकिन अनिमा को लग रहा था कि निशिकांत ही उसका भविष्य है . वो अपने ही विचारों में खोयी हुई थी कि अचानक ही उसके पीछे से किसी ने धीमे से उसके कानो में कहा , “सपने देख रही हो अनिमा..और वो भी खुली हुई आँखों से .. !” अनिमा ने मुस्कराते हुए कहा , ' हाँ , निशिकांत , तुम्हारा सपना देख रही हूँ .” निशिकांत ने सामने आकर कहा , “अनिमा , मैं तो तुम्हारे सामने ही हूँ, सपने में देखने की क्या बात है .” दोनों खिलखिलाकर हंसने लगे. निशिकांत ने कहा, “ मैंने तुम्हारी एक पेंटिंग , जिसमे तुमने एक लम्बा रास्ता दिखाया है और रास्ते के अंत में एक स्त्री को पेंट किया है . उगते हुए सूरज के साथ , उस पर एक कविता लिखी है." अनिमा ने कहा , “पता है निशिकांत , पहले जब मैं पेंट करती थी , तो बस अपने लिए ही करती थी , लेकिन अब जब से तुम मिले हो , तुम्हारे लिए पेंट करती हूँ . और मुझे ये अच्छा भी लगता है , हाँ तो बताओ क्या लिखा है . मैंने तो उस पेंटिंग का कोई नाम भी नहीं दिया है ." निशिकांत ने कहा , “अनिमा , मैंने तो नाम भी दे दिया है और कविता भी लिखी है , तुम्हे जरुर पसंद आएँगी .” अनिमा ने हँसते हुए कहा , “तुम लिखो और मुझे पसंद नहीं आये , ऐसा कभी हुआ है निशिकांत ? ” निशिकांत ने अपनी डायरी निकाली और अनिमा की आँखों में झांकते हुए कहा , “तो सुनो देवी जी . अर्ज किया है ” अनिमा ने हँसते हुए कहा , “अरे आगे तो बढ़ो “ निशिकांत ने कहा . “अनिमा , तुम्हारी पेंटिंग और मेरी कविता का नाम मैंने रखा है " आबार एशो " !!!” अनिमा चौंक गयी , “क्या ?” निशिकांत ने उसका हाथ पकड़ कर उसकी पेंटिंग के पास ले गया .और उससे कहा , “अब तुम ध्यान से इस पेंटिंग को देखो ,तुम्हे लगता नहीं है कि कोई इस औरत से कह रहा है कि आबार एशो . इस रास्ते में मौजूद हर पेड़ , हर बादल , हर किसी से कह रहा है कि आबार एशो . बोलो !” अनिमा ने कुछ नहीं कहा . बस पेंटिंग की ओर देखती रही . फिर निशिकांत को देख कर कहा . “निशिकांत ,मैंने अपने जीवन में कभी भी किसी को आबार एशो नहीं कहा.. कोई ऐसा मन को भाया ही नहीं कि उसे फिर से बुला सकूँ ...अपने जीवन में . अपने जीवन की यात्रा में ..” निशिकांत ने गंभीर होकर कहा , “तुम्हे कभी तो किसी को आबार एशो कहना ही पड़ेंगा अनिमा . ज़िन्दगी में कभी तो रुकना ही पड़ता है.” अनिमा ने गीली होती हुई आँखों को छुपा कर कहा , “अच्छा अपनी कविता तो सुनाओ.” निशिकांत ने उसे गहरी नज़र से देखते हुए कहा .... ”सुनो ...शायद इसे सुन कर तुम किसी को कह सको ,आबार एशो !” निशिकांत ने कहना शुरू किया ....और उसकी धीर -गंभीर आवाज ,अनिमा के मन मे उतरनी लगी ....! आबार एशो [ फिर आना ] सुबह का सूरज आज जब मुझे जगाने आया तो मैंने देखा वो उदास था मैंने पुछा तो बुझा बुझा सा वो कहने लगा .. मुझसे मेरी रौशनी छीन ले गयी है ; कोई तुम्हारी चाहने वाली , जिसके सदके मेरी किरणे तुम पर नज़र करती थी !!! रात को चाँद एक उदास बदली में जाकर छुप गया ; तो मैंने तड़प कर उससे कहा , यार तेरी चांदनी तो दे दे मुझे ... चाँद ने अपने आंसुओ को पोछते हुए कहा मुझसे मेरी चांदनी छीन ले गयी है कोई तुम्हारी चाहने वाली , जिसके सदके मेरी चांदनी तुम पर छिटका करती थी ; रातरानी के फूल चुपचाप सर झुकाए खड़े थे मैंने उनसे कहा , दोस्तों मुझे तुम्हारी खुशबू चाहिए , उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा हमसे हमारी खुशबू छीन ले गयी है कोई तुम्हारी चाहने वाली , जिसके सदके हमारी खुशबू तुम पर बिखरा करती थी ; घर भर में तुम्हे ढूंढता फिरता हूँ कही तुम्हारा साया है , कही तुम्हारी मुस्कराहट कहीं तुम्हारी हंसी है कही तुम्हारी उदासी और कहीं तुम्हारे खामोश आंसू तुम क्या चली गयी मेरी रूह मुझसे अलग हो गयी यहाँ अब सिर्फ तुम्हारी यादे है जिनके सहारे मेरी साँसे चल रही है .... आ जाओ प्रिये बस एक बार फिर आ जाओ आबार एशो प्रिये आबार एशो !!!!! कविता सुनाकर निशिकांत ने अनिमा को देखा . अनिमा के जीवन का सारा दर्द जैसे आंसुओ के रूप में बह रहा था. उसका अकेलापन, उसकी तकलीफे सब कुछ जैसे उसे अपराधी ठहरा रहे थे कि उसने कभी भी किसी को आबार एशो नहीं बोला . और न ही किसी के आबार एशो कहने पर रुकी या फिर वापस आई ; अचानक श्रीकांत जैसे राख से निकल कर सामने खड़ा हो गया निशिकांत उसे देखते रहा , फिर आगे बढकर उसे अपनी बांहों में लेकर उसके सर को हलके थपथपाने लगा. अनिमा थोड़ी देर में संयत हो गयी. उसने निशिकांत से कहा . “कल मैं शान्ति निकेतन जा रही हूँ, कल मेरा जन्मदिन है , कल घर पर आ जाना. ” निशिकांत ने मुस्कराकर कहा , “ मैं जानता हूँ . मैं आ जाऊँगा .” निशिकांत चला गया , कल आने के लिए . और अनिमा गहरे सोच में डूब गयी .. पता नहीं क्या क्या उसके मन में कितने तूफान आ जा रहे थे . :::::: कल :::::: शाम के करीब ५ बजे थे . दरवाजे के घंटी बजी तो अनिमा ने दरवाजा खोला, सामने निशिकांत था. अपने हाथो को पीछे में छुपाये हुए. जैसे ही अनिमा नज़र आई , निशिकांत ने रजनीगंधा के फूलो का एक छोटा सा गुलदस्ता उसे दिया .और बहुत ही अच्छे से , थोडा झुककर , थोड़े से नाटकीय ढंग से कहा , “जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाये “. अनिमा ने मुस्करा कर कहा. “थैंक्स. और इतना फार्मल होने की कोई जरुरत नहीं है.” निशिकांत ने घर के भीतर आकर कहा , “ और कोई नहीं है , क्या सिर्फ मैं ही इनवाईटेड हूँ. ?” अनिमा ने कहा “ हां सिर्फ तुम . अब कहीं कोई और नहीं है." निशिकांत चौंककर अनिमा को गहरी नज़र से देखने लगा. अनिमा ने एक सफ़ेद रंग की तात की साड़ी पहनी हुई थी , जिसके किनारे पर लाल और हरे रंग की बोर्डर बनी हुई थी . और उस बोर्डर पर छोटी छोटी चिड़ियाएँ बनी हुई थी . जिनका रंग थोडा सा आसमानी नीला था. निशिकांत ने कहा. आज तो बड़ी अच्छी लग रही हो . अनीमा शायद अभी अभी नहाई हुई थी . उसके गीले बालो से पानी की बूंदे टपक रही थी . निशिकांत धीरे धीरे पास आया और कहा मैंने तुम्हारे लिए तीन गिफ्ट लाया हूँ . एक तो ये रजनीगंधा के फूल है , जो कि , अनिमा ने बात काटकर कहा , “मुझे बहुत पसंद है.” निशिकांत मुस्करा कर बोला “और दुसरे ये एक सीडी है जो की किशोर कुमार के गानों की है.” अनिमा ने उस सीडी को लेते हुए कहा , “अहो , ये भी मुझे पसंद है.” निशिकांत ने मुस्कराते हुए कहा, “और तीसरी ये एक किताब है : ज़ाहिर - पाउलो कोहेलो की. ये भी पसंद आएँगी तुम्हे.” अनिमा ने मुस्कराकर कहा , “और एक गिफ्ट है और वो तुम हो . मैंने तुम्हारे लिए बहुत सारा बंगाली खाना बनाया है , जैसे आलू पोश्तो,” निशिकांत ने बात काटकर कहा , “ये तो मुझे बहुत पसंद है ,” अनिमा ने मुस्कराकर कहा “और मूंग की दाल , और बैंगन भाजा फ्राय.” निशिकांत ने कहा , “यार पहले खाना खिला दो. बर्थडे तो बाद में मना लेंगे.” दोनों खिलखिलाकर हंसने लगे. निशिकांत ने देखा की , आज अनिमा बहुत खुश नज़र आ रही है . और ये ख़ुशी उसके सारे पर्सनालिटी पर छाई हुई है . अनिमा के घर निशिकांत पहली बार आया था. अनिमा का घर एक कलाकार का ही घर था. बहुत करीने से बहुत सी चीजो से सजा हुआ था. एक कोने में ग्रामोफोन रखा था, उसे देखकर निशिकांत ने आश्चर्य से पुछा ये चलता है ? अनिमा ने कहा , हां भई चलता है , आओ तुम्हे कुछ पुराने गाने सुनाऊं . दोनों ने बैठकर बहुत से गाने सुने. फिर अनिमा ने कुछ पुरानी पेंटिंग्स दिखाई निशिकांत को . निशिकांत ने कुछ नयी कविता सुनाई अनिमा को . रात को दोनों ने जमीन पर बैठकर मोमबत्तियो की रोशनी में भोजन का इंतजाम किया . सुरीला संगीत और हलकी हलकी खुशबु रजनीगंधा के फूलो की .. और फिर खिडाखियों से छन कर आती हुई चांदनी . एक परफेक्ट रोमांटिक माहौल था. खाने के बाद , जमीन पर ही बीचे हुए गद्दों पर बैठकर दोनों ने बाते कहनी चाही...... पर अनिमा ने मुंह पर उंगली रख कर मना कर दिया. बस उसने कहा, “रात की इस खामोशी को कहने दो और जीवन को बहने दो. कुछ न कहो .. बस मौन में रहो.” निशिकांत ने मुस्करा कर कहा , “अच्छा जी , अब तुम भी कविता करने लगी.” फिर बहुत देर तक वो दोनों चुपचाप बैठे रहे. निशिकांत धीरे से उठकर अनिमा के पास बैठ गया . अनिमा ने उसकी ओर मुंदी हुई आँखों से देखा . निशिकांत ने कहा, “अनिमा , मैं कुछ कहना चाहता हूँ.” अनिमा ने कुछ न कहा , बस एक प्रश्न आँखों में लेकर देखा. निशिकांत ने देखा की उसके होंठो पर बहुत प्यारी से मुस्कान उभर आई है . निशिकांत ने उसके सर पर हलके से अपना हाथ रखा .और धीरे से कहा... “आमी तोमको भालो बासी अनिमा .... सच में .. बस अब एक ठहराव चाहिए जीवन में. और मैं तुम्हारे आँचल तले ठहरना चाहता हूँ .......अनिमा.” अनिमा ने उसकी ओर देखा , कुछ न कहा. और आँखे बंद कर ली. निशिकांत बहुत देर तक अनिमा की तरफ देखता रहा , सोचा की ,वो कुछ कहेंगी जवाब में , लेकिन अनिमा ने कुछ न कहा.. रात बहुत गहरी होती जा रही थी .... निशिकांत उसी गद्दे पर लेट गया .. पता नहीं उसे कब नींद आ गयी , सफ़र की थकान थी.. पर अनीमा की आँखों में नींद नहीं थी. उसके जेहन में निशिकांत के शब्द ठकरा रहे थे.. बस अब एक ठहराव चाहिए जीवन में. और मैं तुम्हारे आँचल तले ठहरना चाहता हूँ , अनिमा …..! बाहर ,रातरानी के फूलो ने और आसमान पर छाए हुए तारो ने और गहरी होती हुई रात ने इनके प्रेम को एक निशब्द सा मौन ओड़ा दिया था. :::::: आज :::::: सुबह चिडियों की तेज आवाजो से निशिकांत की नींद खुली . निशिकांत उठा तो देखा , अनिमा उसके साथ ही सो गयी थी , और सुबह की गहरी नींद में उसे देखना बहुत सुखद लग रहा था. निशिकांत बहुत देर तक उसे देखता रहा और फिर उठकर फ्रेश होकर चाय बनायी . उसने अनिमा को उठाया और उसे चाय पीने को कहा, अनिमा स्नान कर आई . श्रीकृष्ण ठाकुरजी की पूजा की गयी. फिर दोनों ने चाय पी... चाय पीने के दौरान कोई कुछ नहीं बोला, अनिमा को निशिकांत की कही , कल रात की बात की गूँज सुनाई देने लगी . अनिमा ने गहरी नज़र से निशिकांत को देखा. निशिकांत चुपचाप चाय पी रहा था. अचानक निशिकांत उसकी तरफ मुड़ा और कहा, “तुम्हारे घर में ये फूलो के पौधे और उन पौधों पर बसती हुई ये चिड़ियाँ नहीं होती तो , ये घर तुम्हारी identity नहीं बन पाती.” अनिमा ने स्निग्ध मुस्कान के साथ कहा , “हाँ निशिकांत , तुम सच कह रहे हो” फिर अनिमा ने कहा , “चलो , तुम्हे कोई गीत सुनकर विदा करते है.” अनिमा ने ग्रामोफोन पर आशा भोंसले का एक बंगाली गाने का रिकॉर्ड लगाकर शुरू कर दिया. कमरे में कोने में रखे हुए ग्रामोफोन पर आशा भोंसले की आवाज में एक सुन्दर सा बंगाली गीत बजने लगा ...."कोन से आलोर स्वप्नो निये जेनो आमय ......!!!" सारे कमरे में रजनीगंधा के फूलो की खुशबु छाई हुई थी , अनिमा ने आँखे बंद कर ली, और निशिकांत ख़ामोशी से उसे देखते रहा........!

 ::::::.....अभी .......!!! :::::: 

ग्रामोफोन का रिकॉर्ड बंद हो गया था, चिडियों की आवाजे अब नहीं आ रही थी . सिर्फ अनिमा के सुबकने की आवाज , रजनीगंधा के फूलो की खुशबु के साथ कमरे में तैर रही थी . और तैर रहा था दोनों का प्रेम !! बहुत देर तक एक ख़ामोशी , जिसमे पता नहीं कितने संवाद भरे हुए थे; छायी रही . अचानक ही एक कोयल ने कुक लगायी . अनिमा ने धीरे से अपना चेहरा उठाया . निशिकांत ने उसके चेहरे को अपने हाथो से थाम कर कहा . " आमी तोमाके भालो बासी अनिमा " अनिमा ने उसकी छाती में अपने चहरे को छुपा कर कहा . “आमियो तोमाके खूब भालो बासी, निशिकांत.” अचानक बादल गरज उठे . निशिकांत ने कहा “ये बेमौसम की बरसात .this is climatic change !!" अनिमा ने शर्मा कर कहा , “हाँ न , climatic change ही तो है . नहीं ?” निशिकांत भी मुस्करा कर कहा , “ हाँ .” अनिमा ने कहा , चलो , आज एक गाना सुनते है . उसने गाईड फिल्म का गाना लगा दिया " आज फिर जीने की तमन्ना है . आज फिर मरने का इरादा है " गाने के बोल और सुरीला संगीत , घर में गूंजने लगे और अनिमा और निशिकांत दोनों के चेहरे खिल गए ! दोनों का प्रेम रजनीगंधा के फूलो के साथ शान्तिनिकेतन के इस कमरे में महकने लगा.
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विजय कुमार 

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

सफर अंधा; मोड़ भी अंधे? BLIND TURNING?





(Courtesy Google images)


" सफर  अंधा, मोड़  अंधे,मजबूर   है  ज़िंदगी ।
  जागते    रहना   यही,   मुकर्रर    है  बंदगी..!!"


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प्रिय मित्रों,
 
आपने, बचपन के दिनों में, कबड्डी, गिल्ली डंडा, कौड़ी पांसा, कंचा-बाटी जैसे खेल में हिस्सा अवश्य लिया होगा..!!
 

ऐसा ही एक खेल था, जिसे हम,`अंधा भैंसा` के नाम से,खेलते थे । 

`अंधा भैंसा` लड़कों का एक खेल है, जिसमें वे आँखों पर पट्टी बाँधकर, एक दूसरे को छूकर, उसका नाम बताते और तब उसे भैंसा बनाकर उस पर सवारी करते हैं ।
 
गुजरात में इसे,`आँधरो पाटो -Blind Bandage` के नाम से खेला जाता है । `आँधरो पाटो` खेल में, खिलाड़ी की संख्या के हिसाब से, एक सीमांकित जगह तय करने के बाद, दाँव देने वाले लड़के की आँख पर, एक कपड़े की पट्टी, कस कर बांध दी जाती है ।  दाँव देनेवाला दोस्त जब, कोई भी खिलाड़ी को छू लेता है या पकड़ता है  तब, पकड़े जानेवाले खिलाड़ी के सिर,  दूसरा दाँव देने की बारी आ जाती है ।
 
मेरा तो मानना है कि, बचपन में, खेले गए, ये सारे खेल, हमें  जीवन जीने की अद्भुत कला सिखाते है..!! निजी स्वार्थ साधने के मलिन इरादे से, हमारे आसपास, रातदिन घूमनेवाले,कुछ मक्कार इन्सान, हमारी आंख पर, अलग-अलग नाम के  संबंध की पट्टी बांधकर, हमारी नज़रबंदी करके, हमारे साथ, `अंधा भैंसा`  या `आँधरो पाटो` की भाँति, धोखाधड़ी का खेल खेलते रहते हैं..!!
 
`अंधा भैंसा` खेल में भी,दाँव देनेवाले दोस्त की आँख पर पट्टी बँधी होने की वजह से, उसके साथ खेल खेलने वाले दोस्तों को, सिर्फ अनुमान के आधार पर ही पकड़ कर, खुद विजयी होना पड़ता है..!!
 
मुझे लगता है कि, इस संसार में, `भगवान` नाम के हमारे प्रिय सखा ने  भी, हमारी आँख पर, `अज्ञानता` नाम की पट्टी कस कर बाँध के, हमें `अंधा भैंसा` खेलने के लिए, बंधन  मुक्त (स्वतंत्र) कर दिया है..!!
 
हमारी आँख और मन पर बँधी, इस अज्ञानता की पट्टी के कारण, जन्म से मृत्यु पर्यंत,  हमें लगातार परेशान कर रहे स्वार्थी इन्सान, विपरीत समय, प्रतिकूल संयोग, अनभिज्ञ और अनचाही घटनाओं को, कभी  न तो अपने वश में कर पाते हैं, न ही उसे पकड़कर पछाड़ पाते हैं..!! परिणाम स्वरूप, हमें बार-बार हार का मुँह देखना पड़ता है ।
 
कभी-कभार,  एक-दो बार, ग़लती से हम अगर विजयी हो भी जाते है, तो तुरंत `अंधा भैंसा` खेल के दूसरे सभी खिलाड़ी, हमें पकड़ कर फिर से, वही दाँव देने पर मजबूर कर देते हैं..!!
 
अगर संक्षेप में कहें तो, इस नाशवंत, अर्थशून्य संसार में, `अंधा भैंसा` के इस व्यर्थ खेल में हम सदा उलझे रहते हैं और बार-बार शिकस्त मिलने पर, हमारी मजबूरी को हम, `प्रारब्ध या नसीब` का नाम देकर, अपनी सामर्थ्यहीनता को छिपाने की कोशिश करते हैं..!!
 
`अंधा भैंसा` के इस व्यर्थ खेल को, कुछ पहुँचे हुए, अभ्यस्त चतुर खिलाड़ी, दाँव आने पर, अपनी आँख की पट्टी के साथ छेड़छाड करके, पट्टी को ढीला कर लेते है, या फिर दूसरे खिलाड़ी के साथ, सांठगांठ करके, हम ही को ठग लेते हैं और दाँव देने की हमारी बारी लगातार आती रहती है..!!
 
सचमुच, दूसरों कों इस तरह बार बार फँसा कर, दाँव देने पर मजबूर करनेवाले, ऐसे ही होशियार इन्सान (खिलाड़ी), आजकल सफल उद्योगपति,राजनीतिज्ञ या किसी ख़ैराती सामाजिक संस्थाओं के सर्वोच्च पद पर तैनात हो पाते हैं..!!
 
भोलेभाले लोगों को बेवकूफ़ बनाकर,ऐसे होशियार इन्सान (खिलाड़ी), जैसे-जैसे पर्याप्त पैसा,पावर और समाज में अपना स्थान मज़बूत कर लेते हैं, तुरंत उनके चापलूस,ख़ुदग़र्ज़, सहयोगी, खेल शुरू होने से पहले ही, ऐसे होशियार खिलाड़ी की आँख की पट्टी शिथिल बाँधने में, उसे सहायता करके, हमारे मुकाबले उसे, खेल शुरू होने से पहले ही,  विजयी घोषित करने का जुगाड़ कर लेते हैं..!!
 
अब सब से अहम सवाल यह है कि, हमारे साथ ऐसी धोखाधड़ी करने वाले इन्सानों को पराजित कर, हम विजय कैसे प्राप्त करें?
 
जवाब बिलकुल सरल है, हमारे भीतर छुपी हुई अज्ञात चेतना को जाग्रत करके, संसार के हर एक खेल में, उन धूर्त खिलाड़ी की कुटिलता का, सटीक पूर्वानुमान करके, ऐसे कुछ पहुँचे हुए, अभ्यस्त, चतुर खिलाड़ी को हम धोबीपछाड़ दे सकते हैं..!! पर ऐसा करने के लिए, हमें किसी कुशल जापानी `समुराई योद्धा` की तरह, आघात-शीघ्रता आत्मसात करना अति आवश्यक है ।
 
समुद्र में सफर कर रहे जहाज़ के नाविक के पास, असीमित समुद्र के पानी के बीच, दूर का दृश्य देखने के लिए, पितल के मिश्र धातु की, लंबी नली वाला एक दूरबीन होता है, जिसमें एक आँख बंद करके, दूसरी खुली आँख से,दूर के किसी दृश्य को स्पष्ट देखा जा सकता है । नाविक इसी दूरबीन के सहारे, महत्व के सारे निर्णय करता है ।
 
अमेरिकन`रॉयल कनडियन नॅवी` के  एडमिरल  जनरल, Horatio Nelson Lay (23 January 1903 Skagway, Alaska, USA - 1988 Dundas, Ontario), इस बारे में अपने अनुभव बाँटते हुए कहते हैं कि,  " समुद्री सफर के युद्ध में, सिर्फ एक ग़लत सिग्नल, सारे जहाज़ और अनेक नाविकों की ज़िंदगी तबाह कर सकता है..!!" उनका ये भी कहना है कि," I have only one eye - and I have a right to be blind sometimes... I really do not see the signal."
 
कई बार आने वाली मुसीबत-समस्या के बारे में ज्ञात होने के बावजूद, अज्ञात होने का ढोंग रचा कर, समुद्र के बीच मजबूरी में खेली जानेवाली,`अंधा भेंसा` जैसी इस पद्धति को नॅवी की भाषा में,`Putting the glass to his blind eye.`कहते हैं ।

हमारे जीवन में भी कई बार, स्वार्थ में लिप्त किसी इन्सान द्वारा पैदा की गई, ऐसी समस्या का समाधान पाने के बारे में, एक आयरिश प्रवासी कॅथेरिन व्हीलमॉट Catherine Wilmot (1773 – 1824), अपने विचार कुछ इस तरह  दर्शाता हैं," Turn a blind eye and a deaf ear every now and then, and we get on marvelously well."
 
अर्थात, ऐसी कोई समस्या जिसका आपके पास, तोड़ न हो, ऐसे में, जब तक समस्या के समाधान का सही वक़्त पास न आ जाए, दूर का दृश्य देखने वाली खुली आँख और दूर की आवाज़ सुनने वाले कान को भी आप बंद कर लें..!!
 
हालाँकि, बाद में, व्हीलमॉट का यह कथन एक अकसीर सूत्र के रूप में, सारी दुनिया में प्रचलित हो गया ।
 
अब आप कहेंगे,ये तो शुतुरमुर्ग (ostrich) की पलायन नीति हो गई? अगर शुतुरमुर्ग नीति भी असफल हो जाएं,तब क्या करें?
 
यह सवाल ज़रा गंभीर और मुश्किल सा लगता है, पर इसका जवाब बिलकुल सरल है ।
 
सन- १९६३ में,श्री बी.आर.चोपड़ाजी की सफल फिल्म, `गुमराह` प्रदर्शित हुई थी, जिस में अशोक कुमार, सुनिलदत्त, माला सिन्हा और शशीकला ने बेहतरीन अभिनय किया था । फिल्म में श्री साहिर लुधियानवींजी का लिखा हुआ,संगीतकार श्रीरविजीका संगीतबद्ध किया हुआ और श्री महेन्द्र कपूर जी का गाया हुआ, एक गीत है," 

चलो, एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों" याद हैं ना? 

इस गीत का अन्तरा है,"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ।"
 
दोस्तों, हैं ना बढ़िया समाधान..!! 

हमारे यहाँ एक लोकोक्ति बहुत प्रचलित है,"जहाँ  सड़न दिखे, वहीं से काट देना चाहिए ।" जी हाँ, चाहे फिर वो समस्या हो,संबंध हो या फिर अपने मन को पीड़ा देनेवाले विचार हो..!!
 
मैंने जैसे, इस लेख में कहा है कि, ईश्वर नाम के हमारे प्रिय मित्र ने, हमारी आँख पर, अज्ञानता की पट्टी बाँधकर, भले ही हमें, जगह-जगह पर अंधे मोड़ वाले संसार में, स्वतंत्र भेज दिया हो..!! 

पर, हमें यह बात याद रखना चाहिए कि, ईश्वर ने हमें  साथ ही में यह स्वतंत्रता भी दी है कि, 

हमें कौन सा खेल खेलना चाहिए? 

किसके साथ खेलना चाहिए? 

कितनी बार खेलना चाहिए? 

हम ही हैं,जो अपना धैर्य गँवा कर,`अंधा भैंसा` के इस व्यर्थ खेल में, कुछ पहुँचे हुए, अभ्यस्त चतुर खिलाड़ी के हाथों बार बार शिकस्त खा कर, निरंतर दाँव लेते रहते हैं..!!
 
भगवान, हमारा मार्गदर्शन कुछ ऐसे करते हैं कि," संसार का सफर  अंधा लगता है, मोड़  अंधे लगते हैं, ज़िंदगी मजबूर लगती है, ऐसे में जो इन्सान सदा जाग्रत रहकर, मेरी मुकर्रर बंदगी करता है, उसे कभी अपनी दोनों आँख और दोनो कान बंद नहीं करने पड़ते ।
 
वैसे, `BLIND TURNING`,का सही अर्थ होता है, `To knowingly  refuse  to acknowledge  something  which you know to be real." 
 
है ना,बड़ी मज़ेदार बात? 
 
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प्यारे दोस्तों, आप की क्या राय है?

 
मार्कण्ड दवे । 
http://mktvfilms.blogspot.in/

हो गयी माँ डोकरी है

प्यार का सागर लबालब,अनुभव से वो भरी है
हो गयी माँ डोकरी है 
नौ दशक निज जिंदगी के,कर लिए है पार उनने
सभी अपनों और परायों ,पर लुटाया  प्यार  उनने
सात थे हम बहन भाई,रखा माँ ने ख्याल सबका
रोजमर्रा जिंदगी के ,काम सब और ध्यान घर का
कभी दादी की बिमारी,पिताजी की व्यस्तायें
सभी कुछ माँ ने संभाला,बिना मुंह पर शिकन लाये
और जब त्योंहार आते,तीज,सावन के सिंझारे
सभी को मेहंदी लगाती,बनाती पकवान सारे
दिवाली  पर काम करती,जोश दुगुना ,तन भरे वो
सफाई,घर की पुताई,मांडती थी,मांडने  वो
और हम सब बहन भाई,पढाई में व्यस्त रहते
मगर सब का ख्याल रखती,भले थक कर पस्त रहते
गयी निज ससुराल बहने,भाइयों की नौकरी है
साथ बाबूजी नहीं है, हो गयी माँ डोकरी     है
भूख  भी कम हो गयी है,बिमारी है,क्षीण तन है
चाहती सब काम करना,मगर आ जाती थकन है
और जब त्योंहार आते,उन्हें आता जोश भर है
सभी रीती रिवाजों पर ,आज भी पूरा दखल है
ये करो, ऐसे करो मत,हमारी है  रीत ऐसी
पारिवारिक रिवाजों को ,निभाने की प्रीत ऐसी
फोन करके,बहू बेटी को आशीषें बांटती   है
कभी गीता भागवत सुन ,वक़्त अपना काटती है
भले ही धुंधलाई आँखें, मगर यादों से भरी  है
हो गयी माँ डोकरी  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

धरोहर


वो चार आने का सिक्का
उसने सम्हाल कर रखा है
जो माँ ने मरने से
एक दिन पहले खर्चने के लिए
दिया था
बड़े उल्लास से सिक्का लेकर
मेले में पहुंचा था
पहली बार अकेले किसी मेले में
गया था ,
घंटों घूमता रहा पर तय नहीं
कर सका
कैसे खर्च करे,कुछ खाए
या कुछ खरीद कर घर ले जाए ,
मन मचलता फिर ध्यान आता ,
कहीं ऐसा ना हो,कुछ अच्छा छूट जाए
इसी ऊहापोह में घंटों घूमता रहा
चार आने का सिक्का भी
उससे खर्च नहीं हो सका था 
घर पहुँच माँ ने पूछा ,
सिक्के का क्या किया ?
उसने झूठ कह दिया
चाट पकोड़ी में खर्च कर दिया
अगले दिन ही
माँ की तबियत खराब हो गयी 
फिर माँ कभी ठीक नहीं हुयी
सदा के लिए संसार से चली गयी
कई दिन तक उसे माँ से
झूठ बोलने का, और चार आने
खर्च नहीं कर पाने का मलाल रहा
पर अब बुढापा आ गया
जब भी माँ की याद आती
तिजोरी से सिक्का निकाल कर
घंटों उसे देखता रहता
शायद सिक्के में उसे माँ की
सूरत दिखती है
सोच कर खुशी होती है
कितना अच्छा हुआ
जो उस दिन उसने
चार आने खर्च नहीं किये
वो चार आने का सिक्का
अब उसके लिए माँ की सबसे
कीमती धरोहर है
20-04-2012
470-51-04-12

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

न काशी, न काबा, बोलो जय बाबा......।

चौबे जी की चौपाल 


आज अपने  चौपाल में चौबे जी नंगे बदन लुंगी लपेटे बैठे हैं। प्लेट में चाय उड़ेल कर सुड़प रहे हैं । तोंद कसाब  मामले  की  तरह आगे निकली हुई है। सफाचट सरमूंछ  में चाय की बूँदें अटकी हुई मनमोहनी मुस्कान बिखेरते हुए  मुँह ही मुँह बुदबुदा रहे हैं कि-"जब आम के आम न आयेगुठली के दाम न आये अऊर कवनो रोजगार मा लाभ ना आयेतो बन जईयो निर्मम बाबा  हमार मतलब है निर्मल बाबा। चार्टन विमान से चलियो, फाइव स्टार होटल मा रहियो अऊर खयियो अंडे का मुरब्बा और डकार करके कहियो आईयो रब्बा न नेतागिरी मान दादागिरी माबड़ा मजा है भइया बाबागिरी मा धर्म के नाम पर तथाकथित धार्मिक प्रोग्राम देखा के ससुरी टी.आर.पी. बटोरे के चक्कर मा धर्मिक अउर अधार्मिक टी.वी. चैनल तलवा चाटिहें अऊर कहिहें न काशी की, न काबा की, बोलो जय बाबा की। माया-मोह से परे हचक के विज्ञापन बटोरिहें आ ओकर झोली भरि दिहें जेकर धर्म से दूर-दूर तक कवनो संबंध नइखे  नेत-धरम गुनाहकुल्हि करम पइसाबाबा हो तो आइसा 

इतना सुनि के राम भरोसे  बोला, "सही कहत हौ चौबे बाबा.......हम तोहरी बात क समर्थन करत हईं ।"

"चौबे बाबा" शब्द-संवोधन सुनते हीं तमतमा गए चौबे जी  कतरी हुई सुपारी के दो लच्छे मुँह में झोंक कर बोले -"चुप कर ससुराबाबा मत कह हमकेई बाबागिरी के नाम से हमके उबकाई आवत है  जईसा कि धर्म में कहा गया है ‘धरेतिसः धर्मः। माने कि देश अउर काल के हिसाब से उचित अनुचित के निर्धारण कईके ओकेरा अनुसार व्यवहार कइल धरम है  इहे लिबर्टी के फ़ायदा उठाके कोल माईन के ठेकेदार बनि गए धरम के बड़हन ठेकेदार  जिनके चित्त अऊर पित्त निर्मल हो नहोधनप्रवाह से बैंक एकाउंट निर्मल जरूर होई गए हैं। एगो कहाउत ह राड़साँढ़सीढ़ीसन्यासी एहसे बचे त सेवे काशी। कहाउत कहल त गइल बा काशी के बारे में जहाँ के राड़ठगसीढ़ी आ साधु सबही एकसे बढ़िके एक होलें । मगर अब ई परंपरा पूरे देश मा लागू होई गए हैं । यानी राड़साँढ़सीढ़ीसन्यासी, एहसे बचे त भारतवासी ।"

इतना सुनि के अछैबर से नहीं रहा गया,बोला- " बाबागिरी इतना आसान नाही है चौबे जी,जेतना आसान आप समझ रहे हैं। कन्टेसा से चले वालाए.सी. मंच से चार-चार सुंदरियों के मध्य बैठकर सुखों का परित्याग करे वाला अपने गाँव का बाबा प्रेमानंद कह रहे थे कि जहां भी जा रहा हूँ मुझसे पहले 'लोकल बाबापहुँच जा रहा हैमैं जिस प्रवचन के दस लाख लेता हूँ ससुरा दो लाख में ही निबटा देता है। रेट बिगाड़ दिया है पट्ठे ने। सोचते हैं बाबाओं का एक यूनियन बना ही डाला जाए । ताकि रेट फिक्स हो जाए कि समागम का कितना लेना है  और झार-फूंक का केतना। इसमें हम लोग एक्सरसाईज कराने वाले बाबाओं को भी शामिल करेंगे ताकि विभेद न रहे। गोरमेंट को जो इमोशनल ब्लैकमेल करके बाबाओं को टेक्स के दायरे से दूर रखेगा उस बाबा को दिग्विजय सिंह की तरह महामंत्री बनाया जाएगा। बाबा लोगों की कितनी महान सोच है चौबे जी ?"

इतना सुनते ही गुलटेनवा चहका और भीगी हुई सुपारी की तरह मुरझाकर बोला-"और कवनो बाबा के हम नाही जानतमगर हमारे गाँव के बाबा चुट्कुलानंद का कहना है कि क्या लेकर आये होक्या लेकर जाओगे। इसलिए निवृत्तमार्गी बनो, माया-मोह को त्यागो, तुम्हारे पास जो भी है उसे बाबाओं को समर्पित कर दो और खुद ठन-ठन गोपाल बनकर भगवान् गोपाल की शरण में चले जाओ। तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा बच्चा।"  

इतना सुनते ही रमजानी मियाँ ने पान की पिक पिच से फेंकते हुए कत्थई दांत निपोरकर बोला-"बरखुरदारहम कुछ बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है। इसलिए हम कुछ नाही बोलेंगे। 

तभी  भगेलू ने जिदियाते हुए पूछाकि " हमार साला त्रिलोकी के घाटा लग गईल कपड़ा की दुकानदारी मा । उहो बाबा बने के चाहत हैंओकरे पास भी चार-चार बैंक मा एकाऊंट है चौबे जीकोई तरकीब बताओ ताकि ऊ भी ससुरा बनि जाये त्रिलोकी से बाबा त्रिलोकी नाथ 
 तभी चुटकी लेते हुए चौबे जी  ने कहाहमारे पास है तरकीब !
चौंक गया भगेलूबोला "बताईये महाराज !"
चौबे जी ने कहा पहिले 100 के हरिहर नोट दक्षिणा में निकालो फिर बताएँगेबाबा चरित्रं मुफ्त में थोड़े न सुनायेंगे !"
उसने 100 के नोट निकालेऔर चौबे जी को थमायाकड़े-कड़े नोट देख चौबे जी का मन ललचाया और बाबा बनने के नुस्खे उसने कुछ इसकदर फरमाया !"
भावना में मत बहोजो भी कहो सच न कहोईश्वर का खौफ दिखाकर लूटोक्योंकि हर लूटने वाला या तो अपराधी होता है या बाबा.....जिस दिन बाबा बन के दिखाओगेसब जान जाओगे !"
बाकी क़ल बताएँगे जब आप दक्षिणा में फिर कुछ लेकर आयेंगे !
महाराज ये तो ठगी है ....!
नहीं बच्चा यही तो बाबा लोगों की जादूई खूबी है !
इतना कहकर चौबे जी ने चौपाल को अगले शनिवार तक के लिए स्थगित कर दिया !
  • रवीन्द्र प्रभात 
 
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