शुक्रवार, 26 जून 2015

परिकल्पना - धूप सेंकतीं औरतें



गुनगुनाती धूप 
और औरतें 
किरणों से बातें करती हैं 
गर्मी को आत्मसात करती हैं 
नहीं देखतीं अपनी दुनिया से परे 
व्यर्थ की बातों को 
अपनी सलाइयों पर 
वह घर बुनती है 
बुनती जाती है 
धूप सेंकते हुए  …। 

रश्मि प्रभा 


वंदना अवस्थी दुबे
धूप सेंकतीं औरतें


"सर्दियों की
गुनगुनी धूप सेंकतीं औरतें,
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
किसी घोटाले से,
करोड़ों के घोटाले से,
या उससे भी ज़्यादा के.
गर्मियों की दोपहर में
गपियाती ,
फ़ुरसत से एड़ियां रगड़ती औरतें,
वे नहीं जानतीं
ओबामा और ओसामा के बीच का फ़र्क,
जानना भी नहीं चाहतीं.
उन्हें उत्तेजित नहीं करता
अन्ना का अनशन पर बैठना,
या लोगों का रैली निकालना.
किसी घोटाले के पर्दाफ़ाश होने
या किसी मिशन में
एक आतंकी के मारे जाने से
उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है?
या किसी को भी क्या फ़र्क पड़ता है?
ये कि अब आतंकी नहीं होंगे?
कि अब भ्रष्टाचार नहीं होगा?
कि अब घोटाले नहीं होंगे?
इसीलिये क्या फ़र्क पड़ता है,
यदि चंद औरतें
देश-दुनिया की खबरों में
दिलचस्पी न लें तो?
कम स कम इस मुग़ालते में तो हैं,
कि सब कुछ कितना अच्छा है!"


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