सोमवार, 27 जून 2011

दहशत....!





दहशत
(लघु कथा)

उनका नाम हंसमुख था,पर चेहरे पर हंसी का का नामो निशान नहीं होता था | मेरे साथ कॉलेज में व्याख्याता थे हिंदी पढ़ाते थे .कक्षा में पढ़ाना,स्टाफ रूम में कोने में चुपचाप बैठ जाना ,किसी से बात नहीं करना,किसी चर्चा में शामिल नहीं होना,उनकी आदत में शुमार था | कोई नमस्ते करता तो मुंह से एक शब्द भी बोले बिना हाथ जोड़ कर उत्तर दे देते |

काम होता तो केवल जितनी आवश्यक होती,उतनी ही बात करते थे |

प्रारम्भ में समस्त व्याख्याताओं को उनका व्यवहार काफी अटपटा लगता था| निरंतर,चर्चा का विषय होता था,पर धीरे धीरे सब उसके अभ्यस्त हो गए |उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है,समझ कर ध्यान देना बंद कर दिया,वास्तव में सब अब सब उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखने लगे |क्योंकि,ना वो किसी से ऊंचे स्वर में बात करते थे,ना किसी के बारे में कुछ कहते थे ,ना किसी के लिए कोई व्यवधान पैदा करते थे|सबसे एक जैसा व्यवहार करते थे|

उनके बारे में और कुछ पता नहीं चला,कहाँ के रहने वाले थे ? परिवार में कौन कौन थे ?विवाहित थे या अविवाहित थे ?,एक आध साथी ने जानने का प्रयत्न भी किया तो उन्होंने उत्तर नहीं दिया,उसके बाद सबने इस बारे में सोचना और पूंछना बंद कर दिया |

फिर एक दिन अचानक बिना सूचना के और छुट्टी लिए वे कॉलेज नहीं आये ,चार पांच दिन हो गए,कोई समाचार भी नहीं था |सब चिंता करने लगे,क्या हुआ? दस दिन हो गए किसी को पता नहीं चला ,जो मिलता केवल उनके बारे में पूंछता ,प्रिंसिपल साहब से पूंछा तो उन्होंने बताया कानपुर के रहने वाले थे,किसी तरह घर के पते पर संपर्क किया ,पता चला वर्षों पहले मकान खाली कर दिया था,अब किसी को नहीं पता कहाँ गए ?

बहुत प्रयत्नों के बाद किसी ने बताया ,कि स्टेशन के पास किसी कॉलोनी में उनको कई बार देखा गया था | चार-पांच व्याख्याता मिल कर उस कॉलोनी में गए,लोगों को उनका हुलिया बताया,तब जा कर हंसमुख जी के घर का पता चला,घंटी बजायी,किसी ने थोड़ी सी खिड़की खोली, झिरी में से देखा,फिर खिड़की को बंद कर दिया |

पांच-सात मिनिट बाद दरवाज़ा खुला,देखा तो हंसमुख जी साक्षात सामने खड़े थे,बहुत कमज़ोर दिख रहे थे |अपने साथी व्याख्याताओं को एक साथ देख कर सकपकाए , कुछ कहते उस से पहले ही ,उनको देखते ही सबने उनपर प्रश्नों की बौछार कर दी ,कहाँ रहे ?,क्या हुआ ? सब ठीक तो है ? इतला क्यों नहीं करी ? हंस मुख जी पहले तो आदतन चुप रहे पर जब सबने जिद पकड़ ली, कि जब तक वास्तविकता नहीं बताएँगे तब तक हम लोग वहाँ से नहीं हिलेंगे |थोड़े देर सोचने के बाद ,झिझकते हुए वे बोले,आज मैं पहली बार अपनी कहानी बता रहा हूँ ,आशा है आप सब इसे अपने तक ही रखेंगे किसी और को नहीं बताएँगे |

फिर उन्होंने कहना आरम्भ किया "बात उन दिनों की है जब मैं कानपुर में कॉलेज में पढता था,स्वतंत्रता संग्राम पूरे जोरों पर था,कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन था ,मुझे भी जोश आया, मैंने सोचा,गांधी,नेहरु,सुभाष और पटेल जैसे नेताओं को साक्षात देखने का इससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिलेगा |

पिता थे नहीं,सो माँ से,दोस्त के गाँव जाने का बहाना कर दस रूपये लिए,दो चार कपडे झोले में डाले,कंधे पर झोला लटकाया ,टिकट ले कर कलकत्ता की गाडी में बैठ गया | एक सूटेड-बूटेड,सर पर हैट लगाए,लंबा-चौड़ा मज़बूत कद काठी का व्यक्ति,पहले से ही डब्बे में, सामने वाली सीट पर बैठा था,देखने में काफी अमीर लगता था |गाडी चली ,थोड़े देर बाद वह वो मुझ से बड़ी शालीनता से बातें करने लगा ,उसने बताया वो कलकत्ता का रहने वाला था व्यापार के सिलसिले में कानपुर आया था, अब लौट कर वापस कलकत्ता जा रहा था, मुझे रहने खाने की दिक्कत नहीं आयेगी,वो सारी व्यवस्था कर देगा ,मैं उसकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ

मन में सोचने लगा, कितना सभ्य और शालीन आदमी है| खैर बातें करते करते इलाहाबाद स्टेशन आया,तो वह मुझ से बोला "तुम सामान की देखभाल करो मैं खाने के लिए कुछ लेकर आता हूँ ,मैंने हाँ में गर्दन हिलायी,बहुत देर हो गयी गाडी चलने लगी पर उसका पता नहीं था ,मैं चिंता में डूब गया,बार बार बाहर प्लेट फॉर्म पर देखने लगा पर वो वापस नहीं आया | सीट के नीचे देखा,एक काले रंग का बड़ा फौजी इस्तेमाल करते हैं वैसा बक्सा पडा था,मुगलसराय स्टेशन पर मैं नीचे उतरा ,सीधा स्टेशन मास्टर के कमरे में जा कर उन्हें बताया, किसी यात्री का बक्सा गाडी में छूट गया है उसको सम्हाल ले ,स्टेशन मास्टर एक कुली को साथ ले कर आये ,सीट के नीचे से बक्से को निकलवाने की कोशिश करने लगे ,बक्सा बहुत भारी था ,एक और कुली को बुलवाया गया,दोनों ने मिल कर बक्सा स्टेशन मास्टर के कमरे में रखा ,साथ ही उन्होंने पुलिस को बुलवाया ,पुलिस दरोगाजी आये ,बक्से का वज़न देख कर उन्हें कुछ शक हुआ ,उन्होंने उसका ताला तुडवाया |

ढक्कन खोलते ही बोरी में लिपटी दो जवान लड़कियों की कटी पिटी लाशें नज़र आयी |मुझे फ़ौरन हथकड़ी लगा कर हवालात में डाल दिया ,मैं रोता रहा,चिल्लाता रहा पर किसी ने एक ना सुनी,बस एक ही बात पूंछते रहे ,क्यों मारा ? कब मारा ? सच क्यों नहीं बोलते ? मुझे बहुत प्रताड़ित करा गया,मारा पीटा गया,मैं कहता रहा ,निर्दोष हूँ पर कोई सुनने के लिए तैयार ना था |

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था ,सर झुका कर एक कौने मैं बैठ गया,भगवान् से प्रार्थना करता रहा |

किसी तरह दिन बीता, रात का समय हुआ,करीब बारह बजे एक बुजुर्ग सिपाही जो ड्यूटी पर था, मेरे पास आया ,मुझे कोने में ले गया और धीरे से कहा ,देखो मेरा मन और अनुभव कहता है ,तुम निर्दोष हो ,अब ऐसा करो दस मिनिट बाद कानपुर जाने वाली गाडी आने वाली है, तुम उसमें बैठ कर भाग जाओ ,ध्यान रखना गाडी के चलते ही मैं सीटी बजाऊंगा ,और सब से कहूंगा कि तुम हवालात का ताला तोड़ कर भाग गए हो ,तुम्हें ढूँढने के लिए पुलिस पार्टी अलग अलग शहरों में और स्टेशन पर जायेंगी,किसी तरह अपने को बचाना ,हाथ मत आना,अगर पकडे गए तो समझो तुम्हारी खैर नहीं ,बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता ,भगवान् से तुम्हारे लिए प्रार्थना ज़रूर करूंगा |

इतना सुनते ही मैंने दौड़ लगाई ,तब तक गाडी आ गयी थी ,गाडी के संडास में छुप कर बैठ गया ,गाडी चली तो मन में तसल्ली हुयी ,

दो घंटे बाद इलाहाबाद आया , मैंने सोचा, रेलगाड़ी में शायद पुलिस मुझे आसानी से पकड़ सकती है, क्यों ना ,गाडी से उतर कर बस से कानपुर चले जाऊं ,ज्यादा आसान रहेगा , पकडे जाने का अवसर भी कम हो जाएगा |
मैं प्लेट फॉर्म पर उतर कपड़ों से मुंह को ढक कर बाहर की तरफ जाने ही वाला था ,कि देखा तो मेरे सामने वही व्यक्ति खडा था| मुझे देखते ही वो मेरी तरफ लपका,मैं भाग कर फिर चलती गाडी में बैठ गया,वो कोशिश करने पर भी नीचे ही रह गया| किसी तरह मैं घर पहुंचा ,तबियत ठीक नहीं होने का बहाना कर कई दिन घर में ही दुबका रहा, माँ रोज़ पूंछती थी, क्या हुआ ? पर कुछ ना कुछ बहाना कर टालता रहा |मन में एक दहशत ने घर कर लिया था | किसी व्यक्ति से बात करने से भी डर लगने लगा ,बहुत मुश्किलों से मैंने पढायी पूरी करी , फिर कॉलेज में नौकरी मिल गयी |किसी भी अनजान व्यक्ति से मिलने में डर लगता है,

एक दहशत होती है ,किसी पर विश्वाश नहीं होता है |बिना मतलब मीठी बात करने वाले व्यक्तियों से सदा डर लगता है, कहीं फिर मेरे साथ कोई धोखा नहीं कर दे,किसी की बातों में ना फँस जाऊं इस लिए चुपचाप रहता हूँ ,किसी से कोई सरोकार नहीं रखता |तब से आज तक,इंसान के नाम से भी डरता हूँ ,बीमारी में भी ऐसा लगता था कोई दवा की जगह मुझे जहर ना दे दे इसलिए चुपचाप सहता रहा |

आप सब से प्रार्थना है कृपया किसी को मेरी कहानी नहीं बताएं ,नहीं तो फिर कोई मेरी कमजोरी का फायदा उठा कर मुझे किसी घटना में ना फंसा दे|

किसी से कोई उत्तर देते नहीं बना ,फिर थोड़ा सोचने के बाद सबके मुंह से एक साथ निकला हंसमुख जी सब इकसार नहीं होते, दहशत में आप भूल गए आपको बुजुर्ग सिपाही भी मिला था ,जिसने आपको बचाया था |
यह सुनते ही हंसमुख जी पहली बार, खुद आगे हो कर बोले ,मित्रों आप ठीक कहते हो ,दहशत में मुझे कभी इस बात का ख्याल नहीं आया |

अब दहशत को कम करने की कोशिश करूंगा और हर इंसान को शक की दृष्टि से नहीं देखूंगा ,आप सब मेरा इतना ख्याल करते हैं , इसका कभी ध्यान भी ना था ,कहते,कहते उनकी आँखों से आसूं बहने लगे |
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डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"





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अब आइये ब्लॉगोत्सव के आगे के अन्य कार्यक्रमों से मैं आपको रूबरू करा दूं :






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कल ब्लॉगोत्सव में अवकाश का दिन है , हम फिर आपसे रूबरू होंगे परसों यानी २९ जून को सुबह ११ बजे परिकल्पना पर, तबतक के लिए शुभ विदा....! 

14 comments:

  1. परिकल्पना ब्लॉगोत्सव का रंग प्रतिदिन निखरता जा रहा है!

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  2. बहुत बढ़िया....
    सब एक जैसे नहीं होते....वर्ना यह संसार नष्ट हो चुका होता

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  3. एक बेहतर लघुकथा, बार-बार पढ़ने को जी चाह रहा है !

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  4. डा. रूप चन्द्र शास्त्री जी से सहमत हूँ, हर तरफ गूँज है परिकल्पना की !

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  5. परिकल्‍पना को बधाई के साथ शुभकामनाएं !

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  6. समय के सच को नया आयाम देती हुयी आवाज़ यानी परिकल्पना ब्लॉगोत्सव की आवाज़ !

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  7. बहुत बढ़िया,बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आभार !

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  8. बेहतरीन प्रस्‍तुति ...आभार ।

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  9. दहशत .... कथा अच्छी लगी ...पुलिस का यही रवैया किसी को भी मदद करने से रोकता है ..बिना सच्चाई पता लगाये निर्दोष को ही फंसा दिया जाता है

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  10. इस आकार की लघु कथा पहले कभी नहीं पढ़ी थी.

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  11. वृत्तांत/संस्मरण अथवा घटना प्रधान कथा बेहद ही संवेदनशील मनोदशा और मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को दर्शा रही है जो वाकई प्रभावित करने वाली है. परन्तु क्षमा चाहूँगा कि इसे लघुकथा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता..!
    सम्मानीय डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" को इस हृदयस्पर्शी लेखन के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ..! परिकल्पना की समस्त टीम को मैं ह्रदय से नमन करता हूँ..! ये मेरे लिए एक पवित्र गुरुकुल के समान है जहां से मैं बहुत कुछ अर्जित करता हूँ..! आभार !!

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  12. लघु कथा पढ़ कर एक अजीब सी दशहत इधर भी दिल और दिमाग पर छा गई...

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  13. दहशत.... एक अच्छी कथा है... रूचि बनाए रखने में सक्षम.... सादर आभार....

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