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सोमवार, 31 दिसंबर 2007
नव वर्ष की मंगलकामनायें
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रविवार, 30 दिसंबर 2007
हिन्दी चिट्ठाकार विश्लेषण -2007 (भाग-3)

अनवरत साहित्य बढे , प्रगति करे यह देश !!
"घुघूती बासूती" को, " कथाकार" की राय !
उत्तरोत्तर सोपान पे , नया साल ले जा य !!
" आलोक पुराणिक " बोले, " नीरज " जी को छोड़ !
चिट्ठा- चिट्ठा घूम के , लगा रहे हो होड़ !!
" अनूप शुक्ल " श्रधेय हैं, करते नहीं" भदेस" !
अपना चिंतन बांचिये , देकर सबको प्यार !
सदीच्छा से भरा रहे, यह सुन्दर संसार !!
कुछ चिट्ठे नाराज हैं, अंकित नही है नाम !
खास-खास को छोड़ के , जोड़े हो क्यूं आम ? ?
पढा है जिसको मैंने , पूछा उसका हाल !!
बस इतनी सी बात है , ना समझे तो ठीक!
समझदार तो सबहीं हैं,समझ गए तो ठीक
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007
हिन्दी चिट्ठाकार विश्लेषण -2007 ( भाग -2 )

"बाल किशन" का ब्लोग भी , खूब दिखाया रंग !!
"शब्द लेख" यह सारथी, और "संजय" उवाच !
"अंकुर गुप्ता" ढूंढ रहे, "हिन्दी पन्ना" आज !!
लाये विनोद "हसगुल्ले" "संजय" देखें जोग !
" आशीष महर्षि" बोले, बनाबा दो अब योग !!
"चक्रव्यूह " के व्यूह से, कब होंगे हम मुक्त !!
एक धार में बह रहे , " सुखन साज़ " " इरफान " !!
गजल हुयी है बेवफा , खंडित हो गए गीत !!
छंद की गरिमा ढूंढें, " वाचस्पति अविनाश " !!
" अनुगुन्जन " और " इयता " सुन्दर सा है ब्लोग !
या " कबाड़ " में फेंकिये , उल्टी- सीधी राय !!
" विनीत कुमार " की गाहे, और बगाहे बात !
" जोशिम " के संग गाईये , ग़ज़ल अगर हो याद !!
"पुनीत ओमर " " अर्बूदा " , "अनिल " कलम के साथ !
लिखें क्या अब ब्लोग में, पीट रहे हैं माथ !!
"नारद" घूमे ब्लोग पे, चाहे जागे सोय !
नर हो या नारायण हो, चर्चा सबकी होय!!
मतलब वाली बतकही, करती है दिन-रात !
अपनी भी "परिकल्पना" हो गयी है कुख्यात !!
बुधवार, 26 दिसंबर 2007
हिन्दी चिट्ठाकार विश्लेषण -2007

कैसे बीता साल !!
रविवार, 23 दिसंबर 2007
सर्दी के बहाने कुछ मतलब की बातें ग़ज़ल के माध्यम से

आंच दे कुछ सर्द मौसम हो गए आशा !
रेत के थे फर्श फिशलन हो गए आशा !
शनिवार, 15 दिसंबर 2007
जिसमें साहस विवेक और आत्मबल व्याप्त होता है , उसीको बेटिकट सफर का सौभाग्य प्राप्त होता है !

आज की युवा पीढी जिसे एम जनरेसन की संज्ञा दी जाती है ,जो नि:संदेह हमारे देश को प्रगति की राह पर ले जाने में पूरी तरह सक्षम है .मगर कुछ पुराने रूढीवादियों , खोखले आदर्शों में आबद्ध नेताओं एवं तथाकथित समाजवादिओं की कुत्सित प्रवृतियो का परिवेश उन्हें दिग्भ्रमित करता है और वातावरण प्रदूषित करने में कोई कोर कसर बाकी नही रखता . इसका ज्वलंत उदाहरण पिछले दिनों मैंने बिहार यात्रा के दौरान देखा .मैं रेलवे के जिस कम्पार्टमेंट में यात्रा कर रहा था उसी में कुछ मनचले भी बिना टिकट यात्रा कर रहे थे , जब टी. टी. इ. ने पूछा कि " बेटिकट क्यों चलते हो ?"
तो इसपर उन्होने मजे लेते हुए कहा कि - " भाई, अपने लालू जी की रेल है / बेटिकट यात्रियों की इतनी रेलम-पेल है , ऐसे में हमने टिकट नही ली तो कौन सा गुनाह कर दिया ?" उसके साथ बैठे एक और नव जवान ने अपनी बात कुछ इसप्रकार रखी कि - " भाई साहब , जब खुदा ने बख्शी है यह उमर बेटिकट / तब क्यों न करें हम रेल में सफर बेटिकट ?" बेचारा टी. टी. ई. उस नवजवान की बातों के आगे किं कर्तव्य विमूढ़ हो गया . उसदिन यात्रा के क्रम में उस नवजवान औरटी. टी. ई. के बीच जो विचारों का आदान-प्रदान हुआ उसे मेरा कवि मन लगातार अध्ययन करता रहा ,जिसे बाद में मैंने एक व्यंग्य कविता का रुप दे दिया , जो इसप्रकार है-
!! बेटिकट सफर !!
एक वार एक नवजवान बेटिकट सफर करता हुआ पकडा गया
टी टी ई के गिरफ्त में बाबजह जकडा गया
टी. टी. ई.ने पूछा-
क्यों बेटिकट चलते हो ?
इतना बड़ा संगीन अपराध क्यों करते हो?
नवजवान बोला /अपने लवों को खोला-
" मेरे लिए यह एक सिद्धांत, एक दर्शन है
जीवन सफल बनाने का प्रशिक्षण है
जब खुदा ने बख्शी है यह उमर बेटिकट
तो क्यों न करें हम रेल में सफर बेटिकट ?"
सुनकर वक्तव्य उसका टी. टी. ई. झल्लाया
सिद्धांत-दर्शन की बातें सुन भावावेश में आया
चिल्लाते हुए फरमाया-
" रे मूर्ख ! कैसी बहकी-बहकी बातें करता है
बे-टिकट सफर को सिद्धांत-दर्शन कहता है?
सरकार की संपत्ति को अपनी संपत्ति समझ कर
चल दिए हो बेटिकट पूरी तरह अकड़कर
जब जेल जाओगे/ जेल की मोटी रोटी खाओगे
पछताओगे ,सिद्धांत-दर्शन सब स्वयं भूल जाओगे ....!"
" नहीं महाशय !
अक्सर डरते हैं वही व्यक्ति जेल जाने से
जो डरते हैं कटु सत्य से आंख मिलाने से
क्योंकि जिसमें साहस विवेक और आत्मबल व्याप्त होता है,
उसीको बे-टिकट सफर का सौभाग्य प्राप्त होता है .....!"
इतना कहकर वह नवजवान मुस्कुराया / जेल की अह्मिअत से
उन्हें अवगत कराया और फरमाया-
" महाशय!
जेल जाना तो तीर्थाटन करने के समान है / जेल जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति महान है
परम सौभाग्यवान है ....!
क्योंकि जेल ने हीं राष्ट्रपिता गांधी को महात्मा बनाया ,
कृष्ण को पैदा करके परमात्मा बनाया .
चिन्तक हुए जवाहर लाल जेल जाने के पश्चात / नहीं थे वे राजनेता अथवा -
चिन्तक जन्मजात ....!
जेल जाने बाद हीं सबने सुभाष-भगत को जाना
विश्मिल- वीर सावरकर का दुनिया ने लोहा माना ....!
एक और उदाहरण देखें / मस्तिस्क पर जोर डालें और सोचें-
एक वार जब सत्ता में थी कॉंग्रेस आई.
विक्षुब्ध विपक्षी नेताओं ने अपनी ताकत दिखलाई
और खुलकर विरोध जताया ....!
बात बिगराते देख इंदिरा ने-
देश में इमरजेंसी लगाई/ और अगले ही क्षण -
सारे विरोधियों को हवालात की सैर कराई...!
फिर तो लोकनायक बनाकर उभरे जय प्रकाश/ राम मनोहर लोहिया,
चन्द्रशेखर और अटल बिहारी बाजपेयी की लौटरी खुल गयी अनायाश.
इसप्रकार-
अनेक नेता जेल जाने के बाद महान हुए/ जनता की नजरों में-
परम सौभाग्यबान हुए !
देश महान हुआ या ना हुआ यह सोचना निरर्थक है ,
अपना भला हो गया तो जीवन अपना सार्थक है !
नवजवान की बातें सुन , टी. टी. ई. ने अपनी अक्ल दौडाई
तब जाकर उसके भेजे में यह बात आयी
कि, नवजवान की बातों में यकीनन है दम
अब तो न भय रही, न भ्रांति और न भ्रम
क्योंकि जब चलते हैं खुलेआम बेटिकट महात्मा, सिपाही और नेता
तब क्यों न चले हमारा यह बेरोजगार बेटा !
भाई, महात्मा को खौफ इसलिए नही होता
कि चल जाता है धर्म के नाम पर उनका सिक्का खोटा
अब अयोध्या में यानी राम के शरण में जाएँ या-
कृष्ण की जन्मस्थली जेल में धूनी रमायें
क्या फर्क पङता है.
इसीलिए वह नि:संकोच बेटिकट सफर करता है ...!
पुलिस या प्रशासन से कभी नहीं डरता है ... ।
भाई, सिपाहियों की बात अलग है, वे कानून के संरक्षक हैं,
उन्हें कौन पकडेगा वे तो देश के भाग्य विधाताओं के रक्षक हैं .
आप कहीं भी किसी भी क्षेत्र की रेल में जायेंगे
सिपाहियों को बेटिकट हीं पायेंगे !
क्योंकि, वे देश और कानून दोनों के रक्षक हैं
इसीलिए उन्हें बेटिकट सफर का मौरूसी हक है...!
नेताओं की बात मत पूछिए , बहुत बबाल है
क्योंकि हमारे देश के नेता खुद में हीं एक उलझे हुए सवाल हैं
एकबार एक नेता ने कहा- कि सफेदी का मतलब सच्चाई,
बरखुरदार ! कुछ बात समझ में आयी ?
मैंने कहा - कि भेजे में कुछ भी नही आया
तो उसने कहा - यही तो हमारे और तुम्हारे में फर्क है भाया !
मने कहा क्या मतलब?
उन्होने कहा- चलो समझा हीं देता हूँ अब....
कि अपना काम बनता , भाड़ में जाये जनता !
यह बात अपने हीं तक रखना किसी से कहना मत , नही तो -
बेटिकट पछतायेगा / औरों की तरह तू भी जान से जाएगा !
इसलिए देश में जो हो रहा है होने दे ,
किसी को पाने दे, किसी को खोने दे !
देश में पार्टी का आम प्रदर्शन हो अगर
बरबस खींच लेते हैं ये सबकी नज़र
फिर, दिल्ली चलो का नारा बुलंद हो जाता है
यही नेता जनता को बेटिकट सफर करने का बेटिकट सबक सिखाता है
भाई, यहाँ प्रजातंत्र है , कुछ भी असंभव नही है
करिये , करते रहिये जैसी परीपाटी रही है।
जब बेटिकट नेता जी जनता से बेटिकट सफर करवाए तो फ़िर -
बेरोजगारों के साथ सख्ती क्यों की जाये ?
इनका भी होगा कल, इन्हें क्यों सताया जाए ?
जब सरकार की संपत्ति अपनी संपत्ति होती है
तब क्योकर बेटिकट सफर की अशुभ परिणति होती है?
इतना सोचने के बाद जब टी.टी.इ. को अपनी नौकरी का ख़याल आया
तो सिद्धांत-दर्शन का भूत अचानक उतर आया
और उसने फरमाया -
बेटा ! चलना है तो चले बेटिकट महात्मा, सिपाही , नेता
उन लोगों का रे मूर्ख, तू क्यों आश्रय लेता?
बेटिकट सफर का होता परिणाम न अच्छा / कब समझेगा मेरा बच्चा ?
माना कि तेरा कथ्य कटु सत्य है
पर मेरे बालक ,बेटिकट सफर पथ्य नही कुपथ्य है .....!
सुनकर नवजवान मुस्कुराया ,
और बिना किसी उत्तर के कंपार्टमेंट से बाहर आया .
मगर मित्रों वह नवजवान छोड़ गया कई अनुत्तरित प्रश्न -अपने जाने के साथ
.......क्योंकि वह मनुष्य नही था , मनुष्य के रुप में था अपबाद ....मनुष्य के रुप में था अपबाद....!
() रवीन्द्र प्रभात
(कॉपीराईट सुरक्षित ) .
बुधवार, 12 दिसंबर 2007
!! मोगैम्बो खुश हुआ !!

देश और सम्मान सस्ते में, मोगैम्बो खुश हुआ !!
ऐसी लड़ी है आंख पश्चिम से कि देखो खो गयी-
मनमोहनी मुस्कान सस्ते में, मोगैम्बो खुश हुआ !!
गुजरात का अभियान सस्ते में, मोगैम्बो खुश हुआ !!
बिक गया इंसान सस्ते में , मोगैम्बो खुश हुआ !!
नेता बना भगवान सस्ते में , मोगैम्बो खुश हुआ !!
कर रहा उत्थान सस्ते में , मोगैम्बो खुश हुआ !!
कर गए अपमान सस्ते में, मोगैम्बो खुश हुआ !!
खो गयी पहचान सस्ते में, मोगैम्बो खुश हुआ !!
कहो तो दे दूं जान सस्ते में, मोगैम्बो खुश हुआ!!
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सोमवार, 10 दिसंबर 2007
मज़हवी उन्माद और हम ......!

आये दिन कहीं -न - कहीं ऐसा सुनने को मिल ही जाता है , कि फलां जगह आतंकवादियों ने ब्लास्ट करके जान माल की हानि करदी । भाई मेरे , यदि मज़हब को ढाल बनाकर ये कुकृत्य किये जा रहे हैं तो गलत है , क्योंकि आतंकवाद का कोई मज़हब नही होता । पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में एक साथ तीन ब्लास्ट किये गए थे , उस समय मैं वाराणसी में ही था . वाराणसी की जानकारी तो तत्क्षण हो गयी , बाद में फैजाबाद और लखनऊ के बारे में ज्ञात हुआ तो रौंगटे खडे हो गए । उन घटनाओं को बाद में मैंने दृश्य मीडिया में भी बार -बार देखा , फलत: मेरा कवि मन चित्कार कर उठा , उस घटना को शब्दों में बांधने की पूरी कोशिश की जिसका परिणाम है यह पोस्ट-. . .
।। मज़हवी उन्माद और हम ।।
अकस्मात नि:स्तब्धता को चीरती हुई
मानव अस्तित्व को धूमिल करती हुई
एक आबाज़ गूंजी / एक ठहाका हुआ
दूर कहीं दूर ..../फिर आसपास के वातावरण में धुआं ही धुआं
पुन: एक धमाका हुआ और डूब गया सारा शहर दहशत में
धुन्धुआती एक अस्पष्ट चेतना में
सबकी निगाहें हुई बरबस खामोश।
लहू से लथपथ शरीर को मैंने अपनी आगोश में लेकर
बीभत्स दृश्यों को देख हुआ बेहोश
पुन: जब होश में आया तो मैं अपने आपको पाया
जलते हुए वाराणसी की सडकों पर / लाशों के ढेर के ऊपर - असहाय ...अधनंगा
जैसे हिमालय के ऊपर अवस्थित हो हिमनद / फिर शरीर की गंगोत्री से -
फूटकर बहने लगी एक गंगा /जी हाँ खून की गंगा , जिसमें नहा रहे थे /
परस्पर दूबकियां लगा रहे थे सभी जाति-धर्म-मज़हब के लोग,
क्या वह था महज एक संयोग?
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आज भूल गए हैं हम / गुरुनानक के अमर उपदेश को -" अब्बल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बन्दे ,एक नूर तो सब जग उपज्या कौन भले कौन भंदे!"
भूल गए हैं हम अलामा इकबाल के उस संदेश को -" मज़हब नही सिखाता आपस में बैर रखना , हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दुस्तान हमारा !"
भूल गए हैं हम गांधी की अमर वाणी को -" प्रभु भक्त कहलाने का अधिकारी वही है , जो दूसरों के कष्ट को समझे !"
भूल गए हैं हम योगीराज कृष्ण के उपदेश को -" कर्मनये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन "
भूल गए हैं हम तुलसीदास के धर्म की परिभाषा को -" परहित सरिस धर्म नही भाई !"
इसप्रकार-मन्दिर,मस्जिद,गिरजा,गुरुद्वारा तो शक्ति का साधन स्थल है / परस्पर प्रेम, सौहार्य,एकता और धार्मिक-सांस्कृतिक सहिष्णुता का पूज्य स्थल है / सर्व-धर्म-समभाव ही हमारी सभ्यता और संस्कृति का मूल प्राण है ...!
अनेकता में एकता ही हमारी आन-बान-शान है!निष्काम कर्म ही मनुष्य का धर्म है / मानवता का मूल मन्त्र है ....!
याद करो राष्ट्रीय कवि मैथिली शरण गुप्त की वह कविता -"यह पशु-प्रवृति है कि आप ही आप चरे, मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए मरे !"
याद करो रहीम के सत्य के प्रतिपादन को / सच्ची मानवता के दर्शन को -" यो रहीम सुख होत है उपकारी के संग, बाटन वारे के लगे ज्यों मेहदी के रंग "
सलीब पर चढ़ते हुए / अपने हत्यारों के लिए दुआ माँगते हुए ईसाईयों के प्रबर्तक /धर्म के पथ-प्रदर्शक ईसा ने क्या कहा था-" प्रभु इन्हें सुबुद्धि दे , सुख-शांति दे / ये नहीं जानते कि क्या कराने जारहे हैं !"
याद करो - कर्बला के मैदान में / प्राणों की बलि देने वाले / अन्तिम साँस तक मानव कल्याण हेतु दुआ मांगने वाले/ धर्म का मर्म बताने वाले मोहम्मद साहब ने क्या कहा था?
ज़रा सोंचिये - आर्य समाज के प्रबर्तक महर्षि दयानंद ने / अभय दान क्यों दे दिया अपने हत्यारों को / महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म के प्रचार में / अन्य धर्मों के विरूद्ध द्वेष का प्रदर्शन क्यों नही किया ? स्वामी विवेकानंद, रामतीर्थ ,रामकृष्ण परमहंश ने किसी धर्म के लिए अपशब्द क्यों नही कहे ? सूफी संत अमीर खुसरो, हज़रत निजामुद्दीन , संत कवीर और नामदेव ने क्यों सर्वस्व नेओछावर कर दिया मज़हवी एकता के लिए अर्थात " सर्व धर्म समन्वय " के लिए !
फ़िर धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव क्यों ? भाई-भाई के बीच मज़हवी दीवार क्यों? आज विलुप्त हो रहे हमारे मानवीय आचार-व्यवहार क्यों?
आपने कभी सोचा है - इस आतंक के पीछे कौन होता है ?
जब वोट की चोट से राजनीतिक महकमे में हमे बांटने की तैयारी की जाती है , तब फिरकापरस्ती के तबे पर रोटी सेंकने का सिलसिला शुरू हो जाता है और किसी न किसी रूप में बलि का बकरा बनते हैं हम और आखिरकार उन्मादों को हवा देकर हमारा ही घोंट दिया जाता है गला , क्योंकि धर्म जब राजनीति को बिस्तर पर लेटाकर रात को रंगीन बनाने की कोशिश करेगा तो आखिरकार वही होगा जो आज़कल देखने को कहीं न कहीं , किसी न किसी शहर में मिल ही जाता है....!
शुक्रवार, 7 दिसंबर 2007
करे जारी सभी फतबा उसी पर क्यों , कि जिसके हाँथ में खंज़र नहीं दिखता ?

तसलीमा
के
कहीं आँगन , कहीं छप्पर नहीं दिखता ।
शुक्रवार, 30 नवंबर 2007
आदाब से अदब तक, यही है लखनऊ मेरी जान !

कल मेरे एक कवि मित्र मुझसे मिलने मेरे गरीबखाने में तशरीफ लाये. नाम का उल्लेख करना मैं मुनासिब नहीं समझ रहा हूँ, हो सकता है उन्हें बुरा लगे. जब मैंने लखनऊ आने का प्रायोजन पूछा तो उन्होने कहा " लखनऊ महोत्सव देखने आया था सोचा आप से मिलता चलूँ." ये जनाब हैं तो उत्तरप्रदेश के मगर अपना आशियाना बना लिया है मुम्बई में. मैंने पूछा-" क्या देखा लखनऊ महोत्सव में ?"
मैंने कौतुहल वश पूछा कि " क्या महोत्सव सुरों सा धड़कता हुआ महसूस नहीं हुआ ?"
उन्होने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- " भाई! लोग कहते हैं कि इस शहर की जुवान सुरीली है... फिर भला ये सुर महोत्सव में क्यों नहीं गूंजेंगे...!" इतना कहकर उन्होंने ठहाका लगाया और पलटकर उछाल दिया एक प्रश्न कि-"भाई ! यह बताओ बिगत दस-बीस वर्षों में लखनऊ काफी बदल गया है, क्या अभी भी यहाँ के लोगों में वही तहजीब ज़िंदा है ?" मैंने कहा -" क्यों नही , यार मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि व्यक्ति का नेचर और सिग्नेचर कभी नहीं बदलता, वैसे भी इस शहर ने अपने नेचर से हीं पूरी दुनिया में अपना मुकाम बनाया है ....!"
मैंने कहा - " हाँथ कंगन को आरसी क्या....चलिए चलते हैं आपके साथ घुमते हैंलखनऊ ....!" तत्क्षण उन्होने अपनी सहमति दे दी और हम निकल पड़े आदाब से अदब की ओर...!लखनऊ घुमने के क्रम में मैं स्वयं अपनी मारुति कार ड्राइव कर रहा था और मेरे बगल में बैठे थे मेरे मुम्बईया मित्र . उन्होने कहा - भाई साहब! जब हम लखनऊ शहर की सैर पर निकल हीं चुके हैं तो अपने सी डी प्लेयर में उमराँव जान का गाना लगाईये ....!" मैंने पूछा -" नई या पुरानी ?" उन्होने कहा - " रेखा वाली...!" मैंने कहा- " क्यों एश्वर्या वाली क्यों नहीं ....!" जनाब झेंप गए एकवारगी .
नोंक-झोंक के क्रम में हीं हम पहुंचे पुराने लखनऊ का नक्खास मोहल्ला . बेहद शांत और तहजीब से लबरेज़ . गाड़ और चूने की पुरानी इमारतें, लखनवी शानो-शौकत की याद ताज़ा कराती गौरवशाली अतीत की जीती- जागती तस्वीर . संगमरमरी दीवार , नक्काशीदार दरवाज़े , संकरी और घुमावदार गलियाँ नजाकत और नफासत का एहसास कराती हुई . धीमी चलती हुई कार के भीतर सांय-सांय करती हवाओं में घुली फिश फ्राई और चिकन करी की महक जैसे हीं मेरे मित्र की नाक को स्पर्श करती हुई निकली, चौंक गया वह एकवारागी और झटके से कार रोकने हेतु इशारा करते हुए कहा कि -" भाई ! गाडी रोको , पहले मैं विरयानी खाऊंगा फिर आगे बढूँगा ....!"
मैंने अपने उस मित्र की बातों को अनमने ढंग से सुनते हुए दरवाजे का शीशा गिराया और उस नव युवक से मुखातिब होते हुए कहा- " ठीक से चलाया करो....ऐसे चलाओगे तो कोई न कोई अनहोनी हो जायेगी ....!"
उसने दोनों हाँथ जोड़ते हुए कहा -" भाई जान ! मेडिकल कॉलेज के ट्रामा सेंटर में मेरी पत्नी एडमीट है ...जल्दबाजी में था इसलिए ऐसा हो गया ...माफी चाहता हूँ ....!" मैंने कहा - " कोई बात नहीं , आप जाइये !"
उसने मुस्कुराते हुए कहा- " नही , गलती बार-बार नहीं होती ....पहले आप जाइये जनाब !"
गाडी ड्राइव करते हुए जब मैंने पुन: बातचीत का सिलसिला आगे बढाया तो उन्होंने कहा- " आपने मुझे सचमुच एहसास करा ही दिया मित्र कि ज़िंदा है अभी भी लखनवी तहजीव ....कुछ तो है इस शहर में खास जो परत-दर-परत खोलती है तहजीब-ए-अवध का राज़....शुक्रिया मेरे दोस्त....शुक्रिया लखनऊ....!"
गाडी पार्क करते हुए मैंने पूछा -" मित्र ! अब आगे क्या इरादा है?"
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा -" चलिए विरयानी के साथ शाम-ए-अवध का लुत्फ़ लिया जाये....!"मैंने कहा ठीक है चलिए जनाब अब आपको लखनवी मेहमान नवाजी से रूबरू कराते हैं हम ..... फ़िर तो ठहाकों का दौर ऐसा चला कि घर आने के बाद ही थमा....! उसदिन मेरे मित्र को वाकई महसूस हो हीं गया कि --
आदाब से अदब तक यही है लखनऊ मेरी जान !
गुरुवार, 22 नवंबर 2007
पहले अस्पृश्य पुन: अछूत कालांतर में हरिजन और अब वह दलित हो गया है..... !
।। झिन्गना की राम कहानी ।।
पौ फटने के पहले
बहुत पहले जगता झिन्गना
पराती गाते हुए डालता
सूअरों को खोप में
दिशा-फारिग के बाद
खाता नोन-प्याज-रोटी
और निकल जाता
जीवन की रूमानियत से दूर
किसी मुर्दा-घर की ओर ।
शाम को थक कर चूर होता वह
लौट आता अपने घर
कांख में दबाये
सत्तर-पचास नंबर की देशी शराब
और पीकर भूल जाता
दिन-भर के सारे तनाव ।
रहस्य है कि -
कैसे जुटा लेता वह
सुकून के दो पल
साथ में-
तीज-त्यौहार के लिए
सुपली-मौनी/लड्डू-बतासा
पंडित के लिए
दक्षिणा-धोती
जोरू के लिए
साडी-लहठी -सेनुर आदि ।
अपने परम्परागत पेशे को
ढोता हुआ आज भी वह
वाहन कर रहा सलीके से
मर्यादित जीवन को बार-बार
सतही मानसिकता से ऊपर
और, खद्दर-खादी की साया से दूर
दे रहा अपने काम को अंजाम
पूरी ईमानदारी के साथ ।
कभी मौज आने पर
सिनेमा से दूर रहने वाला वह
खुद बन जाता सिनेमा
और जुटा लेता अच्छी-खासी भीड़
अपने इर्द-गिर्द
अलाप लेकर -
आल्हा -उदल / सोरठी -बिर्जाभार
सारंगा-सदाब्रिक्ष/भारतरी चरित
या बिहुला-बाला-लखंदर का ।
लगातार -
समय के थपेडों को खाकर भी
नही बदला वह
बदल गया लेकिन समय
फिर , समय के साथ उसका नाम-
पहले अस्पृश्य , पुन: अछूत
कालांतर में हरिजन
और , अब वह -
दलित हो गया है
शायद-
कल भी कोई नया नाम जुटेगा
झिन्गना के साथ ।
लेकिन, झिन्गना -
झिन्गना हीं रहेगा अंत तक
और साथ में उसकी
अपनी राम कहानी ।
()रवीन्द्र प्रभात
शनिवार, 10 नवंबर 2007
हम फकीरों की गली में झांकिए , सच बयानी को बुरा मत मानिए !

चार हिन्दी की गज़लें -
(एक )
शब्द-शब्द अनमोल परिंदे !
सुन्दर बोली बोल परिंदे !!
जीवन -जीवन भूलभुलैया -
दुनिया गोलम- गोल परिंदे !!
छोटा मुँह मत बात बड़ी कर -
खुल जायेगी पोल परिंदे !!
शीशे के घर में रहकर ना -
पत्थर -पत्थर तोल परिंदे !!
बन्दर के हाथों में मत दे -
झाल -मजीरा -ढोल परिंदे !!
कुछ मन की मर्यादा रख ले -
आंखों को मत घोल परिंदे !!
कुछ "प्रभात " के जैसा रच दे -
अंतर -पट अब खोल परिंदे !!
(दो)
पुलिस फिरौती मांगे रे मितवा !
शहर घिनौना लागे रे मितवा !!
सुते पहरुआ , चोर -उचक्का -
रात -रात भर जागे रे मितवा !!
गणिका बांचे काम , पतुरिया -
पीछे -पीछे भागे रे मितवा !!
दुर्जन मदिरा पान में पीछे -
संत -मौलवी आगे रे मितवा !!
कहे "प्रभात" सुनो भाई जनता -
भूखे लोग अभागे रे मितवा !!
(तीन)
भर दे जो रसधार दिल के घाव में !
फिर वही घूँघरू बंधे इस पाँव में !!
द्रौपदी वेबस खडी यह कह रही -
अब न हो शकुनी सफल हर दाव में !!
बर्तनों की बात मत अब पूछिए -
आजकल सब व्यस्त हैं टकराव में !!
है सफल माझी वही मझदार का -
बूँद एक आने न दे जो नाव में !!
बात करता है अमन की जो "प्रभात"
भावना उसकी जुडी अलगाव में !!
(चार)
और अंत में मियाँ मुसर्रफ के लिए
एक भारतीये की नसीहत --
हम फकीरों की गली में झांकिए !
सच-बयानी को बुरा मत मानिए !!
फक्र है खुद की जवानी पर यदि -
तो बुढापे का भरम भी जानिए !!
जर्फ़ हो तो सर झुकाने की जगह -
सर झुके जितना झुकाना चाहिए !!
सुर्ख़ियों में आज तो मदहोश हो -
होश आएंगे मिलेंगे जब हाशिये !!
आपकी हर बात अच्छी है मियाँ -
पर मेरे कश्मीर को मत मांगिए !!
बक्त कहता है यही अब ए " प्रभात"
आस्तीं में सांप मत अब पालिए !!
()रवीन्द्र प्रभात
बुधवार, 7 नवंबर 2007
दीपावली, जुआ, संस्कार और सरोकार !

हमारे एक मित्र हैं रामाकांत पांडे , दिल्ली में रहते हैं , पेशे से पुरोहित हैं . धोती -कुर्ता और ललाट पर त्रिपुंड चंदन . बातें करेंगे तो विल्कुल अध्यात्मिक . हाव -भाव पूरी तरह संस्कारिता से ओतप्रोत , हम उन्हें चलता - फिरता आस्था चैनल कह कर पुकारते हैं ! पिछले दीपावली में आये थे लखनऊ , संस्कार पर लंबा -चौडा देकर हमारे मन को पवित्र कर गए . संस्कार पर उनके प्रवचन कुछ इसप्रकार थे -
मनुष्य का जीवन संस्कारों पर चलता है . जीवन में जो कुछ भी किया जाता है , वह आदत बन जाती है और यही आदत चित्त -पटल पर आकर संस्कार का रुप लेती है ।
संस्कार प्रेरित करता है , कि कैसे आकांक्षाओं को मूर्त रुप दिया जाये . अच्छे संस्कार मनुष्य को मान- सम्मान के साथ -साथ शांति, सुख संतुस्ती का बोध कराते हुए समृधि की और ले जाते हैं , वहीं बुरे संस्कार विनाश की ओर .
अगर हमारे पूर्वजों में संस्कार प्रबल नही होता , तो सभ्यता का विकास असंभव था .इसके बिना हम आज जानवरों की तरह रह रहे होते .
संस्कार में चार शब्द सन्निहित है -
सं - संवेदना
स - स्वयं भय
का -कार्यानुभुति
र - रचनात्मकता
() संवेदना हमारे मन के उदगार को व्यक्त करती है तथा दूसरे की भावनाओं और इच्छाओं का ध्यान रखती है .
() स्वयं भय मनुष्य को सम्पूर्ण इमानदारी के गुण से परिपूर्ण कर देता है .
() कार्यानुभुती कार्य के प्रति स्वामित्व का बोध कराती है तथा सच्चे मन से कर्तव्यों के निर्वहन हेतु प्रेरित करती है .
() रचनात्मकता उद्देश्यों के प्रति जागरूकता का भाव उत्पन्न करती है ।
इसप्रकार -
जिस व्यक्ति के भीतर संवेदना , स्वयं भय , कार्यानुभुती तथा रचनात्मकता का भाव होता है , उसका जीवन उद्देश्यपरक होता है और उद्देश्यपरक जीवन जीने वाला मनुष्य ही सफलता को वरन करता है .
संस्कार तीन प्रकार के होते हैं -
() जन्म जात संस्कार () रोपित संस्कार () कर्मगत संस्कार
() जन्मजात संस्कार - संवेदना और स्वयं भय के साथ सुन्दर अनुभूतियों को स्वभाव में ढालते हुए प्रगति की लालसा रखने वाले को जन्मजात संस्कार के तहत माना जाता है .
() रोपित संस्कार - शिक्षा , समाज , वातावरण , अध्यन-अध्यापन , अभ्यास , विचार -विमर्श से सिख कर , उसी को सत्य मानकर उसी में रुचि रखने वाले को रोपित संस्कार के तहत माना जाता है .
() कर्मगत संस्कार - कार्यानुभुती के साथ अच्छे -बुरे अनुभवों से शिक्षा लेकर अपना मार्ग स्वयं तय करते हुए रचनात्मक बने रहने वाला व्यक्तिकर्मगत संस्कार के तहत आता है ।
सोच सकते हैं कि इतना सब कुछ सुन लेने के बाद उस व्यक्ति के प्रति श्रद्धा काभाव कितना बढ़ जाएगा ? मैं उस संस्कार रूपी सत्य वचन में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों को धुन्धने लगा . मगर जब मुझे ज्ञात हुआ कि दीपावली में हमारे सांस्कारिक मित्र ने जुए में बीस हजार रुपये हार गए ,तो मुझे बहुत बुरा लगा मैंने फोन पर ही उन्हें उलटा -सीधा कह दिया कि -क्या यही तुम्हारे संस्कार हैं मित्र ? इसपर जो उनकी प्रतिक्रिया थी वह भी कम आश्चर्यजनक नही थी . उन्होने हंसते हुए कहा कि - मित्र ! जुआ खेलना भी संस्कारों की श्रेणी में ही आता है . मैं देर तक रिसीवर हाथ में उठाये यही सोचता रहा कि कैसे जुआ खेलना हमारे संस्कार का एक हिस्सा है ? अगर ऐसा है तो हमारे सामाजिक सरोकारों का क्या होगा ? मैं सोच रहा हूँ कि अगली वार जब मैं अपने इस अनोखे मित्र से मिलूंगा तो अपनी यहजिज्ञासा शांत करूंगा और जब मेरी जिज्ञासा शांत हो जायेगी तो आप सभी को जरूर बताऊंगा , तबतक के लिए - शुभ दीपावली !
सोमवार, 5 नवंबर 2007
फटी लंगोटी झोपड़पट्टी है लेकिन , जीवन का उल्लास हमारे पास मियाँ !

पिछले दिनों मियाँ मुसर्रफ के द्वारा पाकिस्तान में आपात स्थिति लगाने की खूब चर्चा रही . लोगों ने मियाँ मुसर्रफ के किसी भी हद तक जाने की बात करते हुए उसकी जमकर आलोचना की और कहा कि मियाँ कुर्सी के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं, यहाँ तक कि अपने मुल्क के चरमपंथियों को गुमराह करने के उद्देश्य से वह यदि ज़रूरत महसूस हुई तो फिर से कश्मीर का मुद्दा उठा सकते हैं या फिर भारत के साथ कूटनीतिक युद्ध की तैयारी भी .हो सकता है कि नए कारगिल युद्ध का बीजारोपण कर दें मियाँ मुसर्रफ . वैसे भी मियाँ मुसर्रफ अन्य तानाशाहों से भिन्न प्रतीत नहीं होते .सच तो यह है कि मियाँ मुसर्रफ की स्थिति कमोवेश वैसी ही है जो कभी जनरल जिया-उल- हक और सद्दाम हुसैन की थी .आगे कुआं पीछे खाई जाएँ तो जाएँ कहाँ ? गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि - मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है , जब वह अपने मन , इन्द्रियों सहित शरीर के सामने घुटने टेक देता है तो वही मनुष्य उसीप्रकार दु:खों से दु:खी रहता है जिस प्रकार शत्रुओं द्वारा सताया जाता हुआ मनुष्य . मियाँ मुसर्रफ स्वयं में ही अपना शत्रु बन बैठे हैं इसमें कोई संदेह नही .राष्ट्र के नाम संदेश में मियाँ मुसर्रफ के चहरे पर वह दु:ख स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था उस दिन .चिंता की स्पष्ट लकीरें दिखाई दे रही थी उसके चहरे पर . वह एक घायल शेर की मानिंद हर किसी को कच्चा चबा जाने को आतुर दिखाई दे रहा था .एक तानाशाह की अंत: पीडा देखने लायक थी उस दिन ।क्या फिर से एक नए युद्ध का आगाज़ है ये इमरजेंसी , पाकिस्तान के अन्दर और पाकिस्तान के बाहर यानी पड़ोसी मुल्क के लिए ? भाई इसका जबाब तो मियाँ मुसर्रफ के सिवा और भला कौन दे सकता है ? मैंने अपने एक मित्र के द्वारा पूछे गए प्रश्न के जबाब में कहा तो उसने फिर कहा कि रवीन्द्र भाई , तुम देख लेना फिर दूसरा कारगिल होकर ही रहेगा . हो जाये क्या फर्क पङता है, हम डरते हैं क्या पाकिस्तान से . इस बात पर तिलमिलाते हुए उसने बड़ी मासूमियत के साथ कहा कि , यार रवीन्द्र उसके पास परमाणु बम है .मेरी झुंझलाहट और बढ़ गयी मैंने कहा - क्या हमारे पास नही है ? मैं कहाँ कह रहा हूँ की नही है , मगर क्योंकि हम मानव विध्वंस के ख़िलाफ़ हैं , साथ ही हमारे हाथ समझौते से बंधे हैं इसलिए हम इस्तेमाल नही कर सकते परमाणु हथियार को , मगर वहतो सनकी तानाशाह है कुछ भी कर सकता है .अब कौन समझाए अपने इस मित्र को .मैंने कहा यार आशुतोष , किसी शायर ने कहा है कि - " जो काम होना होगा वह टल नही सकता , निजाम- ए - गर्दिश - ए - दौरा बदल नही सकता , तेरे ख़याल को तू अपने पास रहने दे - तेरे ख़याल से नक्शा बदल नही सकता ."फिर मैंने कहा यार जहाँ तक मुसर्रफ का प्रश्न है तो इसपर भी किसी शायर ने कहा है कि -" मूजी से वफादारी की उम्मीद गलत है, जो काम इन्हें करना है ये करके रहेंगे! तुम मन्त्र पढो या इन्हें दूध पिलाओ , फितरत में जो डसना है बहरहाल दसेंगे !!"बहुत पहले जब बार -बार पाकिस्तान के द्वारा भारत को कश्मीर की आड़ में अप्रत्यक्ष युद्ध की खुली चुतौती दी जा रही थी और कारगिल युद्ध को सही ठहराया जा रहा था( यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि अप्रत्यक्ष रुप से कारगिल युद्ध के शुत्रधार मियाँ मुशर्रफ़ ही थे ) तो उसवक्त मेरे कवि मन ने पाकिस्तान की खुली चुनौती का जबाब कुछ इसप्रकार दिया था ,पहली वार इस ग़ज़ल को मेरे द्वारा अलीगंज के एक कवि सम्मेलन में पढा गया और श्रोताओं ने इस ग़ज़ल की जमकर तारीफ़ की( जिसकी तस्वीर ऊपर दी गयी है , ऊपर वाली तसवीर में कविता पाठ मैं कर रहा हूँ और नीचे गीतेश ) . आज वही ग़ज़ल प्रसंगवश यहाँ प्रस्तुत है ---
फटी लंगोटी, झोपड़पट्टी है लेकिन -
एटम - बम का खौफ दिखाते हो लेकिन -
पृथ्वी , अग्नि, आकाश हमारे पास मियाँ !!
पेरिस की हर शाम मुबारक हो तुमको -
आस-पास मधुमास हमारे पास मियाँ !!
घर की मर्यादा खातिर हम सह जाते -
होता जब बनवास हमारे पास मियाँ !!
रहती गर्म उसांस हमारे पास मियाँ !!
मेरे भीतर गांधी भी है और भगत भी -
विश्मिल - वीर सुभाष हमारे पास मियाँ !!
कुछ कविता, कुछगीत,ग़ज़ल के लिए"प्रभात"
हर दिन है अवकाश हमारे पास मियाँ !!
() रवीन्द्र प्रभात
शनिवार, 3 नवंबर 2007
जब मैं मर गया उस दिन !
मेरे मरने का समाचार सबसे पहले मेरे एक कवि मित्र को मिला . उसका चेहरा पहले तो मायुश हो चला फिर चहका , फिर मुरझाया , फिर वह मन - ही - मन मुस्कुराया और दौड़ कर मेरी लाश के पास आया . मेरे बदन से लिपटकर रोया - गाया , जितना भी बन पडा मेरी पत्नी को समझाया , मगर अन्दर - ही - अन्दर बड़बड़ाया- " अच्छा हुआ साला मर गया , धरती का बोझ कुछ हल्का कर गया . अच्छी - अच्छी कवितायें कर रहा था , ब्लोग पर अच्छे - अच्छे पोस्ट डालकर मेरी खटिया खडी कर रहा था , अब तो मेरे रास्ते का काँटा नि: संदेह साफ हो जाएगा , भगवान् ने चाहा तो अगले ही हफ्ते कोई बड़ा सा पुरस्कार मिल जाएगा !"
फिर किसी ने जाकर मेरे एक हमदर्द को बताया , मेरे मरने का सुखद समाचार सुनाया . उसके चहरे पर एक हल्की सी लालिमा दौड़ गयी , जिस्म में एक सिहरन सी फ़ैल गयी . वह किसी भी प्रकार अपनी आंखों को रुलाया और मेरी अन्तिम यात्रा में शामिल होने आया , यह सोचते हुए कि - " क्योंकर उसके ह्रदय की बत्ती बूझी है , साले को इसी समय मरने की सूझी है ? वैसे तो उसकी मौत मुझे बहुत रूला रही है , मगर टी वी पर अभी फिल्म चल रही ,है , थोडी देर और रूक जाता तो क्या होता ? जहाँ तक मेरा अनुमान है कि वहाँ अभी चिल-पों मच रही होगी, औपचारिकताएं पूरी की जा रही होगी . पहले फिर देख लेताहूँ फिर जाऊंगा , भाई ! रिवाज़ है तो उसके जनाजे को कंधा भी लगाऊंगा !"
मेरी लाश के पास इकट्ठी भीड़ देखकर , मेरे टीचर ने पूछा लोगों से ठिठक कर - " अरे , यह तो मेरा चेला है , मगर क्यों लगा हुआ यहाँ पर मेला है ?" जब उन्हें आभास हो गया कि मर गया , स्वयं को दुनिया से जुदा कर गया . तो वह भी मेरे पास आये , मेरे शव से लिपट कर बद्बदाये - " बेटा ! मरने को तो मर गया , मगर पूरी की पूरी फ़ीस हजम कर गया ."
फिर उसके बाद ठहाका वाला बसंत आर्य मुम्बई से आया , सहानभूति जताया , रोतीहुई मेरी पत्नी के बालों को सहलाया , आंसू पोछे और बताया - " जाने वाला तो चला गया वह लौटकर कैसे आयेगा , किसके लिए रोतीहो भाभी जी क्या वह मरने के बाद तेरी किस्मत बना पाएगा ? जो हुआ उसे भूल जाओ और मन की शांति के लिए चलो मुम्बई से घूम आओ ."
सभी आंसू तो खूब बहाते थे मगर अन्दर ही अन्दर बड़बड़ातेथे . आंसू भी ऐसे कि घडियाली और हाँथ भी सबके खाली . झुंझलातेहुए किसी ने कहा -" यार! कफ़न का बंदोबस्त करवाओ और दुर्गन्ध आने से पहले शमशान पहून्चाओ ."
जब कफ़न का बंदोबस्त नही हो पाया तो मेरा एक मित्र बड़बड़ाया-" साला दिन भर शायरी करता था , रात को उलूल - जुलूल लिख कर डायरी भरता था . जो भी कमाता पुसतकें खरीद लेता बाकी जो बचता कर देता संस्था को दान, कभी भी नही आया इसे अपने भविष्य की सुरक्षा का ध्यान ? "
फिर कहीं से खोजकर कवि सम्मेलन का एक पुराना सा बैनर लाया गया और मेरे शव परओढ़ाया गया .फिर कोई मुखातिव हुआ मेरी पत्नी से और चिल्लाया - " तेरा पति था क्या तू भी कुछ बतायेगी , सोचो चिता की लकडी कहाँ से आयेगी ? " एकाएक मेरी पत्नी को याद आयी , उसने मेरी अन्तिम इच्छा बताई - " मेरे पति ने अपने लिए चिता का बंदोबस्त कर रखा है , उनके द्वारा संग्रहित पुस्तकों की चिता सजाईये, पुन: चिता में आग लगाईये . मुझे यकीन है हम सभी की भ्रांति मिटेगी और भगवान् ने चाहा तो उसकी आत्मा को अवश्य शांति मिलेगी ."
फिर सब ने दिखाया अपना जोश और होने लगा राम नाम सत्य है का उद्घोष . कुछ दूर जाने के बाद एक व्यक्ति बड़बड़ाया- " मुझे क्या पता था कि साला मरने के बाद भारी हो जाएगा ." तो दूसरे ने कहा- " यार! लगता है शमशान जाते - जाते कचूमर निकल जाएगा . " तीसरे ने कहा - " यार ! इसे जल्दी शमशानपहुँचाओ , नही तो फिर किसी गटर में फेंक जाओ ." चौथे ने कहा - " यह दाह - संस्कार का कैसा दस्तूर है, भारी लगाने के बावजूद भी लोग कंधा लगाने को मजबूर है . "
खैर, किसी भी प्रकार मुझे शमशान पहुंचाया गया , पुस्तकों की चिता पर सुलाया गया और जब आग लगाने की बारी आयी तो यह समाचार सुनकर मेरी माँ दौड़ी - दौड़ी आयी . आते ही मेरे जिस्म से लिपट कर जोर - जोर से चिल्लाई - " खबरदार जो मेरे बच्चे को हाँथ लगाए, भगवान् करे इसे मेरी भी उम्र लग जाये ." रोती - विलखती - कराती हुई बोली , अपने थरथराते होठों को खोली - " मैं यमराज के पास जाऊंगी , अपने बच्चे को अवश्य वापस लाऊँगी ." कहते -कहते हुआ उसका हार्ट - अटैक . दोस्तों यही था मेरी मृत्यु के वरन का प्ले - बैक .
जब -जब मैं दुनिया की स्वार्थ परता को देख कर डर जाता हूँ उसी क्षण मैं मर जाता हूँ .माँ के आशीर्वाद से पुन: जन्म लेता हूँ दुनिया की स्वार्थ परता को देखने के लिए , समझने के लिए और परखने के लिए ।
बुधवार, 31 अक्टूबर 2007
....न उसने कुछ कहा, न मैंने पहल की !
लगभग पांच वर्ष पहले प्रशांत की एक महिला मित्र हुआ करती थी, नाम था कामिनी . बडे सुन्दर विचार थे उसके , बड़ी प्यारी- प्यारी बातें किया करती थी . उसकी बातें प्रशांत को बरबस खींचती थी अपनी तरफ. उसके विचार प्रशांत को चर्च के घंटे की तर्ज़ पर गढे गए संगीत सा महसूस होता था , कभी मंदिरों की आरती तो कभी मस्जिदों के अजान सा . बहुत पवित्र रिश्ता था उसका उसके साथ . कामिनी के उम्दा ख्यालों का कायल था वह . जब कभी दोनों मिलते थे तो जी भर कर बातें करते , घंटों तक खोये रहते विचारों की मटरगश्ती में . प्रशांत मन ही मन चाहता था उसे पर शायद उसके उम्दा विचारों के आगे खुद को बौना महसूस करता , इसलिए अपने प्यार का इजहार नही कर सका और न प्रस्ताव ही रख सका शादी का .
समय का पहिया चलता रहा , दोनों को दरकार थी नौकरी की , दोनों को चिंता थी भविष्य संवारने की . दोनों जुदा हो गए जीवन और जीविका के बीच संतुलन बैठाने के चक्कर में और सालों बाद मिले भी तो कुछ इस तरह -
प्रशांत एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान में जन सम्पर्क अधिकारी हो गया , बॉस से अच्छे संवंध थे , एक दिन बॉस ने कहा कि - " प्रशांत , आज मेरे एक मित्र की एन्वार्सरी पार्टी है होटल अवध क्लार्क में और मैं नहीं जा पाऊंगा व्यस्तता के कारण , आप चले जाओ !" प्रशांत को ऐसी हाई प्रोफाईल पार्टियों में जाना अछा नही लगता , मगर नौकरी की मजबूरी थी सो उसे न चाहते हुए भी उस पार्टी में जाना पडा .
लखनऊ के उस बडे होटल में चल रही शानदार पार्टी में मित्तल साहब के आते ही जैसे तूफ़ान आ गया . मित्तल साहब की बात अलग थी , नाबावी ठाट और मुँह में पान की लाली . उम्र वेशक सत्तर को पार कर चुकी थी , पर दिल अभी सत्रह का ही था .
लेकिन पार्टी में उठा तूफ़ान मित्तल साहब की वजह से नही , वल्कि उस कमसीन युवती की वज़ह से था , जो मित्तल साहब के कांपते बूढे हांथों में अपनी गोरी बाँहें डाल बड़ी शान से चली आ रही थी . शायद अपने हाव - भाव से कहना चाह रही हो कि मैं भी एक करोड़पति की बीबी हूँ , दूसरी हुई तो क्या हुआ .
सालों बाद देखा था कामिनी को वह आज , बाहर से चहचहाती किन्तु भीतर ही भीतर धुँआती हुई . भौंचक रह गया प्रशांत उसे देख कर और मन ही मन सोचने लगा कहाँ गए कामिनी के वह आदर्श ? क्या यही ख्वाहिश थी कामिनी की वर्षों पहले ?
उस भीड़ में इधर - उधर घूमती हुई कामिनी की आँखें अचानक प्रशांत की आंखों से टकडाई और झुक गयी शर्म से अनायास ही . कुछ कहने के लिए आगे बढ़ी फिर ठिठक गयी यह सोचकर कि शायद मित्तल साहब को बुरा लगे किसी नवजवान से मिलते हुए .
होटल के कोने में बैठा प्रशांत यही सोचता रहा था कि " पैसों और एशोआराम की खोखली चकाचौंध के चक्कर में यह कैसा संतुलन ? कल जब मित्तल साहब के पाँव कब्र में भीतर तक धंस जायेंगे तो बेचारी कामिनी अपने करोड़पति शौहर की दूसरी बीवियों की तरह किसी फ्लैट में पडी रहेगी किश्तों में खुदकुशी करती हुई . भगवान् करे ऐसा न हो.....बेचारी ! "
जब प्रशांत सोच के समंदर से बाहर निकला तो कामिनी जा चुकी थी और पार्टी बेजान सी हो चली थी . वह बिना कुछ खाए - पिए , बिना किसी से बात किये होटल से बाहर आ गया और अपनी कार की पिछली सीट पर धम्म से गिरा, मन ही मन बुदबुदाते हुए कि - " न उसने कुछ कहा , मैंने पहल की ....! "
( कॉपी राइट सुरक्षित )
मंगलवार, 30 अक्टूबर 2007
बीडी जलाइले जिगर से , जिगर मा बड़ी आग है !
परसों इतवार का दिन था, सोचा कि कोई मित्र मिल जाये तो सिनेमा देखने चलें, पर शाम तक कोई मित्र ऐसा नही मिला जिसके साथ जाया जा सके. थक-हार कर शाम विताने के उद्देश्य से चला गया अपने एक करीबी मित्र प्रदुमन तिवारी के यहाँ, यह सोचकर कि कुछ मित्र एक साथ बैठकर जब विचारों का आदान- प्रदान करेंगे तो शाम खुश्ग्बार गुजर जायेगी . मैं प्रदुमन के घर के बाहर लॉबी में कुछ मित्रों के साथ बैठा गप्पे मार रहा था कि अचानक एक ऐसी घटना घटी कि मैं सोचने पर मजबूर हो गया. आप भी सुनेंगे तो नि: संदेह मजबूर हो जायेंगे सोचने पर. हुआ यह कि उसके यहाँ एक कामवाली आयी थी जो एक कोने में बैठकर बीडी पी रही थी और प्रदुमन का सबसे छोटा बेटा जो महज सात साल का है , उससे गपिया रहा था , उसे हिदायतें दे रहा था कि- " ये चाची! अपनी बीडी को जिगर से क्यों नहीं जलाती हो, माचिस के पैसे बचेंगे ?"यह सुनकर वह कामवाली पहले तो शरमाई फिर अपने कथई दातों को निपोरती हुई बोली- " धत्त , कइसन बात करत हौ बबुआ! जिगर से कहीं बीडी जलिहें ?" वह बालक इसप्रकार बातें कर रहा था जैसे आत्म विश्वास से लबरेज हो. उसने मासूमियत भरी निगाह डालते हुए कहा कि- " जलेगी न चाची , कोशिश तो करो !" वहाँ बैठे सभी लोग यह दृश्य देख अपनी हंसी को रोक नही पाए और खिलखिलाकर हंसने लगे, ठहाका लगाने लगे. वह बालक शायद यह सोचकर वहाँ से भागा कि लोग उसका मजाक उडाने लगेंगे. हमारी हंसी की गूँज से वह कामवाली भी शर्मा गयी. लोगों ने उस मासूम की बातें भले ही उस समय गंभीरता से न लिए हों लेकिन यह सच है कि दृश्य - मीडिया जो किसी भी समाज की सु संस्कारिता का आईना होता है, वही जब द्वि अर्थी संवादों के माध्यम से समाज को गंदा करने की कोशिश करे तो अन्य से क्या अपेक्षा की जा सकती है . आज यह हमारे समाज के लिए वेहद विचारणीय विषय है. ऐसे समय में जब फैला हो हमारे इर्द- गिर्द वीभत्स प्रभाव सिनेमा का , हम कैसे एक सुन्दर और खुशहाल सह- अस्तित्व के साथ- साथ सांस्कारिक समाज की परिकल्पना कर पायेंगे?
सारी बातें बहुत देर तक जेहन में उमड़ती रही और अचानक दस्तक देने लगी मन - मस्तिष्क में एक ऐसी कविता जो मैंने उस समय लिखी थी जब मेरा बेटा गोलू अबोध था . खलनायक फिल्म के उस गाने की बड़ी धूम थी उन दिनों " चोली के पीछे क्या है ? " उसी प्रकार जैसे आज धूम है "बीडी जलैले " कीप्रस्तुत है " चोली के पीछे का सच "" चोली के पीछे क्या है माँ ?"बोल पड़ा गोलू अचानक लौटते- लौटते पाठशाला सेझेंप गयी माँ एकवारगी / देखती रही देर तकटकटकी लगाए, अपने अबोध बेटे का चेहरा और सोचती रही कि क्या कक्षा में हुए सिनेमाई वार्तालाप का असर है यह कटु प्रश्न?बोली" पगले नही जानते इतना भी कि-चोली के पीछे है दूध की वह धार, जिसमें डूब-डूबकर नहाए हो तुम,पले-बढ़े हो/ हुआ है तुम्हारे मस्तिस्क का विकासमिली है शक्ति तुम्हे और मुझे वात्सल्य सुखतुम्हे नहलाकार, यक़ीनन......!"कहते हैं सब कि चोली के पीछे दिल है, यह दिल क्या है माँ ?"बिल्कुल सहज हुई वह ,और देने लगी बारी- बारी से बेटे के प्रश्नों के उत्तर-" बेटा! दिल होता है प्रत्येक प्राणी के भीतर ,जो धड़कता है क्षण- प्रतिक्षण / जीवित रहने तक.....!"संतुष्ट न होते हुए उसने पुन: उछाल दिया एक प्रश्न कि -" माँ ! आख़िर क्या है सच, जो कहते हैं वो या -जो कहती हो तुम ?"जानती है माँ, कि -नही समझा पाएगी अपने अबोध गोलू को वहऐसे समय में जब फैला हो वीभत्स प्रभावसिनेमा का हमारे इर्द - गिर्द !कैसे बताए खुलकर कि चोली के पीछे हैममतामयी आँखों का रक्तिंम संसारऔर एक ऐसा कवच, जो छूपा लेता उसे -किसी अदृश्य की आहट पाकर यकायक !निहारते हुए एकटक , देख रही थी बेटे की चपलता और सोच रही थी , कि कैसे सुलझाए वहइन निरर्थक प्रश्नों की गुत्थीकि कैसे बताए चोली के पीछे का सच ?अचानक कुछ गुनती हुईभींच ! आलिंगन में , अपने अबोध बेटे को -" बेटा ! यही है , चोली के पीछे का सच........!"मन ही मन कहा उसने !उपरोक्त कविता प्रशंगवश यहाँ उधरित की गयी है, उल्लेखनीए है कि उपरोक्त कविता कथ्य रूप प्रकाशन इलाहवाद द्वाराप्रकाशित मेरी काव्य पुस्तिका से ली गयी है, ताकि इस वहस को मूर्तरूप दिया जा सके !
शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2007
एक कतरा जिन्दगी जो रह गयी है, घोल दे सब गंदगी जो रह गयी है ।

आंख से आँसू छलक जाते अभीतक,
बुधवार, 24 अक्टूबर 2007
बैल नही हो सकता आदमी कभी भी
मंदिर या मस्जिद को
रविवार, 21 अक्टूबर 2007
वरदायनी नव देवियों का साकार रुप होती हैं ये कन्याएं , गुप्ता जी ने महसूस किया पहली वार

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2007
सचमुच कितना महत्वपूर्ण है शब्द ?
