विगत दिनों मुझे लगभग एक साल बाद अपने गाँव जाने का सुयोग प्राप्त हुआ , मेरे घर से थोडी ही दूरी पर है डोमवा घरारी । उस गाँव में डोम जाति के लोग बहुतायत रहते हैं शायद इसीलिए उसे डोमवा घरारी की संज्ञा दी गयी होगी । उसी डोमवा घरारी में रहता है झिन्गना , बिल्कुल उसी तरह की ज़िंदगी जीता हुआ जिसतरह की ज़िंदगी उसके पूर्वज जिया करते थे । कुछ भी नही बदला है , जमाने के बदलाव के साथ-साथ । उत्तर प्रदेश में चाहे पहली बार बनी हो दलितों की पूर्ण बहुमत की सरकार , चाहे चौथी बार बनी हो मुख्य मंत्री बहन मायावती , या फिर दलितों की आवाज़ बनाकर उभरे हों बिहार में राम विलास पासवान कोई फर्क नही पङता झिन्गना को । उसकी पूरी दिनचर्या पर सूक्ष्म अध्ययन करते हुए मैंने उसकी राम कहानी को एक कविता में बांधने का प्रयास किया है , जो निम्न लिखित है -
।। झिन्गना की राम कहानी ।।
पौ फटने के पहले 
बहुत पहले जगता झिन्गना 
पराती गाते हुए डालता 
सूअरों को खोप में 
दिशा-फारिग के बाद 
खाता नोन-प्याज-रोटी 
और निकल जाता 
जीवन की रूमानियत से दूर 
किसी मुर्दा-घर की ओर । 
शाम को थक कर चूर होता वह 
लौट आता अपने घर 
कांख में दबाये 
सत्तर-पचास नंबर की देशी शराब 
और पीकर भूल जाता 
दिन-भर के सारे तनाव । 
रहस्य है कि -
कैसे जुटा लेता वह 
सुकून के दो पल 
साथ में-
तीज-त्यौहार के लिए 
सुपली-मौनी/लड्डू-बतासा 
पंडित के लिए 
दक्षिणा-धोती 
जोरू के लिए 
साडी-लहठी -सेनुर आदि । 
अपने परम्परागत पेशे को
ढोता हुआ आज भी वह 
वाहन कर रहा सलीके से 
मर्यादित जीवन को बार-बार 
सतही मानसिकता से ऊपर 
और, खद्दर-खादी की साया से दूर 
दे रहा अपने काम को अंजाम 
पूरी ईमानदारी के साथ । 
कभी मौज आने पर 
सिनेमा से दूर रहने वाला वह 
खुद बन जाता सिनेमा 
और जुटा लेता अच्छी-खासी भीड़ 
अपने इर्द-गिर्द 
अलाप लेकर -
आल्हा -उदल / सोरठी -बिर्जाभार 
सारंगा-सदाब्रिक्ष/भारतरी चरित 
या बिहुला-बाला-लखंदर का । 
लगातार -
समय के थपेडों को खाकर भी 
नही बदला वह 
बदल गया लेकिन समय 
फिर , समय के साथ उसका नाम-
पहले अस्पृश्य , पुन: अछूत 
कालांतर में हरिजन 
और , अब वह -
दलित हो गया है 
शायद-
कल भी कोई नया नाम जुटेगा 
झिन्गना के साथ । 
लेकिन, झिन्गना -
झिन्गना हीं रहेगा अंत तक 
और साथ में उसकी 
अपनी राम कहानी । 
()रवीन्द्र प्रभात 
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» पहले अस्पृश्य पुन: अछूत कालांतर में हरिजन और अब वह दलित हो गया है..... !
          
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बहुत सही लिखा है आपने । परन्तु झिन्गना की पत्नी को जब इस जीवन को कुछ पल के लिए भूलने का मन होता है तो वह क्या करती है ? कौन सी बोतल लाती है ?
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
अच्छा, सारे परिवर्तन के बाद भी झिंगना, झिंगना ही रह गया है? लगता है सामाजिक परिवर्तन के बारे में मेरी सोच समझ में पर्याप्त गहराई नहीं है।
जवाब देंहटाएंयह पढ़ाने के लिये धन्यवाद।
प्रिय रवीन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंभाई मानना पडेगा आपकी पारखी नज़रों को , आप समाज के उन किरदारों को ढूंढ निकालने में सफल हो जाते हैं जिसपर अमूमन नज़रें जाती हीं नहीं . आज़ादी के साठ साल बाद भी झिन्गना जैसे इसान के बारे में जानना सुखद रहा क्योंकि सामाजिक सुधार के इस औब्बल सियासी दौड़ में ऐसे किरदारों का होना अपने आप में रोमांच पैदा करता है . कोटिश: बधाइयां आपको आपकी कविता के लिए और आभार आपकी पारखी नज़रों को !!
रविंदर जी सबसे पहले मई आपकी इस पारखी नज़र को बधाई देना चाहूँगा ...आप बिल्कुल जमीन से जुड़कर लिखते है ..आपकी रचना सबसे अलग और समाज से जुड़ के होती है ...बहुत ही बढ़िया लिखा है ....बिल्कुल जमीनी ....
जवाब देंहटाएंरविन्द्र जी
जवाब देंहटाएंआपने झिन्गना की जो कहानी बयान की है उसे देखकर तो यही लगता है की वाकई यहाँ सब तरह नारे लगते हैं पर जनहित बिलकुल नहीं होता.
दीपक भारतदीप
रवींद्र जी आपकी कविताओं का संबंध सामाजिक वास्तविकता से होता है और वही कविता उत्कृष्ट है जो वास्तविकता के प्रति सजग और संवेदनशील है। झिन्गना की कहानी एक बड़े तथ्य को उजागर करती है। पढ़ते ही दिल पर असर करती है।
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