शुक्रवार, 28 मार्च 2008

डोन्ट बरी ! फूड और पोआईजन दोनों हो जायेंगे सस्ते ....!

कल दफ्तर से लौटा, निगाहें दौड़ाई ,हमारा तोताराम केवल एक ही रट लगा रहा था-"राम-नाम की लूट है लूट सकै सो लूट.........!" कुछ भी समझ न आया तो मैंने तोते को अपने पास बुलाया और फरमाया-मुंह लटकाता है , पंख फड फडाता है , कभी सिर को खुजलाता तो कभी उदास सा हो जाता है , तू केन्द्र सरकार का मंत्री तो नही ? फ़िर कौन सी समस्या है जो इसकदर रोता है ? तू तो महज एक तोता है , आख़िर क्यों तुम्हे कुछ - कुछ होता है?

तोताराम ने कहा , अब हमारे पास क्या रहा ? रोटी और पानी , उसमें भी घुसी- पडी है बेईमानी... लगातार मंहगी होती जा रही है कलमुंही ,नेताओं को न उबकाई आ रही है न हंसी ...सोंच रहे हैं चलो किसी भी तरह मंहगाई के चक्रव्यूह में भारतीय जनता तो फंसी ! अरे बईमान सत्यानाश हो तेरा , ख़ुद खाते हो अमेरिका का पेंडा और हमारे लिए रोटी भी नही बख्सते और जब कुछ कहो तो मुस्कुराकर कर कहते हो डोंट बर्री ! हो जायेंगे सस्ते ....! अरे क्या हो जायेंगे सस्ते फ़ूड या पोआईजन ? उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- "दोनों "

हम जनता है, पर अधिकार नही है और उनका कहना है सरकार जिम्मेदार नही है ....रोटी चाहिए - न्यायालय जाओ ! पानी चाहिए- न्यायालय जाओ ! बिजली चाहिए- न्यायालय जाओ ! सड़क चाहिए- न्यायालय जाओ ! भाई , यदि इज्जत- आबरू और सुरक्षा चाहिए तो न्यायालय जाना ही पडेगा ....ज़रा सोचो जब जेड सुरक्षा में दिल्ली पुलिस का एसीपी राजवीर सुरक्षित नही रहा तो आम पबलिक की औकात क्या ? एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाजुओं को देख, पतबारें न देख ! समझ गए या समझाऊँ या फ़िर इसी शेर को फ़िर से दुहाराऊँ ?

60साल में भारत का रोम-रोम क़र्ज़ में डूब गया है और हम गर्ब से कहते हैं कि भारतीय हैं.भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि भ्रष्टाचार की जड़ कहाँ है? उसे कौन सींच रहा है ? भाई यह तो हमारी मैना भी जानती है कि पानी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर आता है . पिछले दिनों एक धर्मगुरू के धर्म कक्ष में अचानक फंस गयी थी हमारी मैना ......उसी धर्म कक्ष की दीबारों पर जहाँ ब्रह्मचारी के कड़े नियम अंकित किए गए थे , इत्तेफाक ही कहिये कि उसी फ्रेम के पीछे मेरी मैना गर्भवती हो गयी ...इस प्रसंग को खूब उछाला पत्रकारों ने , सिम्पैथी कम , उन्हें अपने टी आर पी बढ़ाने की चिंता ज्यादा थी ! चलिए इसपर एक चुराया हुआ शेर अर्ज़ कर रहा हूँ - दीवारों पर टंगे हुए हैं ब्रह्मचर्य के कड़े नियम, उसी फ्रेम के पीछे चिडिया गर्भवती हो जाती है ! भाई, कैसे श्रोता हो चुराकर कविता पढ़ने वाले कवियों की तरह बाह-बाह भी नही करते ? मैंने कहा तोता राम जी !चुराए हुए शेर पर वाह-वाह नही की जाती, इतना भी नही समझते ?

मैंने कहा - तोताराम जी, बस इतनी सी चिंता , वह भी उधार की ? तो क्या झूठे वायदों का करू और नकली प्यार की ? मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा जाता, हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे ? मैंने कहा तोताराम जी, दुनिया में और भी कई दु:ख है , तुम्हारे दु:ख के सिवा.....यह सुनकर हमारा तोता मुस्कुराया .....यह बात जिस दिन समझ जाओगे कि भूख के सिवा और कोई दु:ख नही होता , उसदिन फ़िर यह प्रश्न नही करोगे बरखुरदार ! मैंने कहा कि भाई, तोताराम जी , मैं समझा नही , तोताराम ने कहा भारत की जनता को यह सब समझने की जरूरत हीं क्या है? मैंने कहा क्यों? उसने कहा यूँ!" हम सब मर जायेंगे एक रोज, पेट को बजाते और भूख-भूख चिल्लाते, बस ठूठें रह जायेंगी, साँसों के पत्ते झर जायेंगे एक रोज !"
हमने कहा- यार तोताराम , आज के दौर में ये क्या भूख-भूख चिल्लाता है ?
तुझे कोई और मसला नज़र नही आता है?


उसने कहा कि तुम्हे एतराज न हो तो किसी कवि की एक और कविता सुनाऊं? हमने कहा हाँ सुनाओ! तोता राम यह कविता कहते-कहते चुप हो गया कि- " यों भूखा होना कोई बुरी बात नही है, दुनिया में सब भूखे होते हैं, कोई अधिकार और लिप्सा का, कोई प्रतिष्ठा का, कोई आदर्शों का और कोई धन का भूखा होता है, ऐसे लोग अहिंसक कहलाते हैं, मांस नही खाते, मुद्रा खाते हैं ......!!" मैंने कहा भाई, तोताराम जी ! ये तुम्हारी चोरी की शायरी सुनते-सुनते मैं बोर हो गया , ये प्रवचन तो सुबह-सुबह बाबा लोग भी देते हैं लंगोट लगाकर ! तुम तो ज्ञानी हो नेताओं की तरह , कुछ तो मार्गदर्शन करो भारत की प्रगति के बारे में....प्रगति शब्द सुनते ही हमारा तोता गुर्राया , अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर दिखाया और चिल्लाया - खबरदार तुम आम नागरिकों को केवल प्रगति की हीं बातें दिखाई देती है, मुझसे क्यों पूछते हो , जाओ जाकर पूछो उन सफेदपोश डकैतों से , बताएँगे कहाँ-कहाँ प्रगति हो रही है देश में .....भाई, मेरी मानो तो छूत की बीमारी जैसी है प्रगति . शिक्षा में हुई तो रोजगार में भी होगी , रोजगार में हुई तो समृद्धि और जीवन-स्तर में लाजमी है , क्या पता कल नेता के चरित्र में हो ? वैसे देखा जाए तो भारत की राजनीति में एकाध प्रतिशत शरीफ बचे हैं , अर्थात अभी नेताओं के चरित्र में प्रगति की संभावनाएं शेष है ......चारा घोटाला के बाद चोरी के धंधे में भी नए आयाम जूडे हैं, पहले चोर अनपढ़ - गंवार होते थे, इसलिए डरते हुए चोरी करते थे , अब के चोर हाई टेक हो गए हैं . जितना बड़ा चोर उतनी ज्यादा प्रतिष्ठा . चारो तरफ़ प्रगति ही प्रगति है , तुम कैसे आदमी हो कि तुम्हे भारत की प्रगति दिखाई ही नही देती ? अरे भैया अब डाल पे उल्लू नही बैठते हैं, संसद और विधान सभाओं में बैठते हैं जहाँ घोटालों के आधार पर उनका मूल्यांकन होता है .....समझे या समझाऊँ या फ़िर कुछ और प्रगति की बातें बताऊँ ?

मैंने कहा भाई तोताराम जी, तुम्हारा जबाब नही , चोरी को भी प्रगति से जोड़ कर देखते हो ? तो फ़िर उन लड़किओं का क्या होगा , जिस पर लडके ने नज़र डाली और उसका दिल चोरी हो गया ? तोताराम झुन्झालाया ..पागल हैं सारे के सारे , ये दिल -विल चुराने का धंधा ओल्ड फैशन हो गया है । दिल चुराओ और फिजूल की परेशानी में पड़ जाओ. यह खरीद - फरोख्त के दायरे में भी नही आता , इससे कई गुना बेहतर तो लीवर और किडनी है। उनका बाज़ार में मोल भी है , चुराना है तो लीवर और किडनी चुराओ , दिल चुराने से क्या फैयदा ?

मैं आगे कुछ और पूछता इससे पहले , तोताराम ने मेरे हांथों पर चोंच मारा और बोला मेरे यारा ! नेताओं और धन पशुओं को अपना आदर्श बनाओगे प्रतिष्ठा को गले लगाओगे, खूब तरक्की करोगे खूब उन्नति पाओगे ......! मैंने कहा - जैसी आपकी मर्जी गुरुदेव ! चलिए अब रात्री विश्राम पर चलते हैं और जब कल सुबह नींद खुले तो बताईयेगा- यह प्रगति है या खुदगर्जी , इस सन्दर्भ में क्या है आपकी मर्जी ?

मगर जाते-जाते मेरे तोताराम जी का एक शेर सुनते जाइये....इसबार मेरा तोताराम नही कहेगा कि यह शेर मेरा है , दरअसल यह शेर दुष्यंत का है सिर्फ़ जुबान इनकी है - शेर मुलाहिजा फरमाएं हुजूर!

"सिर्फ़ हंगामा खडा करना मेरा मकसद नहीं!
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए !!"


मैंने कहा भाई, तोताराम जी , अब चलिए आप भी आराम कर लीजिये .....तोताराम ने कहा - हाँ चलिए हमारे देश में आराम के सिबा और बचा ही क्या है ! मैंने कहा - क्या मतलब ? उसने कहा- चलिए एक और शेर सुन लीजिये जनाब ! " किस-किस को गाईये, किस-किस को रोईये , आराम बड़ी चीज है मुंह ढक के सोईये !" मैंने कहा ये शेर तुम्हारा है ? उसने कहा- कल तक किसी और का था , अभी हमारा है और कल किसी और का .....हाई टेक सोसाईटी में सब जायज है ....!

बुधवार, 26 मार्च 2008

जब शहर से वापस आना ....!

इसे कविता समझें या संदेश , या फ़िर अभिव्यक्ति के माध्यम से सुझाव उन गुमराह नवजवानों को जो अज्ञानतावश शहर के गलैमर की चकाचौंध में खोकर अपने आस-पास के अवसरों का परित्याग कर चले जाते हैं कहीं दूर .....किसी महानगर में और सबकुछ लुटाकर जब आते हैं होश में तो बहुत देर हो चुकी होती है ....कुछ जो होश में नही आते उन्हें होश में लाने का काम कर जाती हैं परिस्थितियाँ .....जब उनके द्वारा गाँव आने का इरादा किया जाता है तो उनके परिजन की क्या अपेक्षाएं होती है उनसे ? ......प्रस्तुत है उसी अभिव्यक्ति का एक कोना आपके लिए -

!! जब शहर से वापस आना !!

कारखानों का विषैला धुआं

मौत की मशीन

नदियों का प्रदूषित पानी

जिस्म खरोंचती बेशर्म लड़कियां

होटलों की रंगीन शाम

और फिल्मों के -

अश्लील शब्द मत लाना

जब शहर से वापस आना .....!!

उन्मादियों के नारे

सायरन वाली गाड़ियों की चीख

सिसकते फुटपाथ

घटनाओं- दुर्घटनाओं के चित्र

अखावारों के भ्रामक कोलाज़

और दंगे की -

गर्म हवाएं मत लाना

जब शहर से वापस आना ....!!

मगर-

दादा के दम्मे की दवा

माँ के लिए एक पत्थर की आंख

बच्चों के लिए गुड का ढेला

और बहन के लिए

पसीने से तरबितर नवयुवक का रिश्ता

अवश्य लाना

जब शहर से वापस आना .....!!

()रवीन्द्र प्रभात

गुरुवार, 20 मार्च 2008

ऐसी हीं बिंदास होली हो इसबार ...!


होली में हो ली हो वाणी मिठास की ,
आंखों में झूल जाए मस्ती एहसास की,

खिल जाए खुशियाँ, घर में उजास हो,
न कोई दु:खी और न कोई उदास हो ,

मस्ती हवा में यूं खुलकर के नाचे ,
जोगीरा कोयलिया व उल्लू भी बांचे,

किसी से कोई भी करे बैर ना,
विद्वेष की अब रहे खैर ना,

गली-कूचे सराबोर रंगों से हो ,
पर न जाती-धरम और न दंगों से हो,

अक्षर के अक्षत से सबका अभिषेक हो ,
भंग हो, रंग हो , विचार मगर नेक हो ,

हर तरफ़ मस्तों की टोली हो, इसबार
ऐसी हीं बिंदास होली हो इसबार ....!
क्योंकि-
जीवन रूपी प्रवृतियों के कलश में
सामूहिकता का रंग भरना ही " होली" है.....!
मेरी शुभकामना है ,कि -रंगों का यह निश्छल त्यौहार
आप व आपके परिवार जन की
स्वस्थ प्रवृतियों का श्रृंगार करे
आत्मिक शक्तियों का विकास करे
रखे उल्लसित , उत्साहित और प्रसन्नचित हमेशा
संचारित करे चेतना में सदइच्छा - सदभाव -सदाचार....!
आप सभी के लिए "होली"
लाये सुखद समाचार ...!

"होलीकोत्सव" की हार्दिक बधाईयाँ !!

शुभेच्छु -
रवीन्द्र प्रभात

मंगलवार, 18 मार्च 2008

पके आम सा मन हुआ , रची पान सी प्रीत !!

कहा गया है, कि मन और बुद्धि के समर्पण की दिशा में एकता का रंग भरते हुए जीवन रूपी प्रवृतियों के कलश में संस्कार की मर्यादा को उतारना और आपसी प्यार व विश्वास के पवित्र पलों की अनुभूति कराते हुए एक-दूसरे के साथ मिलकर सादगीपूर्ण जीवन को रंगमय कर देना ही होली है ......फागुनी वयार बहने लगी है और वातावरण धीरे-धीरे होलीमय होता जा रहा है , तो आईये परिकल्पना के संग महसूस कीजिये फागुन को -
तन पे सांकल फागुनी, नेह लुटाये मीत !
पके आम सा मन हुआ , रची पान सी प्रीत !!
महुआ पीकर मस्त है, रंग भरी मुस्कान !
झूम रहे हैं आँगने, बूढे और जवान !!
धुप चढी आकाश में , मन में ले उपहास !
पानी-पानी कर गयी , बासंती एहसास !!
चूनर- चूनर टांकती , हिला-हिला के पाँव !
शहर से चलकर आया, जबसे साजन गाँव !!
मंगलमय हो आपको , होली का त्यौहार !
रसभीनी शुभकामना, मेरी बारम्बार !!
() रवीन्द्र प्रभात

रविवार, 16 मार्च 2008

सखी री फागुन आया है !


सरस नवनीत लाया है ,
सखी री फागुन आया है !!

बरगद ठूंठ भयो बासंती , चंहु ओर हरियाली ,
चंपा, टेसू , अमलतास के भी चहरे पे लाली ,
पीली सरसों के नीचे मनुहारी छाया है !
सखी री फागुन आया है !!

तन पे, मन पे सांकल देकर द्वार खड़ी फगुनाहट,
मन का पाहुन सोया था फ़िर किसने दी है आहट,
पनघट पे प्यासी राधा के सम्मुख माया है !
सखी री फागुन आया है !!

हाँथ कलश लेकरके चन्द्रमा देखे राह तुम्हारी ,
सूरज डूबा , हुई हवा से पाँव निशा के भारी ,
बूँद-बूँद कलशी में भरके रस छलकाया है !
सखी री फागुन आया है !!

ठीक नहीं ऐसे मौसम में मैं तरसूं - तू तरसे ,
तोड़ के सारे लाज के बन्धन आजा बाहर घर से ,
क्यों न पिचकारी से मोरी रंग डलवाया है !
सखी री फागुन आया है !!
()रवीन्द्र प्रभात

शनिवार, 15 मार्च 2008

चीखते-बोलते बेहिचक , आदमी बेजुवां देखिए !



हरतरफ हादसा देखिए !

देश की दुर्दशा देखिए !!

क्षेत्रवादी करे टिप्पणियाँ -

देश का रहनुमा देखिए !!

लक्ष्य को देख करके कठिन-

कांपता नौजवां देखिए !!

भर दिए कैसेटों में जहर -

जुर्म की कहकशां देखिए !!

गा रहे गीत गूंगे सभी -

संजीदा है हवा देखिए !!

वो कहने को बांहों में हैं -

फ़िर भी ये फासला देखिए !!

चीखते-बोलते बेहिचक -

आदमी बेजुवां देखिए !!

बेच करके चमन चल दिया-

बाग़ का पासबां देखिए !!

जालिमों को करो अब रिहा-

मुन्सिफों के वयां देखिए !!

"प्रभात" गुमनाम है यूं मगर-

शायरी की जुबां देखिए !!

() रवीन्द्र प्रभात

मंगलवार, 11 मार्च 2008

यह पता चलता नही अब कौन किसका बाप है !

आजकल के माहौल पर अपनी संवेदनाओं को प्रदर्शित करने के कई माध्यम हैं, आप चाहें तो लंबा चिट्ठा भी तैयार कर सकते हैं और महज सात शब्दों के हाईकू के माध्यम से भी अपने समाज का आईना प्रस्तुत कर सकते हैं . माध्यम कुछ भी हो सकता है आलेख, व्यंग्य, लघु कथा, कहानी, गीत, ग़ज़ल, दोहे, हाईकू आदि. कुछ भी कहें सार्थक कहें.....हमारे लिए आज जब ब्लॉग अभिव्यक्ति का एक माध्यम बना है तो क्यों न अपनी अभिव्यक्ति को नित नया आयाम दिया जाए ? ....कहा गया है कि यदि लेखन में अस्तित्व-बोध, रागात्मक संवेदना, दार्शनिक आस्वाद के साथ-साथ समय-बोध और भारतीयता का आग्रह लेखन का मूल विषय है, तो ज़िंदगी से जुड़े प्रतीकों और ताजे बिंबों के जरिये आप अपनी अनुभूतियों को अत्यन्त सघनता से रखने में सफल हो जाते हैं ...शिल्प और संवेदना लेखन की वेहद महत्वपूर्ण कसौटी होती है , जिसे लेखन में नजर अंदाज़ नही किया जा सकता ....!
इसमें कोई संदेह नही कि आज ब्लॉग लेखन में जिस आनुभूतिक उष्मा और कहन के लिए जिस तहजीव की जरूरत महसूस होती है, उसे कई चिट्ठाकारो द्वारा बखूबी निर्वाहा जा रहा है . मेरे समझ से वही चिट्ठाकार ज्यादा दिनों तक सक्रिय रह सकते हैं जो समय और वातावरण के प्रति पूर्ण सजग रहेंगे.. ...!
विगत रविवार को मेरे द्वारा ब्लॉग पर दो गज़लें प्रस्तुत की गयी थी , जिसकी व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं .मित्रों के बहुत सारे मेल प्राप्त हुए, सबने अपने-अपने ढंग से उन दोनों ग़ज़लों को परिभाषित किया, अपने-अपने ढंग से सोचा-समझा और महसूस किया .कुछ मित्रों ने इन सम सामयिक ग़ज़लों को लगातार जारी रखने का आग्रह भी किया तो कुछ ने पिष्ट-पेशन मात्र ही कहा . अच्छा लगता है जब कोई पाठक किसी कृतित्व का मूल्यांकन परक टिप्पणी नीर-क्षीर विवेक के आधार पर करे ।
दरअसल ग़ज़लों से मेरा अनुराग काफी पुराना है , विभिन्न विषयों पर मैंने साहित्य की समस्त विधाओं में विगत दो- ढाई दशकों से लगातार लिख रहा हूँ, किंतु अपनी अभिव्यक्ति को सबसे ज्यादा धार मैंने ग़ज़लों में ही दिया है , इसलिए ग़ज़ल के माध्यम से युग-बोध को सही ढंग से आत्मसात करने में मुझे ज्यादा सहूलियत होती है. जिन लोगों ने मेरी ग़ज़लों को पसंद किया है उन्हें मेरा आत्मिक आभार !
यद्यपि कई मित्रों ने ग़ज़लों का यह सिलसिला जारी रखने का आग्रह किया है, मैं उनकी भावनाओं को प्रणाम करता हूँ , किंतु यह संभव कैसे हो सकता है ? ब्लॉग पर रस परिवर्तन भी आवश्यक है , कभी कविता, कभी ग़ज़ल , कभी दोहे , कभी हाईकू , कभी गीत तो कभी व्यंग्य का क्रम चलता रहे तो पठनियता बनी रहती है . अपने समस्त शुभ चिंतकों एवं मित्रों का पुन: आत्मिक आभार व्यक्त करते हुए प्रस्तुत है एक और सम सामयिक ग़ज़ल ....इस ग़ज़ल को मैंने अपने एक वरिष्ठ कवि स्व. पांडे आशुतोष की इन पंक्तियों से प्रेरित होकर लिखा है , जिसमें उन्होंने कहा है कि -
" धरम-युद्ध, प्लावन, अनाचार, तृष्णा,
बहुत क्षुब्ध हूँ, घर के वातावरण से !"
आज़कल आप जिधर भी नज़र दौडायेंगे , लूट-हत्या-खौफ-कत्लेयाम के अतिरिक्त कुछ भी नही पायेंगे ... हमारा मुल्क एक तरह से स्वार्थ का बाज़ार बनता जा रहा है और राजनीति से मर्यादाएं विलुप्त होती जा रही है , प्रस्तुत है इसी पृष्ठभूमि पर मेरी एक छोटी सी ग़ज़ल-
ज़िंदगी वरदान उसकी है या एक अभिशाप है ,
हम समझ पाते नहीं क्या पुण्य है क्या पाप है !

जब खुदा के घर में लेते उग्रवादी हों शरण-
व्यर्थ हैं सब आयतें और व्यर्थ हरी का जाप है !

दोस्ती का है लबादा जो पहन बैठा यहाँ-
उससे बढ़कर कौन दूजा आस्तीन का साँप है !

आज कल की राजनीति का चलन तो देखिये -
यह पता चलता नहीं अब कौन किसका बाप है !
काँप जाते बेटियों के जिस्म का हर पोर जब-
पूछता है कोई दर्जी क्या बदन का नाप है !

हादसे के बाद आए एक सिपाही ने कहा-
"प्रभात" तुमको हो न हो पर मुझको पश्चाताप है !

(रवीन्द्र प्रभात )

रविवार, 9 मार्च 2008

आप कहते हो मियाँ सब छोड़ दो भगवान पर ?

विगत एक सप्ताह के अपने अनुभवों को बांटने में यदि गद्य का सहारा लिया जाए तो काफ़ी समय की जरूरत होगी , तो मैंने सोचा कि क्यों न आज उस बात की चर्चा की जाए जो विगत एक सप्ताह की सबसे महत्वपूर्ण है ।विगत एक सप्ताह से उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार के कुछ क्षेत्रों की यात्रा पर था , कहीं कवि -सम्मेलन तो कहीं व्यक्तिगत आमंत्रण । अत्यन्त थकाऊ और भागमभाग भरी यात्रा । बहुत दिनों के बाद आज जब ब्लॉग पर आया तो सोचा क्यों न विगत एक सप्ताह की अपनी भडास निकाल लूँ , मगर यात्रा की थकान के बाद का रविबार अत्यन्त व्यस्त होता है और उसमें कुछ लिखने हेतु समय भी कम । बिहार की यात्रा के क्रम में मैं जहाँ भी जाता लोग मुम्बई में चल रही उत्तर भारतीय और मराठियों के बीच के मतभेद की बातें करते रहे , जितनी मुंह उतनी बातें । राज ठाकरे ने ऐसा किया , बाला साहब ने ऐसा किया .....आदि-आदि । लेकिन यदि देखा जाए तो यह स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होता है कि यह विवाद और कुछ नही राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई की उपज है । इस विवाद को हवा देने का काम हमारे नेताओं ने खुलकर किया है , चाहे वह महाराष्ट्र के हों अथवा बिहार के या फ़िर उत्तर प्रदेश के , सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं । अफ़सोस तो इस बात का है कि इसमें आखिरकार नुकसान आम नागरिकों का होता है , नेताओं का नही । प्रस्तुत है उन सभी नेताओं को कोसती हुयी एक ग़ज़ल , जिसने राजनीति की रोटी हमारे पेट की आग पर सेंकने की कोशिश कर रहे हैं , चाहे वह महाराष्ट्र के हों चाहे उत्तर भारतीय -


बहुत है नाज तुमको आजकल अपनी उड़ान पर ।


पछताओगे जब आओगे एक दिन ढलान पर ॥



फर्क इतना है कि हम उन पत्थरों को तोड़ते -


जिन पत्थरों को फेंकते हो तुम किसी इंसान पर ॥



ठोकरें खाने से पहले जो संभल जाते नहीं -


लड़खडा जाते अचानक टूटते अरमान पर ॥



परछाईयाँ भी छोड़ देती साथ गर्दिश में -


सख्त हो जाती हवाएं उम्र के अवसान पर ॥



कर गया "प्रभात"गैरों के हवाले जो चमन -


देखिये उस पासवां को फक्र है ईमान पर ॥


इसी बीच कुछ और बातें यात्रा के क्रम में अखबार पढ़ते हुए ज्ञात हुई , जिसे मैंने ग़ज़ल का रूप दे दिया । ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है-


रो रही पूरी आबादी मुल्क के अपमान पर ।


आप कहते हो मियाँ सब छोड़ दो भगवान पर ?



बेचकर सरेआम अबला की यहाँ अस्मत कोई -


दे रहा है मंच से भाषण दलित उत्थान पर ॥



क्या जरूरत आ पडी सत्कर्म से पहले कि अब -


उंगलिया उठने लगी है देश में भगवान पर ?



अम्न मेरे मुल्क की तहजीब है बस इसलिए -


बच गए हैं ठेस पहुँचाकर मेरे सम्मान पर ॥



हम गरीबों की यही फितरत रही है दोस्तों -


हो गयी बेटी बड़ी नज़रें है छप्पर-छान पर ॥


आज बस इतना हीं ........ ।



 
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