सोमवार, 31 दिसंबर 2012

चंद्रकांता सच कहती है


सच का होना और बात है,सच कहने की हिम्मत अलग सी बात है . ज़िन्दगी रंगीन भी होती है,रंग में बदरंग भी होती है ... आईने में दिखता है अपना चेहरा भी और देखते हुए हम बंद कर लेते हैं आँखें, झूठ का मुखौटा लगाकर भूलने की कोशिश करते हैं सच को या ............ भूल ही जाते हैं ! चंद्रकांता ने आईने के धुंध को साफ़ किया है - सत्य को उसके सहज रूप में शब्द शब्द उतारा है =

chandrakanta: दु:स्वप्न

रजनी की स्वप्न-बेला में, आज 

मेरे हिस्से वह निर्वस्त्र औरत आयी

जिसके पंख कुक्कुट की तरह 

उधेड़ दिये गए थे 


बेतहाशा पड़ी थी, वह 

पछाड़ खाई सड़क के एक 

दागदार, सीलन भरे कोने पर


मैंने कांपते हाथों से

उसकी अर्धनग्न देह को छुआ

कहीं कोई सिहरन ना थी


हिलाया डुलाया बहोत, फिर

उसका निस्तेज़ स्वेद चेहरा देख

भय से आँखें मूँद ली


कि, कभी किसी पहर

सीलन भरे ऐसे ही कोने पर

मेरा भी नाम लिख दिया जाएगा


सुबह के शोर-शराबे से

आँखे खुली, अधखुली अलसाई

पसीने से पैबंद था बदन


आत्मा पसीज आयी थी

उस दुर्गन्ध भरी सीलन से

जिसे स्वप्न में सहलाया था, रात भर


छिडकती रही नमक

नम-सी दीवारों पर

चुरा लेने को उस भीत की उमस

जिसे कभी मैंने अपने स्वप्नों से लीपा था..


कुछ भूल गए हैं हम..चिट्ठी लिखना ..

बातें खट्टी हों
कड़वी या बताशा  
चिठ्ठी, मिटटी सी लगती थी

आँखें भीजती थीं  
पाते से थाती प्यार की
मन, मल्हार गाता था

डाकिये का आना
होता था खबर,किसी के
आने-जाने, गीत की 

लांघकर दीवारें
देस-परदेस की
अब नहीं आती, चिट्ठी

चिठ्ठी में छिपा मन
मन की धड़कन, चुप है
कितनी सदियाँ रीत गयी

अब गुलमोहर के
फूल नहीं खिलते, कागज़ पर 
खिलखिलाती है ट्रिन ! ट्रिन !! ट्रिन !!!

    कभी-कभी आपको भी नहीं लगता कि हम केवल वह नोट बनकर रह गए है जिसे बाज़ार अक्सर अपनी सुविधा के अनुसार कैश करता है !!भौतिकवाद या पूंजीवाद की कितनी ही आलोचना की जाए लेकिन इस यथार्थ से परहेज़ नहीं किया जा सकता कि विकास, समृद्धि और प्रगति के तत्व उस पर भी अवलंबित हैं.कम समय में ही अधिकाधिक प्रगति की बलवती इच्छा नें सम्भवतः हमारे समक्ष इससे बेहतर और फिलहाल इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प बाकी नहीं रहने दिया है.

                  लेकिन, जब इन पूंजीवादी मूल्यों की कीमत हमारा अस्तित्व बन जाए तब इस पर विचार किया जाना अवश्यम्भावी हो जाता है.अकेला बाजार दोषी नहीं, क्यूंकि ‘मुनाफे’ में हम सभी हिस्सेदारी चाहते हैं इसलिए ‘आर्थिक डार्विनवाद’की यह अमर बेल है की सूखती है नहीं प्रत्येक दिवस और अधिक पोषित होती जाती है .हमारे चारों और रच दिये गए ‘हाईपर-रिअलिटी के तिलिस्म’ ने ही अब तक बाज़ार की मनमानी और राजनीति की अवसरवादिता को जिन्दा रखा है.

  जब तक हम खुद से प्रश्न नहीं करेंगे; अपनी उन जिम्मेदारियों को नहीं समझेंगे जिनके निर्वहन में हमसे ऐतिहासिक भूलें हुई हैं तब तक, हमें उन बेड़ियों के अधीन रहना होगा जिनकी आदत हमें हो गयी है और हम भूल गए हैं की हम स्वतंत्र हैं.. हम साधन नहीं, साध्य हैं.

आत्ममंथन की जरुरत हमें है किसी साइकिल, हाथ, कमल या हाथी को नहीं.
हम केवल वोट नहीं है जिसे राजनीति में जब-तब भुनाया जा सके. हम वह चेतना भी हैं जिसमें परिवर्तन के बीज निहित हैं.जो संगठित होकर समाज का, देश का और विश्व का रुख बदल सकता है.

तो चलिए ..इन हवाओं का रुख बदल दें..

................................................................... हैं तैयार हम चंद्रकांता ......................................

पच्चीसवें दिन की प्रस्तुति के साथ चलिये परिकल्पना उत्सव के समापन की तैयारी करते हैं, नए वर्ष के प्रथम दिन को यादगार बनाते हुये ......!


और मनन कीजिये कि कैसी रही परिकल्पना उत्सव (तृतीय) की यह यात्रा । 

मैं मिलती हूँ कल यानि नए वर्ष के नए दिवस पर परिकल्पना उत्सव के समापन सत्र मे यानि सुबह 11 बजे परिकल्पना पर । 

हास्य रस


कल्पना में एक जिन्न हमेशा होता है या अलादीन का चिराग ..... जादू की तरह पलक झपकते सारे काम हो जाएँ , कौन नहीं चाहता ! लेकिन - !!! इस आरम्भ पर कितनों को दिल से निकलेगा 'सच में .... ' 


आँखें  नींद  से भरी हों और अंगडाई अभी ले भी न पाए
पति और बच्चो के नाश्ते के बारे अभी सोच भी न  पाए
एक संदेशा चौंका जाए ,नींद आँखों से ऐसे भगा जाए                                                                   
My Photo
                            जब किसी दिन काम वाली न आये......

मूवी ,शौप्पिंग और मस्ती के अरमान सारे पानी में  बह जाए
पति के साथ लौंग ड्राइव जाने  के सपने अधूरे  ही रह जाए
केंडल लाइट डिनर से मैन्यु घूम कर दाल चावल पर आ जाए 

                              जब किसी दिन काम वाली न आये........
 पूरे महीने की भड़ास पति को हेल्प न करने में निकल जाए
बच्चो पर गुस्सा उनकी  बिखरी किताबें , जूते देख उतर जाए
काम देख देख कुछ समझ न आये ,हालत खराब होती जाए

                               जब किसी दिन काम वाली न आये .......

रोमांस की ऐसी तैसी कर पति को केवल ब्रेड,बट्टर  खिलाये
 बच्चो को भी  दुलार कर ,मुनहार कर मैग्गी खाने को मनाये
 जींस  टॉप  से औकात नाइटी पर  एप्रन  बाँधने पर आ जाए

                               जब किसी दिन काम  वाली न आये .......

  उस इंसान की खैर नहीं जो बाहर दरवाज़े पर बैल कर जाए
  फ़ोन उठाया भी तोह वक़्त बस बाई को कोसने में निकल जाए
  हमसे ज्यादा कौन है दुखी इस  दुनिया में यह  सब को जतलाये

                                    जब किसी दिन काम वाली न आये ........ 

  हस्ती घर की महारानी और राजरानी से नौकरानी पर आ जाए
  सारी अदाएं बर्तन, सफाई वाली की झाड़ू में सिमट आये
  वो हर काम के पैसे ले छूटी कर घर बैठी ऐश फरमाए
  हम सारे काम करके भी दो शब्द शाबाशी के भी न पाए

                             जब किसी दिन काम  वाली न आये......

 थकावट से चूर बदन से हर पल आह सी निकलती जाए
खुद से ही लडती खुद से ही जूझती दिल में बाई को कोसती जाए
कल लुंगी खबर ,कर दूंगी छूटी ये खुद से वाएदा करती जाए

                                जब किसी दिन काम वाली न आये ......

कल आ जाए बाई ये सोच कर रात भर प्रार्थना करती जाए
सुबह उसके आने पैर गुस्सा भूल उससे खूब खिलाये खूब पिलाए
कल तक जो कोसती थी जुबां आज वो मिश्री सी घुल घुल जाए

                                      जब अगले दिन काम वाली आ जाए .

हंसमुख जी
दन्त चिकित्सक थे
दांतों का इलाज करते थे
पहले मुंह खुलवाते थे
फिर बात करते थे
एक दिन दर्द से पीड़ित
एक बुजुर्ग महिला उनके पास आयी
बोली दांत निकलवाना है
हंसमुख जी बोले
पहले मुंह खोलो,फिर बात सुनूंगा
हंसमुख जी ने महिला से
मुंह खुलवाया
ज़रा कम खुला था,सो बोले और खोलो
ज़रा और खोलो
बार बार यही बोलते रहे
महिला परेशान हो गयी
फिर झल्लाहट में बोली
बात क्या मुंह में, बैठ कर सुनोगे
दांत कब  निकालोगे
निरंतर यही होता था
कोई ज्यादा खुलवाने पर
नाराज़ होता
कोई कम खुलवाने पर
बोलता रहता

एक रात मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा होता हूँ
तभी दो यमदूत आकर मुझे बतलाते हैं
‘चल उठ जा बेटे, तुझे यमराज बुलाते हैं’।
मैं तुरंत बोल पड़ता हूँ,
‘यारों मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई है?
अभी तो मेरी उमर केवल तीस साल ही हुई है,
लोग कहते हैं मेरी किस्मत में दो शादियाँ लिखी गई हैं
और अभी तो पहली भी नई नई हुई है।
देखो अगर दस-बीस हजार में काम बनता हो तो बना लो,
और किसी को ले जाना इतना ही जरूरी हो,
तो शर्मा जी को उठा लो।’
वो बोले, ‘हमें पुलिस समझ रक्खा है क्या,
कि हम बेकसूरों को उठा ले जायेंगें,
और यमराज को,
अपने देश का अन्धा कानून मत समझ,
कि वो निर्दोष को भी फाँसी पे लटकायेंगें।”
मेरे बहुत गिड़गिड़ाने के बाद भी, 
वो मुझे अपने साथ ले जाते हैं;
और थोड़ी देर बाद,
यमराज मुझे अपने सामने नजर आते हैं।
मुझे देखकर,
यमराज थोड़ा सा कसमसाते हैं और कहते हैं,
‘कोई एक पूण्य तो बता दे जो तूने किया है,
तेरे पापों की गणना करने में,
मेरे सुपर कम्यूटर को भी दस मिनट लगा है।’
मैं बोला, ‘क्या बात कर रहे हैं सर, 
बिजली बनाना भी तो एक पूण्य का काम है
यमलोक के तैंतीस प्रतिशत बल्बों पर हमारा ही नाम है।’
यह सुनकर यमराज बोले, ‘हुम्म,
चल अच्छा तू ही बता दे
तू स्वर्ग जाएगा या नर्क जाएगा
मैं बोला प्रभो पहले ये बताइए कि ऐश, कैटरीना, बिपासा एटसेट्रा कहाँ जाएँगी
यमराज बोले, “बेटा, स्वर्ग में नारियों के लिए ५०% का आरक्षण है
उसका लाभ उठाते हुए वो स्वर्ग में जगह पाएँगीं।
अबे सुन,
सुना है तू कविताएँ भी लिखता है, 
चल आज तो थोड़ा पूण्य कमा ले,
किसी ने आज तक मेरी स्तुति नहीं लिखी,
तू तो मेरी स्तुति रचकर मुझे सुना ले।”
फिर मैं शुरू करता हूँ यमराज को मक्खन लगाना,
और उनकी स्तुति में ये कविता सुनाना,
“इन्द्र जिमि जंभ पर, बाणव सुअंभ पर, 
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं,
तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंश पर, 
त्यों भैंसे की पीठ पर, देखो यमराज हैं।”
स्तुति सुनकर यमराज थोड़ा सा शर्माते हैं,
और मेरे पास आकर मुझे बतलाते हैं,
“यार ये तो मजाक चल रहा था, 
अभी तेरी आयु पूरी नहीं हुई है,
तुझे हम यहाँ इसलिये लाए हैं, क्योंकि,
हमें एक यंग एण्ड डायनेमिक,
सिविल इंजीनियर की जरूरत आ पड़ी है।”
मैं बोला, “प्रभो मेरे डिपार्टमेन्ट में एक से एक,
यंग, डायनेमिक, इंटेलिजेंट, स्मार्ट, इक्सपीरिएंस्ड 
सिविल इंजीनियर्स खड़े हैं।
आप हाथ मुँह धोकर मेरे ही पीछे क्यों पड़े हैं।”
वो बोले, “वत्स, 
तेरा रेकमेण्डेसन लेटर बहुत ऊपर से आया है,
तुझे भगवान राम की स्पेशल रिक्वेस्ट पर बुलवाया है।”
मैं बोला, “अगर मैं हाइली रेकमेन्डेड हूँ,
तो मेरा और टाइम वेस्ट मत कीजिए,
औ मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है फटाफट बता दीजिए।”
यह सुनकर यमराज बोले, 
“क्या बताएँ वत्स,
कलियुग में पाप बहुत बढ़ते जा रहे हैं,
पिछले चालीस-पचास सालों से,
लोग नर्क में भीड़ बढ़ा रहे हैं,
दरअसल हम नर्क को,
थोड़ा एक्सपैंड करके उसकी कैपेसिटी बढ़ाना चाहते हैं,
इसलिए स्वर्ग का एक पार्ट,
डिमालिश करके वहाँ नर्क बनाना चाहते हैं।”
मैं बोला प्रभो 
“इसमें सिविल इंजीनियर की क्या जरूरत है,
विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों को बुला लीजिए,
या फिर लालू प्रसाद यादव को,
स्वर्ग का मुख्यमंत्री बना दीजिए,
मैं सिविल इंजीनियर हूँ, 
मैं स्वर्ग को नर्क कैसे बना सकता हूँ,
हाँ अगर नर्क को स्वर्ग बनाना हो,
तो मैं अपनी सारी जिंदगी लगा सकता हूँ।”
मैं आगे बोला, 
“प्रभो नर्क में सारे धर्मों के लोग आते होंगे,
क्या वो नर्क में,
पाकिस्तान बनाने की मांग नहीं उठाते होंगे।”
तो यमराज बोले, “वत्स पहले तो ऐसा नहीं था, 
पर जब से आपके कुछ नेता नर्क में आए हैं,
अलग अलग धर्म बहुल क्षेत्रों को मिलाकर,
पाकनर्किस्तान बनाने की मांग लगातार उठाये हैं,
पर उनको ये पता नहीं है,
कि हम पाकनर्किस्तान कभी नहीं बनायेंगे,
नर्क तो पहले से ही इतना गन्दा है,
हम उसका स्टैण्डर्ड और नहीं गिराएँगे,
और ऐसा नर्क बनाने की जरूरत भी क्या है,
ऐसा नर्क तो हिन्दुस्तान की बगल में,
पहले से ही बना हुआ है।”
वो ये बता ही रहे थे कि तभी,
प्रभो श्री राम दौड़ते हुए आते हैं,
और आकर मेरे सामने खड़े हो जाते हैं,
मैं बोला, “प्रभो जब आपको ही आना था
तो धरती पर ही आ जाते,
मुझे यमलोक तो न बुलाते
और जब आ ही रहे थे, तो अकेले क्यों आये,
माता सीता को साथ क्यों नहीं लाए,
लव-कुश भी नहीं आये मैं गले किसे लगाऊँगा,
और लक्ष्मण जी व हनुमान जी को,
क्या मैं बुलाने जाऊँगा।”
यह सुनकर श्री राम बोले, 
“मजाक अच्छा कर लेते हैं कविवर,
पर मेरी समस्या होती जा रही है बद से बदतर,
विश्व हिन्दू परिषद वाले मेरे पीछे पड़े हुए हैं,
मन्दिर वहीं बनायेंगे के सड़े हुए नारे पे अड़े हुए हैं,
पर वो ये नहीं समझते,
कि यदि हम मन्दिर वहाँ बनवायेंगे,
तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा,
मगर विश्व भर में लाखों बेकसूर मारे जाएँगे,
यार तुम तो कवि हो लगे हाथों कोई कल्पना कर ड़ालो,
और मेरी इस पर्वताकार समस्या को प्लीज हल कर डालो।”
मैं बोला, “प्रभो बस इतनी सी बात,
वहाँ एक सर्वधर्म पूजास्थल बनवा दीजिए,
और उसकी प्लानिंग मुझसे करा लीजिए,
एक बहुत बड़ी सफेद संगमरमर की,
मल्टीस्टोरी बिल्डिंग वहाँ बनवाइये,
और दुनिया में जितने भी धर्म हैं,
उतने कमरे उसमें लगवाइये,
और कमरों में क्या क्या हो ध्यान से सुन लीजिए,
किसी कमरे में बुद्ध मुस्कुराते हुए खड़े हों,
तो किसी कमरे में ईशा सूली पे चढ़े हों,
किसी में महावीर ध्यान लगा रहे हों,
तो किसी में खड़े नानक मुस्कुरा रहे हों,
किसी में पैगम्बर खड़े मन में कुछ गुन रहे हों,
तो किसी में कबीर कपड़े बुन रहे हों,
और जहाँ आप जन्मे थे वहाँ एक बड़ा सा हाल हो,
बहुत ही शान्त, स्वच्छ और सुरम्य वहाँ का माहौल हो,
बीच में एक झूले पर,
आपके बचपन की मनमोहिनी मूरत हो,
जो भी देखे देखता ही रह जाये,
कुछ ऐसी आपकी सूरत हो,
सारे धर्मों के हेड आफ डिपार्मेन्टस, 
डीनस और डायरेक्टरस की मूर्तियाँ वहाँ पर लगी हों,
और जितनी मूर्तियाँ हों,
उतनी ही डोरियाँ आपके झूले से निकली हों,
सब के सब मिलकर आपको झूला झुला रहे हों,
और लोरी गा-गाकर सुला रहे हों,
उस मन्दिर में लोग कुछ लेकर नहीं,
बल्कि खाली हाथ जाएँ,
उसे देखें, सोचें, समझें, हँसे, रोयें
और शान्ति से वापस चले आएँ,
पर प्रभो मेरे देश के नेता अगर आपको ऐसा करने देंगें,
तो अगले लोकसभा चुनावों का मुद्दा वो कहाँ खोजेंगे।”
इतना सुनकर भगवन बोले, 
“वत्स आपका आइडिया तो अच्छा है,
अतः अपने इस आइडिये के लिये,
कोई वरदान माँग लीजिए।”
मैं बोला, “प्रभो,
मेरी मात्र पाँच सौ पचपन पृष्ठों की एक कविता सुन लीजिए।”
फिर भगवन के ‘तथास्तु’ कहने पर,
मैंने सुनाना शुरु किया,
“कुर्सियाँ आकाश में उड़ने लगी हैं,
गायें चारागाह से मुड़ने लगी हैं,
लड़कियाँ बेबात के रोने लगी हैं,
भैंसें चारा खाके अब सोने लगी हैं,
कल मैंने था खा लिया इक मीठा पान,
देख लो हैं पक गये खेतों में धान।”
और तभी भगवान हो जाते हैं अन्तर्धान,
और होती है आकाशवाणी, “ये आकाशवाणी का विष्णुलोक केन्द्र है,
आपको सूचित किया जाता है, कि आपको दिया गया वरदान वापस ले लिया गया है,
और आपसे ये अनुरोध किया जाता है कि जितनी जल्दी हो सके यमलोक से निकल जाइये,
और दुबारा अपनी सूरत यहाँ मत दिखलाइये।”
यह सुनकर मैं यमराज से बोला, “मुझे वापस पृथ्वीलोक पहुँचा दीजिए।”
यमराज बोले, “कविवर, अपनी आँखें बन्द करके दो सेकेंड बाद खोल लीजिए।”
मैं आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि सूरज निकल आया है,
मेरे कमरे में कहीं धूप कहीं छाया है,
घड़ी सुबह के साढ़े आठ बजा रही है,
और जीएम साहब प्रोजेक्ट में ही हैं ये याद दिला रही हैं,
मैं सर झटककर पूरी तरह जागता हूँ,
और तौलिया लेकर बाथरूम की तरफ भागता हूँ,
रास्ते में मेरी समझ में आता है कि मैं सपना देख रहा था
और इतने बड़े-बड़े लोगों के सामने इतनी लम्बी-लम्बी फेंक रहा था।

चलिये एक और अल्प विराम लें उससे पहले चलते हैं वटवृक्ष पर जहां किशोर कुमार एक अच्छी कविता लेकर उपस्थित हैं । शीर्षक है : नदी हूँ 

हाइकु



डॉ हरदीप सिन्धु कहती हैं कि =
हाइकु में ‘कहे’ से ‘अनकहा’ ज़्यादा होता है । जो नहीं कहा
गया वो पाठक को खुद कहना होता है ।

हाइकु में छुपे रहस्य को समझने के लिए अपने-आप में
डुबकी लगानी पड़ती है। यह आप की अपनी क्षमता पर
निर्भर करता है कि आप क्या ढूंढ सकते हैं ।
अगर आप हाइकु को समझने की क्षमता रखते हैं तो यह
तीन पंक्तियाँ आप को तीन-तीन पन्नों पर लिखी जाने वाली
कविता से भी ज्यादा लुत्फ़ दे सकती हैं ।

" बाशो के अनुसार  हाइकु दैनिक जीवन में अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति है, पर वह सत्य एक विराट सत्य का अंश होना चाहिए। हाइकु सम्पूर्ण कविता नहीं है, वह विराट सत्य की ओर इंगित करने वाली सांकेतिक अभिव्यक्ति है। शब्द-संयम हाइकु की अनिवार्यता है, इसके साथ ही भाव संयम भी। "

तो सत्य की अनुपम अभिव्यक्तियों का आनंद लें -
रेखा श्रीवास्तव  http://hindigen.blogspot.in/

राजनीति में
रसूख देखना है
गाड़ी को देखो
*******
धरा कहती
इंसान से रुक जा
My Photoअभी जीना है।
*******
रिश्तों में अभी
रहने दो गरमी
खून से जुड़ी ।
*******
सपने टूटे
टुकड़ों को सहेजा
आंसूं चू पड़े। 
******
सपने मुझे 
देखने का हक था 
मर्जी उनकी। 
*******
बलात्कार में 
कलंक नारी पे है 
वे हैं निर्दोष। 
*******
नारी के लिए 
विवाह की मर्यादा 
शिरोधार्य है। 
*******
सात फेरे है 
सिर्फ नारी के लिए 
नर आजाद . 
************
शब्दों के तीर 
छलनी कर गए 
आत्मा हमारी .
********
प्रकृति प्रेम 
बातों से नहीं कहो 
कर्मों से बोलो .
********
नौका का हश्र 
नदी पार कराये 
खुद पानी में .
********
गंगा क्यों  रोये ?
इतने पाप धोये 
मैली हो गयी .
*********
जल से प्राण 
मर्म को समझना 
अभी जल्दी है। 
*********
हर पग पे  
वहशी खड़े हैं तो 
बचोगी कैसे ?
*********
कीमतें तय 
क्या चाहिए तुमको ? 
मुंह तो खोलो। 
*********
आत्मा रोती  है  
उनके कटाक्षों से 
कोई दंड है? 
*********
बेलगाम हैं 
सभ्यता हार गयी 
दोषी कौन है? 
**********
अनुपमा त्रिपाठी  http://anupamassukrity.blogspot.in/

1-
हृदय  वही  
My Photoपिघले मोम जैसा,
पाषाण नहीं । 


2-
मोम-सा मन
आंच मिली ज़रा सी ..
पिघल गया  ।
3-
प्रवाह लिये  
सरिता- सा  हृदय
बहता गया  ।

4-
छाई बादरी 
बरसती  बूंदरी ....
नाचे  मयूर .. ..

5-
मेघ -घटाएँ.
छाई उर -अम्बर
भाव बरसें ।


6-
घटा सावन ,
भिगोये तन मन ..
प्रेम बरसे 

7-
मन मीन क्यों 
आकुल रहती है
लिये पिपासा...?


8-
मेरा हृदय
आस की डोर बँधा.
पतंग बना ।

डॉ रमा द्विवेदी  http://ramadwivedi.wordpress.com/
१- वंश का नाम
चलाता है आत्मज
बेबुनियाद ।

२- खलीफ़ा बुर्ज
मेहनत किसी की
नाम किसी का?

३- क्रान्ति का बीज
चिंगारी बनी आग
जीत निश्चित ।

४- सुलगा दिल
रोया था रातभर
ज़ुबां खामोश ।

५- बिना कफ़न
हो जाती हैं दफ़न
दहेज बिना ।

६- पीड़ा का मौन
पिघलता प्यार से
समझे कौन ?

७- बहरे लोग
कोयल मत कूक
मृदुल बोल।

८- स्त्री-भ्रूण हत्या
बिगड़ा संतुलन
सृष्टि का नाश ।

९- काल-नियति
दो पाटन के बीच
बचा न कोय ।

१०- बेटी का नेह
पूंजी मात-पिता की
अटूट निष्ठा ।

डॉ नूतन गैरोला  http://amritras.blogspot.in/

1
My Photoकडुवा सत्य
मित्रता में अकथ 
स्वार्थ गहरा ।
2
विष न डंक
फुंकार हो फिर भी,
शक्ति का फन ।
3
तरु जो सीधा
कुल्हाड़ी का निशाना !
बनो चतुर  !!
4
निर्भय बन 
हो कार्य निष्पादित 
अजय बनो  ।
5
फैले सुगंध 
हवा की दिशा पर,
यश चौदिशा  ।
6
जन्म से नहीं
आचरण से व्यक्ति
बने महान  ।
7
खोलो न भेद 
विश्वसनीय को भी 
हो कभी धोखा  ।
8
भय भगाओ,
पास जब फटके
लड़ो व जीतो ।
9
माँ है महान 
देवता न तुल्य है, 
माँ से बढ़के । 
10
लाड हो पर 
डाँट दो गलत पे
है ये भलाई   ।

एक मध्यांतर लूँ उससे पहले आइये चलते हैं वटवृक्ष पर जहां इंजनियार प्रदीप कुमार साहनी उपस्थित हैं अपनी अभिव्यक्ति यंग इंडिया के साथ ...यहाँ किलिक करें 


शनिवार, 29 दिसंबर 2012

हमारे मध्य एक टुकड़ा धुप का माही के नाम ...



माही .... दूर तक उनके स्वर जो मुखरित हैं उसकी दास्ताँ मैं सुनाउंगी ... कहती हैं माही,
मै वहां हूं जहां से मुझे अपनी ही खबर नहीं आती है ...." तो कोशिश है मेरी की उनकी खबर ले आऊँ उनके ख्यालों के साथ =

मुझे एक परियों की कहानी दे दो ना

My Photoमाही परियों की कहानी से बाहर आओ...हकीकत को थोड़ा समझो, सब तुम्हारी परियों की कहानी की तरह हुआ, हम एकदूसरे से मिले, साथ रहे, इतना अच्छा वक्त बिताया, हमने बड़ी कार ली, इतना बड़ा घर लिया लेकिन कुछ चीजें तुम्हारी कहानी के हिसाब से नहीं होंगी। हम दोनों ने इसके लिए भरपूर कोशिश कर ली है, नतीजा तुम देख चुकी हो....कुछ फैसले हमारे हाथ में नहीं होते, कुछ अनचाही बातें जिंदगीभर साथ चलती है...मै खामोशी से उसकी बात सुन रही थी, वो परेशान था, हर दिन मुझे नए तरीके से ना जाने क्या समझाने की कोशिश करता है जो कि मुझे समझना ही नहीं है। मैने चुपचाप सब सुना फोन रख दिया...
उसकी कही एक-एक बात मेरे जहन से नहीं उतर रही थी, ऐसा लग रहा था मानो कह रही हो इस बारे में सोचने को। मुझे बस याद आ रहा था जब गाड़ी छोटी थी, पास में अपना घर नहीं था लेकिन उन दिनों हमारे पास खुशियां बड़ी-बड़ी थी। बारिश की बूंदों में एक दूसरे का इंतजार करने में भी खुशी थी, रूठना-मनाना भी जैसे कितना खास कुछ होता था लेकिन अब...मै पता नहीं क्या सोच रही थी, बाहर तेज धूप थी, गर्म हवाएं चल रही थी, मै अपनी धुन में चल रही थी, उसी सीसीडी की तरफ जहां मै अक्सर जाती हूं, अकेले...थोड़ी देर बाद फोन बजा, शारिक था...तुम बात करो माही, तुम्हारी खामोशी से डर लगता है, तुम चिल्लाओ लेकिन फोन मत रखो। लेकिन मुझे कुछ बात नहीं करनी थी, गुस्सा भी नहीं आ रहा था, मैने फोन नहीं काटा।
वो समझ गया था कि उसकी बात से मेरा मन उदास हो गया है। लेकिन अब वो हंसाने की कोशिश कर रहा था, हमेशा की तरह, पर मेरा मन अब उदास हो गया था। उसकी बातें मेरे दिमाग में चल रही थीं, अचानक शारिक मुझसे पूछा अच्छा माही बताओ मै वीकएंड में आ रहा हूं बोलो तुम्हारे लिए क्या लेकर आऊं? मै पहले बहुत देर चुप थी लेकिन फिर मै बोली मुझे एक परियों की कहानी दे दो ना!!!

सही गलत के पार

बस चलती जा रही हूं, सही गलत के पार, ना जाने कौन सी दुनिया में। सब एहसास है लेकिन बेबस हूं, दिल कम्बख्त बहुत खराब है, मानता ही नहीं है, मजबूत होने ही नहीं देता। अब तो सोचना ही छोड़ दिया है, बढ़ रही हूं, कोई ना कोई जगह तो होगी जहां सब मेरे लिए अंत लिखा होगा। बस उसी जगह पहुंचकर देखूंगी क्या पाया क्या खोया। सही-गलत की पार की वो दुनिया कितनी सही होगी इसका हिसाब उसी दिन लगाऊंगी। लेकिन उस जगह पहुंचकर बस एक ख्वाहिश रहेगी मन में कि जिसका-जिसका दिल दुखाया है उन सभी से एक बार माफी मांग लूं। आखिरी बार, फिर बढ़ चलूंगी उस अंधेरी अकेली दुनिया में... 

अभी लगता है कल की ही बात है, लेकिन कैलेंडर के पन्नों को उलट कर देखा तो अहसास हुआ कि बहुत वक्त गुजर चुका है। कल का पूरा दिन ऐसे ही गुजरा, उदास सुबह, उदास शाम। पता नहीं  क्या चल रहा था मेरे अंदर, कुछ लिखने का भी मन नहीं हुआ। दो-तीन बार लिखने के लिए बैठी। मन बुझा हुआ था, बुरा लग रहा था। ऑफिस के बाद जब कॉफी डे में अकेले जाकर बैठी तो लगा वो खलिश आज भी है और शायद कभी जाएगी भी नहीं, मै किसी से बात नहीं करना चाहती थी, शारिक से भी नहीं, उसने भी मुझे कोई फोन नहीं किया। मुझे लगा कि शायद साढ़े आठ बजे तक उसका फोन आए, मै बैठी थी कॉफी और किताब के साथ, तभी फोन बजा मां थीं, मां क फोन की घंटी से लगा कि देर हो चुकी है। घर जाने का भी मन नहीं था लेकिन जाती भी कहां..... पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है मै वहीं खड़ी हूं और मेरे आस-पास से सब गुजर गया है, पता नहीं क्या चाहती है ये जिंदगी...खैर जिंदगी है, शायद एकदम सपाट गुजरे तो उसके होने का अहसास ही न हो...

काश कर ख्वाहिश पूरी हो जाए

कितना अच्छा होता ना अगर हमारी मन में छुपी हर छोटी-बड़ी ख्वाहिश पूरी हो जाती। दुनिया इतनी सुलझी होती जैसे की परियों की दुनिया हो, जिंदगी में मुश्किले कम होती और खुशियां ढेर सारी।  ये सब सोचते हुए लगता है जैसे छोटे बच्चों को सुनानी वाली कहानी हो लेकिन मन में जब सच में ये बातें चलती है तो थोड़े समय के लिए सचमुच दुनिया खूबसूरत नजर आती है। 
आज दिन के समय कुछ ऐसा ही हुआ। ऑफिस में काम करते-करते जब थक गई तो ऑफिस के टेरेस पर चली गई। गुनगुनी धूप और ठंडी हवा अच्छी लग रही थी। मन की बेचैनी समझ नहीं पा रही थी कि इतने में फोन बजा, फोन शारिक का था। फोन उठाकर अभी बात हो ही रही थी कि घूम-फिरकर बात शादी पर पहुंच गई जिससे शारिक साहब थोड़ा हिचकिचाते हैं। फिर शारिक को मैने शर्मिला टैगोर और नवाब पटौदी की कहानी सुनाई कि कैसे एक कट्टïर मुसलमान परिवार में शर्मिला ने न केवल शादी की बल्कि खुद उस माहौल में ढलकर अपने तीनों बच्चों को इस्लामिक माहौल में बड़ा किया। 
एक बार फिर दोनों में शादी की बात शुरू हो गई, ये बात होते ही मेरे मन में आता है कि ऊपरवाला मेरी ये ख्वाहिश पूरी कर दें फिर मेरे हाथ दुआ के लिए कभी नहीं उठेंगे। मैने शारिक को बोला इस्लाम में भी गैर मुस्लिम लड़की से निकाह जायज बताया है अगर को इस्लाम कबूल करे। शारिक ने पूछा इस्लाम कबूल करने के लिए भी बहुत नियम होते हैं और अगर तुम्हें वो सब करने पड़े तो क्या तुम कर पाओगी? अपने रीति-रिवाज छोड़कर अपना पाओगी सब? जितना आसान तुम सोच रही हो सब उतना ही मुश्किल होगा और जाहीरन तौर पर कुछ भी संभव ही नहीं है। हालांकि मै शारिक के इन सवालों का बहुत सहज उत्तर दिया लेकिन मन में एक बात कही कि तुमसे शादी मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी ख्वाहिश है और तुम हमेशा मेरे साथ रहो तो मै हर मुश्किल को पार कर लूंगी। 

पता नहीं वक़्त बदलता है या लोग

Mahi sवक़्त तो तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन समझ ही नहीं आता है की वक़्त बदलता है या लोग? इस बात को लेकर मेरे और शारिक के बीच न जाने कितनी ही बहस होती है, उसका कहना होता है की वक़्त के साथ रिश्ते गंभीर होते हैं तो मुझे लगता है लोग बदलते हैं. बदलाव चाहे जिमेदारियों की वजह से आये या फिर काम की वजह से बदलाव तो आते ही हैं. अब मै आपको  2 अगस्त का किस्सा सुनाती हूँ. यह हमारी एनिवेर्सेरी है, हर साल की तरह मुझे इंतज़ार की साहब मुझे फ़ोन करेंगे, हम लोग बात करेंगे और एक बार फिर पुराने दिन को याद करेंगे. इन सब बातों के साथ मेरे दिन की शुरुआत हुई. सुबह मै तैयार हुयी और मैंने वही कपडे पहने जो कभी मै उससे पहली बार मिलने पर पहने थे. अच्छा लग रहा था, सुबह से मई बहुत कुश भी थी. लेकिन मेरी ख़ुशी दोपहर तक गायब हो रही थी. मेरी नज़रें सिर्फ और सिर्फ फ़ोन पर थी. लेकिन 2 बजे तक भी शारिक ने कोई फ़ोन नहीं किया तो मैंने ही हार कर उसे एक sms किया..sms में लिखा " happy 2 august..love u n thnx for not remembering the day" थोड़ी देर बाद उसका भी जवाब आया; लेकिन अब भी उसके पास इतनी फुर्सत नहीं थी की वो एक फ़ोन करे. गुस्सा तो बहुत आ रहा था पर उससे भी ज्यादा वो सब बातें याद आ रही थी जहाँ से सब कुछ शुरू हुआ था. 
अब मेरा ऑफिस भी नॉएडा हो गया है. मेरी और शारिक की कहानी भी यहीं आस पास से शुरू हुई थी. शारिक शिप्रा सनसिटी में रहता था. बस काम में मन ही नहीं लग रहा था. थोड़ी देर सीट में बैठने के बाद मै ऑफिस की छतपर चली जाती. इस ऑफिस की छत से सनसिटी साफ़ नज़र आता है. बस चाय की चुस्की और हलकी बारिश में मै मनो फ्लाश्बैक में चली गयी थी. ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत वक़्त मनो उन कुछ घंटो में मैंने देखा.  मन कर रहा था वक़्त एक बार फिर पीछे चले जाये और मै उस ज़िन्दगी को एक बार फिर से जे लूँ. सनसिटी के वो दिन बहुत याद आते हैं आज भी. वो इत्मीनान, वो सुकून, वो ख़ुशी, वो पल आज चाह कर भी नहीं मिल सकते हैं. खैर जैसे तैसे शाम तोह गुज़री लेकिन उदास होने के साथ ही गुस्सा भी बहुत आ रहा था. लग रहा था फ़ोन करके खूब झगडा करूँ फ़ोन भी किया, झगडा शुरू भी हुआ लेकिन रोज़ा चलने की वजह से ज्यादा नहीं झगड़ी.
परेशान मै बस सुकून ढून्ढ रही थी, मैंने ऑफिस से ऑटो किया और सीधा आनंद विहार आ गयी. पहले सोचा घर जून, फिर मन में आया क्या हुआ अगर शारिक साथ नहीं है तो, मै तोह उस जगह जा ही सकती हूँ जहाँ हम मिले. मै ऑटो से उतरकर सीधा edm mall आ गयी. मैंने वहां straberry crush icecream लिया और जाकर उस्सी जगह में बैठ गयी जहाँ मै और शारिक जाया करते थे. एक बार फिर वही सब आँखों के सामने से गुज़र रहा था. मैंने शारिक को फ़ोन किया, और पूछा सिर्फ एक बात बता दो शायद यही सुनकर थोडा ठीक लगे, सिर्फ इतना बता दो की वक़्त बदलता है लोग ? लेकिन उसकी तरफ से कुछ जवाब नहीं आया, अक्सर ऐसे जवाब शारिक हमेशा देने से बचता है. लेकिन मेरे सच में कोई बताये वक़्त बदलता है या लोग???
............................. सवालों की धुंध में है माही एक टुकड़ा धुप की आहट लिए .... 

इस प्रस्तुति के बाद हम दुष्कर्म की शिकार पीड़िता दामिनी की असामयिक मृत्यु पर संवेदना अर्पित करेंगे आज के कार्यक्रमों को पूर्ण विराम देंगे और मिलेंगे परसों यानि सोमवार 31 दिसंबर को उत्सव के पच्चीसवें दिन के कार्यक्रमों के साथ । चलिये चलते हैं संवेदना स्थल पर जहां पहले से मौजूद हैं कुछ मित्र गण ...यहाँ किलिक करें 

हो जाये तो क्या बात है ...



आइये आज बिना किसी भूमिका के मैं आपको उनलोगों से मिलाऊं जो शायद आपको देखन में छोटन लगे पर घाव करें गंभीर ..... खिलखिलाती हंसी सी सुनीता सनाढ्य की एक चिट्ठी गंभीरता के नाम ...

प्रिय गंभीरता,(सुनीता सनाढ्य)


प्रिय गंभीरता,

My Photoतुम हमेशा अच्छी ही होती हो इसलिए ये नहीं पूछूंगी कि कैसी हो? बल्कि यह पूछूंगी कि तुम मेरे पास कब आओगी ?

मुझे तुमसे बहुत सी शिकायतें हैं.....हमेशा बड़े-बड़े लोगों के बीच ही उठती बैठती हो कभी तो मेरे पास भी आ जाया करो न...देखो अब उतनी भी छोटी नहीं रह गयी हूँ मैं...पूरे 42 की हो गयी हूँ फिर भी तुम मुझसे दूर क्यूँ भागती रहती हो?.....

देखो ना...सब मुझसे शिकायत करते रहते हैं हर समय कि य
े क्या बचपना लगा रखा है तुमने हर बात मे? क्यूँ थोड़ी गंभीरता नहीं ओढ़ती तुम ? अब तुम ही बताओ...कैसे ओढ़ूँ तुम्हें?...कितनी कोशिश करती हूँ तुम्हें बुलाने की पर तुम तो अपने आप को छूने तक नहीं देती मुझे तो तुम्हें ओढ़ूँ कैसे?

तुम कितनी सुंदर दिखती हो....सबको देखती हूँ तुम्हें ओढ़े हुए....बहुत मन करता है मेरा भी तुम्हें ओढ़ने का ...देखो न...मेरी ये चादर, जो अभी भी ओढ़े हुए हूँ मैं....यही... मेरे बचपने की....कितनी पुरानी हो गयी है...रंग भी उड़ गया है इसका....जगह जगह से फट भी गयी है....पर मुझे ना, ये बहोत प्यारी है सो इसे उतार कर नहीं रख पाती हूँ मैं....नहीं कर पाती इसे अपने से अलग...एक प्यार भरी गर्माहट देती है यह मुझे.....पर....सबके ताने सुन सुन कर अब चाहती हूँ कि इसे सबसे छुपा लूँ....ओढ़े तो रखूंगी मैं इसे पर इसी के ऊपर तुम्हें भी ओढ़ लूँगी...यह किसी को नहीं दिखेगी...बस खूबसूरत सी तुम ही दिखोगी मुझे अपने आप मे समेटे हुए तो किसी को शिकायत तो नहीं रहेगी न मुझसे....
प्लीज़ एक बार ही सही...सबकी खुशी के लिए आ जाओ मेरे पास....मुझे फोटो खिंचवाने का बहुत शौक है न वैसे भी सो एक बार तुम्हें ओढ़ कर फोटो खिंचवा लूँगी अपनी और फिर वैसा ही एक नकाब भी बनवा लूँगी....जब अकेली होऊंगी ना तब तुम्हें उतार फेकूंगी और लिपटी रहूँगी अपनी उसी फटी-पुरानी पर प्यारी सी बचपने की चादर में...बाहर निकलने से पहले फिर से तुम्हारा नकाब ओढ़ लिया करूंगी...

तो बताओ...कर सकती हो ना तुम इतना सा मेरे लिए?
आओगी न मेरे पास एक बार?,,,,जल्दी आना....नकाब बनवाना है मुझे तुम्हारा जल्दी ही....

तुम्हारे इंतज़ार में...

तुम्हारी....(नहीं नहीं...मैं तो मेरे बचपने की हूँ तुम्हारी नहीं...)
..........................

बचपन में जो हम सुनते हैं,पढ़ते हैं,जानते हैं ..... उम्र के साथ उसकी तस्वीर अलग होती है . 

प्रदक्षिणा(हेमा दीक्षित)मुझे कहना है ...


My Photo

मैंने छुटपन में पढ़ा था
और माना भी था कि ...

"भारत यानी इण्डिया एक कृषि प्रधान देश है ...
इसके निवासी
यहाँ की धरती मे
बोए गये बीजो से
उत्पन्न होने वाले
भांति-भाँति के स्वादों में
बहते और जीते है ..."

अब मैं जानती हूँ
और पहचानती हूँ कि ...

"भारत यानी इण्डिया एक भाव प्रधान देश है ...
यहाँ की सत्ताएँ
भाँति-भाँति की भावनाओं पर खेती करती है ...
और यह उमड़ता हुआ देश
भावनाओं की फसलों की लहरों में बहता है ...
कोई भी आता है या जाता है ...
मरता है जीता है ...
कहता  है सुनता है ...
जोड़ता है तोड़ता है ...
और यह उसकी लहरों में उठता और गिरता है ...
डूबता और तिरता है ...
जीता और मरता है ...
मारता और काटता है ...

सोता और रोता है ...
प्रलोभनों  के सर्कस में ,
भावनाओं की मौतों के कुँए से
खींचा हुआ पानी
हमारी अपनी ही माटी मे
हमारे ही सपनों की कब्रों पर
हमें एक गहरी नींद में खींचता है ...
और पलकों को जबरन मूंदता है ...

मुझे कहना है  ...
कि जागो ...

यह जागने का वक़्त है ...
एक बार फिर से
आज़ाद तरानों को गाने का वक़्त है ...
यह प्रभात फेरियों का वक़्त है ...

अब मिलवाती हूँ  तूलिका शर्मा से =
My Photoमैं स्त्री
एक किताब सी
जिसके सारे पन्ने कोरे हैं
कोरे इसलिए 
क्योंकि पढ़े नहीं गए 
वो नज़र नहीं मिली 
जो ह्रदय से पढ़ सके 

बहुत से शब्द रखे हैं उसमे 
अनुच्चरित.
भावों से उफनती सी
लेकिन अबूझ .
बातों से लबरेज़
मगर अनसुनी.
किसी महाकाव्य सी फैली 
पर सर्ग बद्ध
धर्मग्रन्थ सी पावन
किन्तु अनछुई .

तुम नहीं पढ़ सकते उसे 
बांच नहीं सकते उसके पन्ने
क्योंकि तुम वही पढ़ सकते हो
जितना तुम जानते हो .
और तुम नहीं जानते
कि कैसे पढ़ा जाता है 
सरलता से,दुरूहता को 
कि कैसे किया जाता है
अलौकिक का अनुभव 
इस लोक में भी ....

कई मुकाम ऐसे होते हैं, जो हमारे साथ होकर भी साथ नहीं होते =

अंजुमन: अहसासों की ज़मीं पर...डॉ गायत्री गुप्ता 'गुंजन')


गायत्री गुप्ता गुंजनकभी-कभी 
बैठे रहो
कैनवास के सामने
लगातार
पर नहीं बनता अक्स...
ज़िन्दगी की तरह,
केवल रेखाएँ ही बनती हैं
आडी-टेढी....

कभी-कभी 
कितना भी सँवारो
घँरौदे को
पर नहीं बनता
खूबसूरत...
ज़िन्दगी की तरह,
बार-बार ढह जाता है
समुन्दर के किनारे.....

कभी-कभी 
कितना भी समझाओ
मन को
प्यार से
पर नहीं सुलझती गिरहें...
ज़िन्दगी की तरह,
लगातार उलझती ही जाती है
एक के बाद एक गाँठ.....

क्यों नहीं होती?
निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती
ज़िन्दगी
मासूम बच्चे की तरह
जहाँ हमेशा प्यार खिले
अहसासों की ज़मीं पर.....!!

चलिये अब आगे के कार्यक्रम की ओर रुख करते हैं , पल्लवी सक्सेना कहती हैं : एक लंबी सड़क सी है ज़िंदगी ....कैसे ? आइये महसूस करते हैं उन्हीं के शब्दों में...यहाँ किलिक करें 

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

कहानियों में हम शब्द शब्द साँसें लेते हैं




अनिल कान्त -
कहने को तो कुछ भी कह दूँ..मगर बदलते दौर से डरता हूँ मैं..कब तक रहेगा यही मुखौटा चेहरे पर मेरे..खुद भी नहीं जानता हूँ मैं ... " 
कोई नहीं जानता असलियत कब तक होगी चेहरे पर 
या यह सहज होने का मुखौटा 
उम्र किसकी कितनी बाकी है ...................... कौन जानता है !

My Photo"यह कहानी मैंने कोई  दो बरस पहले अपने तमाम टुकड़ों को जोड़कर पूरी की थी और इस आशय के साथ कि यह प्रकाशित होगी इसे दो-तीन पत्रिकाओं में भेजा था . जहाँ तक मुझे जानकारी है यह कहानी नहीं छपी. आज सोचा कि क्यों ना इन जमा टुकड़ों को इस ब्लॉग पर ही प्रकाशित करूँ . "

बाहर शहर भर का उजाला था और भीतर नाईट बल्ब के अँधेरे में सुलगते दो इंसान । पारा अपने सामान्य स्वभाव से लुढ़क गया था । ब्लैंडर स्प्राइड के दो पटियालवी पैग गले का रास्ता नाप चुके थे और तीसरे को अभी कोई जल्दी नहीं थी । सिगरेट के धुएँ के मध्य कोई अनकही बात दबी थी । जिसे अभी बाहर आना था । और उसने अपने आने की दस्तक तीसरे पैग के सँवरने के दौरान दे दी थी ।

-"क्यों कर रहा है, ये सब ?" संजय गिलास आगे बढाते हुए बोला ।
-क्या ?
-"तू जानता है । मैं क्या और किस बारे में कह रहा हूँ ?" संजय ने खीजते हुए कहा ।

आदित्य ने गिलास थामा और कुछ नहीं बोला । संजय ने अगली सिगरेट सुलगा ली और लम्बा कश लेते हुए एक घूँट भरा । फिर हड़बड़ाहट में उठा और कमरे की एक दीवार से दूसरी दीवार तक जाकर, वापस लौट कर बैठते हुए बोला "तुझे हो क्या गया हा ? जहाँ सारी दुनिया अवसर पाते ही यू.एस. और यू.के. भागती है और तू किस्मत को धोखा देना चाहता है । इस अच्छी भली एम.एन.सी. की नौकरी को छोड़ कर, तू उस सरकारी नौकरी में जाने का फैसला कैसे कर सकता है ? और वो भी उस छोटे से पहाड़ी शहर में, जहाँ से दुनिया ठीक से दिखाई भी नहीं देती । और तुझे क्या लगता है कि तेरे ऐसा करने से दुनिया पीछे छूट जायेगी या तू खुद को उससे अलग कर लेगा ।"

-"मैं एकांत चाहता हूँ । इन सबसे दूर । इस भीड़ से, इस शोर से, इस भागती दौड़ती जिंदगी से ।" आदित्य ने लम्बी चुप्पी को तोड़ते हुए कहा ।
-और तू सोचता है कि तुझे एकांत प्राप्त होगा । तू किसको भ्रमित कर रहा है । किस्मत को, मुझे या अपने आपको । किन्तु माफ़ करना मेरे दोस्त । तू तब तक स्वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक कि उस अतीत को पीछे नहीं धकेलता । जिसके साथ तू प्रत्येक क्षण जीता है ।
-ऐसी कोई बात नहीं है, संजय ।
-"उस बात को तीन बरस होने को आये और तू है कि" संजय अपना गिलास खाली करते हुए बोला । फिर अगला पैग बनाने लगा । भूल जा उसे और नए सिरे से जिंदगी शुरू कर । वो भी कहीं अपने पति और बच्चों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी जी रही होगी ।

आदित्य ने सिगरेट के कशों के मध्य स्वंय को खामोश कर लिया । उसने यही आदत बना ली थी । संजय उसे हर दफा समझाता था और वह चुप्पी साध लेता था । ख़ामोशी, कुछ भी कहने से बचने का सबसे अच्छा औज़ार होती है । एक छोर से दूजे छोर तक पसरी हुई । अपने पूर्ण विस्तार के साथ स्वंय के होने का एहसास कराती सी । अदृश्य किन्तु स्पर्श की हुई ।

अंततः छह पैग ख़त्म कर लेने के बाद संजय पुनः उसी विषय पर लौट आया । असल में संजय का यही स्वाभाव था । जब तक वह अपनी बात पूरी नहीं कह लेता था, पीता रहता था । और आज तो एक तरह से अंतिम दिन ही था । कल आदित्य को चले जाना था । वह अपनी ओर से, किसी भी तरीके से, उसे रोक लेना चाहता था । वह जानता था कि उसका यूँ एकाएक दूर चले जाना, सही नहीं है । कोई इंसान स्वंय से कब तक भाग सकता है ।

-"तू कहे तो तेरा रेजिगनेशन कैंसिल करवा दूँ । वो एच.आर. मेरी परिचित है और अभी भी उसने वह रेजिगनेशन लैटर आगे नहीं बढाया है ।" संजय ने लगभग होश में आते हुए कहा ।
-"नहीं, उसकी आवश्यकता नहीं है । मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा ।" आदित्य ने प्रत्युतर में कहा । 
-क्या निश्चय कर लिया है ? अपने को धीमे-धीमे समाप्त कर लेने का ।
-"गुड नाईट" कहता हुआ आदित्य उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे में जाने लगा ।
-"ठीक है करो, जो करना है ।" संजय खीजते हुए बोला ।

घड़ी दो के टनटनाने की आवाज़ कर रही थी और संजय नींद के आगोश में जा चुका था । किन्तु आदित्य करवटें बदलते हुए उठ खड़ा हुआ । और सिगरेट जलाकर बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठ गया । एकाएक धुएँ के उस ओर चेहरा झलकता है । फिर शोर करती ट्रेन प्लेट फॉर्म से छूटती प्रतीत होती है । और एक ही पल में वह अपने अतीत में चला जाता है ।

वो अक्टूबर की कोई रात थी । आदित्य को हैदराबाद से दिल्ली की दस तीस की ट्रेन पकडनी थी । घडी की सुइयाँ अपनी आदत से तेज़ दौड़ती प्रतीत हो रही थीं । बीते दिनों में कंपनी ने जिस प्रोजेक्ट के सिलसिले में उसे हैदराबाद भेजा था, वह पूर्ण हो चुका था । और आज वह वापस दिल्ली को जा रहा था । वह जल्दबाजी में ऑटो रिक्शे से निकल स्टेशन की और दौड़ा । ट्रेन ने अलविदा की सीटी दे दी थी । आदित्य ने एक नंबर प्लेटफॉर्म से छूटती उस ट्रेन को दौड़ते हुए पकड़ा ।

उसने अपने उस इकलौते बैग को जंजीर में जकड़ते हुए सीट के नीचे खिसका दिया । और ऊपरी जेब से टिकट निकाल कर, अपनी होने वाली सीट का मुआयना करने लगा । तभी उसकी नज़र सामने की सीट पर, अपने सामान को दुरुस्त करती लड़की पर गयी । एक तेईस-चौबीस बरस की खूबसूरत लड़की का उसके सामने की सीट पर होना संयोग की बात थी । जबकि बाकी की चार सीटें रिक्त हों ।

अगला एक घंटा अपनी-अपनी सीट को अपनाने और बोगी के शांत होने में व्यतीत हो गया । धीमे-धीमे सभी यात्री अपने-अपने हिस्से की लाईट बुझाने लगे । यात्रियों को ट्रेन, नींद आने का सबसे सुखद स्थान प्रतीत हो रही थी । मानो वे सब इसमें यात्रा के लिए नहीं बल्कि सोने आये हों ।

तभी उस खूबसूरत सहयात्री ने कहा "यदि आपको कष्ट ना हो तो मैं ये लाईट बुझा दूँ, सोने का समय हो चला है ।" आदित्य ने ऊपरी सीट से झाँकते हुए देखा और एकटक देखता ही रहा । उसकी खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखें थीं, जो उसके चेहरे को दुनिया के बाकी खूबसूरत चेहरों से अलग करती थीं । उसने चादर ओढ़ते हुए फिर से अपनी बात दोहराई । आदित्य का ध्यान भंग हुआ और तब उसने कहा "जी बिल्कुल, मुझे कोई आपत्ति नहीं है" । लाईट बुझ गयी । जिसका अर्थ था कि सो लेने के सिवा कोई बेहतर विकल्प हाथ में नहीं है । और अंततः कुछ क्षण सोचते हुए आदित्य भी नींद की गोद में चला गया ।

सुबह के आठ बज गए थे, जब आदित्य की आँख खुली । उजाले में ट्रेन शोर मचाती हुई चली जा रही थी । याद हो आया कि वह ट्रेन में है और दिल्ली को वापस जा रहा है । उसने नीचे को झाँक कर देखा । वो अपनी सीट पर बैठी किताब पढने में मग्न थी । खिड़की के रास्ते से आती मुलायम धूप, रह-रह कर लुका-छुपी का खेल, खेल रही थी । मालूम होता था, सुबह का सूरज उसके चेहरे की आभा से लजा रहा हो ।

आदित्य सीट पर से उतरकर, चप्पलों को संभालते हुए, नित्य कर्म करने की ओर चल दिया । वापसी में चेहरे को धुलकर, स्वंय के जागने की निशानी ओढ़ आया । और आकर नीचे की ही रिक्त सीट पर बैठ गया । उसने बाहर की ओर झाँका । खिड़की के उस ओर से पेड़, खेत और उनमें काम करते लोग पीछे की ओर दौड़ते से जान पड़ रहे थे ।


बीते क्षणों में वह कभी बाहर की दुनिया को देखता तो कभी सामने बैठी उस खूबसूरत सहयात्री को । जो अब भी उतनी ही दिलचस्पी के साथ किताब पढ़ रही थी । जिस के बाहरी आवरण पर अनूठी चित्रकला का प्रदर्शन करते हुए, कुछ आकृतियाँ नज़र आ रही थीं । प्रथम दृष्टि में वह हिंदी की किताब जान पड़ती थी । तभी चाय वाले की आवाज़ सुनाई दी "चाय, चाय, चाय" । उसके पास में आते ही, आदित्य ने कहा "दोस्त एक चाय देना" । कप को हाथ में थामते हुए आदित्य ने पर्स निकाला तो याद हो आया कि सभी छुट्टे तो खर्च हो चुके थे और अब उसके पास केवल पाँच सौ के नोट हैं । वह मुस्कुराते हुए नोट को चाय वाले को थमाता है ।
-"क्या साहब सुबह-सुबह मैं ही मजाक के लिए मिला हूँ" चाय वाला प्रतिक्रिया देता है ।
-दोस्त छुट्टे तो नहीं हैं मेरे पास ।
-देख लो साहब होंगे या किसी से करा लीजिए ।
-"अब इस वक़्त कहाँ से करा लूँ ? मैडम आपके पास होंगे पाँच सौ के छुट्टे ?" सामने बैठी लड़की से पूँछते हुए आदित्य ने कहा ।
-"नहीं मेरे पास तो नहीं हैं" उसने किताब से नज़रें उठाते हुए कहा ।
-"ठीक है दोस्त तो फिर तुम अपनी यह चाय वापस रखो" आदित्य ने कप आगे बढाते हुए कहा ।
-"अरे आप चाय पी लीजिए । मैं पैसे दिए देती हूँ । आप बाद में मुझे दे देना ।" लड़की ने आदित्य को देखते हुए कहा ।
-"जी शुक्रिया" कहते हुए आदित्य ने कप को अपने पास रख लिया ।

लड़की पुनः अपनी किताब में व्यस्त हो चली । घडी नागपुर के आने का वक़्त बता रही थी । हालाँकि लगता नहीं था कि नागपुर अभी कुछ ही मिनटों में आ पहुँचेगा । और आते ही संतरे की सुगंध फैला देगा । जहाँ दौड़ते हुए लोग खाने-पीने की वस्तुएँ खरीदेंगे । और ट्रेन कुछ देर सुस्ता लेगी ।

-"शुक्रिया, आपके कारण चाय पी रहा हूँ " आदित्य ने चाय की चुस्की भरते हुए कहा ।
-लड़की प्रत्युतर में हौले से मुस्कुरा दी और पुनः पढने लगी ।
-"आप हिंदी की किताबों को पढने का शौक रखती हैं" आदित्य ने प्रश्न पूँछने के लहजे में कहा ।
-"जी, क्यों ? हिंदी में कोई बुराई नज़र आती है आपको" लड़की ने प्रत्युतर में कहा ।
-नहीं, बुराई तो नहीं किन्तु आज के समय में जब सभी अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं । और उसे पढना और बोलना अपनी समृद्धि समझते हैं । आप अरसे बाद मिली हैं जो हिंदी का कोई उपन्यास पढ़ते हुए दिखी हैं ।
-"जी, कम से कम मैं तो ऐसा नहीं सोचती । मुझे हिंदी से अथाह प्रेम है । हिंदी में कहानियाँ, कवितायें पढना मुझे अच्छा लगता है । हाँ लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं है कि मैं अंग्रेजी में कुछ नहीं पढ़ती । उसमें भी मुझे दिलचस्पी है ।" लड़की ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ।
-"क्या कहा ? अथाह प्रेम । अरे वाह आप तो शुद्ध हिंदी का प्रयोग करती हैं ।" आदित्य ने उसकी इस बात पर कहा ।
-"बस पढ़कर ही सीखा है" लड़की मुस्कुराते हुए बोली ।
-"वाह, आप तो बहुत बड़ी हिंदी प्रेमी निकलीं" आदित्य मुस्कुराते हुए बोला ।
- आप सिर्फ बातें बनाना जानते हैं या कुछ और भी करते हैं ?
-आदित्य उसकी इस बात पर पुनः मुस्कुरा दिया और बोला "बस यही समझ लीजिए"
-क्यों आप कोई नेता हैं जो केवल बातें बनाना जानते हैं ।
-आदित्य उसकी इस बात पर खिलखिला कर हँस दिया और कप को खिड़की के रास्ते बाहर फैंकते हुए बोला "वैसे जिसे आप पढ़ रही हैं । वह काम मैं भी कर सकता हूँ ।"
-क्या, पढ़ सकते हैं ?
-नहीं, लिख सकता हूँ ।
-अच्छा, तो आप लेखक हैं ?
-नहीं, लेखक तो नहीं किन्तु कभी-कभी लिख लेता हूँ ।
-अच्छा, सच में ? फिर तो बड़े काम के आदमी निकले आप । क्या लिखते हैं आप ?
-कुछ खास नहीं, बस शब्दों को आपस में प्रेम करना सिखाता हूँ ।
-मतलब ?
-"मतलब कि कभी-कभी कवितायें लिख लेता हूँ " आदित्य ने उत्तर दिया ।
-"अरे वाह, कैसी कवितायें लिखते हैं आप ? " लड़की गहरी दिलचस्पी लेते हुए बोली ।
-कोई ख़ास विषय नहीं, बस यूँ, जब मन में जो आया बस वही लिख देता हूँ । 
-"अच्छा, तो फिर सुनाइये न, अपना लिखा कुछ" लड़की खुश होते हुए बोली ।
-अच्छा ठीक हैं सुनाता हूँ किन्तु आपको एक वादा करना होगा कि आप बदले में मुझे चाय पिलायेंगी । अभी तक मेरे पास छुट्टे नहीं आये हैं ।
-इस बात पर वह मुस्कुरा गयी और बोली "जी बिल्कुल, पक्का" 
आदित्य उसे अपनी एक कविता सुनाता है । वह प्रशंसा करते हुए पुनः एक और कविता सुनाने का आग्रह करती है । आदित्य अपनी दो-तीन कवितायें और सुनाता है ।

-सचमुच आप बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं । मन प्रसन्न हो गया सुनकर ।
-अच्छा, सच में । तो अब केवल प्रशंसा से काम नहीं चलेगा । अपना वादा पूरा कीजिए और मुझे चाय पिलाइए ।
-जी, बिल्कुल ।

अगले कुछ क्षणों में चाय वाला टहलता हुआ वहाँ आ पहुँचा और दोनों ने चाय पी । इस बीच में किताब औंधे पड़े हुए सुस्ता रही थी । यूँ कि उसे अच्छा अवसर मिल गया हो अपनी थकान दूर करने का । ट्रेन की गति धीमी हो चली थी, जो एहसास करा रही थी कि नागपुर बस आ पहुँचा । कुछ यात्री अपने शहर पहुँचने की ख़ुशी मना रहे थे और सामान को बटोर कर, अपने कन्धों पर लाद, दरवाजे को घेरे खड़े थे । आदित्य भी स्टेशन पर उतर, छुट्टे कराने के उद्देश्य से उनके पीछे खड़ा हो गया । ट्रेन प्लेटफोर्म के सहारे रेंगने लगी और अंततः दम तोडती सी, बेजान हो गयी ।

उतरकर वह कई शक्लों से होता हुआ पहले एक दुकान पर पहुँचा, फिर दूसरी, तीसरी और इस तरह से उसने कुछ फल, नमकीन, पानी की बोतल और बिस्कुट के पैकेट खरीद लिए । वापसी में ठेले पर से ताज़ी गर्म पूडियां और सब्जी को थामे हुए वह ट्रेन में चढ़ गया ।

-"लीजए अपना उधार ।" बैठते हुए आदित्य बोला ।
-"जी नहीं । अब आपकी बारी है, चाय पिलाने की ।" लड़की मुस्कुराते हुए बोली .
-ये भी ठीक है । फिलहाल ये गरमा गर्म पूड़ियाँ खाइए ।
-"ये आपने बहुत अच्छा किया । सुबह-सुबह नाश्ता हो जायेगा ।"अपना हिस्सा सँभालते हुए लड़की ने कहा ।

खाने के बीच में ट्रेन चल दी थी । और चाय वाले के आ जाने पर, आदित्य ने अपना आधा उधार चुकता कर दिया था । बाकी के सहयात्री पेट भर जाने पर चहकने की मुद्रा में आ गए थे । मानों अब ट्रेन के सफ़र का आनंद दोगुना हो चला हो । कुछ बच्चे एक दरवाजे से, दूसरे दरवाजे की ओर दौड़ लगा रहे थे । लम्बी यात्रा करने वालों को ट्रेन ने अपना लिया था ।


-"तो आप करते क्या हैं ?" लड़की ने आदित्य से पूँछा ।
-"जी कुछ खास नहीं । एक सॉफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हूँ ।" आदित्य ने खिड़की के बाहर से ध्यान भीतर लाते हुए कहा ।
-तो आप सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं ?
-जी
-कहाँ ?
-दिल्ली में काम करता हूँ और प्रोजेक्ट के सिलसिले में हैदराबाद गया था ।
-"एक बात, जो मैं आपसे कम से कम अवश्य पूँछना चाहूँगा" आदित्य पूरी तरह वहाँ आते हुए बोला ।
-क्या ?
-यही कि आपका नाम क्या है ?
-वो इस बात पर मुस्कुरा गयी और बोली "निशा चौहान और मैं पंजाब नेशनल बैंक में असिस्टेंट मैनेजर हूँ । काम के सिलसिले में हैदराबाद गयी थी और अभी भोपाल में ही कार्यरत हूँ ।"
-अरे वाह । इसका मतलब में एक बैंक मैनेजर के सामने बैठा हूँ ।
-वो हँस दी और बोली "बातें बनाना तो कोई आप से सीखे । अरे हाँ आपका नाम क्या है ? मैं तो पूँछना ही भूल गयी ।"
-आदित्य
-एक पल के लिए लगा उसने नाम दोहराया हो....आदित्य

बाद के भोपाल तक के सफ़र में दोनों के मध्य ढेर सारी बातें हुईं । जिनमें एक दूसरे की पसंद, फिल्मों, कहानियों, लेखकों और परिवार के सदस्यों से जान-पहचान जैसे विषय शामिल थे । और उसी दौरान आदित्य ने निशा के लिए कविता लिखी थी । जिसने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने आदित्य से उसकी डायरी में कैद चन्द कविताओं की माँग कर ली । जिसे आदित्य ने ख़ुशी-ख़ुशी दूसरे पन्नों पर उतार कर दे दिया ।

-"और हाँ, आपका ऑटोग्राफ और पता भी" कविताओं को लेते हुए निशा ने कहा ।
-वो भला क्यों ?
-अरे, इतना हक़ तो बनता है आपकी प्रशंसिका का ।
-प्रत्युतर में मुस्कुराते हुए, आदित्य ने कविताओं के अंत में पुनः अपनी कलम चला दी । जिसकी स्याही में आदित्य का पता भी शामिल था ।

सुखद समय जल्दी ही व्यतीत हो चला था और कुछ ही समय दूर, भोपाल स्टेशन प्रतीक्षा में था । ट्रेन सुस्त हो चली थी । मालूम होता था कि भोपाल आ पहुँचा । निशा ने अपना सूटकेस बाहर की ओर निकाला और हाथ आगे बढाते हुए बोली....अच्छा चलती हूँ....आदित्य उठ खड़ा हुआ...रुकिए मैं आपको बाहर तक छोड़ देता हूँ । आदित्य ने उसका सूटकेस बाहर निकाला और दरवाजे के साथ ही खड़ा हो गया । निशा के चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी....देखो तो वक़्त का पता ही नहीं चला....प्रत्युतर में आदित्य भी मुस्कुरा दिया । फिर निशा ने हाथ आगे बढाया....अच्छा तो अब चलती हूँ । आदित्य ने हाथ मिलाते हुए कहा "अपना ख्याल रखना" ।

निशा सूटकेस को थामे सीढ़ियों पर चढ़ती हुई नज़र आ रही थी । ट्रेन ने छूटने का इशारा दे दिया था । आदित्य पुनः अपनी सीट पर आ बैठा । और कुछ ही समय में भोपाल स्टेशन बहुत पीछे छूटता नज़र आने लगा । जहाँ कहीं निशा रहती होगी ।

कुछ पल तक आभास होता रहा कि निशा अभी यहीं है । उसके पीछे छूट गयी, उसकी महक अब भी हवा में तैर रही थी । आदित्य ने उस एहसास को भुलाते हुए आँखें मूँद लीं और सोने की कोशिश में लग गया । बचा हुआ दिल्ली तक का सफ़र उसने सोकर बिताया । और सुबह होते ही अपने पुराने शहर में पहुँच गया । वैसे भी बीते हुए दिनों में दिल्ली उसे बहुत याद आ रहा था ।

ट्रेन के सफ़र को तीन महीने बीत चुके थे । और स्मृतियों में केवल निशा का नाम शेष रह गया था । बसंत अपने आने की दस्तक देने लगा था । धूप अब भी गुनगनी लगती थी । दिल्ली पुनः रंगीन हो चली थी । मालूम होता था कि अब तक कोहरे में छिपी हुई थी । आने वाले हफ्ते में पुस्तक मेला लगने जा रहा था । आदित्य के लिए यह एक ख़ुशी का सबब था कि अबकी बार सप्ताहांत किसी अच्छी जगह बिताने को मिलेगा । और वह बेसब्री से अंतिम दो दिनों की प्रतीक्षा करने लगा ।

साहित्यिक खजाने के मध्य में आकर आदित्य मंत्रमुग्ध था । उसने आधा बैग अपनी पसंदीदा किताबों से भर लिया था और उसकी इच्छा बढती ही जा रही थी । कई किताबों को टटोलता हुआ, वह अंतिम छोर पर जा पहुँचा । उस दुबके हिस्से में कई बेशकीमती किताबें मौजूद थीं । जिनमें आदित्य खो सा गया था । तभी एकाएक पीछे से आवाज़ आई "अरे आदित्य, आप" । उसने पलटकर देखा, निशा सामने खड़ी थी । एक पल को उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वे दोनों आमने-सामने खड़े हैं ।

-"आप यहाँ कैसे ?" आदित्य ने मुस्कुराते हुए पूँछा ।
-"बस, जैसे आप, वैसे मैं" निशा प्रत्युतर में बोली ।
-मतलब ?
-अरे बाबा, किताबें खरीदने आई हूँ । मेरी बुआ जी दिल्ली में ही रहती हैं । उन्ही के यहाँ छुट्टी लेकर आई थी ।
-आपने बताया नहीं कि आपकी बुआ जी यहाँ रहती हैं ।
-आपने पूँछा भी तो नहीं ।

फिर दोनों एक-दूसरे की बातों पर खिलखिलाकर हँस दिए । अगले ही कुछ क्षणों में दोनों मैदान में बैठे कॉफी पी रहे थे । दोनों अपने-अपने हिस्से की ख़ुशी छुपा नहीं पा रहे थे । जो रह-रह कर उनकी बातों के साथ बही जा रही थी ।

-"अच्छा, हाँ, मैं तो बताना ही भूल गयी । मैं कल ही आपको यह चैक भेजने वाली थी ।" अपने पर्स की तलाशी लेते हुए निशा ने कहा ।
-किस बात का चैक ?
-"आपकी कविता को मैंने अपने बैंक में होने वाली वार्षिक प्रतियोगिता में दिया था । और आपकी कविता को प्रथम पुरस्कार मिला है । ये रहा आपका पाँच हज़ार का चैक ।" आदित्य को पकड़ाते हुए निशा ने कहा ।
-ये मेरे नाम से कैसे ?
-अरे ये मेरी चैक बुक से कटा हुआ है । बैंक की ओर से मिला चैक मेरे नाम का था ।
-"अब ये मैं नहीं रख सकता । जीती आप हैं । आप ही जानें ।" आदित्य ने चैक वापस करते हुए कहा ।
-कविता तो आपकी ही थी । तो यह आपका ही हुआ न ।
-अच्छा ठीक है । न मेरा और न आपका । इसकी रकम को किसी अनाथालय में जमा करा देते हैं ।
-हाँ ये बेहतर है । और मेरी ट्रीट ?
-"वो तो आपको वैसे भी मिल जायेगी ।" आदित्य ने मुस्कुराते हुए कहा ।

अगले रोज़ आदित्य, निशा को साथ ले अनाथालय गया । कुछ घंटे वहाँ बिताने के बाद और दान की रस्म अदायगी करते हुए, वे लौट पड़े । वापसी में दिल में सुकून की हलचल हो रही थी । मालूम होता था कि एक सुखद एहसास उनके साथ चला आया है ।

-लम्बी चुप्पी को तोड़ते हुए, आदित्य ने निशा से पूँछा "किस रेस्टोरेंट में चलना है ।"
- "रेस्टोरेंट कोई भी हो, बस खाना लज़ीज होना चाहिए ।" निशा मुस्कुराते हुए बोली ।
-जी, हुज़ूर ।

अगले ही क्षणों में, वे एक रेस्टोरेंट में थे । आदित्य जाते ही कुर्सी पर बैठ गया । निशा खड़े हुए मुस्कुराने लगी । "ओह, माफ़ करना" कहता हुआ आदित्य उठा और निशा के लिए हौले से कुर्सी को पीछे धकेल कर, बैठने के लिए आमंत्रित किया । निशा मुस्कुराते हुए बैठ गयी ।

कितनी तो अनगिनत बातें थीं । जो दोनों ने अपने पास जमा कर रखी थी । बातों के मध्य नए-नए विषय जन्म ले लेते थे । और इनके मध्य में किसी बात पर निशा का मासूमियत से हँस देना । अपने बालों को रह-रह कर कानों के पीछे धकेलते रहना । खाने के मध्य में चोरी से आदित्य को देखना । और कहना कि चुप क्यों हो । उस रोज़ तो बहुत बोल रहे थे । प्रत्युतर में आदित्य का मुस्कुरा जाना शामिल था ।

बुआ के घर जाने से पहले, निशा ने आदित्य को बताया कि वह कल भोपाल चली जायेगी । आज ही उसकी छुट्टियां ख़त्म हो रही हैं और कल के बाद से उसे ऑफिस जाना है । निशा विदा लेते हुए, आदित्य से उसका मोबाइल नंबर ले जाना नहीं भूली । जो उनकी दोस्ती के दिनों के लिए आवश्यक हो गया था ।

भोपाल पहुँचने पर निशा ने फ़ोन किया । जो फिर एक आदत में तब्दील हो गया । कभी आदित्य फ़ोन करता तो कभी निशा । मिनटों का स्थान पहले घंटों ने लिया और फिर कई दफा तो सारी रात बीत जाती । बातें थीं कि, एक ख़त्म होती तो दूजी उपज आती । अब दोनों को ही इस बात का एहसास हो चला था कि उनका रिश्ता अब केवल दोस्ती तक सीमित नहीं रहा । वे उसकी परिधि के बाहर जा चुके हैं । किन्तु यह केवल एक अनकहा सच था । जिसे किसी ने कबूल नहीं किया था । यह केवल मौन स्वीकृति थी कि वे किसी भी विषय को छू सकते थे । अपना रूठना जता सकते थे । रात-रात भर, एक दूसरे को मना सकते थे । उन दिनों में निशा आदित्य को 'आदि' कहने लगी थी और आदित्य निशा को आप से तुम ।

दो महीने बाद, निशा का दिल्ली आना हुआ । जो संयोगवश ना होकर, पूर्व नियोजित था । वे दोनों जब मिले तो उनके मध्य चुप्पी पसर गयी । कहने को कितना कुछ तो था । किन्तु वह क्या था जो रोके हुए था । आने से पहले दोनों ने क्या-क्या तो सोचा था । कि ये कहेंगे या वो कहेंगे । किन्तु मौन टूटे नहीं टूट रहा था । अंततः आदित्य बोला "तो अबके तुम्हारी बारी है, ट्रीट देने की" । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये, जो अक्सर ही उसके खुश होने को जताते थे ।

-"हाँ, हाँ, क्यों नहीं । कहाँ चलना है ? वहीँ, उसी रेस्टोरेंट में ?" निशा चहकते हुए बोली ।
-नहीं, वो तो जब चाहे खा सकते हैं ।
-तो फिर क्या खाना है, ज़नाब को ?
-एक अर्सा हो गया । मैगी नहीं खायी । सूजी का हलवा नहीं खाया । घर का खाना नहीं खाया ।
-अरे तो ये सब भी खिला सकते हैं आपको । हमारी बुआ के घर चलो ।
-अच्छा, सच में ।
-हाँ, बिल्कुल । यदि आप की दिली ख्वाहिश यही सब खाने की है तो ।
-क्यों ? तुम्हारी बुआ को ऐतराज़ नहीं होगा कि किसको ले आई घर पर ।
-जी नहीं, हमारे दोस्तों का हमेशा स्वागत है, उनके घर पर ।
-अच्छा, यदि ऐसा है तो चलते हैं ।

घर पर जाकर मालूम चला कि बुआ जी और फूफा जी कहीं बाहर जा रहे हैं । और ये जानने पर कि आदित्य ख़ास तौर पर आमंत्रित हुआ है । उन्होंने निशा को जाते-जाते समझा दिया कि बिना कुछ खाए, आदित्य को जाने न दिया जाए । अब केवल वे दोनों घर में थे । और आदित्य की दिली ख्वाहिश को पूरा करने के लिए निशा ने मैगी, सूजी का हलवा और कॉफी बनायीं ।

-"शादी क्यों नहीं कर लेते ? रोज़ ही घर का खाना खाया करना" मैगी और हलवा ख़त्म हो जाने और कॉफी के घूँट के मध्य निशा ने कहा ।
-बहुत देर की ख़ामोशी के बाद आदित्य ने कहा "किससे ?"
-कोई तो होगी ऐसी । जिससे शादी कर सकते होगे ।
-"मुझे तो कहीं नज़र नहीं आती" आदित्य ने गलत उत्तर देते हुए कहा ।

निशा अपनी जगह से उठकर, खाली हुए दोनों कप लेकर रसोई में जाने लगी । कप उठाते हुए ही उसकी आँख में आँसू भर आये थे । जिन्हें उसने रसोई में जाकर बहाया । पीछे से आदित्य ने जाकर उसे गले से लगा लिया । "अरे तुम तो रोने लगीं । मैं तो मजाक कर रहा था । अच्छा बाबा, आई लव यू" निशा के आँसुओं को उंगली पर लेते हुए आदित्य बोला । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये । और वो पुनः आदित्य के गले से लग गयी । एहसास होता है कि ना जाने कितने समय से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए हैं ।

अबके निशा जो भोपाल गयी तो पीछे छोड़ गयी, भविष्य के सपने और मीठी यादें । दोनों ने आने वाले समय में शादी करने का निर्णय लिया था । भविष्य से बेखबर, वे वर्तमान में खुश थे । इस दृढ विश्वास के साथ कि निशा अपने पिताजी को अंतर्जातीय विवाह के लिए मना लेगी । दोनों अपनी पूरी जिंदगी, एक दूजे के साथ बिताने का हिसाब कर चुके थे ।

उनके प्यार को लगभग एक साल बीतने को हो आया था । और इस बीच वे कई बार एक-दूसरे से मिल चुके थे । मौका पाते ही निशा दिल्ली चली आती या सप्ताहांत में आदित्य भोपाल चला जाता । दिन बड़े सुकून भरे थे । एहसास होता था कि अभी तो शुरू हुए हैं । अभी तो एक-दूजे का हाथ थामा है । अभी तो सपने बुनने शुरू किये हैं ।

सुखद समय का बहुत जल्द ही अंत हो गया । जब निशा ने आदित्य के बारे में, अपने पिताजी को बताया । उन्होंने साफ़ कर दिया था कि यह शादी किसी भी हालत में नहीं हो सकती । निशा भी कहाँ हार मानने वाली थी । उसने अपना स्थानांतरण दिल्ली करा लिया । और घर पर साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि चाहे जो हो जाए वह आदित्य से ही शादी करेगी । वह धीमे-धीमे अपने घर से विच्छेदित सी हो गयी थी । तभी उसकी माँ ने उसे एक बार घर आने को कहा । और वह माँ के लिए भोपाल चली गयी ।

उस रात निशा के पिताजी ने किसी लड़के का फोटो दिखा कर, जबरन शादी करने का दबाव बनाया । निशा ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि उसके परिवार के सदस्य ऐसा करेंगे । उसने सुबह होते ही दिल्ली जाने के, अपने इरादे के बारे में बता दिया । उसके पिताजी ने कुछ नहीं कहा । और वह अपने पीछे रोती, बिलखती माँ को छोड़ कर चली आई ।

दो रोज़ बाद भोपाल से माँ का फ़ोन आया कि पिताजी अस्पताल में भर्ती हैं । उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की है । खबर पाते ही निशा ने आदित्य को सब बताया और भोपाल को रवाना हो गयी । अस्पताल में पिताजी बेबस, लाचार प्रतीत होते थे । लगता था कि दान में उसके हिस्से की खुशियाँ माँगना चाहते हों ।

अगले दो रोज़ बाद अस्पताल से घर पहुँचने की रात को वे निशा के कमरे में आये और अपना सर उसके क़दमों पर रख दिया । एक ही क्षण में उन्होंने निशा की सारी खुशियाँ माँग लीं । अब निशा द्वन्द में फँसी थी । एक ओर वो जिसने उसे पाला, पढाया, लिखाया और काबिल बनाया । दूसरी ओर आदित्य, जिसके साथ वह जीवन भर खुश रहेगी । फिर अगले ही क्षण ख़याल हो आया कि, क्या वह जीवन भर अपने पिताजी की मौत का कारण बनकर जी सकेगी ? क्या वह खुश रह सकेगी ? और उसने पिताजी से वादा किया कि जैसा वो चाहते हैं, वैसा ही होगा ।

वह अंतिम बार के लिए दिल्ली जाना चाहती थी । और आदित्य को अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी । उसने घर पर ऑफिस के काम का कह, कुछ दिन दिल्ली हो आने का निर्णय लिया । और भोपाल से चली आई ।

बीते दिनों में आदित्य और निशा के मध्य कई मुलाकातें हुई, लम्बी-लम्बी बातें हुईं किन्तु हासिल कुछ न हुआ । और अंततः निशा ने आदित्य को नयी जिंदगी शुरू करने के लिए कहा । यह कोई निर्णय नहीं था अपितु एक बेबसी थी । एक जान को बचा लेने की लाचारी । जिसके आगे उस क्षण, सब छोटा मालूम होता था । हारकर आदित्य ने निशा के रास्ते से हट जाना बेहतर समझा । जो आगे कहाँ जाएगा, उसका निशा को भी पता नहीं था ।

उस आखिरी के रोज़ ट्रेन प्लेटफॉर्म से छूटने को थी और आदित्य ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए, अंतिम अलविदा कहना चाहा । उस क्षण, उसका दिल यही दुआ कर रहा था कि यह ट्रेन छूट जाए । दिल्ली का भोपाल से हर सम्बन्ध विच्छेदित हो जाए । कोई ट्रेन, कोई वाहन वहाँ को न जाता हो । बस दिल्ली अपने आप में एक दुनिया हो । जिसमें वो और निशा ख़ुशी-ख़ुशी रह सकें । किन्तु यह एक भ्रम था और कुछ नहीं । दिल्ली दुनिया का एक बहुत छोटा हिस्सा थी और वह एक मामूली आदमी ।

ट्रेन चली गयी और वह प्लेटफॉर्म की बैंच पर बैठा था । निपट अकेला, शून्य में निहारता हुआ । 

तभी आने वाली गाडी की घोषणा सुनाई पड़ती है । उसे होश आता है । जैसे नींद में से जागा हो । और वह स्वंय को, तीन बरस के बाद, इस फ़्लैट के बरामदे में, आराम कुर्सी पर पाता है । जहाँ पास के ही कमरे में संजय अर्धमूर्छित सा लेटा है । नाईट बल्ब अभी भी उसी तरह जल रहा है । सिगरेट राख में तब्दील हो चुकी है । वह उठता है और बल्ब को बुझाने से पहले, घड़ी की ओर देखता है । वह सुबह के पाँच बजाने को थी । याद हो आता है कि सुबह सात की ट्रेन पकडनी है । वह तौलिया लेकर बाथरूम में चला जाता है । और बाहर आकर अपना बैग और सूटकेस सँभालने लगता है । एकाएक उसे संजय का ख्याल हो आता है । वह एक कागज़ पर अपना नया पता लिखकर, उसके सिरहाने की डायरी में रख देता है । और फिर सामान उठाकर बाहर चल देता है । अपने पीछे एक जाने पहचाने शहर को छोड़कर, एक अंजान कस्बे की ओर । 

नया क़स्बा:

आसमान में तारे टिमटिमा रहे हैं । चाँद पूरा खिला हुआ है । तीखी हवा को चीरती हुए, ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर आ रुकी है । आदित्य अपना बैग और सूटकेस बाहर निकालता है । साथ में एक परिवार और भी उतरा है । कोई उनके लिए वहाँ पहले से मौजूद है । वे गले मिलते हुए, कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गए हैं । सफ़ेद कमीज पर काले सूट को पहने हुए साहब से वह कुछ पूँछता है । वह हाथ का इशारा करते हुए स्टेशन की कमी को गिनाता है । काले लिबाज़ को पीछे छोड़ते हुए, आदित्य आगे की ओर बढ़ जाता है । वहाँ एक-दूसरे से चिपकी हुई बैंच, सर्दी से बचने का जतन कर रही हैं । कोई शौल ओढ़े हुए बैठा है । आदित्य वहाँ पहुँच कर, उसके पीछे की बैंच पर बैठ जाता है । पैंट की तलाशी लेते हुए सिगरेट की डिब्बी निकालता है और माचिस की तीली को जलाकर, बुझा देता है । धुआँ आस-पास तैरने लगता है । जो अपनी सरहद को पार करते हुए, पीछे खेलने लगता है । पीछे से खाँसने की आवाज़ आती है । वह उठ खड़ा होता है और टहलने लगता है । तेज़ हवा का झोंका आया और शौल उसके पास जा गिरी । वह शौल उठाकर बैंच के पास पहुँचा है । और वह क्षण फ्रीज़ हो जाता है । दोनों इतने बरस बाद एक-दूसरे के सामने थे । आदित्य को उस क्षण विश्वास ही नहीं होता कि वह निशा को देख रहा है ।

-"निशा, तुम ?" आदित्य अपनी जड़ता समाप्त करते हुए बोलता है । 
-निशा प्रत्युतर में शौल ओढ़ते हुए मुस्कुराती है ।
-यहाँ कैसे ?
-यहाँ के नवोदय विद्यालय में पढ़ाती हूँ ।
-"अच्छा, तो बैंक की नौकरी कब छोड़ दी ?" आदित्य उसी बैंच पर बैठते हुए सवाल करता है .
-"अब तो बहुत दिन हो गए । पिछले एक बरस से पढ़ा रही हूँ ।" निशा बीते हुए समय से वर्तमान में आते हुए कहती है । 
-"अच्छा" आदित्य निशा के चेहरे को देखते हुए कहता है ।
-और आप ?
-मैंने भी सरकारी नौकरी पकड़ ली है । आज ही ज्वाइन करनी है ।

निशा अगले क्षण खामोश हो जाती है । बीते हुए समय का कोई प्रश्न नहीं करती । आदित्य पुनः सिगरेट जला लेता है और उठकर टहलने लगता है । और जाकर प्लेटफॉर्म की नोक पर खड़ा हो जाता है । फिर से तेज़ नुकीली हवा का झोंका आता है । आदित्य भीतर तक कपकपा जाता है "हूँ-हूँ-हूँ, बहुत ठण्ड है" । निशा अपने बैग से नया शौल निकाल कर देती है "इसे ओढ़ लीजिए, नहीं तो ठण्ड लग जायेगी" । आदित्य शौल ओढ़ कर फिर से बैंच पर बैठ जाता है । और इधर-उधर नज़रें दौडाने लगता है "चाय वाला कहीं दिखाई नहीं देता" । निशा अपने बैग से, थर्मस निकाल कर, कप में चाय उढेल कर देती है "मैंने पहले ही चाय वाले से थर्मस भरवा लिया था, जब वह दुकान बंद करके जा रहा था" । आदित्य कप को पकड़ते हुए, अपने बैग में कुछ तलाशने लगता है ।

-क्या हुआ ?
-अरे कुछ खाने के लिए देख रहा था ।
-"रुको मेरे पास कुछ नमकीन और बिस्कुट रखे हैं ।" निशा अपने बैग को खोलते हुए बोली । 
-"अरे मेरे पास भी गुजिया हैं, जो घर से लौटते समय माँ ने रखी थीं ।" आदित्य बैग से डब्बा निकालते हुए बोलता है । 
-अच्छा ।
-"हाँ लो, तुम भी खाओ" आदित्य को याद था कि निशा को माँ के हाथ की गुजिया बहुत पसंद है ।
-"माँ कैसी है ? बड़ी किस्मत वाली होगी आपकी बीवी, जो इतना प्यार लुटाने वाली माँ मिली है" निशा गुजिया लेते हुए बोली ।
-जैसी पहले थी । लेकिन किस्मत ने माँ का साथ नहीं दिया ।
-क्या मतलब ?
-"प्यार लुटाने के लिए उनकी बहू का होना भी बहुत जरुरी है ।" चाय ख़त्म करते हुए आदित्य बोला ।
-"आदि...." कहते हुए निशा के चेहरे पर ढेर सारे प्रश्न उभर आये ।
-खैर मेरा छोडो । तुम बताओ । तुम्हारे पति ने कैसे आ जाने दिया, इस छोटे सी जगह ।

प्रत्युतर में निशा भरी आँखों के साथ खामोश हो गयी । जिस अतीत से बचने की कोशिश में वह यहाँ आई थी । आज वह प्रश्न बनकर सामने आ खड़ा हुआ । आदित्य ने अगले क्षण सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कहा "उत्तर नहीं दिया" । निशा ख़ामोशी से नमकीन और बिस्कुट की पैकेट बैग में रखने लगी । आदित्य को यह ख़ामोशी चुभने लगी और उससे रहा नहीं गया । और उसकी गीली आँखों में झांकते हुए बोला "क्या हुआ ? तुम मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देती" । आँसू आँखों से उतरकर गालों पर लुढ़क आये । 

-निशा ने बस इतना कहा "अब वो नहीं हैं" । 
-क्या हुआ ?
-एक रोड एक्सीडेंट और सब ख़त्म ।
-कब ?
-"शादी के छह महीने बाद ।" कहते हुए निशा अपनी आँखों को रुमाल से ढक लेती है ।

सिगरेट सुलगकर आदित्य का हाथ जला देती है और खुद को छुड़ा कर, फर्श पर लेट जाती है । आज बरसों बाद आदित्य की आँख भर आयी क्योंकि वो दुखी थी । आस-पास चुप्पी पसर गयी । जान पड़ता था कि बस साँसों के चलने की आवाज़ आ रही हो । ये ख़ामोशी उसे आखिरी की मुलाकात पर पहुँचा देती है । तब भी उसके पास कहने को कुछ शेष नहीं था और आज भी उसे कुछ सूझ नहीं रहा था ।

-"तो क्या पढ़ाती हो बच्चों को ?" आदित्य विषय बदलने के उद्देश्य से कहता है ।
-अंग्रेजी
-तो बच्चों को अंग्रेज बनाया जा रहा है ।
-प्रत्युतर में निशा के गालों पर गड्ढे उभर आते हैं । 

फिर कुछ क्षण के लिए सन्नाटा पसर जाता है । दोनों ही अपने हिस्से की ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं । 

"शादी क्यों नहीं कर लेते ? कब तक यूँ ही भटकते रहोगे ? और फिर माँ को भी तो अपनी बहू चाहिए । उनसे उनका हक क्यों छीनते हो " निशा चुप्पी तोडती है । आदित्य सिगरेट जलाता हुआ उठ खड़ा होता है । एक कश लेता है, धुआँ छोड़ता है और कहता है "जानती हो निशा, बचपन में माँ ने एक पक्षी की कहानी सुनाई थी । जो बारिश की पहली बूँद की प्रतीक्षा करता है और यदि वह छूट गयी तो वह बाकी की बूँदों के बारे में सोचता भी नहीं । और वैसे भी किसी ने कहा है, हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ।" और इसके साथ ही अगला कश और फिर धुआँ उड़ने लगता है । 

-"वैसे चाँद मियाँ अब भी ड्यूटी पर हैं । देखो, अभी तक रौशन हैं ।" आदित्य चाँद की और देख कर कहता है ।
-"शायद आज पूरे चाँद की रात है ।" निशा स्वंय को ठीक से ढकते हुए कहती है ।
-तुम्हें चाँदनी रात बहुत पसंद थी न ।
-तब जानती नहीं थी कि अमावस्या भी आती है । और कभी-कभी बहुत लम्बी, स्याह काली । 

यह बात आदित्य के भीतर एक तीखी कसक छोड़ जाती है । वह स्वंय को संभालते हुए, प्लेटफॉर्म के किनारे पहुँच शौल हटाकर चुभती हवा को स्पर्श करता है । और कपकपाते हुए घडी देखता है । "अभी दो घंटे में सुबह हो जायेगी । कितना दूर है तुम्हारा हॉस्टल ?" पूँछता हुआ बैंच पर आ बैठता है । "यही कोई चार-पाँच किलोमीटर दूर" कहती हुई निशा पुनः खामोश हो जाती है । 

दोनों के मध्य लम्बी चुप्पी के बाद कब आँखें सो जाती हैं, एहसास ही नहीं होता । एकाएक आदित्य की आँखें खुलती हैं । वह घडी की ओर देखता है । "अरे छह बज गए । चलो उठो चलते हैं अब ।" आदित्य, निशा को जगाते हुए कहता है । दोनों स्टेशन के बाहर निकल आते हैं । सामने ही बस दिखाई देती है । निशा बस में चढ़ने को होती है, तभी आदित्य ताँगे की ओर इशारा करके कहता है "चलो उसमें चलते हैं" । दोनों ताँगे वाले के पास पहुँचते हैं । वह बताता है कि पहले स्कूल पड़ेगा, उसके बाद सरकारी दफ्तर । आदित्य सामान को रखकर, निशा की चढ़ने में मदद करता है । जब तीनों उस पर सवार हो जाते हैं तो ताँगा धीमे-धीमे आगे बढ़ने लगता है । 

वह एक छोटा किन्तु बहुत ही खूबसूरत पहाड़ी क़स्बा था । रास्ते के दोनों ओर ऊँचे वृक्ष थे और उनको बच्चा जताते हुए, सीना चौड़ा करके खड़े हुए पहाड़ । घोडा अपनी लय में दौड़ा जा रहा था । सड़क पर से उसके क़दमों के थपथपाने का संगीत सुनाई दे रहा था । तभी आगे-पीछे हिलती हुई निशा को देखकर, आदित्य ताँगे वाले से बोला "अरे भाई जान, इसमें एफ.एम है क्या ?" इस बात पर निशा के होठों पर मुस्कान खिल जाती है । "क्या साहब, आप मजाक बहुत करते हैं ।" ताँगेवाले ने घोड़े की पीठ को थपथपाते हुए कहा । 

-अच्छा तो तुम ही कोई गाना सुना दो । 
-साहब हमें तो गाना नहीं आता । 
-अच्छा, ये तो बहुत गलत बात है ।
-"कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?" मुस्कुराती निशा की ओर देख लेने के बाद आदित्य ने पूँछा
-एक लड़की है । 
-बस एक ही, हम तो सोच रहे थे कि चार-पाँच तो होंगे ही । 
-अरे साहब ऐसी गलती तो हम कभी नहीं करेंगे । हमारे पिताजी ने हम आठ बहन-भाई को पैदा किया था । सात बहनों के बाद मुझे पैदा करने के लिए । और बाकी जिंदगी सबकी शादियाँ ही करते रहे । 

निशा ने अपने होठों पर उँगली रख ली । आदित्य मन ही मन में बुदबुदाया "बहुत मेहनती थे" । ताँगे वाले के पूँछने पर कि आपके बच्चे नज़र नहीं आते, मालूम होता है, अभी हाल-फिलहाल में ही शादी हुई है । दोनों असहज महसूस करते हुए, ख़ामोशी से वृक्षों को देखने लगे । निशा का हॉस्टल आ पहुँचा तो आदित्य ने उतरकर सामान पकड़ाया । निशा चुप सी खड़ी रही । आदित्य अपने पर्स से कार्ड निकालकर देता है "इस पर मेरा मोबाइल नंबर है" । फिर निशा सामान उठाकर चल देती है । आदित्य दूर से ताँगे में बैठा उसे भीतर जाते हुए देखता है । 

आदित्य जानता था कि निशा कभी फ़ोन नहीं करेगी । और फिर धीरे-धीरे अपने दफ्तर के काम में व्यस्त हो जाता है । पास ही रहने के लिए सरकारी आवास मिला हुआ था । कई दिन बीत गए किन्तु निशा का फ़ोन नहीं आया । आदित्य सोचता कि कहीं मेरे कारण वह परेशान न हो जाए । और उसके ख्याल को काम के तले दबा देता ।

एक रोज़ आदित्य बाज़ार में, एक रेस्टोरेंट में बैठा था । तभी वहाँ निशा का आना हुआ । आदित्य को देखकर, वह उसके पास आकर बैठ गयी ।
-"तुम यहाँ कैसे ?" आदित्य ने जानना चाहा ।
-कुछ जरूरत का सामान खरीदना था । उसी सिलसिले में आयी थी ।
-"ओह, अच्छा" निशा के पास रखे बैग को देखकर आदित्य बोला ।
-क्या लोगी ? चाय, कॉफी या ठंडा ?
-कुछ भी नहीं ।
-"अरे ऐसे कैसे, कुछ नहीं । अरे भाई जान, ज़रा दो कॉफी लाना ।" वेटर को बुलाते हुए आदित्य बोला ।
-प्रत्युतर में निशा मुस्कुराती है ।
-काफी बदल गयी हो ।
-क्यों, क्या हुआ ?
-ये साडी, ये पहनावा, जीने का तरीका ही बदल लिया तुमने ।
-निशा पुनः मुस्कुरा देती है ।

इसी बीच कॉफी आ जाती है । आदित्य बाथरूम जाने का इशारा करते हुए उठता है । निशा की नज़र उसके पीछे रह गयी उसकी डायरी पर पड़ती है । निशा को याद हो आता है कि आदित्य को डायरी लिखने की आदत है । वो एकाएक ही डायरी को उठा, कोई पन्ना खोलती है । और पढने लग जाती है....

उस रोज़ जब ट्रेन प्लेटफोर्म पर आने को थी और तुम्हारी पलकें गीली होने को, तब मैं उसके छूट जाने की दुआ कर रहा था । तुम्हारे हाथों को थामे, ठहर जाने को मन कर रहा था । मगर अब ये मुमकिन नहीं कि तुम्हें मालूम हो कि उस रोज़ मैं वहीं छूट गया था । उसी बैंच पर, तुम्हारे आँसुओं में भीगा, अंतिम स्पर्श से गर्माता । और हर बार ही उस प्लेटफोर्म पर से गुजरते हुए, मैंने उसको वहीं पाया है । यूँ कि तुम आओगी और कहोगी 'अरे तुम अभी यहीं हो' ।

कई दफा खुद को टटोलता हूँ और जिस्म के लिहाफ़ को झाड कर फिर से जीने के काबिल बना लेता हूँ । मुई रूह के बगैर कब तलक कोई जिए जाएगा । सुनो, कभी जो गुजरों उधर से तो एक दफा उसको अलविदा कह देना । जैसे रूठे बच्चे को मनाता है कोई । शायद आखिरी की ट्रेन से मुझे आकर मिले कभी ।

कई बरस बीते हैं, साथ जिए बगैर । कुछ तो मैं भी जीने का सलीका सीखूँ । चन्द ज़ाम से गुजर सकती हैं रातें, मगर बीते बरस नहीं गुजरते । हर शाम ही तो आकर खड़े होते हैं ड्योढ़ी पर । हर सुबह ही तो छोड़ जाते हैं तनहा । हर दफा पी जाता हूँ वो पीले पन्ने, जिन पर लिखी थीं तुम्हारे नाम की नज्में ।

दोस्त नहीं देते अब तुम्हारे नाम की कस्में । हर रोज़ ही भूल जाते हैं और भी ज्यादा, कि कभी तुम भी थीं उनका हिस्सा । अब नहीं करते फरमाइश, उस किसी बीते दिन की । चुप ही आकर सुना जाते हैं, जाम में उलझा कर कई किस्से । यूँ कि सुनाया करते हों किसी महफ़िल में मुझे लतीफे की तरह ।

जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं । और मैं उसमें जान फूँकने की बेवजह कोशिश नहीं करूँगा । मगर फिर भी प्लेटफोर्म की उस बैंच पर से गुजरते हुए, कभी तुम सुनना उसको । जो हर दफा कहता है मुझसे 'काश उसने मेरा हाथ थामा होता ।'

और अंत तक आते-आते निशा की आँखें गीली हो जाती हैं । जिसके चिन्ह वह आदित्य के आने से पहले ही रुमाल से हटा देती है । और उसकी डायरी यथास्थान रख देती है ।

आदित्य की वापसी के कुछ क्षण बाद, निशा जाने के लिए कहती है । आदित्य उसे साथ चलने के लिए कहता है किन्तु निशा कुछ अन्य सामान को खरीदने का कह कर टाल जाती है । फिर जब-तब ऐसा ही होने लगा । वे एक-दूसरे से टकरा जाते थे । निशा स्वंय को अतीत और वर्तमान के द्वन्द में पाती । बीते तीन बरस उसके लिए आसान नहीं थे । वह अब किसी और दुःख का कारण नहीं बनना चाहती थी । किन्तु साथ ही साथ वे पुनः एक दूसरे की आदत बनते जा रहे थे । बीते दिनों का सूखा वृक्ष पुनः हरा-भरा होने लगा था ।

फिर एक रोज़ आदित्य ने निशा को पहाड़ी पर भ्रमण के लिए आमंत्रित किया । जिसे निशा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था । यद्यपि उसे स्वंय के जाने और न जाने के मध्य संशय था । किन्तु अस्वीकार न करने के पीछे नया लगाव ही था । आदित्य से विदा लेते हुए, निशा ने आने का कह दिया ।

पहाड़ी के शिखर पर दोनों बीते कई क्षणों से खामोश बैठे हुए थे । गालों को थपथपा कर चली जाती, नर्म हवा बह रही थी । मौसम का मिजाज़ आशिक़ाना हो चला था । दोनों अपनी स्मृतियों से एक ही दिन, एक ही स्थान पर पहुँच जाते हैं । जहाँ निशा आदित्य के कंधे पर सर रख कर, उसकी बेहिसाब गुदगुदाने वाली बातें सुन रही थी । और आदित्य उसके हवा से बिखरते हुए बालों को, अपनी उँगलियों से कानों के पीछे धकेल देता था । और अपनी ही किसी बात पर झगड़ते हुए निशा उठ कर चल देती थी । तब पीछे-पीछे आदित्य उसे मनाने को दौड़ता था ।

एकाएक निशा वर्तमान में दाखिल होती है । और आदित्य को देखते हुए कहती है "आप शादी क्यों नहीं कर लेते । कब तक यूँ ही भटकते रहोगे । कब तक माँ प्रतीक्षा की घडी को देखती रहेंगीं । अतीत के सहारे जीवन नहीं कटता । मैं चाहती हूँ कि आप खुश रहो ।" आदित्य हाथों की लकीरों को देखता है और कहता है "सब किस्मत की बातें हैं । सुख खोज़ने से कहाँ मिलता है ? तुम भी तो खुश नहीं रह सकीं । इसीलिए शायद मेरी किस्मत में भी सुख नहीं ।" आदित्य को सुनते-सुनते निशा की आँखें गीली हो चली थीं । निशा की आँखों में झाँकते हुए आदित्य सिगरेट जला लेता है ।

बादल एकाएक मेहरबान हो गए थे । निशा स्वंय को बचाने के लिए उठ कर चल दी थी । आदित्य पीछे से निशा का हाथ पकड़ लेता है । और अपने पास खींच लेता है । इतने पास कि उनके मध्य कोई फासला नहीं बचा था । आदित्य उसकी आँखों में डूबते हुए कहता है "मुझसे शादी करोगी ।" निशा एकाएक स्वंय को आदित्य की गिरफ्त से मुक्त करते हुए कहती है "नहीं, मैं जानती थी कि आप यूँ ही मुझसे मिलते रहोगे और एक दिन मुझ पर यह एहसान करोगे ।" इसके बाद निशा वहाँ से चली जाती है और आदित्य उसे रोक नहीं सका ।

कई दिन बीत चुके थे और उन दिनों में आदित्य की निशा से कोई मुलाकात नहीं हुई थी । आदित्य की व्यग्रता बढ़ने लगी थी । फिर एक रोज़ जब वह बाज़ार से गुज़र रहा था तभी ताँगे वाले ने टोकते हुए बताया कि मैडम अस्पताल में भर्ती हैं । वह अभी-अभी उन्हें वहाँ छोड़ कर आ रहा है । आदित्य उसके साथ अस्पताल पहुँचता है । जहाँ निशा एक कमरे में लेटी हुई थी । पास ही साथ की एक अध्यापिका बैठी थी । आदित्य चुप से जाकर उसके पास बैठ जाता है । उसकी हालत देख कर आदित्य का रो लेने का मन करता है, किन्तु स्वंय को संभालता हुआ, उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर बैठा रहता है । 

साथ की अध्यापिका बताती है कि पीलिया की शिकायत है । और पिछले दिनों से ठीक से सोयी भी नहीं है । जब ज्यादा तबियत ख़राब होती दिखी तो मैं यहाँ ले आयी । अगले एक-दो घंटे वे दोनों बातें करते रहे । फिर आदित्य ने उसे चले जाने के लिए कहा । हालाँकि उसने कई बार रुकने के लिए कहा किन्तु आदित्य ने उसे अगली सुबह आने का कह, वापस भेज दिया । 

कुछ घंटे बाद निशा नींद से जागती है और आदित्य को अपने सामने पाती है । बस खामोश एकटक उसे देखती रहती है । आदित्य गुस्सा जताते हुए कहता है "तुमने इस काबिल भी नहीं समझा कि मुझे अपनी बीमारी के बारे में बता सको ।" निशा कुछ कहने का प्रयत्न करती है "वो मैं...." । "हाँ बस कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । मैं सब समझता हूँ ।" कहता हुआ आदित्य उसे चुप कर देता है । 

अगले चार रोज़ आदित्य अस्पताल में ही बना रहता है । निशा की दवा, खाना-पीना और जरुरत के हर सामान की फिक्र थी उसे । वह बीते दिनों में ठीक से सोया भी नहीं था । धीरे-धीरे निशा स्वस्थ हो चली थी । और निशा को सब दिख रहा था । पिछले दिनों से निशा इसी उधेड़बुन में थी । कितनी गलत थी वह आदित्य को लेकर । अपनी ही बात पर उसे पछतावा हो रहा था । कितना चाहता है आदित्य उसे । असल में आदित्य से ज्यादा कभी किसी ने उसे चाहा ही नहीं । वो अपनी ही कही हुई बात पर शर्मिंदा हो रही थी ।

एक रोज़ जब आदित्य निशा के साथ की अध्यापिका को अस्पताल में छोड़कर, कपडे बदलने के उद्देश्य से अपने कमरे पर गया था । उसके पीछे दफ्तर का चपरासी अस्पताल में निशा के पास, आदित्य के घर से आयी हुई चिट्ठी छोड़ जाता है । जिसमें माँ ने आदित्य का किया हुआ वादा याद दिलाया था । जिसे वह अंतिम बार माँ से करके आया था । उन्होंने एक लड़की देख ली थी और आदित्य से उसे देखने की सिफारिश की थी । निशा चिट्ठी पढ़कर रख देती है । फिर निशा के मस्तिष्क में विचारों का युद्ध छिड़ जाता है । वह क्यों आदित्य के रास्ते की रूकावट बने । उसे भी नए सिरे से जिंदगी जीने का हक़ है । क्यों वो दुनिया को कुछ कहने का अवसर दे । और उसने निर्णय लिया कि वह यहाँ से चली जायेगी ।

शाम को जब आदित्य अस्पताल पहुँचा तो वहाँ निशा नहीं मिली । पता करने पर मालूम हुआ कि उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है । वह वहाँ से निकल कर सीधा उसके हॉस्टल पहुँचा । जहाँ निशा के साथ की अध्यापिका ने उसे केवल वह चिट्ठी पकडाई । और बताया कि निशा अभी कुछ देर पहले यहाँ से स्टेशन चली गयी है । आदित्य के पूँछने पर "स्टेशन, लेकिन क्यों ?" उसने यही उत्तर दिया कि "ज्यादा कुछ बता कर नहीं गयी । केवल इतना कह कर गयी है कि, घर जा रही हूँ ।" आदित्य चिट्ठी पढ़ लेने के बाद स्टेशन की ओर चल देता है ।

सूरज को बहुत पीछे धकेल कर, रात निकल आयी थी । जब आदित्य स्टेशन पर पहुँचा तो वहाँ कोई नज़र नहीं आया । आदित्य ने अपनी नज़रें इधर-उधर दौडायीं । दूर के दुबके कोने में निशा गुमसुम बैठी दिखाई दी । आदित्य उसके पास पहुँचता है । और चिट्ठी को उसकी ओर फैक कर बोलता है "इसके लिए जा रही थी तुम" । निशा उठ खड़ी होती है "वो आदित्य मैं...." । आदित्य निशा के गाल पर एक तमाचा मारता है "हर निर्णय को लेने का अधिकार केवल तुम्हें नहीं, समझीं" । निशा रोते हुए आदित्य के गले से लग जाती है और कहती है "मुझे माफ़ कर दो आदि, मैं न जाने क्या सोचने लग गयी थी ।" 

पिछले कई क्षणों से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए थे । आने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म पर से शोर करती हुई चली जा रही थी । चाँद जवान हो चला था । तब उस खामोश फैली हुई चाँदनी में कुछ ओंठ तितली के पंखों की तरह खुले और बंद हुए थे । दूर बैठा चिड़ियों का जोड़ा यह देख लजा गया था । सुखद क्षणों का वह संसार, एक अध्याय बन जिंदगी से जुड़ गया...

******
वो मुझे पाँच बरस पहले की बरसात के दिनों में मिला था । उन दिनों मैं बेकार था और किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के अनुभवी प्रश्नों से परास्त होकर लौट रहा था । उस रोज़ बरसात ने चिढ़ पैदा कर दी थी । मैंने उससे स्वंय को आगे छोड़ने के लिए लिफ्ट माँगी थी । जो असल में सहायता माँगना ही है किन्तु अँग्रेजी के इस सभ्य शब्द ने उसका वजन कम कर दिया है । उसने कहाँ, क्यों और कैसे शब्दों का प्रयोग न करते हुए मुझे बैठा लिया । हम बरसात में भीग चुके थे और जल्द ही सूख जाना चाहते थे । जैसे कि भीगना एक दुःख है और सूखना बहुत बड़ा सुख ।

मुझे मेरे गंतत्व पर पहुँचाकर उसका यह पूँछना कि बीयर पियोगे, मुझे हैरत में डाल देना था । उसने रास्ते भर शब्द का एक टुकड़ा भी मेरी ओर नहीं फैंका था और अब वह मुझे बीयर ऑफर कर रहा था । मेरे मुँह से उस क्षण न जाने क्यों यह शब्द निकले कि 'हम अजनबी हैं और तुम बीयर की बात कर रहे हो'। उसने यह कहकर मुझे लाजवाब कर दिया था कि मेरे लिये अजनबी को लिफ्ट देने और बीयर ऑफर करने में कोई ख़ास अंतर नहीं ।

अगले पंद्रह मिनटों बाद हम उसके फ़्लैट में थे जो कि कंपनी की ओर से उसको रहने के लिए मिला था । पहली बीयर के अंतिम घूँट और सिगरेट के कशों के मध्य सारी औपचारिकता वाष्पित हो चुकी थी । कई बार बोलते-बोलते शब्द उसके गले में अटके रह जाते थे । और जब वे बाहरी दुनिया में प्रवेश करते तो विभिन्न अर्थों में खुलकर सामने खड़े हो जाते । कभी तो लगता कि अपने होने की वजहें टटोल रहे हों । अगले ही क्षण हँसी के मध्य छनछना उठते । पहली रात मैंने अमर को ऐसा ही पाया था । 

बताना आवश्यक नहीं कि शुरू के दिनों में उसे मेरे साथ सुकून मिलता था । बाद के दिनों में जिसमें मैं भी शामिल हो गया था । साथ बीयर पीने की कई वजहें मिल जाया करती थीं । बेवजह पीते हुए हम अपराधबोध से ग्रस्त हो जाते थे । जैसे कोई गुप्त पाप कर बैठे हों और उसका प्रायश्चित नहीं किया जा सकता हो । मुझे याद है कि अपने ऑफिस की बातें शायद ही हमने कभी की हों । कभी हम पूरी-पूरी रात बात किया करते तो कभी घंटों चुप्पी साध लेते । एक सुख था जो कहीं से आता था और हमें अपनी गिरफ्त में ले लेता था ।

वे जनवरी की सर्दियों के दिन थे, जब उसने पहली बार मुझे उसका आधा नाम 'अनु' बताया था । बाद के दिनों में जो मेरे लिए अनुराधा और उसके लिए अनु थी । वे रोने के दिन थे किन्तु उसे हँसना आता था । मेरे लिए दोनों काम मुश्किल थे । मैं केवल उसे सुन सकता था, देख सकता था, महसूस कर सकता था और अंत में बीयर की गिरफ्त में जा सकता था । यह एक तरह से मौत को गले लगा लेना था ।

ठीक तरह से याद करूँ तो जैसा उसने टुकड़ों में बताया था, उसकी कहानी का प्रारंभ अनु से नहीं होता । अनु तो बहुत बाद के दिनों में उसके जीवन में आयी थी । उसकी वास्तविक शुरुआत इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास कर लेने से हुई थी । उसे सरकारी कॉलेज मिला था और उन दिनों वो बहुत खुश रहा करता था । घर पर कॉल लैटर पहुँचने पर, पहले दिन तो बहुत खुशियाँ मनायी गयीं थीं । अम्मा ने आस-पास के सभी लोगों से जा-जाकर बताया था कि उनके लड़के का चयन हो गया है किन्तु जब कॉल लैटर में दिए गए पन्द्रह दिन धीमे-धीमे समाप्त होने लगे तो खुशियाँ वाष्पित हो गयीं और चिंताएँ बादल की तरह उनके आँगन पर छा गयीं ।

दिन थे कि शेर हुए जा रहे थे और आँगन में जंगल नहीं उगाया जा सकता था । वे भारत के आम नागरिक थे, जिनके साथ तकलीफें प्रसन्नतापूर्वक निवास करती हैं । उसके पिताजी का नाम रामधन अवश्य था किन्तु धन और नाम दोनों विपरीत दिशायें थीं । घर में वही दो जोड़ी कपडे, चार जोड़ी बर्तन और तीन जोड़ी आँखें थीं । बहुत जगह हाथ पसारे किन्तु अगला एक दिन भी हाथ से जाता रहता था ।

पास के ही इतवारी चाचा ने एक रात मशवरा दिया कि बैंक वाले इस सिलसिले में लोन देते हैं । उनका यह बताना रेगिस्तान में कुआँ खोद देने जैसा था । रामधन ने अगले रोज़ बैंक जाकर पड़ताल करने का मन बनाया और रात भर कुएँ का पानी पीता रहा । बैंक में वह अमर को भी साथ ले गया । जैसे कि अमर कोई साहस हो, जो साथ रहने से सुकून देगा । पहले के दो घंटे वे दोनों बाहर बैठ कर प्रतीक्षा का सुख लेते रहे । ऐसा उन्होंने जानबूझ कर नहीं किया था बल्कि बैंक मैनेजर के अति व्यस्त होने के कारण किया था ।

बैंक मैनेजर गुप्ता जी पूर्व में बहुत सुलझे हुए आदमी हुआ करते थे किन्तु उनके लड़के ने बीते समय के कारण उलझा कर रख दिया था । बीते चार वर्षों में उनका लड़का बाकायदा एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढता रहा और घर से हर महीने के पाँच हज़ार रुपये भी लेता रहा । और चार वर्ष बीत जाने के बाद उसने सबको यह कहकर चौंका दिया कि अब तक वो वहाँ पर मौज लेता रहा था । असल में वो तो पहले वर्ष में ही अटका रहा था और कभी उससे बाहर ही नहीं निकल सका । बाद के तीन वर्षों में उसे मकान मालिक की लड़की से प्रेम हो गया था । जिसके साथ उसने ख़ुशी-ख़ुशी दिन बिताये थे । अब गुप्ता जी के लिए इस संसार में कोई विश्वासपात्र आदमी बचा नहीं रह गया था ।

गुप्ता जी कागजों की उल्टा-पल्टी कर रहे थे, जब रामधन ने झिझकते हुए उनके कमरे में प्रवेश किया । रामधन के उन्हें नींद से जगाने पर वे खींझ से भर उठे । रामधन के द्वारा अपनी समस्या बताने के दौरान वे गर्दन नीचे करके अपने काम में उलझे रहे और एकाएक नज़र ऊपर करके कॉल लैटर देखना चाहा । रामधन ने तब बाहर से अमर को बुलाया और कॉल लैटर दिखाने को कहा । बहुत देर देख लेने के बाद उन्होंने पूँछा कि क्या नाम है आपका ? प्रतिउत्तर में रामधन नाम सुनकर उनके गालों पर मुस्कराहट की लकीरें खिंच आयीं । उस एक पल अमर को लगा कि पिताजी का नाम चाहे जो होता किन्तु रामधन नहीं होना चाहिए । किसी आम आदमी का नाम रामधन रखना, उसके साथ सरासर अन्याय है । उसका नाम गरीबचंद, फकीरचंद जैसा कुछ भी तो रखा जा सकता है, जो उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाये । 

गुप्ता जी ने बहुत कुछ जाँच लेने के बाद कहा कि बिना गारंटी के तो लोन नहीं मिल सकता । आप के पास क्या गारंटी है कि आपका लड़का इंजीनियरिंग कर ही लेगा ? और यदि वह नाकामयाब हुआ तो उसके ऊपर बैंक के द्वारा खर्च किये गए पैसों का भुगतान कौन करेगा ? इस बात पर रामधन के छोटे से हुए मुँह को देखते हुए बोले कि मान भी लिया जाए कि यह पूरी कर भी ले तो इसकी क्या गारंटी है कि यह अगले दो बरस में नौकरी पर लग जायेगा और ब्याज सहित रकम वापस कर देगा ? बोलो है कोई गारंटी ?


रामधन की अंतरात्मा उस पल यही कह रही थीं कि साहब मेरा बेटा इंजीनियरिंग जरुर पूरी करेगा और नौकरी भी मिलेगी किन्तु ज़बान सभ्य बनी हुई थी । वो जानता था कि गरीब आदमी तभी सभ्य माना जाता है, जब वह अपनी ज़बान बंद रखे । और उसकी असभ्यता बर्दाश्त नहीं की जा सकती । रामधन की आँखें गिडगिडाने की मुद्रा में आकर छलक ही आयीं थीं किन्तु उससे होना कुछ नहीं था । ऐसा गुप्ता जी ने सरकारी नीति का हवाला देकर कहा था ।

इतवारी चाचा का मशवरा मृग मरीचिका ही साबित हुआ । बैंक से बाहर निकल आने पर एक चपरासीनुमा व्यक्ति उनके पास आया, जिसने यह बताया कि यदि वे पाँच हज़ार रुपये दे दें तो लोन दिलवा देगा । रामधन ने यह प्रस्ताव, देखता हूँ कहकर टाल दिया । और वापस निराशा के जंगल में चला आया । घर पर अम्मा के 'क्या हुआ?' पूँछने पर प्रतिउत्तर में ख़ामोशी ही सुनाई दी । इंसान सुख और दुःख का कितना भी बँटवारा कर ले, मिलता उसे इच्छा का छोटा टुकड़ा ही है । शाम को इतवारी चाचा के पास से नया मशवरा मिला कि जाकर एक बार एम.एल.ए. साहब से क्यों नहीं मिलते ? शायद कोई जुगाड़ बैठ जाए ।

इतवारी चाचा के पास सलाह-मशवरे का सदैव स्टॉक रहता था । आप पूँछे या न पूँछें, वे तमाम बातें चलते-चलते ही बता जाया करते थे । उन्होंने ही बताया था कि यह शहर फ़िरोज़ शाह तुगलुक़ ने बसाया था । इस शहर में कम से कम कोई भूख से नहीं मर सकता, हाँ लेकिन पेट से ज्यादा कोई कुछ बचा पायेगा इसकी गारंटी वे नहीं लेते । बस्ती के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि ये उन सभी लोगों के द्वारा स्वतः ही बस गयी, जोकि भिन्न-भिन्न गाँवों के छोर पर से पलायन कर आये थे । शहर में दो ही बड़े वर्ग हैं एक मालिक और दूसरा मजदूर । मालिक अपने होने की वजह से बड़ा और मजदूर संख्या में । सरकारी दफ्तर के कर्मचारियों को इस शहर में शामिल हुआ माना जा सकता था बस । इस काँच के शहर की ये सबसे बड़ी पहचान है, बताते हुए इतवारी चाचा लम्बी साँस खींचते थे ।

दो दिनों तक एम.एल.ए. साहब नहीं मिले थे और दिन में चार चक्कर लगाने के बाद रामधन थका हुआ नज़र आता था । तीसरे दिन अमर को साथ लेकर वो एम.एल.ए. साहब के बंगले पर पहुँचा तो पता चला कि आज एम.एल.ए. साहब घर पर ही हैं किन्तु एक आवश्यक मीटिंग में व्यस्त हैं । बैठक में गाँधी जी की तस्वीर लटकी हुई थी । जिसके नीचे लिखा हुआ था 'सत्य और अहिंसा से कोई भी युद्ध जीता जा सकता है' । अमर पिछले चार घंटों में इसे पूरे अड़तालीस बार पढ़ चुका था । और ना जाने क्यों उसे यह लग रहा था कि पचास बार पढ़ लेने पर उसकी फीस का बंदोबस्त हो जाएगा । अगले दो घंटों में वह सत्तर की गिनती गिन चुका था । उसे संतुष्टि का आभास हो रहा था । 

नीम के वृक्षों से गाढ़ा, स्याह अँधेरा टपकने लगा था । मीटिंग समाप्त हो जाने के लम्बे समय बाद उन्हें भीतर जाने का अवसर मिला । रामधन ने हालातों को बयाँ करते हुए बैंक मैनेजर का भी ज़िक्र किया । अमर का ध्यान इस ओर बिलकुल ना था बल्कि वो वहाँ एम.एल.ए. साहब के लड़के को बड़े चाव से देख रहा था, जो नूडल्स खाने में मग्न था । अमर के मन में उस पल एक सुखद ख्याल आया कि वो भी एक दिन ऐसे ही मग्न होकर नूडल्स खायेगा । न जाने कैसा स्वाद होता होगा ? अच्छा ही होता होगा, तभी बड़े लोग खाते हैं ।

जब रामधन ने पाँच हज़ार का ज़िक्र कर दिया तो अमर का ध्यान एम.एल.ए. साहब की ओर गया । एम.एल.ए. साहब ने बहुत सोचते हुए अपने सेक्रेटरी से कहा कि इन्हें पाँच हज़ार रुपये दे दो । रामधन ने कहा मगर साहब लोन ? एम.एल.ए. साहब उठते हुए बोले कि 'मुझे अभी आधे घंटे में दिल्ली को निकलना है अन्यथा कुछ अवश्य करता' । तुम फिलहाल उसको पाँच हज़ार रुपये देकर काम चला लो । फिर देखता हूँ क्या करना है ।

अगले रोज़ बैंक में पहुँचने पर पता चला कि रामधन ने आने में देर कर दी है और मैनेजर साहब छुट्टी पर चले गए हैं । अब कुछ नहीं हो सकता जैसे निराशाजनक शब्द हाथ में लेकर रामधन लौट आया । जाते जाते चपरासी ने झिड़क दिया, आ जाते हैं मुफ्तखोर । ये नहीं पता कि इंडिया में दो ही चीज़ें मुफ्त मिल सकती हैं निरोध और फिर भी गलती की तो पोलियो ड्रॉप ।

देर रात तक घर में मातम छाया रहा । अब एक ही रास्ता था जो रामधन को सूझ रहा था, कि अपने गाँव की दो बीघा पुस्तैनी जमीन बेच दे । उसने अब निर्णय कर लिया कि वह ऐसा ही करेगा । जमीन का क्या है ? एक बार जो अमर पढ़ गया तो ऐसी न जाने कितनी जमीन वो खरीद सकता है । अंतिम निर्णय के साथ उसने अगले रोज़ जाकर जमीन बेच आने का निश्चय किया और गहरी साँस लेते हुए बचपन से लेकर अब तक के सभी पल जी गया ।

गाँव पहुँच रामधन ने वहाँ के प्रधान से मोल भाव किया और जमीन बेच देने के उद्देश्य से तहसील पहुँच गया । कागज बनते और खानापूर्ति होते शाम हो गयी । देर शाम रामधन के हाथ में रकम आ गयी । शाम की अंतिम बस पकड़ने के उद्देश्य से वह चौराहे की ओर चलने लगा । रामधन कुछ ही दूर चल पाया होगा कि चार हथियारबंद लोगों ने उससे बन्दूक की नोक पर रकम छीन लेनी चाही और इसी छीना-झपटी में रामधन उनकी मोटरसाइकिल से लिपटा चला गया । अंततः उसे गोली मर दी गयी । अंतिम साँस से पहले उसे अमर और गाँधी का चेहरा याद आया होगा ।

रामधन अभिमन्यु की मौत मारा गया, ऐसा इतवारी चाचा कहते थे । उन्हीं ने बताया कि वे चार लोग गाँव के ही थे, जो सुबह से रामधन के पीछे लगे हुए थे । रामधन की मृत्यु के साथ ही अमर के इंजीनियर बनने के सारे रास्ते बंद हो चुके थे । अब वह कुछ भी बन सकता था किन्तु इंजिनीयर नहीं बन सकता था । लम्बी चुप्पी और अम्मा के समझाने के पश्चात अमर ने पास के ही कॉलेज में दाखिला ले लिया ।

मुझे याद है कि अमर ने हमारी पहचान की दूसरी सर्दियों में बताया था कि यहीं से उसके जीवन में अनु का प्रवेश हुआ था । अनुराधा उर्फ़ अनु उसकी सहपाठी थी । उसके पिताजी वकील थे और माँ अध्यापिका । अनु पर गुलाबी और हरा रंग खूब फबता था । उसे आइसक्रीम बहुत पसंद थी और वो बताती थी कि उसके फ्रिज में हमेशा आइसक्रीम और फल भरे रहते हैं । उनके घर पर कुत्ते नहीं पाले जाते थे इसीलिए उन्होंने घर के दरवाजे पर बोर्ड टाँग रखा था, जिस पर लिखा था 'कृपया कुत्तों से सावधान रहें'। 

द्वितीय वर्ष के दिनों में कॉलेज के प्रोफेसर अमर की बुद्धि पर टिपण्णी करते कि 'यू शुड ट्राय फॉर सिविल सर्विसेज ' । प्रोफ़ेसर की बात पर अनु को अमर पर बहुत प्यार आता था । ऐसे जैसे कि अमर आई.ए.एस. हो और वो उसकी प्रेमिका कहलाने पर गर्व महसूस कर रही हो । उन्हीं दिनों में अनु ने अमर से कहा था कि वो उसके लिए अपनी जान भी दे सकती है । उस बात के बाद से अमर और अनु प्रेमी युगल बन गए थे ।

बरसात में भीगना, सर्दियों में एक ही शॉल में बैठना और ताजमहल देखना उनकी मीठी याद बन चुके थे । तोहफों के रूप में अनु सदैव प्रेमपत्र दिया करती थी । कितनी तो बातें हुआ करती थीं उनमें । रात भर जागने, चाँद को देखने, चिड़ियों के चहचहाने, गुलाब के सूख जाने और बसंत के लौट आने की बातें । रूठने की, मनाने की, पास आने की और डूब जाने की बातें । अमर ने उसमें अपनी भविष्य की पत्नी के सभी गुण देख लिए थे । वह सर्वगुण संपन्न ही नज़र आती थी ।

तीसरा वर्ष बीत जाने के पश्चात हाथों में बेरोज़गारी की लकीरें उभर आयीं थीं । प्रेमपत्रों में खटास उत्पन्न हो चली थी । बरसात आग लगाती और गुलाब काँटा चुभो जाते । वे आइसक्रीम से घृणा करने के दिन थे । वे प्रेम में दुःख के दिन थे । उन्हीं दिनों में अनु का एम.बी.ए. के लिए दूसरे शहर चले जाना शामिल था । 

उसके बाद के दिनों में, अनु और अमर के मध्य दूरियां बढती गयीं । अनु यदि छुट्टी के दिनों में घर आती तो अमर से मिलना टालती रहती । अंततः मिलने पर, उनके मध्य सन्नाटा पसरा रहता था । मुलाकातों में अनु अब खामोश रहने लगी थी । अमर को यकीन नहीं होता था की ये वही अनु है जो कभी चुप नहीं रहा करती थी । 

मुझसे मुलाकातों के तीन बरस के दौरान, अमर यहाँ तक का किस्सा कई बार सुना चुका था । चौथे बरस में आकर उसने मुझे बताया था कि असल में अनु का एम.बी.ए. में साथ के ही किसी लड़के से इश्क चल निकला था । और एक अभागे दिन अनु ने उसे बताया था कि वो किसी और लड़के को चाहती है और उसी से शादी करने जा रही है । उस दिन उसकी अम्मा भी उसे छोड़कर हमेशा के लिए चली गयी । अनु की कहानी केवल वहीँ समाप्त नहीं हुई थी । अमर ने उसे कभी समाप्त होने ही नहीं दिया था ।

अपनी पिछली कहानी के साथ अमर आज मेरे साथ था । प्रथम बीयर के अंतिम घूँट के साथ ही उसकी आँखें बहकने लग गयीं । अभी चार की गिनती शेष थी । हम सन् 2002 की बीती सर्दियों की शाम को याद करके पीने में ख़ुशी महसूस कर रहे थे । उसके पास उन सर्दियों को याद करके ख़ुशी मनाने का अच्छा बहाना रहता था । और फिर बिना ख़ुशी, बिना गम के पीने में आज भी अच्छा नहीं लगता था । उसका यूँ एकाएक उन्हें याद करना मुझे भी अच्छा लगने लगा था । हालाँकि उन बरसात के बाद के दिनों को याद करना दुःख की बात थी किन्तु धीमे-धीमे वे सुख देने लगे थे ।

हर एक बीयर और सिगरेट के कशों के साथ उसका उन प्रेमपत्रों को पढने का पुराना रिवाज़ था, जो कि बीते हुए समय के प्रथम और अंतिम तौहफे थे । हर बार की तरह मुझे याद हो आता कि पिछली दफा किस प्रेम पत्र को पढ़ते हुए उसने कौन सी कहानी सुनाई थी या किस बात पर वो हँस दिया था और किस बात को याद करते हुए उसकी आँखें छलक आयीं थीं । उसकी इन सभी आदतों को प्रारम्भ के दिनों में मैंने बदलने की यथासंभव पूरी कोशिश की थी । जो बाद के दिनों में धीमे-धीमे ख़त्म हो गयी थी ।

उसे अनु से प्रेम था और शायद अनु को भी कभी रहा होगा । इस बात का मैं यकीनी तौर पर गवाह नहीं बन सकता किन्तु हाँ उनका प्रेम उन बीते दिनों की रातों में एक दूजे को थपकियाँ देकर अवश्य सुलाता था । ऐसा उसने पिछली से पिछली सर्दियों में तीसरी बीयर के पाँचवें घूँट पर कहा था । मुझे उनके इस तरह से सोने की आदत पर हँसी आयी थी । जिसे मैंने बीयर के घूँट तले दबा लिया था ।

मुफ्त की बीयर पीने का मैं शौक नहीं रखता, ऐसा मैंने शुरू के दिनों में उससे कहा था । हमारी दोस्ती तब कच्ची थी, जिसे उसने अपने प्रेम पत्रों के पढ़ते रहने के बीच पक्का कर दिया था । मेरा काम केवल उसकी यादों का साक्षी भर होना नहीं था बल्कि उसमें अपनी राय को शामिल करना भी था । ऐसे कि जैसे मेरे उन गलत-सही विश्लेषणों से उसके प्रेम के वे मधुर-मिलन के दिन फिर से नई कोपिलें फोड़ देंगे । यह ठीक रिक्त स्थान को अपनी उपस्थित से भरने जैसा था ।

यह तीसरी बीयर थी, जब उसने मुझे बताया कि इस बार की सर्दियों के अंतिम दिनों में वह ऑस्ट्रेलिया जा रहा है । उसके ऑस्ट्रेलिया जाने के कहने के बाद से ही मुझे उसके वे बीते हुए दिन याद हो आये, जिनमें वो किसी और से शादी करके वहाँ बस गयी थी । अब ऑस्ट्रेलिया शब्द का अर्थ मुझे उसके वे मृत दिन लग रहे थे । जो वहाँ खुशहाली से चारों ओर पसरे होंगे । इसका वहाँ जाना जैसे बारिश कर देना था ।

हम अब पूर्णतः बीयर की गिरफ्त में थे । उसका ये कहना कि वो वहाँ जाकर उसे तलाश कर उसके प्रेमपत्र वापस दे देगा । उसका मुझे आसमान से जमीन पर बेरहमी से पटक देना था । वो एक कस्बा नहीं था, ना ही कोई अजमेर जैसा शहर, जोकि हर गुजरता आदमी बता दे कि मन्नत कहाँ जाकर माँगनी है । वो एक देश था, अपने में सम्पूर्ण और अंजान । उसका वहाँ जाना, उसका खो जाना था । उसके बीयर के दिनों को भूल जाना था, जो कि बहुत भयानक था । उसने बीते दिनों में जीना सीख लिया था किन्तु अब वह खुद के लिये जीने की पुरानी वजह तलाशेगा । यह ख़ुशी से आत्महत्या करने जैसा था ।

कहते हैं आत्महत्या करना कानूनन अपराध है ......

चलिये अब आज के कार्यक्रमों को संपन्नता की ओर ले चलें .....यहाँ किलिक करें 

 
Top