मंगलवार, 11 अगस्त 2015

परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 2





बेहतरीन रचनाकारों की दूसरी कड़ी -


लरजती उम्मीद ...फौलादी विश्वास
वाणी गीत 


"जल्दी उठो ...रामपतिया आई नहीं अभी तक , मसाला भी पिसा नहीं , आटा भी नहीं गूंधा हुआ ...अब खाना कैसे बनेगा ...मुझे देर हो रही है ...तुम जाकर देख आओ, क्यों नहीं आ रही है।"

तेजी से घर में घुसते हुए नीरा के कदम रुक गए ।

मतलब महारानी अभी भी सो ही रही है ...

पड़ोस में ही रहने वाली अपनी सहेली सीमा से मिलने आई नीरा ने जा कर उसे झिंझोड़ दिया .

तुम्हे कोई शर्म है या नहीं ...इतने दिनों बाद लम्बी छुट्टियों में आई हो और पसरी रहती हो इतनी देर तक , ये नहीं कि आंटी की थोड़ी हेल्प ही कर दो ।

कभी -कभी ही तो आती हूँ...तो आराम से नींद तो पूरी कर लूं ...अपना वॉल्यूम कम करो तो ....कुशन से अपने कान ढकती सीमा महटियाने लगी .

अब तुम ही संभालो इसे , मैं तो भाग रही हूँ ...पहले ही लेट हो गयी हूँ .

आप जाईये आंटी ...इसको तो मैं देखती हूँ ...

नीरा रसोई में घुस गयी.

महारानी , उठो अब ...चाय पी लो ...आंटी स्कूल गयीं ...दुबारा कोई चाय नहीं बनाने वाला है . 

थैंक यू ,दोस्त हो तो ऐसी ....चाय का गरमागरम कप हाथ में लेते सीमा उठ गयी .

"इस रामपतिया को क्या हो गया , आ नहीं रही ४ दिन से ...सब काम मुझे ही देखना पड़ रहा है "

कही गाँव चली गयी हो .

अरे नहीं , अभी तो ज्यादा समय नहीं हुआ उसे गाँव से आये ...उसका बेटा आने वाला था ...शहर में कोई अच्छी नौकरी मिली है उसे .

दोनों सहेलियां चाय सुड़कते बाहर बरामदे में आ बैठी।

बरामदे से सटे बगीचे में गुडाई करते किशन को सीमा ने आवाज़ लगाई ...

" किसना ...तनी रामपतिया का खबर लेके आओ तो ...काहे नईखी आवत ...4 दिन भईल ...जा दौड़ के देख तो ..."चाय पीकर दोनों बतियाते हुए बरामदे से सटे  बगीचे में टहलती रही .

दीदी जी , दीदी जी ...किशन की आवाज सुनकर दोनों दौड़कर बरामदे में आई तो सामने बदहवास हांफता किशन नजर आया .

का भईल रे ...

उ दीदी जी ...उहाँ ढेर लोंग रहे ....का जाने का बात बा ...पुलिसवा भी रहे ... हम तो भागे आईनी .

चल , देख कर आते हैं ...क्या बात है !

किसी अनहोनी की आशंका में दोनों सहेलियाँ साथ लपक ली ।

रामपतिया के घर का नजारा देख दोनों स्तब्ध रह गयी ...पुलिस वाले बता रहे थे ...बुखार था इसे दो -तीन दिन से ....पेट में कुछ अन्न नहीं गया ...पहले से हड्डियों का ढांचा भूख बर्दाश्त नहीं कर पाया ..कल से बेहोश पडी थी .
ओह! धम से बैठ गयी नीरा वहीँ ...

३-४ घरों में काम करके कमाने वाली रामपतिया ने अपनी मेहनत की कमाई से बेटे को पढने लिखने शहर भेजा ...इतनी स्वाभिमानी कि काम करके लौटते गृहस्वमिनियाँ खाना खाने को कहती तो साफ़ मना कर देती ...
" ना ...बहुरिया ...भात पका के आईल बानी "

रात दिन कुछ न कुछ मांग कर ले जाने वाली अन्य सेविकाओं के मुकाबले उसे देखना सीमा और नीरा को सुखद आश्चर्य में डालता था । भीड़ को हटा और पुलिस वाले को विदा कर दोनों उसे रिक्शे में लेकर डॉक्टर के पास भागी । ग्लूकोज़ की दो बोतलों ने शरीर में कुछ हरकत की ।

नीरा बिगड़ने लगी थी उस पर ...
का जी ...बीमार थी तो कहलवा नहीं सकती थी ... जो प्राण निकल जाता तो पाप किसके मत्थे आता ...उ जो बेटा लौटने वाला है शहर से ...सोचा है ...का होता उसका ।

बबी ...गुस्सा मत कीजिये .... कहाँ बुझे थे कि ऐसन हो जाएगा ...हमसे उठा ही नहीं गया कि कुछ बना कर खा लेते ...और प्राण कैसे निकलता ...बिटवा जो आये वाला है ।

उन लरजती पलकों में हलकी सी नमी के बीच ढेर सारी उम्मीद लहलहा रही थी। सीमा और नीरा उसके जज्बे के आगे नतमस्तक थी । हड्डियों का वह ढांचा अचानक उन्हें फौलादी लगने लगा था ।


सच या झूठ - लघुकथा
अनुराग शर्मा
[anurag-sharma-bw-rest.jpg]


पुत्र: ज़माना कितना खराब हो गया है। सचमुच कलयुग इसी को कहते हैं। जिन माँ-बाप का सहारा लेकर चलना सीखा, बड़े होकर उन्हीं को बेशर्मी से घर से निकाल देते हैं, ये आजकल के युवा।

माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।

पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
 खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।

माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?

पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?

माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।

पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है। 


तुम हो
सागर 
[Saagar.JPG]

तुम एक कैनवास हो। धूप और छांव की ब्रश तुमपर सही उतरती है।
तुम खुले आसमान में ऊंची उड़ान भरती एक मादा शिकारी चील हो जो ज़मीन पर रंगती शिकार को अपनी चोंच में उठा लेती हो। 
तुम एक सुवासित पुष्प हो जिसे सोच कर ही तुम्हारे आलिंगन में होने का एहसास होता है।
तुम एक तुतलाती ऊंगली हो, जिसके पोर छूए जाने बाकी हैं
तुम मेरे मरे मन की सर उठाती बात हो 
तुम हो तो मैं यकीन की डाल पर बैठा कुछ कह पा रहा हूं
तुम हो रानी, 

तुम हो।

तुम्हारे पीठ की धड़कन सुनता हूं
तुम्हारे मुस्काने की खन-खन बुनता हूं
मैं स्टेज पर लुढ़का हुआ शराब हूं 
और तुम उसका रिवाइंड मोड की स्थिति
मैं वर्तमान हूं
तुम अपनी अतीत में ठहरी सौम्य मूरत
तुम हो रानी, 
तुम हो। 

सेक्सोफोन पर की तैरती धुन
तुम्हारा साथ, लम्हों की बाँट, छोटी छोटी बात
हरेक उफनती सांस, हासिल जैसे पूरी कायनात
आश्वस्ति
कि तुम हो। 

तुम हो रानी, 
तुम हो। 

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