गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात


हिन्दी साहित्य के आरंभ और विकास में कई महान कवियों और रचनाकारों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से एक हैं छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत. सुमित्रानंदन पंत नए युग के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं जिनका जन्म 20 मई, 1900 में कौसानी, उत्तराखंड में हुआ था. सुमित्रानंदन पंत के जन्म के मात्र छ: घंटे के भीतर ही उनकी मां का देहांत हो गया और उनका पालन-पोषण दादी के हाथों हुआ.

सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक युग प्रवर्तक कवि हैं, जिन्होंने भाषा को निखार और संस्कार देने के अलावा उसके प्रभाव को भी सामने लाने का प्रयत्न किया. उन्होंने भाषा से जुड़े नवीन विचारों के प्रति भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया. सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत: प्रकृति का कवि माना जाने लगा, लेकिन वास्तव में वह मानव-सौंदर्य और आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे.

महाकवि सुमित्रानंदन पन्त का महाकाव्य लोकायतन उनकी विचारधारा और लोक-जीवन के प्रति उनकी सोच को दर्शाता है. इस रचना के लिए पंत को सोवियत रूस तथा उत्तर-प्रदेश सरकार से पुरस्कार भी मिला था.

    28 दिसम्बर, 1977 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में सुमित्रानंदन पंत का देहांत हो गया. उनकी मृत्यु के पश्चात उत्तराखंड राज्य के कौसानी में महाकवि की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है.

कवी पन्त की वह रचना,जो कई पत्रिकाओं से खेद सहित लौटी, वह उनकी अविस्मर्णीय रचना हुई --- इस रचना को पढ़ते हुए सोचें कि हताश हो जाने से मंजिल नहीं मिलती ..... गिरेंगे नहीं,रुकेंगे नहीं तो चलना-दौड़ना कैसे सीखेंगे !

यह धरती कितना देती है -सुमित्रानंदन पंत 


मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा !

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
वन्ध्या मिटटी ने न एक भी पैसा उगला !
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल  हो गए !
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर !
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोप था, तृष्णा को सींचा था !

अर्धशती हहराती निकल गयी है तब से !
कितने ही मधु पतझर बीत गए अनजाने,
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूली, शरदें मुस्काई,
सी-सी कर हेमंत कँपे , तरु झरे, खिले वन !
औ' जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिए,
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने, कौतूहलवश, आँगन के कोने की 
गीली तह को यों ही ऊंगली से सहलाकर 
बीज सेम के दबा दिए मिटटी के नीचे !
भू के अंचल में मणि मानिक बाँध दिए हों !

मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को ;
और बात भी क्या थी, याद जिसे रखता मन !
किन्तु, एक दिन, जब मैं संध्या को आँगन में
टहल रहा था - तब सहसा मैंने जो देखा !
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से !
देखा, आँगन के कोने में कई नवागत 
छोटी-छोटी चाता ताने हुए खड़े हैं !
चाता कहूं की विजय पताकाएं जीवन की ,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्ही, प्यारी -
जो भी हो, वे हरे हरे उल्लास से भरे 
पंख मार कर उड़ने को उत्सुक लगते थे,
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़िया के बच्चों - से !

निर्मिमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता,
सहसा मुझे स्मरण हो आया, कुछ दिन पहले,
बीज सेम के रोप थे मैंने आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधों की यह पलटन 
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से 
नन्हे नाटे पैर पटक, बढती जाती है !
तब से उनको रहा देखता - धीरे धीरे 
अनगिनत पत्तों से लद , भर गयी झाड़ियाँ 
हरे भरे तंग गए कई मखमली, चंदोवे !
बेलें फ़ैल गयी बल खा, आँगन में लहरा, -
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का 
हरे हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को !
मैं अवाक रह गया वंश कैसे बढ़ता है !
छोटे, तारों - से छितरे, फूलों के छींटे 
झागों- से लिपटे लहरी श्यामल लतरों पर 
सुन्दर लगते थे, मानस के हंसमुख नभ-से,
चोटी  के मोती-से, आँचल के बूंटों-से !

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ टूटी !
कितनी साड़ी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,
पतली चौड़ी फलियाँ, - उफ, उनकी क्या गिनती !
लम्बी लम्बी अंगुलियाँ - सी, नन्हीं नन्हीं 
तलवारों - सी, पन्ने के प्यारे हीरों - सी,
झूठ न समझें, चन्द्र कलाओं-सी नित बढती,
सच्चे मोती की लड़ियों - सी, ढेर ढेर खिल,
झुण्ड-झुण्ड भिलमिलकर कचपचिया तारों-सी !
आ: इतनी फलियाँ टूटीं, जाड़ों भर खायी,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के 
जाने अनजाने सब लोगों में बंटवाई,
बंधु , बांधवों, मित्रों,अभ्यागत मंगतों ने 
जी भर-भर दिन-रात मोहल्ले भर ने खाईं !
कितनी सारी फलियाँ ! कितनी प्यारी फलियाँ !

यह धरती कितना देती है ! धरती माता 
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को !
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्त्व को !
बचपन में, छि: स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर ।

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं ,
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं ,
जिससे उगल सके फिर धुल सुनहली फसलें 
मानवता की-जीवन श्रम से हंसें दिशायें !
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे ।


मैं नहीं चाहता चिर सुख-सुमित्रा नंदन पन्त

मैं नहीं चाहता चिर सुख
मैं नहीं चाहता चिर दुख,

सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख!
सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण,
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन!

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से!

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का!


श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति / सुमित्रानंदन पंत
छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा
अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा
मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत--
गलित ललित आलोक राशि, चिर अक्लुष अविजित!
स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मंदिर
शिल्पि, बनाया,-- ज्योति कलश निज यश का घर चित्त।
शिलीभूत सौन्दर्य ज्ञान आनंद अनश्वर
शब्द-शब्द में तेरे उज्ज्वल जड़ित हिम शिखर।
शुभ्र कल्पना की उड़ान, भव भास्वर कलरव,
हंस, अंश वाणी के, तेरी प्रतिभा नित नव;
जीवन के कर्दम से अमलिन मानस सरसिज
शोभित तेरा, वरद शारदा का आसन निज।
अमृत पुत्र कवि, यश:काय तव जरा-मरणजित,
स्वयं भारती से तेरी हृतंत्री झंकृत।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात

(यदि पढ़ना आपके लिए संजीवनी है तो हिंदी की ये मुलाकातें असर डालेंगी)

दुष्यंत कुमार त्यागी (१९३३-१९७५) एक हिंदी कवि और ग़ज़लकार थे । इन्होंने 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की किताबों का सृजन किया। दुष्यंत कुमार उत्तर प्रदेश के बिजनौर के रहने वाले थे । जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील (तरक्कीपसंद) शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था । हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था । उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे । इस समय सिर्फ़ ४२ वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की । निदा फ़ाज़ली उनके बारे में लिखते हैं

"दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है. यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है "

एक नज़र उनकी ज्वलंत रचनाओं पर -

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये


सूर्यास्त: एक इम्प्रेशन / दुष्यंत कुमार

सूरज जब
किरणों के बीज-रत्न
धरती के प्रांगण में
बोकर
हारा-थका
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
सिन्धु के किनारे
निज थकन मिटाने को
नए गीत पाने को
आया,
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप
और शान्त हो रहा।

लज्जा से अरुण हुई
तरुण दिशाओं ने
आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह!
क्रोध से हिमालय के वंश-वर्त्तियों ने
मुख-लाल कुछ उठाया
फिर मौन सिर झुकाया
ज्यों – 'क्या मतलब?'
एक बार सहमी
ले कम्पन, रोमांच वायु
फिर गति से बही
जैसे कुछ नहीं हुआ!

मैं तटस्थ था, लेकिन
ईश्वर की शपथ!
सूरज के साथ
हृदय डूब गया मेरा।
अनगिन क्षणों तक
स्तब्ध खड़ा रहा वहीं
क्षुब्ध हृदय लिए।
औ' मैं स्वयं डूबने को था
स्वयं डूब जाता मैं
यदि मुझको विश्वास यह न होता –-
'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य
ज्योति-किरणों से भरा-पूरा
धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को
जोतता-बोता हुआ,
हँसता, ख़ुश होता हुआ।'

ईश्वर की शपथ!
इस अँधेरे में
उसी सूरज के दर्शन के लिए
जी रहा हूँ मैं
कल से अब तक!


आग जलती रहे / दुष्यंत कुमार

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात




15 सितम्बर सन् 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में जन्मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। वाराणसी तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत इन्होने अध्यापन तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य किया ...  आकाशवाणी में सहायक निर्माता; दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे। 

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे,पर जब उन्होंने दिनमान का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया। सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता । सर्वेश्वर की यह अग्रगामी सोच उन्हें एक बाल पत्रिका के सम्पादक के नाते प्रतिष्ठित और सम्मानित करती है ।

यद्यपि इनका साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ तथापि ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे इनके लेख ख़ासे लोकप्रिय रहे। सन् 1983 में इन्हें इनकी कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। कविता के अतिरिक्त इन्होने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा। 24 सितम्बर 1983 को हिन्दी का यह लाडला सपूत आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हुआ।

‘काठ की घाटियाँ’, ‘बाँस का पुल’, ‘एक सूनी नाव’, ‘गर्म हवाएँ’, ‘कुआनो नदी’, ‘कविताएँ-1′, ‘कविताएँ-2′, ‘जंगल का दर्द’ और ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ आपके काव्य संग्रह हैं।

दिल पर असर करती उनकी कुछ रचनाएँ ....


उम्र ज्यों—ज्यों बढ़ती है
डगर उतरती नहीं
पहाड़ी पर चढ़ती है.
लड़ाई के नये—नये मोर्चे खुलते हैं
यद्यपि हम अशक्त होते जाते हैं घुलते हैं.
अपना ही तन आखिर धोखा देने लगता है
बेचारा मन कटे हाथ —पाँव लिये जगता है.
कुछ न कर पाने का गम साथ रहता है
गिरि शिखर यात्रा की कथा कानों में कहता है.
कैसे बजता है कटा घायल बाँस बाँसुरी से पूछो—
फूँक जिसकी भी हो, मन उमहता, सहता, दहता है.
कहीं है कोई चरवाहा, मुझे, गह ले.
मेरी न सही मेरे द्वारा अपनी बात कह ले.
बस अब इतने के लिए ही जीता हूँ
भरा—पूरा हूँ मैं इसके लिए नहीं रीता हूँ.

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एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।

शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।

हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।

कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।

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मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!

अक्सर दरख्तों के लिये
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खडा रहा
वे अपनी हरीयाली
अपने फूल फूल पर इतराते
अपनी चिडियों में उलझे रहे

मैं आगे बढ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जडों में नहीं बदल पाया

यह जानते हुए भी 
कि आगे बढना
निरंतर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख्तों की लंबी छायाएं 
मुझे घेरे हुए हैं......

किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम
मुझे
और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
चाहा जरुर!

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात




अज्ञेय जी के पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। कुशीनगर में अज्ञेय जी का जन्म 7 मार्च, 1911 को हुआ था। लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू घूमते हुए इनका परिवार 1919 में नालंदा पहुँचा। नालंदा में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय से हिन्दी लिखवाना शुरू किया। इसके बाद 1921 में अज्ञेय का परिवार ऊटी पहुँचा ऊटी में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय का यज्ञोपवीत कराया और अज्ञेय को वात्स्यायन कुलनाम दिया।

अज्ञेय ने घर पर ही भाषा, साहित्य, इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ की। 1925 में अज्ञेय ने मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की इसके बाद दो वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में एवं तीन वर्ष फ़ॉर्मन कॉलेज, लाहौर में संस्थागत शिक्षा पाई। वहीं बी.एस.सी.और अंग्रेज़ी में एम.ए.पूर्वार्द्ध पूरा किया। इसी बीच भगत सिंह के साथी बने और 1930 में गिरफ़्तार हो गए।

अज्ञेय ने छह वर्ष जेल और नज़रबंदी भोगने के बाद 1936 में कुछ दिनों तक आगरा के समाचार पत्र सैनिक के संपादन मंडल में रहे, और बाद में 1937-39 में विशाल भारत के संपादकीय विभाग में रहे। कुछ दिन ऑल इंडिया रेडियो में रहने के बाद अज्ञेय 1943 में सैन्य सेवा में प्रविष्ठ हुए। 1946 में सैन्य सेवा से मुक्त होकर वह शुद्ध रुप से साहित्य में लगे। मेरठ और उसके बाद इलाहाबाद और अंत में दिल्ली को उन्होंने अपना केंद्र बनाया। अज्ञेय ने प्रतीक का संपादन किया। प्रतीक ने ही हिन्दी के आधुनिक साहित्य की नई धारणा के लेखकों, कवियों को एक नया सशक्त मंच दिया और साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। 1965 से 1968 तक अज्ञेय साप्ताहिक दिनमान के संपादक रहे। पुन: प्रतीक को नाम, नया प्रतीक देकर 1973 से निकालना शुरू किया और अपना अधिकाधिक समय लेखन को देने लगे। 1977 में उन्होंने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स के संपादन का भार संभाला। अगस्त 1979 में उन्होंने नवभारत टाइम्स से अवकाश ग्रहण किया।

अज्ञेय का कृतित्व बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव की सहज परिणति है। अज्ञेय की प्रारंभ की रचनाएँ अध्ययन की गहरी छाप अंकित करती हैं या प्रेरक व्यक्तियों से दीक्षा की गरमाई का स्पर्श देती हैं, बाद की रचनाएँ निजी अनुभव की परिपक्वता की खनक देती हैं। और साथ ही भारतीय विश्वदृष्टि से तादात्म्य का बोध कराती हैं। अज्ञेय स्वाधीनता को महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानते थे, परंतु स्वाधीनता उनके लिए एक सतत जागरुक प्रक्रिया रही। अज्ञेय ने अभिव्यक्ति के लिए कई विधाओं, कई कलाओं और भाषाओं का प्रयोग किया, जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन। उपन्यास के क्षेत्र में 'शेखर' एक जीवनी हिन्दी उपन्यास का एक कीर्तिस्तंभ बना। नाट्य-विधान के प्रयोग के लिए 'उत्तर प्रियदर्शी' लिखा, तो आंगन के पार द्वार संग्रह में वह अपने को विशाल के साथ एकाकार करने लगते हैं। अज्ञेय के विषय में यह कहा जाता है कि, वह 'कठिन काव्य के प्रेत हैं'।

तो डालते हैं एक नज़र कठिन काव्य पर और प्रस्फुटित करते हैं शब्दों को अपने भीतर नए सिरे से - 

पक्षधर / अज्ञेय
संग्रह: कितनी नावों में कितनी बार 

इनसान है कि जनमता है
और विरोध के वातावरण में आ गिरता है:
उस की पहली साँस संघर्ष का पैंतरा है
उस की पहली चीख़ एक युद्ध का नारा है
जिसे यह जीवन-भर लड़ेगा।

हमारा जन्म लेना ही पक्षधर बनना है,
जीना ही क्रमशः यह जानना है
कि युद्ध ठनना है
और अपनी पक्षधरता में
हमें पग-पग पर पहचानना है
कि अब से हमें हर क्षण में, हर वार में, हर क्षति में,
हर दुःख-दर्द, जय-पराजय, गति-प्रतिगति में
स्वयं अपनी नियति बन 
अपने को जनना है।

ईश्वर 
एक बार का कल्पक
और सनातन क्रान्ता है:
माँ—एक बार की जननी
और आजीवन ममता है:
पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से
हम में यह क्षमता है
कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में
अपने को अनुक्षण जनते चलें,
अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें,
अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए
अपनी नयी नियति बनते चलें।

पक्षधर और चिरन्तन,
हमें लड़ना है निरन्तर,
आमरण अविराम—
पर सर्वदा जीवन के लिए:
अपनी हर साँस के साथ
पनपते इस विश्वास के साथ
कि हर दूसरे की हर साँस को
हम दिला सकेंगे और अधिक सहजता,
अनाकुल उन्मुक्ति, और गहरा उल्लास

अपनी पहली साँस और चीख़ के साथ
हम जिस जीवन के
पक्षधर बने अनजाने ही,
आज होकर सयाने
उसे हम वरते हैं:
उस के पक्षधर हैं हम—
इतने घने
कि उसी जीने और जिलाने के लिए
स्वेच्छा से मरते हैं!


क्योंकि मैं / अज्ञेय

क्योंकि मैं
यह नहीं कह सकता
कि मुझे
उस आदमी से कुछ नहीं है
जिसकी आँखों के आगे
उसकी लम्बी भूख से बढ़ी हुई तिल्ली
एक गहरी मटमैली पीली झिल्ली-सी छा गई है,
और जिसे चूंकि चांदनी से कुछ नहीं है,
इसलिए
मैं नहीं कह सकता
कि मुझे चांदनी से कुछ नहीं है।

क्योंकि मैं
उसे जानता हूँ
जिसने पेड़ के पत्ते खाए हैं
और जो उसकी जड़ की लकड़ी भी खा सकता है
क्योंकि उसे जीवन की प्यास है;
क्योंकि वह मुझे प्यारा है
इसलिए मैं पेड़ की जड़ को या लकड़ी को
अनदेखा नहीं करता
बल्कि पत्ती को
प्यार भी करता हूँ करूंगा

क्योंकि जिसने कोड़ा खाया है
वह मेरा भाई है
क्योंकि यों उसकी मार से मैं भी तिलमिला उठा हूँ
इसलिए मैं उसके साथ नहीं चीख़ा-चिल्लाया हूँ :
मैं उस कोड़े को छीन कर तोड़ दूंगा।
मैं इन्सान हूँ और इन्सान वह अपमान नहीं सहता।

क्योंकि जो कोड़ा मारने उठाएगा
वह रोगी है
आत्मघाती है
इसलिए उसे संभालने, सुधारने, राह पर लाने
ख़ुद अपने से बचाने की
जवाबदेही मुझ पर आती है।
मैं उसका पड़ोसी हूँ :
उसके साथ नहीं रहता।


जो नशा होता है गहरे उतरने में,उससे अलग होना मन चाहता तो नहीं - पर ! मुलाकातें अभी और हैं .................

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात




जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक चाव से पढते हैं। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की। 

उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी विविध प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से समृद्ध किया हो। प्रसाद ने काव्यरचना व्रजभाषा में आरंभ की और धीर-धीरे खड़ी बोली को अपनाते हुए इस भाँति अग्रसर हुए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने लगी और वे युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

उनकी काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है : काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। इस समस्त रचनाओं की विशेषताओं का आकलन करने पर हिंदी काव्य को प्रसाद जी की निम्नांकित देन मानी जा सकती है।

उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। उनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' 1914 ई. में इंदु में प्रकाशित हुई। वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी हैं। उन्होंने हिंदी में 'करुणालय' द्वारा गीत नाट्य का भी आरंभ किया। उन्होंने भिन्न तुकांत काव्य लिखने के लिये मौलिक छंदचयन किया और अनेक छंद का संभवत: उन्होंने सबसे पहले प्रयोग किया। उन्होंने नाटकीय ढंग पर काव्य-कथा-शैली का मनोवैज्ञानिक पथ पर विकास किया। साथ ही कहानी कला की नई टेकनीक का संयोग काव्यकथा से कराया। प्रगीतों की ओर विशेष रूप से उन्होंने गद्य साहित्य को संपुष्ट किया और नीरस इतिवृत्तात्मक काव्यपद्धति को भावपद्धति के सिंहासन पर स्थापित किया।

काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार 'कामायनी' है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे 'हिंदी में ताजमहल के समान' मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है।

कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ 1912 ई. में 'इंदु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई। प्राय: तभी से गतिपूर्वक आधुनिक काहनियों की रचना हिंदी मे आरंभ हुई। प्रसाद जी ने कुल 72 कहानियाँ लिखी हैं। उनकी अधिकतर कहानियों में भावना की प्रधानता है किंतु उन्होंने यथार्थ की दृष्टि से भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी वातावरणप्रधान कहानियाँ अत्यंत सफल हुई हैं। उन्होंने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों पर मौलिक एवं कलात्मक कहानियाँ लिखी हैं। भावना-प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ लिखी हैं। भावना प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तम कहानियाँ, भी उन्होंने लिखी हैं। ये कहानियाँ भावनाओं की मिठास तथा कवित्व से पूर्ण हैं।

प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है। वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है।

उनकी कुछ चर्चित रचनाएँ .....


बीती विभावरी जाग री !
          अम्बर पनघट में डुबो रही-
          तारा-घट ऊषा नागरी ।

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
          लो यह लतिका भी भर ला‌ई-
          मधु मुकुल नवल रस गागरी ।

अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए-
          तू अब तक सो‌ई है आली !
          आँखों में भरे विहाग री ।


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ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
                           जिस निर्जन में सागर लहरी,
                        अम्बर के कानों में गहरी,
                    निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
                   तज कोलाहल की अवनी रे ।
                 जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
              ढीली अपनी कोमल काया,
           नील नयन से ढुलकाती हो-
        ताराओं की पाँति घनी रे ।

                           जिस गम्भीर मधुर छाया में,
                        विश्व चित्र-पट चल माया में,
                     विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
                  दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
               श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
            जहाँ सृजन करते मेला से,
         अमर जागरण उषा नयन से-
      बिखराती हो ज्योति घनी रे !

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कामायनी से -

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह 
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, 
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।

दूर दूर तक विस्तृत था हिम, स्तब्ध उसी के हृदय समान, 
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान।

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान, 
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे, देवदारू दो चार खड़े, 
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर, बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, 
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार। 

चिंता-कातर वदन हो रहा, पौरूष जिसमें ओत-प्रोत, 
उधर उपेक्षामय यौवन का, बहता भीतर मधुमय स्रोत। 

बँधी महावट से नौका थी, सूखे में अब पड़ी रही, 
उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही। 

निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी, 
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी। 

"ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली, 
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली। 

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला 
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल- री तरल गरल की लघु-लहरी, 
जरा अमर-जीवन की, और न कुछ सुनने वाली, बहरी। 

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी- अरी आधि, मधुमय अभिशाप 
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप। 

मनन करावेगी तू कितना? उस निश्चित जाति का जीव 
अमर मरेगा क्या? तू कितनी गहरी डाल रही है नींव। 

आह घिरेगी हृदय-लहलहे, खेतों पर करका-घन-सी, 
छिपी रहेगी अंतरतम में, सब के तू निगूढ धन-सी। 

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम 
अरी पाप है तू, जा, चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम। 

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, नीरवते बस चुप कर दे, 
चेतनता चल जा, जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।" 

"चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की, उस सुख की, 
उतनी ही अनंत में बनती जात, रेखायें दुख की। 

आह सर्ग के अग्रदूत, तुम असफल हुए, विलीन हुए, 
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए। 

अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नतर्न, 
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावत्तर्न। 

मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य 
देव-दंभ के महामेध में, सब कुछ ही बन गया हविष्य। 

अरे अमरता के चमकीले पुतलो, तेरे ये जयनाद 
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि, बन कर मानो दीन विषाद। 

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब थे भूले मद में, 
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब, विलासिता के नद में। 

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार 
उमड़ रहा था देव-सुखों पर, दुख-जलधि का नाद अपार।" 

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या, स्वप्न रहा या छलना थी 
देवसृष्टि की सुख-विभावरी, ताराओं की कलना थी। 

चलते थे सुरभित अंचल से, जीवन के मधुमय निश्वास, 
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास। 

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना, 
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना। 

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल, वैभव, आनंद अपार, 
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार। 

कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती, अरूण-किरण-सी चारों ओर, 
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर। 

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी, पद-तल में विनम्र विश्रांत, 
कँपती धरणी उन चरणों से होकर, प्रतिदिन ही आक्रांत। 

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि? 
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि। 

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार, 
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार। 

भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह, 
प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।" 

"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत, 
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत? 

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन, 
मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन। 

अब न कपोलों पर छाया-सी, पडती मुख की सुरभित भाप 
भुज-मूलों में शिथिल वसन की, व्यस्त न होती है अब माप। 

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार, 
मुखरित था कलरव, गीतों में, स्वर लय का होता अभिसार। 

सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर, 
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर। 

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नत्तर्न, 
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा, मदिर भाव से आवत्तर्न।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात




सुभद्रा कुमारी चौहान की 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी' कविता की चार पंक्तियों से पूरा देश आज़ादी की लड़ाई के लिए उद्वेलित हो गया था। ऐसे कई रचनाकार हुए हैं जिनकी एक ही रचना इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुई कि उसके आगे की दूसरी रचनाएँ गौण हो गईं, जिनमें सुभद्राकुमारी भी एक हैं। उन्होंने ज़्यादा कुछ नहीं लिखा है। उनकी एक ही कविता 'झाँसी की रानी' लोगों के कंठ का हार बन गई है। एक इसी कविता के बल पर वे हिंदी साहित्य में अमर हो गई हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम 'ठाकुर रामनाथ सिंह' था। सुभद्रा कुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही सामने आ गई थी। आपका विद्यार्थी जीवन प्रयाग में ही बीता। 'क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज' में आपने शिक्षा प्राप्त की। 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका 'मर्यादा' में प्रकाशित हुई थी। यह कविता 'सुभद्राकुँवरि' के नाम से छपी। यह कविता ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई थी। सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि थी। पढ़ाई में प्रथम आने पर उसको इनाम मिलता था। सुभद्रा अत्यंत शीघ्र कविता लिख डालती थी, मानो उनको कोई प्रयास ही न करना पड़ता हो। स्कूल के काम की कविताएँ तो वह साधारणतया घर से आते-जाते तांगे में लिख लेती थी। इसी कविता की रचना करने के कारण से स्कूल में उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी।
सुभद्रा और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं। दोनों ने एक-दूसरे की कीर्ति से सुख पाया। सुभद्रा की पढ़ाई नवीं कक्षा के बाद छूट गई। शिक्षा समाप्त करने के बाद नवलपुर के सुप्रसिद्ध 'ठाकुर लक्ष्मण सिंह' के साथ आपका विवाह हो गया।[4] बाल्यकाल से ही साहित्य में रुचि थी। प्रथम काव्य रचना आपने 15 वर्ष की आयु में ही लिखी थी। सुभद्रा कुमारी का स्वभाव बचपन से ही दबंग, बहादुर व विद्रोही था। वह बचपन से ही अशिक्षा, अंधविश्वास, जाति आदि रूढ़ियों के विरुद्ध लडीं।
सुभद्रा की शादी अपने समय को देखते हुए क्रांतिकारी शादी थी। न लेन-देन की बात हुई, न बहू ने पर्दा किया और न कड़ाई से छुआछूत का पालन हुआ। दूल्हा-दूलहन एक-दूसरे को पहले से जानते थे, शादी में जैसे लड़के की सहमति थी, वैसे ही लड़की की भी सहमति थी। बड़ी अनोखी शादी थी- हर तरह लीक से हटकर। ऐसी शादी पहले कभी नहीं हुई थी।
सुभद्रा जी की बेटी सुधा चौहान का विवाह प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से हुआ जो स्वयं अच्छे लेखक थे। सुधा ने उनकी जीवनी लिखी- 'मिला तेज से तेज'।

आइये उनकी उत्कृष्ट रचनाओं की झलक पायें -

खिलौनेवाला 

वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।
कई तरह के सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया है।

हरा-हरा तोता पिंजड़े में
गेंद एक पैसे वाली
छोटी सी मोटर गाड़ी है
सर-सर-सर चलने वाली।

सीटी भी है कई तरह की
कई तरह के सुंदर खेल
चाभी भर देने से भक-भक
करती चलने वाली रेल।

गुड़िया भी है बहुत भली-सी
पहने कानों में बाली
छोटा-सा 'टी सेट' है
छोटे-छोटे हैं लोटा थाली।

छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं
हैं छोटी-छोटी तलवार
नए खिलौने ले लो भैया
ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।

मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है
मोहन ने मोटर गाड़ी
मचल-मचल सरला करती है
माँ ने लेने को साड़ी

कभी खिलौनेवाला भी माँ
क्‍या साड़ी ले आता है।
साड़ी तो वह कपड़े वाला
कभी-कभी दे जाता है

अम्‍मा तुमने तो लाकर के
मुझे दे दिए पैसे चार
कौन खिलौने लेता हूँ मैं
तुम भी मन में करो विचार।

तुम सोचोगी मैं ले लूँगा।
तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल
पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा
ये तो हैं बच्‍चों के खेल।

मैं तो तलवार खरीदूँगा माँ
या मैं लूँगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारुँगा राम समान।

तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मैं मार भगाऊँगा
यों ही कुछ दिन करते-करते 
रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।

यही रहूँगा कौशल्‍या मैं
तुमको यही बनाऊँगा।
तुम कह दोगी वन जाने को
हँसते-हँसते जाऊँगा।

पर माँ, बिना तुम्‍हारे वन में
मैं कैसे रह पाऊँगा।
दिन भर घूमूँगा जंगल में
लौट कहाँ पर आऊँगा।

किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा
तो कौन मना लेगा
कौन प्‍यार से बिठा गोद में
मनचाही चींजे़ देगा।


झांसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, 
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, 
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, 
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। 

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, 
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, 
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, 
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। 

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, 
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, 
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, 
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़| 

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, 
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, 
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, 
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में, 

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई, 
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, 
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, 
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई। 

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, 
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, 
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, 
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। 

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, 
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, 
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, 
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। 

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, 
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, 
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? 
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। 

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, 
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, 
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'। 

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, 
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, 
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, 
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। 

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, 
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, 
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, 
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, 

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, 
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, 
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, 
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। 

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में, 
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में, 
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में, 
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में। 

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार, 
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार, 
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार, 
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार। 

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी, 
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी, 
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी, 
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी। 

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार, 
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार, 
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार, 
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। 

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी, 
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी, 
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी, 
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी, 

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। 

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी, 
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी, 
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी, 
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी। 

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी, 
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, 
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

प्रभु तुम मेरे मन की जानो

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥

यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

नोट: यह कवयित्री की अंतिम रचना है।


शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात




शिवानी हिन्दी की एक प्रसिद्ध उपन्यासकार थीं । इनका वास्तविक नाम गौरा पन्त था किन्तु ये शिवानी नाम से लेखन करती थीं । इनका जन्म १७ अक्टूबर १९२३ को विजयदशमी के दिन राजकोट, गुजरात मे हुआ था । इनकी शिक्षा शन्तिनिकेतन में हुई! साठ और सत्तर के दशक में , इनकी लिखी कहानियां और उपन्यास हिन्दी पाठकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हुए और आज भी लोग उन्हें बहुत चाव से पढ़ते हैं । शिवानी का निधन 2003 ई० मे हुआ । उनकी लिखी कृतियों मे कृष्णकली, भैरवी,आमादेर शन्तिनिकेतन और विषकन्या, आपका बंटी आदि प्रमुख हैं ।
टीनएजर थी मैं .... जब मैंने उनकी कहानियाँ पढ़ीं . 'कृष्णकली' पहली किताब थी ..... उम्र की मांग ने मुझे खुद को कृष्णकली बना लिया और प्रवीर की चाह लहरों की तरह मचलती रही . 

प्रस्तुत हैं पुस्तक के प्राप्य कुछ अंश

ऐसा कभी कभी ही होता है कि कोई कृति पुस्तक का आकार लेने भी न पाये किन्तु अपनी प्रसिद्धि से साहित्य-जगत् को चौंका दे। ‘कृष्णकली’ के साथ ऐसा ही हुआ है। कौन है यह कृष्णकली? सौन्दर्य और कौमार्य की अग्निशिखा से मण्डित एक ऐसा नारी-व्यक्तित्व जो शिवानी की लौह-संकल्पिनी मानस-संतान है, एक अद्भुत चरित्र जो अपनी जन्मजात ग्लानि और अपावनकता की कर्दम में से प्रस्फुटित होकर कमल सा फूलता है, सौरभ-सा महकता है और मादक पराग सा अपने सारे परिवेश को मोहाच्छन्न कर देता है। नये-नये अनुभवों के कण्टकाकीर्ण पथों से गुजरती और काजल की कोठरियों में रहती-सहती यह विद्रोहिणी समाज की वर्जनाओं का वरण करती है किन्तु फिर भी अपनी सहज संस्कारशीलता को छटक नहीं पाती। कृष्णकली ने न कभी हारना, न झुकना, उससे टूटना भले ही स्वीकारा। कृष्णकली का क्या हुआ, जो हुआ वह क्यों हुआ - इन प्रश्नों के समाधान में अनेकानेक पाठकों की विकलता लेखिका ने अत्यन्त निकट से देखी-जानी है...

‘कृष्णकली’ के इस सप्तम संस्करण को अपने उन स्नेही पाठकों को सौंपते मुझे प्रसन्नता तो हो ही रही है, एक लेखकीय गहन सन्तोष की अनुभूति भी मुझे बार-बार विचलित कर रही है। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि पाठकों को किसी भी कहानी या उपन्यास के पात्रों से संवेदना या सहानुभूति ही होती है, तो लेखनी की उपलब्धि को हम पूर्ण उपलब्धि नहीं मान सकते। जब पाठक किसी पात्र से एकत्व स्थापित कर लेता है, जब उसका दुख, उसका अपमान उसकी वेदना बन जाती है, तब ही लेखनी की सार्थकता को हम मान्यता दे पाते हैं। जैसा कि महान् साहित्यकार प्लौबेयर ने एक बार अपने उपन्यास की नायिका मदाम बौवेरी के लिए अपने एक मित्र को लिखा था-‘‘वह मेरी इतनी अपनी जीवन्त बोलती-चलती प्रिय पात्रा बन गयी थी कि मैंने जब उसे सायनाइड खिलाया तो स्वयं मेरे मुँह का स्वाद कड़ुआ हो गया और मैं फूट-फूटकर रोने लगा।’’
लेखक जब तक स्वयं नहीं रोता, वह अपने पाठकों को भी नहीं रुला सकता। जब ‘कृष्णकली’ लिख रही थी तब लेखनी को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, सब कुछ स्वयं ही सहज बनता चला गया था।
जहाँ कलम हाथ में लेती उस विस्मृत मोहक व्यक्तित्व, को स्मृति बड़े अधिकार पूर्ण लाड़-दुलार से खींच, सम्मुख लाकर खड़ा कर देती, जिसके विचित्र जीवन के रॉ-मैटीरियल से मैंने वह भव्य प्रतिमा गढ़ी थी। ओरछा की मुनीरजान के ही ठसकेदार व्यक्तित्व को सामान्य उलट-पुलटकर मैंने पन्ना की काया गढ़ी थी। जब लिख रही थी तो बार-बार उसके मांसल मधुर कण्ठ की गूँज, कानों में गूँज उठती-

                 ‘जोबना के सब रस लै गयो भँवरा
                 गूँजी रे गूँजी...’
              कभी कितने दादरा, लेद उनसे सीखे थे-
                  ‘चले जइयो बेदरदा मैं रोई मरी जाऊँ
             या
                    ‘बेला की बहार
                  आयो चैत को महीना 
                     श्याम घर नइयाँ
                  पलट जियरा जाय हो...’
वही विस्तृत मधुर गूँज, उनके नवीन व्यक्तित्व के साथ, ‘कृष्णकली’ में उतर आयी। आज से वर्षों पूर्व, जब ‘कृष्णकली’ धारावाहिक किश्तों में ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हो रही थी, तो ठीक अन्तिम किश्त छपने से पूर्व, टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रेस में हड़ताल हो गयी थी। पाठकों को उसी अन्तिम किश्त की प्रतीक्षा थी जिसमें कली के प्राण कच्ची डोर से बँधे लटके थे।
क्या वह बचेगी या मर जायेगी ?
उन्हीं दिनों मेरे पास एक पाठक का पत्र आया था, साथ में 500/- रुपये का एक चेक संलग्न था-
‘‘शिवानी जी, अन्तिम किश्त न जाने कब छपे-मैं बेचैन हूँ, सारी रात सो नहीं पाता। कृपया लौटती डाक से बताएँ कृष्णकली-बची या नहीं। चैक संलग्न है।’’ चेक लौटाकर मैंने अपने उस बेचैन पाठक से अपनी विवशता ‘मानस’ की इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त की थी-
                      ‘होई है सोई जो राम रचि राखा
                       को करि तर्क बढ़ावइ साखा’
ऐसे ही, लखनऊ मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. चरन ने मुझे एक रोचक घटना सुनाई थी। एम.बी.बी.एस. की फाइनल परीक्षा चल रही थी। कुछ लड़के परीक्षा देकर बाहर निकल आये थे। थोड़ी ही देर में परीक्षा देकर लड़कियों का एक झुण्ड निकला। लड़को ने आगे बढ़कर सूचना दीः ‘कृष्णकली मर गयी।’
‘हाय’ का समवेत दीर्घ वेदना-तप्त निःश्वास सुन डॉ. चरन चकित हो गये। आखिर कौन है ऐसी मरीज, जिसके लिए छात्र-छात्राओं की ऐसी संवेदना है ? निश्चय ही मेडिकल कॉलेज में एडमिटेड होगी। बाद में पता चला वह कौन है।
आज इतने वर्षों में भी कली अपने मोहक व्यक्तित्व से यदि पाठकों को उसी मोहपाश में बाँध सकी है तो श्रेय मेरी लेखनी के नहीं, स्वयं उसके व्यक्तित्व के मसिपात्र को है जिसमें मैंने लेखनी डुबोई मात्र थी। अन्त में, मुनीरजान को मैं अपनी कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ। जहाँ वह हैं वहाँ तक शायद मेरी कृतज्ञता न पहुँचे, किन्तु इतना बार-बार दुहराना चाहूँगी कि यदि मुनीरजान न होती तो शायद पन्ना भी न होती और यदि पन्ना न होती तो कृष्णकली भी न होती।

शिवानी

एक


मूसलाधार वृष्टि टीन की ढालू छतों पर नगाड़े-सी बजा रही थी। देवदारु, बाज और बुरुश के लम्बे वृक्षों की घनी क़तार में छुपे बँगले में बरामदे में टँगी बरसाती हड़बड़ाकर सर पर डाल डॉ. पैद्रिक तीर-सी निकल गयीं।
ओफ़ ! कैसी विकट वृष्टि थी उस दिन ! लगता था क्रुद्ध आषाढ़ा के भृकुटि-विलास में अल्मोड़ा की सृष्टि ही लय हो जाएगी। कड़कती बिजली सामने गर्वोन्नत खड़े गागर और मुक्तेश्वर की चोटियों पर चमकी, तो डॉ. पैद्रिक दोनों कानों पर हाथ धर, थमककर खड़ी रह गयीं ! बिजली के धड़ाके के साथ नवजात शिशु का क्रन्दन... कहीं इसी बीच पार्वती कुछ कर बैठी हो ? काँपती, गले में पड़ी लम्बी रोजेरी को थामें, होंठों ही होंठों में बुदबुदाती डॉ. पैद्रिक, एक प्रकार से दौड़-सी लगाने लगीं। 
दो दिन पहले ही तो उसने कहा था, ‘‘फ़िकर मत करो मेम सा’ब, तुम्हारे आने से पहले ही मैं उसके खत्म कर दूँगी !’’
फिर ही-ही कर विकृत स्वर में हँसने लगी थी-निर्लज्ज बेहया औरत ! डॉ. पैद्रिक बड़ी देर तक उसके पास बैठी रही थीं, ‘‘बच्चे में ईश्वर का अंश होता है, जानती है पार्वती ? ईश्वर का गला घोंटेगी तू ? इस जन्म में न जाने किन पूर्वकृत पापों का फल भोग रही है, परलोक की चिन्ता नहीं है तुझे ?’’
उस अँधेरे कमरे में पार्वती की नासिका-विहीन विकराल हँसी को प्रथम बार सुनने पर पत्थर का कलेजा भी शायद भय से धड़कने लगता, ‘‘इसी लोक में जब इतना सुख भोग लिया है मेम सा’ब, तब परलोक की कैसी चिन्ता ? ‘‘अन्य आसन्न-प्रसवा स्त्रियों की तरह गर्भभार में दुहरी नहीं हुई थी पार्वती, सीना तानकर, अपने नुकीले पेट की परिधि को दोनों हाथों में थामे वह डॉ. पैद्रिक के सम्मुख, विद्रोह की जीवित मूर्ति-सी खड़ी हो गयी थी, फिर वह शायद स्वयं ही अपनी अल्प-बुद्धि पर खिसिया गयी थी, ‘‘बुरा मत मानना मेम सा’ब,’’ उत्तेजित कण्ठ-स्वर अचानक अवरोह के स्तर पर उतर आया, ‘‘तुम मेरी माँ हो, क्या ठीक नहीं कर रही हूँ मैं, अपने पाप का फल भोगने, इसे क्यों जीने दूँ !’’
क्षण-भर पूर्व निर्लज्जता से हँसने वाला ढीठ महाकुत्सित रोग-विकृत चेहरा, असह्य दुःख की असंख्य झुर्रियों से भर गया, पलक-विहीन बड़ी-बड़ी आँखों में आँसू छलक आये। किसी क्रूर हदयहीन आक्रमणकारी शत्रु की भाँति, महारोग ने सौन्दर्य-दुर्ग की धज्जियाँ उड़ा दी थीं, पर ऐतिहासिक दुर्ग के भग्नावशेष में भी जैसे दो सुन्दर झरोखे वैसे-के वैसे ही धरे थे, शत्रु की निर्मम गोलाबारी केवल रेशमी पक्ष्मों को ही झुलसा पायी थी।    
हलद्वानी में अपनी बस के पीछे भागती पार्वती को डॉ. पैद्रिक दस वर्ष पूर्व पकड़कर अपने आश्रम में लायी थीं। तब की पार्वती में और आज की पार्वती में धरती-आकाश का अन्तर था-नुकीली नाक, भरा-भरा शरीर और मछली-सी तिरछी बड़ी-बड़ी आँखों की स्वामिनी पार्वती अब क्या वैसी ही रह गयी थी ? पैरों में केनवास के फटे जूते देखकर ही डॉ. पैद्रिक की अनुभवी आँखों ने रोग का प्रमुख खेमा पकड़ लिया था। अभी हाथ-पैर के अँगूठों पर ही रोग ने कुठाराघात किया था, समझा-बुझा अन्त में पुलिस का भय दिखाकर ही डॉ. उसे अपने साथ ला पायी थीं।
‘‘तेरा यह रोग अभी भी एकदम ठीक हो सकता है, जानती है लड़की ?’’

और उस आकर्षक लड़की ने दोनों हाथों के डुण्ठ, दुष्टता से हँसकर ठीक डॉ. पैद्रिक की नाक के नीचे फैला दिये थे, ‘‘ये अँगुली कहाँ से लाएगा मेम साहब ?’’ दस अँगुलियों में से अवशेष, उन तीन अँगुलियों की गठन निस्सन्देह अनुपम थी-लम्बी, ऊपर से मुड़ी अँगुलियाँ। बहुत पहले जावा में रहती थीं डॉक्टर पैद्रिक, आज इन तीन अँगुलियों को देखकर उन्हें जावा की नर्तकियों की कलात्मक अँगुलियों का स्मरण हो आया, सचमुच ही इस नमूने की अँगुलियाँ गढ़ने में डिकी को कठिन परिश्रम करना होगा, पर डिकी की अद्भुत शक्ति को वह जानती थीं। बैलोर का वह विलक्षण चरक, आज तक कितने ही ग़लत अंशो को पुनः निर्माण कर असंख्य अभिशप्त रोगियों को जीवनदान दे चुका था। उनका अनुमान ठीक था। पार्वती बैलोर से अपनी नक़ली अँगुलियाँ लेकर लौटी तो डॉक्टर पैद्रिक दंग रह गयीं। कौन कहेगा, उन सुघड़ अँगुलियों की बनावट में कलाकार कहीं भी विधाता से पिछड़ा है !
पर पार्वती को ये नयी अँगुलियाँ देकर बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं किया, यह डॉ. पैद्रिक-जैसी बुद्धिमती महिला पहले ही दिन समझ गयीं। भागकर पार्वती न जाने किस-किस से धेला-टका उधार लेकर बाजार से अपनी नयी-नयी अँगुलियों के लिए कई रंग-बिरंगी अँगूठियाँ, मनकों का माला और एक छोटा-सा दर्पण खरीद लायी थी। जब डॉ. पैद्रिक राउण्ड पर गयीं तो वह अपनी खटिया पर दुल्हन-सी सजी-धजी नन्हें दर्पण में अपना मुँह निहारती, मुग्धा नायिका बनी बैठी थी। डॉक्टर का हृदय उस अभागिन के लिए करुणा से भर गया।
‘‘पार्वती,’’ उन्होंने उसकी नकली अँगूठियों से जगमगाती अँगुलियों को सहलाकर कहा था, ‘‘मैं तेरी जगह होती, तो पहले इन अँगुलियों को उस खुदा की बन्दगी में जोड़कर घुटने टेकती, जिसने इन्हें जोड़ने के लायक बना दिया और तुझे पहले इन्हें सजाने की ही पड़ी ?’’
‘‘ही-ही, मेम सा’ब’’-नास्तिक पार्वती को लाख चेष्टा करने पर भी डॉक्टर आस्तिक नहीं बना पायी थी। कठिन असाध्य रोग ने उसे चिड़चिड़ी, निर्लज्ज और ढीठ बना दिया था।
‘‘भगवान, खुदा, ईसामसी, किसी को नहीं मानती हूँ मैं, सब झूठ है। मेरी अँगुलियाँ क्या तुम्हारे खुदा ने ठीक कीं ? जिसने ठीक कीं वह तो हमारी-आपकी तरह ही एक आदमी है मेम सा’ब !’’
डॉक्टर ने फिर कुछ नहीं कहा, पर पार्वती को उन्होंने अपने कमरे की झाडू-बुहारी देने, फूलदानों पर पीतल पॉलिश करने आदि का छोटा-मोटा काम सौंपकर ऐसे बाँधकर रख दिया कि तोबड़ा बँधी जंगली घोड़ी की भाँति वह इधर-उधर मुँह नहीं मार सकती थी। पर धीरे-धीरे उसने अपने तेज़ दाँतों सो तोबड़ा काटकर धर दिया।
डॉक्टर के कठोर अनुशासन से मछली-सी पार्वती न जाने कब फिर अपने परिचित गँदले पोखर में सर्र से सरककर इधर-उधर तैरती फिरने लगी।
पार्वती की ही भाँति असदुल्ला खान कुष्ठाश्रम के पुरुष डॉक्टरों का सबसे बड़ा सरदर्द था। ऊँचा-लम्बा सुर्ख गालों वाला पठान, पहले दिन खून जँचवाने आया, तो कोई निकट से देखने पर भी उसके रोग के अस्तित्व का सूत्र नहीं पकड़ सकता था।
तीखी नाक, तेजस्वी आँखें, चौड़ा माथा और घने काले बाल, जिनका गहरा काला रेशमी रंग, उसके गौर वर्ण को और भी उजला बनाकर प्रस्तुत करता था। फटी सलवार और जर्जर नीली क्रेप की कमीज़ को पहने वह डॉ. पैद्रिक के सम्मुख एक सलाम दागकर खड़ा हो गया था। ‘‘अभी रोग का आरम्भ है खान,’’ डॉक्टर ने कहा था, ‘‘तुम संयम से रहे और यहाँ से भागे नहीं तो जल्दी ही ठीक हो जाओगे। अभी बीमारी ने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है।’’
‘‘और यह ?’’ अपनी भूरी मूँछों के बीच मोती-से दाँत चमकाकर उसने फटा जूता खोल, दोनों पैर डॉ. पैद्रिक के सामने धर दिये थे।
कीमा बनी दोनों अँगुलियों को देखकर डॉक्टर सिहर उठीं और अपनी झुँझलाहट नहीं रोक पायी थीं, ‘आज तक क्या करते रहे तुम ?’’
‘‘पत्थर की खान से खच्चरों पर पत्थर लादता रहा मेम सा’ब’’ बड़ी बेहयाई से वह एक बार फिर अपनी भूरी आकर्षक मूँछों के बीच मुस्कराता, पास खड़ी पार्वती को देखने लगा। चुलबुली पार्वती उसकी इस हाज़िरजवाबी से लोटपोट हो गयी। वह खिलखालाकर हँसी पर दूसरे ही क्षण डॉक्टर की कठोर दृष्टि ने उसे भूँजकर धर दिया, ‘‘पार्वती, तुम अपना काम करो, यहाँ क्या कर रही हो ?’’
उन्होंने उस दिन तो उसे डपटकर भीतर भेज दिया, पर असदुल्ला के सामान्य रूप के क्षत-विक्षत पौरूष का नाग उसे जाने से पहले ही डँस चुका था। लुक-छिपकर उससे मिलती रहती। पर अभागिनी पर्वती यह नहीं जानती थी कि वह सुदर्शन पठान, केवल उसी के सम्मुख प्रणय की झोली नहीं फैलाता। कुष्ठाश्रम की असंख्य गोपियों का एकमात्र कन्हैया असदुल्ला ही था। पठान होकर भी वह विशुद्ध मीठे लहजे में पहाड़ी बोल लेता था। दाड़िम के पेड़ के नीचे बैठकर जब वह एक से एक कठिन पहाड़ी लोकगीतों की धुन अपनी वंशी पर बजाने लगता, तो कोढ़ी-खाने की भीड़ उसे घेर लेती। जैसे वर्षा की वेगवती धारा गन्दे नालों के कचरे को अपने साथ-साथ दूर बहा ले जाती है, ऐसे ही कुछ क्षणों के लिए, कितनी ही बैठी नाक, झड़ी अँगुलियों, पतझड़ के विवश के पत्तों-सी गिरती पलकों की व्यथा असदुल्ला की मादक करुण वंशी-लहरी के साथ बहकर दूर चली जाती, और फ़रमाइशों का बाज़ार ग़रम हो उठता।
‘अरे यार असदुल्ला, हो जाये ज़रा चहगाना-’
           चना वे चकोरा वे चना
                बाँटि ले चना लटि
        तेरो सिपाही घर ऐ रोछौ, वेलिया पोरु वटी।
और असदुल्ला वंशी सहित, स्मृतियों में डूबी चकोरी पार्वती की ओर मुड़कर बार-बार वही पंक्ति दुहराने लगता तो एक साथ कई जूतों के सोल लयबद्ध ताल देने लगते-
      अरी चकोरी चना
        चोटी तो गूँथ ले
   कल तेरा सिपाही घर लौट आया है।
पार्वती का सुदर्शन सिपाही भी शायद घर लौट आया होगा। चकोरी के आँखों से टपटप आँसू गिरने लगते। मुँह फेरकर वह आँसू पोंछ दूसरे ही क्षण अपने आनन्दी चोले में लौट आती, ‘‘इन नक़ली अँगुलियों से क्या चोटी गूँथूँ यारो, और गूँथ भी लूँगी तो मेरा सिपाही क्या अब मेरे लिए बैठा होगा। ?’’
‘‘कोई बात नहीं पार्वती, हम तो बैठे हैं तेरे लिए, ’’ उसका नवीन प्रेमी पूरी बिरादरी के सम्मुख भूरी मूँछों पर ताव देता, दुहरा होता, किसी नाटक के कलाकार की ही भाँति नम्र ‘कर्टसी’ में झुक जाता।
‘‘वाह, वाह !’’
‘‘शाब्बास, क्या बात कही है सवा लाख की।’’ पार्वती लजाकर भाग जाती। उन दोनों की प्रणय रसकेलि पूरी बिरादरी को ज्ञात थी, फिर भी असाध्य रोग की एक-सी व्यथा की एकता से सब ऐसे कसकर बँधे थे कि एक भी खिंचता तो सबके सब साथ ही खिंच जाते। किसी ने डॉ. पैद्रिक से एक शब्द नहीं कहा। कुछ दिनों तक असदुल्ला को कुष्ठाश्रम की चारदीवारी में बन्द रहने में कोई आपत्ती नहीं रही, पर धीरे-धीरे वह लुक-छिपकर रात-आधी रात को खिसक जाता। 
‘‘आज मैंने एक बढ़िया पिक्चर देखी पर्वती ! उसमें काम करने वाली छोकरी एकदम तेरी सूरत की है,’’ वह कहता। पार्वती को वह पर्वती कहकर बुलाता था।
‘‘चल हट,’’ पार्वती उसे झिड़क देती, ‘‘इतने पैसे कहाँ से पाता है तू ?’’
‘‘क्यों, असदुल्ला खान के पास पैसों की क्या कमी ? राजा घर मोत्यूँ अकाल ?’’
वह भूरी मूँछों पर ताव देता, पहाड़ी की कहावत से अपनी पार्वती को एक बार फिर निहाल कर देता।
‘‘अभी तो तीन ही खच्चर बेचे हैं, पचास खच्चर चचा जान को सौंप आया हूँ, अगले हफ्ते तुझे तीन तोले की मछलियाँ नहीं बनवा दीं तो मेरा नाम बदल देना। समझी ?’’ झूठ नहीं बोलता था खान, पर पार्वती को उन तीन तोले की रामपुरी मछलियों का गहरा मोल चुकाना पड़ा था। पार्वती की दुरवस्था को भान होते ही असदुल्ला कब चुपचाप खिसक गया; कोई जान ही नहीं पाया। इधर पार्वती के असंयमित जीवन ने, रोग को तीवृता से उभाड़ दिया था। खाई-खन्दक में छिपे कुटिल शत्रु की भाँति उसने एक दिन पार्वती की पीठ में छुरी भोंक दी। रीढ़ की हड्डी की मर्मान्तक व्यथा से वह छटपटा रही थी कि उस पर झुकी डॉ. पैद्रिक ने उसका रोग भी पकड़ लिया। बड़ी देर तक वे हतबुद्धि-सी बैठी ही रह गयीं।
‘‘यह क्या कर बैठी पार्वती ? कौन था वह हृदयहीन ? बताती क्यों नहीं है बच्ची ?’’
पर पार्वती एक शब्द भी नहीं बोली। जिस उठी नासिका के एकमात्र स्तम्भ पर उसके सौन्दर्य का प्रासाद अब तक खड़ा था वह अचानक बैठने लगी थी। आँखों की पीड़ा से कभी-कभी ऐसे व्याकुल हो जाती कि लगता कोई लोहे की सहस्त्र गरम सलाखें उसकी आँखों में घुसेड़ रहा है। उस पर चक्राकार झूमते गर्भस्थ शिशु के अन्धकारमय भविष्य की चिन्ता उसे पागल बना देती। एक दिन उसने स्वयं ही दृढ़ निश्चय कर लिया, पुत्र हो या पुत्री, एक क्षण भी उस अभागे जीव को वह इस पृथ्वी पर साँस नहीं लेने देगी।
अपना वही अमानवीय दृढ़ संकल्प उसने डॉ. पैद्रिक के सम्मुख दुहराया तो वे सिहर उठी थीं। आज वही क्षण आया तो हृदय एक बार फिर उसी आशंका से काँप उठा। निश्चय ही वह पार्वती के शिशु का क्रन्दन था। भरी नींद में, वर्षामुखरित रात्रि को चीरता वही शिशु-स्वर का क्रन्दन उन्हें झकझोर गया था। जैसे नन्हें फेफड़े फाड़-फाड़कर उन्हें चीख-चीखकर पुकार रहा था, ‘बचा लो मुझे, बचा लो।
पहाड़ी आषाढ़ की वेगवती वर्षा की तीव्रतर अंग में सिहरती शर्वरी को चीरती, डॉ. पैद्रिक सहसा एक रुद्ध कण्ठ की चिहुँक सुनकर ठिठककर खड़ी रह गयीं। फिर वे ऐसे दौड़ने लगीं, जैसे बारह बरस की किशोरी हों। पैरों का गठिया, हाथ का आर्थराइटिस, सब कुछ भूल-भालकर गिरती-पड़ती,वे पार्वती की खटिया पर झुक गयीं। उनका अनुमान ठीक था। प्रसव से अकेले जूझती पार्वती क्लान्त होकर एक ओर पड़ी थी और दूसरी ओर थी माँस के लोथड़े-सी नवजात शिशु की निर्जीव देह।
‘‘खतम कर दिया साली को मेम सा‘ब,’’ वह बुझे स्वर में कहती खिसियाकर हँसने लगी। ‘‘एक तो छोकरी जन्मी, उस पर माँ-बाप दोनों साच्छात देवी-देवता।’’
अपने पैशाचिक कृत्य की सफलता पर स्वयं ही प्रसन्न हो, महातृप्ति की एक लम्बी साँस खींच, वह दीवार की ओर मुँह फेरकर लेट गयी। ‘‘हे भगवान् ! अभागी, यह क्या कर दिया तूने ?’’ डॉ. पैद्रिक उसी गन्दगी के बीच बैठ गयीं और अवश निर्जीव पड़ी, सुकुमार शिशु की कागज के फूल-सी हलकी देह को उन्होंने गोद में उठा लिया। नन्हीं-सी छाती पर कान धरे तो धड़कन का आभास पाते ही चौंक उठीं। उनके हाथ की घ़ड़ी की टिकटिक थी या नन्हे कलेजे की धड़कन ?
टिमटिमाते दीये की लौ के पास, उन्होंने दोनों हाथेलियों में उसे टिकाकर ग़ौर से देखा, मुर्ग़ी के चूज़े की-सी गर्दन पर दो अँगुलियों की स्पष्ट छाप फूलकर उभर आयी थी। न जाने क्या सोचकर पार्वती को उसी अवस्था में छोड़ डॉ. पैद्रिक नन्हीं काया को अपनी विशाल छातियों में चिपका, एक बार फिर उसी तेजी से अपने बँगले की ओर भागने लगीं।
रात-भर की वृष्टि के पश्चात तीव्र हवा के तूफ़ान ने, धृष्ट बादलों को रुई की भाँति धुनकर पूरे आकाश में छितरा दिया था। गागर के शैल-शिखर के पीछे अभी भी धुँधले तारे टिमटिमा रहे थे। भोर होने को थी। कब रात बीत गयी, डॉ. जान भी नहीं पायीं। रात-भर अचल बैठी डॉक्टर के लाल आयरिश चेहरे की झुर्रियाँ अचानक खिल उठी थीं। नन्हें शरीर पर रात-भर की गयी ब्राण्डी की मालिश से ही दैवी स्पन्दन इसे हिला-डुला गया था या उस दयालु से घुटने टेककर माँगी गयी भीख ही सार्थक हो गयी थी। पर दया की भीख तो एक इन्हीं प्राणों के लिए नहीं माँगी थी। बार-बार घुटने टेककर बैठी उस सन्त विदेशिनी के झुर्रीदार गालों पर झर-झर कर आसूँ बहने लगते। ‘‘उसे क्षमा करना प्रभु, शायद उसे मैं यहाँ न लाती तो ऐसा न होता, शायद वह सड़कों पर भटकती रहती तो ऐसा भयानक पाप नहीं करती। 
‘फो़रगिव दैम लॉर्ड फ़ॉर दे नो व्हाट दे डू’ ?’’ बुदबुदाती, वे कभी अवश पड़ी देह को निहारतीं, कभी छाती पर कान लगातीं। निष्प्रभ काली भवें और पुतलियाँ हिलने लगीं तो डॉक्टर एक बार फिर प्रार्थना में डूब गयीं। बहुत पहले बचपन में उनके मामा ने उन्हें एक ऐसी गुड़िया ला दी थी। ऐसी ही पलकें झपका-झपकाकर आँखें खोलती और बन्द करती थी वह ! ‘‘मेरी बच्ची,’’ डॉ. ने उसे गोदी में उठाकर चूम लिया।
‘‘नहीं, अब देरी करना ठीक नहीं है,’’ वे स्वयं ही बड़बड़ाने लगीं, ‘‘थोड़ी ही देर में पूरा आश्रम जग जाएगा। जगा आश्रम यही जानेगा कि पार्वती ने कल रात एक मृत शिशु को जन्म दिया था, डॉ. अकेली ही जाकर अभागी को कहीं गाड़ आयी हैं।’’
अपने क्रोशिया के रंग-बिरंगे शाल में बच्ची को लपेट, उन्होंने अपने लम्बे कोट के भीतर छिपा लिया और एक बार फिर बाहर निकल पड़ीं।
बार-बार उनका कलेजा धड़कता मुँह को आ रहा था। यदि उसने नहीं स्वीकारा तब ? कहाँ रखेंगी इसे ?
इस घृणात्मक वातावरण में, इस दूषित हवा के झोंके में, जहाँ एक-एक हवा का झोंका सहस्त्र घातक कीटाणुओं को बिखेरता जाता है, वहाँ इस सुकुमार जीवन को क्या वे सुरक्षित रख पाएँगी ? पर वे इतना क्यों सोच रही थीं, आज क्या कुष्ठाश्रम में यह प्रथम शिशु का जन्म था ? क्या इससे पूर्व कई नवजात शिशु वे मिशन में नहीं भेज चुकी हैं ? तब इसके मोह का बन्धन तोड़ने में वे आज क्यों कल्प-विकल्प के जाल में फँसी जा रही हैं ?
एक बार उनकी छाती से लगी नन्हीं देह काँपी और साथ वे भी काँप उठीं।
कहीं फिर कुछ हो तो नहीं गया। कोट का कॉलर उठाकर उन्होंने झाँका। काले झबरे बालों के बीच चमकते माथे पर, कन्धे झाड़ रहे देवदार वृक्ष से एक बूँद वर्षा की पड़ी। चिहुँककर, छोटे-से होंठ काँपे। डॉ. ने उसे और जोर से छाती से चिपक लिया।
कैसी नीरव निस्तब्ध रात्रि थी। एक तो उस निर्जन सड़क पर सन्ध्या होते ही सन्नाटा छा जाता था, उस पर आज ऐसी वर्षा में भला कौन घूमने बाहर निकलता ? लाल छत के बँगले को पहचानकर डॉक्टर ने द्वार खटखटाया। कोई उत्तर नहीं आया।
हवा चली और साथ ही देर से टहनियों पर संचित, वर्षा की कई बूँदें एक साथ झरकर डॉक्टर पैद्रिक पर बरस पड़ीं। डॉक्टर ने जोर की दस्तक दी।
‘‘कौन ?’’ बड़ी दूर से तैरता किसी का कण्ठ- स्वर आया।
‘‘पन्ना, मैं हूँ रोज़ी, द्वार खोलो।
‘‘रोज़ी ? तुम इतनी रात को ? आओ-आओ, राम-राम, तुम  तो एकदम ही भीग गयी हो। रुको, मैं लैम्प जला लूँ। ’’ एक कुरसी टटोलकर डॉक्टर के सामने खिसकाकर पन्ना लैम्प जलाने लगी।
लैम्प के धीमे प्रकाश में, पहले वह केवल उस गम्भीर चेहरे को ही देख पायी, पर धीरे-धीरे दो असीम वेदनापूर्ण क्लान्त बड़ी आँखों की करुण दृष्टि उस विशाल वक्ष से चिपकी नन्ही देह पर उतर आयी।
यह क्या ?
एक प्रकार से लड़खड़ाती पन्ना पलँग का पाया पकड़कर बैठ गयी।
सात दिन पहले, उसकी शून्य बाँहों से यही डॉक्टर पैद्रिक, जिसे सफ़ेद कपड़े में लपेटकर निर्ममता से कहीं दूर गाड़ने ले गयी थी, उसे ही क्या फिर गढ़े से निकाल लायी ?
क्या पता फिर उस निर्जीव देह में प्राण लौट आये हों ?
‘‘रोज़ी कहाँ से लायी इसे ? क्यों मुझसे छीन ले गयी थी ? क्यों तड़पाया मुझे सात दिनों तक ?’’ एक बार फिर पन्ना वैसी ही हिस्टिरिकल होने लगी। डॉक्टर ने बिना कुछ कहे कुनकुनाती बच्ची को पन्ना की गोद में डाल दिया।
‘‘बहुत भूखी है पन्ना, दूध अभी उतर रहा है क्या ?’’
अनाड़ी हाथों से मृतवत्सा पन्ना ने उसे छाती से चिपका लिया। ब्रेस्ट पम्प से सुखायी गयी मातृत्व की सूखी लता फिर पल्लवित हो उठी। चप-चप कर अमृत की घूँटें घुटकती काया को छाती से चिपकाकर पन्ना ने आँखें मूँद ली थीं और पागलों की भाँति स्वयं ही बड़बड़ा रही थी। ‘‘यह तो तुम्हारा सरासर अन्याय है रोज़ी, यह भी कैसा मजाक था भला ! तुमने इतने दिनों तक एक शब्द भी नहीं कहा, हाय मेरी बच्ची को सात दिनों तक बिना दूध के भूखा मार दिया है तुमने...’’
कुष्ठाश्रम का ग्वाला जिस गाय को दुहने लाता था, एक बार उसकी बछिया मर गयी थी, दूसरे ही दिन वह भूसा-भरी बछिया को गैया से टिकाकर फिर दूध दुहने आ गया था। डॉक्टर पैद्रिक को लगा, भूसा भरी बछिया ही उन्होंने भी आज पन्ना से सटा दी है, उनकी आँखें डबडबा आयीं। ‘‘पन्ना, माई डार्लिंग,’’ बड़े मीठे स्वर में उन्होंने पन्ना को पुकारा, ‘‘सवेरा होने को है, मुझे अभी लौट जाना होगा।’’
पन्ना ने आँखें खोल दीं और सहमी दृष्टि से डॉक्टर को देखा, न जाने किस आशंका से वह काँप उठी। कहीं फिर तो नहीं छीन लेगी इसे ?
‘‘मैं तुमसे झूठ नहीं बोली थी पन्ना,’’ वे रुक-रुककर कहने लगीं, ’’यह तुम्हारी बच्ची नहीं है।
भूखी बच्ची तृप्त होकर अभी भी उसकी छाती से लगी थी। होंठों से स्तन स्वयं छूट गये थे।
पन्ना शायद चौंककर पूछेगी-क्या ? मेरी नहीं है ? किसकी है तब ?
पर पन्ना ने कुछ भी नहीं पूछा। इतनी देर तक आँखें बन्द कर वह अपनी सूक्ष्म दृष्टि से सब कुछ देख चुकी थी।
‘‘पन्ना,’’ डॉक्टर पैद्रिक ने फिर पुकारा।
‘‘क्या है रोज़ी ?’’ शान्त स्वर में पूछे गये प्रश्न और आँखों की स्थिर दृष्टि में न जिज्ञासा थी न कौतूहल।
‘‘यह क्या पार्वती की बच्ची है रोज़ी ?’’ उसने पूछा तो डॉक्टर पैद्रिक जैसे आकाश से गिर पड़ीं। कैसे जान लिया इसने। क्या मन की भाषा भी पढ़ लेती है यह विलक्षण नारी।
उत्तर में डॉक्टर ने सिर झुका लिया। रोगी की ऐसी बीभत्स अवस्था में जन्मी उस बच्ची को उन्होंने पन्ना की गोदी में डाला ही किस दुस्साहस से। पन्ना पार्वती को ही नहीं असदुल्ला को भी जानती है। कई दिनों तक वह उसके बगीचे में माली का काम करता था। डॉक्टर पैद्रिक ने अपनी ही सखी के यहाँ उसकी ड्यूटी लगा दी थी। ‘‘इसकी रिपोर्ट निगेटिव है पन्ना, इससे चाहो तो हाट बाजार का भी काम ले सकती हो। ’’ पर लाख हो, था तो कुष्ठ रोगी ही। समाज इन अभागों की निगेटिव रिपोर्ट को क्या आज तक मान्यता दे पाया है ?   
       ऐसे माता-पिता की अभिशप्त सन्तान क्या इस कदर गोदी में स्थान पा सकेगी ? निश्चय ही दूर पटक देगी पन्ना।
‘‘मैं इसे मौत के मुँह से खींचकर लायी हूँ,’’ डॉक्टर का गला भर आया था।

‘‘तुम्हें तो बता ही चुकी थी, वह मूर्ख लड़की पहले ही ऐलान कर चुकी थी। पता नहीं कब उसे दर्द उठा और कब यह हो गयी। इसकी चीख सुनकर मैं भागी। जब तक पहुँची, शैतान उस पर सवार हो चुका था। अभी भी गरदन पर उसकी अँगुलियों के निशान बने धरे हैं। अगर इसे कुछ हो जाता तो मैं खुदा को क्या मुँह दिखाती, मैंने ही तो उसे ये नयी अँगुलियाँ दी थीं। तब मैं क्या जानती थी वह इनसे एक दिन एक नन्हीं जान का खात्मा करने पर उतारू हो जाएगी।
पन्ना एक भी शब्द नहीं बोली। बच्ची उसकी छाती से लगी, चुपचाप पड़ी थी।
‘‘मैं जानती हूँ कि इसके माँ-बाप को एक बार देख लेने पर, कोई कितना ही उदार हृदय क्यों न हो, शायद ही इसे स्वेच्छा से ग्रहण कर पाएगा। पर मैं तुम्हें जानती हूँ पन्ना, इसी से तुम्हारे पास बड़ी आशा से आयी हूँ। एक तो यह समय से पूर्व हुई है। माँ का दूध न मिलने पर यह कभी नहीं जी पाएगी। एक वर्ष तक भी तुम इसे पाल दो तो मैं फिर इसे मिशन को दे दूँगी। एक बात और कहना चाहती थी पन्ना...’’

डॉक्टर का खिसियाया कण्ठ-स्वर क्षमा-याचना-सी करने लगा, ‘‘यह रोग पैतृक ही होता है, ऐसी धारणा गलत है। मेरे पास कई कुष्ठ रोगियों की स्वस्थ सन्तान का पूरा रिकार्ड धरा है।’’
पन्ना गहरे सोच में डूबने-उतराने लगी थी। कैसा अनुभूत स्पर्श था ! वही गुदगुदी देह, मखमली होंठों की गुदगुदी लगने वाली सिहरन, एक असह्य टीस और फिर स्वर्गिक शान्ति। अचानक छाती में बँधी सब गिल्टियाँ जैसे किसी ने सोख ली थीं।

रात-भर की थकान, मानसिक अशान्ति और पन्ना की चुप्पी से डॉक्टर सहसा झुँझला उठीं। कुछ कहती क्यों नहीं यह ? कुछ तो कहे, हाँ या ना।
‘‘पन्ना,’’ वे फिर कहने लगीं, ‘‘मुझे लगता है ईश्वर ने शायद इसी महान् पुण्य का भागी बनने यहाँ भेजा है। क्यों, है न ?’’
पन्ना हँसी। कैसी अपूर्व रहस्यमयी मुस्कान थी उसकी ! व्यथा से नीले उन होंठों के बंकिम खिंचाव में व्यंग्य था या उल्लास ? क्या वह मन-ही-मन डॉक्टर पैद्रिक की हँसी तो नहीं उड़ा रही थी ? शायद सोच रही हो, कैसे चतुर होते हैं ये मिशनरी ?
पन्ना कहीं उसे ग़लत न समझ बैठे। डॉक्टर पैद्रिक का कण्ठ स्वर फिर गम्भीर हो उठा, ‘‘पन्ना, मैं तुमसे झूठ भी बोल सकती थी,’’ लैम्प के धुँधले प्रकाश में वह तेजस्वी चेहरा एकदम निर्विकार लग रहा था, ‘‘कह देती कि तुम्हारी जिस बच्ची को मरी समझकर गाड़ने ले गयी थी, वही फिर जी उठी। एक ही दिन तो तुम उसे देख पायी थीं, फिर नवजात शिशु प्रायः सब क्या एक-ही-से नहीं होते ? ऐसे ही घने बाल उसके भी थे, और ऐसी ही आँखें ! पर मैं तुमसे झूठ बोलकर इसके प्राणों की भीख माँगने नहीं आयी हूँ। मैं चाहती हूँ तुम इसके जीवन के अभिशाप के साथ ही इसे स्वीकार कर सको। करोगी ना ?’’
डॉक्टर ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये। पन्ना फिर भी कुछ नहीं बोली।
तीन महीने की छोटी-सी अवधि में ही यह सर्वस्वत्यागिनी विदेशी डॉक्टरनी उसके कितने निकट आ गयी थी। इस अनजान निर्जन जंगल में, जब वह सर्वथा अपरिचित लोगों के बीच एकदम अकेले रहने आयी, तो कितने ही शंकालु नयनबाण उसे निर्ममता से बींधने लगे थे।
कौन हो सकती थी वह ? कैसी विचित्र स्वभाव की स्वामिनी थी यह आसन्नप्रसवा सुन्दरी प्रौढ़ा ? माँग में सिन्दूर, पैरों में बिछुवे, पर न साथ में पति, न सास, न कोई नौकर, ऐसी अवस्था में, शहर में न रहकर इस एकान्त बँगले में, क्या दिखा होगा उसे ? न कहीं जाती, न कहीं उठती-बैठती। कभी-कभी लोग देखते वह रामकृष्ण मिशन की ओर चली जा रही है और कभी कुष्ठाश्रम की ओर। पहले मकान मालिक शाहजी कुछ-कुछ भड़क उठे थे। क्या पता कुष्ठरोगिणी ही हो। आश्रम में रहने पर कहीं रोग का भेद न खुल जाए, शायद इसी से बँगला ले लिया हो। लुक-छुपकर डॉ. पैद्रिक से मन की शंका का समाधान करने शाहजी पहुँचे, तो हँसने लगी थीं, ‘‘नहीं-नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, मेरी परिचित है, इसी से मुझसे मिलने आती है।’’
जब डाक्टर ने पन्ना को शाहजी की शंका बतायी तो वह बड़ी देर तक हँसती रही थी। ‘‘कहीं तुमने यह तो नहीं कह दिया उससे कि शरीर का तो नहीं, मन का यही रोग है मुझे !’’ ऐसी गलित आत्मा की बीभत्स रोगिणी को जानने पर शायद शाहनी दूसरे ही दिन झाड़ मारकर भगा देगी। रोज़ी न होती तो वह कैसे रह पाती ? प्रायः यही सोचती पन्ना कभी-कभी बौखला उठती। क्या चाहने पर बड़ी दी उसका पता नहीं लगा सकती थीं ? तीन महीने में दो बार वह बैंक से अपने सूद का रुपया मँगवा चुकी थी, बैंक मैनेजर लाहिड़ी बाबू को बड़ी दी के रूप में पाचक के बिन एक दिन भी खाना हज़म नहीं होता था। क्या उस बैल-की-सी आँखों वाले तोंदियल लाहिड़ी ने बड़ी दी को कुछ नहीं बताया होगा।
उस उपालम्भ के आँसू स्वयं ही पन्ना की आँखों में सूखकर रह जाते।
‘‘हममें से कौन किसकी सगी बहन है पन्ना ?’’ बड़ी दी ने ठीक ही कहा था। सगी होती तो क्या उसे ऐसे छोड़ देतीं बड़ी दी ? एक दिन सन्ध्या को वह नये बँगले की लक्ष्मण-रेखा पार कर बड़ी चेष्ठा से घूमने निकली। भटकती न जाने कैसे डॉ. पैद्रिक के बँगले में पहुँची तो डॉ. काठ की कुरसी में बैठी, अपने किसी मरीज़ के लिए बिना अँगुलियों का दस्ताना बुन रही थीं। यही उनका प्रथम परिचय था। इसके बाद तो वह एक दिन भी घर नहीं रही थी। प्रसव काल निकट आने पर डॉ. पैद्रिक की उपस्थिति उसके लिए वरदान सिद्ध हुई।
‘‘चालीसवें वर्ष में यह अनहोना प्रथम प्रसव मुझे क्या जीती छोड़ेगा डॉक्टर ?’’ पन्ना ने कुछ ही दिन पहले हँसकर पूछा था।
डॉ. पैद्रिक ने उसे तो बचा लिया था, पर दूसरे को नहीं बचा पायी थीं। कुछ ही पलों तक देखने पर उसका एक-एक नैन-नक्श पन्ना के नेत्र-सम्पुट में बन्द हो गया था। तेजस्वी नरसिंह-से पिता के जैसा चौड़ा माथा, वैसी ही कमान-सी भृकुटि, और वैसी ही तरल आँखें ! ठीक से निहार भी नहीं पायी थी कि बिस्तरे पर पड़ी नन्हीं देह असह्य यन्त्रणा से ऐंठने लगी। आँखे टेढ़ी होकर खिंचती-खिंचती सहसा स्थिर होकर रह गयी थीं।
नौ महीने तक सही मानसिक और शारीरिक व्यथा का कैसा क्षणिक अन्त होकर रह गया था।

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साठोत्तरी हिन्दी कथा साहित्य में शिवानी अत्यन्त चर्चित एवं लोकप्रिय कथाकार रही हैं। नारी संवेदना को अत्यन्त आत्मीयता एवं कलात्मक ढंग से चित्रित करने वाली शिवानी की दो दर्जन से अधिक कथाकृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इन रचनाओं में 'कालिन्दी','अपराधिनी', 'मायापुरी', 'चौदह फेरे', 'रतिविलाप','विषकन्या','कैजा', 'सुरंगमा', 'जालक', 'भैरवी', 'कृष्णवेली', 'यात्रिक', 'विवर्त्त', 'स्वयंसिद्धा', 'गैंडा', 'माणिक', 'पूतोंवाली', 'अतिथि', 'कस्तूरी', 'मृग', 'रथ्या', 'उपप्रेती', 'श्मशान', 'चम्पा', 'एक थी रामरती', 'मेरा भाई', 'चिर स्वयंवरा', 'करिए छिमा', 'मणि माला की हँसी' आदि प्रमुख हैं। इन्होंने उपन्यास, लघु उपन्यास और कहानियों के सृजन के द्वारा साठोत्तरी हिन्दी कथा को पर्याप्त समृद्धि प्रदान की है। इनकी अधिकांश कहानियाँ लघु उपन्यासों, संस्मरण रचनाओं और अन्य विषयक लेखों के साथ संगृहीत है। 'रति विलाप', 'चिर स्वयंवरा', 'करिए छिमा', 'उपप्रेती', 'स्वयंसिद्धा', 'कृष्णवेली', 'मणि माला की हँसी', 'पूतों वाली', 'माणिक' आदि रचनाओं में शिवानी की कहानियाँ प्रकाशित हैं। शिवानी की पहली कहानी 'कृष्ण कलि' १९३८-३९ में प्रकाशित हुई किन्तु यह कहानी बंगला में लिखी हुई थी। इनकी हिन्दी कहानी का लेखन का आरम्भ ÷जमींदार की मृत्यु' से हुआ। यह कहानी सन्‌ १९५१ ई० में धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी। अपने लेखन के आरम्भ के संबंध में शिवानी का कहना है : 'लेखन का तो यह है कि मैं कालेज के जमाने से लिखती थी। १९५१ में जब मेरी छोटी बेटी इरा पैदा हुई, तब 'धर्मयुग' में मेरी पहली कहानी प्रकाशित हुई। उस कहानी का नाम था 'जमींदार की मृत्यु'। १९३८-३९ में मैंने बंगला में भी कहानी लिखी थी।'' तब से लेकर मृत्यु पर्यन्त वे कहानी लेखन में व्यस्त रहीं।
 
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