रविवार, 27 अप्रैल 2008

खेल खेल सा खेल खिलाड़ी !

खेल खेल सा खेल खिलाड़ी,
सबसे रख तू मेल खिलाड़ी !
नियम बने हैं बाती- भाँति,
खेल है दीपक, तेल खिलाड़ी !
बन्दर के हांथों में मत दे,
मीठे-मीठे बेल खिलाड़ी !
खुशी जीत की सबको होती,
हार भी हंसकर झेल खिलाड़ी !
ख्वाब हो ऊंचे, लक्ष्य बड़े हों,
मन में हो ना मैल खिलाड़ी !
टीम से तुम हो, टीम न तुमसे ,
दुनिया रेलमपेल खिलाड़ी !
भाव खाओ मत, बड़े नही हो,
"हेड" हो या फ़िर "टेल" खिलाड़ी !
(रवीन्द्र प्रभात )

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

ग़ज़ल: अब न हो शकुनी सफल हर दाव में ...!




भर दे जो रसधार दिल के घाव में ,
फ़िर वही घूँघरू बंधे इस पाँव में !

द्रौपदी बेवस खड़ी कहती है ये -
अब न हो शकुनी सफल हर दाव में !

बर्तनों की बात मत अब पूछिए-
आजकल सब व्यस्त हैं टकराव में !

मंहगाई और मेहमान दोनों हैं खड़े-
काके लागूं पाय इस अभाव में ?

है हरतरफ़ क्रिकेट की चर्चा गरम -
बेडियां हॉकी के पड़ गए पाँव में !

है सफल माझी वही मझधार का-
बूँद एक आने न दे जो नाव में !

बात करता है अमन की जो "प्रभात "
भावना उसकी जुडी अलगाव में !

(रवीन्द्र प्रभात)

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

ग़ज़ल: घर को ही कश्मीर बना !

कैनवस पर अब चीड़ बना ,
घर को ही कश्मीर बना ।

सत्ता के दरवाजे पर ना -
बगुले की तसवीर बना ।

झूठ-सांच में रक्खा क्या -
मेहनत कर तकदीर बना ।

रोज धूप में निकलो मत -
चेहरे को अंजीर बना ।

ऐटम-बम से हाथ जलेंगे -
प्यार की इक तासीर बना ।

सूरज सिर पर आया है -
मन के भीतर नीर बना ।

अदब के दर्पण में "प्रभात"
ख़ुद को गालिब-मीर बना ।
()रवीन्द्र प्रभात



शनिवार, 12 अप्रैल 2008

एक मुलाक़ात , उडन तश्तरी के साथ ....!


कल मेरे शहर में थे समीर भाई , जी हाँ वही समीर लाल जी जिनकी "उडन तश्तरी " के दीदार के लिए वेचैन रहते हैं हिन्दी के कतिपय ब्लोगर । ठीक दोपहर के बारह बजे जब ताण्डव कर रहा था ग्रीष्म , चंद लमहात समीर भाई के साथ गुजारते हुए अच्छा लगा । हुआ यों कि अचानक सुबह नौ बजे के आस-पास मेरे मोबाइल की घंटी बजी और मैं हतप्रभ रह गया यह जानकर कि समीर भाई मेरे शहर में? थोड़ी देर के लिए कानों को यकीन ही नही हुआ मगर अगले ही क्षण दिल ने महसूस किया कि यह समीर भाई की ही आवाज़ है । मैंने झटपट अपने एक कवि मित्र राहुल सक्सेना को फोन किया और उसे अपने साथ लेकर पहुंचा समीर भाई के पास । एक संक्षिप्त मुलाक़ात समीर भाई के साथ इतना ऊर्जादायक रहा कि उसे वयान करते हुए मुझे शब्द कम पड़ रहे हैं । बस इतना ही कह सकता हूँ कि इस संक्षिप्त मुलाक़ात की तपीश में फीकी पड़ गयी ग्रीष्म की तपीश । मुझे ग्रीष्म में बसंत का एहसास होने लगा , मगर अगले ही क्षण जब समीर भाई से अलग हुआ महसूस करने लगा ग्रीष्म की तपीश ।
मैं पहली बार कल मिला समीर भाई से , अब तक केवल ब्लॉग पर पोस्ट पढ़ते हुए ही उनके व्यक्तित्व को महसूस किया था पर साक्षात मिलाने का आनंद ही कुछ और था । कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके विचार तो महान होते हैं, पर व्यक्तित्व महान नही होता , कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनका व्यक्तित्व महान होता है पर विचार महान नही होते । मगर मैंने समीर भाई के व्यक्तित्व को भी उतना ही उत्कृष्ट महसूस किया जितना उनके विचारों को महसूस करता था । मैं इस मुलाक़ात को एक सुंदर सुयोग की संज्ञा देता हूँ ।
अचानक बसंत ऋतु की विदाई के पश्चात् जब आगमन होता है ग्रीष्म का , तो मन किसी अनचाहे दर्द को महसूस करने लगता है अनायास हीं । मगर हवाओं का चुप होना वेहद सालता है जब तमाम दुश्प्रवृतियों को समेटे ताण्डव करने लगता है ग्रीष्म......लाल रेखाएं खींच जाती अचानक , लहर के लोल पर ....चिडियां नही करती किल-बिल, सुनाई नही देती स्पष्ट पक्षियों की चहचहाहट ....नही रम्भाती गायें खुलकर ....कि जैसे स्तब्ध हो जाती पृथ्वी हवाओं के चुप होने से ...!
यद्यपि गर्मी में प्रेम का भी एहसास उतना ही होता है जितना विरह का । बहुत पहले मैंने इसी एहसास पर एक कविता लिखी थी , उसकी चंद पंक्तियों का एहसास आप भी करें - " मैंने पहले भी तो बाँटीं थी / तुम्हारे अकेलेपन की शाम / जेठ की तपती धूप और गर्म साँसें / तुम्हारे सुख के लिए/ मगर- तुम्हारी नर्म उंगलियाँ / नही खोल पायी थी / मेरे मन की कोई गाँठ/ एक बार भी ......एक बार भी - सर्पीली सडकों पर सफर करते हुए / तुम्हारे पाँव नही डगमगाए थे और मैं- पहाडों की तरह पघलता रहा सारा दिन / सारी रात.....तुम्हारे साथ-साथ ....!"
चलिए जब समीर भाई के बहाने ग्रीष्म की चर्चा हो ही गयी तो क्यों न कुछ सृजन की भी बात हो जाए ? समय कम था और बातें बहुत करनी थी , उन्हें दोपहर के भोजन के पश्चात् कानपुर के लिए प्रस्थान करना था , इसलिए जी भर कर न तो बातें कर सका और न रचनाओं का आदान-प्रदान हीं , यानी की समंदर पीने के बावजूद भी मैं तीश्नालब (प्यासा) ही रहा , मगर इस तीश्नगी ने समीर भाई की प्रेरणा से कुछ दोहे रच डाले जिसे मैं समीर भाई को समर्पित करते हुए प्रसंगवश यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ -
पहले ओला गिर गया, गडमड पैदावार !
कैसी गर्मी बेशरम, आयी है इसबार !!
झुरमुट-झुरमुट झांकता, रात में नन्हा चाँद !
पर ज्यों-ज्यों दिन चढ़ रहा, बढ़ा रहा अवसाद!!
धूप चढी आकाश में, मन में ले उपहास !
पानी-पानी कर गयी , रेगिस्तानी पियास !!
लहर-लहर के लोल पर, ललकी-ललकी धूप !
नदी पियासी ढूंढ रही, कहाँ गए नलकूप ?
लूट रही मंहगाई, आकरके बाज़ार !
मौसम सी बदली हुयी, दिखती है सरकार !!
() रवीन्द्र प्रभात

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

स्वयं की पहचान, स्वयं का सम्मान, कर्म- योग का ध्यान है गीता का ज्ञान !

कल एक समाचार चैनल पर यह बार-बार प्रदर्शित किया जा रहा था, कि ईराक में तैनात ब्रिटिश सैनिकों को गीता का पाठ पढाया जा रहा है , उन्हें जीवन और मृत्यु के साथ-साथ शरीर और आत्मा की सच्चाईयों से रू-ब-रू कराया जा रहा है । इसे विडंबना ही कहेंगे कि भारतीय धर्म -ग्रंथों की सदैव उपेक्षा करने वाली ब्रिटिश सेना को आज अपने सैनिकों के टूटते आत्मबल को बचाने की जद्दोजहद के बीच याद भी आयी तो भारतीय धर्म ग्रन्थ की । इराक के सैनिक शिवरों में गीता का पाठ पढाने हेतु हिन्दू धर्म पुरोहितों की न्युक्ति भी की गयी है , यह हमारी विरासत के लिए एक ऊर्जादायक बात है।

यद्यपि विदेशों में हमारे धर्म ग्रंथों को महत्त्व देने की यह पहली कोशिश नही है , ऐसे मौके कई बार आए हैं जब अवसाद के शिकार विदेसियों को हमारी संस्कृति ने शांति, सुख, संतुष्टि प्रदान की है। मगर इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जिस ग्रन्थ को विदेशों में इतना तबज्जो दिया जा रहा हो उसी ग्रन्थ को हमारे देश में साम्प्रदायिकता से जोड़कर देखा जाता है। विगत दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक वक्तव्य आया था कि गीता कोई धर्म विशेष का ग्रन्थ नही अपितु राष्ट्रीय ग्रन्थ है , हालांकि इसे राजनीतिक रंग दे दिया गया और इसे खारिज करने में कोई कसर नही छोडा गया । वैसे इसमें क़ानून मंत्री की भुमिका विवादोंमुखी रही है, किंतु महान्यायवादी के कथन एवं जन सम्मति से " सत्यमेव जयते" की पुष्टि हुई है ।

खैर इन राजनीतिक पचड़ों में पड़ने से क्या फायदा ? जहाँ अंधेर नगरी हो और चौपट राजा हो, वहा भाजी और खाजा में क्या फर्क, सब टेक सेर .....! जहाँ तक मेरी अपनी व्यक्तिगत राय है , मैं धार्मिक ग्रंथों को सेकूलर-विजन से देखता हूँ, क्योंकि यदि न्याय पूर्वक अध्ययन किया जाए तो कोई भी धर्म ग्रन्थ किसी अन्य धर्म पर आक्रमण या अतिक्रमण नही करता है। यही हमारे संविधान में मुझे जितना ज्ञात है " सेकूल्रिज्म" की परिभाषा है । यदि गीता को " राष्ट्रीय शास्त्र" की संज्ञा दी जारही है तो इस सन्दर्भ में न कोई अतिश्योक्ति होनी चाहिए और न कोई शक की गुंजाइश ही । क्योंकि इसी ग्रन्थ ने सत्य मेव जयते का शंखनाद कर एक सुंदर और खुशहाल सह-अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप देने का वचन दिया था। आज जिस अशप्रिशयता को लेकर यूं पी की मुख्यमंत्री और कॉंग्रेस के बीच तू तू मैं मैं हो रही है , दोनों को मेरी राय है कि गीता पढो सब समझ में आ जायेगा ...!

श्री कृष्ण में कभी कोई संकीर्णता शेष नही थी। बालक अवस्था में ग्वालों के संग लीला से लेकर योग दर्शन की कुशल शिक्षाओं में उनकी दृष्टि समदर्शी ही रही है । इसकी एक बानगी देखें-

" विद्याविने सम्पन्ने ब्राह्मने गावी हस्तिनी !
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदार्शिनी:!! ५!!"

श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! इस जगत में पंडित अर्थात ज्ञानी व्यक्ति विद्या एवं विनम्रता से युक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी, कुत्ते और चांडाल में समदर्शी होते हैं ।
इस विचार को क्या गांधी जी के " अश्प्रिश्यता अपराध है" विचार से सम्बद्ध नही मान सकते । इसकी न्याय पूर्वक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि जो भेदभाव करता है, वह विद्वान तो नही हो सकता चाहे और कुछ भी हो। यह क्या आज के समाज में प्रासंगिक नही है? समभाव की महत्ता को इंगित करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि-


" इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितन मन: !!
निर्दोषण ही सम ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मानी ते स्थिता: !!"


अर्थात जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया, क्योंकि परमात्मा निर्दोष है सम है और वह परमात्मा में ही स्थित है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सभी प्राणियों में ईश्वरीय शूक्ष्म तत्व का निवास है।

बिना कर्म के संन्यास भी अप्राप्य -

यद्यपि संन्यास का अर्थ लिया जाता है जिसने सांसारिक विषयों का मन-वचन-कर्म से पूर्णत: परित्याग कर दिया है तथापि कृष्ण कहते हैं-

" संन्यासस्तु महाबाहो दु:खाप्तुमयोगत: !
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नाचिरिनाधिग्च्छाती !!"


हे अर्जुन ! कर्मयोग के बिना संन्यास ( मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग ) प्राप्त होना कठिन है और मुनि ( भगवान् के स्वरूप का मनन करने वाला) और कर्मयोगी परब्रहम परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है । तात्पर्य है व्यक्ति को सं न्यस्त होने पर भी अपने कर्म का त्याग नही करना चाहिए प्रत्युत किए गए कार्य में " मैंने किया है" इस भाव का लेश मात्र भी प्रवेश नही होना चाहिए । अर्थात कार्य में समग्र रूप से भागवतसमर्पण होवें ।

मनुष्य स्वयं ही मित्र और स्वयं ही शत्रु

श्री पार्थसारथी गीता में कहते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है, जब वह अपने मन, इन्द्रियों समेत शरीर के सामने घुटने टेक देता है तो वही मनुष्य उसी प्रकार दु:खों से दु:खी रहता है जिस प्रकार शत्रुओं द्वारा सताया जाता हुआ मनुष्य ।

" बन्धुरात्मंस्त्स्य येनात्मैवात्मना जित: !
अनात्मंस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत !!"


अर्थ है कि जिस जीवात्मा द्वारा मन, इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का मित्र वह स्वयं ही है और जिसके द्वारा मन इन्द्रियों सहित शरीर नही जीता गया है उसके लिए वह स्वयं ही शत्रु के सदृश है।

अर्थात यदि अपना सच्चा और सदा सानिध्य रखने वाला मित्र खोजना है, तो अपने मन और इन्द्रियों एवं शरीर को जीत लो, आप पायेंगे अपने ही अन्दर अपने मित्र को और वह मित्र आपको लेशमात्र भी दु:ख नही पहुँचायेगा , साथ ही चिरानंद का संचार करेगा ।

क्या आज के भागमभाग भौतिकवाद के युग में यह एक सटीक मन्त्र नही है सुख का ?

रविवार, 6 अप्रैल 2008

कुछ मतलब की बातें शराब के बहाने, ग़ज़ल के माध्यम से ...!


कहते हैं शराब, लोग या तो ग़म को भूलने या फिर ख़ुशी मनाने के लिए पीते हैं।वैसे सच तो यह है कि पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए। शराब के सन्दर्भ में लोगों की अपनी-अपनी दलीलें होती हैं । मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि यार शराब सदियों से शायरों की पसंदीदा रही है , चाहे गालिब रहे हों चाहे .......सब के सब शराब की ईज़त अफजाई की है , तारीफ़ में कशीदे पढे हैं, तू कैसा शायर है यार कि अभी तक शराब पर कुछ भी नही लिखा? उसने ऐसी -ऐसी बातें की , कि मेरे भीतर का शायर जाग उठा । मैंने कहा आज कुछ लिख ही डालते हैं , तू मुझे बता शराब पीने के क्या-क्या फायदे हैं ? उसने कहा पहले पिलाओ फ़िर बताते हैं , भाई , अपनी गरज थी सो मैंने सोचा कि यार रवीन्द्र ! इसकी बातों में वजन है,आज इसे दिल खोलकर पिलादे , ताकि इसकी कही हुई बातों पर गौर करके तुम अपनी शायरी को धार दे सको , बरना तुम्हे इस बात का हमेशा मलाल ही रहेगा कि सभी विषयों पर लिखा , शराब पर नही लिखा । भाई, यकीं मानिए मेरे उस मित्र ने शराब के शुरुर के साथ ऐसी गोपनीयता पर से परदा हटाया कि मैं हतप्रभ रह गया एकबारगी , फ़िर मैंने सहज अनुमान लगा लिया कि आख़िर क्यों स्व हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला खंड काव्य लिखा होगा ? चलिए मैंने भी इस विषय पर एक ग़ज़ल कहने की कोशिश की है , मगर अंदाज़ ज़रा हटकर है -
चौंकिए मत जाम इतना पी रहे हैं , इसलिए ।
एक मुकम्मल जिंदगी हम जी रहे हैं , इसलिए ।।
मैंने मयखाने को समझा पाकगाहों की तरह -
साथ में पंडित कभी मौलवी रहे हैं , इसलिए ।।
शर्म क्या हम डूब ही गए इश्क - दरिया में अगर -
डूबने को आप भी राजी रहे हैं , इसलिए ।।
जानते हैं हम कि जलना खुदकुशी होती नही -
एक चरागे-अंजुमन हम भी रहे हैं , इसलिए ।।
फ़िर कोई महफ़िल में नंगा हो नही मेरे "प्रभात" -
कुछ फटे कपडों को लेकर सी रहे हैं , इसलिए ।।
() रवीन्द्र प्रभात

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

तंग चादर है जिसकी वही , सो रहा तानकर रात में ....!

फोटो : दैनिक भाष्कर से साभार

हादसे दर -ब - दर रात में ,

आप हैं बेखबर रात में ।

दिन में रिश्वत निगल जो गया -

बन गया नामवर रात में ।

तंग चादर है जिसकी वही-

सो रहा तानकर रात में ।

दूर जाना जरूरी है जा -

हाथ को थामकर रात में ।

हर कदम को उठाना यहाँ -

जानकर-सोचकर रात में।

दिन में नेता बने देवता -

बन गए जानवर रात में ?

घूमती है बला हर जगह -

लौट जा अपने घर रात में ।

राम-रावण में है दोस्ती -

राहजन-राहबर रात में !

बेच करके ईमान-व-धरम -

टूटते जाम पर रात में !

छोड़ करके रूमानी ग़ज़ल-

कुछ कहो देश पर रात में ।

बढ़ना खामोश होकर प्रभात -

रास्ता पुर खतर रात में !

() रवीन्द्र प्रभात



 
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