सोमवार, 29 नवंबर 2010

वर्ष-२०१० : हिंदी ब्लोगिंग ने क्या खोया -क्या पाया ?



हिन्दी ब्लोगिंग तभी सार्थक विस्तार पा सकती है, जब हमारे बीच पारस्परिक सहयोग, सद्भाव , सदइच्छा , सदविचार, सद्बुद्धि का वातावरण कायम रह सके ।

हलांकि हिंदी पट्टी की जलवायु ऐसी है जिसमें तीन-चार लोग एक साथ मिलकर पांच मिनट तक कार्य नहीं कर सकते, प्रत्येक व्यक्ति अधिकार पाने के लिए संघर्ष करता है फलस्वरूप पूरा समूह संकट में पड़ जाता है ।

जब तक इर्ष्या,द्वेष , अहंवादिता कायम है , तबतक कोई भी रचनात्मक कार्य नहीं हो सकता । इसलिए इर्ष्या, द्वेष को किनारे करते हुए अद्भुत विशाल हृदयता से युक्त शाश्वत शक्ति और प्रगति संपूर्ण हिंदी ब्लोगिंग में व्याप्त होना चाहिए ऐसा मेरा मानना है , क्योंकि जबतक हम केवल एक और एक ही विचार के लिए समर्पण भाव से तैयार नहीं होंगे तबतक हमें प्रकाश का अनुभव नहीं होगा ।


आज कई ऐसे चिट्ठाकार हैं जो स्वयं को स्वयं भू मठाधीश बना बैठे हैं और टुकड़ों में गुट बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ और सर्वोत्तम दिखलाने की कोशिश में लगे हैं । जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे लोग हिंदी के विकास में सबसे ज्यादा अवरोध पैदा करते हैं । ऐसे कई महत्वपूर्ण क्षण देखने को मिले हैं वर्ष-२०१० में । वर्ष -२०१० में किसने क्या बोला, किसने क्या सुना, किसने क्या खोया, किसने क्या पाया .....यानी कैसी रही हिंदी ब्लॉग जगत की गतिविधियाँ ?

हम खोलने जा रहे हैं परत-दर-परत इन्ही गतिविधियों के पन्नों को और करने जा रहे हैं विचार-विमर्श, चर्चा-परिचर्चा परिकल्पना पर शीघ्र .......

वर्ष-२०१० : हिंदी ब्लोगिंग ने क्या खोया -क्या पाया ?


यदि आप सक्रिय ब्लोगर हैं और वर्ष-२०१० की गतिविधियों पर आपकी पैनी नज़र रही है तो आप भी इस महत्वपूर्ण चर्चा का हिस्सा हो सकते हैं । आप अपने विचारों अथवा जानकारियों से हमें रूबरू कराएं । हम चर्चा के दौरान आपके विचारों अथवा जानकारियों को पूरा सम्मान देंगे और उसे आपके संवाद के अन्तरगत हुबहु प्रकाशित करेंगे , चाहे आपके विचार कड़वे ही क्यों न हो ......!


आप चाहें तो टिप्पणी बॉक्स में भी अपने विचारों अथवा जानकारियों को प्रस्तुत कर सकते हैं , या फिर मेरे मेल पर ....!


आप मेरा मेल आई डी जानते ही होंगे , खैर फिर से बता देता हूँ - mailto:ravindra.prabhat@gmail.com

मेरा बाजू वाला घर



खामोशियों के आलिंगन में आबद्ध वह गुब्बारा
सुबह से तैरता हुआ
अचानक फूट पड़ता है, तब -
जब हमारे आँगन में उतरता है रात का अन्धेरा
चुपके से ।

मेरे पक्के घर की बाजू में रहता है एक कच्चा घर
जागने के वक़्त सोता हुआ नज़र आता है
और सोने के वक़्त जाग जाता है अनायाश ही ।
मैं समझ नहीं पाता हूँ , कि -
क्यों है आज भी वह प्रकृति की दिनचर्या से परे ?

घूरती है एकबार अवश्य -
संध्या की आँखों की उदासी
जब उस घर का प्रभात
ऑफिस के लिए निकलता है सुबह-सुबह
असंख्यक विचारों और उत्पातों का द्वंद्व
तब तक टकराती रहती है , जब तक कि
वह ओझल नहीं हो जाता ......

मगर शाम ढले जब लौटता है प्रभात
अपने उस कच्चे घर की तरफ
पाता है बेदना से कांपते संध्या के शरीर की जलन
आँखों से फूटते अंतर्ज्वालामुखी के अश्क ...
और फिर सुबह की खामोशियाँ
परिवर्तित हो जाती चीखों में !

उस कच्चे घर में यह क्रम न जाने कबतक चलेगा
क्योंकि उस घर का प्रभात
नहीं जानता कि कब उसके जेब में दिखेंगे पूर्णमासी के चाँद ?
आप सोच रहे होंगे , कि क्या वह
नौकरी नहीं करता ?
करता है पूरी इमानदारी के साथ , मगर
हाय री बित्त रहित शिक्षा निति ....
प्रभात अधेर हो गया
मगर पगार नहीं देखा कैसी होती है ?

....कबतक जारी रहेगा यह सांप-सीढ़ी का खेल
क्या वह कच्चा घर कभी पक्का नहीं होगा
क्या संध्या प्रभात को कोसती -
अपनी जिंदगी का पूर्ण विराम कर देगी ?

सुना है सपनों को पेटेंट करने योजना है सरकार की
ताकि कोई और संध्या न देख सके सपने
आँखें नींद में भी जागती रहे
तबतक जबतक इस सरकार का कार्यकाल समाप्त न हो जाए
आगे दूसरी सरकार सोचेगी , कि -
जनता को सपने देखने की छूट दी जाए या नहीं ?
() रवीन्द्र प्रभात

बुधवार, 24 नवंबर 2010

बड़ा ज़िद्दी बड़ा निडर बड़ा खुद्दार है वह ...



(ग़ज़ल )

बड़ा ज़िद्दी बड़ा निडर बड़ा खुद्दार है वह
इसलिए शायद अलग-थलग इसपार है वह ।

रात को दिन और दिन को रात कैसे कहे-
यार जब राजनेता नहीं फनकार है वह ।

उसे इन मील के पत्थरों से क्या मतलब-
सफ़र के लिए हर बक्त जब तैयार है वह ।

क्यूँ डराते हो जंग से बार -बार उसको -
खुद जब अपने साये से बेजार है वह ।

कोई रिश्ता नहीं उससे मेरा "प्रभात"
पर लगता मैं बारिश और बयार है वह ।


() रवीन्द्र प्रभात

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

.........महाकवि मुहफट



व्यंग्य
कौन कहता है , कि अब नहीं रही लखनवी नफ़ासत । अवध से भले ही चली गयी है नवाबों की नवाबी , मगर यहाँ के ज़र्रे - ज़र्रे में वही हाजिर- जवाबी , वही अदब, वही नजाकत , वही तमद्दुन ,वही जुस्तजू , वही तहजीब .....सब कुछ तो वही है जनाब, सिर्फ देखने का नजरिया बदल गया है। लोग कहते हैं कि एक नवाब हुये थे अवध में , नाम था वाजिद अली शाह। अँग्रेज़ों ने महल को चारों तरफ से घेर लिया। नवाब साहब के पास वक़्त था कि वह बच कर निकल सकते थे , ठहरे नवाब , कोई जूता पहनाने वाला नही था , सो वो गिरफ्तार हो गए।

भाई नवाबी तो चली गयी , लेकिन नहीं गया इस शहर के मिज़ाज से नवाबी शायरी का जुनून । शाम ढलते ही सुनाई देने लगेगी आवाज़ – अमा यार , अर्ज़ किया है , क्या खूब कहा जनाब , वाह -वाह , क्या बात है, इरशाद ....... आदि-आदि ।सभी नवाबी शायर एक से बढ़ कर एक , कोई किसी से कम नहीं, बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां शुभानाल्लाह, उसी प्रकार जैसेराजस्थान में एक कहावत है , कि अंधों बाँटे रेबडी लाड़े पाडो खाए ।

ऐसे ही एक नवाबी शायर हमारे भी मोहल्ले में हैं , नाम है मुंहफट लखनवी । कुछ लोग महाकवि दिलफेंक तो कुछ लोग हंसमुख भाई कह कर पुकारते हैं । बहुत बड़े शायर , ऐसे शायर जिनकी अमूमन हर बसंत पंचमी को एक किताब उनके खुद के कर कमलों से ज़रूर प्रकाशित होती है । उसके कवि, आलोचक, प्रकाशक, विमोचक वे खुद होते हैं। कभी रेडियो, टेलीविज़न पर शायरी नहीं की और ना कभी अखबारों में भेजने का दुस्साहस ही किया । कहते हैं मुंहफट साहब - जनाब, ऐसा करने से एक बड़े शायर की तौहीन होती है । हम छोटे-मोटे शायर थोड़े ही हैं , जो मग्ज़ीन में छपने जाएँ ।
हमारे मुंहफट साहब की उम्र होगी तकरीबन साठ साल, मगर जवानी वही कि जिसे देखकर मचल जाये युवतियों का मन सावन में अचानक। आप माने या न माने , मगर यह सौ फ़ीसदी सच है जनाब कि हमारे मोहल्ले कि शान हैं मुंहफट साहब , कुछ लोग कहते है इस शहर की नायाब चीजों में से एक हैं हमारे महाकवि । इस मोहल्ले में आकर जिसने भी महाकवि के दर्शन नहीं किये , उनकी नवरस के रसास्वादन नहीं किये तो समझो जीवन सफल नही हुआ।
मैं भी नया-नया आया था लखनऊ शहर में, मेरे एक पड़ोसी मित्र ने बताया कि एक बहुत बड़े शायर रहते हैं मोहल्ले में। मेरी जिज्ञासा बढ़ी कि चलो किसी सन्डे को कर आते हैं दर्शन महाकवि के । सो एक दिन डरते-डरते मैं पहुंचा महाकवि के घर , दरवाजा खटखटाया तो हमारे सामने सफ़ेद पायजामा और सफ़ेद कुरता में एक जिन की मानिंद प्रकट हुये महाकवि , पान कुछ मुँह में तो कुछ कुरते के ऊपर , सफेदी के ऊपर पान का पिक कुछ इस तरह फैला था कि जैसे चांदी कि थाली में गोबर । पान गालों में दबाये थूक के चिन्टें उड़ाते हुये उन्होने कहा - जी आप पड़ोस में नए-नए आये हैं ? मैंने कहा जी , मैंने आपके बारे में सब कुछ पता कर लिया है आप भी लिखने-पढने के शौकीन हैं । मैंने कहा जी। फिर क्या था शुरू हो गए महाकवि , कहा- अम्मा यार आईये - आईये , शर्माईये मत , अपना ही घर है तशरीफ़ रखिये । जी शुक्रिया, कह कर मैं बैठ गया .फिर वे लखनवी अंदाज़ में फरमाये , कहिये कैसे आना हुआ ? मैंने कहा कि मैं अपनी पत्रिका के लिए आपका इंटरव्यू लेने आया हूँ । यह सब उपरवाले की महर्वानी है , आज पहली वार हीरे की क़दर जौहरी ने जानी है , यह तो हमारी खुशकिस्मती है जनाब , फरमायें ....../
जी आपका नाम मुंहफट क्यों पड़ा ?

बात दरअसल यह है जनाब, कि जब मैं पैदा हुआ तो मेरी फटी हुई आवाज़ मेरे वालिद साहब को अच्छी लगती थी । जब थोड़ा बड़ा हुआ तो शेरो शायरी करने लगा , हमारे मुँह में कोई बात रूकती ही नहीं थी सो लोग मुझे मुंहफट कह कर पुकारने लगे।

आपने हर विषय पर पुस्तकें लिखी हैं कैसे किया यह सब ?
दिमाग से ।
वो तो सभी करते हैं , आपने कुछ अलग हट कर नहीं किया क्या ?
किया न , चार किताबों को मिलाकर एक किताब बना लिया और छपवा लिया , है न दिमाग का काम ? इसका मतलब यही हुआ कि आपकी शायरी में मौलिकता नहीं है ?
आज तक किसी ने पकड़ा क्या ?
शायद नहीं ।
तो फिर मौलिक है, चक्कर खा गए न पत्रकार साहब?
अभी आपकी कौन सी किताब आने वाली है ?
जवाँ मर्दी के नुसख़े।
यह तो साहित्यिक किताब नहीं लगती ?
लगेगी भी कैसे? मेरी आत्मकथा है जनाब।
मगर आपकी जवां मर्दी दिखती नहीं है?

सठिया गए हैं क्या पत्रकार साहब ? कौन कहता है कि मैं जवां मर्द नहीं हूँ? अरे साहब हमारे उम्र पर मत जाइये, शरीर का मोटापा अपनी जगह है और मर्दानगी अपनी जगह ,जब दिल हो जवान तो ससुरी उम्र का बीच में क्या काम ?
इस उम्र में आपको कोई बीमारी तो नहीं? यानी सर्दी , खांसी ,मलेरिया , कुछ भी ?
नहीं मुझे कोई वीमारी नही, सिवाए एक दो के , वह भी जानलेवा ।
क्या कह रहे हैं मुंहफट साहब जानलेवा?
हाँ जनाब, कभी-कभी दौरा पड़ता है मुझे।
दौरा पड़ता है, यह क्या कह रहे हैं आप?

चौंक गए न जनाब ? ऐसा- वैसा दौरा नहीं, कविता सुनाने का दौरा। जब मुझ पर शायरी करने का जुनून सवार होता तो किसी भी ऐरे- गैरे, नत्थू- खैरे को पकड़ लेता हूँ और शुरू हो जाता हूँ , मगर जनाब , मानना पड़ेगा हमारी ईमानदारी को , मैं मुफ्त में किसी को भी कविता नहीं सुनाता , पूरा मुआवजा देता हूँ।
तब तो आपकी बख्शीश में मिले सारे रुपये उसे किसी डॉक्टर को देने पड़ जाते होंगे , बेचारा।ऐसा दौरा कब पड़ता है आपको?
आपने जब उकसा ही दिया तो अब मुझे दौरे का एहसास हो रहा सुनिये अर्ज़ किया है ....

अरे बाप रे , हमने आपका बहुत समय ले लिया है ,अब मुझे इजाजत दीजिए ।

ऐसे कैसे चले जायेंगे आप कविता सुने बगैर ..... सिर्फ एक शेर सुन लीजिये जनाब , जवानी के दिनों की है । फिर हम लोग नाश्ते पर चलते हैं , उसके बाद दो - चार और सुन लीजियेगा , यदि मेरी शायरी अछि लगी तो दो - चार और .......फिर लंच, फिर डीनर.... मैंने कहा - केवल नाश्ता आज , जब पहचान बन गयी तो आना - जाना लगा रहेगा .....लंच फिर कभी ...... जैसे -तैसे माने महाकवि ....मगर उनकी दो -चार नवरस की कवितायेँ सुननी ही पडी , एक -एक पल बहुत भारी पड़ रहा था....... अब मरता क्या नहीं करता , ये आफत मैंने मोल ली थी , सो जबतक महाकवि सन्तुष्ट न हुये सुनता रहा , गनीमत है कि वह नौबत नही आयी की अस्पताल जाना पडे । भाई मेरे , जैसे- तैसे पीछा छूटा महाकवि से, चार साल हो गए कभी उनके घर की ओर नहीं झाँका , भगवान बचाए ऐसे महाकवियों से , भाई यह लखनऊ है यहाँ बहुत मिलेंगी आपको ऐसी अदबी शाख्शियतें ...... यानी अल्लाह महरवान तो गदहा पहलवान .....!
() रवीन्द्र प्रभात

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

.....और तुम हो !


कभी-कभी स्मृतियों में झांकना कितना सुखद और रोमांच से परिपूर्ण होता है , इसका अंदाजा मुझे तब हुआ जब आज अचानक डा0 रोहिताश्व अस्थाना द्वारा संपादित एक ग़ज़ल संकलन के चंद पन्नों को पलटा । वर्ष-१९९६ में प्रकाशित इस संकलन में मुझे अपनी एक रूमानी ग़ज़ल पर नज़र पडी । प्राय: मेरी कविता-कहानी-ग़ज़ल -गीत समसामयिक ही होती है , किन्तु वर्ष-१९९५ में जब रोहिताश्व जी ने मुझसे एक रूमानी ग़ज़ल की मांग की थी तब मैं काफी परेशान हुआ था कि कौन सी ग़ज़ल भेजूं । जब कुछ भी समझ में नहीं आया था, तो मैंने अपनी एक प्रारंभिक ग़ज़ल जो वर्ष -१९९२ में लिखी थी उसे ही भेज दी । आज उस ग़ज़ल को मैं आपसे शेयर कर रहा हूँ -



ग़ज़ल .....और तुम हो !

सुहाना सा सफ़र है और तुम हो ।
ग़ज़ल तुमको नज़र है और तुम हो ।।

घटायें हर तरफ छायी जुल्फों की-
बहारें बे -असर है और तुम हो ।।

देख ले जब कहीं चाँद शर्माये -
तेरा जल्वा कहर है और तुम हो । ।

मुकम्मल हो ग़ज़ल इसलिए शायद-
जमाने को खबर है और तुम हो । ।

फासले क्यों हमारे दरमियां अब -
मेरा दिल मुन्तजिर है और तुम हो । ।

ख्याले- जुस्तजू में अश्क बहते हैं-
ये दरिया है, लहर है और तुम हो । ।

करे'प्रभात' दूजे की तमन्ना क्यों-
तलाशे-राहबर है और तुम हो । ।
() रवीन्द्र प्रभात

सोमवार, 15 नवंबर 2010

दिल्ली के बाद अब बारी है लखनऊ की !

श्री समीर लाल 'समीर' हिंदी चिट्ठाजगत के सर्वाधिक समर्पित,लोकप्रिय और सक्रिय हस्ताक्षर हैं । साहित्य की हर विधाओं में लिखने वाले श्री समीर लाल जी का व्यंग्य जहां दिल की गहराईयों में जाकर गुदगुदाता है वहीं इनकी कविता अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के कारण चिंतन के लिए विवश कर देती है ।

दिनांक १३ नवंबर को दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित , NATIONAL INSTITUE OF NATIONAL AFFAIRS ,प्रवासी टुडे के तत्वाधान में हिंदी संसार एवं नुक्कड ( सामूहिक ब्लॉग ) द्वारा आयोजित हिंदी ब्लॉग विमर्श में अपरिहार्य व्यस्तताओं के कारण न पहुँच पाने की मेरी विवशता रही, अविनाश जी ने कार्यक्रम की जानकारी दी थी , किन्तु मेरा न पहुँच पाना मेरे लिए काफी कष्टदायक रहा ।

मुझे याद है मैं पहली बार मिला था समीर जी से ११ अप्रैल २००८ को अपने ही शहर लखनऊ में किन्तु यह मुलाक़ात महज औपचारिकता बनकर रह गयी थी और जाते-जाते उन्होंने पुन: लखनऊ आने का वादा किया था ।

समीर लाल जी यानी "उडन तश्तरी " जब ढाई वर्ष पूर्व मिला था तो ठीक दोपहर के बारह बज रहे थे और ताण्डव कर रहा था ग्रीष्म , चंद लमहात समीर भाई के साथ गुजारते हुए अच्छा लगा था । हुआ यों कि अचानक सुबह नौ बजे के आस-पास मेरे मोबाइल की घंटी बजी और मैं हतप्रभ रह गया यह जानकर कि समीर भाई मेरे शहर में? थोड़ी देर के लिए कानों को यकीन ही नही हुआ मगर अगले ही क्षण दिल ने महसूस किया कि यह समीर भाई की ही आवाज़ है । मैंने झटपट अपने एक कवि मित्र राहुल सक्सेना को फोन किया और उसे अपने साथ लेकर पहुंचा समीर भाई के पास । एक संक्षिप्त मुलाक़ात समीर भाई के साथ इतना ऊर्जादायक था कि उसे वयान करते हुए मुझे शब्द कम पड़ रहे हैं । बस इतना ही कह सकता हूँ कि इस संक्षिप्त मुलाक़ात की तपीश में फीकी पड़ गयी ग्रीष्म की तपीश । मुझे ग्रीष्म में बसंत का एहसास होने लगा , मगर अगले ही क्षण जब समीर भाई से अलग हुआ महसूस करने लगा ग्रीष्म की तपीश ।




मैं पहली बार जब मिला था समीर भाई से , उनके व्यक्तित्व को महसूस करने का आनंद ही कुछ और था । कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके विचार तो महान होते हैं, पर व्यक्तित्व महान नही होता , कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनका व्यक्तित्व महान होता है पर विचार महान नही होते । मगर मैंने समीर भाई के व्यक्तित्व को भी उतना ही उत्कृष्ट महसूस किया था जितना उनके विचारों को महसूस करता हूँ ।

अब जब समीर लाल जी का भारत आगमन हो ही गया है और अविनाश जी एंड टीम के द्वारा दिल्ली में उनका भव्य स्वागत कर ही दिया गया है तो अब बारी है ब्लोगोत्सव की टीम की वर्ष के श्रेष्ठ ब्लोगर का अवध की नगरी में स्वागत करने की , इससे उनके ढाई वर्ष पूर्व के दिए वचन भी पूरा हो जायेंगे और पुन: एकबार मिलाने की उत्कंठा पूरी होगी ।

अब देखिये वह सुयोग कब बन रहा है .....मुझे यकीं है शायद शीघ्र !



इंटरनेशनल ब्‍लॉगर सम्‍मेलन की विस्‍तृत रिपोर्ट के लिए यहाँ किलिक करें

शनिवार, 13 नवंबर 2010

ग़ज़ल को फ़कत जज़्बात मत कहना ।



ग़ज़ल

लफ़्ज तोले बिना बात मत कहना
दिन को खामखाह रात मत कहना ।

दर्द है, नसीहत है, तजुर्बा भी-
ग़ज़ल को फ़कत जज़्बात मत कहना ।

जिंदगी एक सफ़र है दोस्त मेरे-
भूलकर भी कायनात मत कहना ।

खुशनसीबों को हीं मिलती है ये-
मोहब्बत को खैरात मत कहना ।

मदहोश होना फितरत -ए-इश्क है-
इसे शराबी कि हरकात मत कहना ।

दोपहर बन आशियाना फूंक दे-
उस घड़ी को तुम प्रभात मत कहना।
() रवीन्द्र प्रभात

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

सच उगलना पाप है तो पाप हमने कर दिया

अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी भारत यात्रा की शुरुआत मुंबई हमलों में मारे जाने वाले लोगों को श्रद्धांजलि दे कर की और मुंबई को भारत की शक्ति का प्रतीक बताया , मगर पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने के सवाल को कुटिल मुस्कान बिखेरकर टाल गए । उन्होंने भारत को सबसे तेज़ी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं मे से एक बताया और दोनों देशों की बीच व्यापार बढ़ाए जाने की संभावना पर ज़ोर दिया। साथ ही उन्होंने दस अरब डॉलर की लागत के बीस सौदों का भी ऐलान किया। भारतीय उद्योग जगत ने आमतौर पर ओबामा की पहल का स्वागत किया,लेकिन कुछ विश्लेषकों और विपक्षी दलों को इस बात पर आपत्ति थी कि ओबामा ने मुंबई हमलों के संदर्भ में सीधे-सीधे पाकिस्तान को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया।

आपको क्या लगता है कि क्या बराक ओबामा की भारत-यात्रा की शुरुआत संतोषजनक है? क्या उन्हें इससे अधिक कुछ कहने की ज़रूरत थी? क्या बराक ओबामा आपकी अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं?

इसी परिप्रेक्ष्य में अर्पित है चंद पंक्तियाँ ग़ज़ल के माध्यम से -
भूख को रोटी मिलेगी घर हिफाजत के लिए
तो क्यों कोई आयेगा आगे बगाबत के लिए ?

मेहमान मुझको दे गए हैं कूटनीति का जहर-
ले गए हैं रोशनी घर की सजाबट के लिए ।

सच कहूं तो पश्चिमी तहजीब ने उकसा दिया -
बरना हम मशहूर हैं अपनी शराफत के लिए ।

सोचिए इस मुल्क का होगा अरे कैसा भविष्य-
जब पडोसी आयेंगे घर में निजामत के लिए ?

मंदिरों में, मस्जिदों में, बेवजह उलझे हुए क्यों
अपना घर काफी नहीं पूजा-इबादत के लिए ?

सच उगलना पाप है तो पाप हमने कर दिया-
और हम तैयार हैं अपनी शहादत के लिए ।
() रवीन्द्र प्रभात

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

मौत दे दे मगर जग हंसाई न दे ।



(ग़ज़ल )

कद ये छोटा लगे कुछ दिखाई न दे
रब किसी को भी ऐसी ऊँचाई न दे ।

मुफलिसों को न दे बेटियाँ एक भी -
मौत दे दे मगर जग हंसाई न दे ।

रात कर दे अँधेरी सुबह खुशनुमा-
दोपहर को मगर बेहयाई न दे ।

यूँ रहो बेखबर अब न इस दौर में-
कि पडोसी की आहें सुनाई न दे ।

जिससे तुम हो न राजी इलाही कभी-
बदनुमा-बदचलन रहनुमाई न दे ।

जो तुझको न अच्छा लगे ये प्रभात -
दूसरों को भी ऐसी हयाई न दे ।

() रवीन्द्र प्रभात

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

पराये शहर में इक हमजुबां हमराज पाया




(ग़ज़ल )
पराये शहर में इक हमजुबां हमराज पाया
समंदर लांघने की तब कहीं परवाज़ पाया ।

सड़क के पत्थरों को देख करके यार मैंने-
समय के साथ जीने का सही अंदाज़ पाया ।

मुहब्बत यह उफनती सी नदी है जान लो तुम-
कि जिसमें डूब कर सबने दरद का साज़ पाया ।

खता करके सभी ने मांग ली अपनी रिहाई-
चलो अच्छा हुआ हमने कफ़स का ताज पाया ।

यहाँ खंजर लिए सब घूमते बेख़ौफ़ घूमें-
बड़ी मुश्किल से मेरे हाथ ने इसराज पाया ।

() रवीन्द्र प्रभात

शनिवार, 6 नवंबर 2010

पटाखे फोड़कर क्यूं नोट जलाएं बाबू जी ?



कल दीपावली का त्यौहार था, मैंने अपनी बड़ी बिटिया उर्विजा से पूछा कि पटाखे नहीं फोड़ने हैं क्या ? उसने तपाक से कहा पापा ! पटाखे फोड़कर रुपयों में आग क्यूँ लगाऊँ , सोच रही हूँ कि मिटटी के दीयों को से घर को ऐसा सजाऊ कि लोग दाँतों तले उंगली काट ले , कैसा रहेगा ?

मैंने कहा - बड़ी हो गयी हो , इसीलिए अच्छी-अच्छी बातें करने लगी हो .....ठीक है तुम वही करो जो तुम्हे अच्छा लगे , इतना कहकर मैं वहां से उठा और विस्तर पर लेट गया ! पर नींद कहाँ आने वाली थी , उसकी बातें जेहन में मतले का रूप ले चुकी थी - " पटाखे फोड़कर क्यों नोट जलाएं , माटी के दीयों से घर सजाएं "

फिर क्या था चंद घंटों के जद्दोजहद के बाद आखिर जेहन की कोख से फूट पडी एक खुबसूरत ग़ज़ल, जिसे मैं आपसे शेयर कर रहा हूँ -

(ग़ज़ल )
पटाखे फोड़कर क्यूं नोट जलाएं बाबू जी
मिटटी के दीयों से घर सजाएं बाबू जी ।

हमारे गाँव की पगडंडियाँ मासूम है-
इसे न राजपथ से आप मिलाएं बाबू जी ।

दिखाबों के भयाबह से हमें लगता है डर-
मुआं मंहगाई यह आंसू रुलाए बाबू जी ।

गरीबों को मिले दो जून की रोटी बहुत है-
उन्हें बस आप कर्जों से बचाएं बाबू जी ।

जहां पर टूटते संबंध प्यालों की तरह-
वहां हम किसकी रोएं, किसकी गाएं बाबू जी ।

प्रभात के किस्से सुनाये स्याह पन्नों पर-
ऐसे हमदर्द को ना आजमाएं बाबू जी ।
() रवीन्द्र प्रभात

बुधवार, 3 नवंबर 2010

ज़िन्दगी की थीम पर थिरकता खुबसूरत गीत

जी हाँ एक ऐसा गीत जो ज़िन्दगी की थीम पर थिरकते हुए ऐसे अनछुए पहलुओं को सामने लाता है, कि बरबस थिरकने लगते हैं हमारे होठ और अंगराईयां लेने लगती है हमारी भावनाएं .....इस गीत को लिखा है कवियित्री रश्मि प्रभा ने , संगीत दिया है ऋषि ने और गाये हैं श्री राम इमानी और कुहू गुप्ता ने ! इसे सुनकर ऐसा लगता है कि संध्या ने उषा में प्रभात के गीत गाये हों , लीजिये आप भी सुनिए -


 
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