(यह मशाल जलती रहेगी,आप समिधा बनिए )
आवाज़ जो उठी है,चीख जो उभरी है
वह रुके नहीं, अवरुद्ध ना हो
वजूद सबका है - याद रहे !
शस्त्र, शास्त्र ईश्वर ने स्वयं स्त्रियों को दिया
भान कराया कि नाज़ुक ह्रदय को इसकी ज़रूरत होती है
रक्तबीज को खत्म करने के लिए
रक्तदंतिका होना पड़ता है
सहनशीलता घर की शान्ति के लिए तब तक ज़रूरी है
जब तक दहलीज से बाहर भीड़ न इकट्ठी हो
उसके बाद हुंकार ज़रूरी है
वरना - अपनी अस्तिव्हीनता के ज़िम्मेदार सिर्फ तुम हो
.......... कोई क्यूँ करेगा मदद
घर का मामला " कहकर तुम ही चुप भी करते हो !!!
'घर का मामला' दहलीज के अन्दर होता है
यदि घुटी,दबी सिसकियाँ भी हवाओं में घुलती हैं
तो घर की परिभाषा मटियामेट हो जाती है !
...........
और बड़े दुःख की बात है
कि 'घर' बहुत कम लोगों के हिस्से आता है !!
'घर' एक छत नहीं, अपनों का आपसी सम्मान है
पहचान है, सुरक्षा है
.... जो अधिकांश उपलब्द्ध नहीं !
हमने आदि मानव के बाह्य को उन्नत किया
अन्दर में हम जंगली रह गए
और जंगल साफ़ करना
सबके बूते की बात नहीं !
..........
तो - जितने भी सोये मन जगे हैं
उनके साथ चलो
मन - जो किसी भी वजह से सोया था
उसे जगाओ
सुबह होने से सुबह नहीं होती
सुबह की शक्ल चेहरे पर झलके
तभी सवेरा है ........
आज कई चेहरे दर्द से अकबका कर
सूरज की ऊँगली थाम चुके हैं
और कमाल देखो -
सूरज की गर्मी उनमें एकाकार हो रही है
अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति अपने घर के लिए
आधे लोग सजग हो गए हैं
चलो उनके दरवाज़े हम एक साथ चाय पियें
और संकल्प लें -
कल अपना हो ना हो
आज हमारा है !
क्योंकि इस कल को किसी ने नहीं देखा
और आज हर पल है ...........
सामंतवादी !
एक हाथी
देश में
शान से घूमता है!
ठहरता है जिस शहर
चिंघाड़ता है..
"मेरे विरोधी कुत्ते हैं
मुझ पर अनायास भौंकते हैं
मैं उनकी परवाह नहीं करता!"
विरोधी बौखलाते हैं
भक्त
मुस्कुराते हैं।
हाथी
भारत या इंडिया में
अपने से नहीं चलता
उसे कोई महावत चलाता है
महावत और कोई नहीं
हमारी सामंत वादी सोच है
जिसे हमने
सदियों से
हाथी की पीठ पर बिठा रखा है!
यह वही सोच है
जो महिलाओं को
कभी घर से बाहर निकलते
काम करते
अपने पैरों पर खड़े होकर
अपनी मर्जी से
जीवन जीते
नहीं देखना चाहती।
कभी हाथी पर
कभी पोथी पर
कभी नोटों की बड़ी गठरी पर सवार हो
सीने पर मूंग दलने
चली आती है।
....................
देवेन्द्र पाण्डेय
अब ये आग न बुझेगी...
पहले एक माचिस की तीली जली..
समझ बैठे उच्च पदासीन...
जलने दो..क्या कर लेगी नन्ही सी तीली...
पल दो पल की चमक दिखा कर...
बुझ जाएगी अपने आप भली....
पहले भी तो जलाई है लोगों ने...
कई कई तीलियां...कई कई बार....
हम तक आंच कभी न आई...
लोग ही झुल्सतें रहे हर बार....
लेकिन आग बन कर...
भडक ही उठी आखिर...
दामिनी नाम की चिनगारी...
और गले तक आ कर अटकी...
सधे हुए नेताओं की नेता गिरी...
ये आग कर देगी खाख...
नराधम, दुष्ट, नर-पिशाचों को...
नारी को अबला समझ कर टूट पड़ने वाले...
कुकर्मी,नीच, बहशी, दरिंदों को...
ये आग जला डालेगी..
जनता के सेवक बन कर...
लूट-पाट कर रहे डाकूओं को...
ये आग जला देगी जिन्दा..
नोट डकार कर...
मनमाने फैसले सुनाने वाले..
न्यायालय में बैठे न्यायाधिशों को...
ये आग बेबाकी से निगल लेगी...
कहलाते सुरक्षा कर्मियों को...
ये आग बन चुकी है अब दावानल...
इसे बुझाना मुमकीन नहीं अब..
ये आगे बढ़ती जा रही..पल, पल!
अरुणा कपूर
दो आँखें
गहरी धुँध
सर्द हवाएँ
ठिठुरा बदन
सन्नाटे रास्ते...
धुँध के पीछे
चमक रहा था कुछ
कोई छुपा था
कौन है वो
आगे बढ़ी
धुँध के साथ
वह भी पीछे खिसका
कैसे देखूँ
धूप गहरायी
धुँध हल्की हुई
रुह पर चिपकी
दो आँखें चमक रही थीं
अनगिनत सवाल लिए
शायद कह रही थी
‘मैं तो अकेली थी
बहुत दर्द सहा, मगर
बच नहीं पाई
तुम लाखों में हो
मेरी बेचैन रुह को
अब भी बचा लो
इंसाफ़ दिला दो
इंसाफ़ दिला दो’
हाथ बढ़ाया कि
सहला दूँ उसके बालों को
पर यह क्या?
वह ग़ायब हो गई
सिर्फ़ और सिर्फ़
इंसाफ़ चाहिए था
दिन पूरी तरह चमकने लगा था
पर धुँध अब मन के अन्दर छाया था
ऋता शेखर ‘मधु’
रक्तबीज और महाकाली !
मैं "दामिनी "
तुम्हें चुनौती देती हूँ ,
मैंने अपना बलिदान दिया
या फिर तुमने
मुझे मौत के हवाले किया हो ,
तब भी मैं
अब हर उस दिल में
जिन्दा रहूंगी,
एक आग बनकर ,
जब तक कि
इन नराधम , अमानुषों को
उनके हश्र तक न पहुंचा दूं।
सिर्फ वही क्यों?
उस दिन के बाद से
मेरी बलि के बाद भी
अब तक उन जैसे
सैकड़ों दुहरा रहे हैं इतिहास ,
वो इतिहास जो
मेरे साथ गुजरा था
रोज दो चार मुझ जैसी
मौत के मुंह में जाकर
या फिर
मौत सी यंत्रणा में
जीने को मजबूर हैं।
वे तो अभी दण्ड के लिए
एकमत भी नहीं है ,
और हो भी नहीं पायेंगे .
क्यों?
इसलिए की उनके अन्दर भी
वही पुरुष जी रहा है,
क्या पता
कल वही अपने अन्दर के
नराधम से हार जाएँ ?
और वह भी
कटघरे में खड़े होकर
उस दण्ड के भागीदार न हों।
अभी महीनों वे
ऐसे अवरोधों के चलते
और ताकतवर होते रहेंगे।
अब मैं नहीं तो क्या ?
हर लड़की इस धरती पर
महाकाली बनकर जन्म लेगी
और इन रक्तबीजों के
लहू से खप्पर भरकर
बता देंगी कि
अब वे द्रोपदी बनकर
कृष्ण को नहीं पुकारेंगी।
खुद महाकाली बनकर
सर्वनाश करेंगी।
इन रक्तबीजों के मुंडों की माला
पहन कर जब निकलेगी
तो ये नराधम
थर-थर कांपते हुए
सामने न आयेंगे .
हमें किसी दण्ड या न्याय की
वे सक्षम होंगी
और समर्थ होंगी।
ये साबित कर देंगी।
ये साबित कर देंगी।
रेखा श्रीवास्तव
जीना है तो मरना सीखो !!!!
मन का शोक
विलाप के आंसुओं से
खत्म नहीं हुआ है
संवेदनाएं प्रलाप करती हुई
खोज रही हैं उस एक-एक सूत्र को
जो मन की इस अवस्था की वज़ह बने
आहत ह्रदय चाहता है
जी भरकर चीखना कई बार
इस नकारा ढपली पर
जिसे हर कोई आता है
और बजा कर चला जाता है
अपनी ताल और सुर के हिसाब से
....
जीना है तो मरना सीखो
डरना नहीं ....
ये बात पूरे साहस के साथ कहते हुये
निर्भया हर सोते हुये को जगा गई
दस्तक तो उसने दे दी है हर मन के द्वार पर
यह हमारे ऊपर है हम साथ देते हैं
या फिर अपने कानों को बंद कर
अनसुना करते हुए
खामोशी अख्तियार कर लेते हैं !!!
उस आग को समिधा चाहिए और आपने काम शुरू भी कर दिया . भले दिल की ज्वाला हम बाहर से न थामे हों लेकिन उस धधकती आग में घी बन कर आवाज को हुंकार बनाकर विश्व में गुंजा तो सकते हैं .
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ बहुत उत्कृष्ट...आभार
जवाब देंहटाएंमन - जो किसी भी वजह से सोया था
जवाब देंहटाएंउसे जगाओ
सुबह होने से सुबह नहीं होती
सुबह की शक्ल चेहरे पर झलके
तभी सवेरा है ........
बेहद सशक्त एवं सार्थक भाव ...
सादर
प्रभावशाली ,
जवाब देंहटाएंजारी रहें।
शुभकामना !!!
आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़)
आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।
सहनशीलता घर की शान्ति के लिए तब तक ज़रूरी है
जवाब देंहटाएंजब तक दहलीज से बाहर भीड़ न इकट्ठी हो
उसके बाद हुंकार ज़रूरी है
वरना - अपनी अस्तिव्हीनता के ज़िम्मेदार सिर्फ तुम हो
.......... कोई क्यूँ करेगा मदद
समिधा बनना ही होगा...
उत्कृष्ट रचनाएँ....आभार !!
जवाब देंहटाएंशब्दों की ही सही , समिधा कुछ काम कर जाए !!!
बेहतरीन रचनाएँ !