सच का होना और बात है,सच कहने की हिम्मत अलग सी बात है . ज़िन्दगी रंगीन भी होती है,रंग में बदरंग भी होती है ... आईने में दिखता है अपना चेहरा भी और देखते हुए हम बंद कर लेते हैं आँखें, झूठ का मुखौटा लगाकर भूलने की कोशिश करते हैं सच को या ............ भूल ही जाते हैं ! चंद्रकांता ने आईने के धुंध को साफ़ किया है - सत्य को उसके सहज रूप में शब्द शब्द उतारा है =
chandrakanta: दु:स्वप्न
रजनी की स्वप्न-बेला में, आज
मेरे हिस्से वह निर्वस्त्र औरत आयी
जिसके पंख कुक्कुट की तरह
उधेड़ दिये गए थे
बेतहाशा पड़ी थी, वह
पछाड़ खाई सड़क के एक
दागदार, सीलन भरे कोने पर
मैंने कांपते हाथों से
उसकी अर्धनग्न देह को छुआ
कहीं कोई सिहरन ना थी
हिलाया डुलाया बहोत, फिर
उसका निस्तेज़ स्वेद चेहरा देख
भय से आँखें मूँद ली
कि, कभी किसी पहर
सीलन भरे ऐसे ही कोने पर
मेरा भी नाम लिख दिया जाएगा
सुबह के शोर-शराबे से
आँखे खुली, अधखुली अलसाई
पसीने से पैबंद था बदन
आत्मा पसीज आयी थी
उस दुर्गन्ध भरी सीलन से
जिसे स्वप्न में सहलाया था, रात भर
छिडकती रही नमक
नम-सी दीवारों पर
चुरा लेने को उस भीत की उमस
जिसे कभी मैंने अपने स्वप्नों से लीपा था..
कुछ भूल गए हैं हम..चिट्ठी लिखना ..
कड़वी या बताशा
चिठ्ठी, मिटटी सी लगती थी
आँखें भीजती थीं
पाते से थाती प्यार की
मन, मल्हार गाता था
डाकिये का आना
होता था खबर,किसी के
आने-जाने, गीत की
लांघकर दीवारें
देस-परदेस की
अब नहीं आती, चिट्ठी
चिठ्ठी में छिपा मन
मन की धड़कन, चुप है
कितनी सदियाँ रीत गयी
अब गुलमोहर के
फूल नहीं खिलते, कागज़ पर
खिलखिलाती है ट्रिन ! ट्रिन !! ट्रिन !!!
कभी-कभी आपको भी नहीं लगता कि हम केवल वह नोट बनकर रह गए है जिसे बाज़ार अक्सर अपनी सुविधा के अनुसार कैश करता है !!भौतिकवाद या पूंजीवाद की कितनी ही आलोचना की जाए लेकिन इस यथार्थ से परहेज़ नहीं किया जा सकता कि विकास, समृद्धि और प्रगति के तत्व उस पर भी अवलंबित हैं.कम समय में ही अधिकाधिक प्रगति की बलवती इच्छा नें सम्भवतः हमारे समक्ष इससे बेहतर और फिलहाल इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प बाकी नहीं रहने दिया है.
लेकिन, जब इन पूंजीवादी मूल्यों की कीमत हमारा अस्तित्व बन जाए तब इस पर विचार किया जाना अवश्यम्भावी हो जाता है.अकेला बाजार दोषी नहीं, क्यूंकि ‘मुनाफे’ में हम सभी हिस्सेदारी चाहते हैं इसलिए ‘आर्थिक डार्विनवाद’की यह अमर बेल है की सूखती है नहीं प्रत्येक दिवस और अधिक पोषित होती जाती है .हमारे चारों और रच दिये गए ‘हाईपर-रिअलिटी के तिलिस्म’ ने ही अब तक बाज़ार की मनमानी और राजनीति की अवसरवादिता को जिन्दा रखा है.
जब तक हम खुद से प्रश्न नहीं करेंगे; अपनी उन जिम्मेदारियों को नहीं समझेंगे जिनके निर्वहन में हमसे ऐतिहासिक भूलें हुई हैं तब तक, हमें उन बेड़ियों के अधीन रहना होगा जिनकी आदत हमें हो गयी है और हम भूल गए हैं की हम स्वतंत्र हैं.. हम साधन नहीं, साध्य हैं.
आत्ममंथन की जरुरत हमें है किसी साइकिल, हाथ, कमल या हाथी को नहीं.
हम केवल वोट नहीं है जिसे राजनीति में जब-तब भुनाया जा सके. हम वह चेतना भी हैं जिसमें परिवर्तन के बीज निहित हैं.जो संगठित होकर समाज का, देश का और विश्व का रुख बदल सकता है.
तो चलिए ..इन हवाओं का रुख बदल दें..
................................................................... हैं तैयार हम चंद्रकांता ......................................
पच्चीसवें दिन की प्रस्तुति के साथ चलिये परिकल्पना उत्सव के समापन की तैयारी करते हैं, नए वर्ष के प्रथम दिन को यादगार बनाते हुये ......!
आप वटवृक्ष पर पढ़िये : कहीं विज्ञान मूर्ख तो नहीं बना रहा
और मनन कीजिये कि कैसी रही परिकल्पना उत्सव (तृतीय) की यह यात्रा ।
मैं मिलती हूँ कल यानि नए वर्ष के नए दिवस पर परिकल्पना उत्सव के समापन सत्र मे यानि सुबह 11 बजे परिकल्पना पर ।