मंगलवार, 15 जुलाई 2014

मानवता के स्वप्न अब तक अधूरे है

मानवता के स्वप्न अब तक अधूरे है


स्वप्न मेरे, अब तक वो अधूरे है;  
जो मानव के रूप में मैंने देखे है !

मानवता के उन्ही स्वप्नों की आहुति पर
आज विश्व सारा;
एक प्राणरहित खंडहर बन खड़ा है !

आज मानवता एक नए युग-मानव का आह्वान करती है;
क्योंकि,
आदिम-मानव के उन अधूरे स्वप्नों को,
इस नए युग-मानव को ही पूर्ण करना होंगा !

स्वप्न था कि,
एक अकाल मुक्त विश्व हो,
जहाँ न कोई प्यासा रहे और न ही कोई भूखा सोये;
हर मानव को जीने के लिए अन्न और जल मिले !
पर अभिशप्त आदिम तृष्णा ने अर्ध-विश्व को,
भूखा–प्यासा ही रखा है अब तक !
मेरा वो खाद्यान से भरे हुए विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

स्वप्न था कि,
एक हर भाषा के अक्षरों से संपन्न विश्व हो,
जहाँ हर कोई किताब और कलम को ह्रदय से लगाए;
अक्षरों से मिल रहे ज्ञान पर अधिकार हो हर किसी का !
पर निर्धनता के राक्षस ने कागज़ और कलम के बदले में,
क्षणिक मजदूरी थमा दी मासूमो के हाथो में !
मेरा वो अक्षर-ज्ञान से दीप्तिमान विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

स्वप्न था कि,
एक स्वछन्द मेघो और स्वतंत्र विचारों से भरा हुआ विश्व हो,
जहाँ मानवता मुक्त पक्षियों की तरह उड़ान भरे;
जहाँ जीवन स्वतंत्रता और खुशियों की सांस ले हर क्षण !
पर युद्ध की विभीषिका ने बारूद से सारा आकाश ढक दिया है,
और निर्दोषों के रक्त से सींचकर, इस भूमि को अपवित्र कर दिया है !
मेरा वो युद्ध-मुक्त और भय-मुक्त विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

स्वप्न था कि,
इंसानों, पशुओ और वृक्षों से स्पंदित एक सुन्दर विश्व हो,
कि हर किसी को यहाँ जीवन-ऊर्जा की प्राण-छाया मिले;
इस धरा ने हम सभी को जीने लायक कितना कुछ तो दिया है !
पर इंसान हैवान बन गया, पशु मिट गए और वृक्ष ख़त्म हो गए,
और अब हमारा ये एकमात्र भूमण्ड़ल ख़त्म होने की कगार पर है !
मेरा वो प्रकृति के प्रति मातृभाव से भरे विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

स्वप्न था कि,
सरहदे न रहे; सृष्टि में एक सकल बंधुत्व हर ओर बना रहे,
इस धरती पर जो कि हम सबके लिए है; सिर्फ मानवता ही बसी रहे;
पर, हमने सरहदे बना दी और जमीन को अनचाहे हिस्सों में बाँट दिया !
अपने देश बेगाने से और अपने इंसान पराये से हो गए / कर दिए,
धर्म को अधर्म में बदल दिया और अंत में ईश्वर को भी बाँट दिया !
मेरा वो सर्वव्यापी बंधुत्व वाले विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

स्वप्न था कि,
हम प्रेम, मित्रता और भाईचारा को बिना शर्त निभाये,
पर हमने प्रेम की ह्त्या की, मित्रता में विश्वासघात किया;
और भ्रातुत्व के भाव को जलाया; और जीने के लिए शर्ते रखी  !
इंसानों का घृणित व्यापार किया और  स्वंय को लालसा / वासना के दांव पर लगाया,
और आज सम्पूर्ण विश्व प्रेम, मित्रता और भ्रातृभाव से वंचित है !
मेरा वो मानव-मन के आकंठ प्रेम में डूबे विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

स्वप्न था कि,
सारी पृथ्वी पर बुद्ध की असीम शान्ति की स्थापना हो,
सारी वसुंधरा में कृष्ण के पूर्ण प्रेम का बहाव हो;
सारी भूमि पर ईशा का सदैव क्षमाभाव हो !
हर धर्म, हर भाषा, हर जाती और व्यक्ति का सम्मान हो  !
पर अब सिर्फ आदमियत की विध्वंसता बची है और ईश्वर कहीं खो से गए है !
एक अतुलनीय विश्व के जागरण का मेरा वो स्वप्न अब तक अधुरा है !


स्वप्न था कि,
मानव मुक्त हो राग, द्वेष, क्रोध, पाप और वासना के मन-मालिन्य से,
अंहकार, आकांक्षाओ, सांसारिक धारणाओ और असीमित आसक्तियो से;
और भर जाए जीवन के उल्लास से और प्रफुल्लित कर दे अपनी आत्मा को;
बच्चो की मासूमियत, फूलो के सौन्दर्य और वर्षा की तृप्त अनुभूतियो से !
एक नये जीवन का; एक नए युग-मानव का और एक नए विश्व का जन्म हो !
मेरा वो प्राण -स्पंदन से भरे हुए विश्व का स्वप्न अब तक अधुरा है !

हां !
देशकाल के अँधेरे अवरोधनो से मुक्त होकर,
हमें एक नए युग-मानव के रूप में बदलकर;
मानवता के इन अधूरे स्वप्नों को पूरा करना ही होंगा !

हां !
वो हम ही होंगे जो एक नए विश्व का निर्माण करेंगे,
जहाँ निश्चिंत ही हम मानवो के सारे अधूरे स्वप्न पूरे होंगे !

हाँ !
एक सुन्दर और प्यारा विश्व होंगा, जो हम सबका होंगा;
जो खाद्यान से भरा हुआ होंगा, हर किसी के लिए !
जो अक्षर-ज्ञान से दीप्तिमान होंगा, हर मानव के लिए !
जो युद्ध-मुक्त और भय-मुक्त होंगा, हर इंसान के लिए !
जो प्रकृति के मातृभाव से भरा होंगा, हर मनुष्य के लिए !
जो सार्वभौमिक, सर्वव्यापी बंधुत्व वाला होंगा, हर व्यक्ति के लिए !
जो मानव-मन के आकंठ प्रेम में डूबा हुआ होंगा; हर किसी के लिए !

और मेरा वो आदिम / प्राचीन स्वप्न,
जिसमे मैं;
एक अतुलनीय, अप्रतिम,  उत्कृष्ट,  सार्वभौमिक, अद्भुत  और,
प्राण-स्पंदन से भरे हुए विश्व का नूतन जागरण देखता हूँ;
वो अवश्य पूरा होंगा !

मैं अपने सारे अधूरे स्वप्न,
इस धरा को और नए युग-मानव को समर्पित करता हूँ !

© विजयकुमार

सोमवार, 14 जुलाई 2014

गौर करो,सुनो-समझो,फिर कहो



जो मिलते ही बड़ी बड़ी बातें करते हैं कुछ कर गुजरने की 
Displaying images (2).jpgवे रेत की दीवारों की तरह गिर जाते हैं 
उनके होने के निशाँ भी नहीं मिलते   … 
…तो गौर करो,सुनो-समझो,फिर कहो 

एक नारी की कविता

मेरी कविता
सायास नहीं बनायी जाती
भर जाता है जब
मन का प्याला
लबालब
भावों और विचारों से
तो निकल पड़ती है
अनायास यूँ ही
पानी के कुदरती
सोते की तरह
और मैं
रहने देती हूँ उसे
वैसे ही
बिना काटे
बिना छाँटे
मेरी कविता
अनगढ़ है
गाँव की पगडंडी के
किनारे पड़े
अनगढ़ पत्थर की तरह
आसमान में
बेतरतीब बिखरे
बादलों की तरह
जंगल में
खुद से उग आयी
झाड़ी के फूलों की तरह
अधकचरे अमरूद के
बकठाते स्वाद की तरह
मेरी कविता
नहीं मानना चाहती
शैली, छन्द और
लयों के बंधन
मेरी कविता
जैसी है
उसे वैसी ही रहने दो
सदियों से रोका गया है
बांध और नहरें बनाकर
आज
पहाड़ी नदी की तरह
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
उद्दाम वेग से बहने दो
बनाने दो उसे
खुद अपना रास्ता
टूटी-फूटी भाषा में
जो मन में आये
कहने दो.

मेरा होना या न होना

मैं तभी भली थी
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को,
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.

जी रही थी मैं 
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ,
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर,
बस चल रही थी ...

राह में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने 'होने' का एहसास हुआ,

अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे 'होने' की राह में रुकावट है...

हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो 'है' 
पर, 'नहीं हो पा रही है खुद सी'
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों की, 
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया .

कौन सी भूख ज़्यादा बड़ी है???

प्रिय तुम्हारी बाहों में
पाती हूँ मैं असीम सुख,
भूल जाना चाहती हूँ
सारी दुनियावी बातों को,
परेशानियों को,
फिर क्यों ??
याद आती है वो लड़की
चिन्दी-चिन्दी कपड़ों में लिपटी
हाथ में अल्यूमिनियम का कटोरा लिये
आ खड़ी हुई मेरे सामने
प्लेटफ़ार्म पर,
मैंने हाथ में पकड़े टिफ़िन का खाना
देना ही चाहा था
कि एक कर्मचारी
उसका हाथ पकड़कर
घसीट ले गया उसे बाहर
और वो रिरियाती-घिघियाती रही
"बाबू, रोटी तो लइ लेवै दो,"
मैं कुछ न कर पायी.
... ...
क्यों याद आता है वो लड़का
जो मिला था हॉस्टल के गेट पर
चेहरे से लगता जनम-जनम का भूखा
अपनी आवाज़ में दुनिया का
दर्द समेटे
सूखे पपड़ियाए होठों से
"दीदी, भूख लगी है"
बड़ी मुश्किल से इतना बोला
मेरे पास नहीं थे टूटे पैसे,
पचास का नोट कैसे दे देती,
मैं कुछ न कर पायी
... ...
ये बेचैनी, ये घुटन
कुछ न कर पाने की
सालती है मुझे अन्दर तक
और मैं घबराकर
छिपा लेती हूँ तुम्हारे सीने में
अपना चेहरा,
आराम की तलाश में,
पर दिखती हैं मुझे
दूर तक फैली मलिन बस्तियाँ,
नाक बहाते, गन्दे, नंगे-अधनंगे बच्चे,
उनको भूख से बिलखते,
आधी रोटी के लिये झगड़ते,
बीमारी से मरते देखने को विवश
माँ-बाप.
... ...
तुम सहलाते हो मेरे बालों को,
और चूम के गालों को हौले से
कहते हो कानों में कुछ प्रेम भरी
मीठी सी बातें,
पर सुनाई देती हैं मुझे
कुछ और ही आवाज़ें
"दीदी भूख लगी है"
"बाबू रोटी तो लइ लेवै दो"
"दीदी भूख लगी है"
गूँजती हैं ये आवाज़ें मेरे कानों में
बार-बार, लगातार,
वो जादुई छुअन तुम्हारे हाथों की
महसूस करती हूँ, अपने शरीर पर
और सोचती हूँ
कौन सी भूख ज़्यादा बड़ी है???

चुप्पी

हम तब भी नहीं बोले थे
जब एक टीचर ने
बुलाया था उसे स्टाफ़रूम में
अकेले
और कुत्सित मानसिकता से
सहलायी थी उसकी पीठ
डरी-सहमी वह
रोती रही
सिसकती रही
...
हम तब भी नहीं बोले
जब बीच युनिवर्सिटी में
खींचा गया था
उसका दुपट्टा
और वह
हाथों से सीने को ढँके
लौटी हॉस्टल
फिर वापस कभी
युनिवर्सिटी नहीं गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब तरक्की के लिये
माँगी गयी उसकी देह
वह नहीं बिकी
एक नौकरी छोड़ी
दूसरी छोड़ी
तीसरी छोड़ी
और फिर बिक गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब रुचिका ने की आत्महत्या
जेसिका, प्रियदर्शिनी मट्टू
मार दी गयी
उनके हत्यारे
घूमते रहे
खुलेआम
...
हम आज भी नहीं बोले
जब इसी ब्लॉगजगत में
सरेआम एक औरत का
होता रहा
शाब्दिक बलात्कार
और हम चुप रहे
हम चुप रहे
चुप... ...






आराधना चतुर्वेदी 'मुक्ति'

शनिवार, 12 जुलाई 2014

गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में)-गुरु से सीखा गुरु से जाना


गुरु से सीखा
गुरु से जाना
गुरु ने समझाया
गुरु ने बताया
ज्ञान रखने से नहीं
बांटने से बढ़ता है
सार्थक ज्ञान ही
जीवन आधार है
ज्ञान का दुरूपयोग
अक्षम्य अपराध है
जो बांटा नहीं
वह अज्ञान है
उपयोग नहीं किया
तो अत्याचार है
ज्ञान का प्रसार ही
गुरु का सम्मान है

© डा.राजेंद्र तेला,निरंतर

424-35-12--07-2014
गुरु,ज्ञान,गुरु पूर्णिमा ,शिष्य

परिकल्पना बनने जा रहा है विश्व ब्लॉगिंग का एक बड़ा प्लेटफॉर्म ?




चौंकिए मत, यह सच है कि आपकी  'परिकल्पना'  एक भारतीय गैर लाभ धर्मार्थ संगठन का स्वरूप धारण करने जा रही है, जो अपने साथ विश्व के कई भाषाओं के ब्लॉगर और विद्वानों की एक सशक्त टीम बनाकर मुफ्त लाइसेंस या सार्वजनिक कार्यक्रम (public domain) के अन्तर्गत, हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अच्छे ब्लॉग पोस्ट तथा साहित्यिक सामग्रियों को अनुवादित करके विश्व के अन्य भाषाओं के ब्लॉगर और साहित्यकार के समक्ष रखेगी, साथ ही इसे भूमण्डल में प्रभाविकता से प्रसारित भी करेगी। अंतर्जालीय गतिविधियों तथा तकनीकी जानकारियों को उपलब्ध कराएगी तथा विभिन्न देशों में कार्यशाला और सेमिनार आयोजित कर एक सुंदर और खुशहाल सह अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप देगी।

अध्यायों के अन्तरजाल की सहायता से, यह संस्था एक से अधिक भाषा के लिये प्रोजेक्ट एवं अन्य प्रयत्न की सहायता एवं विकास के लिये मूलभूत और संगठित ढांचा प्रदान करेगी। संस्था इन प्रोजेक्टो की मदद से निरन्तर अंतर्जाल  पर मुफ्त उपयोगी सूचनायें भी उपलब्ध कराएगी।  

Parikalpnaa means-

P - Provide
A- authentic
R- reliable
I- initial
K - knowledge
A-and assign
L - literary
P - program
N - network
A- and
A - analysis
Provide authentic, reliable, initial knowledge and assign literary program, network and analysis.

अर्थात-
प्रामाणिक, विश्वसनीय, प्रारंभिक ज्ञान प्रदान करते हुये शैक्षिक कार्यक्रम, नेटवर्क और विश्लेषण प्रस्तुत करना परिकल्पना का मुख्य उद्देश्य होगा।

आपके सुझाव और सहयोग आमंत्रित है। 

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

बस आपके लिए



परिकल्पना उत्सव समाप्त हुआ है - परिकल्पना का प्रवाह नहीं 
परिकल्पना एक निर्बाध 
कुछ अल्हड़ 
कुछ सशक्त 
कुछ बिंदास 
कुछ गहन-गंभीर 
धूप-छाँव सी नदी है 
और मैं मछुआरिन :) 
भावनाओं की मछलियाँ मुझसे बच नहीं सकतीं 
तो एक बड़ी टोकरी परिकल्पना के सतह पर टिकाये 
मैं रखती हूँ इन मछलियों को ------- बस आपके लिए  ..... 




दिमाग बंदकर सुनना हमारी राष्ट्रीय आदत है


सोचिए, कितनी अजीब बात है कि हम किसी को सुनने से पहले ही अपनी सहमति-असहमति तय किए रहते हैं। हम किसी को या तो उससे सहमत होने के लिए सुनते हैं या उसे नकारने के लिए। उसकी बातों के तर्क से हमारा कोई वास्ता नहीं होता। हां तय कर लिया तो सामनेवाले की बस उन्हीं बातों को नोटिस करेंगे जो हमारी मान्यता की पुष्टि करती हों और नहीं तय कर लिया तो बस मीनमेख ही निकालेंगे। असल में हम ज्यादातर सुनते नहीं, सुनने का स्वांग भर करते हैं और कहां खूंटा गड़ेगा, इसका फैसला पहले से किए रहते हैं।

घर में यही होता है, बाहर भी यही होता है। हम संस्कृति में यही करते हैं, राजनीति में भी यही करते हैं; और अर्थनीति में तो माने बैठे रहते हैं कि सरकार जो भी कर रही है या आगे करेगी, सब गलत है क्योंकि सब कुछ आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के इशारे पर हो रहा है। यह अलग बात है कि आज आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के सामने खुद को बचाने के लाले पड़े हुए हैं। आईटी सेक्टर में अगर लाखों नौकरियों के अवसर बन रहे हैं तो कहेंगे कि सब बुलबुला है, इसके फटने का इंतज़ार कीजिए। किसी भी नीति को उसकी मेरिट या कमी के आधार पर नहीं परखते। माने बैठे रहते हैं कि हर नीति छलावा है तो मूल्यांकन करने का सवाल ही नहीं उठता। बिना कुछ जाने-समझे फरमान जारी करने के आदी हो गए हैं हम।

प्यार करते हैं तो इसी अदा से कि तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे। किसी को दोस्त बना लिया तो उसके सात खून माफ और जिसको दुश्मन मान लिया, उसमें रत्ती भर भी अच्छाई कभी नज़र नहीं आती। अंदर ही अंदर एक दुनिया बना लेते हैं, फिर उसी में जीते हैं और एक दिन उसी में मर जाते हैं। सबके अपने-अपने खोल हैं, अपने-अपने शून्य हैं। अपने-अपने लोग हैं, अपनी-अपनी खेमेबंदियां हैं। निर्णायक होते हैं हमारे निजी स्वार्थ, हमारी अपनी सामाजिक-आर्थिक-मानसिक सुरक्षा। असहज स्थितियों से भागते हैं, असहज सवालों को फौरन टाल जाते हैं। विरोध को स्वीकारने से डरते हैं हम। ना सुनने की आदत नहीं है हमें।

यही हम भारतीयों का राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। आज से नहीं, बहुत पहले से। बताते हैं कि सन् 1962-63 की बात है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद आए थे। समाजवादी लेखक और विचारक विजयदेव नारायण शाही ने उनके खिलाफ जुलूस निकाला। नेहरू से मिलने आनंद भवन जा पहुंचे और... नेहरू ने बिना कोई बात किए इस संयत शांत विचारक का कुर्ता गले से पकड़कर नीचे तक फाड़ डाला। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी अपने विरोधियों से क्या सुलूक करती थीं, इसके लिए किसी दृष्टांत की ज़रूरत नहीं। आज बीजेपी में नरेंद्र मोदी इसी तरह ना नहीं सुनने के लती बन चुके हैं।

लेफ्ट भी अपने आगे किसी की नहीं सुनता। कार्यकर्ता के लिए नेता की बात अकाट्य होती है। दसियों धड़े हैं और सबकी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग। कितनी अजीब बात है कि जैसे ही कोई मार्क्सवादी पार्टी में दाखिल होता है, बिना किसी जिरह और पुराने दार्शनिक आग्रहों को छोड़े द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का प्रवक्ता बन जाता है। लाल रंग का मुलम्मा चढ़ा नहीं कि वह वैज्ञानिक समाजवादी हो जाता है। फिर वह जो कुछ बोलता है, वही जनता और क्रांति के हित में होता है। बाकी लोग या तो दलाल होते हैं या गद्दार।

यह भी गजब बात है कि जिन लोगों ने बीजेपी में रहते हुए ईसाई धर्म-परिवर्तन के खिलाफ जेहाद छेड़ा था, दंगों में उद्घोष करते हुए मुसलमानों का कत्लेआम किया था, वही लोग कांग्रेस में शामिल होते ही घनघोर सेक्यूलरवादी हो गए, सोनिया गांधी के प्रिय हो गए। कल तक जो घोर ब्राह्मणवादी थे, वही नेता बहनजी के साथ आते ही दलितों के उद्धार की कसमें खाने लगे। हम उछल-उछलकर खेमे बदलते हैं। मुझे लगता है, यह अवसरवाद के साथ-साथ हमारी राष्ट्रीय आदत भी है। अपनी स्थिति को बचाने के लिए तर्क करना या दूसरे की स्थिति को स्वीकार करने के लिए तर्क करना हम एक सिरे से भूल चुके हैं।

इसी तरह की लीपापोती हम अपने घर-परिवार और नौकरी-पेशे में भी करते हैं। या तो हां में हां मिलाते हैं या सिर्फ नकारते रहते हैं। लेकिन इस तरह सामंजस्य और शांति बनाए रखने की कोशिश में हमें जो कुछ भी मिलता है, वह दिखावटी होता है, क्षणिक होता है। पाश के शब्दों में कहूं तो, “शांति मांगने का अर्थ युद्ध को जिल्लत के स्तर पर लड़ना है, शांति कहीं नहीं होती।”



घरवाली को ही नहीं मिलता घर आधी ज़िंदगी


राजा जनक के दरबार में कोई विद्वान पहुंचे, योगी की जीवन-दृष्टि का ज्ञान पाने। जनक ने भरपूर स्वागत करके उन्हें अपने अतिथिगृह में ठहरा दिया और कहा कि रात्रि-भोज आप मेरे साथ ही करेंगे। भोज में नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए, लेकिन विद्वान महोदय के ठीक सिर पर बेहद पतले धागे से लटकती एक धारदार तलवार लटका दी गई, जिसके गिरने से उनकी मृत्यु सुनिश्चित थी। जनक ने भोजन लेकर डकार भरी तो विद्वान महोदय भी उठ खड़े हुए। राजा जनक ने पूछा – कैसा था व्यंजनों का स्वाद। विद्वान हाथ जोड़कर बोले – राजन, क्षमा कीजिएगा। जब लगातार मृत्यु आपके सिर पर लटकी हो तो किसी को व्यंजनों का स्वाद कैसे मालूम पड़ सकता है? महायोगी जनक ने कहा – यही है योगी की जीवन-दृष्टि।

आज भारत में ज्यादातर लड़कियां अपने घर को लेकर ‘योगी की यही जीवन-दृष्टि’ जीने को अभिशप्त हैं। जन्म से ही तय रहता है कि मां-बाप का घर उनका अपना नहीं है। शादी के बाद जहां उनकी डोली जाएगी, वही उनका घर होगा। लड़की सयानी होने पर घर सजाने लगती है तो मां प्यार से ही सही, ताना देती है कि पराया घर क्या सजा रही हो, पति के घर जाना तो अपना घर सजाना। बेटी मायूस हो जाती है और मजबूरन पति और नए घर के सपने संजोने लगती है। मां-बाप विदा करके उसे ससुराल भेजते हैं तो कहा जाता है – बेटी जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है, वहां से अरथी पर ही वापस निकलना।

लड़की ससुराल पहुंचती है, जहां सभी पराए होते हैं। केवल पति ही उसे अपना समझता है, लेकिन वह भी उसे उतना अपना नहीं मानता, जितना अपनी मां, बहनों या घर के बाकी सदस्यों को। भली सास भले ही कहे कि वह उसकी बेटी समान है, लेकिन विवाद की स्थिति में वह हमेशा अपनी असली बेटियों का पक्ष लेती है। जब तक सास-ससुर जिंदा रहते हैं, लड़की ससुराल को पूरी तरह अपना घर नहीं समझ पाती। अगर वह पति को किसी तरह वश में करके अलग घर बसाने को राज़ी कर लेती है तो दुनिया-समाज के लोग कहते हैं कि देखो, कुलच्छिनी ने आते ही घर को तोड़ डाला।

वैसे, पिछले 20-25 सालों में हालात काफी बदल चुके हैं। संयुक्त परिवार का ज़माना कमोबेश जा चुका है और न्यूक्लियर फेमिली अब ज्यादा चलन में हैं। लेकिन पुरुष अभी तक मां के पल्लू में ही शरण लेता है। ज्यादातर मां और घरवालों की ही तरफदारी करता है। लड़की यहां भी एकाकीपन का शिकार हो जाती है। जब तक बच्चे नहीं होते, तब तक पति से होनेवाले झगड़ों के केंद्र में ज्यादातर मां या बहनों की ख्वाहिशें ही होती हैं। बच्चे हो जाते हैं, तब यह स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगती है। उसे निक्की-टिंकू की मम्मी कहा जाने लगता है। लेकिन तब तक लड़की की आधी ज़िंदगी बीत चुकी होती है। वह 35-40 साल की हो चुकी होती है।

सब कुछ ठीक रहा तो अब जाकर शुरू होती है अम्मा बन चुकी भारत की आम लड़की की अपने घर के सपने को पाने की मंजिल। कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसा अभी कब तक चलता रहेगा क्योंकि विदेशों में तो यह सिलसिला बहुत पहले खत्म हो चुका है। वहां तो लड़की अपने पैरों पर खड़ा होने के पहले ही दिन से अपना घर बनाने लगती है। शादी करती है अपने दम पर और अपनी मर्जी से। पति के साथ घर बनाती है तो हर चीज़ में बराबर की साझीदार होती है। शादी टूटती है तो जाहिर है घर भी टूटता है। लेकिन वह अपने सपने, अपनी चीज़ें लेकर अलग हो जाती है। घर ही नहीं, अकेली माएं बड़े गर्व से अपने बच्चे भी सपनों की तरह पालती है।





अनिल रघुराज 

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

परिकल्पना ब्लॉग उत्सव इसबार मॉरीशस.....

परिकल्पना केवल एक सामुदायिक ब्लॉग नहीं, बल्कि हिन्दी के माध्यम से एक सुंदर और खुशहाल सह- अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप देने की कोशिश है।

हम वर्ष में एकबार ब्लॉगर हर्षोल्लास का कार्यक्रम बृहद रूप से करते है। आपकी सहभागिता के  साथ, आपके विचारों के साथ और  आपके सान्निध्य में।  दिल्ली, लखनऊ और काठमाण्डू के बाद अब परिकल्पना उन्मुख है  एक और मील के पत्थर की ओर।

सदस्यों की राय भिन्न है इसबार। कुछ सदस्य मॉरीशस, कुछ भूटान, कुछ दुबई  और कुछ अपने देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में परिकल्पना ब्लॉग उत्सव मनाने के पक्ष में है।

एक ओर मॉरीशस जो अफ्रीकी महाद्वीप के तट के दक्षिणपूर्व में लगभग 900 किलोमीटर की दूरी पर हिंद महासागर मे और मेडागास्कर के पूर्व मे स्थित एक द्वीपीय देश है, जहां की संस्कृति भारतीय संस्कृति से मेल खाती है। वहीं भूटान  हिमालय पर बसा दक्षिण एशिया का एक छोटा और महत्वपूर्ण देश है। यह देश चीन (तिब्बत) और भारत के बीच स्थित है। यह भारत का एक भरोसेमंद पड़ोसी है । यहाँ की संस्कृति भी भारतीय संस्कृति से मेल खाती है। जहां तक दुबई का प्रश्न है तो यह संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की सात अमीरातों में से एक है । यह फारस की खाड़ी के दक्षिण में अरब प्रायद्वीप पर स्थित है और पर्यटन के लिए अनुकूल भी।
और तीसरा विकल्प है भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई।

मुंबई को छोडकर अन्य जगहों के लिए पासपोर्ट की आवश्यकता होगी।

आप बताएं कहाँ चलना पसंद करेंगे इसबार।


शनिवार, 5 जुलाई 2014

ब्लॉगोत्सव-२०१४, परिकल्पना समय की अब तक कुछ ख़ास झलकियाँ (समापन)



समय  .... यह समय जो हमेशा हमारे साथ होता है
इसी ने बनाया था परिकल्पना का मंच 
साक्षी बन बहुत कुछ कहता गया 
 हिंदी - हिंदी ब्लॉग्स की पहचान को उभारता गया 
इसकी नींव के पत्थर रवीन्द्र प्रभात ने जोड़े थे 
    आज उस समय की अब तक की कुछ ख़ास झलकियाँ - 



मैं समय हूँ , मैंने देखा है वेद व्यास को महाभारत की रचना करते हुए , आदि कवि वाल्मीकि ने मेरे ही समक्ष मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को अक्षरों में उतारा...सुर-तुलसी-मीरा ने प्रेम-सौंदर्य और भक्ति के छंद गुनगुनाये, भारतेंदु ने किया शंखनाद हिंदी की समृद्धि का. निराला ने नयी क्रान्ति की प्रस्तावना की, दिनकर ने द्वन्द गीत सुनाये और प्रसाद ने कामायनी को शाश्वत प्रेम का आवरण दिया .....!

मैं समय हूँ, मैंने कबीर की सच्ची वाणी सुनी है और नजरूल की अग्निविना के स्वर. सुर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करने वाली महादेवी को भी सुना है और ओज को अभिव्यक्त करने वाली सुभाद्रा कुमारी चौहान को भी, मेरे सामने आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री की राधा कृष्णमय हो गयी और मेरे ही आँगन में बेनीपुरी की अम्बपाली ने पायल झनका कर रुनझुन गीत सुनाये ....!


मैं समय हूँ, मेरे ही सामने पन्त ने कविता को छायावाद का नया बिंब दिया, अज्ञेय और नागार्जुन ने मेरी पाठशाला में बैठकर कविता का ककहारा सिखा, मुक्तिबोध और धूमिल ने गढ़ा नया मुहावरा हिंदी का, केदारनाथ सिंह ने किये नयी कविता के माध्यम से हिंदी का श्रृंगार और नामवर ने दिए नए मिथक, नए बिंब हिंदी को. मेरे ही सामने नीरज ने गाये प्रणय के गीत और अमृता ने रची प्रणय की कथा ....!

मैं समय हूँ आज देख रहा हूँ ब्लॉग पर उत्सव होते हुए, अहोभाग्य मेरा कि प्रणय की कथा रचनेवाली अमृता प्रीतम के प्रेमपथ के सहयात्री इमरोज भी पधारे हैं इस उत्सव में. उनको अपने साथ लेकर आयीं हैं पुणे महाराष्ट्र से कवयित्री रश्मि प्रभा...



निरंतर घूमता रहता हूँ . 
 परिकल्पना ब्लॉगोत्सव  प्रथम का मैं साक्षी रहा हूँ..... मुझे थामकर रवीन्द्र प्रभात जी यहाँ लाए थे , न भी लाए होते तो मैं होता . उस उत्सव में क्या नहीं था और मुझे - साक्षी बनना था .,मैंने देखा प्रणय की कथा रचनेवाली अमृता प्रीतम के प्रेमपथ के सहयात्री इमरोज भी पधारे थे ब्लॉगोत्सव प्रथम में. दुष्यंत के बाद चर्चित गज़लकार अदम साहब ने भी बढाई थी शोभा उस उत्सव की, पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद ने भी दिए थे नए आयाम उस उत्सव को, कृष्ण बिहारी मिश्र, प्रेम जनमेजय, दिविक रमेश आदि शख्शियतों के साथ शामिल हुए हर क्षेत्र - हर वर्ग के सृजन शिल्पी और चहूँ ओर मैंने सुनी थी उस बक्त बस परिकल्पना,परिकल्पना,परिकल्पना की अद्भुत गूँज ...निर्बाध रूप से दो महीने तक ! 

सरस्वती के आशीष से परिपूर्ण दिग्गजों की टोली थी, अरे मैं हतप्रभ था तो मैं समझ सकता हूँ कि मेरी नायाब पकड़ रवीन्द्र जी को कितनी परेशानी हुई होगी !

पर साहित्य की इस महायज्ञ में शामिल होना ही गौरवपूर्ण था, है और रहेगा तो तर्क कैसा? शिकायत कैसी ?
मैं समय हूँ, मुझे कोई शिकायत नहीं.

मैंने सतयुग देखा, द्वापरयुग देखा, रामायण के रचयिता से मिला, महाभारत का संजय बना, और हर काल में मेरी आलोचना हुई है.

इन आलोचनाओं का सबसे बड़ा शिकार तोह मैं ही रहा न.. कोई भी अनहोनी हो, मुझे कोसते हैं सब.. फिर भी मैं निरंतर चलता हूँ..

यदि मैं रुक गया तब तो न कोई युग होगा न उत्सव न ख़ुशी न दुःख...

एक चक्रव्यूह बनाया था दिग्गजों ने.
अभिमन्यु मारा गया, अर्जुन ने मैदान जीता पर अभीमन्यु को नहीं लौटा सका...

एक कुरुक्षेत्र का मैदान होता है अपने ही अन्दर जहाँ १८ दिन का महायुद्ध नहीं होता, पूरी ज़िन्दगी का हिसाब किताब होता है.
मन खुद चक्रव्यूह बनता है खुद के लिए, खुद से युद्ध होता है.

एक अभिमन्यु की कौन कहे, जाने कितने अभिमन्यु मारे जाते हैं और कृष्ण भी स्तब्ध होते हैं...

तो इस व्यूह से निकलो..
काल को समझो निर्वाण का अर्थ जानो.........



बहुत करीब से जाकर मिलो
तो हर शख्स खुद से जुदा लगता है....
टकराता मैं सबसे हूँ , बढ़ भी जाता हूँ
पर कहीं कहीं रुकना ज़रूरी होता है ! ......... क्या लगता है तुम्हें कि समय यूँ हीं निरंतर चलता जाता है . नहीं नहीं - ऐसा कैसे समझ सकते हो तुम सब ! तुम अपनी रफ़्तार में भले भूल जाओ पर जानते तो ही मैं ही मंथन करता हूँ, मैं ही सुनामी लाता हूँ , मैं ही प्रयोजन बनाता हूँ, रास्ते खोलता हूँ, बन्द करता हूँ ........ मैं सहस्त्र दृष्टियों से अहर्निश भाव से तुम सबको देखता हूँ , विधि का विधान मैं , निर्माण मैं ......



इक फौजी के दिल के एहसास और उनकी ख्वाहिशें हमसे अलग नहीं होतीं , वह फौलादी दिल लिए मुस्कुराता तो है ,'रंग दे बसंती चोला ' गाता तो है , सरफरोशी की तमन्ना लिए सीमा पर खड़ा रहता तो है ..... पर बासंती हवाएँ उनको भी सहलाती हैं , सोहणी उनको भी बुलाती हैं ..... कुछ इस तरह


गुनगुनाता है चनाब
सोहणी के पाजेब बजते है
हवाओं में सरगर्मी है किसी के आने की ...

मैंने कहा है इन हवाओं से - आहिस्ता चलो
हम फौजी हैं --- सधे क़दमों से ही पहचान अपनी होती है...

पुरवा की शोख अदाएं झटक के बातों को
हमारे दिल में भी चुपके से सुगबुगाती है

शाम ये ख़ास है कुछ ख़ास से एहसास हैं
चलो हवाओं संग कुछ हम भी बहक जाते हैं

वक़्त करता है इशारे कि हमें जाना है
फिर मिलेंगे कभी पर हाँ अभी तो जाना है

पास कहने को हमारे , तो जाने कितनी बातें हैं
आँखों में शोखियों की बोलती इबारतें है

पर अगर चलना ही है तो आओ इतना हम कर लें
तेरे आगे तेरी इबादत में ,मिलने की तारीखें फिर तय कर लें (समय यानि रश्मि )

जो दिखाई देता है .... बंधु उसके पार बहुत कुछ होता है . चश्मा मत लगाओ , बस थोड़ा मन को आजमाओ


आशीर्वचनों से बढ़कर कुछ नहीं .... इनको सहेजना ही जीवन को कल्पवृक्ष बनाते हैं ... और परिकल्पना को देते हैं पंख,

ॐ 
हे प्रभावती ' रश्मिप्रभा '
' परिकल्पना ' ने मुझे कल्पना के पंख लगा कर
एक ऐसे दीव्याकाश में ला खड़ा कर दिया है कि
मैं आश्चर्य चकित सी अपना नाम इन तमाम रचनाकारों के संग देख
हतप्रभ हूँ ..
ख़ास तौर से आदरणीया सुभद्रा कुमारी चौहान 
एवं पूज्य भगवती चरण वर्मा चाचाजी के बीच 
मेरी छवि देखकर असमंजस में हूँ ...अब और क्या लिखूं ?
यह आपका स्नेह पूर्ण अपनापन जीवन के अंतिम क्षण तक याद रहेगा 
और अपनी स्वयं की कविता न देकर 
शिष्ट सौम्यता का जो अनोखा रंग अछूता रखा है 
उस पर बलिहारी जाऊं :-)
अभी इतना ही बहुत सारा स्नेह
व् आशिष सहित 

- लावण्या दी 


चाहने में इच्छाशक्ति प्रबल हो तो असंभव भी संभव है ... रुकावटें,भय,अस्तित्व का प्रश्न सबके सामने होता है . मझदार,व्यूह,जमीं के नीचे से खिसकती धरती सबके हिस्से आती है,समय अलग अलग है ! संस्कार अपने होते हैं, आनेवाली हवाओं में कौन सा तिनका आँखों में पड़ेगा - यह तय नहीं होता . व्यूह अपना अपना होता है - कोई अभिमन्यु होता है,कोई कृष्ण, कोई पितामह,कोई अर्जुन तो कोई कर्ण ...........आलोचना से न अभिमन्यु जीवित होगा,न पितामह विरोधी स्वर लिए अर्जुन के साथ होंगे .... पर चाह लो तो अमरत्व है इच्छाशक्ति का . होनी का वरदान कृष्ण को कृष्ण बना गया,यशोदा को कृष्ण के मुख में ब्रह्माण्ड दिखा गया ........ असंभव को संभव करने में ही तो कृष्ण भगवान् हुए, अवतार कहलाये,उद्धारक हुए . 

सोच लो तो मरकर भी रास्ते ख़त्म नहीं होते ....

इसी के साथ परिकल्पना ब्लॉगोत्सव-२०१४  के समापन की मैं घोषणा करती हूँ, अब मुझे अनुमति दें, मैं रश्मि प्रभा अगले वर्ष फिर लेकर आऊँगी एक नया ब्लॉग उत्सव का  प्रारूप .... तब तक के लिए शुभ विदा। 

ब्लॉगोत्सव-२०१४, कहने को ,सुनाने को और था, लेकिन .... ३ (समापन)




पूरी हुई परिक्रमा  … अब बारी है कुछ अपनी कह सुनाने की 
नहीं कहना मैंने नहीं सीखा 
हाँ, कहने से पहले सोचती हूँ 
कुछ वक़्त को वक़्त देती हूँ 
कुछ अपने आप को !
किसी का दिल दुखे - मैं चाहती नहीं 
पर न दुखाओ तो कुछ भी कह जाते हैं 
तो कलम का अंकुश रखना पड़ता है 
गाहे-बगाहे नर्म शब्दों को कोड़ा बनाना होता है  … 

 ........................................... आज इस उत्सवी मंच के समापन पर मेरी कलम मेरी कलम को लेकर आई है, 
एक बार - कुछ पल के लिए 
देखो,पढ़ो,सोचो 
कोई मसला हल हो जायेगा  .... ऐसा मुझे लगता है !!!

मेरी कलम से मेरी कलम

मेरी कलम ने आज उठाया है 
मेरी कलम को 
विरासत में मिली 
संगतराश - मेरे माँ-पापा की उपलब्धि !
कभी लगा था - यह भी क्या विरासत हुई 
इससे क्या खरीद पाऊँगी भला 
अमीरों के बीच गरीब ही नज़र आऊँगी !
पर असमंजसता की बोझिल स्थिति में भी 
इसके ह्रदय से अपने ह्रदय को लिखा 
कई बार पढ़ा 
कई बार काटा 
कई पन्ने भी फाड़े  … 
कौन पढ़कर क्या कहेगा 
सोचा  !
शब्दों की आलोचना होगी 
इसका डर हुआ  ! … 
पर डर से आगे 
एहसासों का हौसला था 
भावनाओं का विस्तृत आकाश था 
सिरहाने स्मृतियों की खिलखिलाहट 
कुछ सिसकियाँ 
सुबह की किरणों में मकसद 
चाँदनी में धैर्य 
अमावस्या में उम्मीद 
झपकती पलकों के भीतर विश्वास  … 
तो मैंने वो सब लिखा 
जो अक्सर अनकहा रह जाता है !
एक समूह खुद को मेरे लिखे में जीने लगा 
उसके ठहरे, बंधे,कमजोर हो गए कदम 
आगे बढ़ने लगे  
मैंने शब्दों की मर्यादा में 
दर्द की हर तासीर को उभारा 
आस-पास बिखरी ज़िन्दगी को 
सिर्फ देखा नहीं 
अंतस्थ से जीने की कोशिश की !
मैंने राम को पूजा 
कृष्ण की आराधना की 
बुद्ध को पढ़ा 
कर्ण को जाना 
दुर्योधन को जाना 
भीष्म पितामह,विदुर,द्रोण के गुणों से वाकिफ हुई 
सिक्के के दो पहलू होते हैं 
तो व्यक्ति के भी 
(मेरे भी दो पहलू हैं)!
मैंने दोनों पहलुओं की शिनाख्त की 
यह सत्य है 
कि कोई भी अच्छा न पूरी तरह अच्छा होता है 
न पूरी तरह बुरा  … 
अच्छे के आलोचक 
और बुरे के समर्थक इसके उदहारण हैं !
मैंने जाना 
तर्क का सरल अर्थ कुतर्क है 
क्योंकि तर्क देनेवाला हार नहीं मानता 
अपनी बात सिद्ध कर ही लेता है 
…। 
मेरी कलम गंगा के जल से भी मुखातिब हुई 
उसके सूखे गातों से भी मिली 
सोचा -
गंगा ने आज अपनी दिशा बदल दी 
.... तो पहले क्या क्षमा किया ?
या सहती गई पाप का बोझ ?
अति को बढ़ावा देने से पहले निगल क्यूँ नहीं गई ?
रातों रात शिव जटा में सूख क्यूँ नहीं गई ?
ईश्वर के आगे नतमस्तक मेरी कलम 
सोचती रही  
पत्थरों में तो यज्ञ अग्नि के साथ 
पूरे मंत्रोच्चार के साथ 
प्राणप्रतिष्ठा हुई 
फिर जब कोई हादसा हुआ 
नाग शिव कंठ से निकला क्यूँ नहीं ?
कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से 
अन्यायी का मस्तक क्यूँ नहीं धड़ से अलग किया ?
मानती है कलम 
यह कलयुग है 
पर प्रभु तो कलयुगी नहीं 
उनको तो हर युग में अवतार लेना होता है 
फिर ?
दिल से पुकारनेवालों की कमी नहीं 
फिर !
यदि क्रोध है पूजा और आह्वान पर 
तो सर्वविनाश ही सही 
अन्यथा -
मेरी कलम कहती है 
कि किसी कलम, 
किसी इंसान,
किसी स्त्री,
किसी बालक के 
सारथि क्यूँ नहीं बनते प्रभु !!!
मेरी कलम ने गर्भ में भयभीत कन्या को देखा
तो अवाक उन बालकों को भी देखा 
जिनके लिए मार्ग रक्तरंजित किये जा रहे थे 
.... 
देखा उन माओं को 
जो सास की बात पर ईश्वर के आगे निराहार बैठी थी 
'बहू, कुलदीपक ही देना 
वरना अपने बेटे के लिए दूसरी बहू ले आऊँगी !"
विडंबनाओं के आगे 
अहिंसक ही हिंसक है 
आस्तिक हो गया है नास्तिक !
.... 
मैंने खुद को लिखा है 
तो पाठकों से अधिक 
खुद को पढ़ा भी है  … 
जब भी किसी की टिप्पणी मिली 
मैंने उसकी नज़र से खुद को पढ़ा 
अपने ही लिखे के कई मायने मिले 
और मायने के हर कोण 
मुझे सार्थक लगे !
… 
मेरी कलम 
समालोचक है तो आलोचक भी 
अपने लिखे को रेखांकित करती है 
मील का पत्थर बनाती है 
तो मीलों की लिखित दूरी तयकर 
कई अद्भुत कलम की तलाश करती है 
उन्हें अपनी कलम में पिरोती है 
गाँव-गाँव 
शहर-शहर 
देश-देश की परिक्रमा करती है 
साहित्य की बुनियाद पर 
साहित्य का सिंचन करती है 
कोपलें निकलें 
अस्तित्व वृक्ष बने - मेरी कलम की यही पूजा है
और इसीमें उसकी छोटी सी सार्थकता है 
…………… 


रश्मि प्रभा 







अरे॥रे...कहाँ चले.....अभी .....झलकियाँ  बाकी है ....मिलती हूँ एक विराम के बाद। 

ब्लॉगोत्सव-२०१४, कहने को ,सुनाने को और था, लेकिन .... २ (समापन)


कितनी बातें जो तेरे शहर की थीं 
हाँ मेरे गाँव से थोड़ा अलग  … 
उनको जोड़कर 
तोड़कर 
कहना तो था अभी और  
लेकिन फिर कभी !
अभी तो यही कहना है इस मंच से -
एक सपने सा ही लगता है निकल पाऊँगी 
इस जंगल में शब्दों के घने साये हैँ  

            रश्मि प्रभा 


"मै एक छोटी सी लड़की हूँ" - (save the girl child !)

मै एक छोटी सी लड़की हूँ 
सुबह की पहली किरण सी उजली हूँ 
छा जाउंगी नभ पर,यही ख्वाब बुनती मै पली हूँ 
मै एक छोटी सी लड़की हूँ 

यूं तो अकेले ही अपनी मंजिल की और बढ़ी हूँ 
पर कुछ सपने और जोड़ लिए हैं खुद से 
और सबको साथ लेके चल पड़ी हूँ 
मै एक छोटी सी लड़की हूँ 

निश्चय बहुत ही द्रिड़ है मेरा, तूफानों में ढली हूँ 
पसंद है मुझे लड़ना और जीत जाना, 
पर दिल की बहुत भली हूँ 
जानती हूँ मुझ जितने भले नहीं लोग, 
जरा सी इसी बात से डरी हूँ 
मैं एक छोटी सी लड़की हूँ 

नाजुक हूँ स्वर्ण सी, आग में तप कर ही निखरी हूँ 
जीत लूंगी सारा गगन इसी संकल्प के साथ मैदान में उतरी हूँ 
मैं एक छोटी सी लड़की हूँ 

आँखों में सपने जरुर है, पर हकीक़त के धरातल पे मै चली हूँ 
अटल है मेरे इरादे बलबूते जिनके मै इस राह निकली हूँ
मैं एक छोटी सी लड़की हूँ 

भर दूंगी जीवन हवाओं मे, प्रेम की स्वरलहरी हूँ 
सरल हूँ प्रकृति मे जितनी, मन की बहुत गहरी हूँ
मंजिल बहुत दूर है अभी, मैं कब कही ठहरी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

परिचित हूँ अपनी शक्ति से, हौसलों से भरी हूँ
न केवल अपने लिए बल्कि सबके हक के लिए खड़ी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

उम्मीदे लगी है, मुझसे मेरे अपनों की, 
उत्साह पाकर जिनसे मै डटी हूँ
अब हटूंगी नहीं पीछे, 
दिखा दूंगी, मैं बड़ी हठी हूँ 
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

पर्वत सा विशाल पापा का विश्वास है, 
मै उनके सपनो की रौशनी हूँ 
कितनी काबिल हूँ दिखला दूंगी, 
माँ के चमन में जो खिली हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ

हाँ, मै एक छोटी सी लड़की हूँ, 
पर डैने फैलाये अपने, उडान को तैयार खड़ी हूँ 
समेट लूँगी आसमान मुट्ठी में, 
हाँ मैं आसमान से बड़ी हूँ
मै एक छोटी सी लड़की हूँ


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रश्मि स्वरुप 


सन्नाटे की आवाज़ !!

मै बहुत दिन से ये जानने का प्रयास कर रहा था की क्या सन्नाटे की भी कोई आवाज़ होती है, शायद नहीं, या शायद नहीं होती थी. पर अब वक़्त बदल चुका है! वो गलियां जो हमेशा सन्नाटे में होती थी, पिछले कुछ दिनों में इतने अत्याचार देखें हैं की उनका भी मन द्रवित हो चुका है और वो भी कुछ कहने पर मजबूर हो गयी है. प्रमुखतः ये अत्याचार महिलाओं के ऊपर हुए हैं:

कल गुजर रहा था उसी रस्ते पर मैं,
रात की काली छाया भी पूरे शबाब पे थी,
कुछ झींगुरों की आवाज़ कानों में पड़ रही थी मेरे,
ऐसा लगा इस सन्नाटे की एक आवाज़ भी थी.

कुछ कहना था उसको मुझसे,
शायद, कुछ बात करनी थी,
पर मै थोडा हत्भ्रमित था,
क्या सन्नाटे की भी आवाज़ होती है.

खैर जो भी है, एक कवि के नाते मैंने सुनना स्वीकार किया,
उन अन-सुनी अन-कही बातों पर चिंतन करने का विचार किया,
जो कहा उन्होंने उस पल में, झिंझोड़ दिया मेरे मन को,
अब उनकी ही बातों को मैंने, एक कविता का सारांश दिया: - - -

"जिनकी उजली शक्लें दिन में खूब चमकती हैं,
रातों के सन्नाटे में काली करतूतें करती हैं,
दिन में जितने भाषण दे लें, एक सुन्दर भविष्य बनाने का,
रात के अँधेरे में उस भविष्य का ही शोषण करती हैं.

जिन रस्तों पर दिन का सूरज खूब उजाला देता है,
उन रस्तों पर रातों में एक घना अँधेरा होता है,
जिनके हँसते चेहरों पर हम दिन में वारे न्यारे जाते हैं
रातों में उनकी दारुण चीखों से ये रस्ते भर जाते है.

इन चीखों से तो ये सन्नाटे भी अब घबराते हैं,
तुम लोगो को शायद कुछ ना हो पर सन्नाटे भी अब चिल्लाते हैं."

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राहुल पाण्डेय 





समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद....... 
 
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