मंगलवार, 25 अगस्त 2015

परिकल्पना का आगामी अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन थाईलैंड में


पको सूचित करते हुये अपार हर्ष की अनुभूति हो रही है, कि नई दिल्ली, लखनऊ, काठमांडू, थिंपु और कोलंबो के बाद परिकल्पना का आगामी अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन थाईलैंड ( पटाया और बैंकॉक) में दिनांक 10 जनवरी 2016 से 14 जनवरी 2016 के बीच आयोजित होंगे।  उल्लेखनीय है कि खनऊ से प्रकाशित "परिकल्पना समय" (हिन्दी मासिक पत्रिका) और "परिकल्पना" (सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था) ने  संयुक्त रूप से प्रकृति की अनुपम छटा से ओतप्रोत एशिया का एक महत्वपूर्ण देश थाईलैंड  की  सांस्कृतिक राजधानी पटाया और  राजनीतिक  राजधानी  बैंकॉक  में   पाँच  दिवसीय "षष्टम अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन सह परिकल्पना सम्मान समारोह" के आयोजन करने का निर्णय लिया है।


इस अवसर पर आयोजित सम्मान समारोह, आलेख वाचन, चर्चा-परिचर्चा में देश विदेश के अनेक साहित्यकार, चिट्ठाकार, पत्रकार, अध्यापक, संस्कृतिकर्मी, हिंदी प्रचारकों और समीक्षकों की उपस्थिति रहेगी।  जैसा कि आपको विदित है कि  ब्लॉग, साहित्य, संस्कृति और भाषा के लिए प्रतिबद्ध संस्था "परिकल्पना" पिछले पाँच वर्षों से ऐसी युवा विभूतियों को सम्मानित कर रही है जो ब्लॉग लेखन को बढ़ावा देने के साथ-साथ कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। इसके अलावा वह पाँच अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलनों का संयोजन भी कर चुकी है जिसका पिछला आयोजन श्रीलंका की राजधानी कोलंबो और सांस्कृतिक राजधानी कैंडी में किया गया था।


सम्मेलन का मूल उद्देश्य स्वंयसेवी आधार पर एशिया में हिन्दी ब्लॉग के विकास हेतु पृष्ठभूमि तैयार करना, हिंदी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना, भाषायी सौहार्द्रता एवं सांस्कृतिक अध्ययन-पर्यटन का अवसर उपलब्ध कराना आदि है।

इस अवसर पर आयोजित संगोष्ठी के तीन सत्र होंगे जिनके विषय है –"ब्लॉग के माध्यम से एशिया में शांति-सद्भावना की तलाश", "एशिया में भाषाई सद्भाभना और उत्पन्न समस्याएँ" तथा "एशिया में साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान"। इसके अलावा सुर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करती काव्य संध्या और लोककला प्रदर्शनियाँ भी आयोजित होगी।

10 जनवरी 2016  की रात्री में समस्त प्रतिभागी  भारत के प्रमुख महानगर कोलकाता से बैंकॉक के लिए वायु मार्ग से प्रस्थान करेंगे। बैंकॉक पहुँचने के पश्चात समस्त प्रतिभागी सड़क मार्ग से थाईलैंड की सांस्कृतिक राजधानी और दूसरा सबसे बड़ा शहर पटाया के लिए प्रस्थान करेंगे। पटाया थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के बाद दूसरा प्रमुख पर्यटन स्थल है। यह थाईलैंड की खाड़ी की पूर्वी तट पर बैंकाक से लगभग 165 कि॰मी॰ दक्षिण पूर्व में स्थित है। यह थाइलैंड का सबसे प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां ऐडवैंचर के शौकीनों के लिए उम्दा विकल्प तो हैं ही,  मौजमस्ती के ठिकानों की भी कोई कमी नहीं है। फिर चाहे वह वौकिंग स्ट्रीट हो या फिर मसाज पार्लर्स।


गौतम बुद्ध के अनुयायियों वाले देश थाईलैंड में कहीं-कहीं हिन्दी में लिखे ग्लोसाइन बोर्ड देखने को मिलेंगे। भारतीयों के साथ थाईवासी हिन्दी में बात करने का प्रयास करते हैं। भारतीयों को देखकर वे नमस्ते, शुक्रिया आदि कहते हैं। ये हिन्दी के शब्द उनकी जुबान पर छाए हुए हैं। यहाँ आपको कोरल आइसलैंड के साथ-साथ मुख्य पर्यटन स्थलों के भ्रमण का अवसर प्राप्त होगा। रात्री में यहाँ सूर-सरस्वती और संस्कृति की त्रिवेणी प्रवाहित करती काव्य संध्या आयोजित की जाएगी।



इसके बाद हम बैंकॉक के लिए रवाना होंगे। करीब सात करोड़ की आबादी वाले थाईलैंड में हर साल लगभग 60 लाख पर्यटक जाते हैं। इनमें काफी संख्या में भारतीय भी होते हैं। दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र , उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और दक्षिण भारत के राज्यों से हर साल हजारों लोग थाईलैंड जाते हैं। थाईलैंड में कई पंजाबी परिवार सौ साल से भी अधिक समय से रह रहे हैं। यहाँ पर भारतीय खाना आसानी से मिल जाता है। वहीं कई लोग फर्राटे से हिन्दी बोलते हैं। थाईलैंड में म्यांमार के निवासी भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। वे हर भारतीय से हिन्दी में ही बात करते हैं। थाईलैंड और भारत की संस्कृति काफी कुछ मिलती-जुलती है। कई लड़कियों और लड़कों के नाम भारतीयों जैसे ही हैं। वहाँ के वर्तमान राजा को 'रामा नाइन'के रूप में जाना जाता है। थाईलैंड के निवासी राजा को भगवान की तरह मानते हैं। वहाँ हर चौराहा व सड़क पर राजा और रानी की तस्वीरें दिखाई पड़ती हैं।


इस आयोजन को थाईलैंड  में आयोजित करने के मूल उद्देश्य यह है कि सांस्कृतिक दृष्टि से भारत और थाईलैंड में कई समानताएं हैं । भारत से निकल कर बौद्ध धर्म जहां थाई संस्कृति में विलीन हो गया वहीं भारतीय नृत्य शैलियों का यहाँ व्यापक प्रसार हुआ । थाईलैंड के शास्त्रीय संगीत चीनी, जापानी, भारतीय ओर इंडोनेशिया के संगीत के बहुत समीप जान पड़ता है। यहां अनेकानेक नृत्य शैलियां हैं जो नाटक से जुड़ी हुई हैं। यहाँ अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉग सम्मलेन आयोजित करने के पीछे पवित्र उद्देश्य है हिंदी संस्कृति को थाई संस्कृति के करीब लाना और हिंदी भाषा को यहाँ के वैश्विक वातावरण में प्रतिष्ठापित करना।

ठहरने का स्थान: 
(1) पटाया : बेला एक्सप्रेस होटल (10 जनवरी  एवं 11 जनवरी 2016)
(2) बैंकॉक : ग्रांड एप्लिन (12 जनवरी  एवं 14 जनवरी 2016) 

ध्यान दें: इसमें शामिल होने के लिए पासपोर्ट आवश्यक है।

जो प्रतिभागी इस आयोजन में शामिल होने के इच्छुक हो वे
अन्य जानकारी के लिए लिखें: parikalpnaa00@gmail.com:

सोमवार, 17 अगस्त 2015

अम्मा.

......मैंने पहले बोलना सीखा ...अम्मा... !

फिर लिखना सीखा.... क ख ग a b c 1 2 3 ...
फिर शब्द बुने !
फिर भाव भरे !

.... मैं अब कविता गुनता हूँ  , कहानी गड़ता हूँ ..
जिन्हें दुनिया पढ़ती है ..खो जाती है .. रोती है ... मुस्कराती है ...हंसती है ..चिल्लाती है ...
.....मुझे इनाम ,सम्मान , पुरस्कार से अनुग्रहित करती है ...!

.....और मैं किसी अँधेरे कोने में बैठकर,
....खुदा के सजदे में झुककर ,
धीमे से बोलता हूँ ...अम्मा !!!

विजय

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

परिकल्पना - उत्सव समापन




काफी समय हम साथ रहे 
फिर मिलेंगे अगले वर्ष - उत्सव के नए रंगों के साथ। 
ऋतुओं की तरह 
हमारी परिकल्पना भी एक ऋतु है 
जिसमें रंग ही रंग हैं 
कुछ बसंत,कुछ ग्रीष्म,कुछ बारिश,कुछ अंगीठीवाली सर्दी 
सबकुछ हम लाते हैं आपके लिए 
.... 


उत्सव के अंत में हम कुछ प्रकाशित संग्रहों की झलक देंगे, ताकि आप अपनी रूचि के अनुसार चयन कर सकें अपने अनमोल समय को साहित्यिक स्पर्श देने के लिए - 

उससे पहले कुछ देर कवि सूरदास से मिलते हैं -


अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भर्‌यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥। …    

नंदलाल रीझें नहीं तो हर चोले में इतना नाचना सम्भव ही नहीं, साथ साथ तो नंदलाल ने भी ताल दिया है  … 
यह नंदलाल का ही सारथित्व होता है, कि हम जीवन की हरेक विधाओं में नाचते हैं, महामोह के नूपुर पैरों में बंधे होते हैं।  इसमें ही एक विधा है लेखन, हरी इधर से उधर रथ दौड़ाते हैं, और हम अपने कलम वाण से हर छोर को नापते जाते हैं।  उन्हीं छोरों के कुछ संग्रहों को देखिये और पढ़ने की उत्कंठा जगाइए  .... 






गुरुवार, 13 अगस्त 2015

परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 4




हिन्दी साहित्य आज भी कलमकारों से धनी है, एक से बढ़कर एक  … 

थोड़ी सी जमीन
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
[IMG_20150426_200754.jpg]


माँ अब खड़ी है जीवन के
अंतिम पड़ाव पर
नहीं चाहिये उसे कोई एशोआराम
बस एक आत्मीय सम्बोधन
सुबह-शाम .

चुग्गा की तलाश में
किसी चिड़िया सी ही
वह जीवनभर उडती रही है
यहाँ-वहां , ऐसे-वैसे
बस मुडती रही है .
अस्त्तित्त्व और अधिकार के
सारे प्रश्न उसके लिये हैं बेकार
जो कुछ भी था उसके पास  
तुम्हें सब दे चुकी है .
अब थके-हारे पांवों को ,
तुम दे दो थोड़ी सी जमीन.
बिना गमगीन .
फैला सके निश्चिन्तता के साथ 
अपने लड़खड़ाते पाँव.
जमीन --
अपनत्त्व की
घर में उसके अस्तित्त्व की
तुम्हारा जो कुछ है ,उसका भी है .
उसे आश्वस्ति रहे कि 
अशक्त और अकर्म होकर भी
माँ अतिरिक्त या व्यर्थ नहीं है 
तुम्हारे लिए .
वह जो भी सोचती है , 
महसूस करते हो तुम भी
जमीन--
छोटी छोटी बड़ी बातों की
कि दफ्तर से लौटकर
कुछ पलों के लिए ही सही
बेटा मिलने जरुर आता है  
अपने कमरे में जाने से पहले .
पास बैठकर हाल-चाल पूछता है
“माँ ने कुछ खाया कि नहीं ?”
ना नुकर करने पर भी
बुला लेता है अपने साथ .
कि एक पिता की तरह .
घर में बनी या 
बाजार से लाई हर चीज 
माँ को देता है ,खुद खाने से पहले
नकारकर कहीं से उभरती आवाज को कि,
“अरे छोड़ो ,बड़ी-बूढ़ी क्या खाएंगीं !”   
कि रख देता है माँ की हथेली पर
पांच-पचास रुपए बिना मांगे ही .
भले ही वह लौटा देती है 
“मैं क्या करूंगी ”, कहकर
लेकिन पा लेती है वह 
अपने लिए थोड़ी सी जमीन .

तुम उसके सबसे करीब हो
बुढ़ापे की लाठी कहती थी वह तुम्ही को
जन्म और जीवन में..
सम्बल के नाम पर मन में .
बेटे से बढ़कर कोई नहीं होता माँ के लिए  
वह तुम्हें दुनिया में 
बड़े गर्व और विश्वास के साथ लाई है
बेटे की माँ बनकर फूली नही समाई है .

यों तो हर सन्तान की तरह
माँ रही है तुम्हारे मन में
लेकिन अब इसे एक कर्त्तव्य के साथ
महसूस करो .
और कराओ औरों को , माँ को भी ,      
कि माँ तुमसे अभिन्न है ,
फिर क्यों खिन्न है ?
तुम्हारी शिराओं में बह रहा है उसी का रक्त
स्रोत है वह जीवन की नदी का
द्वार है संसार का .
माँ के लिए अब बहुत जरूरी है
ध्यान और मान
उतना ही जितना शरीर के लिए प्राण . 
जरा देखलो तो  
माँ की आँखें क्यों हैं खोई खोई सी ?
क्यों रात में सोते-सोते 
घबराकर उठ जाती है ?
मौन मूक माँ की आँखें 
उन आँखों की भाषा पढलो-समझ लो .
लगालो गले ,
सहलादो माँ की बोझ ढोते थकी पीठ  
उठालो , सम्हालकर रखलो 
बौछारों में भीग रही है वह जर्जर किताब
एक दुर्लभ इतिहास  
अनकहे अहसास 
खो जाएंगे जाने कब ! कहाँ !  .
देखलो माँ के दुलारे ,!
कि कहाँ लडखडा रही है तुम्हारी जननी
पड़ी है जो तुम्हारे सहारे
देखलो कि तुम्हारा सहारा पाकर
वह कैसे खिल उठती है  
मोगरे की कली सी .
“मेरा बेटा ...”,
यह अहसास पुलक और गर्व के साथ
बिखर जाता है खुश्बू सा उसके अन्दर बाहर  
ये दो शब्द तुम्हारे काम आएंगे   
किसी भी धन से कहीं ज्यादा...यकीनन
थोड़ी सी जमीन के बदले
माँ देती है एक पूरी दुनिया .
तुम दे दो माँ को थोड़ी सी जमीन .
जमीन उम्मीदों की .
जमीन होगी तो आसमान भी होगा .



अश्वत्थामा 

कालांतर के झरोखों से
पलटे हैं पन्ने स्मृतियों के
होता है अनायास ही विस्मरण
छूट गए थे जो मील के पत्थर
Nelaksh Shuklaसमय की निरंतरता से पीछे
आज बने हैं स्तंभ विस्मृतियों के
हौले से आकर जो आभास कराते हैं
कभी स्वप्न में कभी यादों में
तुम तो बढ़ गए सवार होकर
समय के रथ चक्र पर
भटक रहा है वह आज भी
इस निषाद वन में
उन विस्मृतियों के साए में
भटकाव ही होगा अंतिम आश्रय
इस अश्वत्थामा का
वह तो शापित था
पुत्र वध में द्रौपदी के
ज्ञात था उसे भटकाव का
भटक रहा है आज भी
अतीत के झंझावात में उलझा
कारणों की तालाश में
आज का अश्वत्थामा।



लम्हों के कुछ क़तरे


Sanjeev Kumar Sharmaज़िन्दगी को परत दर परत खोला
बीते सालों को, महीनों को टटोला,
उन्हें अच्छे से निचोड़ कर लम्हों के क़तरे निकाले
ऐसे कई छोटे-मोटे लम्हे फ़र्श पर उड़ेल डाले,

टकटकी लगाये, हर एक लम्हे पर नज़र गड़ाए
हर एक को उलटता रहा, पलटता रहा
कुछ लम्हे हसीन थे, कुछ लम्हे ग़मगीन थे,
कुछ धुंधले भी थे, कुछ अधूरे भी थे
कुछ में मैं अकेला था, कुछ में हम सभी थे,
कुछ तो ऐसे भी थे जो अजनबी थे,
कई घंटों तक उन्हें देखता रहा, सोचता रहा
इन लम्हों को भी जी लेता तो क्या हो जाता,

एक ऐसे ही अजनबी लम्हे को उठा कर
एक मासूम सा सवाल किया मैंने,
“तुम कब आये मेरी ज़िन्दगी में
मैंने तो तुम्हें कभी देखा नहीं,
क्या तुम सपनों के वो लम्हे हो
जिसे मैं सिर्फ़ ख़्वाबों में जीता था,
जब भी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी के बाद मैं सोता था”
उस नन्हे से लम्हे ने कहा,
“वो तो मेरी ज़िन्दगी का ही हिस्सा है
‘ख़्वाबों के लम्हे’ ये तो बस एक किस्सा है
याद करो वो यारों की महफ़िल
खुला आसमान, घर की ऊपरी मंज़िल
समा जवां हो ही रहा था कि तुम उठ गए
तुम्हारे इस बेगानेपन से सब रूठ गए,
तुम्हें किताबों के दो-चार पन्नों को पांचवी बार जो पढ़ना था
आज की क़ुरबानी दे कर तुम्हें कल से जो लड़ना था”
कई देर तक उसे देखता रहा, उसकी बातों को सोचता रहा
क्या हो जाता गर दीवारों पर दो-चार तमगे कम लटकते
क्या हो जाता गर बाबूजी का सीना दो इंच कम फूलता
यारों के साथ दो गीत गुनगुना लेता तो क्या हो जाता
इस लम्हे को भी जी लेता तो क्या हो जाता,

उस अजनबी लम्हे से खुद को निकाला
एक मायूस लम्हे को उठा कर गोद में संभाला,
वो उदास था, बहुत उदास था
उसे ध्यान से देख कर याद किया
कि आखिर ऐसा क्या हुआ जब ये लम्हा मेरे पास था,
ओहो! किसी अपने ने मुझे कुछ कहा था, जो अभी याद नहीं
पर हाँ उस वक़्त मुझे वो बात बहुत बुरी लगी थी
उसने मुझे समझाने की नाकामयाब कोशिश भी की थी
पर हाँ उस वक़्त नाराज़ रहने की धुन सर पे चढ़ी थी
मगर आज न उसे कुछ याद होगा, न मुझे वो बातें याद हैं
याद करें भी तो बस वो रूठे लम्हे और वो ग़मगीन रातें याद हैं
कई देर तक उस रूठे लम्हे को देखता रहा, सोचता रहा
क्या हो जाता गर उसकी बात को दिल पे न लेता
क्या हो जाता गर उसके समझाने पर पर मैं मान लेता,
न मैं उदास होता, न वो लम्हा मायूस होता
इस लम्हे को भी जी लेता तो क्या हो जाता,

याद रखूँगा इन लम्हों की बात को
“ज़िन्दगी तो कर कोई जिया करते हैं
ज़रा हर लम्हों को जी कर देखो” …
कोशिश करूँगा, ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव पर,
ऐसे ही किसी खुद से बातें करते वक़्त मैं न कहूँ
दो पल जीने के और मिल जाते तो क्या हो जाता,
मैं वो लम्हा जी लेता तो क्या हो जाता
मैं ये लम्हा जी लेता तो क्या हो जाता|

बुधवार, 12 अगस्त 2015

परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 3



एक हाथ की दूरी पर अनेक रचनाकार मिलेंगे, जो एहसासों के कई आयाम लिए मिलेंगे -




  1. वह सचमुच अभी बच्चा है ।
    -- शरद कोकास

    शरद कोकास

    मेरा फोटो

    सर्दियों की रात में अजीब सी खामोशी सब ओर व्याप्त होती है । टी.वी. और कम्प्यूटर और पंखे बंद हो जाने के बाद बिस्तर पर लेटकर कुछ सुनने की कोशिश करता हूँ ।  हवा का कोई हल्का सा झोंका कानों के पास कुछ गुनगुना जाता है । गली से गुजरता है कोई शख्स गाता हुआ ...आजा मैं हवाओं में उठा के ले चलूँ ..तू ही तो मेरी दोस्त है । मैं सोचता हूँ मेरा दोस्त कौन है ..यह संगीत ही ना जो रात दिन मेरे कानों में गूँजता रहता है । संगीत के दीवानों के लिये  दुनिया की हर आवाज़ में शामिल होता है संगीत .. ऐसे ही कभी दीवाने पन में मैंने भी कोशिश की थी इस संगीत को तलाशने की । मेरी वह तलाश इस कविता में मौज़ूद है जो मैंने शायद युद्ध के दिनों में लिखी थी ... 

    संगीत की तलाश

    मैं तलाशता हूँ संगीत
    गली से गुजरते हुए
    तांगे में जुते घोड़े की टापों में

    मैं ढूँढता हूँ संगीत
    घन चलाते हुए
    लुहार के गले से निकली हुंकार में

    रातों को किर्र किर्र करते
    झींगुरों की ओर
    ताकता हूँ अन्धेरे में
    कोशिश करता हूँ सुनने की
    वे क्या गाते हैं

    टूटे खपरैलों के नीचे रखे
    बर्तनो में टपकने वाले
    पानी की टप-टप में
    तेली के घाने की चूँ-चूँ चर्र चर्र में
    चक्की की खड़-खड़ में
    रेलगाड़ी की आवाज़ में
    स्वर मिलाते हुए
    गाता हूँ गुनगुनाता हूँ

    टूट जाता है मेरा ताल
    लय टूट जाती है
    जब अचानक आसमान से
    गुजरता है कोई बमवर्षक
    वीभत्स हो उठता है मेरा संगीत
    चांदमारी से आती है जब
    गोलियाँ चलने की आवाज़
    मेरा बच्चा इन आवाज़ों को सुनकर
    तालियाँ बजाता है
    घर से बाहर निकलकर
    देखता है आसमान की ओर
    खुश होता है

    वह सचमुच अभी बच्चा है ।

                

    कवि और कमली
    दीपिका रानी 

  2. [*]








    क कली दो पत्तियां
  3. तुम श्रृंगार के कवि हो
    मुंह में कल्पना का पान दबाकर
    कोई रंगीन कविता थूकना चाहते हो।
    प्रेरणा की तलाश में
    टेढ़ी नज़रों से
    यहां-वहां झांकते हो।
    अखबार के चटपटे पन्‍नों पर
    कोई हसीन ख्वाब तलाशते हो।

    तुम श्रृंगार के कवि हो
    भूख पर, देश पर लिखना
    तुम्हारा काम नहीं।
    क्रांति की आवाज उठाने का
    ठेका नहीं लिया तुमने।
    तुम प्रेम कविता ही लिखो
    मगर इस बार कल्पना की जगह
    हकीकत में रंग भरो।
    वहीं पड़ोस की झुग्गी में
    कहीं कमली रहती है।
    ध्यान से देखो
    तुम्हारी नायिका से
    उसकी शक्ल मिलती है।

    अभी कदम ही रखा है उसने
    सोलहवें साल में।
    बड़ी बड़ी आंखों में
    छोटे छोटे सपने हैं,
    जिन्हें धुआं होकर बादल बनते
    तुमने नहीं देखा होगा।
    रूखे काले बालों में
    ज़िन्दगी की उलझनें हैं,
    अपनी कविता में
    उन्हें सुलझाओ तो ज़रा!

    चुपके से कश भर लेती है
    बाप की अधजली बीड़ी का
    आग को आग से बुझाने की कोशिश
    नाकाम रहती है।
    उसकी झुग्गी में
    जब से दो और पेट जन्मे हैं,
    बंगलों की जूठन में,
    उसका हिस्सा कम हो गया है।

    तुम्हारी नज़रों में वह हसीन नहीं
    मगर बंगलों के आदमखोर रईस
    उसे आंखों आंखों में निगल जाते हैं
    उसकी झुग्गी के आगे
    उनकी कारें रेंग रेंग कर चलती हैं।
    वे उसे छूना चाहते हैं
    भभोड़ना चाहते हैं उसका गर्म गोश्‍त।
    सिगरेट की तरह उसे पी कर
    उसके तिल तिल जलते सपनों की राख
    झाड़ देना चाहते हैं ऐशट्रे में।

    उन्हें वह बदसूरत नहीं दिखती
    नहीं दिखते उसके गंदे नाखून।
    उन्हें परहेज नहीं,
    उसके मुंह से आती बीड़ी की बास से।
    तो तुम्हारी कविता
    क्यों घबराती है कमली से।
    इस षोडशी पर....
    कोई प्रेम गीत लिखो न कवि!

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 2





बेहतरीन रचनाकारों की दूसरी कड़ी -


लरजती उम्मीद ...फौलादी विश्वास
वाणी गीत 


"जल्दी उठो ...रामपतिया आई नहीं अभी तक , मसाला भी पिसा नहीं , आटा भी नहीं गूंधा हुआ ...अब खाना कैसे बनेगा ...मुझे देर हो रही है ...तुम जाकर देख आओ, क्यों नहीं आ रही है।"

तेजी से घर में घुसते हुए नीरा के कदम रुक गए ।

मतलब महारानी अभी भी सो ही रही है ...

पड़ोस में ही रहने वाली अपनी सहेली सीमा से मिलने आई नीरा ने जा कर उसे झिंझोड़ दिया .

तुम्हे कोई शर्म है या नहीं ...इतने दिनों बाद लम्बी छुट्टियों में आई हो और पसरी रहती हो इतनी देर तक , ये नहीं कि आंटी की थोड़ी हेल्प ही कर दो ।

कभी -कभी ही तो आती हूँ...तो आराम से नींद तो पूरी कर लूं ...अपना वॉल्यूम कम करो तो ....कुशन से अपने कान ढकती सीमा महटियाने लगी .

अब तुम ही संभालो इसे , मैं तो भाग रही हूँ ...पहले ही लेट हो गयी हूँ .

आप जाईये आंटी ...इसको तो मैं देखती हूँ ...

नीरा रसोई में घुस गयी.

महारानी , उठो अब ...चाय पी लो ...आंटी स्कूल गयीं ...दुबारा कोई चाय नहीं बनाने वाला है . 

थैंक यू ,दोस्त हो तो ऐसी ....चाय का गरमागरम कप हाथ में लेते सीमा उठ गयी .

"इस रामपतिया को क्या हो गया , आ नहीं रही ४ दिन से ...सब काम मुझे ही देखना पड़ रहा है "

कही गाँव चली गयी हो .

अरे नहीं , अभी तो ज्यादा समय नहीं हुआ उसे गाँव से आये ...उसका बेटा आने वाला था ...शहर में कोई अच्छी नौकरी मिली है उसे .

दोनों सहेलियां चाय सुड़कते बाहर बरामदे में आ बैठी।

बरामदे से सटे बगीचे में गुडाई करते किशन को सीमा ने आवाज़ लगाई ...

" किसना ...तनी रामपतिया का खबर लेके आओ तो ...काहे नईखी आवत ...4 दिन भईल ...जा दौड़ के देख तो ..."चाय पीकर दोनों बतियाते हुए बरामदे से सटे  बगीचे में टहलती रही .

दीदी जी , दीदी जी ...किशन की आवाज सुनकर दोनों दौड़कर बरामदे में आई तो सामने बदहवास हांफता किशन नजर आया .

का भईल रे ...

उ दीदी जी ...उहाँ ढेर लोंग रहे ....का जाने का बात बा ...पुलिसवा भी रहे ... हम तो भागे आईनी .

चल , देख कर आते हैं ...क्या बात है !

किसी अनहोनी की आशंका में दोनों सहेलियाँ साथ लपक ली ।

रामपतिया के घर का नजारा देख दोनों स्तब्ध रह गयी ...पुलिस वाले बता रहे थे ...बुखार था इसे दो -तीन दिन से ....पेट में कुछ अन्न नहीं गया ...पहले से हड्डियों का ढांचा भूख बर्दाश्त नहीं कर पाया ..कल से बेहोश पडी थी .
ओह! धम से बैठ गयी नीरा वहीँ ...

३-४ घरों में काम करके कमाने वाली रामपतिया ने अपनी मेहनत की कमाई से बेटे को पढने लिखने शहर भेजा ...इतनी स्वाभिमानी कि काम करके लौटते गृहस्वमिनियाँ खाना खाने को कहती तो साफ़ मना कर देती ...
" ना ...बहुरिया ...भात पका के आईल बानी "

रात दिन कुछ न कुछ मांग कर ले जाने वाली अन्य सेविकाओं के मुकाबले उसे देखना सीमा और नीरा को सुखद आश्चर्य में डालता था । भीड़ को हटा और पुलिस वाले को विदा कर दोनों उसे रिक्शे में लेकर डॉक्टर के पास भागी । ग्लूकोज़ की दो बोतलों ने शरीर में कुछ हरकत की ।

नीरा बिगड़ने लगी थी उस पर ...
का जी ...बीमार थी तो कहलवा नहीं सकती थी ... जो प्राण निकल जाता तो पाप किसके मत्थे आता ...उ जो बेटा लौटने वाला है शहर से ...सोचा है ...का होता उसका ।

बबी ...गुस्सा मत कीजिये .... कहाँ बुझे थे कि ऐसन हो जाएगा ...हमसे उठा ही नहीं गया कि कुछ बना कर खा लेते ...और प्राण कैसे निकलता ...बिटवा जो आये वाला है ।

उन लरजती पलकों में हलकी सी नमी के बीच ढेर सारी उम्मीद लहलहा रही थी। सीमा और नीरा उसके जज्बे के आगे नतमस्तक थी । हड्डियों का वह ढांचा अचानक उन्हें फौलादी लगने लगा था ।


सच या झूठ - लघुकथा
अनुराग शर्मा
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पुत्र: ज़माना कितना खराब हो गया है। सचमुच कलयुग इसी को कहते हैं। जिन माँ-बाप का सहारा लेकर चलना सीखा, बड़े होकर उन्हीं को बेशर्मी से घर से निकाल देते हैं, ये आजकल के युवा।

माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।

पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
 खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।

माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?

पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?

माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।

पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है। 


तुम हो
सागर 
[Saagar.JPG]

तुम एक कैनवास हो। धूप और छांव की ब्रश तुमपर सही उतरती है।
तुम खुले आसमान में ऊंची उड़ान भरती एक मादा शिकारी चील हो जो ज़मीन पर रंगती शिकार को अपनी चोंच में उठा लेती हो। 
तुम एक सुवासित पुष्प हो जिसे सोच कर ही तुम्हारे आलिंगन में होने का एहसास होता है।
तुम एक तुतलाती ऊंगली हो, जिसके पोर छूए जाने बाकी हैं
तुम मेरे मरे मन की सर उठाती बात हो 
तुम हो तो मैं यकीन की डाल पर बैठा कुछ कह पा रहा हूं
तुम हो रानी, 

तुम हो।

तुम्हारे पीठ की धड़कन सुनता हूं
तुम्हारे मुस्काने की खन-खन बुनता हूं
मैं स्टेज पर लुढ़का हुआ शराब हूं 
और तुम उसका रिवाइंड मोड की स्थिति
मैं वर्तमान हूं
तुम अपनी अतीत में ठहरी सौम्य मूरत
तुम हो रानी, 
तुम हो। 

सेक्सोफोन पर की तैरती धुन
तुम्हारा साथ, लम्हों की बाँट, छोटी छोटी बात
हरेक उफनती सांस, हासिल जैसे पूरी कायनात
आश्वस्ति
कि तुम हो। 

तुम हो रानी, 
तुम हो। 

सोमवार, 10 अगस्त 2015

परिकल्पना - एक हाथ दे, एक हाथ ले रचनाकार नहीं हो सकता - 1





लिखते सभी हैं, 
पढ़ने में प्रतिस्पर्धा है !
ऐसा क्यूँ ?
 एक हाथ दे, एक हाथ ले - यह भी कोई साहित्यिक भावना हुई !
रूचि यदि शब्दों की है,
मर्म की है 
तो यात्रा बाधित हो ही नहीं सकती।  
पर यहाँ आवश्यक है - समीक्षा 
टिप्पणी 
लाइक्स 
सबकुछ व्यावसायिक !!!
रश्मि प्रभा 


हीरा तो हीरा ही होता है, खरीदो या न खरीदो - 
जो बेहतरीन हैं, वे हर हाल में बेहतरीन होंगे  .......... 

क्रमशः मिलवाती हूँ बेहतरीन रचनाकारों से, 


पिता को याद करते हुए
 राजेश उत्‍साही
[IMG_5128.JPG]

1.
पिता
पिता जैसे ही थे
अच्‍छे  
लेकिन
इतने भी नहीं कि
उन्‍हें बुरा न कह सकूं।

2.
पिता
बहुत प्‍यार करते थे
अपनी मां से,
इसलिए
कभी कभी
हमारी मां की पीठ
हरी नीली हो जाया करती थी।  

3.
पिता
रेल्‍वे के मुलाजिम थे
ईमानदारी से कमाई रोटी
पकती थी
जुगाड़ की आंच पर ।


4.
पिता
जुआ नहीं खेलते थे
पर सट्टे का गणित लगाते थे   
जीतते थे कि नहीं, क्‍या पता
पर जिंदगी में हारते कभी नहीं देखा।

5.
पिता
कभी सुन नहीं पाए
हमारे मुंह से पिता
सबके
बाबूजी
हमारे भी थे।

6.
पिता
सूक्तियों में मरने की हद तक
विश्‍वास करते थे,
शेर की नाईं चार दिन जियो
गीदड़ की तरह सौ साल जीना बेकार है
वे जिये इसी तरह।

7.
पिता
कहते थे
आत्‍महत्‍या समाधान नहीं है,
इससे समस्‍या नहीं हम स्‍वयं खत्‍म हो जाते हैं
आत्‍महत्‍या के तमाम असफल प्रयासों
के लिए जिम्‍मेदार
उनके ये शब्‍द ही हैं जो    
अंतिम क्षणों में याद आते रहे।


तो क्या कोरी हूँ मैं ?
वंदना गुप्ता 



अक्सर जुडी रहती हैं स्त्रियाँ 
अपनी जड़ों से 
फिर उम्र का कोई पड़ाव हो 

नहीं छोड़ पातीं 
ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर 
घर आँगन दहलीज 
और अक्सर 
शामिल होते हैं उनमे उनके दुःख दर्द और तकलीफें 

स्मृतियों के आँगन में 
लहलहाती रहती है फसल 
फिर चाहे सुख का हर सामान मुहैया हो 
फिर चाहे नैहर से ज्यादा सुख और प्यार मिला हो 
फिर चाहे पा लिया हो मनचाहा मुकाम 
जो शायद कभी हासिल न हो पाता वहां 

फिर भी स्त्रियाँ 
जुडी रहती हैं अक्सर 
अपनी जड़ों से 

देखती हूँ अक्सर 
खुद को रख कर इस पलड़े में 
तो पाती हूँ 
खुद को बड़ा ही बेबस 
क्योंकि 
मेरी स्मृतियों का आँगन बहुत उथला है 

रच बस गयी हूँ अपनी ज़िन्दगी में इस तरह 
कि 
नैहर बस सुखद स्मृति सा पड़ा है मन के कोनों में 

आखिर कब तक पाले रखे कोई 
दुखो के पहाड़ 
स्मृतियों की तलहटी में 
जो अतीत की याद में 
हो जाए वर्तमान भी बोझिल 

भुला चुकी हूँ 
ज़िन्दगी की दुश्वारियाँ भी इस तरह 
कि अब चारों तरफ अपने 
देखती हूँ सिर्फ ज़िन्दगी की खुश्गवारियाँ
क्योंकि 
ज़िन्दगी सिर्फ चुटकी भर नमक सी ही तो नहीं होती न 

भूल कर विगत के सब गम 
जीती हूँ आज में 
तो क्या कोरी हूँ मैं ?


कुछ भी तो नहीं...
शिखा वार्ष्णेय 
मेरा फोटो
वो खाली होती है हमेशा।
जब भी सवाल हो,क्या कर रही हो ?
जबाब आता है
कुछ भी तो नहीं
हाँ कुछ भी तो नहीं करती वो
बस तड़के उठती है दूध लाने को
फिर बनाती है चाय
जब सुड़कते हैं बैठके बाकी सब
तब वो बुहारती है घर का मंदिर
फिर आ जाती है कमला बाई
फिर वो कुछ नहीं करती
हाँ बस काटती रहती है चक्कर उसके पीछे
लग लग के साथ उसके
निबटाती है काम दिन के
बनाकर खिलाती है नाश्ता
और रम जाती है उस नन्हें बच्चे में
जो कूदता है उसकी पीठ पर, कन्धों पर
करता है मनमानी, उठाकर कर फेंकता है सामान 
पर वो कुछ नहीं करती 
बस समेटती रहती है सब कुछ
कुछ नहीं कहती
वो तो खेलती है उसके संग
सो गया बालक
चलो अब चाय का समय है
साथ साथ कटती है तरकारी
बीच में आता है प्रेस वाला
और भी न जाने कौन कौन वाला
भाग भाग कर देखेगी सबको
फिर बनाएगी खाना रात का
बस परोसेगी, खिलाएगी जतन से
फिर खुद भी खाकर
बैठ जायेगी टीवी के सामने
देखने कोई भी सीरियल ,
जो भी चल रहा हो उसपर
और बैठे बैठे ही मुंद जाएँगी उसकी बोझिल आँखें
आखिर किया ही क्या उसने
करती ही क्या है वो सारा दिन
कुछ भी तो नहीं .

रविवार, 9 अगस्त 2015

परिकल्पना - हम चाहकर भी मदद नहीं कर पाते - क्यों ?




हम  दिल से चाहते हैं मदद करना 
पर बहुत मुश्किल है 
कानून ही चैन से नहीं रहने देता  … यह मेरा मानना नहीं है, मेरा दृष्टिगत अनुभव है।  
रश्मि प्रभा 


हम चाह कर भी दूसरों की मदद नहीं कर पाते, क्यों ?
*ऋता शेखर ‘मधु’*


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहते हुए हम आस-पास में घटित घटनाओं से अनजान नहीं रह सकता| जीवन डगर सदा सीधी राह चले , यह भी संभव नहीं| मानव स्वभाव में प्रेम, स्नेह, अनुशासन, क्रोध , इर्ष्या आदि का समावेश रहता है साथ ही दूसरों के कष्ट देखकर मानवीय संवेदना भी उत्पन्न होती है| हमारा मन बार बार उनकी मदद करने की प्रेरणा देता है| पर ऐसा क्या है कि हम चाह कर भी दूसरों की मदद नहीं कर पाते| सक्षम होते हुए भी हमारे हाथ उन कँधों तक नहीं पहुँच पाते| क्या इसके लिए हमारा सामाजिक माहौल, पारिवारिक दायित्व, डर, कानूनी बंधन, मानसिक स्थिति या व्यक्ति विशेष से रिश्तों का सांमजस्य उत्तरदायी है?
.
कुछ सामान्य घटनाओं पर नजर डाल सकते हैं| पड़ोस में खुशहाल सा दिखने वाले घर में बहु की आँखें हमेशा छलछलाई रहती हैं| मुँह से कुछ नहीं कहती पर चेहरा आंतरिक तकलीफ बयान कर देता है| क्या सब कुछ देख समझ भी हम कुछ कर पाएँगे, नहीं न| जब हम उसे जीवन भर की सुरक्षा नहीं दे सकते तो चुप रहना ही बेहतर समझते हैं|



अभी हाल में विद्यालय की ओर से अपने आसपास के क्षेत्र के बच्चों की सूची तैयार करने के लिए सर्वे पर जाने का मौका मिला| तभी एक घर के बाहर संभ्रांत वृद्धा घर के गेट के बाहर बैठी थी | पोतियों ने उन्हें घेर रखा था पर वे भीतर जाने के लिए तैयार नहीं थीं| बार बार कह रही थीं, अब तुम लोगों के व्यवहार सहन नहीं होते| उस वक्त हम यही सोच रहे थे कि बच्चों से ज्यादा वृद्धों की स्थिति पर सर्वे होना चाहिए| हम चाह कर भी उनकी मदद नहीं कर पाए कि यह उनके घर का मामला है| घर के मामले जब सड़क पर आ जाएँ तो वह समाज का मामला हो जाता है फिर भी हम चुप रहते हैं|

दूर के परिवार में अशक्त वृद्ध को समय पर खाना नहीं मिलता| माँगने पर दो रोटियाँ तानों के साथ मिल गईं| वृद्ध से खाया नहीं गया क्योंकि अपने समय में उन्होंने स्वादानुसार खाया है| पर वह यह सोच कर खा लेते हैं कि फिर कब मिल पाएगा| हम कुछ नहीं कर पाते क्योंकि जवाब हाजिर रहता है- इतनी ही सहानुभूति है तो अपने घर ले जाइए| अपने घर ले भी जाना चाहें तो वृद्ध ही तैयार नहीं होंगे अपना तथाकथित घर छोड़ने के लिए|



परिवार में दूर के रिश्ते की एक कन्या का विवाह तय हुआ| उसके पिता नहीं थे और आर्थिक स्थिति दयनीय थी| शादी के लिए मदद करने की बात थी| थोड़े पैसों के लिए कोई बात नहीं थी पर करीब पचास हजार देने थे| यह भी तय था कि वे वापस नहीं मिलने वाले थे| तो चाह कर भी मदद न कर पाना बड़ी मजबूरी थी क्योंकि उनके भी पारिवारिक दायित्व थे|

एक बार एक परिचित बता रहे थे कि उनके घर के पास कोचिंग संस्थान है| शाम वाली क्लास से छूटते छूटते थोड़ी रात हो जाती है| संस्थान से निकलने वाली लड़कियाँ जब निकलती हैं, कुछ देर के लिए एक गली मिलती है| वहाँ पर रौशनी की समुचित व्यवस्था नहीं है| जिनके अभिभावक लेने आते हैं उनके लिए कोई बात नहीं| मगर अकेली लड़कियाँ अक्सर मनचले युवकों की बदतमीजियों का शिकार बन जाती हैं| ऐसे में एक दिन उन्होंने देखा कि कुछ लड़के एक लड़की को बुरी तरह से छेड़ रहे थे और डर से वह लड़की चिल्ला रही थी| हमने कहा कि उन्हे उस लड़की की मदद करनी चाहिए थी| इसपर उन्होंने बताया कि वे गुंडे टाइप लड़के विरोध करने पर गोलियाँ भी चला सकते थे| डर के भाव ने चाह कर भी मदद करने से उनके हाथ रोक दिए|



कुछ रिश्ते आपस में उलझे हुए होते हैं| ऐसे में किसी पर विपदा आए तो चाह कर भी हम मदद नहीं कर पाते कि सामने वाला कहीं गलत अर्थ न लगा ले| स्वार्थी होने की तोहमत न लगा दे|



सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति अस्पताल तक पहुँचते पहुँचते दम तोड़ देता है| सड़क पर लोगों की भीड़ होती है पर आगे कोई नहीं बढ़ पाता | पूछताछ के झँझटों से सभी बचना चाहते हैं| कानूनी प्रक्रिया की जटिलता से सभी डरते हैं|



मदद न कर पाने की कसमसाहट से छुटकारा पाना आसान नहीं होता फिर भी मूक बने हम देखते रह जाते हैं|
किसी बीमार को खून की जरूरत हो तो मदद करना चाह कर भी नहीं कर पाते| परिवार का कोई सदस्य पीछे खींच लेता है कि खुद को कमजोर क्यों बनाना| यहाँ पर मानसिकता हावी हो जाती है|



कभी कभी ,’’आ बैल मुझे मार,’’ वाली स्थिति भी पैदा हो जाती है| मदद कर भी दिया जाए और कुछ ऊँच नीच हो जाए तो तोहमत जड़ते भी लोगों को देर नहीं लगती| इस तरह के स्वभाव वालों से बच कर रहना भी मजबूरी बन जाती है|

शनिवार, 8 अगस्त 2015

परिकल्पना - बारिश का मतलब




एक गीत है,
किसी के घर तू रिमझिम बरसे 
कोई बूँद पानी को तरसे 
बारिश के अलग अलग मायने  … 
रश्मि प्रभा 


बारिश का मतलब
डा0हेमन्त कुमार
[Photo0167.jpg]

बारिश का मतलब
नहीं होता सिर्फ़
गरम गरम पकौड़ी और चाय
हंसी ठहाका और तफ़रीह
या फ़िर लार्ज या स्माल पेग और मुर्गा
साथ में राजनीति
सास बहू या कहानी घर घर की पर
चर्चा और लफ़्फ़ाजी।
बारिश का मतलब होता है
झोपड़ी के कोने में
पूरे कुनबे का गुड़मुड़िया कर
एक ही बंसेहठी पर बैठना
चारों ओर से फ़टी पालीथिन की छत से
टपकते पानी को एकटक निहारना
झोपड़ी में भर गये पानी में
तैरते हुये खाली बरतनों को देखना
और अररा कर बरस रहे मेघ को
भयभीत नजरों से निहारना।
चिन्ता इस बात की करना कि
पूरा कुनबा
इस झर झर बारिश में
कहां सोयेगा
झोपड़ी के किस कोने में परबतिया
जलायेगी चूल्हा
कहां पकायेगी रोटी
कि भर सके पूरे कुनबे का पेट।
बारिश का मतलब होता है
इस बात की चिन्ता भी कि अगर
हवा और तेज हुयी
फ़िर भरभरा कर गिर जायेगी
कच्ची माटी की भीत तो
पूरा कुनबा शहर के किस कोने में
शरण लेगा
किसी खाली बस स्टैन्ड के शेड के नीचे
नगर निगम के ह्यूम पाइप में
या फ़िर किसी निर्माणाधीन इमारत के बराम्दे में।
बारिश का मतलब होता है
हरखू की चिन्ता
इस बात की कि कल
जब सबके खेतों में चलेगा हल
तो कैसे जोतेगा वह खेत
बिना बैलों के
कहां से आयेगा बीज बोने के लिये।
लेकिन हमें क्या मतलब है
हरखू या परबतिया की चिन्ता से
हमारे लिये तो बारिश का मतलब ही है
बालकनी में बैठकर
चाय या व्हिस्की की चुस्कियां
मुर्गे की टांग या पकौड़ी
और झमाझम बौछार का आनन्द उठाना।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

परिकल्पना - जो होता है वह अदृश्य शक्ति का फैसला है !




बच्चा ईश्वर का दिया एक सपना है 
इस सपने को हकीकत बनाने तक 
माँ-पिता, 
साथ रह रहे परिवार के सदस्यों को 
अपने व्यवहार, अपनी बोली 
अपनी सोच, 
अपनी चाह पर संतुलन बनाके रखना होता है  … 
रट्टू तोते की तरह सिर्फ अभिमन्यु की कहानी दुहराने से कुछ नहीं होता 
आस-पास कई अभिमन्यु,कर्ण,सीता,द्रौपदी  .... होते हैं 
मानसिक स्थिति, परिवेश, खानपान का प्रभाव कम-अधिक पड़ता ही पड़ता है। 
किसी के गलत व्यवहार पर हम जब दुखी होते हैं तो उसके साथ कुछ गलत हो तो अकस्मात हम कहते हैं -'अच्छा हुआ'  !
जो होता है वह अदृश्य शक्ति का फैसला है ! निःसंदेह, एक बार मन अनर्गल सोच जाता है, परन्तु वाणी पर नियंत्रण ज़रूरी है - सारे खेल वाणी के होते हैं जो कब,कहाँ वार करेंगे, कोई नहीं जानता। 


चक्रव्यूह में अभिमन्यु
हर्ष कुमार
मेरा फोटो

अतीत और भविष्य के बीच फँसा
आदमी रहता है त्रिशंकु सा
जानता नहीं किसे पकड़े-
अतीत को या भविष्य को?

अतीत बीत गया है
वापस नहीं आयेगा।
चला गया है हमेशा- हमेशा के लिये।
अब है तो केवल एक स्वप्न सा
आँख बन्द हो तो सामने है
आँख खुले तो अदृष्य, गायब ।

भविष्य भी अदृष्य है ।
पता नहीं क्या है आने वाले समय में।
उसे खोजना, उसके पीछे भागना व्यर्थ है
जैसे मरीचिका के पीछे भगना।
आँख बन्द हो तो दिखता है कल्पना में
आँख खुले तो गायब।

वर्तमान भी कम नहीं
बस भागता रहता है हर पल
एक दरिया सा बहता है निरंतर
थमता नहीं कि उसे देख सकें
परख कर सकें, पकड़ सकें उसे।
रोक पायें अपने दायरे में।

इन्हीं समस्याओं की त्रिविधा में फँसा आदमी
रह जाता है त्रिशंकु सा,
असमर्थ, निसहाय, अकेला।
जानता नहीं कि क्या करे?
किसे पकड़े? किसे रोक कर रखे?
कैसे निकल पायेगा इस चक्रव्यूह से ?

इस चक्रव्यूह से निकल पाता है
बस वही, जो जानता हो
कि निकलना नहीं है कभी
बस यहीं रहना है।
चक्रव्यूह में अभिमन्यु के समान
अपने मर्यादा चक्र में बंधे
अपना कार्म करते हुए
मोक्ष प्राप्त करना है।
बस यहीं रहना है
चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह।

नियति
सरस दरबारी 

मेरे हिस्से की धूप

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नियति के विस्तृत सागर में
कब कौन कहाँ तर पाया है -
जिसको चाहा , रौंदा उसने
और पार किसीको लगाया है .
पेशानी पर जो लिखा है -
बस पेश उसीको आना है
कितना भी तुम लड़ लो भिड़ लो
उसका ही सच अपनाना है .
क्या देव और यह दानव क्या-
कोई भी बच न पाया है -
फिर तुम तो केवल इंसान हो -
सब पर नियति का साया है                                                                                                                                                 
होता न ऐसा तो पांडव
क्यों दर दर भटके भेशों में -
महारानी द्रौपदी क्यों बन गयी-
सैरंध्री कीचक के देश में .
क्यों राम ने छोड़ा देस अपना -
और भटके जंगल जंगल में
था राज तिलक होना जिस दिन
वे निकले वन्य प्रदेश में.
 बस नियति ही करता धर्ता
उसके आगे सब बेबस हैं
फिर कौन गलत और कौन सही -
सब परिस्थितियों के फेर हैं .
 
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