गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

थाईलैंड में आयोजित षष्टम अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की तिथियों में परिवर्तन


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अतिआवश्यक सूचना
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तकनीकी कारणों से थाईलैंड में आयोजित षष्टम अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की तिथियों में परिवर्तन अपरिहार्य होने के कारण इस आयोजन को एक सप्ताह आगे बढ़ाया गया है।

नए परिवर्तन के अनुसार अब यह आयोजन 17 जनवरी 2016 से 21 जनवरी 2016 तक पटाया और बैंकॉक में आयोजित होंगे। इसके लिए प्रतिभागियों को दिनांक 16 जनवरी को अपराहन 3-4 बजे तक कोलकाता पहुँचना होगा। बैंकॉक के लिए फ्लाइट रात्री 8.40 पर कोलकाता से है। कार्यक्रम के पश्चात सभी प्रतिभागियों की वापसी कोलकाता में दिनांक 21.01.2016 को सायं 6.30 तक होगी। सभी प्रतिभागीगण कोलकाता से दिनांक 21.01.2016 की रात्री में अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करेंगे। सहयोग के लिए आभार।

विशेष जानकारी के लिए निम्नलिखित ईमेल पर संपर्क करें:
parikalpnaa@gmail.com

शनिवार, 21 नवंबर 2015

परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान की उद्घोषणा

क्षिण एशिया में ब्लॉग पर साहित्य के विकास हेतु पृष्ठभूमि तैयार करने के साथ-साथ हिंदी भाषा व संस्कृति के प्रचार-प्रसार और भाषायी सौहार्द्रता एवं सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन के अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से लखनऊ की साहित्यिक संस्था "परिकल्पना" तथा लखनऊ से प्रकाशित होने वाली हिन्दी मासिक पत्रिका "परिकल्पना समय" द्वारा संयुक्त रूप से प्रत्येक वर्ष दक्षिण एशिया के किसी देश में विगत पाँच वर्षों से "अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन सह परिकल्पना सम्मान समारोह" आयोजित करती आ रही है, जिसमें ब्लॉग और साहित्य जगत की हस्तियों को अलंकृत किया जाता रहा है। विगत पाँच समारोह क्रमश: 30 अप्रैल 2011 में भारत की राजधानी दिल्ली, 27 अगस्त 2012 में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ , 13-14-15 सितंबर 2013 में नेपाल की राजधानी काठमांडू,  13-14-15 जनवरी 2015 में भूटान की राजधानी थिंपु और 23-24-25 मई 2015 में श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में आयोजित हो चुके हैं तथा इसबार यह समारोह थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक एवं सांस्कृतिक राजधानी पटाया में आगामी  जनवरी 2016 को आयोजित हो रहे हैं।

इस बार थाईलैंड में आयोजित समारोह में अलंकरण हेतु जिन सम्मान धारकों को शामिल किया गया है, वह इसप्रकार है -

परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान


ब्लॉगर: श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी, इंदौर (मध्य प्रदेश)
ब्लॉग: प्रकाश हिंदुस्तानी 
सम्मान राशि: इक्कीस हजार रुपये


प्रकाश हिन्दुस्तानीप्रकाश हिंदुस्तानी एक भारतीय पत्रकार, कवि, लेखक और ब्लॉगर हैं। हिन्दी के पहले वेब पोर्टल वेबदुनिया के पहले संपादक, उसके बाद 'नईदुनिया', 'धर्मयुग', 'नवभारत टाइम्स', 'दैनिक भास्कर', 'सांध्य चौथा संसार' जैसे अख़बारों के साथ ही 'सहारा समय', 'जीएनएन' और स्थानीय चैनलों में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार और न्यू मीडिया के क्षेत्र में अपनी निजी वेबसाइट के माध्यम से 14 वर्षों से निरंतर सक्रिय हैं। 
    परिकल्पना सार्क सम्मान 

    प्रथम वरियता प्राप्त सम्मान धारक
    ब्लॉगर: श्री जितेन्द्र दीक्षित , मुंबई, महाराष्ट्र 
    ब्लॉग: Address to the Universe !
    सम्मान राशि: ग्यारह हजार रुपये
    जितेन्द्र दीक्षित                       विगत 15 सालों से टीवी पत्रकारिता और साल 2007 से चिट्ठा विश्व से जुड़े जितेंद्र दीक्षित के अधिकतर ब्लॉग बहुभाषीय है। अर्थात हिंदी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में हैं। ये अमूमन आतंकवाद, संगठित अपराध, सुरक्षा, राजनीति, प्राकृतिक आपदाओं और मुंबई के रंग ढंग पर ब्लॉग लिखते रहे हैं। मुंबई में 26 नवंबर 2008 के आतंकी हमलों को इन्होंने शुरूवात से लेकर आखिर तक कवर किया था और उस दौरान हुए अनुभवों पर इन्होंने एक किताब भी लिखी जो अन्य भाषाओं में भी अनुवादित की गई। वर्तमान में वे ए वी पी न्यूज मुंबई में वरिष्ठ संपादक के पद पर कार्यरत हैं।

    द्वितीय वरियता प्राप्त सम्मान धारक
    ब्लॉगर: सुश्री कविता रावत, भोपाल, मध्य प्रदेश 
    ब्लॉग: कविता रावत
    सम्मान राशि: ग्यारह हजार रुपये


    कविता ने बरकतउल्ला विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्‍त की है। वर्तमान में वे स्कूल शिक्षा विभाग, भोपाल में कर्मरत हैं। ये भोपाल गैस त्रासदी की मार झेलने वाले हजारों में से एक हैं । ऐसी विषम परिस्थितियों में इनके अंदर उमड़ी संवेदना से लेखन की शुरुआत हुई, शायद इसीलिए वे आज आम आदमी के दुःख-दर्द, ख़ुशी-गम को अपने करीब ही पाती हैं, जैसे वे इनके अपने ही हैं। ब्लॉग इनके लिए एक ऐसा सामाजिक मंच है जहाँ ये अपने आपको एक विश्वव्यापी परिवार के सदस्य के रूप में देख पा रही हैं, जिस पर अपने मन/दिल में उमड़ते-घुमड़ते खट्टे-मीठे, अनुभवों व विचारों को बांट पाने में समर्थ हो पा रही हैं।

    तृतीय वरियता प्राप्त सम्मान धारक
    ब्लॉगर: श्री गगन शर्मा, रायपुर , छतीसगढ़ 
    ब्लॉग: कुछ अलग सा  
    सम्मान राशि: ग्यारह हजार रुपये

    My Photoकोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक श्री गगन शर्मा कोलकाता के कमरहट्टी जूट मिल्स एंड इंडस्ट्री में वरिष्ठ अधिकारी के पद से सेवानिवृत हैं। वर्ष 2008 से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर  वे अपने ब्लॉग के माध्यम से  मुखर होकर लिखते रहे  हैं। इस कार्य के लिए उन्हें वर्ष -  2014  का  परिकल्पना ब्लॉग गौरव सम्मान प्राप्त  हो चुका है।

    चतुर्थ वरियता प्राप्त सम्मान धारक
    ब्लॉगर: सुश्री कुसुम वर्मा, लखनऊ, उत्तर प्रदेश 
    ब्लॉग: हृदय कंवल 
    सम्मान राशि: ग्यारह हजार रुपये 


    कुसुम वर्मा एक ऐसी आवाज जो गले से निकलती है तो लगता है जैसे सरस्वती का साक्षात वरदान मिला हो। आल्हा की तान हो या बिरहा का दर्द, फाग की सुरीली धुन हो या कजरी की मिठास अपने लोकगीतों की सोंधी महक से सुर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करने वाली लखनऊ दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले 'माटी के बोल' कार्यक्रम की संचालिका कुसुम वर्मा को विगत 15 से 18 जनवरी 2015 में भूटान की राजधानी थिम्पु में आयोजित "चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन सह परिकल्पना सम्मान समारोह" में लोक गायन में उल्लेखनीय योगदान के लिए "परिकल्पना लोक सम्मान" वर्ग में परिकल्पना सम्मानसे अलंकृत किया गया था। 
       
    परिकल्पना  सम्मान (प्रतियोगिता परिणाम)
    1. परिकल्पना साहित्य सम्मान:     सुश्री प्रीति अज्ञात, अहमदाबाद, गुजरात
    2. परिकल्पना ब्लॉग सम्मान:         श्री अतुल श्रीवास्तव,राजनंद गाँव, छतीसगढ़  
    3.  
                           परिकल्पना  सम्मान (निर्णायकों द्वारा चयनित)
    1. परिकल्पना लोक साहित्य सम्मान:      श्री ओम प्रकाश जयंत, लखनऊ, उत्तर प्रदेश (अवधी)
    2. परिकल्पना गजल सम्मान:                 श्री अशोक गुलशन ,  बहराइच, उत्तर प्रदेश 
    3. परिकल्पना शिक्षा सम्मान:                  श्री मती कदम शर्मा, दिल्ली
    4. परिकल्पना प्रज्ञा सम्मान:                    श्री विश्वंभरनाथ अवस्थी, उन्नाव, उत्तर प्रदेश 
    उपरोक्त सभी सम्मान धारकों को आगामी जनवरी 2016 तक थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आयोजित षष्टम "अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन सह परिकल्पना सम्मान समारोह" के दौरान सम्मान स्वरूप निश्चित धनराशि, सम्मान-पत्र, प्रतीक चिन्ह, श्री फल और अंगवस्त्र प्रदान किए जाएंगे।

    गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

    परिकल्पना सार्क शिखर और सार्क सम्मान हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित

    जैसा कि आप सभी को विदित है, कि विगत चार वर्षों से परिकल्पना (संस्था) और परिकल्पना समय (मासिक पत्रिका) के संयुक्त तत्वावधान में प्रत्येक वर्ष ब्लॉगर्स को परिकल्पना सम्मान प्रदान किया जाता रहा है, किन्तु विगत वर्ष से इस सम्मान प्रक्रिया में आंशिक संशोधन किया गया है। संशोधन के उपरांत ब्लॉगोत्सव में शामिल प्रतिभागियों में से विषयानुसार चयनित दो सम्मानधारक कों "परिकल्पना सम्मान" प्रदान किए जाने की व्यवस्था पूर्ववत रहेगी। इस सम्मान के लिए चयन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और इसके अंतर्गत अहमदाबाद (गुजरात) की प्रीति अज्ञात और राजनंदगांव (छतीसगढ़) के अतुल श्रीवास्तव का चयन किया जा चुका है।

    उल्लेखनीय है, कि विगत वर्ष से शुरू की गयी एक नई पुरस्कार योजना के  अंतर्गत वर्ष-2016 हेतु  सार्क  देशों में से चयनित किसी भी देश के एक ब्लॉगर अथवा साहित्यकार को  "परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान" प्रदान किए जाने का प्रावधान है, जिसके अंतर्गत उन्हें 21000/- की धनराशि प्रदान की जाएगी।  साथ ही चार ब्लॉगरो  अथवा साहित्यकारों का चयन  "परिकल्पना सार्क सम्मान" हेतु  किया जाना है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक प्रतिभागियों को 11000/- की धनराशि प्रदान की जाएगी ।

    उपरोक्त दोनों सम्मान हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित है:

    नियम एवं शर्तें: 

    * सम्मानधारक के लिए ब्लॉगर, पत्रकार  अथवा साहित्यकार  होना अनिवार्य है। 

    * विगत एक दशक में ब्लॉग, सामाजिक मीडिया, जन संचार, यात्रा वृतांत, कविता, कहानी अथवा उपन्यास से      संबंधित सम्मानधारकों की  न्यूनतम एक पुस्तक, शोध प्रबंध अथवा न्यूनतम 100 ब्लॉग पोस्ट  अवश्य     प्रकाशित हो। 

    * सम्मानधारक के लिए दक्षिण एशिया के किसी भी देश का नागरिक होना अनिवार्य है। 

    * सम्मानधारक की आयु 30 वर्ष से कम न हो। 

    * सम्मान हेतु किसी दो उल्लेखनीय तथा विशिष्ट व्यक्तियों की अनुशंसा प्राप्त हो। यदि सम्मान धारक स्वयं      में अत्यंत विशिष्ट और उल्लेखनीय व्यक्तियों में से एक है, तो अनुशंसा की आवश्यकता नही है। 

    प्रक्रिया: इस सम्मान हेतु प्रतिभागी स्वयं भी अपना आवेदन दे सकते हैं, या फिर किसी संस्था अथवा व्यक्ति द्वारा अनुशंसा की जा सकती है। आवश्यक समझे जाने पर दो और उल्लेखनीय तथा विशिष्ट व्यक्तियों की अनुशंसा आवश्यक होगी। 

    कृपया निम्न जनकारियों के साथ विषय में "परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान हेतु प्रविष्टि" 
    अथवा "परिकल्पना सार्क सम्मान हेतु प्रविष्टि" 
    लिखते हुये निम्न विवरण के साथ parikalpnaa00@gmail.com पर मेल करें। 

    *नाम:
    *पिता/पति का नाम 
    *पता: 
    * जन्म तिथि: 
    *प्रकाशित पुस्तकें: 
    *प्राप्त सम्मान: 
    *ब्लॉग अथवा जालस्थल का पता: 
    * ई मेल आई डी :
    * उन्हें  यह सम्मान क्यों दिया जाये? 
    (कम से कम 100 शब्दों में अपनी बात रखें) 


    अंतिम तिथि: 15 नवंबर  2015

    ध्यान दें: समस्त सम्मानधारकों को आगामी 9 से 12 जनवरी  2016 में पटाया और बैंकॉक  (थाईलैंड) में आयोजित "षष्टम अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन सह परिकल्पना सम्मान समारोह" में ये विशिष्ट सम्मान प्रदान किए जाएंगे। 

    ध्यान दें: इस सम्मान हेतु प्रविष्टि भेजने वाले ब्लॉगरों , साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिए पासपोर्ट होना अनिवार्य है। पासपोर्ट न होने की स्थिति में उनका चयन रद्द किया जा सकता है। 

    शनिवार, 12 सितंबर 2015

    : हिंदी साहित्य का अखाडा :

    दोस्तों,नमस्कार;
    आज के हिंदी साहित्य के हालात पर मेरे द्वारा लिखी गयी जबरदस्त व्यंग्य कथा पढ़िए :
    : हिंदी साहित्य का अखाडा :
    धन्यवाद

    http://storiesbyvijay.blogspot.in/2014/03/blog-post.html

    मंगलवार, 8 सितंबर 2015

    परिकल्पना की उड़ान भरने को दो रचनाकार तैयार

    निर्णायक सदस्यों दवारा चयनित दो रचनाकार उड़ान भरने को तैयार 





    प्रीति 'अज्ञात' अहमदाबाद से ज्ञात एक बहुत ही सुरुचिपूर्ण महिला हैं और सुरुचिपूर्ण लेखिका। 
    जन्म-तिथि - १९ अगस्त १९७१
    जन्म-स्थान - भिंड(म.प्र.) 
    वर्तमान निवास-स्थान - अहमदाबाद (गुजरात) 
    शिक्षा - स्नातकोत्तर (वनस्पति-विज्ञान)
    संप्रति - संस्थापक एवं संपादक - 'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका, लेखिका, सामाजिक कार्यकर्त्ता 

    प्रकाशित साझा-संग्रह - एहसासों की पंखुरियाँ 
                               मुस्कुराहटें...अभी बाकी हैं 
                             हार्टस्ट्रिंग्स "इश्क़ा" 
                             काव्यशाला 
                             गूँज (हिन्द -युग्म प्रकाशन)
                                      
    पुस्तक - समीक्षा - सपनों के डेरे (प्रीति सुराना)

    संपादन -   एहसासों की पंखुरियाँ 
                  मुस्कुराहटें..अभी बाकी हैं 
                  मीठी- सी तल्खियाँ (भाग-2)
                  मीठी- सी तल्खियाँ (भाग-3)
                  
    प्रकाशनाधीन साझा-संग्रह -  बैरंग , वजूद की तलाश , सरगम TUNED
    प्रकाशनाधीन संपादित पुस्तक - उदिशा                         
            
    अन्य लेखन उपलब्धियाँ - विभिन्न राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक पत्रिकाओं, समाचार पत्रों में कविताएँ / आलेख प्रकाशित, कई वेब पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, मासिक वेब पत्रिका ज्ञान मंजरी में नियमित स्तंभ 'कैमरे की नज़र से'

    विशेष - 
    * 'साहित्य-रागिनी' वेब पत्रिका में मुख्य संपादक (सितंबर २०१३ से सितंबर २०१४ तक)
    * 'डेवेलपमेंट फाइल' (अँग्रेज़ी की मासिक पत्रिका) में गुजरात प्रमुख रिपोर्टर (नवंबर २०१४ से)
    * तीसरे 'दिल्लीअंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव' ( 20 -27 दिसंबर 2014) में हिंदी श्रेणी में रचना चयनित व् प्रकाशित 
    * 'म.प्र पत्र-लेखक संघ' द्वारा पुरूस्कृत
    *  वर्तमान में अपने ब्लॉग 'ख्वाहिशों के बादलों की......कुछ अनकही,कुछ अनसुनी' और 'यूँ होता, तो क्या होता....!' पर नियमित रूप से लेखन


    ई-मेल -  preetiagyaat@gmail.com


    'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका
    http://www.hastaksher.com/index.php
    ख़्वाहिशों के बादलों की..कुछ अनकही, कुछ अनसुनी
    यूँ होता...तो क्या होता !

    प्रीति अज्ञात  शब्दों में,
    'लेखन' मेरी प्राणवायु -

    "शब्द ही शब्द मंडराते हैं हर तरफ, सहेजना चाहती हूँ उन्हें , गागर में सागर की तरह , वक़्त की धूल कभी आँखों में किरकिरी बन नमी ला देती है , तो कभी इस धूल को एक ही झटके में झाड़ फटाक से खड़ा हो उठता है मन, जरा सी ख़ुशी मिली नहीं कि बावलों-सा मीलों दूर नंगे पैर दौड़ने लगता है, रेत में फूलों की ख़ुश्बू ढूंढ लेता है , घनघोर अन्धकार में भी यादों की मोमबत्तियाँ जला उजास भर देता है ! पर उदासी में अपने ही खोदे गहरे कुँए में नीचे तक उतर जाता है, बीता हर दर्द टटोलता है, सहलाता है, भयभीत हो चीखता चिल्लाता है  ! पुकार बाहरी द्वारों से टकराकर और भी भीषण ध्वनि के साथ वापिस आ मुंह चिढ़ाने लगती है ! दोनों हाथों को कानों से चिपकाकर, चढ़ने की कोशिश आसान नहीं होती। घिसटना किसे मंज़ूर है भला ? चाहे हिरणी-सी मीलों दूर की दौड़ हो चाहे जमीन के भीतर बनी खाई, दोनों ही जगहों से लौटना आसान नहीं होता, पर फिर भी, जिम्मेदारियों की रस्सी गले  में फंदा बाँध ऊपर खींच ही लेती है ! एक गहरी ख़राश, कुछ पलों का मौन, चीखता सन्नाटा और हारी कोशिशों का खिसियाता मुंह लिए लौट आता है तन और ठीक तभी मैं, स्वयं को भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिशों में जुटा पाती हूँ !

    लेखन मेरी प्राणवायु है, ये कभी समाज की कुरीतियों और अपराधों के प्रति निकली हुई झुंझलाहट है , तो कभी धर्मजाल के खेल में उलझते लोगों के लिए कुछ न कर पाने की बेबसी !, ये घुटन को दूर करने की व्याकुलता है और नम आँखों पर हँसी बिखेर देने की ज़िद भी! कभी ये छोटे-छोटे पलों को जीने का अहसास बन एक मासूम बच्चे -सा मेरे काँधे पर झूलता हुआ बचपन है तो कभी खुशियों को कागज़ पर समेट देने की असीम उत्कंठा! पर इन सबके पीछे 'परिवर्तन' की एक उम्मीद आज भी कहीं जीवित है ! लेखन मेरे लिए एक आत्म-संतुष्टि से कहीं ज्यादा 'प्रयास' है कि समाज में एक सकारात्मक और आशावादी सोच भी उत्पन्न कर सकूँ ! संघर्षों से हारना मैंने सीखा ही नहीं, इसलिए यह यात्रा अब तक अनवरत जारी है !

    शुरूआती दौर में, लेखन को प्रोत्साहित करने का पूरा श्रेय मेरे माता-पिता(नलिनी जैन और डॉ. सुभाष कुमार जैन) को जाता है और उसके बाद बच्चों ऋषभ और सौम्या को ! पति मुकुल को कविताओं का इतना शौक़ तो नहीं, लेकिन फिर भी उनका सहयोग हमेशा मेरे साथ रहा !
    अच्छा लगता है , जब लिखे हुए शब्दों को सराहा जाए और इसके लिए मैं अपने सभी दोस्तों और पाठकों का भी हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ !"


    परिकल्पना की स्वप्निल उड़ान भरने के लिए इन्हें इनकी दो सशक्त रचनाओं पर पंख मिले हैं  . उन रचनाओं से भी मिलिए, और कहिये है न पंख पाने के काबिल  … 



    1. 'स्वतंत्रता'.....महसूस क्यों नही होती?
    सोमवार से लेकर शनिवार तक, हम सभी की दिनचर्या कितनी नियमितता से चला करती है। वही समय पर उठना, रोजमर्रा की भागदौड़ भरी ज़िंदगी, काम पर जाना, तय समय पर लौटना और सुकून भरे कुछ पलों की तलाश करते हुए एक और सप्ताह का गुजर जाना ! लेकिन शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है ! बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं। उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं ! 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो; पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं ! 'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है', पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है ? आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नही, लेकिन एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी ?
    स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या हम सचमुच ऐसा 'कर' पाते हैं ? नहीं न ! वो तो दूसरों की सुविधानुसार करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हमारे नियम, हमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहाँ अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत ? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है। क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है ? ध्यान रहे, यहाँ एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊँचे पदों पर आसीन शाही लोगों की नहीं ! इसी 'आम नागरिक' की तरफ से कुछ सवाल हैं, मेरे -
    * अगर मैं स्वतंत्र हूँ तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती ? कहीं पढ़ा था कि "स्वतंत्रता, स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव को कहते हैं; ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच समझकर सब काम करने का अधिकारहोता है!"
    * तो फिर, किसने छीन ली है मेरी आज़ादी ? मुझे मेरे कर्तव्य तो हमेशा से दिखते आए हैं, पर अधिकारों का क्या हुआ ? उन्हें पा लेना मेरी स्वतंत्रता का हिस्सा नही ? स्त्री और पुरुष के बीच अधिकार और कर्तव्य का ये कैसा बँटवारा, कि स्त्री के हिस्से में कर्तव्य आए और पुरुषों के में अधिकार? किसने तय की है स्वतंत्रता की ये परिभाषा ? क्या संविधान ऐसा कहता है ?
    * मैं रोज ही देखा करती हूँ उसे, कभी कचरे में से सामान बीनते हुए, कभी सर पर स्वयं से भी अधिक बोझा ढोते हुए, कभी  वो किसी होटल में मेहमानों का कमरा साफ करते हुए अपनी 'टिप' के इंतज़ार में दिखाई देता है तो कभी किसी रेस्टोरेंट में बर्तन मांजते हुए चुपके-से एक नज़र दूर चलते हुए टी. वी. पर डाल लिया करता है। मंदिर की सीढ़ियों पर उसे रोते-सुबकते उन्हीं उदार इंसानों की डाँट खाते हुए भी देखा है, जो अपने नाम का पत्थर लगवाने के हज़ारों रुपये दान देकर उसके पास से गुजरा करते हैं, इन सेठों के जूते-चप्पल की रखवाली करता बचपन अपनी स्वतंत्रता किसमें ढूँढे ?
    * इन मासूम बाल श्रमिको और आम नागरिकों में बस इतना ही अंतर है, कि हमें अपने अधिकारों का बखूबी ज्ञान है। पढ़े-लिखे जो हैं, क़ानून जानते हैं, सुरक्षा के नियम भी बचपन में ही घोंट लिए थे, तभी दुर्भाग्य से समानता के बारे में भी पढ़ बैठे थे कहीं ! ये तो मूलभूत अधिकार था....बरसों से है ! आख़िर ये समानता इतने बरस बीत जाने पर भी दिखती क्यूँ नहीं ? सब धर्मों को समान अधिकार है, तो कोई दंभ में भर, खुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इतना लालायित क्यों रहता है ? सब वर्ग समान ही हैं, तो हमारे आसपास रोज ही कोई युवा बेरोज़गार, आरक्षण से इतना निराश क्यों दिखाई देता है ? सुरक्षा का अधिकार है तो अकेले बाहर निकलने में डर क्यों लगता है ?
    * क़ानून है तो न्याय के इंतज़ार में जीवन कैसे गुजर जाता है? सरेआम अपराध करने पर भी, अपराधी बच क्यों जाता है ? ये समाज और इसके दकियानूसी क़ानून, कुछ स्थानों की सड़ी-गली मान्यताएँ और उनका पालन करने को उत्सुक पंचायती लोग जो, कर्तव्य-पालन से चूक जाने पर सज़ा देना कभी नही भूलते पर स्त्री के अधिकारों की माँग पर कायरों से भाग खड़े होते हैं, सवाल करने पर इन्हें अचानक साँप कैसे सूंघ जाता है? इनके बनाए नियम, ये कभी स्वयं पर क्यों नहीं आजमाते ?
    * कौन है, जिसने स्त्री की स्वतंत्रता को छीनकर कर्तव्य की गठरी और तालाबंद अधिकारों की एक जंग लगी संदूकची उसके दरवाजे रख दी है. वो जब-जब उस संदूकची को खोलने का दुस्साहस करे, तो उसके सर और दिल का बोझ दोगुना कैसे हो जाता है ? अगले ही दिन वो टुकड़ों में सड़क किनारे पड़ी क्यों मिलती है ?
    * कौन सी सरकार है, जो स्त्रियों के आत्म-सम्मान को वापिस देगी ? कौन सा दल है जो चुनाव के वादों के बाद सिर्फ़ 'अपनी' नही सोचेगा ? कौन सी अदालत है, जो निर्भया को निर्भय हो जीना सिखा पाएगी ? 
    * कौन से अख़बार या टीवी चैनल हैं, जो निष्पक्ष हो खबरें बताएँगे ? 
    .ये सब तो फिर भी परिभाषित हो सकेगा पर मानसिक स्वतंत्रता ? उसे पाने के लिए किस युग में जाना होगा ?
    मेरी स्वतंत्रता मेरे पास नहीं, मेरे अधिकार मेरे पास नहीं ! मेरे पास भय है..कि मुझे हर हाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, भय है सुरक्षा का, अपने धर्म, संस्कारों के पूर्ण-निर्वहन का...क्योंकि उनको 'ना' कहने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं!  मैं विश्वास रखती हूँ हर धर्म में..पर यदि कोई किसी धर्म विशेष के बारे में बुरा बोल रहा है, तो उसे रोकने की स्वतंत्रता मेरे पास नही, मेरे पास उस वक़्त भय होता है, अधर्मी कहलाने का, सांप्रदायिकता फैलाने का ! बाज़ार से गुज़रते हुए मैं सरे-राह क़त्ल होते देख सकती हूँ, शायद कुछ पल ठिठक भी जाऊं, पर संभावना यही है कि मैं डर से छुपकर या अनदेखा कर आगे बढ़ जाऊं; उस अपराधी को रोक पाने की स्वतंत्रता नही है मेरे पास ! सिखाया गया है इसी समाज में, कि दूसरे के पचड़ों में न पड़ना ही बेहतर, वरना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा ! मुझे जान प्यारी है, अपना घर, परिवार, दोस्त सभी प्यारे हैं.....इसलिए मैं दंगों में खिड़कियाँ बंद कर लेती हूँ, हिंसा-आगज़नी के दौरान घर से निकलना ही छोड़ देती हूँ! मैं बलात्कार की खबरें देख सिहर उठती हूँ..और घबराकर बहते हुए पसीने को पोंछ, अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचा करती हूँ..जो मिली तो थी, कई बरस पहले ! हाँ, वर्ष याद है मुझे, सबको याद है. क़िताबें भी इसकी पुष्टि करती हैं ! पर कोई ये नही बताता कि तब जो स्वतंत्रता मिली थी, वो अब कहाँ खो गई ? किसने छीन ली, हमारी आज़ादी ? क्या उन स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान व्यर्थ गया, जिन्होंनें इसके लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ? मुझे संशय है कि दूर-दराज आदिवासी इलाक़ों में उस 'आज़ादी' की सूचना अब तक पहुँची भी है या नहीं ? उनकी परिस्थितियाँ तो कुछ और ही कहानी कहती हैं ! लेकिन फिर भी लगता है कि वे ज़्यादा स्वतन्त्र हैं, अपनी मर्ज़ी का खाते-पहनते हैं, इन्हें लुट जाने का भय नहीं, ये धर्म के लिए लड़ते नहीं, शिक्षा का अधिकार इन्होंने सुना ही नहीं !
    जो मिली थी कभी, उस 'आज़ादी' का 'खून' तो हम भारतीयों की आपसी लड़ाई ने स्वयं ही कर दिया है ! स्वीकारना मुश्किल है, क्योंकि हमारी मानसिकता दोषारोपण की रही है और इसमें विदेशी ताक़तों का हाथ कैसे बताएँ ?
    सच तो ये है कि आम भारतीय के लिए आज का दिन आज़ादी के अहसास से भावविभोर होने से कहीं ज़्यादा, 'छुट्टी का एक और दिन' होना है. जिसके रविवार को पड़ने पर बेहद अफ़सोस हुआ करता है !
    आज रविवार नहीं, इसलिए मुबारक हो !
    आज के दिन अपने स्वतंत्र होने के भाव को दिल खोलकर जी लीजिए ! देशभक्ति के गीत, लहराता तिरंगा, स्कूलों से मिठाई ले प्रसन्न हो घर लौटते बच्चे, परिवार के साथ समय गुज़ारते हुए कुछ लोगों को देख हृदय बरबस कह ही उठता है -
    "स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएँ!"
    नमन उन शहीदों को, सभी वीर-वीरांगनाओं को, जिनका त्याग और समर्पण हम संभाल न सके ! 
    अब भी वक़्त है, आइए अब बेहतर राष्ट्र-निर्माण के लिए एक प्रयत्न हमारी ओर से भी हो! सच्चे राष्ट्रभक्तों के बलिदानों को हम यूँ व्यर्थ नहीं जाने दे सकते। एक सफल प्रशासनिक ढाँचा ही हमें सच्ची स्वतंत्रता दिलवा सकता है और इस ढाँचे को बनाने में सभी भारतवासियों का योगदान अत्यावश्यक है! पहला क़दम उठाना ही होगा! ईश्वर हम सभी को इस लक्ष्य प्राप्ति में विजयी बनाए, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ, जय हिंद!

    - प्रीति अज्ञात

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    2.  'मज़हब' नहीं सिखाता....!

    'मज़हब' नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना....
    फिर ये ';मज़हब'; है ही क्यों ?
    क्योंकि ये जो नहीं सिखाता, वही तो सब सीखते आए हैं !
    'धर्म' न होता तो लड़ने के लिए कौन सा मुद्दा होता ?  देश में जितने भी दंगे-फ़साद , आगजनी, हत्याएँ और इस तरह के असंख्य अमानवीय कृत्य होते रहे हैं , इनका जिम्मेदार कौन है ? क्या सचमुच 'धर्म' ही इसकी वज़ह है या उन अराजकीय तत्वों  की मानसिकता, जिन्हें 'घृणा' से 'प्रेम' है ? पर फिर भी जनता बेवकूफ बनती आ रही है, ये 'जनता' भोली नहीं रही, बल्कि चंद सिक्कों के लिए आसानी से अपना ईमान बेचना सीख गई है।  इन लोगों को होश तभी आता है, जब स्वयं पर बीतती है, इनके ही 'धर्म' की आड़ में जब इन पर प्रहार होता है। 

    'धर्म' का इंसान से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं सिवाय इसके कि ये जन्म के साथ आपको 'बोनस' में मिलता है. बात इसके सही इस्तेमाल की है. इंसानियत पैदाइशी नहीं होती, ये आपको सीखनी होती है. आप 'इंसान' बनें रहें, 'धर्म' कहीं नहीं जाने वाला ! एक इंसान, अच्छा या बुरा हो सकता है, धर्म का उसकी सोच से क्या संबंध ? क्या किसी धर्म ने बुरा व्यक्ति बनने के रास्ते दिखाए हैं ? संवेदनहीनता, हिंसा, अमानवीय और पाश्विक व्यवहार का समर्थन कौन सा धर्म करता है ? और यदि धर्म के कारण ऐसा हो रहा है, तो फिर ये 'धर्म' ही हर परेशानी की जड़ है ! इसे हटाने की हिम्मत जुटानी होगी ! पर अगर सारे धर्मों के लोगों के अपराधों का हिसाब-क़िताब लगाया जाए, तो हरेक के हिस्से में हर तरह का अपराध आएगा ! फिर तो सारे ही धर्म, अत्याचार के समर्थक हुए ? जो धर्म जितना बड़ा, उसका हिस्सा उतना ही ज़्यादा ? ये भी संभव है कि जो धर्म छोटा, उस पर अत्याचार ज़्यादा ? दुनिया की रीत है, पलटवार करने वाले से सब भयभीत रहते  हैं और दुर्बल को सताने में सबको अपार आनंद की अनुभूति होती है ! लेकिन जब 'दुर्बल' की सहनशक्ति टूट जाती है, तो उसके सामने कोई नहीं टिक पाता. ये इंसानी फ़ितरत है. पुनश्च, इसका आपके 'धर्म' से कोई ताल्लुक़ नहीं !

    अपराधी, 'अपराधी' ही है. बहस, उसके जघन्य कृत्य पर ही होना चाहिए. उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता. पर इस  सुशिक्षित, सभ्य समाज का  सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है, कि लोग अपराधी की जात पर पहले गौर करते हैं, और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है. दुर्भाग्य की बात है कि अपराध के विरोध और समर्थन में दो गुटों का निर्माण उसी वक़्त हो जाता है।

    अगर समाज में परिवर्तन चाहते हैं, तो 'उपनाम' के मोह से बचें ! ज़्यादातर लोग धर्म के नाम पर मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं. आपकी इज़्ज़त, आपका रूतबा, आपके प्रति लोगों का नज़रिया...आपके व्यवहार पर निर्भर करता है. दूसरे के बुरे व्यवहार को अपनी क़ौम पर हमला न समझें. वो बुरा है, इसलिए उसने ऐसा किया. वो आपको मारना चाहता है, इंसानियत का विरोधी है, आप 'उसका' विरोध करें, पर अपने धर्म की महानता का बखान करे बिना. क्योंकि जब गिनाने की बात आएगी, तो आप बगलें झाँकते नज़र आएँगे ! सच तो यह है कि सबका हृदय जानता है, कि धर्म हमें सही राह दिखाते हैं और सभी धर्म 'सर्वश्रेष्ठ' हैं ! विचारणीय बात यह है  कि इसके बावज़ूद भी आतंक का इतना गहरा साया क्यूँ है. बाहरी ताक़तों की बात तो समझ आती है, पर जो घर में होता आ रहा है उसका क्या ? ये सब, कौन करवा रहा है ? कहीं राजनीतिक पार्टियां , वोट बैंक की लालसा में आम जनता को ही बलि का बकरा तो नहीं बना रहीं ? गरीबी-भुखमरी, अशिक्षा , बेरोजगारी ; इन  समस्याओं का निवारण हो गया है क्या ? या इनकी चर्चा 'आउटडेटेड' है !

    इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण आप लोगों ने भी अवश्य देखे  होंगे कि कई घरों में ऐसी घटनाओं की निंदा करते समय ऐसे वाक्य सुनने को मिलते हैं....';इनकी तो जात ही ऐसी है';, ';ये लोग बहुत कट्टर होते हैं, किसी को नहीं छोड़ते';, ';इनके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए'; वग़ैरह-वग़ैरह ! अगले दिन, उन घरों के बच्चे यही बात अपने साथियों से कह रहे होते हैं, बिना किसी प्रामाणिक तथ्य के। ये आगामी पीढ़ी के 'सोच' के पतन की शुरुआत है ! हमें इन्हें, यहीं से रोकना होगा ! अन्यथा ये समस्या जस-की-तस रहेगी !

    यदि आप ईश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं तो  अपने-अपने घरों में, अपने बच्चों को सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाएं ! यदि नास्तिक हैं तो यह आपकी स्वतंत्रता है पर किसी और को सोच बदलने के लिए बाध्य न करें। हर इंसान को धर्म, जाति  से ऊपर उठकर अपनी एक पहचान बनाने का अवसर दें यही एक तरीका है, आने वाली नस्लों को हैवानियत से बचाने का !

    एक सवाल, स्वयं से भी करें ! आप कौन हैं ? आप किस  रूप में याद किये जाना पसंद करेंगे या अपने धर्म से ही अपनी पहचान बनाएंगे ? वो पहचान जो पहले से ही तय की जा चुकी है , तो फिर आपके होने-न-होने का मतलब ही क्या ? क्या धर्म , इंसानियत से भी बड़ा होता है ?

    विमर्श करें -

    मैं कौन हूँ
    मेरा उठना-बैठना
    खाना-पीना, रहन-सहन
    बातचीत का तरीका
    स्वभाव,शिक्षण,व्यवसाय
    विवाह की उम्र
    शिष्टाचार,जीवन-शैली
    यहाँ तक कि
    मौत के बाद की
    विधि भी,
    सब कुछ तय है
    मेरे जन्म के समय से.

    पैदा होते ही तो लग जाता है
    ठप्पा उपनाम का
    जुड़ जाता है धर्म 
    पिछलग्गू बन 
    नाम के साथ ही
    और उसी पल हो जाती है
    सारी राष्ट्रीयता एक तरफ.
    आस्था हो, न हो
    विश्वास हो, न हो
    पर इंसान को जाने बिना ही
    समाज निर्धारित कर लेता है
    उसके गुण-अवगुण,
    चस्पा कर दी जाती हैं
    उसके व्यक्तित्व पर
    कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ.

    सीमाएँ लाँघने पर 
    तीक्ष्णता-से घूरती हैं 
    एक साथ कई निगाहें
    फिर समवेत स्वर में उसे
    नास्तिक करार कर दिया जाता है,
    उन्हीं लोगों के द्वारा
    जिन्होंने संकुचित कर रखी है
    अपनी विचारधारा !
    अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
    ये बुहारा करते हैं, रोज ';अपना'; आँगन 
    सँवारते हैं, उसे
    गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम.
    धर्म-विधान के नाम पर
    हो-हल्ला मचाते
    ये तथाकथित संस्कारी लोग
    रख देते हैं अपनी भारतीयता 
    ऐसे मौकों पर, दूर कहीं कोने में.

    राष्ट्र-हित की आड़ में 
    बातें करने वालों ने
    बो दिया है ज़हरीला बीज
    तुम्हें खुद ही तोड़ने का
    और हो गये हैं सभी सिर्फ़
    अपने-अपने धर्म के अधीन.
    तो फिर स्वतंत्र कौन है ?
    मैं कौन हूँ?
    तुम कौन हो?
    जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
    तो तोड़ना होगा सबसे पहले
    धर्म और प्रांत का बंधन.

    ईश्वर एक ही है
    मौजूद है, हर शहर, हर गली
    हर चेहरे में,
    हटा दो मुखौटा
    और देखो
    एक ही खुश्बू है
    हर प्रदेश की मिट्टी की
    हरेक घर का गुलाब 
    एक-सा ही महकता है
    महसूस करना ही होगा
    तुम्हें  ये अपनापन,
    तभी पा सकोगे 
    दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
    सारी अराजकताओं से दूर
    एक स्वतंत्र-भारत !






    एक और उड़ान अतुल श्रीवास्तव जी की होगी, उन्हें ये पंख उनके ब्लॉग लिंक के आधार पर मिला है  … 

    - अतुल श्रीवास्तव
    पारिवारिक स्थिति
    पिता का नाम - श्री प्रकाश श्रीवास्तव
    माता का नाम - स्व. श्रीमती रत्ना. श्रीवास्तव
    पत्नि - श्रीमती रूचि श्रीवास्तव
    पुत्री - कु. देवी श्रीवास्तव
    जन्मतिथि - 13/01/1973
    जन्मत स्थाीन  - छुईखदान (जिला राजनांदगांव)
    शिक्षा - स्नातक
    कार्य-अनुभव
    01) वर्ष 1995 से 1998 तक राजनांदगांव से प्रकाशित दैनिक सबेरा संकेत में सह-संपादक।
    02) 1998 से 2000 तक रायपुर में देशबन्धु अखबार में सह संपादक ।
    03) 2001 से 2004 तक हरिभूमि राजनांदगांव और हरिभूमि रायपुर में नगर संवाददाता।
    04) 2005 से लेकर जुलाई 2015 तक सहारा समय में राजनांदगांव  जिला संवाददाता के रूप में कार्यरत।
    05) बीच में एक वर्ष सन 2013 में राजनांदगांव से प्रकाशित दैनिक भास्कर भूमि
    में संपादक के रूप में कार्य का अनुभव।
    06) वर्तमान में अगस्ता 2015 से राजनांदगांव में ‘पत्रिका’ समाचार पत्र में कार्यरत 
    विशेष -  पांच-छह सालों से ब्ला ग लेखन जारी। 
    कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में लेखों का नियमित प्रकाशन। 
    वर्ष 2004 में खबरों का एक संकलन किताब के रूप में प्रकाशित।
    एक किताब प्रकाशन की प्रक्रिया में...
    पता
    स्थाई पता - स्टेशन पारा, डॉ. सिद्दकी अस्पताल के पास, वार्ड नं. 12
    राजनांदगांव (छ.ग.)
    वर्तमान पता - ममता नगर, गली नं. 5, आनंद विहार कालोनी,  वार्ड नं. 19
    राजनांदगांव (छ.ग.)
    मोबाईल नम्बर - 94252 40408
    89828 40408
    ई मेल पता - aattuullss@gmail.com
    ब्लालग पता - atulshrivastavaa.blogspot.in
    ब्लालग नाम  सत्यvमेव जयते! ...(?)

    पुरस्कृत लिंक 
    1-    गण गौण, तंत्र हावी    http://atulshrivastavaa.blogspot.in/2013/01/blog-post_26.html

    2-    तो न आना किसी गांव सीएम साहब http://atulshrivastavaa.blogspot.in/2012/04/blog-post_18.html

    मंगलवार, 25 अगस्त 2015

    परिकल्पना का आगामी अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन थाईलैंड में


    पको सूचित करते हुये अपार हर्ष की अनुभूति हो रही है, कि नई दिल्ली, लखनऊ, काठमांडू, थिंपु और कोलंबो के बाद परिकल्पना का आगामी अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन थाईलैंड ( पटाया और बैंकॉक) में दिनांक 10 जनवरी 2016 से 14 जनवरी 2016 के बीच आयोजित होंगे।  उल्लेखनीय है कि खनऊ से प्रकाशित "परिकल्पना समय" (हिन्दी मासिक पत्रिका) और "परिकल्पना" (सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था) ने  संयुक्त रूप से प्रकृति की अनुपम छटा से ओतप्रोत एशिया का एक महत्वपूर्ण देश थाईलैंड  की  सांस्कृतिक राजधानी पटाया और  राजनीतिक  राजधानी  बैंकॉक  में   पाँच  दिवसीय "षष्टम अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन सह परिकल्पना सम्मान समारोह" के आयोजन करने का निर्णय लिया है।


    इस अवसर पर आयोजित सम्मान समारोह, आलेख वाचन, चर्चा-परिचर्चा में देश विदेश के अनेक साहित्यकार, चिट्ठाकार, पत्रकार, अध्यापक, संस्कृतिकर्मी, हिंदी प्रचारकों और समीक्षकों की उपस्थिति रहेगी।  जैसा कि आपको विदित है कि  ब्लॉग, साहित्य, संस्कृति और भाषा के लिए प्रतिबद्ध संस्था "परिकल्पना" पिछले पाँच वर्षों से ऐसी युवा विभूतियों को सम्मानित कर रही है जो ब्लॉग लेखन को बढ़ावा देने के साथ-साथ कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। इसके अलावा वह पाँच अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलनों का संयोजन भी कर चुकी है जिसका पिछला आयोजन श्रीलंका की राजधानी कोलंबो और सांस्कृतिक राजधानी कैंडी में किया गया था।


    सम्मेलन का मूल उद्देश्य स्वंयसेवी आधार पर एशिया में हिन्दी ब्लॉग के विकास हेतु पृष्ठभूमि तैयार करना, हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना, भाषायी सौहार्द्रता एवं सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन का अवसर उपलब्ध कराना आदि है।

    इस अवसर पर आयोजित संगोष्ठी के तीन सत्र होंगे जिनके विषय है –"ब्लॉग के माध्यम से एशिया में शांति-सद्भावना की तलाश", "एशिया में भाषाई सद्भाभना और उत्पन्न समस्याएँ" तथा "एशिया में साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान"। इसके अलावा सुर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करती काव्य संध्या और लोककला प्रदर्शनियाँ भी आयोजित होगी।

    10 जनवरी 2016  की रात्री में समस्त प्रतिभागी  भारत के प्रमुख महानगर कोलकाता से बैंकॉक के लिए वायु मार्ग से प्रस्थान करेंगे। बैंकॉक पहुँचने के पश्चात समस्त प्रतिभागी सड़क मार्ग से थाईलैंड की सांस्कृतिक राजधानी और दूसरा सबसे बड़ा शहर पटाया के लिए प्रस्थान करेंगे। पटाया थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के बाद दूसरा प्रमुख पर्यटन स्थल है। यह थाईलैंड की खाड़ी की पूर्वी तट पर बैंकाक से लगभग 165 कि॰मी॰ दक्षिण पूर्व में स्थित है। यह थाइलैंड का सबसे प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां ऐडवैंचर के शौकीनों के लिए उम्दा विकल्प तो हैं ही,  मौजमस्ती के ठिकानों की भी कोई कमी नहीं है। फिर चाहे वह वौकिंग स्ट्रीट हो या फिर मसाज पार्लर्स।


    गौतम बुद्ध के अनुयायियों वाले देश थाईलैंड में कहीं-कहीं हिन्दी में लिखे ग्लोसाइन बोर्ड देखने को मिलेंगे। भारतीयों के साथ थाईवासी हिन्दी में बात करने का प्रयास करते हैं। भारतीयों को देखकर वे नमस्ते, शुक्रिया आदि कहते हैं। ये हिन्दी के शब्द उनकी जुबान पर छाए हुए हैं। यहाँ आपको कोरल आइसलैंड के साथ-साथ मुख्य पर्यटन स्थलों के भ्रमण का अवसर प्राप्त होगा। रात्री में यहाँ सूर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करती काव्य संध्या आयोजित की जाएगी।



    इसके बाद हम बैंकॉक के लिए रवाना होंगे। करीब सात करोड़ की आबादी वाले थाईलैंड में हर साल लगभग 60 लाख पर्यटक जाते हैं। इनमें काफी संख्या में भारतीय भी होते हैं। दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र , उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और दक्षिण भारत के राज्यों से हर साल हजारों लोग थाईलैंड जाते हैं। थाईलैंड में कई पंजाबी परिवार सौ साल से भी अधिक समय से रह रहे हैं। यहाँ पर भारतीय खाना आसानी से मिल जाता है। वहीं कई लोग फर्राटे से हिन्दी बोलते हैं। थाईलैंड में म्यांमार के निवासी भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। वे हर भारतीय से हिन्दी में ही बात करते हैं। थाईलैंड और भारत की संस्कृति काफी कुछ मिलती-जुलती है। कई लड़कियों और लड़कों के नाम भारतीयों जैसे ही हैं। वहाँ के वर्तमान राजा को 'रामा नाइन'के रूप में जाना जाता है। थाईलैंड के निवासी राजा को भगवान की तरह मानते हैं। वहाँ हर चौराहा व सड़क पर राजा और रानी की तस्वीरें दिखाई पड़ती हैं।


    इस आयोजन को थाईलैंड  में आयोजित करने के मूल उद्देश्य यह है कि सांस्कृतिक दृष्टि से भारत और थाईलैंड में कई समानताएं हैं । भारत से निकल कर बौद्ध धर्म जहां थाई संस्कृति में विलीन हो गया वहीं भारतीय नृत्य शैलियों का यहाँ व्यापक प्रसार हुआ । थाईलैंड के शास्त्रीय संगीत चीनी, जापानी, भारतीय ओर इंडोनेशिया के संगीत के बहुत समीप जान पड़ता है। यहां अनेकानेक नृत्य शैलियां हैं जो नाटक से जुड़ी हुई हैं। यहाँ अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉग सम्मलेन आयोजित करने के पीछे पवित्र उद्देश्य है हिंदी संस्कृति को थाई संस्कृति के करीब लाना और हिंदी भाषा को यहाँ के वैश्विक वातावरण में प्रतिष्ठापित करना।

    ठहरने का स्थान: 
    (1) पटाया : बेला एक्सप्रेस होटल (10 जनवरी  एवं 11 जनवरी 2016)
    (2) बैंकॉक : ग्रांड एप्लिन (12 जनवरी  एवं 14 जनवरी 2016) 

    ध्यान दें: इसमें शामिल होने के लिए पासपोर्ट आवश्यक है।

    जो प्रतिभागी इस आयोजन में शामिल होने के इच्छुक हो वे
    अन्य जानकारी के लिए लिखें: parikalpnaa00@gmail.com:

    सोमवार, 17 अगस्त 2015

    अम्मा.

    ......मैंने पहले बोलना सीखा ...अम्मा... !

    फिर लिखना सीखा.... क ख ग a b c 1 2 3 ...
    फिर शब्द बुने !
    फिर भाव भरे !

    .... मैं अब कविता गुनता हूँ  , कहानी गड़ता हूँ ..
    जिन्हें दुनिया पढ़ती है ..खो जाती है .. रोती है ... मुस्कराती है ...हंसती है ..चिल्लाती है ...
    .....मुझे इनाम ,सम्मान , पुरस्कार से अनुग्रहित करती है ...!

    .....और मैं किसी अँधेरे कोने में बैठकर,
    ....खुदा के सजदे में झुककर ,
    धीमे से बोलता हूँ ...अम्मा !!!

    विजय

    शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

    परिकल्पना - उत्सव समापन




    काफी समय हम साथ रहे 
    फिर मिलेंगे अगले वर्ष - उत्सव के नए रंगों के साथ। 
    ऋतुओं की तरह 
    हमारी परिकल्पना भी एक ऋतु है 
    जिसमें रंग ही रंग हैं 
    कुछ बसंत,कुछ ग्रीष्म,कुछ बारिश,कुछ अंगीठीवाली सर्दी 
    सबकुछ हम लाते हैं आपके लिए 
    .... 


    उत्सव के अंत में हम कुछ प्रकाशित संग्रहों की झलक देंगे, ताकि आप अपनी रूचि के अनुसार चयन कर सकें अपने अनमोल समय को साहित्यिक स्पर्श देने के लिए - 

    उससे पहले कुछ देर कवि सूरदास से मिलते हैं -


    अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
    काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
    महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
    भरम भर्‌यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
    तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
    माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
    कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
    सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥। …    

    नंदलाल रीझें नहीं तो हर चोले में इतना नाचना सम्भव ही नहीं, साथ साथ तो नंदलाल ने भी ताल दिया है  … 
    यह नंदलाल का ही सारथित्व होता है, कि हम जीवन की हरेक विधाओं में नाचते हैं, महामोह के नूपुर पैरों में बंधे होते हैं।  इसमें ही एक विधा है लेखन, हरी इधर से उधर रथ दौड़ाते हैं, और हम अपने कलम वाण से हर छोर को नापते जाते हैं।  उन्हीं छोरों के कुछ संग्रहों को देखिये और पढ़ने की उत्कंठा जगाइए  .... 






    गुरुवार, 13 अगस्त 2015

    परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 4




    हिन्दी साहित्य आज भी कलमकारों से धनी है, एक से बढ़कर एक  … 

    थोड़ी सी जमीन
    गिरिजा कुलश्रेष्ठ
    [IMG_20150426_200754.jpg]


    माँ अब खड़ी है जीवन के
    अंतिम पड़ाव पर
    नहीं चाहिये उसे कोई एशोआराम
    बस एक आत्मीय सम्बोधन
    सुबह-शाम .

    चुग्गा की तलाश में
    किसी चिड़िया सी ही
    वह जीवनभर उडती रही है
    यहाँ-वहां , ऐसे-वैसे
    बस मुडती रही है .
    अस्त्तित्त्व और अधिकार के
    सारे प्रश्न उसके लिये हैं बेकार
    जो कुछ भी था उसके पास  
    तुम्हें सब दे चुकी है .
    अब थके-हारे पांवों को ,
    तुम दे दो थोड़ी सी जमीन.
    बिना गमगीन .
    फैला सके निश्चिन्तता के साथ 
    अपने लड़खड़ाते पाँव.
    जमीन --
    अपनत्त्व की
    घर में उसके अस्तित्त्व की
    तुम्हारा जो कुछ है ,उसका भी है .
    उसे आश्वस्ति रहे कि 
    अशक्त और अकर्म होकर भी
    माँ अतिरिक्त या व्यर्थ नहीं है 
    तुम्हारे लिए .
    वह जो भी सोचती है , 
    महसूस करते हो तुम भी
    जमीन--
    छोटी छोटी बड़ी बातों की
    कि दफ्तर से लौटकर
    कुछ पलों के लिए ही सही
    बेटा मिलने जरुर आता है  
    अपने कमरे में जाने से पहले .
    पास बैठकर हाल-चाल पूछता है
    “माँ ने कुछ खाया कि नहीं ?”
    ना नुकर करने पर भी
    बुला लेता है अपने साथ .
    कि एक पिता की तरह .
    घर में बनी या 
    बाजार से लाई हर चीज 
    माँ को देता है ,खुद खाने से पहले
    नकारकर कहीं से उभरती आवाज को कि,
    “अरे छोड़ो ,बड़ी-बूढ़ी क्या खाएंगीं !”   
    कि रख देता है माँ की हथेली पर
    पांच-पचास रुपए बिना मांगे ही .
    भले ही वह लौटा देती है 
    “मैं क्या करूंगी ”, कहकर
    लेकिन पा लेती है वह 
    अपने लिए थोड़ी सी जमीन .

    तुम उसके सबसे करीब हो
    बुढ़ापे की लाठी कहती थी वह तुम्ही को
    जन्म और जीवन में..
    सम्बल के नाम पर मन में .
    बेटे से बढ़कर कोई नहीं होता माँ के लिए  
    वह तुम्हें दुनिया में 
    बड़े गर्व और विश्वास के साथ लाई है
    बेटे की माँ बनकर फूली नही समाई है .

    यों तो हर सन्तान की तरह
    माँ रही है तुम्हारे मन में
    लेकिन अब इसे एक कर्त्तव्य के साथ
    महसूस करो .
    और कराओ औरों को , माँ को भी ,      
    कि माँ तुमसे अभिन्न है ,
    फिर क्यों खिन्न है ?
    तुम्हारी शिराओं में बह रहा है उसी का रक्त
    स्रोत है वह जीवन की नदी का
    द्वार है संसार का .
    माँ के लिए अब बहुत जरूरी है
    ध्यान और मान
    उतना ही जितना शरीर के लिए प्राण . 
    जरा देखलो तो  
    माँ की आँखें क्यों हैं खोई खोई सी ?
    क्यों रात में सोते-सोते 
    घबराकर उठ जाती है ?
    मौन मूक माँ की आँखें 
    उन आँखों की भाषा पढलो-समझ लो .
    लगालो गले ,
    सहलादो माँ की बोझ ढोते थकी पीठ  
    उठालो , सम्हालकर रखलो 
    बौछारों में भीग रही है वह जर्जर किताब
    एक दुर्लभ इतिहास  
    अनकहे अहसास 
    खो जाएंगे जाने कब ! कहाँ !  .
    देखलो माँ के दुलारे ,!
    कि कहाँ लडखडा रही है तुम्हारी जननी
    पड़ी है जो तुम्हारे सहारे
    देखलो कि तुम्हारा सहारा पाकर
    वह कैसे खिल उठती है  
    मोगरे की कली सी .
    “मेरा बेटा ...”,
    यह अहसास पुलक और गर्व के साथ
    बिखर जाता है खुश्बू सा उसके अन्दर बाहर  
    ये दो शब्द तुम्हारे काम आएंगे   
    किसी भी धन से कहीं ज्यादा...यकीनन
    थोड़ी सी जमीन के बदले
    माँ देती है एक पूरी दुनिया .
    तुम दे दो माँ को थोड़ी सी जमीन .
    जमीन उम्मीदों की .
    जमीन होगी तो आसमान भी होगा .



    अश्वत्थामा 

    कालांतर के झरोखों से
    पलटे हैं पन्ने स्मृतियों के
    होता है अनायास ही विस्मरण
    छूट गए थे जो मील के पत्थर
    Nelaksh Shuklaसमय की निरंतरता से पीछे
    आज बने हैं स्तंभ विस्मृतियों के
    हौले से आकर जो आभास कराते हैं
    कभी स्वप्न में कभी यादों में
    तुम तो बढ़ गए सवार होकर
    समय के रथ चक्र पर
    भटक रहा है वह आज भी
    इस निषाद वन में
    उन विस्मृतियों के साए में
    भटकाव ही होगा अंतिम आश्रय
    इस अश्वत्थामा का
    वह तो शापित था
    पुत्र वध में द्रौपदी के
    ज्ञात था उसे भटकाव का
    भटक रहा है आज भी
    अतीत के झंझावात में उलझा
    कारणों की तालाश में
    आज का अश्वत्थामा।



    लम्हों के कुछ क़तरे


    Sanjeev Kumar Sharmaज़िन्दगी को परत दर परत खोला
    बीते सालों को, महीनों को टटोला,
    उन्हें अच्छे से निचोड़ कर लम्हों के क़तरे निकाले
    ऐसे कई छोटे-मोटे लम्हे फ़र्श पर उड़ेल डाले,

    टकटकी लगाये, हर एक लम्हे पर नज़र गड़ाए
    हर एक को उलटता रहा, पलटता रहा
    कुछ लम्हे हसीन थे, कुछ लम्हे ग़मगीन थे,
    कुछ धुंधले भी थे, कुछ अधूरे भी थे
    कुछ में मैं अकेला था, कुछ में हम सभी थे,
    कुछ तो ऐसे भी थे जो अजनबी थे,
    कई घंटों तक उन्हें देखता रहा, सोचता रहा
    इन लम्हों को भी जी लेता तो क्या हो जाता,

    एक ऐसे ही अजनबी लम्हे को उठा कर
    एक मासूम सा सवाल किया मैंने,
    “तुम कब आये मेरी ज़िन्दगी में
    मैंने तो तुम्हें कभी देखा नहीं,
    क्या तुम सपनों के वो लम्हे हो
    जिसे मैं सिर्फ़ ख़्वाबों में जीता था,
    जब भी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी के बाद मैं सोता था”
    उस नन्हे से लम्हे ने कहा,
    “वो तो मेरी ज़िन्दगी का ही हिस्सा है
    ‘ख़्वाबों के लम्हे’ ये तो बस एक किस्सा है
    याद करो वो यारों की महफ़िल
    खुला आसमान, घर की ऊपरी मंज़िल
    समा जवां हो ही रहा था कि तुम उठ गए
    तुम्हारे इस बेगानेपन से सब रूठ गए,
    तुम्हें किताबों के दो-चार पन्नों को पांचवी बार जो पढ़ना था
    आज की क़ुरबानी दे कर तुम्हें कल से जो लड़ना था”
    कई देर तक उसे देखता रहा, उसकी बातों को सोचता रहा
    क्या हो जाता गर दीवारों पर दो-चार तमगे कम लटकते
    क्या हो जाता गर बाबूजी का सीना दो इंच कम फूलता
    यारों के साथ दो गीत गुनगुना लेता तो क्या हो जाता
    इस लम्हे को भी जी लेता तो क्या हो जाता,

    उस अजनबी लम्हे से खुद को निकाला
    एक मायूस लम्हे को उठा कर गोद में संभाला,
    वो उदास था, बहुत उदास था
    उसे ध्यान से देख कर याद किया
    कि आखिर ऐसा क्या हुआ जब ये लम्हा मेरे पास था,
    ओहो! किसी अपने ने मुझे कुछ कहा था, जो अभी याद नहीं
    पर हाँ उस वक़्त मुझे वो बात बहुत बुरी लगी थी
    उसने मुझे समझाने की नाकामयाब कोशिश भी की थी
    पर हाँ उस वक़्त नाराज़ रहने की धुन सर पे चढ़ी थी
    मगर आज न उसे कुछ याद होगा, न मुझे वो बातें याद हैं
    याद करें भी तो बस वो रूठे लम्हे और वो ग़मगीन रातें याद हैं
    कई देर तक उस रूठे लम्हे को देखता रहा, सोचता रहा
    क्या हो जाता गर उसकी बात को दिल पे न लेता
    क्या हो जाता गर उसके समझाने पर पर मैं मान लेता,
    न मैं उदास होता, न वो लम्हा मायूस होता
    इस लम्हे को भी जी लेता तो क्या हो जाता,

    याद रखूँगा इन लम्हों की बात को
    “ज़िन्दगी तो कर कोई जिया करते हैं
    ज़रा हर लम्हों को जी कर देखो” …
    कोशिश करूँगा, ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव पर,
    ऐसे ही किसी खुद से बातें करते वक़्त मैं न कहूँ
    दो पल जीने के और मिल जाते तो क्या हो जाता,
    मैं वो लम्हा जी लेता तो क्या हो जाता
    मैं ये लम्हा जी लेता तो क्या हो जाता|

    बुधवार, 12 अगस्त 2015

    परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 3



    एक हाथ की दूरी पर अनेक रचनाकार मिलेंगे, जो एहसासों के कई आयाम लिए मिलेंगे -




    1. वह सचमुच अभी बच्चा है ।
      -- शरद कोकास

      शरद कोकास

      मेरा फोटो

      सर्दियों की रात में अजीब सी खामोशी सब ओर व्याप्त होती है । टी.वी. और कम्प्यूटर और पंखे बंद हो जाने के बाद बिस्तर पर लेटकर कुछ सुनने की कोशिश करता हूँ ।  हवा का कोई हल्का सा झोंका कानों के पास कुछ गुनगुना जाता है । गली से गुजरता है कोई शख्स गाता हुआ ...आजा मैं हवाओं में उठा के ले चलूँ ..तू ही तो मेरी दोस्त है । मैं सोचता हूँ मेरा दोस्त कौन है ..यह संगीत ही ना जो रात दिन मेरे कानों में गूँजता रहता है । संगीत के दीवानों के लिये  दुनिया की हर आवाज़ में शामिल होता है संगीत .. ऐसे ही कभी दीवाने पन में मैंने भी कोशिश की थी इस संगीत को तलाशने की । मेरी वह तलाश इस कविता में मौज़ूद है जो मैंने शायद युद्ध के दिनों में लिखी थी ... 

      संगीत की तलाश

      मैं तलाशता हूँ संगीत
      गली से गुजरते हुए
      तांगे में जुते घोड़े की टापों में

      मैं ढूँढता हूँ संगीत
      घन चलाते हुए
      लुहार के गले से निकली हुंकार में

      रातों को किर्र किर्र करते
      झींगुरों की ओर
      ताकता हूँ अन्धेरे में
      कोशिश करता हूँ सुनने की
      वे क्या गाते हैं

      टूटे खपरैलों के नीचे रखे
      बर्तनो में टपकने वाले
      पानी की टप-टप में
      तेली के घाने की चूँ-चूँ चर्र चर्र में
      चक्की की खड़-खड़ में
      रेलगाड़ी की आवाज़ में
      स्वर मिलाते हुए
      गाता हूँ गुनगुनाता हूँ

      टूट जाता है मेरा ताल
      लय टूट जाती है
      जब अचानक आसमान से
      गुजरता है कोई बमवर्षक
      वीभत्स हो उठता है मेरा संगीत
      चांदमारी से आती है जब
      गोलियाँ चलने की आवाज़
      मेरा बच्चा इन आवाज़ों को सुनकर
      तालियाँ बजाता है
      घर से बाहर निकलकर
      देखता है आसमान की ओर
      खुश होता है

      वह सचमुच अभी बच्चा है ।

                  

      कवि और कमली
      दीपिका रानी 

    2. [*]








      क कली दो पत्तियां
    3. तुम श्रृंगार के कवि हो
      मुंह में कल्पना का पान दबाकर
      कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
      प्रेरणा की तलाश में
      टेढ़ी नज़रों से
      यहां-वहां झांकते हो।
      अखबार के चटपटे पन्‍नों पर
      कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।

      तुम श्रृंगार के कवि हो
      भूख पर, देश पर लिखना
      तुम्हारा काम नहीं।
      क्रांति की आवाज उठाने का
      ठेका नहीं लिया तुमने।
      तुम प्रेम कविता ही लिखो
      मगर इस बार कल्पना की जगह
      हकीकत में रंग भरो।
      वहीं पड़ोस की झुग्गी में
      कहीं कमली रहती है।
      ध्यान से देखो
      तुम्हारी नायिका से
      उसकी शक्ल मिलती है।

      अभी कदम ही रखा है उसने
      सोलहवें साल में।
      बड़ी बड़ी आंखों में
      छोटे छोटे सपने हैं,
      जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
      तुमने नहीं देखा होगा।
      रूखे काले बालों में
      ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
      अपनी कविता में
      उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!

      चुपके से कश भर लेती है
      बाप की अधजली बीड़ी का
      आग को आग से बुझाने की कोशिश
      नाकाम रहती है।
      उसकी झुग्गी में
      जब से दो और पेट जन्मे हैं,
      बंगलों की जूठन में,
      उसका हिस्सा कम हो गया है।

      तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
      मगर बंगलों के आदमखोर रईस
      उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
      उसकी झुग्गी के आगे
      उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
      वे उसे छूना चाहते हैं
      भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्‍त।
      सिगरेट की तरह उसे पी कर
      उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
      झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।

      उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
      नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
      उन्हें परहेज नहीं,
      उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
      तो तुम्हारी कविता
      क्यों घबराती है कमली से।
      इस षोडशी पर....
      कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!

     
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