बुधवार, 29 जून 2011

"वक्त ने मुझे बड़ा बना दिया पापा"




मैं यदि तुम्हें बड़ा न बना सका तो तुम्हारे अपनों के सपने अधूरे रह जायेंगे , सबकी अपनी राहें हैं , किसी को खुद बड़ा होना पड़ता है मेरी गोद में , कोई ऊँगली थामकर चलता है , बड़ा होना तो अच्छी बात है ....


"वक्त ने मुझे बड़ा बना दिया पापा"


अपने सभी अरमानों को दबा लिया दिल में ही कही और किसी से ना कुछ कहा।कई ख्बाव जो पलते थे आपकी आँखों में दिन रात उसे आपने मेरी आँखों को सौंप दिया।क्यों किया ऐसा आपने,बस मेरे लिए ना पापा!आप हरदम बस सोचते रहे हमारी खुशी के लिए और मै कुछ ना समझा आपके प्यार को।वो आपका प्यार ही तो था जो मुझसे बार बार बातें कर मेरे बारे में पूछना और कुछ ज्यादा ना कह पाना।मेरे उज्जवल भविष्य के लिए दिन रात यहाँ से वहाँ आपका भाग दौड़,कुछ ना समझ पाया मै।

बचपन से किताबों में पढ़ता आया माँ की ममता के बारे में।माँ की ममतामयी छाया में भूल गया शायद कि एक ऐसा दिल भी है,जो बहुत प्यार करता है मुझसे।आज जीवन के मायने बदल रहे है शायद अब मै बड़ा हो गया हूँ।उतना बड़ा की अब अपने जीवन के बारे में गम्भीरता से सोच सकूँ।मेरे लिए जीवन के कई रुप है परिवार,दोस्त,प्यार और कैरियर बहुत कुछ है।पर एक शख्स जिसकी हर आहट में मेरे कदमों का ही चिन्ह झलक जाता है,वो शख्स बस आप है पापा।जो बस मेरे लिए सोचते है,मुझसे बहुत प्यार करते है।पर शायद मै आपके इस प्यार की छतरी ओढ़े खुद को न जाने क्या समझ बैठता हूँ।अपने अस्तित्व की पहचान को ही गुमनाम कर बैठता हूँ।
आपका बार बार कहना बेटा इस बार घर आना ऐसा प्रोग्राम है और मै तो अकड़ कर ही रह जाता।शायद क्या सोच लेता मै।समझ ना पाता क्यों जब बस एक हफ्ते ही हुये होते मेरे घर से आये आप मुझे फिर उसी उत्साह के साथ बुलाते।और इस अनोखे प्यार को तो मै अपनी सफलता का अवरोध मान लेता।शायद उस रोज जब मै सफलता की ऊँचाईयों को छू रहा होउँगा,यह निमंत्रण और प्यार फिर से पाने की इक अधूरी ख्वाहिश दिल में जगेगी।पर शायद समय कुछ बदल सा गया होगा उस वक्त।
कहा गया है कि "चीजों की कीमत मिलने से पहले और इंसान की कीमत खोने के बाद पता चलती है"।आँसू भी बरबस आँखों में तब आते है,जब आँसू पोंछने वाला बड़ी दूर जा चुका होता है।इंसान सोचता है समय को पकड़ लूँ अपने तो संग है ही पर शायद ये समय ही सभी अपनों को भी किसी भोर के सपने सा बना देता है।जिसके टुटने पर दिल को बहुत दुख होता है,क्योंकि भोर का सपना शायद भविष्य का सच होने वाला होता है।नहीं पता मुझे ये क्या है जिसके कारण जब आप सामने होते है तो कुछ ना कह पाता हूँ और ना दिखला पाता हूँ।पर एहसास बाद में कचोटने लगते है मन को और ऐसे ही जब बिल्कुल अकेला हो जाता हूँ,तो अपने उस परिवार की याद आ जाती है,जहाँ सब को मेरी चिंता रहती है,बस मेरी।

पूरी दुनिया में शायद बहुत कम लोग ही ऐसे है जो सोचते है मेरे बारे में।मेरी खुशियों में मेरे साथ होते है और मेरे दुख में छुप छुप कर आँसू बहाते है।शायद समय उस दहलीज पे भी लाकर खड़ा कर दे एक दिन जब कोई गुमान ना हो खुद पे।वो जिद ना हो,वो चाहत ना हो और ना हो वो फरमाईश।जो मै अक्सर करता था आपसे और आप झट से पुरा कर देते थे उसे।कभी ये ना सोचते थे क्या गलत है और क्या सही,बस मेरे लाडले की खुशी है,सब ठीक है।

कभी कभी जो आपका दिल दुखा देता हूँ पापा बहुत अच्छा लगता है।खुश होता हूँ मै ये सोचकर कि आपको तो मेरी भावनाओं की कद्र ही नहीं।पर अब तक असमर्थ हूँ आपके भावनाओं को देख पाने में जिसमें कुछ नहीं है,कोई चाहत नहीं जीवन के उड़ानों का उसमें तो बस मेरी तस्वीर है बचपन से अब तक की।यादें है वो जो शायद अब याद नहीं आते।मेरी हर एक फरमाईश और ख्वाहिश से भरी हुई है आपकी भावनायें।जिसे मैने अपने जीवन में स्नेह का अभाव मान लिया था,वो तो बस मेरे प्रति स्नेह के अगाध पुष्पों से सजा हुआ है।आपकी वो बात "बेटे,मेरे जाने के बाद मेरी बहुत याद आयेगी तुम्हें देखना!"आज आपकी कोई कही हुई बात नहीं बस एहसास है जो अब भी उस काँधे को तरसता है जहाँ से देखता था मै सारी दुनिया।अब भी उन ऊँगलियों को पकड़ना चाहता है,जिसे थाम कर खुद को सबसे खुशनसीब समझता था।वो डाँट आपकी जिसे सुन बहुत बुरा लगता था,फिर सुनना चाहता हूँ।

जिन्दगी में जिस छावँ के तले पलता हुआ बचपन से अपनी जवानी गुजार दी वो छावँ ही अब मुझे जलन देता है,तपाता है मुझे और मेरे शरीर को और उसे छोड़ काफी दूर निकल जाता हूँ मै।वक्त के पहियों पर दिन ब दिन गुजरता रहता है हर पल और अपनी सभी ईच्छाओं को दफन करता जाता हूँ दिल में कही।वो बातें जो बिना आपसे कहे सार्थकता नहीं पाते थे,अब तो बस जुबान से दिल में ही दबे दबे रह जाते है।शायद अब जरुरत नहीं मुझे उस काँधे की,उन ऊँगलियों की जो अब भी बुलाते है मुझे रोज।अब तो मै खुद ही खड़ा खड़ा देख लेता हूँ सारी दुनिया।

ऐसा लगता है "वक्त ने मुझे बड़ा बना दिया है पापा"।शायद उतना बड़ा जहाँ से बस लम्बी लम्बी ईमारते दिखती है।बस सितारों की रौनक दिखती है,पर वो दिल की चाहत नहीं दिखती जो अब भी गले से लगाने को बेकरार है मुझे।जो इतना बड़ा होने पर भी मुझे आज उतना ही छोटा समझता है जितना मै था कल तक।अब भी भीड़ में मै ढ़ुँढ़ता हूँ उस शख्स को जिसकी आँखों में मेरे लिए बस प्यार ही प्यार है।यकीनन वो मेरे पापा ही है,जो आज भी मेरी आँखों से देखते है मुझे और कभी कभी जो ठोकर लगती है,गिरने को होता हूँ तो थाम लेते है मुझको।और मै कितना भी बड़ा होकर फिर से छोटा बहुत छोटा हो जाता हूँ आपके सामने.....।

सत्यम शिवम् 
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इस महत्वपूर्ण और सारगर्भित रचना के बाद आइये आपको कार्यक्रम के दूसरे चरण की प्रस्तुति से अवगत करा दें :

भारत सरकार या खूंखार आतंकवादी..?




चाँद के पार …




कुंवर कुसुमेश की दो गज़लें



”बदलते दौर में साहित्य के सरोकार” विषय पर संगोष्ठी



पूनम श्रीवास्तव की दो कविताएँ





इसी के साथ हम आज के कार्यक्रम को संपन्न करते हैं, कल ब्लॉगोत्सव में अवकाश का दिन होगा, मिलते हैं परसों यानी ०१ जुलाई को परिकल्पना पर सुबह ११ बजे .....तबतक के लिए शुभ विदा ! 

मैं समय हूँ तो क्या ?




मैं समय हूँ तो क्या ?

किसी से कुछ छिनने का ख्याल
या यूँ हीं चलते हुए ले लेने ख्याल
कभी नहीं आया .
दिया तो पूरे मन से दिया
मीठे को मीठा ही रहने दिया
कड़वे को कड़वा ....
लेने में पूरा विश्वास रहा
सुनने में पूरा विश्वास रहा
मानने में पूरा विश्वास रहा
कुछ चेहरों को मैंने झूठ से परे जाना
पर वे देखते देखते सच से परे हो गए
और .......
कुछ बेचैनियाँ शब्दों की गिरफ्त से
बाहर होती हैं
लाख दर्द हो
आलोचनाओं का शिकार होती हैं
और ....
काश छाछ को फूंककर ही पीया होता !........
मेरा अंत ?
आज वो घर कहाँ जहाँ
इंसान बसते थे
आज वो दिल कहाँ जहाँ
प्यार रिसता था
हर घर की दीवार
पत्थर हो गई
दिल में सिर्फ
गद्दारी का बसेरा है
मासूम सी सूरत में कोई
कहाँ शैतान छिपा है
भगवान को भूला
अब हम
शैतान को अपना
बना बैठे है
मानो ...ना मानो
जिस बारूद के ढेर
पर अपने दिल के
अरमान सज़ा बैठे है
जिसके लिए हम
विरोध का शंखनाद
बजा बैठे थे
ना मिली धरा
मिला ना गगन
अपनी की उम्र बनी
अपने पर ही व्यंग ......
हर तरफ थी ख़ामोशी
दूर तक था सन्नाटा
आज उसकी वजह से
बनकर अनाथ पड़े ,
नहीं कहीं कोई छावं
ना धूप का बसेरा है ...
रीती झोली ,
रिसते जख्म
बिखर गए हम
चारो ओर अब
नफरत का ही डेरा है
कब तक सहूँ
मेमने सा ही
अपना अंत ?
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अनु 

http://apnokasath.blogspot.com/


कुछ ऐसे ही एहसास मुझसे टिके खड़े हैं -
यूँ तो कुछ भी जरुरी नहीं

यूँ तो कुछ भी जरुरी नहीं
कि जुबां से कुछ कहो मेरे लिए ,
मगर सुनना अच्छा लगता है ना
कुछ तो कहो मेरे लिए..
पता नहीं क्यूँ....
अजीब चुप सी लगी है दोनों तरफ,
अहसास बोलते तो हैं मगर..
खामोश क्यूँ हैं ये लब,
लेकिन...
मैंने सुना,
तुमने कहा....
में यहीं हूँ तुम्हारे पास,
पास नहीं हूँ तो क्या हुआ,
तुम रहती हो हर पल मेरे साथ,
कभी आसमान में उडती चिड़िया सी ,
तो कभी ओस की बूंदों सी,
हर पल महसूस होती हूँ ना में तुम्हे...
ये अहसास ही तो हैं हमारे जीवन में,
जो दूर होते हुए भी बेहद्द करीब ले आते हैं ,
बिलकुल वैसे ...
जैसे...
जैसे चाँद धरती के करीब महसूस होता है...
चाँदनी रातों में,
जैसे सूरज की किरणें रोज आती हैं मेरे आँगन में,
तुम भी आते हो उसी तरह मेरी आँखों में ,
कभी ख्वाब बनकर ,
कभी ख़याल बनकर,
और यूँ ही हम दोनों मिल लेते हैं,
जी लेते हैं अपने लिए कुछ लम्हें
एक साथ ,
मैं रहूंगी हमेशा तुम्हारे साथ ,
तुम भी रहना यूँ ही ,
हमेशा मेरे साथ.




नीलम पूरी
समय होकर मैं हतप्रभ रहता हूँ , जब एक से भाव हर तरफ से सुनता हूँ
कैसे कर लेते हो .....??

तुम में एक खूबी है................
पूछोगे नहीं,क्या?
या आश्चर्य से कहोगे नहीं.............कि केवल एक?!
एक बात पूछूँ ,तुमसे..........
कि
तुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
जब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
अपनी भूल की पीड़ा ,
तुम्हारी गलती का दंश ,
दोनों,अकेले झेलती हूँ .
कभी तुम्हारा फूला हुआ मुंह ,
कभी तुम्हारा रूखा व्यवहार ,
तो कभी तुम्हारा अबोला सहकर.
बताओ ना.....................
कैसे कर लेते हो तुम यह सब .
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डॉ .निधि टंडन
http://zindaginaamaa.blogspot.com


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अब आइए आपको लिए चलते है कार्यक्रम स्थल की ओर, जहां ब्लॉगोत्सव  के चौथे दिन का आगाज़ होने जा रहा लता मंगेशकर जी की आवाज़ में  एक खुबसूरत गीत से : बरखा बहार आई  ....

इसके अलावा उत्सव से संवंधित अपनी बात कहेंगे रवीन्द्र प्रभात जी 


ई पंडित श्रीश शर्मा आपको सुनाएंगे  : अथ श्री पॉडकास्टिंग महापुराण

और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सुमंत का विमर्श : यह ‘न्याय’ नहीं न्याय का ढकोसला है श्रीमान ओबामा!



कहीं जाइएगा मत हम फिर उपस्थित होंगे  कुछ और महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के साथ एक अल्प विराम के बाद 

सोमवार, 27 जून 2011

दहशत....!





दहशत
(लघु कथा)

उनका नाम हंसमुख था,पर चेहरे पर हंसी का का नामो निशान नहीं होता था | मेरे साथ कॉलेज में व्याख्याता थे हिंदी पढ़ाते थे .कक्षा में पढ़ाना,स्टाफ रूम में कोने में चुपचाप बैठ जाना ,किसी से बात नहीं करना,किसी चर्चा में शामिल नहीं होना,उनकी आदत में शुमार था | कोई नमस्ते करता तो मुंह से एक शब्द भी बोले बिना हाथ जोड़ कर उत्तर दे देते |

काम होता तो केवल जितनी आवश्यक होती,उतनी ही बात करते थे |

प्रारम्भ में समस्त व्याख्याताओं को उनका व्यवहार काफी अटपटा लगता था| निरंतर,चर्चा का विषय होता था,पर धीरे धीरे सब उसके अभ्यस्त हो गए |उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है,समझ कर ध्यान देना बंद कर दिया,वास्तव में सब अब सब उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखने लगे |क्योंकि,ना वो किसी से ऊंचे स्वर में बात करते थे,ना किसी के बारे में कुछ कहते थे ,ना किसी के लिए कोई व्यवधान पैदा करते थे|सबसे एक जैसा व्यवहार करते थे|

उनके बारे में और कुछ पता नहीं चला,कहाँ के रहने वाले थे ? परिवार में कौन कौन थे ?विवाहित थे या अविवाहित थे ?,एक आध साथी ने जानने का प्रयत्न भी किया तो उन्होंने उत्तर नहीं दिया,उसके बाद सबने इस बारे में सोचना और पूंछना बंद कर दिया |

फिर एक दिन अचानक बिना सूचना के और छुट्टी लिए वे कॉलेज नहीं आये ,चार पांच दिन हो गए,कोई समाचार भी नहीं था |सब चिंता करने लगे,क्या हुआ? दस दिन हो गए किसी को पता नहीं चला ,जो मिलता केवल उनके बारे में पूंछता ,प्रिंसिपल साहब से पूंछा तो उन्होंने बताया कानपुर के रहने वाले थे,किसी तरह घर के पते पर संपर्क किया ,पता चला वर्षों पहले मकान खाली कर दिया था,अब किसी को नहीं पता कहाँ गए ?

बहुत प्रयत्नों के बाद किसी ने बताया ,कि स्टेशन के पास किसी कॉलोनी में उनको कई बार देखा गया था | चार-पांच व्याख्याता मिल कर उस कॉलोनी में गए,लोगों को उनका हुलिया बताया,तब जा कर हंसमुख जी के घर का पता चला,घंटी बजायी,किसी ने थोड़ी सी खिड़की खोली, झिरी में से देखा,फिर खिड़की को बंद कर दिया |

पांच-सात मिनिट बाद दरवाज़ा खुला,देखा तो हंसमुख जी साक्षात सामने खड़े थे,बहुत कमज़ोर दिख रहे थे |अपने साथी व्याख्याताओं को एक साथ देख कर सकपकाए , कुछ कहते उस से पहले ही ,उनको देखते ही सबने उनपर प्रश्नों की बौछार कर दी ,कहाँ रहे ?,क्या हुआ ? सब ठीक तो है ? इतला क्यों नहीं करी ? हंस मुख जी पहले तो आदतन चुप रहे पर जब सबने जिद पकड़ ली, कि जब तक वास्तविकता नहीं बताएँगे तब तक हम लोग वहाँ से नहीं हिलेंगे |थोड़े देर सोचने के बाद ,झिझकते हुए वे बोले,आज मैं पहली बार अपनी कहानी बता रहा हूँ ,आशा है आप सब इसे अपने तक ही रखेंगे किसी और को नहीं बताएँगे |

फिर उन्होंने कहना आरम्भ किया "बात उन दिनों की है जब मैं कानपुर में कॉलेज में पढता था,स्वतंत्रता संग्राम पूरे जोरों पर था,कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन था ,मुझे भी जोश आया, मैंने सोचा,गांधी,नेहरु,सुभाष और पटेल जैसे नेताओं को साक्षात देखने का इससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिलेगा |

पिता थे नहीं,सो माँ से,दोस्त के गाँव जाने का बहाना कर दस रूपये लिए,दो चार कपडे झोले में डाले,कंधे पर झोला लटकाया ,टिकट ले कर कलकत्ता की गाडी में बैठ गया | एक सूटेड-बूटेड,सर पर हैट लगाए,लंबा-चौड़ा मज़बूत कद काठी का व्यक्ति,पहले से ही डब्बे में, सामने वाली सीट पर बैठा था,देखने में काफी अमीर लगता था |गाडी चली ,थोड़े देर बाद वह वो मुझ से बड़ी शालीनता से बातें करने लगा ,उसने बताया वो कलकत्ता का रहने वाला था व्यापार के सिलसिले में कानपुर आया था, अब लौट कर वापस कलकत्ता जा रहा था, मुझे रहने खाने की दिक्कत नहीं आयेगी,वो सारी व्यवस्था कर देगा ,मैं उसकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ

मन में सोचने लगा, कितना सभ्य और शालीन आदमी है| खैर बातें करते करते इलाहाबाद स्टेशन आया,तो वह मुझ से बोला "तुम सामान की देखभाल करो मैं खाने के लिए कुछ लेकर आता हूँ ,मैंने हाँ में गर्दन हिलायी,बहुत देर हो गयी गाडी चलने लगी पर उसका पता नहीं था ,मैं चिंता में डूब गया,बार बार बाहर प्लेट फॉर्म पर देखने लगा पर वो वापस नहीं आया | सीट के नीचे देखा,एक काले रंग का बड़ा फौजी इस्तेमाल करते हैं वैसा बक्सा पडा था,मुगलसराय स्टेशन पर मैं नीचे उतरा ,सीधा स्टेशन मास्टर के कमरे में जा कर उन्हें बताया, किसी यात्री का बक्सा गाडी में छूट गया है उसको सम्हाल ले ,स्टेशन मास्टर एक कुली को साथ ले कर आये ,सीट के नीचे से बक्से को निकलवाने की कोशिश करने लगे ,बक्सा बहुत भारी था ,एक और कुली को बुलवाया गया,दोनों ने मिल कर बक्सा स्टेशन मास्टर के कमरे में रखा ,साथ ही उन्होंने पुलिस को बुलवाया ,पुलिस दरोगाजी आये ,बक्से का वज़न देख कर उन्हें कुछ शक हुआ ,उन्होंने उसका ताला तुडवाया |

ढक्कन खोलते ही बोरी में लिपटी दो जवान लड़कियों की कटी पिटी लाशें नज़र आयी |मुझे फ़ौरन हथकड़ी लगा कर हवालात में डाल दिया ,मैं रोता रहा,चिल्लाता रहा पर किसी ने एक ना सुनी,बस एक ही बात पूंछते रहे ,क्यों मारा ? कब मारा ? सच क्यों नहीं बोलते ? मुझे बहुत प्रताड़ित करा गया,मारा पीटा गया,मैं कहता रहा ,निर्दोष हूँ पर कोई सुनने के लिए तैयार ना था |

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था ,सर झुका कर एक कौने मैं बैठ गया,भगवान् से प्रार्थना करता रहा |

किसी तरह दिन बीता, रात का समय हुआ,करीब बारह बजे एक बुजुर्ग सिपाही जो ड्यूटी पर था, मेरे पास आया ,मुझे कोने में ले गया और धीरे से कहा ,देखो मेरा मन और अनुभव कहता है ,तुम निर्दोष हो ,अब ऐसा करो दस मिनिट बाद कानपुर जाने वाली गाडी आने वाली है, तुम उसमें बैठ कर भाग जाओ ,ध्यान रखना गाडी के चलते ही मैं सीटी बजाऊंगा ,और सब से कहूंगा कि तुम हवालात का ताला तोड़ कर भाग गए हो ,तुम्हें ढूँढने के लिए पुलिस पार्टी अलग अलग शहरों में और स्टेशन पर जायेंगी,किसी तरह अपने को बचाना ,हाथ मत आना,अगर पकडे गए तो समझो तुम्हारी खैर नहीं ,बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता ,भगवान् से तुम्हारे लिए प्रार्थना ज़रूर करूंगा |

इतना सुनते ही मैंने दौड़ लगाई ,तब तक गाडी आ गयी थी ,गाडी के संडास में छुप कर बैठ गया ,गाडी चली तो मन में तसल्ली हुयी ,

दो घंटे बाद इलाहाबाद आया , मैंने सोचा, रेलगाड़ी में शायद पुलिस मुझे आसानी से पकड़ सकती है, क्यों ना ,गाडी से उतर कर बस से कानपुर चले जाऊं ,ज्यादा आसान रहेगा , पकडे जाने का अवसर भी कम हो जाएगा |
मैं प्लेट फॉर्म पर उतर कपड़ों से मुंह को ढक कर बाहर की तरफ जाने ही वाला था ,कि देखा तो मेरे सामने वही व्यक्ति खडा था| मुझे देखते ही वो मेरी तरफ लपका,मैं भाग कर फिर चलती गाडी में बैठ गया,वो कोशिश करने पर भी नीचे ही रह गया| किसी तरह मैं घर पहुंचा ,तबियत ठीक नहीं होने का बहाना कर कई दिन घर में ही दुबका रहा, माँ रोज़ पूंछती थी, क्या हुआ ? पर कुछ ना कुछ बहाना कर टालता रहा |मन में एक दहशत ने घर कर लिया था | किसी व्यक्ति से बात करने से भी डर लगने लगा ,बहुत मुश्किलों से मैंने पढायी पूरी करी , फिर कॉलेज में नौकरी मिल गयी |किसी भी अनजान व्यक्ति से मिलने में डर लगता है,

एक दहशत होती है ,किसी पर विश्वाश नहीं होता है |बिना मतलब मीठी बात करने वाले व्यक्तियों से सदा डर लगता है, कहीं फिर मेरे साथ कोई धोखा नहीं कर दे,किसी की बातों में ना फँस जाऊं इस लिए चुपचाप रहता हूँ ,किसी से कोई सरोकार नहीं रखता |तब से आज तक,इंसान के नाम से भी डरता हूँ ,बीमारी में भी ऐसा लगता था कोई दवा की जगह मुझे जहर ना दे दे इसलिए चुपचाप सहता रहा |

आप सब से प्रार्थना है कृपया किसी को मेरी कहानी नहीं बताएं ,नहीं तो फिर कोई मेरी कमजोरी का फायदा उठा कर मुझे किसी घटना में ना फंसा दे|

किसी से कोई उत्तर देते नहीं बना ,फिर थोड़ा सोचने के बाद सबके मुंह से एक साथ निकला हंसमुख जी सब इकसार नहीं होते, दहशत में आप भूल गए आपको बुजुर्ग सिपाही भी मिला था ,जिसने आपको बचाया था |
यह सुनते ही हंसमुख जी पहली बार, खुद आगे हो कर बोले ,मित्रों आप ठीक कहते हो ,दहशत में मुझे कभी इस बात का ख्याल नहीं आया |

अब दहशत को कम करने की कोशिश करूंगा और हर इंसान को शक की दृष्टि से नहीं देखूंगा ,आप सब मेरा इतना ख्याल करते हैं , इसका कभी ध्यान भी ना था ,कहते,कहते उनकी आँखों से आसूं बहने लगे |
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डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"





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अब आइये ब्लॉगोत्सव के आगे के अन्य कार्यक्रमों से मैं आपको रूबरू करा दूं :






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कल ब्लॉगोत्सव में अवकाश का दिन है , हम फिर आपसे रूबरू होंगे परसों यानी २९ जून को सुबह ११ बजे परिकल्पना पर, तबतक के लिए शुभ विदा....! 

समय कहता है -






मैं समय हूँ , कहीं और जाऊँ इस उत्सव को छोडकर - ? सूरज ले ही आया हूँ , पंछियों का कलरव है ही हर तरफ ... सब अपने अपने काम में लग ही चुके हैं तो ........................... आइये रश्मि जी मंच से पर्दा हटाइए :

क्या हो रहा है यहाँ ... ये क्या जगह है दोस्तों ? साहित्यिक उत्सव ?
आओ इकबाल आओ - सही कहा था तुमने
'नहीं है ना उम्मीद इकबाल अपनी किश्ते वीरां से
ज़रा नम हो तो यह मिट्टी बड़ी ज़रखेज़ है साकी '
...... साहित्य की उर्वरक धरती में हमने जो बीज लगाए थे , वे उग आए हैं . निराशा की धूल से जो धरती बंजर होने लगी थी ,
वहाँ कई नए चेहरे पनप आए हैं . इन क़दमों को इंतज़ार है आशीष का . ओह्हो , अब समझा तभी आमंत्रित किया है रवीन्द्र जी ने प्राचीन कवियों को ,
अहा - अदभुत दृश्य है . ये है हिंदी साहित्य का आकर्षण , बड़े बूढ़े बच्चे सब खड़े हैं एक हस्ताक्षर के लिए . बैठो बैठो मैं लेता हूँ इनके हस्ताक्षर अपने उन्नत ललाट पर और मैं इन्हें बुलाता हूँ , कुछ पंक्तियाँ तो सुना जाएँ ये आपके बीच ---

हमारे बीच सौंदर्य बिखेरते खड़े हैं कवि सुमित्रानंदन पन्त , उनकी मुस्कान कह रही है -

'बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से
....
यह विदेह प्राणों का बंधन
अंतर्ज्वाला में तपता तन
मुग्ध हृदय सौन्दर्य ज्योति को
दग्ध कामना करता अर्पण
नहीं चाहता जो कुछ भी आदान प्राणों से

बाँध दिए क्यों प्राण प्राणों से
तुमने चिर अनजान प्राणों से'

स्तब्ध है सभा , क्योंकि आ रही हैं महादेवी वर्मा ....

'तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम,
मधुर राग तू मैं स्वर संगम,
तू असीम मैं सीमा का भ्रम,
काया छाया में रहस्यमय।
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या' ........

इमरोज़ की आँखें कुछ बोल उठी हैं , अच्छा तो अब अमृता प्रीतम आ रही हैं -

'मेरी सेज हाजिर है
पर जूते और कमीज की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज है……'

नशा है नशा है ये कैसा नशा है ... कुछ तो हुआ है , वो आ चले बच्चन जी लिए हाथ में मय का प्याला -

'मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'
अदभुत अदभुत ... रसखान भी आ गए और उत्सव कृष्णमय हो उठा है -

'धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥'

महाभारत के सारथी के शब्दों को अपनी कलम में बाँध कवि दिनकर भी आ पहुँचे हैं -

'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।'

रगों में खून की धारा उत्तेजना से भर उठी है , कवि जयशंकर प्रसाद का आह्वान युवाओं को क्या , सबको जगा रहा है -

'असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!'

मौसम गंभीर हो चला है , कोई बुलाओ भाई सरोजनी प्रीतम को ,...... हाँ तो अब आई होंठों पे मुस्कान , संभाला है सरोजनी प्रीतम ने हास्य का कमान -

'उन्होंने विवाह के लिए विज्ञापन दिया यूँ
मृगनयनी हो गजगामिनी
शुकनासिका, मोरनी सी ग्रीवा हो
सुडौल, हंसिनी की आवश्यकता है
मां जी ने पढ़कर बेटी से कहा
‘यह तो सिरफिरा कवि है
या पशु-पक्षियों का डॉक्टर लगता है’...............

----हहाहाहा , मज़ा आ गया , अब और आएगा मज़ा जब मंच पर होंगे काका हाथरसी .... ये रहे काका हाथरसी

'फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸
लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।
कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸
दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।
कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸
मौज कर रहे पुत्र¸ हडि्डयां घिसते फादर।'

आखिर में कवि नीरज अपने अंदाज में सबको एक पैगाम देकर जा रहे हैं -

'आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए।

जो भी कुछ लुटा रहे हो तुम यहाँ
वो ही बस तुम्हारे साथ जाएगा,
जो छुपाके रखा है तिजोरी में
वो तो धन न कोई काम आएगा,
सोने का ये रंग छूट जाना है
हर किसी का संग छूट जाना है
आखिरी सफर के इंतजाम के लिए
जेब भी कफन में इक लगानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए'

रवीन्द्र जी अब दीजिये मुझे भी विदा , और रश्मि जी को भी ... कुछ नई सोच उनके अन्दर करवटें ले रही हैं , हाँ अब वे अपनी कलम ढूंढ रही हैं मुझे पकड़ने के लिए .... फिर मिलूँगा .......


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मगर आप कहीं मत जाइएगा  
क्योंकि मंच पर कार्यक्रम के प्रथम चरण में प्रस्तुत है कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम,यथा :



चाँद के पार यादों का अम्बार , चाँद भी बस सुनता जा रहा है ….


अंतर्राष्ट्रीय :संयुक्त राष्ट्र की राजनीति: अमरीकी साम्राज्यवाद का खेल

     अभी जारी है उत्सव, मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद ......
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रविवार, 26 जून 2011

बहुत कठिन है डगर लोकपाल की !

आज ब्लॉगोत्सव में अवकाश का दिन है,इसलिए चलिए चलते हैं चौबे जी की चौपाल में जहां समसामयिक मुद्दों पर गरमागरम चर्चा  चल रही है :


चौबे जी की चौपाल

बचवा,बहुत कठिन डगर लोकपाल की !

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी बात आगे बढाते हुए बोले चौबे जी, कि आजकल गजबे नाटक चल रहल बाटे हमरे देश मा, कभी सिविल सोसायटी ऊपर तो कभी केंद्र सरकार । अन्ना जी के अनशन करत-करत जिनिगिया बीत जाई राम भरोसे,आउर जबतक जन लोकपाल बिल पारित हो के आई न s तबतक खाली हो जाई ससुरी स्विस बैंक के खातन से हमरे देश क पईसा । फिर कईसे होई जन लोकपाल बिल से क़माल,जब होई जाई मामला ठनठन गोपाल ?

एकदम्म सही कहत हौ चौबे जी, आज़ादी के बखत अगर देश सेवा अऊर जनसेवा राजनीति की पहली अऊर आखिरी सीढ़ी थी त s आज परिभाषा विल्कुल बदल चुकल बाटे । राजनीति क सीधा-सीधा मतलब आजकल ईहे है कि नेता बन,दौलत कमा । जईसे भी आये,जहां से भी आये....भले ही जनता जहन्नुम मा जाए ....। इनके राज भी द ,ताज भी द आऊर वि आई पी बने खातिर सत्ता क साज भी द, मगर जानत हौअ s ....जईसे ही पा जायेंगे सत्ता..... कहते फिरेंगे, कोई फरक नही अलबत्ता .... बोला राम भरोसे ।

अब इस बात पर हम बिना कवनो लाग लपेट के बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है । मगर का करें हम जनता हैं आऊर ऊ जनार्दन, जब दिल कुहुकेगा तो बोलेंगे ही ...न चाहते हुए भी अपना मुंह खोलेंगे ही ...ज़रा सोचो गजोधर भाई जब जनता के हित की बात आती है, तब सदन में इनके अहं टकरा जाते हैं ,हफ़्तों सदन नही चलते, पर जब खुद जनसेवकों की सुविधाएं बढाने की कोई बारी आती है तो एक मिनट मा प्रस्ताव कईसे पास हो जाता है ? कईसे सब चोर-चोर मौसेरे भाई एक हो जाते हैं ? यह काम इन सबके लिए बड़े नेक हो जाते हैं ? है कोई उत्तर इनके पास ? पूछा रमजानी ।

रमजानी मियाँ, हम तोहके बताबत हईं कि ईस्कूल के दिनन में राज आऊर नीति के तहत हमने यह पाठ पढ़ा था कि अगर किसी कौम पर लंबे समय तक राज करना है तो उसे आधा भूखा रखो,आधा नंगा रखो । ऊपर से सिर छिपाने के लिए छत मत दो । वह कौम हमेशा आपके सामने हाथ फैलाए खड़ी रहेगी । हमेशा आपके सामने गिड़गिडाती रहेगी । ई बताओ रमजानी मियाँ , कि नेताओं के लिए जब पीछे जनसेवा रुपी खाई है आऊर आगे लंबी पारी खेलने की ललक ......यानी स्वार्थ आऊर अनैतिकता का एक छोटा सा कुआं पार करना है फिर सबकुछ चकाचक तो ऊ चुनेगा जनता की सेवा या फिर भ्रष्टाचार रुपी मेवा ? का होगा राजा, कलमाडी, कोनिमाझी की तरह कुछ दिन तिहाड़ में बिताकर आयेगा फिर चुना जाएगा फिर मेवा खायेगा .....इसीलिए कहते हैं बबुआ कि बहुत कठिन है जन लोकपाल की डगर ......का समझे ? बोले चौबे जी ।

देखो महाराज, कान पाक गए हमार सुनते-सुनते कि हमरे देश क नेता ई है,नेता ऊ है ...ई बताओ कि भ्रष्टाचार के लिए खाली नेता लोग दोषी हैं का ? हम्म भी उतना ही दोषी हैं चौबे जी । यह अलग बात है कि वे सोचते कुछ और हैं बोलते कुछ और हैं यह तो उनकी फितरत है ....उनके सोचने,उनके बोलने ,उनके करने में उतना ही अंतर है जितना धरती और आसमान ....ये मा कवन नया है महाराज, ई तो परंपरा में है हमरे देश की ....अब कहोगे नेता सच्ची कहानियों पर झूठी नौटंकी करते हैं , अरे क्यों न करें आखिर इसी नौटंकी के कारण तो हम-आप इनके सामने पानी भरते हैं । अब आप कहोगे महाराज कि गोट बिठाओ-वोट पाओ -नोट कमाओ की सोच ने उनकी नियत में खोट भर दिया ,ज़रा सोचो वे ऐसा नही करते तो देश में ईमानदार और बेईमान के बीच खाई ज्यों की त्यों रहती ? अगर उनकी कथनी और करनी एक होती तो क्या गरीब घरों की महिलाएं राजनीति के लिए अछूत बनी रहती ? अगर नेताओं से हम सबको इतनी ही घृणा है तो चुनाव के बखत जब ऊ नारा लगाते हैं कि- तुम बनाबाओ हमारी सरकार, हम दिलाएंगे तुम्हारे अधिकार । तब उनको जबाब क्यों नही देते ? बताईये चौबे जी महाराज ,है कोई जबाब आपके पास ? तमतमाते हुए पूछा गजोधर ।


भाई, गजोधर क बात मा दम्म है , हमके त s तरस आवत है जे मीठा-मीठा बोल के हमरे देश की तस्वीर बदले के सपना देखत हैं । के कहत हैं कि देश मा शान्ति चाही, देश क विकास चाहीं , रोटी -कपड़ा आऊर मकान चाहीं, रोजगार चाहीं ....अरे सत्यानाश हो तेरा गलती खुद करते हो आऊर दोष नेताओं को देते हो, जब तुलसीदास जी तक कह चुके हैं कि समरथ के नाही दोष गोसाईं , तब क्यों आ रही है हमरे देश की जनता को भ्रष्टाचार का नाम सुनकर उबकाई ? बताओ महाराज, अगर जनता को शान्ति की चिंता होती तो क्या वो गुंडे-बदमाशों-कातिलों को नेता बनाती ? यदि उसे रोटी-कपड़ा आऊर मकान की चिंता होती तो तो क्या वो दिन-रात झूठ बोलने वालों को नेता बनाती ? अगर उसे रोजगार की चिंता होती तो क्या वो अपना घर भरने वालों को नेता बनाती ? जैसी जनता-वैसा नेता । जनता अगर इस हाल में खुश है तो फिर वेचारे नेताओं को दोषी ठहराने से क्या फ़ायदा महाराज ? बोला गुलटेनवा ।

तू तो हमरी आँख खोल दिए हो गुलटेन...विल्कुल सच कह रहे हो बबुआ ,कि जवन देश मा हर कोई अपनी मर्जी का मालिक हो, ऊ देश के बदनाम होए से कवन रोक सकत है ? जवन देश मा जनता छोटे-छोटे सत्तर खानों में बंटी हो, ऊ देश क बर्बाद होए से कवन बचा सकत है ? जवन देश मा नेता कपड़ा के निचवे वार करत हैं ऊ देश मा नयी दिशा देवे खातिर के आई आगे ? जवन देश मा नाही रहा क़ानून का राज, ऊ देश की जनता कईसे सुरक्षित रह सकत हैं ? जवन देश मा गुंडा घुमे सफेदपोश बनके, ऊ देश मा अमन की गूँज कईसे हो सकत हैं ? जवन देश मा बच्चा लोग स्कूल जाए से डरत हैं ऊ देश क भविष्य कईसे वेहतर हो सकत हैं ? जवन देश मा सत्याग्रह पर लोग आपाधापी मचाये देत हैं ऊ देश मा भरोसे की बात कईसे कएल जा सकत हैं ? अंधेर नगरी चौपट राजा, टेक सेर भाजी टेक सेर खाजा, हमके भी बुझात है गुलटेन कि बहुत कठिन है डगर लोकपाल की । इसका एक ही उपाय है बचवा ?

का महाराज ?

इहे कि जब तक जनता संगठित होके आन्दोलन ना करी तबतक ऊहे ढ़ाक के तीन पात .....।

इतना कहकर चौबे जी ने चौपाल अगले आदेश तक के लिए स्थगित कर दिया ।

रवीन्द्र प्रभात

शनिवार, 25 जून 2011

जूता विमर्श के बहाने : पुरुष चिन्तन


मैं समय हूँ , आज कनाडा से ले आया हूँ सबकी आँख बचाकर समीर जी को और श्श्श्शश्श - किसी से ना कहना , उनकी पत्नी के साथ जो आज हैं अपनी मैचिंग चप्पल के साथ इस उत्सव की शान , मेरी ख़ास मेहमान !!!

दिल है कि मानता नहीं
और उन्हें डरने के सिवा कुछ सूझता नहीं
शौक बैठा है एडीवाले चप्पल की गोद में
अब क्या है कसूर इसमें श्रीमती जी का
जो श्रीमान के पास दो जोड़ी जूते से अधिक नहीं ...... रश्मि प्रभा



जूता विमर्श के बहाने : पुरुष चिन्तन


आज बरसों गुजर गये. हजारों बार पत्नी के साथ चप्पलों की दुकान पर सिर्फ इसलिए गया हूँ कि उसे एक कमफर्टेबल चप्पल चाहिये रोजमर्रा के काम पर जाने के लिए और हर बार चप्पल खरीदी भी गई किन्तु उसे याने कमफर्टेबल वाली को छोड़ बाकी कोई सी और क्यूँकि वह कमफर्टेबल वाली मिली ही नहीं.
अब दुकान तक गये थे और दूसरी फेशानेबल वाली दिख गई नीली साड़ी के साथ मैच वाली तो कैसे छोड़ दें? कितना ढ़ूँढा था इसे और आज जाकर दिखी तो छोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता.
हर बार कोई ऐसी चप्पल उसे जरुर मिल जाती है जिसे उसने कितना ढूंढा था लेकिन अब जाकर मिली.
सब मिली लेकिन एक आरामदायक चप्पल की शाश्वत खोज जारी है. उसे न मिलना था और न मिली. सोचता हूँ अगर उसे कभी वो चप्पल मिल जाये तो एक दर्जन दिलवा दूँगा. जिन्दगी भर का झंझट हटे.
उसकी इसी आदत के चलते चप्पल की दुकान दिखते ही मेरी हृदय की गति बढ़ जाती है. कोशिश करता हूँ कि उसे किसी और बात में फांसे दुकान से आगे निकल जायें और उसे वो दिखाई न दे. लेकिन चप्पल की दुकान तो चप्पल की दुकान न हुई, हलवाई की दुकान हो गई कि तलते पकवान अपने आप आपको मंत्रमुग्ध सा खींच लेते हैं. कितना भी बात में लगाये रहो मगर चप्पल की दुकान मिस नहीं होती.
ऐसी ही किसी चप्पल दुकान यात्रा के दौरान, जब वो कम्फर्टेबल चप्पल की तलाश में थीं, तो एकाएक उनकी नजर कांच जड़ित ऊँची एड़ी, एड़ी तो क्या कहें- डंडी कहना ही उचित होगा, पर पड़ गई.
अरे, यही तो मैं खोज रही थी. वो सफेद सूट के लिए इतने दिनों से खोज रही थी, आज जाकर मिली.
मैने अपनी भरसक समझ से इनको समझाने की कोशिश की कि यह चप्पल पहन कर तो चार कदम भी न चल पाओगी.
बस, कहना काफी था और ऐसी झटकार मिली कि हम तब से चुप ही हैं आज तक.
’आप तो कुछ समझते ही नहीं. यह चप्पल चलने वाली नहीं हैं. यह पार्टी में पहनने के लिए हैं उस सफेद सूट के साथ. एकदम मैचिंग.
पहली बार जाना कि चलने वाली चप्पल के अलावा भी पार्टी में पहनने वाली चप्पल अलग से आती है.
pencil hill
हमारे पास तो टोटल दो जोड़ी जूते हैं. एक पुराना वाला रोज पहनने का और एक थोड़ा नया, पार्टी में पहनने का. जब पुराना फट जायेगा तो ये थोड़ा नया वाला उसकी जगह ले लेगा और पार्टी के लिए फिर नया आयेगा. बस, इतनी सी जूताई दुनिया से परिचय है.
यही हालात उनके पर्सों के साथ है. सामान रखने वाला अलग और पार्टी वाले मैचिंग के अलग. उसमें सामान नहीं रखा जाता, बस हाथ में पकड़ा जाता है मैचिंग बैठा कर.
सामान वाले दो पर्स और पार्टी में जाने के लिए मैचिंग वाले बीस.
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इनको क्या पहले खरीदना चाहिये-पार्टी ड्रेस फिर मैचिंग चप्पल और फिर पर्स या चप्पल, फिर मैचिंग ड्रेस फिर पर्स या या...लेकिन आजतक एक चप्पल को दो ड्रेस के साथ मैच होते नहीं देखा और नही पर्स को.
गनीमत है कि फैशन अभी वो नहीं आया है जब पार्टी के लिए मैचिंग वाला हसबैण्ड अलग से हो.
तब तो हम घर में बरतन मांजते ही नजर आते.
घर वाला एक आरामदायक हसबैण्ड और पार्टी वाले मैचिंग के बीस.
गम भरे प्यालों में,
दिखती है उसी की बन्दगी,
मौत ऐसी मिल सके 
जैसी कि उसकी जिन्दगी.

-समीर लाल ’समीर’
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आइये अब नज़र डालते हैं आज के कार्यक्रमों पर :

साक्षात्कार : मीनाक्षी धनवंतरी से,कह रही हैं : ब्लॉगिंग से जुड़ना एक खुबसूरत एहसास रहा 



छत्तीसगढ़ी साहित्य व जातीय सहिष्णुता के पित्र पुरूष : पं. सुन्दर लाल शर्मा पर संजीव तिवारी का आलेख 


कहे कबीर में आज : कबीर का युग तो गयो भाई,अब इस युग की बात करू न कोई 

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ब्लॉगोत्सव में कल यानी रविवार का दिन अवकाश का दिन होगा, आप कार्यक्रमों का आनंद लें हम मिलते हैं परसों फिर इसी जगह सुबह ११ बजे ....तबतक के लिए शुभ विदा !      
 
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