शनिवार, 27 जून 2015

परिकल्पना - सुदामा कभी अकेला नहीं होता




ढूँढो - तो कृष्ण मिलेंगे 
सुदामा कभी अकेला नहीं होता  

…। रश्मि प्रभा 


नमस्ते जी


नमस्ते जी सुनते ही सोहन रुक गया। मुड़ कर देखा तो एक लड़का, जिसकी उम्र लगभग अठारह उन्नीस वर्ष की होगी, के होठों पर हलकी सी मुस्कान थी, उसने सोहन से नमस्ते की थी। नमस्ते का जवाब सोहन ने नमस्ते से किया। सोहन रुक गया और उस लड़के को ध्यान से देखने लगा परन्तु उसको पहचान पाने में असमर्थ रहा।

"मैंने आपको पहचाना नहीं।" सोहन ने उस लड़के से कहा।

"जी, मेरी यह स्टेशनरी की दुकान है। आज ही खोली है, पहला दिन है। आपको सीढ़ियों से ऊपर जाता देख समझा कि ऊपर की दुकान आपकी है।"

"यह भी क्या संयोग है कि अपने दुकान खोली और पहला दिन है। आपकी दुकान के ऊपर जो कमरा है, उस में मैंने ऑफिस बनाया है और मेरे ऑफिस का भी पहला दिन है। मैं पंडित का इंतज़ार कर रहा हूं। पूजा करने के बाद ऑफिस का कामकाज शुरू करूंगा। तुम भी कह रहे थे कि तुम्हारी दुकान का पहला दिन है, तुमने पूजा करवाई।" सोहन ने उस लड़के से पूछा।

"जी, सुबह आठ बजे ही पूजा हो गई। पंडित जी ने सुबह आठ बजे का शुभ मुहूर्त निकाला था।"

"हमारे पंडित तो बहुत व्यस्त रहते हैं। बारह बजे का पूजा का समय दिया है, आते ही होंगे। वैसे हम बाते कर रहे हैं परन्तु एक दूसरे से अपना अपना परिचय तो कराया नहीं। मेरा नाम सोहन है। ऊपर कमरे में ऑफिस खोल रहा हूं।" सोहन ने अपना परिचय दिया।

"मेरा नाम प्रीत अरोड़ा है। मैंने स्टेशनरी की दुकान खोली है। आपको स्टेशनरी की ज़रुरत हो तो सेवा का अवसर दीजिये।" उस लड़के ने अपना परिचय दिया।

इतने में सोहन के पंडित जी आ गए और सोहन ऑफिस की पूजा में व्यस्त हो गया। पूजा के बाद सोहन नीचे उतरे और अपने ऑफिस के लिए कुछ स्टेशनरी खरीदी।

"सर जी, आप मेरी दुकान पर पहले ग्राहक है। आपका ऑफिस भी दुकान के ऊपर है। आपका मेरे जीवन में विशेष स्थान रहेगा।" प्रीत ने कहा।

"क्या उम्र है, छोटे नज़र आ रहे हो।"

"जी, अठारह साल।"

"पढ़ाई भी करो।"

"बारहवीं में नंबर कम आये। पढ़ने में दिल नहीं लगता, किसी भी कॉलेज में दाखिला मिलेगा नहीं, इसलिए दुकान खोल दी है। पापा की दुकान सदर बाजार में है। स्टेशनरी का काम करते है। यहां मेरे लिए दुकान खोली है।"

सोहन बातचीत के बाद ऑफिस में आ कर काम करने लगा। शाम के समय फुरसत के पल में सोचने लगा कि प्रीत के परिवार ने उचित कदम उठाया है। पढ़ाई में दिल नहीं लगता तो दुकान खोल दी। उसने पढ़ाई करके कौन से तीर चला दिए हैं। पढ़ाई की फिर दस साल विभिन्न कंपनियों में नौकरी की। सरकारी नौकरी मिली नहीं, निजी कंपनियों में चाहे छोटी हो या बड़ी, हर जगह एक जैसे हाल हैं। वेतन वृद्धि की बात करो तो कोई करता नहीं, काम खूब करवाते हैं। सुबह समय से आओ परन्तु शाम को छुट्टी का कोई समय नहीं। देर रात तक काम किया। थक हार कर हर दूसरे साल अधिक वेतन के लिए नौकरी बदली। जब दूसरी जगह नौकरी मिलने पर इस्तीफा दिया तब कहते थे कि वेतन बड़ा देते हैं। यही काम करो। लानत है मालिकों की ऐसी छोटी सोच पर। शराफत से वेतन बढ़ाते नहीं, फिर रुकने का क्या फायदा। नई जगह नया अनुभव और अधिक वेतन। दस वर्षों में पांच नौकरियां बदली। अब दस साल बाद अपना खुद का व्यापार शुरू किया, कि अपना हाथ जगन्नाथ। खुद के लिए काम करेंगे। किसी की गुलामी नहीं। उसके साथी व्यापार करते हुए उससे कहीं आगे निकल गए परन्तु उसके पास न तो पूंजी थी और न हिम्मत कि अपना कोई व्यापार कर सके। हिम्मत करके दस वर्ष नौकरी करने के पश्चात जब तरक्की नहीं मिली खुद का छोटा सा व्यवसाय शुरू किया। किराये के छोटे से कमरे में ठेकेदारी का काम चालू किया। उसे प्रीत का निर्णय उचित लगा, जब पढ़ने में दिल नहीं लगता और नंबर भी नहीं आये, इधर उधर बेकार मटर गस्ती करने से अच्छा है कि दुकान ही चलाई जाए। दस वर्ष बाद बहुत आगे जायेगा प्रीत।

सोहन और प्रीत हर रोज़ मिलते। ठेकेदारी में उसे कई बार बाहर जाना पड़ता। सोहन सारे काम खुद करता। कोई सहायक नहीं था। जब ऑफिस से बाहर जाना होता तो ऑफिस बंद करके चाबी प्रीत को दे देता। इस बहाने कई बार मिलना होता। प्रीत मिलनसार और हंसमुख नवयुवक था। हर बार मिलने पर नमस्ते कहता। सोहन को उसका नमस्ते का अंदाज़ अच्छा लगता। प्रीत सोहन से ही नहीं, सभी ग्राहकों से नमस्ते करता। दिन बीतते गए। प्रीत की दुकान चल निकली और सोहन का धंधा। प्रीत स्टेशनरी के साथ स्कूल, कॉलेज की पुस्तकें भी रखने लगा। ठेकेदारी में जो सामान सोहन को ज़रुरत पड़ती, प्रीत के पिता सदर बाज़ार से ला देते। दो तीन वर्ष बाद प्रीत का छोटा भाई गगन भी दुकान पर प्रीत का हाथ बटाने लगा। सोहन ने भी चार सहायक रख लिए। सोहन प्रीत को महीने में ख़रीदे सामान का भुगतान एक मुस्त चेक से करता। प्रीत ने कभी अग्रिम भुगतान के लिए नहीं कहा। हर महीने की आखिरी तारीख में बिल बना कर सोहन को दे देता। सोहन बिल चेक करके तीन चार दिन बाद बिल का भुगतान कर देता। सोहन का व्यापार उन्नति की चोटियों पर चढ़ता गया। सोहन ने बड़ा ऑफिस ले लिया परन्तु प्रीत की दुकान के ऊपर वाले ऑफिस को नहीं छोड़ा। सोहन उस ऑफिस को भाग्यशाली मानता था, जहां से उसने व्यापार छोटी सी पूंजी से ठेकेदारी का काम शुरू किया था आज दस साल बाद एक बहुत बड़े ऑफिस में कंस्ट्रक्शन कंपनी का मालिक बन गया था। उधर प्रीत की दुकान भी ठीकठाक चल रही थी। जब भी प्रीत सोहन के ऑफिस चेक लेने आता तो नमस्ते से दोनों की बात शुरू होती और कम से कम एक घंटे तक चलती। आज दोनों दोस्त बन गए थे, हालांकि सोहन और प्रीत की उम्र में पंद्रह वर्षों का अंतर था। समय पंख लगा कर उड़ जाता है। सोहन व्यापार में अधिक व्यस्त रहने लगा, कई बार प्रीत चेक लेने ऑफिस आता तो आपस में मुलाकात नहीं हो पाती।

एक दिन सोहन दोपहर के डेढ़ बजे ऑफिस से निकल रहा था, उस समय प्रीत ऑफिस के गेट पर सोहन से मिला, आपस में नमस्ते हुई।

"नमस्ते जी।"

"नमस्ते जी, प्रीत, मैं जरा जल्दी में हूं। चेक एकाउंट्स से ले लेना।"

"आपसे कुछ बात करनी है। चेक तो अभी बना नहीं होगा। टाइम नहीं हुआ है।"

"मैं अकाउंटेंट को फ़ोन पर कह दूंगा, शाम को आ कर चेक साइन कर दूंगा। शाम को आना।" सोहन कह कर फटाफट चला गया। प्रीत का कोई चेक नहीं बनना था, वह भी वापिस लौट गया। सोहन ने कार में बैठते ही अकाउंटेंट को प्रीत का चेक बनाने को कह दिया।

शाम को सोहन ऑफिस में देर से आया, प्रीत इंतज़ार कर रहा था। प्रीत को देख कर सोहन ने अकाउंटेंट से प्रीत का चेक बना कर लाने के लिए कहा। अकाउंटेंट खाली हाथ सोहन के केबिन में आया। 

"चेक लाओ, प्रीत के चेक में देरी क्यों की।"

"सर जी, इस बार बिल ही नहीं दिया, प्रीत जी ने।"

"अच्छा तुम जाओ।" अकाउंटेंट को जाने के लिए कहा। फिर प्रीत से "बिल में देरी मत करो, कल सुबह बिल दे दो, मैं सारा दिन ऑफिस में रहूंगा, उसी समय साइन कर दूंगा।"

"जी, आपसे निजी बात करनी है, बिल बनाने का समय नहीं हुआ है। बिल तो महीने की आखिरी तारीख में बनाता हूं। आप से कुछ मदद चाहता हूं।"

"कहो दोस्त, मेरे पास अब समय है। सुबह एक मीटिंग में जाना था। अब बात करते हैं। यहां से घर ही जाना है। तुम्हारी भाभी मायके गई है।"

प्रीत चुप रहा। प्रीत की चुप्पी पर सोहन ने कहा। "चुप क्यों हो, कहो। दोस्तों से कोई पर्दा नहीं करते।"

प्रीत चुप रहा। कहना चाहता था, पर गला सूखता जा रहा था। सोहन ने प्रीत को पानी का गिलास दिया। पानी पी कर प्रीत ने धीरे से कहा "कुछ मदद चाहिए।"

"कहो क्या बात है।"

"जी, पिताजी को कैंसर हो गया है। ऑपरेशन और कैंसर के इलाज़ के लिए पैसों का इंतज़ाम पूरा नहीं हो रहा है। कुछ रकम आप एडवांस में दे दें, तो आपका आभारी रहूंगा। हर महीने के बिल में एडजस्ट करवा लूंगा।" 

"तुमने मुझसे बात क्यों छुपाई। दोस्तों में पर्दा अच्छा नहीं होता।"

"पिताजी की तबियत तीन महीनों से अच्छी नहीं चल रही थी। अचानक से पिछले सप्ताह बहुत बिगड़ गई, हॉस्पिटल में दाखिल कराया, कल ही मालूम हुआ कि कैंसर की थर्ड स्टेज है। तुरंत ऑपरेशन के लिए डॉक्टर ने कहा है। पिताजी के इलाज़ में काफी रकम खर्च हो चुकी है। तुरंत रकम इकठ्ठा करने में दिक्कत आ रही है। ऑपरेशन के बाद कीमोथेरपी और रेडिएशन एक साल तक इलाज़ चलेगे। कुछ एडवांस मिल जाये। मैं बिलों में एडजस्ट करवा दूंगा। 

प्रीत की बात सुन कर सोहन ने कुछ पल सोचा और प्रीत से कहा "प्रीत कैंसर के इलाज़ में कोई कसर नहीं छोड़ना। इलाज़ बढ़िया और अच्छा करवाना। तुम रुपये पैसों की चिंता मत करना। मुझे मालूम है कि कैंसर का इलाज़ बहुत महंगा होता है। तुम मेरे दोस्त हो, तुम्हारी मदद करना मेरा फ़र्ज़ है।" कह कर सोहन से अलमारी से दो लाख रुपये निकाल कर प्रीत को दिए। अभी इतना रख लो और ऑपरेशन तुरंत करवा लो। और रकम की ज़रुरत हो, बिना झिझक कर फ़ोन कर देना। मैं खुद देने आऊंगा। हां वापिस देने की मत सोचना। जब तक इलाज़ पूरा सफल नहीं हो जाता, मैं वापिस नहीं लूंगा।"

प्रीत की आंखों में आंसू थे। कांपते हाथों से दो लाख रुपये पकडे। सोहन दो लाख रुपये दे कर भूल गया कि कभी उसने प्रीत को दिए थे और उससे वापिस भी लेने हैं। प्रीत सोहन के ऑफिस सामान देता रहा और बिल के भुगतान में दो लाख रुपये एडजस्ट करवाने के लिए चेक लेने सोहन के ऑफिस नहीं गया परंतु सोहन ने ऑफिस में आदेश दिया हुआ था कि प्रीत के बिल का भुगतान समय पर कर दिया जाये। जब प्रीत चेक लेने नहीं आया तो अकाउंटेंट खुद उसकी दुकान पर जा कर चेक देता कि सेठ जी का आदेश है। सोहन प्रीत से उसके पिता के इलाज़ और स्वस्थ्य के विषय में बात करता रहता।

एक साल बीत गया। सोहन के पिता का कैंसर का इलाज़ पूर्ण हो गया। इलाज़ के बाद एक दिन प्रीत अपने पिता के साथ सोहन से मिलने ऑफिस आया।

"नमस्ते जी, पिताजी भी मिलने आए हैं।" आज प्रीत की आवाज़ में आत्मसम्मान था। एक वर्ष पहले प्रीत सोहन से कहने के लिए झिझक रहा था, पर आज फिर पुरानी उत्तेजना और स्फूर्ति के साथ चेहरे में मुस्कान लिए प्रीत सोहन के साथ बैठा था।

"पिताजी कहां हैं?" सोहन ने प्रीत से पूछा। 

"जी बाहर बैठे हैं।"

"बाहर क्यों बिठा रखा है। अंदर लाओ। अच्छा रुको, मैं उनको लाने चलता हूं।" सोहन बाहर जा कर प्रीत के पिताजी को केबिन में अपने साथ ले कर आये हैं। "नमस्ते बाबूजी आप का अपना केबिन है, मुझे अच्छा नहीं लगा कि आप बाहर बैठ गए।"

"नमस्ते बेटा, यह तो तुम्हारा बड़प्पन है जो मुसीबत में देवता बन कर आए।" प्रीत के पिताजी ने कुर्सी पर बैठते हुए हाथ जोड़ कर विन्रमता से कहा।

"कैसी बात करते हो बाबूजी, मेरे और प्रीत में कोई अंतर नहीं है। दोस्त भाईओ से बड़ कर होते है।"

बातों के बीच में प्रीत के पिताजी ने अपना बैग खोला और एक लिफाफा सोहन के आगे किया। "यह बेटा, आपकी अमानत, अब मैं इसे और अधिक संभाल नहीं सकता।"

सोहन ने लिफाफा खोला, उसमे दो लाख रुपये थे। "यह क्या दे रहे हो, पिताजी।" 

"बेटा जी, प्रीत ने मेरे इलाज़ के लिए दो लाख रुपये आपसे एडवांस मांगा था, अपने बिलों में एडजस्ट भी नहीं किया। उस समय हमारे पास रकम नहीं थी। अकस्मात इलाज़ का खर्च उठाने में असमर्थ थे। आपके इन दो लाख रुपये ने मुझे नई ज़िन्दगी दी। यदि आप उस समय मदद न करते, तो मैं शायद आज यहां नहीं होता। कैंसर के इलाज़ में आठ लाख रुपये खर्च हुए। आज में स्वस्थ हूं, लेकिन कमज़ोरी की वजह से सदर बाजार हर रोज़ आना जाना मुश्किल है। वहां की दुकान बेच दी है। अब मैं प्रीत का हाथ उसकी दुकान में बटाऊंगा। तुम्हारा उपकार मैं कभी नहीं भूल सकता।"

"बाबूजी इसमें उपकार नहीं है। एक बेटे ने पिता के प्रति सिर्फ फ़र्ज़ निभाया है। मेरे और प्रीत में कोई अन्तर नहीं। प्रीत आपका बेटा, मैं भी आपका बेटा।"

"बेटा, तुम जीवन में बहुत तरक्की करो, मेरी ईश्वर से यही दुआ है। तुमने समय पर मदद की। मैं और मेरा परिवार आभारी है। फिर कभी यदि ज़रूरत पड़ेगी तब निसंकोच तुम्हारे पास आएंगे।" प्रीत के पिता ने मुस्कुराते हुए कहा

"अवश्य मेरा सौभाग्य रहेगा।" सोहन के हाथ में दो लाख रुपये का लिफाफा था।

"नमस्ते बेटा।" प्रीत के पिताजी ने कुर्सी से उठते हुए कहा। "अब चलते हैं। घर आना।"

"अवश्य पिताजी।" सोहन ने भी कुर्सी से उठते हुए कहा।

"नमस्ते भाई साहब।" प्रीत ने कहा।

सोहन नम आंखों के साथ प्रीत और उसके पिताजी को बाहर छोड़ने आया। प्रीत और पिताजी धीरे धीरे सीढ़ियां उतर रहे थे। सोहन की नम आंखों से आंसू छलक गए।



मनमोहन भाटिया

2 comments:

  1. कहानी का सच कितना अच्छा लगता है । वास्तविक जीवन में शायद अब ऐसा बहुत कम होता है । सुंदर कहानी ।

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  2. आज जब भाई, भाई का दुश्मन हो चुका है, ऐसी ही कहानियां आस जगाती हैं मानवता के प्रति।

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