
है बहुत मुश्किल भरी  जिंदगी की राहें,
और कहीं दोस्त मेरे, ढूंढ़ लें मंज़िल नया 
इस राह पे हैं सिर्फ घने तीरगी के बाहें ,
इस सराबे (मरीचिका )ख़ुशी का सऊर (चाहत) न दिला कि
खोजतीं हैं मुझको फिर मतीर (भीगी)निगाहें 
------ वाह निकला है हर दिल से , सुना मैंने - तभी तो 
लाया हूँ शांतनु सान्याल को साथ अपने 
ख़ुदा हाफिज़
सलीब तो उठाली है,
ज़िन्दगी न जाने और क्या चाहे 
मुझे बिंधते हैं वो तीर व् भालों से 
बेअसर हैं तमाम सज़ाएँ ,
मैं बहुत पहले दर्द को निज़ात दे चुका, 
पत्थर से मिलो ज़रूर 
मगर फ़ासला रखा करो, 
न जाने किस मोड़ पे क़दम  डगमगा जाएँ,
वो ख़्वाबों की बस्तियां उठ गईं 
मुद्दतों पहले,
हीरों के  खदान हैं ख़ाली, 
सौदागर लौट चुके ज़माना हुआ 
दूर तलक है मुसलसल  ख़ामोशी 
बारिश ने भर दिए वो तमाम खदानों को 
वक़्त ने ढक दिए, धूल व् रेत से 
वो टूटे बिखरे मकानात, 
कहाँ है तुम्हारा वो गुलाबी रुमाल, 
फूल व् बेल बूटों से कढ़ा हुआ मेरा नाम ,
कभी मिले ग़र तो लौटा जाना 
आज भी हम खड़े हैं वहीँ, 
जहाँ  पे तुमने ख़ुदा हाफिज़ कहा था इकदिन, 
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खुद से बाहर कभी,यूँ निकल ही न सके
ये  ख़याल कि छूट न जाएँ हम कहीं दुनिया की  भीड़ में
खुद से बाहर कभी,यूँ  निकल ही न सके /
आधी रात किसी ने दी है, कांपती हाथों से दस्तक
सांसों की तपिश, हम पिघल ही न सके /
वो जो कहते हैं, हमसे बेशुमार मुहोब्बत हैं उनको
बारहा चाहा, सांचे में कभी ढल ही न सके /
धनक ने तो बिखेरी हैं रंग ओ नूर उम्र भर ऐ दोस्त
बेमुराद दिल है कि हम मचल ही न सके /
उनकी आहट में भी ख़ुशबू ऐ चमन होता है अक्सर
संदल की तरह मंदिर में बहल ही न सके /
धूप दीप तुलसी शंख की आवाज़े हमें बुलाये हर बार
न जाने क्या नमी है चाह कर जल ही न सके  /
सुलगती  हैं धीमी धीमी लौ से कोई आग सीने में
सारी नदी  है आगे, इक बूंद भी निगल न सके/
बिल्लोरी बदन ले के जाएँ  कहाँ पत्थर के शहर में
ख़ूबसूरत ख्वाबों से,खुद को बदल ही न सके/
खुद से बाहर कभी,यूँ  निकल ही न सके/
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नज़्म- ख़्वाब, एक अजनबी की तस्वीर और कुछ टूटे प्याले
ख़्वाब, एक अजनबी की तस्वीर और कुछ टूटे प्याले
मैंने रखे हैं  संभाले, किसी मिल्कियत की तरह 
सहम से जाये है ज़िगर जब अल्बम को छुए  कोई,
ज़िल्द की खूबसूरती इतनी की लोग समझे
पुराने पन्नों में है ज़िन्दगी के आबसार निहाँ,
न पलटों मेरी जाँ, परतों को इस बेदर्दी से कि
भूले लम्हात को समेटना हो मुश्किल, बड़े ही जतन
से परत दर परत हमने किसी की निशानी
सुलगते सीने के तहत दबाये रखा है,
ढलती दुपहरी दौड़तीं है नाज़ुक धूप की जानिब
तितलियाँ उडी  जा रहीं हों जैसे दूर तलक
उदास हैं किसी बच्चे की मासूम आँखें,
तकता है वो खुली हथेलियों को कभी
और कभी देखता है ख्वाबों को धूमिल होते,-
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नज़्म
वो कौन है जो ज़िन्दगी भर साथ रहा
ख़ुशी ओ ग़म का मेरा हमराज़ रहा
वो तमाम ख़त यूँ तो जला दिए मैंने
न भूल पायें वो लरज़ता साज़ रहा
कोई पुराना ढहता महल था शायद
कभी कराह कभी मीठी आवाज़ रहा
रुख़ मेरा अब परछाई नज़र आये
वो कभी ख़्वाब, हसीं परवाज़ रहा
उसे भूल जाने का क़दीम अहद
तोड़ा न गया वो कल भी आज रहा /
---- शांतनु सान्याल
शांतनु सान्याल की अभिव्यक्तियों के साथ आईये चलते हैं कार्यक्रम के दूसरे चरण में :
द्वितीय चरण का कार्यक्रम :

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स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि हिन्दी ब्लॉग जगत में विगत वर्षों में बहुत अच्छी तरक्की हुई है।...

सृजन का सुख अकथनीय होता है
चेतना स्वयं में एक ब्रह्मांडीय तत्व है,मन के सारे तारों को बेधने के बाद उसके अस्तित्व की झलक...
इसी के साथ मुझे इजाजत दीजिये,  कल ब्लॉगोत्सव में अवकाश का दिन है ....हम फिर मिलेंगे परसों यानी ८ जुलाई को सुबह ११ बजे परिकल्पना पर, तब तक के लिए शुभ विदा !
 


 
 
वो कौन है जो ज़िन्दगी भर साथ रहा
जवाब देंहटाएंख़ुशी ओ ग़म का मेरा हमराज़ रहा
वो तमाम ख़त यूँ तो जला दिए मैंने
न भूल पायें वो लरज़ता साज़ रहा
बहुत ही बढि़या ...।
बहुत सुन्दर संकलन है आज का।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति....!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर,बहुत बढि़या !
जवाब देंहटाएंबढ़िया संकलन.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...!
जवाब देंहटाएंअच्छी रचनाएँ ...आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढि़या !
जवाब देंहटाएं"कोई पुराना ढहता महल था शायद
जवाब देंहटाएंकभी कराह कभी मीठी आवाज़ रहा"
शांतनु जी की सभी रचनाएं बड़ी अच्छी लगीं...
उन्हें बधाई...
सादर...
सभी रचनाएँ भावपूर्ण...
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