मंगलवार, 30 जून 2015

परिकल्पना - कैकेयी




कैकेयी का प्रेम राम के प्रति अपार था ... पर कुछ देर कथा से परे एक माँ को देखिये . सभी राममय थे - और राम , लक्ष्मण , भरत , शत्रुघ्न ..... चारों में कोई उम्र अंतराल नहीं था . तो हर वक़्त राम राम के मध्य माँ की सहज आशंका कहीं होगी . सारी समझदारी के बाद भी एक आम भाव सौतन का कहीं न कहीं होगा . प्रेम को बांटना हद से अधिक किसी के लिए संभव नहीं - मानव रूप में तो हरगिज नहीं . हम तो भगवान् के बीच भी एक ईर्ष्या देख लेते हैं - कथाएं उदाहरण हैं , तो सतयुग तो मानवी अध्याय था . 
कैकेयी के प्रति न्याय तभी होगा , जब हम खुद कैकेयी हो जाएँ - भरत की माँ ! मंथरा कारण का मात्र एक विम्ब है - सत्य  माँ की सोच है . जब अपने बच्चे की बात आती है तो कौन बेईमान नहीं होता . कैकेयी ने तो पश्चाताप भी किया , आम लोग तो यह भी नहीं करते !


रश्मि प्रभा 

मैथिलि शरण ‘गुप्त’ की रचना से कैकेयी की छवि बदलती है -



"हाँ, जानकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुनलें तुमने स्वयम अभी यह माना|
यह सच है तो घर लौट चलो तुम भैय्या,
अपराधिन मैं हूँ तात्, तुम्हारी मैय्या |"

"यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र मैं खोऊँ!
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमे सार, उसे सब चुन लो|"

अनुपमा पाठक.jpgकैकेयी अविरल प्रेरणा है..
अनुपमा पाठक 

नियति ने सब तय कर रखा होता है... लीलाधर की लीला है सब परमेश्वर की माया है...
निमित्त मात्र बना कर लक्ष्य वो साधता है ईश्वर स्वयं पर कभी कोई इलज़ाम नहीं लेता है यूँ रचे जाते हैं घटनाक्रम बड़े उद्देश्य की पूर्ती हेतु जिसे आयाम देने को बनता है कोई जीव ही सेतु
कैकेयी भी केवल निमित्त थी... माँ थी वो... वो सहज सौम्य चित्त थी...
ये समय की मांग थी जिसे कैकेयी ने स्वीकारा था... राम के वन गमन की पृष्ठभूमि तैयार करनी थी न सो कैकेयी ने यूँ अपना ममत्व वारा था...
सारा कलंक अपने ऊपर ले कर माँ ने अद्भुत त्याग किया... राम राम हो सकें इस हेतु कैकेयी ने वर में पुत्र को वनवास दिया...
कौन समझेगा इस ममता को... ? ऐसे अद्भुत त्याग को... वीरांगना थी कैकेयी... दुर्लभ है समझना उस आग को...!!!
***
इसलिए तो अपने आस पास हम सुमित्रा और कौसल्या तो सुन लेते हैं पर कैकेयी किसी का नाम नहीं होता!
क्यूंकि... कैकेयी होना किसी के वश की बात नहीं... अपनी कीर्ति अपकीर्ति की परवाह किये बिना जो समर्पित हो ऐसी भक्ति दुर्लभ है... अब ऐसी दिवा रात नहीं...
उच्च उदेश्य की खातिर मिट जाना जीवन का एकमात्र उद्देश्य यही... है यही शाश्वत एक तराना
कैकेयी का पात्र ऐसी ही अविरल प्रेरणा है... राम जानते थे अपनी माता की विशालता को... उसे समझने की खातिर... जग को अभी बहुत कुछ बुझना देखना है... ...!!!






केकैयी .... एक प्रश्नचिन्ह ?
वंदना गुप्ता 


लिख रही है दुनिया
मन के भावों को
उन अनजानी राहों को
जिन पर चलना मुमकिन ना था
उस दर्द को कह रही है
जो संभव है हुआ ही ना था
कभी किसी ने ना जाना
इतिहास और धर्म ग्रंथों 
को नहीं खंगाला
गर खंगाला होता तो
सच जान गए होते
फिर ना ऐसे कटाक्ष होते
हाँ , मैं हूँ केकैयी 
जिसने राम को वनवास दिया
और अपने भरत को राज दिया 
मगर कोई नहीं जानता 
प्रीत की रीतों को
नहीं जानता कोई कैसे
प्रेम परीक्षा दी जाती है
स्व की आहुति दे 
हवनाग्नि प्रज्ज्वलित  की जाती है 
मेरी प्रीत को तुम क्या जानो
राम की रीत को तुम ना जानो
जब राम को जानोगे 
तब ही मुझे भी पहचानोगे
मेरा जीवन धन राम था
मेरा हर कर्म राम था
मेरा तो सर्वस्व  राम था
जो भी किया उसी के लिए किया
जो उसके मन को भाया है
उसी में मैंने जीवन बिताया है
हाँ कलंकनी कहायी हूँ
मगर राम के मन को भायी हूँ
अब और कुछ नहीं चाह थी मेरी
राम ही पूँजी थी मेरी
जानना चाहते हो तो
आज बताती हूँ
तुम्हें राम और मेरी 
कथा सुनाती हूँ
जब राम छोटे थे
मुझे मैया कहते थे
मेरे प्राणधन थे
भरत से भी ज्यादा प्रिय थे
बताओ कौन ऐसा जग में होगा
जिसे ना राम प्रिय होगा
हर चीज़ से बढ़कर किसे ना 
राम की चाह होगी 
बेटे , पति , घर परिवार
कभी किसी को ना 
राम से बढ़कर चाहा
मुझमे तो सिर्फ 
राम ही राम था समाया
इक दिन राम ने 
प्रेम परीक्षा ली मेरी
मुझसे प्रश्न करने लगे
बताओ मैया 
कितना मुझे तुम चाहती हो
मेरे लिए क्या कर सकती हो
इतना सुन मैंने कहा
राम तू कहे तो अभी जान दे दूँ
तेरे लिए इक पल ना गंवाऊँगी 
जो तू कहे वो ही कर जाऊँगी
राम ने कहा जान तो कोई भी
किसी के लिए दे सकता है
मज़ा तो तब है जब जीते जी 
कांटों की शैया पर सोना होगा
ये ना प्रेम की परिभाषा हुई 
इससे बढ़कर तुम क्या कर सकती हो
क्या मेरे लिए अपने पति, बेटे
घर परिवार को छोड़ सकती हो
क्या दुनिया भर का कलंक
अपने सिर ले सकती हो 
उसकी बातें सुन मैं सहम गयी
लगा आज राम ने ये कैसी बातें कहीं
फिर दृढ निश्चय कर लिया
मेरा राम मेरा अहित नहीं करेगा
और यदि उसकी इच्छा ऐसी है 
तो उसके लिए भी तैयार हुई
कहा राम तेरी हर बात मैं मानूंगी
कहो क्या करना होगा 
तब राम यों कहने लगे
मैया सोच लेना
कुछ छोटी बात नहीं माँग रहा हूँ
तुमसे तुम्हारा जीवन माँग रहा हूँ
तुम्हें वैधव्य भी देखना होगा 
मेरे लिए क्या ये भी सह पाओगी
अपने पुत्र की नफ़रत सह जाओगी
ज़िन्दगी भर माँ तुम्हे नही कहेगा
क्या ये दुख सह पाओगी
आज मेरे प्रेम की परीक्षा थी
उसमे उत्तीर्ण होने की ठानी थी
कह दिया अगर राम तुम खुश हो उसमे
तो मैं हर दुःख सह जाउंगी
पर तुमसे विलग ना रह पाऊँगी
तुम्हारे प्रेम की प्यासी हूँ
तुम्हारे किसी काम आ सकूँगी
तभी जीवन लाभ पा सकूँगी
कहो क्या करना होगा
तब राम ये कहने लगे
मैया जब मुझे राजतिलक होने लगे
तब तुम्हें भरत को राज दिलाना होगा
और मुझे बनवास भिजवाना होगा
ये सुन मैं सहम गयी
राम वियोग कैसे सह पाऊँगी 
राम से विमुख कैसे रह पाऊँगी
तब राम कहने लगे
मैया मैं पृथ्वी का भार हरण करने आया हूँ
इसमें तुम्हारी सहायता की दरकार है
तुम बिन कोई नहीं मेरा 
जो इतना त्याग कर सके 
तुम पर है भरोसा मैया
इसलिए ये बात कह पाया हूँ
क्या कर सकोगी मेरा इतना काम
ले सकोगी ज़माने भर की
नफ़रत का अपने सिर पर भार
कोई तुम्हारे नाम पर 
अपने बच्चों का नाम ना रखेगा
क्या सह पाओगी ये सब व्यंग्य बाण
इतना कह राम चुप हो गए
मैंने राम को वचन दिया
जीवन उनके चरणों मे हार दिया 
अपने प्रेम का प्रमाण दिया
तो क्या गलत किया
प्रेम में पाना नहीं सीखा है
प्रेम तो देने का नाम है
और मैंने प्रेम में 
स्व को मिटाकर राम को पाया है
मेरा मातृत्व मेरा स्नेह
सब राम में बसता था
तो कहो जगवालों 
तुम्हें कहाँ मुझमे 
भरत के लिए दर्द दिखता था
मैंने तो वो ही किया
जो मेरे राम को भाया था
मैंने तो यही जीवन धन कमाया था
मेरी राम की ये बात सिर्फ 
जानकार ही जानते हैं
जो प्रेम परीक्षा को पहचानते हैं 
ए जगवालों 
तुम न कोई मलाल करना
ज़रा पुरानों में वर्णित
मेरा इतिहास पढ़ लेना
जिसे राम भा जाता है
जो राम का हो जाता है
उसे न जग का कोई रिश्ता सुहाता है
वो हर रिश्ते से ऊपर उठ जाता है
फिर उसे हर शय में राम दिख जाता है
इस तत्वज्ञान को जान लेना
अब तुम न कोई मलाल करना    


कैकेयी -मातॄत्व का एक रूप ये भी .....................
निवेदिता श्रीवास्तव 

अकसर सोचती हूँ कि सब हमेशा कैकेयी को गलत क्यों बताते हैं ! क्या सच में वो ऐसी दुष्टमना थी ?क्या वाकई उसने राम से किसी पूर्व जन्म का वैर निभाया ? क्या वो इतनी निकृष्ट थी कि उसके अपने बेटे ने भी उसको त्याग दिया ? शायद ये हमारी एकांगी सोच का भी नतीजा हो !जिस मां का मानसिक संतुलन एकदम ही असंतुलित हो गया हो और जो किसी को भी न पहचान पा रही हो ,वो भी अपने बच्चे के लिए एकदम से सजग हो जाती है |इसलिए कैकेयी को एकदम अस्वीकार कर देना शायद उचित नहीं है,आज जरूरत है तो सिर्फ देखने का नजरिया बदलने की |एक प्रयास हम भी कर लेते हैं ....
  ममता के भी कई रूप होते हैं |कभी वो सिर्फ वात्सल्य ,जिसमें बच्चा कभी गलत नहीं दिखता है ,होती है तो कभी संस्कार देती हुई सामाजिकता सिखलाती है और कभी अनुशासन का महत्व समझाती बेहद कठोर हो जाती है |इन तीनों ही रूपों में किसी भी रूप को हम गलत नहीं समझते हैं |राम की तीनों माताएं इन तीनों भावों की एकदम अलग-अलग प्रतिकृति दिखती हैं |कौशल्या का चरित्र जब भी  सामने आता है सिर्फ वात्सल्य से भरी माँ ही नज़र आती है और इस वजह से ही वो थोड़ी कमज़ोर पड़ जाती है जो हर परिस्थिति में किसी भी कटुता से अपने बच्चों को बचाना  चाहती है |सुमित्रा एक सजग और सन्नद्ध माँ का रूप लगी मुझे ,जो अपने पारिवारिक मूल्यों को अपने बच्चों तक पहुंचाने में तत्पर रहती है |बड़े भाई के वन-गमन पर लक्ष्मण को उसका अनुसरण करने को कहती है |बच्चे की सामर्थ्य और रूचि को समझ कर ही लक्ष्मण को भेजा शत्रुघ्न को नहीं |इसी तरह कैकेयी ने अनुशासन की कठोरता दिखाई और दूसरों के कष्ट को समझने की दृष्टि विकसित की |अगर कैकेयी ने राम को वन जाने के लिए मजबूर न किया होता तो राम जन-मन में नहीं बस पाते |वन में ही राम ने सामान्य वर्ग का कष्ट महसूस किया और उसके निराकरण का प्रयास भी किया |उस अवधि में ही राम ने अयोध्या के  परिवेश को शत्रुरहित भी किया |रावण जैसे शक्तिशाली और दुष्टप्रवृत्ति का विनाश करना भी संभव तभी हो पाया जब राम वन की बीहण उलझनों में गए |अगर राम को कैकेयी ने वन न भेजा होता ,तब भी  राम एक आदर्श पुत्र होते ,एक आदर्श शासक होते ऐसे कितने भी विशेषण उन के नाम के साथ जुड़ जाते ,परन्तु राम ऐसे जन-नायक नहीं होते जिस पर रामायण ऐसा ग्रन्थ लिखा जाता जो आज भी पूजित होता है |बेशक उन पर इतिहासकार पुस्तकें लिखते पर वो इतनी कालजयी और पावन न होतीं |अगर कैकेयी ने राम को वन जाने के लिए मजबूर न किया होता तो राम का "मर्यादा पुरुषोत्तम"रूप कहीं भूले से भी देखने को न मिल पाता|वैसे कमियां तो सभी में होती हैं परन्तु अगर इस  परिप्रेक्ष्य में  कैकेयी का आकलन करें तो शायद कुछ संतुलित हो सकेंगे ...................


कैकेयी की वेदना
अभय आज़ाद 
मेरा फोटो

रामायण हिन्दू धर्म का एक पवित्र ग्रन्थ है । जिसमे राम का चरित्र सर्वोत्तम है , जो करुणा ,त्याग , सहिष्णुता , प्रेम , धर्म , भात्रुप्रेम आदि की मूर्ति है । राम के चरित्र को निखारने में जितनी राम की व्यक्तिगत विशेषता का योगदान है उतना ही कैकेयी का योगदान है ।
कैकेयी अयोध्या नरेश राजा दशरथ की तीन रानियों में सबसे छोटी थी जो उन्हें अत्यंत प्रिय थी । देवासुर संग्राम में राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा कर उनके द्वारा दिए गए दो वरदानो की कृपापात्र बनी । जिसका सदुपयोग उन्होंने अपने प्रिय पुत्र श्री राम को चौदह वर्ष तक वनवासी जीवन व्यतित कर लंका नरेश रावण का वध कर इस धरा को उसके पापाचार से मुक्त कराकर सही मायने में राम राज्य की स्थापना करना । इस पुनीत कार्य के लिए इतिहास उन्हें आज भी घृणा की नजर से देखता है , उनके द्वारा किये गए उपकार के बदले में लोग आज भी उनकी निंदा करते है । अबला नारी की श्रेणी में सीता , उर्मिला , यशोधरा , अहिल्या आदि का वर्णन होता है ,लेकिन कैकेयी के त्याग ,बलिदान को देख सही मायने में ये पंक्ति सार्थक लगती है -''अबला तेरी यही कहानी ,आंचल में है दूध आँखों में है पानी '' ।
: किसी भी सधवा नारी के लिए उसका सौभाग्य उसका पति होता है और कैकेयी को पता था कि यदि राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास और अपने पुत्र के लिए राजगद्दी मांगकर वह अपने पति के प्राणों को संकट में डाल स्वयं अपने आप को विधवा बना रही है क्योंकि राम उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय है और वह राम के बगैर जी न सकेंगे । यह जानते हुए भी कैकेयी ने जनकल्याण हेतु विधवा होना स्वीकार किया । जिसके लिए पति के द्वारा शापित भी हुई ।
: कैकेयी को अपने चारो पुत्रो में सबसे अधिक स्नेह राम पर था यहाँ तक कि राम के बगैर वह जीवन कि कल्पना भी नहीं कर सकती थी फिर भी प्रजा कार्य हेतु उन्होंने राम को वन में भेज राम का असह्य वियोग सहा ।
: कैकेयी अपने सगे पुत्र साधू भरत को अच्छी तरह से जानती थी कि वह अपने बड़े भाई की जगह कभी भी राजा पद का स्वीकार नहीं करेगा , और इस कार्य के लिए उसे कभी माफ़ भी नहीं करेगा । अपने कलेजे पर पत्थर रख कर कैकेयी ने वरदान माँगा जिसके परिणाम स्वरूप भरत ने कभी भी कैकेये को माँ नहीं कहा । इससे बड़ी दुख की बात किसी माँ के लिए क्या हो सकती है ।
: समाज में निन्दित हुई लोगो के तिरस्कार का भोग भी बनी 
फिर भी उनके इन त्याग और बलिदान को देख कर मेरा मस्तक श्रध्दासे झुक जाता है ।



9 comments:

  1. बहुत खूबसूरती से सबके भाव संजोये हैं ...........आभार

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  2. यह जानते हुए भी कि उसका एक निर्णय उसे सदा-सदा के लिए लांछित करवा देगा, कैकेई ने देवहित (जनहित नहीं) के लिए, ऐसा आत्मघाती कदम उठाया !

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  3. अद्भुत प्रयास। अनोखी लेखन क्षमता व यथार्थ कल्पना।। लीक से हटकर टिप्पणी कैकयी पर।। एक से बढ़कर एक

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  4. नीरज सिंह शक्ति, उदयपुर राजस्थान

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