मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

आपका नया वर्ष......


उज्वल, उपल्ब्धिपूर्ण, ऊर्जामय हो नव वर्ष ।
सद्भाव, समृद्धि और सुखमय हो नव वर्ष । 
पूर्ण हो आपकी सभी आकांक्षाएं-अभिलाषाएं 
उल्लास-उमंग से परिपूर्ण ब्लॉगमय हो नववर्ष । । 

परिकल्पना ब्लॉग परिवार और समस्त देश वासियों के परिवारजनों, मित्रों, स्नेहीजनों व शुभ चिंतकों के लिये सुख, समृद्धि, शांति व धन-वैभव दायक हो॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं ।"

-रवीन्द्र प्रभात 



गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

परिकल्पना (समापन उत्सव)




ज़िन्दगी जन्म लेती है
ज़िन्दगी जान देती है
हर हाल में एक नज़्म सुनती-सुनाती है ज़िन्दगी
..........
समापन भी एक उत्सव है
नहीं तो अस्त होते सूर्य को
पूरी एकाग्रता से हम अर्घ्य न देते

दिन हो या रात
मायने दोनों के हैं
एक सी ज़िन्दगी बेरंग,बेरस हो जाती है

उत्सव के भरपूर दिन दिए हमने आपको
अब विदा की बारी है
....
विदा की बेला में रुकने की बात न करो
बहुत दिन रहे साथ - अब जाने दो
उतसव की यादों को रखना मन के सिरहाने
तब तक - जब तक कोई याद मोती न बन जाए
जाने से पहले उन्हें करते हैं याद
जो हैं हमारी बुनियाद …… रश्मि प्रभा
------------
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए।

गोपालदास "नीरज"

उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!
अज्ञेय

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि!
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि!
पाया तूने वह गाना?
सोयी थी तू स्वप्न नीड़ में,
पंखों के सुख में छिपकर,
ऊँघ रहे थे, घूम द्वार पर,
प्रहरी-से जुगनू नाना।

सुमित्रानंदन पंत

लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।

हरिवंशराय बच्चन

तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संस्कृति
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या?

महादेवी वर्मा

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

रामधारी सिंह 'दिनकर'

मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।
चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया।
मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला?
मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला?
हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया।
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया।

आरसी प्रसाद सिंह

मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……

अमृता प्रीतम


शायद मैंने हाथ बढाये थे-
दर्द का दान देकर तुमने मुझे विदा कर दिया !
यह दर्द, निर्धूम दीपशिखा के लौ की तरह
तुम्हारे मन्दिर में अहर्निश जलता है।
कौन जाने, कल की सुबह मिले ना मिले
अक्सर तुमसे कुछ कहने की तीव्रता होती है
पर.......... सोचते ही सोचते,
वृंत से टूटे सुमन की तरह
तुम्हारे चरणों में अर्पित हो जाती हूँ !

सरस्वती प्रसाद


रहीम,कबीर,दिनकर,महादेवी,बच्चन,प्रसाद ........... इन जैसे महारथियों ने गीता सार की तरह जीवन के कई आयाम हमें सौंपे ताकि हम इस ज्ञान से ज्ञान की उत्पत्ति कर सकें . ज्ञान ही ज्ञान की श्रृंखला है और विविध आयाम .

शिवाजी सामंत की मृत्युंजय,आशापूर्ण देवी की न हन्यते,शिवानी की कृष्णकली,........... कथाकारों ने कहानियों के माध्यम से, गीतकारों ने गीतों के माध्यम से वे सारी नदियाँ हमें दीं - जिनसे हम अलग अलग समय में,अलग अलग उठते विचारों को सिंचित कर कई उद्गम का निर्माण कर सकें .

हम जो लिखते हैं - वह विचारों का वह प्रवाह है,जो दूसरों को चिंतन देता है,हौसला देता है,जीने के बंद रास्तों को खोलता है . शब्द शब्द परिवर्तन के बीज होते हैं , बंजर जमीन भी उर्वरक हो सकती है ,इस विश्वास के साथ कवि ,लेखक लिखता है - और विश्वास का अर्थ है विश्वास, जिसके आगे -

क्षुधित व्याघ्र सा क्षुब्ध सागर गरजता है ..... जहाँ अविचल,अडिग रहना ही प्रस्फुटन है संभावित उम्मीदों का


यादों के बहते पानी का चनाब दिल को बहा लेता है,नाम सहस्त्रों ! कितना लिखूँ - कितना भूलूँ ! विराम के बगैर यात्रा कहाँ और कैसी ! तो आगे की यात्रा की चाह में लेते हैं विराम,पर विराम से पहले चारु के दिल से सुनते हैं '

कृष्णकली. - kuch dil ne kaha........................

My Photoशायद ये नाम ही काफी होगा उन लोगों के लिए जो ये किताब पढ़ चुके हैं। मैंने ये किताब कई बार पढ़ी है, और हर बार कलीके व्यक्तित्व का एक नया पहलू मेरे सामने उजागर हुआ। खैर , आइये शुरुवात से शुरू करते हैं। कृष्णकली एक उपन्यास है शिवानी द्वारा लिखा गया। शिवानी हमेशा से मेरी प्रिय लिखिका रही हैं, हिंदी साहित्य जितना भी पढ़ा उसमे शायद शिवानी की किताबें ही सबसे ज्याद पढ़ी हैं। मुझे आज भी याद हैं वो दिन जब में अपने इंजीनियरिंग की परीक्षाओं के बीच में भी शिवानी की किताबें पढने का वक़्त निकाल लेती थी।

ऐसा ही एक दिन था, शायद कॉलेज में मेरे पहले ही साल में, जब शाम के वक़्त मैंने पहली बार ये उपन्यास पढ़ कर ख़त्म किया था। उस वक़्त जो मेरी मनोदशा थी वो वैसी ही थी जैसी 'गुनाहों का देवता' पढने के बाद हुई थी।
क्या कहूँ कली के बारे मे ? सुना है की जब ये कहानी अखबार में छपा करती थी तो आखरी भाग आने के बाद हंगामा हो गया था की कली मर गयी। और क्यों न होता हंगामा? एक चुलबुली सी लड़की, जो ज़िन्दगी भर बड़ी ही हिम्मत के साथ हर मुश्किल का सामना करती है, आखिर में चुपचाप चली गयी। उसका हासिल कुछ भी नहीं।
सोचो तो अजीब लगता है। अगर हर इंसान हमेशा ये सोच कर मुश्किलों से लड़ता जाये की अंत में सब ठीक हो जायेगा और अचानक से उसकी ज़िन्दगी ख़त्म हो जाये तो?

कली के जीवन का आरम्भ ही विचित्र परिस्तिथियों में हुआ। अपने स्वयं के माता पिता को उसने कभी देखा नहीं , और उम्र के १७ वर्षो तक जिन्हें माता पिता समझती रही , वो उसे नहीं समझ पाए। ऊपर से चंचल और हठी दिखने वाली वो लड़की भीतर से कितनी सहमी हुई थी, ये हम पाठक भी तभी समझ पाए जब उसने प्रवीर को अपनी जीवन गाथा सुनाई। एक ऐसी लड़की जिसने अपने सौंदर्य और बुद्धिमत्ता से संसार को परास्त किया पर स्वयं अपने अतीत और अपनी जड़ों को नहीं हरा पाई।

प्रवीर और कली का रिश्ता कभी बन ही न पाया की बिगड़ता। कली का प्रवीर की तरफ खिचाव और प्रवीर का उस से कटे हुए रहना, ये सब जब तक सुलझ पता, बड़ी देर हो गयी थी। प्रवीर की सगाई हुई और उसके अगले ही दिन वो ये जान पाया की कली के कठोर बाहरी कवच के भीतर एक घबरायी हुई, सहमी हुई लड़की है। एक ऐसी लड़की जो सहारा भी चाहती है और उस से दूर भी भागती है, जो साथ भी चलना चाहती है और डरती भी है की कहीं साथ छूट न जाये। बाकि जो हुआ वो कहने और सुनने का कोई मतलब नहीं है।

बस कहानी का अंत यही है की कली चली गयी। और अब मुझसे लिखा नहीं जा रहा है। शायद हर कहानी का अंत ऐसा ही होता है। कोई कभी नहीं समझ पता किसी और को। और जब तक समझने की कोशिश करता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

मिलेंगे अगले वर्ष, जिसकी आहटें तेज होने लगी हैं, बढ़ गई हैं धड़कनें किसी के जाने से,किसी के आने से - करेंगे हम उत्सव इसी उत्साह से 2014 के मंच पर - जिसे कहते हैं परिकल्पना

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

परिकल्पना और कुछ चुनिंदा लेख,कविता,छोटी कहानी … (3)



एक रेखा जिसे 
न बदला जा सकता है 
न मिटाया जा सकता है 
न स्वीकार द्वारा ही डुबा दिया जा सकता है 
क्योंकि वह दर्द की रेखा है 
और दर्द,  .... स्वीकार से भी मिटता नहीं है 

'अज्ञेय'




[sushila..jpg]उसने कहा 
तुम बिल्कुल बुद्धू हो 
और मैं बुद्धूपने में खो गई 
उसे देख हंसती रही 
और हंसी समूची बुद्धू हो गई,
उसे छूकर लगा 
जैसे आकाश को छू लिया हो 
और पूरा आकाश ही बुद्धू हो गया चुपचाप,
उसकी आँखों में 
उम्मीद की तरलता  
और विश्वास की रंगत थी 
जो पहले से ही बुद्धू थी 
मेरी हथेलियाँ उसकी हथेलियों में थीं 
जैसे हमने पूरे ब्रह्मांड को मुट्ठी में लिया हो,
साथ चलते हुये हम सोच रहे थे 
दुनिया के साथ-  
अपने बुद्धूपने के बारे में  
हम खोज रहे थे 
पृथ्वी पर एक ऐसी जगह 
जो बिल्कुल बुद्धू हो..! 


अगर इश्वर है तो चमत्कार भी होगा। बगैर चमत्कार के कौन इश्वर की सत्ता पर विश्वास करता है। इतने इतने सारे लोग यदि घुटने टेकते हैं तो चमत्कार की वजह से ही न! और इतने-इतने वे लोग भी घुटने टेकते हैं जिन्हें चमत्कार का कोई अनुभव मिला होगा। तो भैया दिखा दे चमत्कार।
 है न तू?
मैं भी घुटने टेकना चाहता हूं।
तुझे याद करना चाहता हूं।
सुना है तू ऐसे ही तो सबसे घुटने टिकवाता है, नहीं।
 देखूं..कहां है तू?
तेरा चमत्कार!
मुझे भी अधिकार है देखने और तुझे मानने का?
सिर्फ  प्रेम में या मूरती बन जाने वाली चेहरे की मुस्कान से क्या होता है?
होता तो दीवार पर लटके या किसी मंदिर में बैठे -खड़े, टूटते हुए दरवाजे या लड़ते हुए लोगों की भीड़ नहीं देखता। वैसे  तो तू हंसता रहता है..लुटता हुआ जीवन देखने के बाद भी।
वो हाथ जोड़े सैकड़ों की तादाद सिवा भीख मांगते हुए ही दिखी है मुझे आजतक। उन्हें नसीब तो कुछ नहीं हुआ। वैसे के वैसे ही हैं गलीच बस्तियों में, गलीच जीवन जीने को विवश।
खैर.. चल दिखा दे यार कोई चमत्कार..। है न तू? बोल...है की नहीं......
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सार्वजनिक स्थल से दूर किसी एकांत में खड़े होकर सिगरेट धौंक रहा है वो। धुएं के झल्लों में अपनी बुदबुदाहट के शब्दों को लपेट कर हवा में तैरा देता है, हवा में फैलते  हुए वो आसमान में कहीं जाकर लुप्त से हो जाते होंगे , उसे लगता है कि अब ये शब्द आसमान को आच्छादित कर देंगे और सारा आकाश मेरे शब्दों से गूंज उठेगा । दिग-दिगन्ता कांप उठेंगे । या फिर अपने चेहरे पर छा गए धुएं को हटाते हुए नाक बंद करते हुए कहेंगे?
कौन सिगरेट पी रहा है?
हा हा हा..
हंसते हुए अधजली सिगरेट नीचे फेंकता  है, अपने पैरों के जूते से मसलता है और सामने वाली गली के अंतिम छोर तक देख सकने का प्रयत्न करता है। वहीं से तो आना है उसे, मिलने का कहा था। और ये इंतजार..।

इंतजार पैरों में जंजीरे जकड़ देता है, जाना भी चाहता है कोई तो न जा सके, ऐसी। सिगरेट इंतजार की जंजीरों को जलाती हैं। हां, लाहे की जंजीरों को जलाने के लिए एक से तो काम नहीं चलने वाला न, इसलिए कई कई पी जाता है वो। वैधानिक चेतावनी के बावजूद। वो सोचता है..एक चेतावनी आदमी के शरीर पर भी खुदी हुई होना चाहिए- जन्मजात- ‘कितना जिएगा, एक दिन तो जाना ही है पट्ठे...।’

क्योंकि फिर भी जिएगा वो..देख देख कर जिएगा जैसे सिगरेट पीता है..।
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इसी सिगरेट से तो कभी वो मिली थी,
कहा था-क्यों पीते हो..अच्छे भले दिखते हो।
वो  हैरान था कि दिखने और सिगरेट पीने के बीच क्या तारतम्य। उसने बताया भी था कि इससे चेहरा मुरझा जाता है। वो  जोर से हंसा था, उसने  हंसने का कारण पूछा तो,
उसने  हंसते हंसते ही कहा- क्यों हंसने से चेहरे की रौनक नहीं बढ़ जाती?
दोस्ती हो गई थी। दोस्ती के पीछे सिगरेट थी। वो उधर जल रही थी, इधर दोस्ती आगे बढ़ रही थी। शायद सिगरेट के अंतिम छोर तक आते-आते दोस्ती भी अलविदा हो गई।उठा  ही लेना था फिर से सिगरेट को। क्योंकि यही थी जो उसे ताप देती थी। संताप से बचकर। कितनी रातें उसने धुएं में बिताई,
धुआं जिंदगी जैसा ही तो होता है।
घना, छल्लेदार,
उड़ता है हवा में, टिकता नहीं जमीन पर।
जमीन पर रेंगता हैं।
जिंदगी भी रेंगती है..। धुएं के माफिक।
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आफिस ब्वाय से लेकर बॉस तक ने सिगरेट पीने की मनाही कर रखी थी..। ये कोई पांचवा दफ्तर होगा जहां मना किया गया था। योग्यता जलती हुई सिगरेट की तरह होती है..राख बन जाती है तब जब आपको कोई लत हो। उसे लत नहीं थी..सिगरेट तो बस इसलिए थी कि इसके अलावा उसके पास था क्या! न साथी, न संगी..। एक दिन कलिग ने कहा था कि
यार शादी कर ले..। ये सिगरेट छूट जाएगी।
कुछ छोड़ने के लिए कुछ बहुत बड़ा पकड़ना होता है। दोनों में अंतर क्या है? शादी और सिगरेट। कलिग्स भी मन बहलाते हैं। उससे  सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए सिगरेट को बदनाम किया जाता है। खैर..कुछ नहीं छूटा, सिर्फ  नौकरी छोड़ दी।
प्रतिभा का अचार डाल भी दो तो उसे खानेवाला कौन है? सड़ ही जाना है। सड़ने से बचाना है तो प्रतिभा को स्टोर करके रख देना चाहिए।
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दर-दर भटका। क्योंकि नौकरी की जरुरत होती है। जेब में जब तक पैसा तब तक दुनिया आपकी। सिगरेट आपकी। उधार ज्यादा नहीं देता कोई। महंगी हो गई है। सरकार ने मुझ जैसे से सिगरेट छुड़वाने के लिए उसे महंगी कर दी..। या फिर इसका फायदा उठाकर  ज्यादा कमाई का जरिया बनाया? शायद बेरोजगारी बढ़ाकर बाजार बढ़ाया जा रहा हो? पता नहीं...जो हो..पर नौकरी आवश्यक हो जाती है।
वो जितनी भी थी, जितनी भी मिली थी सब नौकरी कर रही थी। अच्छी पढ़ी-लिखी हैं..स्मार्ट हैं..उन्हें तुरंत नौकरी मिल भी जाती है क्योंकि वे सिगरेट पीती भी हैं तो कायदे और तमीज के साथ। हा हा हा।
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उस धुएं में बात पते की थी। घर में कोई छह सात खाने वाले, बूढ़े मां-बाप और इकलौता वही था कमाई का साधन। पूरी योग्यता। कहीं से भी कोई कमी नहीं। मगर नौकरी नहीं। जिससे आज वो मिलने वाला था वो उसके साथ ही पढ़ा करती थी..आज उसके इंतजार में इसलिए खड़ा था कि किसी नौकरी के संदर्भ में उसे वो कही ले जाने वाली थी...। कहा तो उसने ऐसा ही था । वो अब तक नहीं आई थी क्योंकि..वो नौकरी कर रही थी..किसीका इंतजार उसके लिए मायने नहीं रखता था..। फिर ऐसे का जो सिगरेट के धुएं में अपनी जिंदगी को तबाह किए बैठा  है।
तबाह या आबाद!
जो हो ...
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यार भगवान..तेरा चमत्कार देखने का मूड है..चल बहला दे थोड़ा...। एक सिगरेट और मुंह में लगाकर उसने खाली डिब्बा सामने सड़क पर फेंक  दिया..जो लुढ़कते हुए किनारे जा लगा... । पर वो नहीं।..
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[28122010.jpg]* कन्टीन्यू..क्योंकि ये कहानी खत्म नहीं होती..जलती जाती है..चैन स्मोकिंग  की तरह....


अमिताभ श्रीवास्तव 

लम्बा जीवन पत्रकारिता को दे डाला। फिलवक्त पठन और लेखन। किसी 'पत्रकारिता' को अगर जरुरत होगी बगैर मिलावट के शुद्ध देशी घी की तो हाज़िर हो जाउंगा, अभी तो अपनी कुछ कमजोरियों, जैसे- ईमानदार होना, स्पष्टवादी होना, मेहनती होना, सबका सम्मान करना, खूब पढना, खूब लिखना, और हां, जी हजूरी कभी न कर पाना, के साथ मस्त हूं। सोचता जरूर हूं कि क्या, आज के दौर में शुद्ध देशी घी को पचाने वाला कोई हाजमा है? खैर..व्यस्त रहने को सबसे बडा सुख मानता हूं। रह कर देखें..मज़ा आयेगा।

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर एक नई प्रस्तुति के साथ... तबतक के लिए शुभ विदा। 

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

परिकल्पना और कुछ चुनिंदा लेख,कविता,छोटी कहानी … (2)




एहसासों के जंगल में हर इंसान अकेला होता है,
दर्द कभी बोला या बताया नहीं जाता......
वह तो तनहा ही सहा जाता है..................
एहसासों के साथ सभी अकेले होते हैं.
इंसान को ढाला जाता है परवरिश के सांचे में,
एहसास ढल जाता है अनुभवों के सांचे में .
सुख हो या दुःख सांझा हो सकता है पर एक नहीं होता,
एहसास सभी को होता है पर साझा नहीं हो सकता
दुःख बांटा जाता है नाकामियों पर अफ़सोस कर.
सुख बांटा जाता है हौसलों के गीत गाकर.
एहसासों को शब्दों का जामा नहीं पहनाया जा सकता ,
एहसास मूक होता है अपना होता है बांटा नहीं जा सकता
इस जंगल में सब तनहा होते हैं सब अकेले ही होते हैं.........

संगीता अस्थाना   (https://www.facebook.com/sangita.asthana.3)


कुछ एहसास: पप्पू महिमा


ये भी भला कोई बात हुई ... परीक्षा हॉल में गए ! बुद्ध जैसी गंभीर शकल बनाकर कुर्सी पर बैठ गए और पेपर मिलने के इंतज़ार में चेहरे पर अभूतपूर्व शान्ति ओढ़कर बैठ गए ! पेपर मिलने पर भी चेहरे के भावों में कोई परिवर्तन नहीं .. दिल में कोई खलबली नहीं .. मुंह नहीं सूखता ! तीन घंटे सरवायकल के मरीज़ टाइप एक दिशा में सर झुकाए कॉपी रंगते रहे ! बीच में न पानी , न सू सू , न गुटका ..न बगल वाले का कोई असेसमेंट ! हश... ये भी कोई तरीका हुआ परीक्षा देने का !

पेपर देना सीखना है तो हमारे पप्पू से सीखिए ! ठीक पंद्रह मिनिट पहले हॉल में पहुँचते हैं ! सबसे हाय हैलो करते हुए अपना रोल नंबर ढूंढते हुए अपनी टेबल पर पहुँचते हैं ! एडमिट कार्ड से रोल नंबर देखकर टेबल पर पड़े रोल नंबर को मैच करने के बाद संतुष्ट होकर कुर्सी पर बैठते हैं ! पड़ोसी की तैयारी का जायजा लेते हैं ... उसे घबराता देख सांत्वना देते हैं " इत्ते सरल पेपर में क्या घबराना बे .. मैं तो रात को पिक्चर देखकर आया और बस उठकर चला ही आ रहा हूँ !" इत्ता बोलकर मुंह छिपाकर पप्पू खुद को ही आँख मार देते हैं ! अभी दस मिनिट बाकी हैं ! पप्पू ने अब अपना एक पाउच निकाला है जिसमे तीन चार तरह के पेन , पेन्सिल, रबड़ , शार्पनर आदि परीक्षोपयोगी स्टफ़ है ! सारे पेन छिड़क छिड़क कर देख रहे हैं पप्पू , पेन्सिल की नोक हथेली में चुभा चुभा कर देख रहे हैं पप्पू , मेज पर पसीना पोंछने के लिए रूमाल बिछा रहे हैं पप्पू !घडी उतार कर मेज के दायें कोने पर रख ली है पप्पू ने ! पप्पू ने दो बार मास्साब से पक्का कर लिया है कि पेपर तीन ही घंटे का है ना ? पप्पू को देखकर स्वर्ग लोक के देवता गदगद हो रहे हैं !

आखिर पेपर मिल जाता है ! पप्पू पेपर पढने से पहले दूसरे लोगों के चेहरे के भाव देखते हैं ताकि पेपर खोलने से पहले ही अंदाजा लग जाए कि पेपर बनाने वाले ने क्या कसम खाके पेपर बनाया है ! सबके पेपर पढ़ चुकने के बाद पप्पू आराम से पेपर खोलते हैं ! पेपर पढ़ते हुए पप्पू कभी मुस्कुराते हैं , कभी थूक गुटकते हैं , कभी दोनों मुट्ठियाँ हवा में लहरा कर उत्साहित होते हैं ! पप्पू अब बारी बारी से सारे पेन एक बार फिर चैक करते हैं , रूमाल से हथेलियों का पसीना पोंछते हैं और पानी मांगते हैं ! मास्साब पानी पिलवाते हैं ! फिर पप्पू सोचते हैं कि एक बार सू सू का कार्य भी निपटा ही दिया जाए तो फिर बढ़िया रिदम बनेगी कॉपी लिखने की ! मास्साब बुरे मन से आज्ञा देते हैं ! पप्पू टहलते टहलते बाथरूम जाते हैं ! फारिग होकर टहलते टहलते वापस आते हैं ! अब तक पंद्रह मिनिट निकल चुके हैं ! अब पप्पू लिखने बैठते हैं ! पप्पू अचानक देश के वित्त मंत्री की तरह नज़र आने लगे हैं ! चिंता सवार हो गयी दिखती है ! पप्पू ने पड़ोसी की तरफ एक नज़र डाली है और अपनी कापी अपने हाथ से छुपा ली है !

यहाँ ये बात गौर करने की है कि पप्पू को दस प्रश्नों में से मात्र दो ही आते हैं आधे अधूरे से! पप्पू पूरी गति से पेन चलाते हैं ... राणा सांगा देख ले तो उसे अपनी तलवार की गति पर क्षोभ पैदा हो जाए! अभी पढ़ाकू बच्चे अपनी आधी कॉपी भर पाए हैं , इतने में पप्पू की आवाज़ गूंजती है " सर सप्लीमेंट्री कॉपी " ! पढ़ाकुओं का पसीना छूट पड़ता है! सब पप्पू को देखते हैं और अपनी बची हुई आधी कॉपी देखकर थूक गटकते हैं! पप्पू किसी को नहीं देखते ...फिर से भिड़ जाते हैं अपना पेन भांजने में! पप्पू दिमाग पर पूरा जोर डालकर उन दो प्रश्नों के उत्तर याद करने की कोशिश करते हैं ...फिर दिमाग के जाने किस खंडू खांचे से निकाल कर ज्ञान की पंजीरी कॉपी पर बिखरा देते हैं!

एक पढ़ाकू बाकी बचे दो पन्ने लिखकर अपनी पहली सप्लीमेंट्री लेने का मन बना रहा है! इतने में फिर से पप्पू की आवाज़ गूंजती है " सर सप्लीमेंट्री " और पढ़ाकुओं के सीने पर गाज बनकर गिरती है! पप्पू इधर उधर की गपोड़पंती ढपोला रायटिंग में लिखना प्रारम्भ करते हैं! सर भी उत्सुक होकर पप्पू के पास आकर खड़े हो जाते हैं और उसकी कॉपी देखने की कोशिश करते हैं! पप्पू हाथ से कॉपी ढक लेते हैं !सर खिसिया कर अपना रास्ता नापते हैं! इस प्रकार पप्पू पूरी पांच सप्लीमेंट्री भरते हैं! पप्पू की कॉपी विविधताओं का अनोखा संगम है हमारे देश की तरह ! इसमें गीत , चुटकुले, डायलौग , प्रार्थनाएं और काल्पनिक कथाओं के साथ जीवन का गहन दर्शन भी है !पप्पू का जीवन दर्शन इन दो पंक्तियों में समझा जा सकता है
पल्लवी त्रिवेदी" गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है "
यही दर्शन पप्पू ने कॉपी के आखिरी पन्ने पर चिपका दिया है !

बाहर निकलकर सबने पप्पू को घेर रखा है और पूछ रहे हैं " कैसा गया पेपर? " पप्पू बाल झटकते हुए कहते हैं " यार इससे सरल पेपर तो मैंने जिंदगी में नहीं देखा ! टाइम कम पड़ गया नहीं तो दो कॉपी और लगतीं मुझे " इतना बोलकर पप्पू बढ़ लेते हैं!

मनोरंजन के एकमात्र साधन अप्सराओं के नृत्य से बुरी तरह उकताए हुए स्वर्ग के देवता खुश होकर फूल बरसाते हैं ... पप्पू सर पर गिरे फूल को जेब में रख लेते हैं और शाम को गुल्ली को भेंट कर देते हैं और प्रसन्न भाव से अगले पेपर के लिए शर्ट पेंट प्रेस करने लगते हैं !

पल्ल्वी त्रिवेदी 

गीली मिट्टी ,गेहूँ की बाली, तुम और मैं.... 
तुम्हें याद है गर्मी की दोपहरी खेलते रहे ताश, पीते रहे नींबू पानी, सिगरेट के उठते धूँए के पार उडाते रहे दिन खर्चते रहे पल और फिर किया हिसाब गिना उँगलियों पर और हँस पडे बेफिक्री से 
तब , हमारे पास समय बहुत था
***
सिगरेट के टुकडे, कश पर कश तुम्हारा ज़रा सा झुक कर तल्लीनता से 
हथेलियों के ओट लेकर सिगरेट सुलगाना 
मैं भी देखती रहती हूँ शायद खुद भी ज़रा सा 
सुलग जाती हूँ 
फिर कैसे कहूँ तुमसे धूम्रपान निषेध है
***
तुम्हारी उँगलियों से आती है एक अजीब सी खुशबू, थोडा सा धूँआ थोडी सी बारिश थोडी सी गीली मिट्टी , मैं बनाती हूँ एक कच्चा घडा उनसे क्या तुम उसमें रोपोगे गेहूँ की बाली ?
***
सुनो ! आज कुछ 
फूल उग आये हैं खर पतवार को बेधकर हरे कच फूल क्या तुम उनमें खुशबू भरोगे
भरोगे उनमें थोडी सी बारिश थोडा सा धूँआ थोडी सी गीली मिट्टी
***
अब , हमारे पास 
समय कम है, कितने उतावले हो कितने बेकल पर रुको न धूँए की खुशबू तुम्हें भी आती है न गीली मिट्टी की सुगंध तुमतक पहुँचती है न
कोई फूल तुम तक भी खिला है न 
***
जाने भी दो आज का ये फूल सिर्फ मेरा है आज की ये गेहूँ की बाली सिर्फ मेरी है इनकी खुशबू मेरी है इनका हरैंधा स्वाद भी 
मेरा ही है 
आज का ये दिन मेरा है, तुम अब भी झुककर पूरी तल्लीनता से सिगरेट सुलगा रहे हो मैं फिर थोडी सी सुलग जाती हूँ.
***   ***   ***
हरी फसल, सपने मैं और तुम
हम सडक पार करते थे हम बात करते थे तुम कह रहे थे मैं सुन रही थी तुम सडक देखते थे मैं तुम्हें देखती थी
फिर तुमने हाथ थाम कर मुझे कर दिया दूसरे ओर
तुम्हारी तरफ गाडी आती थी 
तुम बात करते रहे मैं तुम्हें देखती रही
राख में फूल खिलते रहे गुलाबी गुलाबी
***
तुम निवाले बनाते मुझे खिलाते रहे तुम ठंडे पानी में मेरा पैर अपने पाँवों पर रखते रहे तुम मुझे सडक पार कराते रहे
तुम मुझे गहरी नींद में चादर ओढाते रहे 
मैं मिट्टी का घरौंदा बनती रही मैं खेत की मिट्टी बनती रही
मैं हरी फसल बनती रही
मैं सपने देखती रही मैं सपने देखते रही
***   ***   ***
नीम का पेड , सोंधी रोटी..मैं और तुम 
नीम के पेड के नीचे कितनी निबौरियाँ कभी चखा उन्हें तुमने ? नहीं न कडवाहट का भी एक स्वाद होता है मैं जानती हूँ न
तुम भी तो जानते हो
***
हम बात करते रहे अनवरत, अनवरत कभी मीठी , कभी कडवी सच ! 
उनका भी एक स्वाद होता है न 
***
बीत जायें कितने साल जीभ पर कुछ पुराना स्वाद अब भी 
तैरता है
तुम्हारी उँगली का स्वाद नीम की निबौरी का स्वाद अनवरत बात का स्वाद !
***
जंगल रात आदिम गंध, मैं पकाती हूँ लकडियों के आग पर मोटे बाजरे की रोटी निवाला निवाला खिलाती हूँ तुम्हें
मेरी उँगली का स्वाद, सोंधी रोटी का स्वाद मीठे पानी का स्वाद. 
***
 परछाईं नृत्य करती है मिट्टी की दीवार पर, तुम्हारे शरीर से फूटती है,
गंध ,रोटी का स्वाद नीम की निबौरी का स्वाद मेरी उँगली का स्वाद 
***
मैंने काढे हैं बेल बूटे, चादर पर हर साल साथ का एक बूटा, एक पत्ता फिर भरा है उनमें हमारी गंध, हमारी खुशबू हमारा साथ हमारी हँसी, आओ अब इस चादर पर लेटें साथ साथ साथ साथ 
***   ***   ***
मैं और तुम..हम
तुम और हम और हमारे बीच डोलती ये अंगडाई, आज भी .....
कल ही तो था और कल भी रहेगा
***
स्पर्श के बेईंतहा फूल मेरी तुम्हारी हथेली पर, कुछ चुन कर खोंस लूँ बालों में
कानों के पीछे
***
टाँक लूँ तुम्हारी हँसी अपने होठों पर , कैद कर लूँ तुम्हें फिर अपनी बाँहों में ?
***
तुम्हारे सब जवाबों का इंतज़ार करूँ ?
या मान लूँ जो मुझे मानना हो , सुन लूँ जो मुझे सुनना हो
***
ढलक गये बालों को समेट दोगे तुम ?मेरी हथेलियों पर अपना नाम
लिख दोगे तुम ?
***
मेरे तलवों पर तुम्हारे सफर का अंश क्या देखा तुमने , मेरे चेहरे पर अपने सुख की रौशनी तो 
देख ली न तुमने
***
मैं क्या और तुम क्या , मेरा और तुम्हारा नाम मेरी याद में गडमड हो जाता क्यों
क्या इसलिये कि अब हम सिर्फ हम हैं ?
सिर्फ हम
***   ***   ***
 हम
एक फूल खिला था कुछ सफेद कुछ गुलाबी , एक ही फूल खिला था फिर ऐसा क्यों लगा
कि मैं सुगंध से अचेत सी हो गई
***
मेरी एडियों दहक गई थीं लाल, उस स्पर्श का चिन्ह , कितने नीले निशान , फूल ही फूल 
पूरे शरीर पर
सृष्टि , सृष्टि कहाँ हो तुम ?
***
My Photoकहाँ कहाँ भटकूँ , रूखे बाल कानों के पीछे समेटूँ कैसे ?
मेरे हाथ तो तुमने थाम रखे हैं
***
मेरे नाखून, तुम्हारी कलाई में , दो बून्द खून के धीरे से खिल जाते हैं ,तुम्हारे भी
कलाई पर
अब ,हम तुम हो गये बराबर , एक जैसे फूल खिलें हैं
दोनों तरफ 
***
आवाज़ अब भी आ रही है कहीं नेपथ्य से , मैं सुन सकती हूँ तुम्हें
और शायद खुद को भी , मैं चख सकती हूँ , तुम्हें और शायद अपने को भी
लेकिन इसके परे ? एक चीख है क्या मेरी ही क्या ?
***
न न न अब मैं कुछ महसूस नहीं कर सकती , एहसास के परे भी
कोई एहसास होता है क्या

प्रत्यक्षा 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज सिर्फ इतना ही, मिलती हूँ कल फिर परिकल्पना पर इसी समय ...तबतक के लिए शुभ विदा। 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

परिकल्पना और कुछ चुनिंदा लेख,कविता,छोटी कहानी … (1)




यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! ........ महादेवी वर्मा 

उपर्युक्त काव्य अंश एक यज्ञ बोल से कम नहीं इसके साथ एक विशेष उत्सवी आरम्भ 

मूर्खता जन्मजात नहीं होती
नवजात शिशु भी कहाँ होता है मूर्ख
चीख कर दे देता है अपने आगमन की सूचना
माँ की गोद में ढूंढ लेता है
अपनी भूख -प्यास का इंतजाम ...
मचलता है ,जमा देता है लातें भी
बात पसंद ना आने पर!
प्रतिक्रियाएं बता देती हैं मन के भाव
अच्छा- बुरा कुछ नहीं छिपाता...
हंसने की बात पर हँसता है दिल खोल कर
रोने की बात पर रोता ही है
बुरा मानने की बात पर बुरा ही मान लेता है
ज़ाहिर कर देता है अपने भय भी उसी समान ...
बढती उम्र चढ़ा देती है परतें
नहीं रह पाता है वही जो वह है
और बदलती जाती हैं उसकी प्रतिक्रियाएं...
हंसने की बात पर डर जाना
रोने की बात पर हँस देना
डरने की बात पर हँसना ...
समझदार होने के क्रम में
प्रतिदिन मूर्खता की ओर बढ़ता है !
दरअसल
लोग मूर्ख नहीं होते
मूर्ख बन जाते है
मूर्ख बना दिए जाते हैं
या फिर
छलना छलनी ना कर दे
सिर्फ इसलिए ही
मूर्ख बने रहना चाह्ते हैं !

वाणी गीत

आगोश में निशा के करवटें बदलता रहता है सवेरा
लिपटकर उसकी संचेतना में बिखेरता है वह प्रांजल प्रभा…
संभोग समाधि का है यह या अवसर गहण घृणा का
फिर-भी तरल रुप व्यक्त श्रृंगार, उद्भव है यह अमृत का…

उत्साह मदिले प्रेम का…
जागते सवेरे में समाधि…
अवशेष मुखरित व्यंग…
या व्यंग इस रचना का…

शायद मेरे अंतर्तम चेतना का गहरा अंधकार 
जो अव्यक्त सागर की गर्जना का उत्थान है…
सालों से इतिहास बना वो कटा-फटा चेहरा
कहना चाहता है कुछ मन की बात…

दिवालों की पोरों में थी उसके सुगंधी की तलाश
प्रकृति के संयोग में आप ही योग बन जाने की पुकार…
विस्तृत संभव यथा में लगातार संघर्ष कर पाने का यत्न
किसके लिए… उस एक संभव रुप लावण्य की प्रतीक्षा… 

सारा दिवस बस भावनाओं की सिलवटों में बदल ले गई
आराम की एक शांत संभावना…
शायद इस कायनात में रंजित नगमों की वर्षा में सिसकियों
की अभिलाषा ही टिक सकी हैं…

आज इस निष्कर्ष पर जाकर ठहर गया है मन
ना अब किसी की प्रतीक्षा ना किसी की अराधना
खोल दृष्टि पार देख गगन के वहाँ कोई नहीं है 
किसी के पीछे…
वहाँ उन्मुक्त सिर्फ मैं हूँ…"मैं"

खोकर एक संभावना आगई देखो कितनी संभावना…
मधुर प्रीत का सत्य संकरे मार्ग से होकर मुक्ति में समा गया…
नजरे उठकर जाते देख तो रही हैं उस उर्जा को पर
अब चाहता नहीं की वो वापस उतर आये मेरे अंतर्तम में…। 

DIVINE INDIA 

सड़क के किनारे पड़ा हुआ
यह जो धूल में लथ पथ
काला नंगा आदमी  है
जिस के होंठों से गाढ़ी लाल धारी बह रही है
इस  आदमी को बचाओ !

हो गई होगी कोई बदतमीज़ी
गुस्सा आया होगा और  गाली दी होगी इस ने  
भूख लगी होगी और  माँगी  होगी रोटी इस ने

मन की कोई बात न कह पा कर
थोड़ी सी पी ली होगी इस ने
दो घड़ी  नाच गा लिया होगा  खुश हो कर   
और बेसुध सोता रहा होगा  थक जाने पर

इस आदमी की यादों में पसीने की बूँदें हैं  
इस आदमी के खाबों मे मिट्टी के ढेले  हैं  
इस आदमी की आँखों में तैरती है दहशत की कथाएं  
यह आदमी अभी ज़िन्दा है 
इस आदमी को बचाओ !

इस आदमी को बचाओ
कि इस आदमी में इस धूसर धरती का
आखिरी हरा है

इस आदमी को बचाओ
कि इस आदमी मे हारे हुए आदमी  का
आखिरी सपना है

कि यही है वह  आखिरी आदमी  जिस पर
छल और फरेब का
कोई रंग नहीं चढ़ा है

देखो, इस आदमी की  
कनपटियों के पास एक नस बहुत तेज़ी से फड़क रही है
पसलियाँ  भले चटक गई हों
उन के  पीछे एक दिल अभी भी बड़े  ईमान से धड़क रहा है
My Photo
गौर से देखो,
अपनी उँगलियों पर महसूस करो 
उस की  साँसों की मद्धम गरमाहट 

करीब जा कर  देखो  
चमकीली सड़क के किनारे फैंक दिए गए
तुम्हारी सभ्यता के मलबे में धराशायी
इस अकेले डरे हुए आदमी को

कि कंधे  भले उखड़ गए  हों
बाँहें हो चुकी हों नाकारा
बेतरह कुचल दिए गए हों इस के पैर
तुम अपने हाथों से टटोलो
कि इस आदमी  की रीढ़ अभी भी पुख्ता है

यह  आदमी अभी भी  ज़िन्दा है
इस  आदमी  को बचाओ  !
इस  आदमी  को बचाओ !!

अजेय
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर फिर एक नई प्रस्तुति के साथ ....तबतक के लिए शुभ विदा। 
 
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