सरस नवनीत लाया है ,
सखी री फागुन आया है !!
बरगद ठूंठ भयो बासंती , चंहु ओर हरियाली ,
चंपा, टेसू , अमलतास के भी चहरे पे लाली ,
पीली सरसों के नीचे मनुहारी छाया है !
सखी री फागुन आया है !!
तन पे, मन पे सांकल देकर द्वार खड़ी फगुनाहट,
मन का पाहुन सोया था फ़िर किसने दी है आहट,
पनघट पे प्यासी राधा के सम्मुख माया है !
सखी री फागुन आया है !!
हाँथ कलश लेकरके चन्द्रमा देखे राह तुम्हारी ,
सूरज डूबा , हुई हवा से पाँव निशा के भारी ,
बूँद-बूँद कलशी में भरके रस छलकाया है !
सखी री फागुन आया है !!
ठीक नहीं ऐसे मौसम में मैं तरसूं - तू तरसे ,
तोड़ के सारे लाज के बन्धन आजा बाहर घर से ,
क्यों न पिचकारी से मोरी रंग डलवाया है !
सखी री फागुन आया है !!
()रवीन्द्र प्रभात
phagun ke aagaman par is sundar kavita ke liye badhaaii...
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंआपने तो होली की मस्ती में डूबो दिया। बहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंअच्छा है!
जवाब देंहटाएंअच्छा है भाई.
जवाब देंहटाएंअति सुंदर ...होली आ रही है.....आपको शुभकामनायें और बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना लिखी है।अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया गीत है। लय, गति सब मोहक।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...
बहुत खूब.......
जवाब देंहटाएंठीक नहीं ऐसे मौसम में मैं तरसूं - तू तरसे ,
जवाब देंहटाएंतोड़ के सारे लाज के बन्धन आजा बाहर घर से ,
क्यों न पिचकारी से मोरी रंग डलवाया है !
सखी री फागुन आया है
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कहीं किसी सम्मेलन में सुनाये तो यह बताना मत भूलिए की यह पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद आयीं.
दीपक भारतदीप
आपकी पोस्ट के माध्यम से फगुनाहट तो मिली! अन्यथा जिन्दगी काम में पिसी जा रही है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रवीन्द्र प्रभात जी।