सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

एक मुलाकात




अज्ञेय जी के पिता पण्डित हीरानंद शास्त्री प्राचीन लिपियों के विशेषज्ञ थे। इनका बचपन इनके पिता की नौकरी के साथ कई स्थानों की परिक्रमा करते हुए बीता। कुशीनगर में अज्ञेय जी का जन्म 7 मार्च, 1911 को हुआ था। लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू घूमते हुए इनका परिवार 1919 में नालंदा पहुँचा। नालंदा में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय से हिन्दी लिखवाना शुरू किया। इसके बाद 1921 में अज्ञेय का परिवार ऊटी पहुँचा ऊटी में अज्ञेय के पिता ने अज्ञेय का यज्ञोपवीत कराया और अज्ञेय को वात्स्यायन कुलनाम दिया।

अज्ञेय ने घर पर ही भाषा, साहित्य, इतिहास और विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ की। 1925 में अज्ञेय ने मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा पंजाब से उत्तीर्ण की इसके बाद दो वर्ष मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में एवं तीन वर्ष फ़ॉर्मन कॉलेज, लाहौर में संस्थागत शिक्षा पाई। वहीं बी.एस.सी.और अंग्रेज़ी में एम.ए.पूर्वार्द्ध पूरा किया। इसी बीच भगत सिंह के साथी बने और 1930 में गिरफ़्तार हो गए।

अज्ञेय ने छह वर्ष जेल और नज़रबंदी भोगने के बाद 1936 में कुछ दिनों तक आगरा के समाचार पत्र सैनिक के संपादन मंडल में रहे, और बाद में 1937-39 में विशाल भारत के संपादकीय विभाग में रहे। कुछ दिन ऑल इंडिया रेडियो में रहने के बाद अज्ञेय 1943 में सैन्य सेवा में प्रविष्ठ हुए। 1946 में सैन्य सेवा से मुक्त होकर वह शुद्ध रुप से साहित्य में लगे। मेरठ और उसके बाद इलाहाबाद और अंत में दिल्ली को उन्होंने अपना केंद्र बनाया। अज्ञेय ने प्रतीक का संपादन किया। प्रतीक ने ही हिन्दी के आधुनिक साहित्य की नई धारणा के लेखकों, कवियों को एक नया सशक्त मंच दिया और साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। 1965 से 1968 तक अज्ञेय साप्ताहिक दिनमान के संपादक रहे। पुन: प्रतीक को नाम, नया प्रतीक देकर 1973 से निकालना शुरू किया और अपना अधिकाधिक समय लेखन को देने लगे। 1977 में उन्होंने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स के संपादन का भार संभाला। अगस्त 1979 में उन्होंने नवभारत टाइम्स से अवकाश ग्रहण किया।

अज्ञेय का कृतित्व बहुमुखी है और वह उनके समृद्ध अनुभव की सहज परिणति है। अज्ञेय की प्रारंभ की रचनाएँ अध्ययन की गहरी छाप अंकित करती हैं या प्रेरक व्यक्तियों से दीक्षा की गरमाई का स्पर्श देती हैं, बाद की रचनाएँ निजी अनुभव की परिपक्वता की खनक देती हैं। और साथ ही भारतीय विश्वदृष्टि से तादात्म्य का बोध कराती हैं। अज्ञेय स्वाधीनता को महत्त्वपूर्ण मानवीय मूल्य मानते थे, परंतु स्वाधीनता उनके लिए एक सतत जागरुक प्रक्रिया रही। अज्ञेय ने अभिव्यक्ति के लिए कई विधाओं, कई कलाओं और भाषाओं का प्रयोग किया, जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन। उपन्यास के क्षेत्र में 'शेखर' एक जीवनी हिन्दी उपन्यास का एक कीर्तिस्तंभ बना। नाट्य-विधान के प्रयोग के लिए 'उत्तर प्रियदर्शी' लिखा, तो आंगन के पार द्वार संग्रह में वह अपने को विशाल के साथ एकाकार करने लगते हैं। अज्ञेय के विषय में यह कहा जाता है कि, वह 'कठिन काव्य के प्रेत हैं'।

तो डालते हैं एक नज़र कठिन काव्य पर और प्रस्फुटित करते हैं शब्दों को अपने भीतर नए सिरे से - 

पक्षधर / अज्ञेय
संग्रह: कितनी नावों में कितनी बार 

इनसान है कि जनमता है
और विरोध के वातावरण में आ गिरता है:
उस की पहली साँस संघर्ष का पैंतरा है
उस की पहली चीख़ एक युद्ध का नारा है
जिसे यह जीवन-भर लड़ेगा।

हमारा जन्म लेना ही पक्षधर बनना है,
जीना ही क्रमशः यह जानना है
कि युद्ध ठनना है
और अपनी पक्षधरता में
हमें पग-पग पर पहचानना है
कि अब से हमें हर क्षण में, हर वार में, हर क्षति में,
हर दुःख-दर्द, जय-पराजय, गति-प्रतिगति में
स्वयं अपनी नियति बन 
अपने को जनना है।

ईश्वर 
एक बार का कल्पक
और सनातन क्रान्ता है:
माँ—एक बार की जननी
और आजीवन ममता है:
पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से
हम में यह क्षमता है
कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में
अपने को अनुक्षण जनते चलें,
अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें,
अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए
अपनी नयी नियति बनते चलें।

पक्षधर और चिरन्तन,
हमें लड़ना है निरन्तर,
आमरण अविराम—
पर सर्वदा जीवन के लिए:
अपनी हर साँस के साथ
पनपते इस विश्वास के साथ
कि हर दूसरे की हर साँस को
हम दिला सकेंगे और अधिक सहजता,
अनाकुल उन्मुक्ति, और गहरा उल्लास

अपनी पहली साँस और चीख़ के साथ
हम जिस जीवन के
पक्षधर बने अनजाने ही,
आज होकर सयाने
उसे हम वरते हैं:
उस के पक्षधर हैं हम—
इतने घने
कि उसी जीने और जिलाने के लिए
स्वेच्छा से मरते हैं!


क्योंकि मैं / अज्ञेय

क्योंकि मैं
यह नहीं कह सकता
कि मुझे
उस आदमी से कुछ नहीं है
जिसकी आँखों के आगे
उसकी लम्बी भूख से बढ़ी हुई तिल्ली
एक गहरी मटमैली पीली झिल्ली-सी छा गई है,
और जिसे चूंकि चांदनी से कुछ नहीं है,
इसलिए
मैं नहीं कह सकता
कि मुझे चांदनी से कुछ नहीं है।

क्योंकि मैं
उसे जानता हूँ
जिसने पेड़ के पत्ते खाए हैं
और जो उसकी जड़ की लकड़ी भी खा सकता है
क्योंकि उसे जीवन की प्यास है;
क्योंकि वह मुझे प्यारा है
इसलिए मैं पेड़ की जड़ को या लकड़ी को
अनदेखा नहीं करता
बल्कि पत्ती को
प्यार भी करता हूँ करूंगा

क्योंकि जिसने कोड़ा खाया है
वह मेरा भाई है
क्योंकि यों उसकी मार से मैं भी तिलमिला उठा हूँ
इसलिए मैं उसके साथ नहीं चीख़ा-चिल्लाया हूँ :
मैं उस कोड़े को छीन कर तोड़ दूंगा।
मैं इन्सान हूँ और इन्सान वह अपमान नहीं सहता।

क्योंकि जो कोड़ा मारने उठाएगा
वह रोगी है
आत्मघाती है
इसलिए उसे संभालने, सुधारने, राह पर लाने
ख़ुद अपने से बचाने की
जवाबदेही मुझ पर आती है।
मैं उसका पड़ोसी हूँ :
उसके साथ नहीं रहता।


जो नशा होता है गहरे उतरने में,उससे अलग होना मन चाहता तो नहीं - पर ! मुलाकातें अभी और हैं .................

4 comments:

  1. पक्षधर और चिरन्तन,
    हमें लड़ना है निरन्तर,

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  2. माँ—एक बार की जननी
    और आजीवन ममता है:
    पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से
    हम में यह क्षमता है
    कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में
    अपने को अनुक्षण जनते चलें,
    अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें
    ......... आभार इस प्रस्‍तुति के लिये

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार26/2/13 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है

    जवाब देंहटाएं
  4. "अज्ञेय"जी को पढवाने का आभार

    जवाब देंहटाएं

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