रविवार, 30 सितंबर 2012

रिटायर होने पर



उस दिन जब हम  होकर के तैयार

ऑफिस जाने वाले थे यार
बीबी को आवाज़ लगाई,
अभी तलक नहीं बना है खाना
हमको है ऑफिस जाना
तो बीबीजी बोली मुस्काकर
श्रीमानजी,अब आपको दिन भर,
रहना है घर पर
क्योंकि आप हो गए है रिटायर
सारा दिन घर पर ही काटना है
और मेरा दिमाग चाटना है
एसा ही होता है अक्सर
रिटायर होने पर
आदमी का जीना हो जाता है दुष्कर
दिन भर बैठ कर निठल्ला
आदमी पड़ जाता है इकल्ला
याद आते है वो दिन,
 जब मिया फाख्ता मारा करते थे
अपने मातहतों पर,
ऑफिस में रोब झाडा करते थे
यस सर ,यस सर का टोनिक पीने की,
जब आदत पड़ जाती है
तो दिन भर बीबीजी के आदेश सुनते सुनते,
हालत बिगड़ जाती है
सुबह जल्दी उठ जाया करो
रोज घूमने जाया करो
डेयरी से दूध ले आया करो
घर के कामो में थोडा हाथ बंटाया करो
बीते दिन याद आते है जब,
हर जगह वी आई पी ट्रीटमेंट था मिलता
आजकल कोई पूछता ही नहीं,
यही मन को है खलता
पर क्या करें,
उम्र के आगे किसी का बस नहीं है चलता
वक़्त काटना हो गया दूभर है
हम हो गए रिटायर है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

नेता और शायर-कभी नहीं होते रिटायर



एक नेताजी,जो है अस्सी के उस पार

आज कल चल रहे है थोड़े बीमार
पर जब कोई उदघाटन करने बुलाये
या टी.वी.पर किसी मुद्दे पर चर्चा करवाए
हरदम रहते है तैयार
सुबह मंगवाते है ढेर सारे अखबार
और उन्हें खंगालते जाते है
अपने बारे में कोई खबर न छपने पर,
उदास हो जाते है
ये ही उनकी बीमारी की जड़ है सारी
और उन्हें नींद ना आने की हो गयी है बीमारी
उनका बेटा
जो उनकी मेहरबानी से,
मिनिस्टर है बना बैठा
क्योंकि राजनीती,आजकल बन गयी है,
पुश्तैनी ठेका
उसने डाक्टर  को बुलवाया
और अपने पिताजी को दिखलाया
डाक्टर ने काफी जांच पड़ताल  के बाद
उनके बेटे को बताया उनकी बिमारी का इलाज
कि आप किसी टी.वी.चेनल में हर रात
बुक करवालो,एक पांच मिनिट का स्लाट
और एक टी.वी.प्रोग्राम बनवाओ
जैसे'नेताजी के बोल-अनुभवों का घोल'
और उसे रोज रात प्रसारित करवाओ
और नेताजी को भी दिखलाओ
जब टी.वी. पर नेताजी को रोज अपनी ,
शकल नज़र आ जायेगी
उन्हें रात को अच्छी नींद आएगी
इनकी बिमारी का ये ही इलाज है
आजकल नेताजी को खूब नींद आती है,
डाक्टर का ये नुस्खा,रहा कामयाब है
कहते है नेता और शायर
कभी नहीं होते रिटायर
एक बुजुर्ग से शायर,जब कभी,
किसी मुशायरे में बुलाये जाते है
तो गरारे करते है,बाल रंगवाते है
पुरानी शेरवानी  पर ,प्रेस करवाते है
और फिर मुशायरे में अपनी ग़ज़ल सुनाते है
वाह वाह और इरशाद
का नशा,मुशायरे के बाद
आठ दस दिनों तक रहता है कायम
और इस बीच,दो तीन गज़लें,
ले लेती है जनम
ये सच शाश्वत है
जिसको पड़ जाती,तारीफ़ कि आदत है
बिना तारीफ़ से रह नहीं पाता है
और बुढ़ापे में बड़ा दुःख पाता है
नेताजी कि जुबान,तक़रीर के लिए तडफाती है
शायर को सपनो में भी,वाह वाह सुनाती है
 बूढीयाओं   को जवानी कि याद आती है
पुलिस वालों कि हथेली खुजलाती है
कुछ नहीं होने पर दिल टूटता है
ये नशा बड़ी मुश्किल से छूटता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 


 

शनिवार, 29 सितंबर 2012

याद रखे दुनिया ,तुम एसा कुछ कर जाओ



तुम्हारा चेहरा ,मोहरा और ये आकर्षण
सुन्दर सजे धजे से कपडे या आभूषण
रौबीला व्यक्तित्व,शान शौकत तुम्हारी
धन ,साधन और ये दौलत सारी की सारी
ये गाडी ,ये बंगला और ये रूपया ,पैसा
रह जाएगा पड़ा यूं ही,वैसा का वैसा
साथ निभाने वाला कुछ भी नहीं पाओगे
खाली हाथ आये थे,खाली हाथ  जाओगे
नहीं रख सकोगे तुम ये सब,संग संभाल कर
एक दिन बन तस्वीर ,जाओगे टंग दीवाल पर
तुमने क्या ये कभी शांति से बैठ विचारा
तुम क्या हो और कब तक है अस्तित्व  तुम्हारा
झूंठी शान और शौकत पर मत इतराओ
याद रखे दुनिया, तुम एसा कुछ कर जाओ
मोह और माया के बंधन से आकर बाहर
अपनी कोई अमिट छाप छोडो  धरती पर
तुम्हारी भलमनसाहत और काम तुम्हारा
मरने पर भी अमर रखेगी,नाम तुम्हारा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

कागा-बढ़भागा



कौवा ,एक बुद्धिमान प्राणी है
बात ये जानी मानी है
हम सबने उस कौवे की कथा तो है पढ़ी
जिसको लग रही थी प्यास बड़ी
उसे एक छत पर
एक मटकी आई नज़र
जिसकी तली में थोडा पानी था
पर कौवा तो ज्ञानी था
वो चुन चुन कर,लाया कंकर
और मटकी में डालता गया,
और जब पानी का स्तर
उसकी चोंच की पहुँच तक आया
उसने अपनी प्यास को बुझाया
प्राचीन ग्रंथो में भी,
काग के गुण गाये जाते है
काग जैसी चेष्ठा को,विद्यार्थी के,
पांच लक्षणों में से एक बताते है
कहते है कौवा एकाक्षी होता है
सबको एक नज़र  से देखने वाला पक्षी होता है
कोयल ओर कागा,दोनों हमजाति है
फर्क केवल इतना है,
 कौवा कांव कांव करता है
और कोयल कूहू कूहू गाती है
पर कौवा परोपकारी जीव है,
जाति धर्म निभाना जानता है
कोयल के अण्डों को अपना मान कर पालता है
कौवा  प्रतीक  है,हमारे पुरखों का
और ये चलन है कई बरसों का
कि जब हम श्राद्ध पक्ष मनाते है,
तो सबसे पहले कौवे को खाना खिलाते है
एक पुराना  मुहावरा है,
'कौवा चला हंस कि चाल'
पर आजकल है उल्टा हाल,
हंस जैसे सफेदपोश नेता,
कौवे कि चाल चलते है
काजल कि कोठरी से भी,
बिना  दाग निकलते है
कोयले कि दलाली में कमाया हुआ काला धन ,
स्विसबेंकों में जमा करते है
कौवे की कांव कांव,आजकल,
बड़ी पोपुलर दिखाई देती है
विधानसभा हो या संसद,
हड़ताल हो या बंद,
हर जगह बस कांव कांव ही सुनाई देती है
पुराने जमाने में,जब ,मोबाईल नहीं होता था,
विरहन नायिकाएं,बस कौवे के गुण गाती थी
अटरिया पर कौवे की कांव कांव,
उन्हें पियाजी का संदेशा सुनाती थी
और जब पिया के आने का सन्देश मिलता था,
उसकी चोंच को सोने से मढ़ाती थी
ये काग का ही सामर्थ्य था,
कि वो कृष्ण कन्हैया के हाथों से,
माखन रोटी छीन सकता था
सीता माता के चरणों  में चोंच मार सकता था
वो काकभुशंडी कि तरह,भक्त और  विद्वान् है
कौवा सचमुच महान है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

ज़िंदगी से शिकवा । (गीत)



(GOOGLE)


ज़िंदगी से शिकवा । (गीत)




अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!

गले   लगाई   है   मर्ज़ी   से,   अब  करें  भी  तो  क्या  करें..!


(शिकवा= शिकायत)


अंतरा-१.


मज़ा, ख़ता, सज़ा, क़ज़ा, क्या-क्या  भर  लाई   है  दामन  में..!

ये   तो   बता,  इन   सबों  का  हम,  करें   भी   तो   क्या  करें..!

अय  ज़िंदगी,  तुं   ही   बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


(क़ज़ा=नसीब)


अंतरा-२.


ग़म,  गिला, दम   पीला, कब तक  चलेगा   ये  सिलसिला..!

तंग आ  चुके   इन  नख़रों  से, पर  करें  भी  तो  क्या   करें..!

अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


अंतरा-३.


क्या  पाया, क्या खोया, समझा  जो  मेरा, वही   लुट  गया..!

अब,  तुझ  पर  हम  नाज़,  गर   करें   भी   तो   क्या   करें..!

अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


(नाज़= गर्व)


अंतरा-४.


आना-जाना,   उठना - गिरना,   या  रब,  अब   और   नहीं..!

पर, बड़ी  ज़िद्दी  है  ये,   उसका   करें   भी   तो   क्या   करें..!

अय  ज़िंदगी, तुं  ही  बता, शिकवा  करें  भी  तो  क्या  करें..!


मार्कण्ड दवे । दिनांकः २८-०९-२०१२.

-- 
MARKAND DAVE
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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

छोटा सा काँटा


चलते चलते
ध्यान रखते रखते भी
पैर में चुभ गया
छोटा सा काँटा
चलना रुका नहीं
पर दर्द से हाल बेहाल
करने लगा
 छोटा सा काँटा
बैठ गया पेड़ तले
किसी तरह निकल जाए
छोटा सा काँटा
पैर लहुलुहान हो गया
निकलने का नाम ना लिया
जिद पर अड़ गया
छोटा सा काँटा
थक हार कर लंगडाते हुए
फिर चल पडा सफ़र पर
समझ गया ध्यान
कितना भी रख लो
चुभ सकता है
ज़िन्दगी के सफ़र में
छोटा सा काँटा
रुला सकता है
बिगाड़ सकता है
ज़िन्दगी की चाल
करता सकता हैरान
छोटा सा काँटा
कब चुभेगा
पता नहीं चलता
कर देगा जीना दूभर
छोटा सा काँटा
ज़िन्दगी का सफ़र
 बड़ा अजीब होता है
बता गया
छोटा सा काँटा
755-51-27-09-2012

डा.राजेंद्र तेला"निरंतर"
अपने मन की कोई खिड़की खोल कर तो  देख तू     

अपने मन की कोई खिड़की,खोल कर तो देख तू
प्यार के दो बोल मीठे  , बोल कर तो देख तू
            मिटा दे मायूसियों को, मुदित होकर  मुस्करा
             खोल मन की ग्रंथियों को,हाथ तू आगे  बढ़ा
            सैकड़ों ही हाथ तुझसे ,लिपट कर मिल जायेंगे
             और हजारों फूल जीवन में तेरे खिल जायेंगे
             महकने जीवन लगेगा,खुशबुओं से प्यार की
             जायेंगी मिल ,तुझे खुशियाँ,सभी इस संसार की
अपने जीवन में मधुरता,घोल कर तो देख तू
प्यार के दो बोल मीठे ,  बोल कर तो देख   तू
             धुप सूरज की सुहानी सी लगेगी ,कुनकुनी 
             तन बदन उष्मित करेगी,प्यार से होगी सनी
             और रातों को चंदरमा,प्यार बस बरसायेगा
              मधुर शीतल,चांदनी में,मन तेरा मुस्काएगा
              मंद शीतल हवायें, सहलायेगी तेरा  बदन
              तुझे ये दुनिया लगेगी ,महकता सा एक चमन
घृणा ,कटुता,डाह ,इर्षा,मन के बाहर फेंक  तू
प्यार के दो बोल मीठे ,बोल कर तो  देख तू
              क्यों सिमट कर,दुबक कर,बैठा हुआ तू खोह में
              स्वयं को उलझा रखा है,व्यर्थ  माया मोह में
              कूपमंडूक,कुए से ,बहार निकल कर  देख ले
              लहलहाते सरोवर में ,भी उछल कर   देख ले
              किसी को अपना बना कर,डूब जा तू प्यार में
              सभी कुछ तुझको सुहाना लगेगा संसार  में
उलझनों के सामने मत,यूं ही घुटने टेक तू
प्यार के दो बोल मीठे, बोल कर तो देख तू 

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

बुधवार, 26 सितंबर 2012

सीख लिया है उसने । (गीत)


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सीख  लिया  है  उसने । (गीत)


नफ़रत  निभाने  का  इल्म, सीख  लिया   है   उसने ।

हमारे   आँसूओं  का  साग़र,  चख  लिया  है   उसने ।


(इल्म=  विद्या; साग़र= पैमाना)


अंतरा-१.


इस  जिगर का  लहू  शायद, कम  पड़ा  होगा, तभी तो..!

इन्तक़ाम  की    आग   को   ही,   पी   लिया  है   उसने..!

नफ़रत    निभाने  का    इल्म,  सीख  लिया  है   उसने ।


अंतरा-२.


दूर तक  उसकी  ख़ुशबू, अब भी  फैलती  होगी, मगर..!

उसे  मरकज़ में  दम  तोड़ना,  सीखा  दिया   है  उसने..!

नफ़रत   निभाने    का   इल्म,  सीख  लिया  है   उसने ।

(मरकज़= बीचों-बीच)


अंतरा-३.


नफ़रति   मज़हब  से  उसे,  ऐसी   मुहब्बत  हुई   कि..!

मुहब्बत  में   रोज़ा -ए- नफ्स, रख   लिया  है   उसने ।

नफ़रत    निभाने   का  इल्म, सीख  लिया  है   उसने ।


(नफ़रति   मज़हब = नफ़रत का धरम; रोज़ा-ए-नफ्स= मन के तीन  व्रत= कम खाना, कम सोना और 
कम बोलना )


अंतरा-४.


रूखे  -  रूखे   से    सरकार ? अच्छा   नहीं  लगता   हमें..!

मगर, चुपके से  प्यार  करना, सीख  लिया   है   हमने..!

नफ़रत   निभाने   का    इल्म,  सीख  लिया  है   उसने ।


मार्कण्ड दवे । दिनांकः २६-०९-२०१२.



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MARKAND DAVE
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दो इंची मुस्कान और फरमाईश गज भर

 

सुबह सुबह यदि पत्नीजी,खुश हो मुस्काये
जरुरत से थोडा ज्यादा ही प्यार  दिखाये
मनपसंद तुम्हारा ब्रेकफास्ट   करवाये
सजी धजी सुन्दर सी ,मीठी बात बनाये
प्यारी प्यारी बातें कर ,खुश करती दिल है
तुम्हे पटाने की ये उनकी स्टाईल   है
मस्ती मारेंगे हम,आज न जाओ दफ्तर
दो इंची मुस्कान और फरमाईश गज भर
हम खुश होते सोच ,सुबह इतनी मतवाली
क्या होगा आलम जब रात आएगी प्यारी
देख अदाएं,रूप सुहाना,जलवे, नखरा
हो जाता तैयार ,बली को खुद ये बकरा
ले जाती बाज़ार,दुकानों में भटका कर
शौपिंग करती ,हम घूमे,झोले लटका कर
भाग दौड़ में दिन भर की ,इतने थक जाते
घर आकर सो जाते ,और भरते   खर्राटे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

सचमुच हम कितने मूरख है



कोई कुछ भी कह दे,उसकी बातों में  आ जाते झट है
                                सचमुच हम कितने मूरख है
 भ्रष्टाचार विहीन व्यवस्था,और सुराज के सपने देखें
इस कलयुग में,त्रेता युग के,रामराज  के सपने   देखें
पग पग पर रिश्वतखोरी है,दिन दिन बढती है मंहगाई
लूटखसोट,कमीशन बाजी,सांसद करते हाथापाई
राजनीती को ,खुर्राटों ने,पुश्तेनी व्यापार बनाया
अर्थव्यवस्था को निचोड़ कर,घोटालों का जाल बिछाया
उनके झूंठे बहकावे में,फिर भी आ जाते जब तब है
                                सचमुच हम कितने मूरख है
कथा भागवत सुनते,मन में ,ये आशा ले,स्वर्ग जायेंगे
करते है गोदान ,पकड़कर पूंछ बेतरनी ,तर जायेंगे
मोटे मोटे टिकिट कटा कर,तीर्थ ,धाम के , करते दर्शन
ढोंगी,धर्माचार्य ,गुरु के,खुश होतें है,सुन कर प्रवचन
गंगा में डुबकियाँ लगाते,सोच यही,सब पाप धुलेंगे
रातजगा,व्रत कीर्तन करते,इस भ्रम में कि पुण्य मिलेंगे
दान पुण्य और मंत्रजाप से,कट जाते सारे  संकट है
                             सचमुच हम कितने मूरख है
आज बीज बोकर खुश होते,अपने मन में ,आस लगा कर
वृक्ष घना होकर बिकसेगा, खाने को देगा मीठे फल
नहीं अपेक्षा करो किसी से,पायेगा दुःख ,ह्रदय तुम्हारा
करो किसी के खातिर यदि कुछ,समझो था कर्तव्य तुम्हारा
नेकी कर दरिया में डालो, सबसे अच्छी बात यही  है
सिर्फ भावनाओं में बह कर के, करना दिल को दुखी नहीं है
प्रतिकार की ,आशा मन में,रखना संजो,व्यर्थ,नाहक है
                           सचमुच  हम कितने मूरख है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

सोमवार, 24 सितंबर 2012

हमारे वोट, पेड़ पर उगते हैं क्या ? (व्यंग गीत)


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हमारे  वोट,  पेड़  पर   उगते   हैं   क्या ? (व्यंग गीत)






यूँ  लगा मानो  कि ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

हुआ    ऐसा, एक  नेताजी  को   पीछे से    आवाज़  लगा  दी..!

1.

चुनाव  सर  पर  था  और  प्र-खर  समाज  प्रचुर  जोश में  था..!

अतः वो दौड़े  चले आए  और  फिर  लं..बी  खर-तान  लगा  दी..!

यूँ  लगा मानो  कि ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

2.

"ज़रा   धीरे   नेताजी, आप  की   तरह, जनता   बहरी   है  क्या ?"

बोले, "चाहे   सो  कहो, दिलवा  दोगे  ना   फिर  वही  राजगद्दी ?"

यूँ  लगा मानो  कि ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

3.

हमने   कहा, " क्यों जी   हमारे   वोट,  पेड़  पर  उगते   हैं   क्या ?

अब  इतना समझ लो, हमने आपकी  किस्मत  उल्टी  धुमा  दी..!" 

यूँ  लगा  मानो  कि  ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!

4.

बोले, "  हर  आँगन  में  हम, रुपयों  का  एक  पेड़  लगवा  देंगे..!"

हम  पर करें  वह  दूसरा  खर-प्रहार , हमने  पीठ  ही  धुमा  ली..!

यूँ  लगा  मानो  कि  ग़लती  से  हमने, गधे  की  दुम  दबा  दी..!


मार्कण्ड दवे । दिनांकः२४-०९-२०१२. 


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MARKAND DAVE
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शनिवार, 22 सितंबर 2012

लब-प्यार से लबालब



चाँद जैसे सुहाने मुख पर सजे,
                          ये गुलाबी झिलमिलाते होंठ है
खिला करते हैं कमल के फूल से,
                         जब कभी ये खिलखिलाते होंठ है
ये मुलायम,मदभरे हैं,रस भरे,
                           लरजते हैं प्यार बरसाते कभी
दौड़ने लगती है साँसें तेजी से,
                           होंठ जब नजदीक आते है कभी
प्यार का पहला प्रदर्शन होंठ है,
                         रसीला मद भरा चुम्बन होंठ है
जब भी मिलते है किसी के होंठ से,
                         तोड़ देते सारे बंधन होंठ है
अधर पर धर कर अधर तो देखिये,
                         ये अधर तो प्यार का आधार है,
नहीं धीरज धर सकेंगे आप फिर,
                          बड़ी तीखी,मधुर इनकी धार  है
मिलन की बेताबियाँ बढ़ जायेगी,
                             तन बदन में आग सी लग जायेगी
सांस की सरगम निकल कर जिगर से,
                            सब से पहले लबों से टकरायगी
उमरभर पियो मगर खाली न हो,
                             जाम हैं ये वो छलकते,मद भरे
लब नहीं ये युगल फल है प्यार से,
                                लबालब, और लहलहाते,रस भरे
  मुस्कराते तो गिराते बिजलियाँ,
                         गोल हो सीटी बजाते होंठ  है
और खुश हो दूर तक जब फैलते,
                        तो ठहाके भी लगाते होंठ   है
सख्त से बत्तीस दांतों के लिए,
                        ये मुलायम दोनों ,पहरेदार हैं
हैं रसीले शहद जैसे ये कभी,
                        लब नहीं,ये प्यार का भण्डार है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

आओ हम तुम हँसे



आओ हम तुम  हंसें

मन में खुशियाँ बसे
जीवन की आपाधापी में,
रहे न यूं ही  फंसे
               खुश हो सबसे मिलें
              दिल की कलियाँ खिले
             नहीं किसी से बैर भाव,
              मन में शिकवे  गिले
बस यूं ही मुस्काके
लगते रहे ठहाके
धीरे धीरे बिसर जायेंगे,
सारे दुःख दुनिया  के
               खिल खिल ,कल कल बहें
                     लगा   सदा  कहकहे
                तन मन दोनों की ही सेहत,
                 सदा    सुहानी      रहे  
चेहरा हँसता लिये
सुखमय जीवन जियें
बहुत मिलेगी खुशियाँ,
यदि कुछ करो किसी के लिये
                 चार दिनों का जीवन
                 हो न किसी से अनबन
                 खुशियाँ बरसेगी,सरसेगी,
                  हँसते रहिये  हरदम

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

साथ छोड़ कर भागी ममता.....

   

साथ छोड़ कर भागी ममता,अब क्या होगा रे
नज़र आ रहा सूरज ढलता, अब क्या होगा  रे
नहीं मुलायम,रहते कायम,अपने  वादों पर
नज़र बड़ी आवश्यक रखना,गुप्त इरादों पर
उनका सपना,पी एम् पद का,अब क्या होगा रे
नज़र आरहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे
माया महा ठगिनी हम जानी,आनी जानी है
कब इसका रुख बदल जाए, ये घाघ पुरानी है
यदि उसने जो पाला पलता,तब क्या होगा रे
नज़र आ रहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे
अब तो करूणानिधि से ही करुणा की आशा है
सी बी आइ का दबाब भी अच्छा  खासा है
साम दाम से काम न बनता,तब क्या होगा रे
नजर आरहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे
 सब चीजों के दाम बढ़ गए,जनता है अकुलायी
सुरसा जैसी मुख फैलाती,रोज रोज मंहगाई
साथ छोड़ देगी यदि जनता,तब क्या होगा रे
नज़र आरहा सूरज ढलता,अब क्या होगा रे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कहानियाँ किस्से सुनना अब भाता नहीं मुझे


कहानियाँ किस्से सुनना 
अब भाता नहीं मुझे
खुद की कहानियों किस्से 
सुनाने से ही  फुर्सत नहीं 
कैसे किसी और की कहानियां सुनूं 
मेरी कहानीयों में भी सब कुछ है
हंसना रोना ,प्यार नफरत 
इर्ष्या द्वेष 
जब और कुछ बचा ही नहीं 
नहीं कहानियाँ सुन कर क्या करूँ
कहीं ऐसा ना हो 
कुछ ऐसा सुनने को मिल जाए 
जो मेरी कहानियों में नहीं है
डर लगता रहेगा 
कहीं मेरे साथ भी ना हो जाए
खुदा  से दुआ करता हूँ 
नयी कहानियाँ मत बनाना
20-09-2012
डा.राजेंद्र तेला,निरंतर  

बुधवार, 19 सितंबर 2012

दिल की छत पर टहल कर आते हैं..! (गीत)



(GOOGLE)


दिल की छत पर टहल कर आते हैं..! (गीत) 





चल  रे  मन  तनिक  हम,  दिल  की   छत  पर  टहल  कर   आते   हैं..!

प्यार   भरी    सोच     के,    नरम    पापोश     पहन   कर   जाते   हैं..!

( पापोश= जूते)


अंतरा-१.


आदत     है     उसे     कहीं    भी,    दबे     पाँव     धूमने   की   मगर..! 

दबे   पाँव    चल   कर    चल,   हम    उसकी   नकल   कर   आते   हैं..!

चल  रे  मन  तनिक  हम,  दिल  की   छत  पर  टहल  कर   आते   हैं..!


अंतरा-२.


ओ रे  मन,  कोमल   सतह   पर,  तुम   पाँव  धरना  सँभल  कर..!

चल,  क़दमों  के  निशान  हम भी, अब  सकल   कर   आते   हैं..!

चल  रे  मन  तनिक,  दिल  की   छत  पर  टहल  कर   आते   हैं..!


(निशान  सकल   करना= कोने-कोने में छाप छोड़ना)  


अंतरा-३.


भोलेभाले    दिल  से,   सयाने   मन   का    मुक़ाबला   ही   क्या ?

चल,   उसके   भोलेपन   का,  आज  हम  अदल   कर   आते   हैं..!

चल  रे  मन  तनिक,  दिल  की   छत  पर  टहल  कर   आते   हैं..!


(सयाना= चालाक; अदल= इन्साफ,न्याय )


अंतरा-४.


दहशत   है,  छत  पर  कहीं,  दर्द   कि   परतें   न  जम   गई   हो..!  

गर      दर्द     है     भी     तो,   एतबारी    सफ़ल   कर   आते   हैं..!

चल  रे  मन  तनिक,  दिल  की   छत  पर  टहल  कर   आते   हैं..!


( एतबारी  सफ़ल  करना= किसी पर  विश्वसनीयता  कायम  रखना)


मार्कण्ड दवे । दिनांकः १९-०९-२०१२.



-- 
MARKAND DAVE
http://mktvfilms.blogspot.com   (Hindi Articles)

अंग्रेजी का भूत

     

हमारी एक पड़ोसन,
एकदम देशी अंग्रेजन
वैसे तो फूहड़ लगती थी
पर अंग्रेजी शब्दों का उपयोग करने में,
अपनी शान समझती थी
हिंदी से परहेज था,
उनके घर का हर सदस्य,
पूरा अंग्रेज  था
एक दिन हम उनके घर गये,
करने मुलाक़ात
हो रही थी इधर उधर की बात
इतने में ही उनका बच्चा बोला,
मम्मी,बाथरूम  आ रहा है
हमने इधर उधर देखा और बोले,
हमें तो कहीं भी बाथरूम,
 आता नज़र नहीं आरहा है
क्या आजकल मोबाईल बाथरूम भी आता है
जो ड्राइंग रूम में भी चला आता है
मेडम बोली,भाई साहब,
बच्चे को बाथरूम जाना है
हम बोले इसी सर्दी में,
क्या रात को नहाना है
वोबोली,नहीं,नहीं,बच्चे को सु सु आ रही है
बच्चा बोला,मम्मी ,आ नहीं रही,आ गयी है
मेडम ,गुस्से में लाल पीली थी
हमने देखा,बच्चे की चड्ढी गीली थी
एक दिन वो अपने पति के साथ,
हमारे घर आई
हमारी पत्नीजी ने गरम गरम पकोड़ी बनायी
उनके पतीजी ने फटाफट पांच छह पकोड़ी खाली
तभी बोली उनकी घरवाली
अरे आज तो आपका मंगल का फास्ट था
तो पति बोले,ओह' शिट 'मैंने तो खा ली
हमने बजायी ताली
और बोले भी साहेब,आपने 'शिट 'नहीं,
पकोड़ी है खाई
हमारी बात सुन वो सकपकाई
बोली भाई साहेब,'ओह शिट' इनका तकिया कलाम है
अंग्रेजी उपन्यासों में ये बड़ा आम है
एक दिन उनके पतीजी थे घर पर
हमारी पत्नी ने पूंछ लिया ,
क्या भाई साहेब की तबियत ठीक नहीं है,
जो वो नहीं गये है दफ्तर
पड़ोसन बोली वैसे तो तबियत ठीक है,
हो रहे हैं पर 'मोशन'
हमारी पत्नी ने कहा 'कानग्रेचुलेशन'
कब दे रही हो प्रमोशन की पार्टी
वो झल्लाई  काहे की पार्टी
उन्हें सुबह से 'लूज मोशन 'हो रहे है,
वो पस्त है
पत्नी बोली सीधे सीधे बोलो ना,
लग गये दस्त है 
इन  कई वारदातों के बाद,
आजकल हमसे वो,
 संभल कर  जुबान खोलती है
जब भी बोलती है,हिंदी में बोलती है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'



 

तुम भी भूखी,मै भी भूखा,आज तुमने व्रत रखा.....

     

प्रश्न मेरे जहन में ,उठता ये कितनी बार है
आग  क्यों दिल में लगाता,तुम्हारा दीदार है
जिसके कारण नाचता मै,इशारों पर तुम्हारे,
ये तुम्हारा हुस्न है या फिर तुम्हारा प्यार है
रसभरे गुलाबजामुन सी मधुर 'हाँ 'है तेरी,
और  करारे पकोड़ों सा,चटपटा  इनकार  है
प्यार से नज़रें उठा कर,मुस्करा देती हो तुम,
महकने लगता ख़ुशी से,ये मेरा गुलजार है
तुम भी भूखे,हम भी भूखे,आज तुमने व्रत  रखा,
प्यार जतलाने  का ये भी अनोखा  व्यवहार है
बेकरारी   बढाती है ,ये तुम्हारी शोखियाँ,
और दिल को सुकूं देता, तुम्हारा इकरार है
नयी साड़ी मंगाई थी,सज संवरने के लिए,
और अब उस साड़ी में भी ,तुम्हे लगता भार है
आज हमने तय किया है,यूं नहीं पिघलेंगे हम,
देखते हैं आपके,जलवों में कितनी धार है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

वो मेरे साथ जो नहीं होंगी



इस बार भी बारिश में
पानी तो बरसेगा
पर बरखा की फुवारों में
भीगने का
मन नहीं करेगा
पेड़ों के पत्ते भी धुल कर
चमकने लगेंगे
पर मेरे चेहरे से
उदासी के बादल
नहीं छटेंगे
मिट्टी की सौंधी
खुशबू भी आयेगी
मेरे मन की उदासी
नहीं जायेगी
इस बार की बारिश में
वो मेरे साथ जो
नहीं होंगी
13-08-2012
660-20-08-12
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर"

पशुवत जीवन

           
बचपन में,
हम खरगोश की तरह होते है
नन्हे,मासूम,कोमल,मुलायम,
मुस्कराते रहते है
किलकारियां भरते है
प्यार और दुलार की,
हरी हरी घास चरते है
किशोरावस्था में,
हिरन की तरह कुलांछे लगाते है
या बारहसिंघा की तरह,
अपने सींगों पर इतराते है
और जवानी में,
कभी दूध देती गाय की तरह रंभाते है
कभी कंगारू की तरह,
 अपने बच्चों को सँभालते है
कभी शेर की तरह दहाड़ते है
कभी हाथी की तरह चिंघाड़ते है
और बुढ़ापे के रेगिस्थान में,
ऊँट की तरह,
प्यार के नखलिस्थान की तलाश करते है
लम्बी उम्र की तरह,
अपनी लम्बी गर्दन उचका उचका ,
कांटे भरी झाड़ियों में,
हरी हरी पत्तियां दूंढ ढूंढ,
अपना पेट भरते है
सदा गधों सा बोझा  ढोतें है
हम उम्र भर,
पशुवत जीवन जी रहे होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

प्रिय पापा की परछाईं |


प्रिय पापा की परछाईं,
खुशहाली की अंगड़ाई ।


सौजन्य-गूगल
प्यारे दोस्तों,

अभी  मेरे हाथों में, एक `नवजात पिता` की निजी डायरी है । चलिए, उस पति महाशय को, `नवजात पापा` बनने के बाद कैसा महसूस हुआ और `नवजात पापा = नवजात पप्पूपापा बनने की कसौटी में पास हुआ या नापास ये भी उन्हीं से जानने की कोशिश करते हैं..!! मैं आपको उनकी डायरी के कुछ पन्ने ही पढ़कर सुना देता हूँ, ठीक है?

नवजात संतान के नवजात पिता की डायरी से कुछ यादगार लम्हें..!!

"सांस-सांस बस,उमंग उर में झिलमिल  है  करता..!
 नन्हा  सा कान्हा मेरा  कैसे, खिलखिल  है  हँसता..!


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पापा, ड़रना मना है?


किसी भी इन्सान के जीवन में सब से अधिक आनंददायक पल, उनके घर में, नन्हे बच्चे का जन्म हो, वही पल होती है । सारी दुनिया में, किसी के बाप की भी परवाह न करने वाले, बड़ी-बड़ी मूँछोवाले सुरमाओं की मूँछें खींचनेका अदम्य साहस, यह छोटा सा बच्चा कर सकता है..!!


आज से सात दिन पहले मेरे घर भी ऐसा ही एक आनंद का शुभ अवसर आया हुआ है, जी हाँ मैं एक बड़े प्यारे से लड़के का पापा बन गया हूँ..!!


अस्पताल में ही सभी को इस नवजात का कोई दूसरा नाम न मिल पाने की वजह से, सभी ने सर्वसम्मति से, अनायास ही,`नानका` नाम रख दिया और केवल सात दिन की आयु के,हमारे नानका साहब का आज सर्वप्रथम गृह प्रवेश हुआ है..!!


हालाँकि,अस्पताल से घर आते ही, `नानका` को देखने के लिए, घर के सारे सदस्य की भीड़ मेरी पत्नी और नानका के आसपास लिपटी रही जिसके कारण मैं, नानका का नवजात पापा उसे ध्यान से, मन भर देख न पाया ।


थोड़ी देर के बाद भीड़ कम होते ही, मैं जब पत्नी के पास गया तब, उसने नानका को मेरी गोद में रखते हुए, आनंद के साथ कहा," लीजिए आप का नन्हा सा कान्हा..!! और हाँ, इस घर में आज से आप का एकाधिकार शासन खत्म हुआ..!!"


यह सुनकर, मेरी गोद में हाथ-पैर उछाल रहे, नानका की ओर जब मैंने  देखा तब पता नहीं क्यों,मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि, वह मेरे चेहरे की ओर देखकर मेरी मूँछें ढ़ूँढ़ने का प्रयास कर रहा हो?  


आखिर,मूँछ ढ़ूँढ़ने में नाकाम होते ही, मानो मेरा उपहास कर रहा हो, ऐसा मुँह बना कर, नानका ने  बड़े जोरों से रोना शुरू कर दिया..!! मेरी गोद में नानका को सलामत मान कर, दूसरे कमरे में गई हुई, नानका की मम्मी (मेरी पत्नी) तुरंत भाग कर आ गई और नानका से पूछने लगी,"क्या हु..आ, मे..रे नानका को..ओ..ओ..!!"


फिर भी नानका का रोना बंद न हुआ तो, पत्नी ने मेरे सामने आशंका जताते हुए, नाराज़ स्वर में पूछा,"  क्या किया आपने, नानका के साथ?"


आज दिन तक जब से, मेरी पत्नी शादी करके आयी है,  अगर मैं `रात कहूँ तो रात और दिन कहूँ तो दिन` कहने वाली पत्नी का ,ऐसा हिम्मत पूर्ण, अजीबो ग़रीब, अनपेक्षित सवाल सुनकर, पहले तो मैं क्षुब्ध हो गया और बाद में कोई उत्तर न मिलने पर, ज़ुबान लड़खड़ाने के कारण, आखिर मैं बहुत डर गया..!!


हालाँकि, मेरे जवाब की अपेक्षा किए बिना ही, वो चलती बनी,पर आज ना जाने क्यूँ? मुझे ऐसा लग रहा है कि, आज मेरे ही घर में मेरी, `धोबी का कुत्ता ना घर का घाट का` जैसी हालत करने का, पूरा-पूरा मन बना कर, नानकाजी ने गृह प्रवेश किया लगता है..!!


अभी तक, घर के मुखिया के नाते, घर के सभी सदस्य पर धोंस जमा कर, मैं  आजतक  मनमानी करता रहा था, इस से उल्टा, यह घटना के बाद,  मारे डर के, ` ना निगल सकूँ,ना उगल सकूँ` जैसा कोई दर्द मेरे दिल में  घर कर गया..!!


आप को हँसी आ रही है?



पर इसके लिए, एक ही उदाहरण काफ़ी है, पहले तो लंच समय पर मेरी थाली में, गरमागरम रोटी,सब्जी,दाल-चावल,सलाड,अचार और रोज़ कुछ ना कुछ मीठा भी मिल जाता था, दोस्तों, ऐसी रसवंती थाली की जगह अब सुबह  का पका - बचा, बासी भोजन शाम को और शाम का पका-बचा भोजन दूसरे दिन दोपहर को खाने कि नौबत आ गई है..!!


`तारक मेहता का उल्टा चश्मा, के जेठालाल गड़ा कि माफिक, पूरा शर्ट ख़राब करते हुए, बड़े चाव से आम के रस के बड़े-बड़े कटोरे भर भर के पी कर, खाने के बाद, अपनी फूली हुई तोंद पर हाथ घूमाते-घूमाते, पूरा मोहल्ला सुने, इतनी ज़ोर से डकार लेने का मेरा सुख भी, यही नानका महाशय की वजह से अब छिन गया है । ये सारे सुखमयी डकार, मानो मेरी तोंद के भीतर ही हमेशा के लिए कहीं गुम हो गये हैं..!!


हालाँकि, आज एकबार ग़लती से, ज़ोर से डकार लेने का ऐसा सुख मैंने भोग लिया तो, रसोई में  बर्तन धो रही, नौकरानी ने मुझे बूरी तरह ड़ांट दिया," सा`ब`, ज़रा धीरे से..नानका डर जायेगा..!!" 


उस डेढ़ सयानी नौकरानी पर गुस्सा तो मुझे बहुत आया, पर `काबे अर्जुन  लूटियो वो ही धनुष वो ही बाण` को याद कर के,इतने बड़े घोर अपमान को मैं  अशेष  रूप में  निगल गया..!!


उसके पश्चात तो, अभी तक पूरे घर में, अलमस्त, पागल हुए, किसी जंगली बिल्ले की भाँति, इधर-उधर कहीं भी मुक्त मन से घूमने वाला मैं एक,`नवजात पापा` बिलकुल `मियाँ की भीगी बिल्ली` के माफिक  डरते-डरते, दबे  पाँव  घूमने लगा हूँ..!! दुख तो इस बात का है कि, घर में सभी का ध्यान, मेरी ओर से हट कर,उस नानका की ओर लगने की वजह से, घर में मेरी पीड़ा सुनने वाला भी अब कोई नहीं है ।


मेरे प्यारे दोस्तों,


आज याद आया कि, नानका का, गृह प्रवेश हुए  ढाई माह बीत चुका है और आजकल घर में मेरी हालत अत्यंत दया जनक हो गई है । इन दो ढाई माह  में,मुझे लगता है, बड़ा हो कर नानका, अपने पापा से शायद डरे ना डरे, इस वक़्त तो पापा (मैं) नानका से बहुत  डरने लगे हैं..!!


हाँ साहब, इस बात की एक ठोस वजह भी है, अभी थोड़े दिन से मुझे भयंकर सर्दी-ज़ुकाम हुआ है और आज सवेरे, ग़लती से मैंने, पूरे घर की नींव कांप उठे, इतने बड़े ज़ोर से छींक दिया, जिसकी आवाज़ से नानका बहुत डर गया फिर इतने ज़ोर से रोने लगा कि, वह सिसकीयाँ भर कर रोने लगा ।


बस, हो गया मेरा कल्याण..!!


मेरे छींकने की आवाज़ से, नानका को रोता हुआ देख कर, घर के सारे सदस्य, मेरे सामने बिना कुछ कहे, अपनी नाराज़गी जताते हुए, नानका को शांत करने के प्रयास में लग गए..!!


मेरी पत्नी की नाराज़गी तो यहाँ तक बढ़ गई कि, उसने हमारे घर का मुख्य दरवाज़ा दिखाते हुए, मुझ से ये तक कह दिया कि," आइन्दा, अब अगर आपका छींकने का मन करे तो आप घर के बाहर बरामदे में जा कर छींकना,घर में मत छींकना?"


अ...रे...रे..!! एक वक़्त ऐसा भी था कि, इस मर्द महा मानव का (मेरा), धंधे से लौटते ही, फ्रिज़ के ठंडे पानी और गर्मागर्म ताज़ा चाय-नाश्ते से,जिस घर में स्वागत होता था, उसे आज छींकने जैसी फ़ालतू प्रवृत्ति करने के लिए, अपने ही घर का दरवाज़ा दिखाया जा रहा है?


आप ही बताइए ना, क्या छींक मेरी कोई रिश्तेदार लगती है कि, मेरी इजाज़त लेकर नाक से बाहर निकलेगी? और फिर, प्रत्येक पल, सिर्फ छींकने के लिए, घर के बाहर गली तक भागना भी क्या अच्छा दिखेगा? मेरे बारे में, गली के लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे?


पत्नी ने दरवाज़ा दिखाया ये बात मुझे तो बहुत बुरी लगी..!!


इस अपमान से, मेरे दिल में कुछ ऐसे भाव उठने लगे कि, " चलों जीव..!! अब इस घर में मेरा स्थान ख़तरे में है और  जब तक ये सर्दी मैया, मेरी नासिका से प्रस्थान कर के, किसी और महा मानव की नासिका में न घुसे, तब तक कुछ दिन के लिए, किसी मंदिर की धर्मशाला में रहने के लिए चले जाना चाहिए क्योंकि, जब तक सांस लेता रहूँगा,छींक तो आने वाली ही है तो क्या मुझे सांस लेना भी बंद कर देना चाहिए..!!


यही सोचते-सोचते, सर्दी की दवाई के नशे के कारण, मेरी आँख लग गई और नींद में मुझे एक अजीबोगरीब ख़्वाब आने लगा..!!


ख़्वाब में मैंने देखा कि, सन-१९७७ में रिलीज़ हिन्दी फिल्म `यही है ज़िंदगी` में, श्रीसंजीवकुमारजी को मिलने के लिए, साक्षात भगवान श्रीकृष्णजी आयें थे, इसी प्रकार मुझ से मिलने के लिए, मंद-मंद मुस्कुराता हुआ कान्हा मेरे सामने खड़ा है..!!

पर ये क्या..!! भगवान श्री कृष्ण का चेहरा हूबहू मेरे नानका जैसा ही तो है..!!

भगवान कान्हा से मैं कुछ कहता इससे पहले ही, कान्हा मुझ से कहने लगा," बस..!!  इतना जल्दी मुझ से थक गया? क्या बिना रो ये ही, तुम इतने बड़े हो गए हो? मुझ से इतना डर गए हो कि, तुम घर से पलायन करना चाहते हो, तुम ये क्यों नही समझते कि, तुम सब को  मिलने के लिए ही तो मैं ने , साक्षात ईश्वर ने, तेरे घर में जन्म लिया है..!!

इतना सुनते ही, मैं बहुत भावुक हो गया और मेरी आँख से आंसु बहने लगे । मेरी आँख से आंसु बहते देख कर, कान्हा ने अपने छोटा सा हाथ आगे बढ़ाया और अपनी नन्हीं-नन्हीं सी ऊँगलियों से, हल्के से, मेरे आंसु पोंछे..!!

भगवान कान्हा का स्पर्श होते ही, मेरा सारा दर्द न जाने कहाँ ग़ायब हो गया और साथ में मेरा ख़ाब भी टूट गया ।  अब मैंने  देखा कि, बिलकुल  मेरी बगल  में, नानका को सुलाकर, उसकी मम्मा सामने खड़ी है, नानका के हाथ मेरे गाल पर है और मुझे देख़ कर, वह हूबहू भगवान श्री बाल कान्हा कि माफिक मेरे सामने, अपनी चिरपरिचित मंद-मंद मुस्कान बिखेर रहा है..!!

नानका को मेरे सामने मुस्कुराते देख कर,  उसकी मम्मा ने नानका को झूठमुठ  ड़ांटते हुए कहा," सारा दिन तेरी एक मीठी सी मुस्कान देखने के लिए हम सब तरस जाते हैं और, तेरी मधुर मुस्कान का सारा ख़ज़ाना, अपने पापा पर लूटाता है, बद..मा..श..!!"

इतना कह कर, घर के बाकी सदस्य को भी, नानका की मधुर मुस्कान दिखाने के लिए,  नानका की मम्मा ने, सभी को बड़े ज़ोर से आवाज़ लगाई..!!

यह देख कर मैंने पत्नी को ड़ांटा," ज़रा धीरे-धीरे..!! नानका डर जायेगा..!!" 

हालाँकि, अब मैं इतना आश्वासन ज़रूर ले सकता हूँ कि, " सर्दी मैया की अब, ऐसी की वैसी, छट्..!!

हमें तो लगता है, जिस रोज़, किसी नानका के मम्मा-पापा से लेकर घर का अन्य कोई भी सदस्य, साक्षात भगवान श्री कृष्ण समान अपने-अपने नानकाओं से थक-हार कर उनसे दूर भागने लगेंगे उस दिन, पूरी धरती अनंत में लुप्त हो जाएगी?

दोस्तों, ईश्वर से  मैं  यह प्रार्थना कर रहा हूँ कि, आपका घर ऐसे ही छोटे-छोटे नानकाओं की, खिलखिलाहट भरी हँसी से सदैव गूंजता रहे..!!

॥ पितृ देवो भवः ॥

एक नवजात पापा का नमस्कार ।

मार्कण्ड दवे । दिनांक- १२-०६-२०११.

रविवार, 16 सितंबर 2012

जीवन झंझट

 

थोडा सा आराम मिला है, मुझको जीवन की खट पट में
कुछ इकसठ में,कुछ बांसठ में,कुछ त्रेसठ में,कुछ चोंसठ में
  चलता यह गाडी के नीचे,पाले गलत फहमियां   सारी
मै था मूरख श्वान समझता ,मुझ से ही चलती है  गाडी
जान हकीकत, मै पछताया,खटता रहा यूं ही फ़ोकट में 
थोडा सा आराम मिला है,मुझको जीवन की खट पट में
मै था एक कूप मंडुप सा,कूए  में सिमटी थी दुनिया
नहीं किसी से लेना देना ,,बस मै था और मेरी दुनिया
निकला बाहर तो ये जाना,सचमुच ही था ,कितना शठ मै
थोडा सा आराम मिला है,मुझको जीवन की खटपट में
उलझा रहा और की रट में,मं में  प्यार भरी चाहत  थी
आह मिली तो होकर आहत,राह ढूंढता था  राहत की
यूं ही फंसा रखा था मैंने,खुदको  बे मतलब,झंझट  में
थोडा सा आराम मिला है,मुझको  जीवन की खटपट में

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

 

शनिवार, 15 सितंबर 2012

जीवन लेखा

           

जीवन के इस दुर्गम पथ पर,पग पग पर भटकाव लिखा है
कहीं धूप का रूप तपाता, कहीं छाँव  का ठावं   लिखा    है
तड़क भड़क है शहरों वाली,बचपन वाला गाँव लिखा   है
गीत लिखे कोकिल के मीठे, कागा  का भी काँव लिखा है
पासे फेंक  खेलना जुआ  ,हार जीत का दाव लिखा  है
कहीं किसी से झगडा,टंटा ,कहीं प्रेम का भाव लिखा है
 अच्छे बुरे  कई लोगों से,जीवन भर टकराव लिखा है
प्रीत परायों ने पुरसी है,अपनों से   अलगाव   लिखा है
लिखी जवानी में उच्श्रन्खलता ,वृद्ध हुए ,ठहराव  लिखा है
वाह रे ऊपरवाले  तूने,जीवन भर   उलझाव लिखा है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

नेताजी, ऐसा क्यूँ होता है ? (व्यंग गीत)






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नेताजी, ऐसा  क्यूँ  होता  है ? (व्यंग गीत)





ऐसा  क्यूँ  होता  है?  नेताओं  तक  पहूँचती  नहीं, आम आदमी की चीख़ पुकार..!

ऐसा  क्यूँ  होता  है?  ठंडे  चूल्हे, खाली  थाली, पापी  पेट  पर, इतना  बलात्कार..!



अंतरा-१.


नेताजी, लाल-पीली  चौपहिया में   या फिर, हवा में   टहलो   सारी  दुनिया, मगर..!

ऐसा  क्यूँ  होता  है ? आजकल आम आदमी, दो  पहिये का भी   ना  रहा  हक़दार..!

ऐसा  क्यूँ  होता  है?  नेताओं  तक  पहूँचती  नहीं, आम आदमी की चीख़ पुकार..!


अंतरा-२.


नेताजी, धनभंडार से  घर  आप का  भरा, धानभंडार में   अनाज   है   सड़ा  हुआ..!

ऐसा  क्यूँ  होता  है? आजकल  ज़िंदगी का भी  जीना,  हो  गया  इतना  दुश्‍वार..! 

ऐसा  क्यूँ  होता  है?  नेताओं  तक  पहूँचती  नहीं, आम आदमी की चीख़ पुकार..!


अंतरा-३.


नेताजी, सब के   बीवी-बच्चे   होते  हैं, जिद्द के  भी  पक्के   होते  हैं, अब  कहिए..!

ऐसा  क्यूँ  होता  है?  रोज़,  मन   मार   कर, हम  उन्हें  फुसलाते   रहें  लगातार..!

ऐसा  क्यूँ  होता  है?  नेताओं  तक  पहूँचती  नहीं, आम आदमी की चीख़ पुकार..!


अंतरा-४.


नेताजी, अपसेट मत  होना, ज़रा  हमें भी `कसाब`के  साथ  सेट  करा  दीजिए ना..!

ऐसा क्यूँ  लगता है? हम से ज्यादा मानो,`कसाब`पर उमड़ रहा  है आप का प्यार..!   

ऐसा  क्यूँ  होता  है?  नेताओं  तक  पहूँचती  नहीं, आम आदमी की  चीख़ पुकार..!


मार्कण्ड दवे । दिनांकः१५-०९-२०१२.

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

मिट्टी पलित हो गई । (गीत)


(Google)


मिट्टी   पलित   हो   गई । (गीत)




देखा  न  देखा, नज़रभर  जो  उसने, मिट्टी  पलित   हो   गई ।

परवान  चढ़ने से  पहले  ही  चाहत, जबर  निंदित   हो   गई ।

(परवान चढ़ना= सीमा पार करना; जबर= जबरदस्त; निंदित= अपमानित)


अंतरा-१.


`लव-गुरू` कहलाने   का, ठोस  सबब  था  हमारे पास, मगर ।

न   जाने  क्या  हुआ  हमें, अचानक   बुद्धि   कुंठित  हो  गई ।

देखा  न  देखा, नज़रभर  जो  उसने, मिट्टी  पलित   हो   गई ।

(सबब= कारण; कुंठित= मंद बुद्धि)


अंतरा-२.


सजे - सजाये,  अनमोल  आशिक   थे,  इश्किया   बाज़ार  में..!

आज  हमारी क़िमत,सर से  पाँव तक, गुबार  मंडित  हो  गई..!

देखा   न  देखा, नज़रभर  जो  उसने,  मिट्टी  पलित   हो   गई ।

( गुबार= धूल; मंडित=  ढका हुआ,आच्छादित)


अंतरा-३.


ज़रा  सी   गुनाही  हुई   हमसे, नाज़ो - अदा  उठाने  की  और..!

हसरतों   की   सरगर्मीयाँ,   बे - तहाशा    उत्तेजित  हो   गई ।

देखा  न  देखा, नज़रभर  जो  उसने, मिट्टी पलित   हो   गई ।

(हसरत= इच्छा; सरगर्मीयाँ= उत्तेजना; बे-तहाशा= अंधाधुंध; उत्तेजित= भड़का)


अंतरा-४.


पहले चिंगारी, फिर  धुँआँ, फिर  उठी  आग   बराबर - बराबर । 

इश्कज़ादों  की    तबाही   भी,  अनक़रीब   संतुलित  हो   गई..!

देखा  न  देखा,  नज़रभर  जो  उसने,  मिट्टी  पलित   हो   गई ।

(अनक़रीब= क़रीब-क़रीब; संतुलित= नपातुला, बैलेंस्ड)

मार्कण्ड दवे । दिनांकः१४-०९-२०१२.

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MARKAND DAVE
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