शरीर से आत्मा मुक्त हुई 
या आत्मा ने शरीर को तकलीफ से मुक्त किया 
बात जो भी हो 
शरीर नहीं है 
जिससे बातें कर 
हम उसकी आत्मा तक 
अपनी आत्मा ले जाते थे 
नहीं दिखता वह शरीर 
जिसकी गोद में सर रख 
दुनिया मुट्ठी में लगती थी 
मोबाइल से कहीं ज्यादा 
…
शरीर की एक दिनचर्या थी 
जो वह आत्मा को खुश करने के लिए 
कभी आत्मा को उदास करते हुए 
निभाती थी !
शरीर - जिसके आगे हम दुनिया भर की शिकायतें रखते 
कभी इसकी कभी उसकी 
भूल जाते कि सारी शाखाएँ उसकी हैं 
और वह नियमपूर्वक कभी शब्दों से 
कभी आंसुओं से 
कभी खामोशी से 
सभी शाखाओं को सींचती है 
उनकी हरीतिमा की ख्वाहिश लिए 
…। 
अब वह शरीर आत्मा है 
एक सांत्वना है 
मन को बाँधने का !  .... 
            मन को बाँधने की प्रक्रिया में तर्पण अर्पण 'एक थी तरु' स्व सरस्वती प्रसाद (मैं और मेरी सोच...) का संग्रह अपनी पूर्णता की राह में है  . संकलन एवं संपादन उनकी तनूजा रश्मि प्रभा का है, 
आवरण चित्र - प्रार्थना मुत्थुसुब्रमणियन 
आवरण सज्जा - अपराजिता कल्याणी 
प्रकाशन - हिंदयुग्म 
विमोचन तिथि - 19 सितम्बर, 2014 
सरस्वती जी की कलम से -
"जब मैंने ६० के दशक में कॉलेज की यात्रा शुरू की तो कॉलेज प्रांगण में सबने मुझे एक नाम दिया "पंत की बेटी," इसका ज़िक्र जब मैंने अपने पति से किया तो उन्होंने कहा कि तुम उन्हें पत्र लिखो और मैंने उन्हें पत्र लिखा। लौटती डाक से मिला मुझे पिता का पत्र, पुत्री के नाम 
इस गौरव के लिए किसी न्यायालय की ज़रूरत नहीं थी। 
शब्द और प्रकृति प्रेम ने हमें पिता और बेटी बनाया और पारिवारिक रिश्ता जुड़ गया।" - सरस्वती प्रसाद
इसकी कुछ अविस्मरणीय झलकें प्रस्तुत है, ताकि आप इसे पढ़ने का लोभ संवरण न कर सकें।  
"इस छोटे से गीत की एक प्रतिलिपि श्रद्धेय पंत जी के पास भेजी थी - उनका पितृवत स्नेह मेरा मार्गदर्शन करता था। रानीखेत से उनका जवाब आया था - "तुम्हारा पत्र मुझे इलाहबाद में ही मिल गया था। अपनी यात्रा के दौरान मैंने तुम्हारा गीत पढ़ा - एक बार नहीं, कई बार… किस मनःस्थिति में इस गीत को तुमने लिखा था बेटी - धरती,आकाश को भिंगोती आँसू की बूँदें - कि मेरी भी आँखें भर आईं ।"
- और फिर इस गीत का महत्व बढ़ गया ! मनःस्थिति जो भी रही हो, विशेष बन गई । वैसे यह भी सच था कि उस भींगे हुए भोर में, बारामदे में अकेली खड़ी मैं अनायास ही रो पडी थी और उसी समय कहीं मन में उभरती इन पंक्तियों को - न जाने कौन रोया है....... भीतर जाकर लिखा था!" - सरस्वती प्रसाद
इसी के साथ लेती हूँ एक विराम और मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद....
 







 
 
शरीर भले ही छूट जाये आत्मा का साथ संग रहता है और ये लगाव सदा ही बना रहता है ...
जवाब देंहटाएं:-s
जवाब देंहटाएंye jazba bana rahe
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर एवं हृदय को विगलित करने में सक्षम पंक्तियाँ ! माँ जी की रचनाएं पाषाण को भी पिघला देने की क्षमता रखती हैं !
जवाब देंहटाएंकाव्य संग्रह का बेसब्री से इंतजार ।
जवाब देंहटाएंमाँ की लेखनी आप के लेखन में भी नजर आती है बहुत सुंदर ।
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