बुधवार, 12 अगस्त 2015

परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 3



एक हाथ की दूरी पर अनेक रचनाकार मिलेंगे, जो एहसासों के कई आयाम लिए मिलेंगे -




  1. वह सचमुच अभी बच्चा है ।
    -- शरद कोकास

    शरद कोकास

    मेरा फोटो

    सर्दियों की रात में अजीब सी खामोशी सब ओर व्याप्त होती है । टी.वी. और कम्प्यूटर और पंखे बंद हो जाने के बाद बिस्तर पर लेटकर कुछ सुनने की कोशिश करता हूँ ।  हवा का कोई हल्का सा झोंका कानों के पास कुछ गुनगुना जाता है । गली से गुजरता है कोई शख्स गाता हुआ ...आजा मैं हवाओं में उठा के ले चलूँ ..तू ही तो मेरी दोस्त है । मैं सोचता हूँ मेरा दोस्त कौन है ..यह संगीत ही ना जो रात दिन मेरे कानों में गूँजता रहता है । संगीत के दीवानों के लिये  दुनिया की हर आवाज़ में शामिल होता है संगीत .. ऐसे ही कभी दीवाने पन में मैंने भी कोशिश की थी इस संगीत को तलाशने की । मेरी वह तलाश इस कविता में मौज़ूद है जो मैंने शायद युद्ध के दिनों में लिखी थी ... 

    संगीत की तलाश

    मैं तलाशता हूँ संगीत
    गली से गुजरते हुए
    तांगे में जुते घोड़े की टापों में

    मैं ढूँढता हूँ संगीत
    घन चलाते हुए
    लुहार के गले से निकली हुंकार में

    रातों को किर्र किर्र करते
    झींगुरों की ओर
    ताकता हूँ अन्धेरे में
    कोशिश करता हूँ सुनने की
    वे क्या गाते हैं

    टूटे खपरैलों के नीचे रखे
    बर्तनो में टपकने वाले
    पानी की टप-टप में
    तेली के घाने की चूँ-चूँ चर्र चर्र में
    चक्की की खड़-खड़ में
    रेलगाड़ी की आवाज़ में
    स्वर मिलाते हुए
    गाता हूँ गुनगुनाता हूँ

    टूट जाता है मेरा ताल
    लय टूट जाती है
    जब अचानक आसमान से
    गुजरता है कोई बमवर्षक
    वीभत्स हो उठता है मेरा संगीत
    चांदमारी से आती है जब
    गोलियाँ चलने की आवाज़
    मेरा बच्चा इन आवाज़ों को सुनकर
    तालियाँ बजाता है
    घर से बाहर निकलकर
    देखता है आसमान की ओर
    खुश होता है

    वह सचमुच अभी बच्चा है ।

                

    कवि और कमली
    दीपिका रानी 

  2. [*]








    क कली दो पत्तियां
  3. तुम श्रृंगार के कवि हो
    मुंह में कल्पना का पान दबाकर
    कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
    प्रेरणा की तलाश में
    टेढ़ी नज़रों से
    यहां-वहां झांकते हो।
    अखबार के चटपटे पन्‍नों पर
    कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।

    तुम श्रृंगार के कवि हो
    भूख पर, देश पर लिखना
    तुम्हारा काम नहीं।
    क्रांति की आवाज उठाने का
    ठेका नहीं लिया तुमने।
    तुम प्रेम कविता ही लिखो
    मगर इस बार कल्पना की जगह
    हकीकत में रंग भरो।
    वहीं पड़ोस की झुग्गी में
    कहीं कमली रहती है।
    ध्यान से देखो
    तुम्हारी नायिका से
    उसकी शक्ल मिलती है।

    अभी कदम ही रखा है उसने
    सोलहवें साल में।
    बड़ी बड़ी आंखों में
    छोटे छोटे सपने हैं,
    जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
    तुमने नहीं देखा होगा।
    रूखे काले बालों में
    ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
    अपनी कविता में
    उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!

    चुपके से कश भर लेती है
    बाप की अधजली बीड़ी का
    आग को आग से बुझाने की कोशिश
    नाकाम रहती है।
    उसकी झुग्गी में
    जब से दो और पेट जन्मे हैं,
    बंगलों की जूठन में,
    उसका हिस्सा कम हो गया है।

    तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
    मगर बंगलों के आदमखोर रईस
    उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
    उसकी झुग्गी के आगे
    उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
    वे उसे छूना चाहते हैं
    भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्‍त।
    सिगरेट की तरह उसे पी कर
    उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
    झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।

    उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
    नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
    उन्हें परहेज नहीं,
    उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
    तो तुम्हारी कविता
    क्यों घबराती है कमली से।
    इस षोडशी पर....
    कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!

3 comments:

  1. शरद् जी और दीपिका जी दोनों की कविताएं दिल को छूती है . कवि और कलाकार हमेशा ही बच्चा होता है तभी वह अनछुई अनुभूतियों को साकार कर पाता है और किसी विभीषिका या विखण्डन से डरता है .
    प्रेम और सौन्दर्य बोध अभिन्न है . और सौन्दर्य-बोध केवल दृष्टिकोण पर निर्भर है .उसी दृष्टिकोण को एक सुन्दर दिशा दी है दीपिका जी ने . वाह..

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  2. दीदी बहुत सुंदर संयोजन
    शरद भाई को तो बरसों से जानता हूँ उनसे लड़ता झगड़ता रहता हूँ उनका लेखन सहज होते भी मन में गहरी छाप छोड़ता है
    दीपिका जी की कविता मन की परतों को खोलती है
    सादर

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